tag:blogger.com,1999:blog-3781544463522842555.post8088722686870015995..comments2024-03-18T11:08:06.414+05:30Comments on लिखो यहां वहां: ओम प्रकाश वाल्मीकि पर विजय गौड़विजय गौड़http://www.blogger.com/profile/01260101554265134489noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-3781544463522842555.post-68556449637342438692017-11-19T07:56:14.206+05:302017-11-19T07:56:14.206+05:30मार्मिक संस्मरण। वाल्मीकि जी के व्यक्तित्व के विभि...मार्मिक संस्मरण। वाल्मीकि जी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने के साथ साथ आप दोनों के निकट संबंधों को भी बड़ी गहराई से समझा जा सकता है। जिस दलित विमर्श की साख आज हिंदी में जम चुकी है उसके शुरुआती दौर को जानना अच्छा लगा। वाल्मीकि जी सच में असमय और उस समय गते जब वह साहित्य को और भी बहुत कुछ दे सकते थे। आत्मीय की मृत्यु किसी कोभी तोड़ने के लिए काफी होती है। आपकी पीड़ा और बेचैनी का अनुमान भर लगाया जा सकता है विजय उसे समझा नहीं जा सकता।गीता दूबे, कोलकाताhttps://www.blogger.com/profile/17548414461415837685noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3781544463522842555.post-71143750484240537662013-11-21T07:43:05.416+05:302013-11-21T07:43:05.416+05:30अन्यायपूर्ण है यह, वाल्मीकि जी का यूं असमय जाना । ...अन्यायपूर्ण है यह, वाल्मीकि जी का यूं असमय जाना । अभी उन्हें कितना काम करना था । लिखने की ढेरों योजनाएं उनके जेहन में थीं । मुझे भी उनसे बहुत सी बातें और बहसें करनी थीं । देहरादून के दिनों में और कभी कभी उसके बाद भी उनसे कुछ बहसें होती रही थीं लेकिन वे हमेशा अधूरी छूट जाती रहीं, कभी अपनी परिणति पर नहीं पहुंचीं । अब शायद अवकाश मिलता उन्हें पूरा करने का । लेकिन उनके असमय निधन ने इन सब पर पर्दा डाल दिया । <br /><br />हिंदी की कितनी ही महत्वपूर्ण बहसों के वे इनीशिएटर रहे । 'कफ़न' कहानी को पढ़ने का एक बिलकुल अलग नजरिया उन्होंने दिया था । दलित साहित्य के संदर्भ में स्वानुभूति और सहानुभूति का सवाल भी सबसे पहले उन्होंने ही उठाया था । आप उनसे असहमत हो सकते थे, जैसे हममें से अनेक थे ही बहुत सारे सवालों पर, लेकिन उन सवालों की उपेक्षा करना किसी के लिए भी मुमकिन न था । <br /><br />हमारी बौद्धिक दुनिया और दोस्तों की दुनिया, दोनों को कुछ छोटा और गरीब बनाकर वे चले गए । संवेदना की गोष्ठियों में भे वे ऐसा ही करते थे । थोड़ी देर से पहुंचना, अपनी कहानी पढ़ना और विदा । कभी कभी वे कहानी पर उपस्थितों की राय जानने के लिए भी नहीं रुकते थे । "कुछ ज़रूरी काम है" वे कहते थे । बिलकुल उसी अंदाज़ में वे चले गए । लेकिन वाल्मीकि जी, हमारी याद से जाना, यह आपके बस में नहीं है ।<br /><br />योगेन्द्र आहूजा Yogendra Ahujanoreply@blogger.com