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Sunday, October 22, 2023

पेशगी अन्दर रखी है


डा अतुल शर्मा


द मिनिएचरिस्ट आफ जूनागढ़





21 अक्टूबर 2023 की शाम दून लाईब्रेरी, देहरादून मे एक ऐसी फिल्म दिखाई गयी जो भारत पाक विभाजन पर केन्द्रित थी / पर इसके सादे और खामोश एक्स्प्रेशन मे दर्द भरा था, हर संवाद और दृष्य, ठहरे हुए और सादगी से आगे बढ़ रहे थे,, जिसकी अदृश्य पीड़ा और चीख महसूस की जा सकती थी,,, 

पाकिस्तान जा रहे मुसव्विर और परिवार से एंटीक सामान, मकान, खरीदने खरीदार किशोरी लाल बिक्री के कागज़ पर हस्ताक्षर लेने आता है और उसकी मुलाकात एक अंधे मिनिएचर आर्टिस्ट से हो जाती है / वह जो पेंटिंग उसे दिखाता है वह दर असल कोरे कैनवास ही होते हैं,,, क्योंकि बेशकीमती मिनियेचर तो उनकी पत्नी और बेटी ने बेच दिये थे,,, स्थिति सामान्य करने के लिए/ खरीदने वाले किशोरी लाल के प्रति पहले घृणा भाव दिखता है पर जब वह बूढ़े आर्टिस्ट के कहने पर तसवीर की तारीफ नही करता जो कोरे कागज ही होते है तो बेटी के इशारे को समझ कर वह कहता है कि चुप्पी ही जुबान है,,,, / 

ऐसे बहुत से अद्भुत संवाद है इसमे / जब वह जाने लगते है तो वह कहते हैं कि जब स्थित सामान्य हो जायेगी तो हम फिर आयेगे और अपना मकान तुमसे खरीद लेगे,,, पेशगी अन्दर रखी है,,,, जब खरीदने वाला उस पेशगी को देखता है तो वह आर्टिस्ट के हाथों से बनाई राधा कृष्ण की तसवीर होती है,,,, 


शुरु मे जब वह अपनी बेटी नूर के साथ चाय पीते है तो कहते है कि प्याले मे आखिरी घूट छोड़ देना क्यो कि वह जूनागढ़ की याद दिलाती है और वापसी की भी,,, ऐसा ही कुछ अभूतपूर्व संवाद थे ये,,,, 

विभाजन पर केन्द्रित इस फिल्म मे नसीरुद्दीन शाह, ने बेहतरीन अभिनय किया / साथ ही सभी ने परिपक्व अभिनय किया,,,, जिनमे,,,, राशिका  दुग्गल, राज अर्जुन, पद्मावती राव उदय चंद्र, शामिल है/ संगीत और वातावरण के साथ एडिटिंग बेहतरीन थे / 

निर्देशन कौशल झा का था / 


फिल्म आधे घंटे की थी पर भाई बीजू नेगी द्वारा उसपर दर्शको से चर्चा करने की सार्थक पहल यादगार रही / हिन्द स्वाज्य की टीम ने जगह जगह इसे और अन्य फिल्म व विभिन्न विधाओं को प्रदर्शित व चर्चा करने का भी निर्णय लिया / 


इसमे चन्द्र शेखर तिवारी, विजय भट्ट हरिओम पालीअरुण कुमार असफल , इन्देश नौटियाल और युवाओं ने सक्रिय भागीदारी की / 


(सभी तस्वीरें इंटरनेट से साभार दी जा रही हैं) 

Tuesday, September 26, 2023

कथाकार विवेक मोहन की स्मृतियों के साथ कवि अतुल शर्मा

देहरादून के रचनात्मक माहौल पर यदि एक निगाह डाली जाए तो कविताओं की बनिस्पत कहानियों की एक विस्तृत दुनिया दिखायी देती है। यहां तक कि कवियों की तरह ही जिन रचनाकारों ने अपने लेखन की शुरुआत की और सतत कविताएं लिखते भी रहे, उन रचनाकारों को भी कहानीकार के रूप में ही पहचाना गया। अकेले ओम प्रकाश वाल्मिकि ही इसके उदाहरण नहीं, जितेन ठाकुर का नाम भी उल्लेखनीय है।

अब यदि विस्मृति की गुफा में झांके तो देशबंधु और विवेक मोहन दो ऐसे कथाकारों की छवि उभरती है जो अपनी शुरुआती कहानियों से ही देहरादून के साहित्य समाज में अपनी अलग छवि के रूप में चमक उठे थे। लेकिन काल की अबूझ गति को उनकी रोशनी भाई नहीं शायद और असमय ही वे इस दुनिया को छोड़ गये।

विवेक मोहन ने कई महत्वपूर्ण कहानियां लिखी जो 90 c आस पास निकलने वाली लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है।

कथाकार विवेक मोहन की स्मृतियों को सांझा कर रहे हैं, लेखक और कवि अतुल शर्मा। 


अतुल शर्मा

वृंदा एनक्लेव फेज़ बंजारा वाला देहरादून




बात चालीस साल से भी पहले की होगी,,,,, पल्टन बाजार मे एक जूतों की दुकान थी । घंटाघर से जहाँ पल्टन बाजार शुरू ही होता है उसके सामने इलाहाबाद बैंक होता था और उसी की दीवार पर एक गोल और बडी़ घड़ी लगी रहती थी,,, पल्टन बाजार की तरफ । बस उसी घड़ी के ठीक सामने यह दुकान थी । हुआ यह कि एक दिन तेज़ बारिश से बचने के लिए मै इस जूतों की दुकान से चला गया । मैने पूछा कि क्या मै यहाँ बारिश रुकने तक रह सकता हूँ तो वहाँ उपस्थित व्यक्ति ने हामी भरी और मुस्कुराते हुए मुझे एक स्टूल भी दिया बैठने के लिए । बारिश लगभग ढाई घंटे तक नहीं रुकी । और इस ढ़ाई घंटे मे उस व्यक्ति से लम्बी बात चीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वह इस संस्मरण लिखने तक जारी है,,, यही थे विवेक मोहन। वैसे नाम तो उनका बाबा दत्ता था पर कहानी लिखने के सिलसिले ने उन्होंने अपना नाम विवेक मोहन रख लिया । फिर तो जब भी उस तरफ जाते तो उस दुकान मे ज़रूर बैठना होता । वह ऐसी दुकान थी जहाँ खरीदार कम ही आते थे । लेडीज़ सैंडिल और चप्पल ज़यादा थीं । वही साहित्य चर्चा होती । मेरी एक कविता साप्ताहिक हिंदुस्तान मे छपी थी तो उनके अनुरोध पर आनन्द पुरी मे जलेबी खाई गयी । भगवानदास क्वाटर्स मे सीढ़ियां चढ़ कर उनका घर था । भाभी जी और बिटिया रम्पी से वहीं मुलाकात हुई थी । घर मे पुरानी पत्रिकाओं को विवेक ने सम्भाल कर रखा था । उनमे से एक थी,,,, देहरादून से छपने वाली पत्रिका ' छवि' यह शायद सन् 60 के आसपास भास्कर प्रेस से छपती थी । इस अंक मे शेर जंग गर्ग, कहानी कार शशिप्रभा शास्त्री, कहानी कार राजेन्द्र कुमार, आदि की रचनाये छपी थीं। 

वहीं पर पहली बार मैने विवेक मोहन की कहानियों का रजिस्टर और बैग देखा जिसमे पन्द्रह बीस कहानियाँ थी । उनकी एक लम्बी कहानी " तबेले" वहीं सुनी । बहुत अच्छी और सशक्त कहानी थी यह । ऐसा माहौल बनता था कहानी मे जो दृष्य पैदा कर देता था । पात्र और उनकी परिस्थितियों का बारीक वर्णन । चर्चा आगे बढ़ना तो मैने कहा कि भाई इसको संग्रह के रूप मे लाओ,,,, मुश्किल काम था पर प्रयास किया,,, और सफलता नही मिली । 

पर उससे पहले एक और कठिन काम था कि इन सारी कहानियों को पढा़ गया । एक कहानी लगभग पंद्रह या दस पेज की तो थी ही। कभी जूतों की दुकान मे, कभी हमारे सुभाष रोड स्थित मकान मे, कभी गांधी पार्क तो कभी रेंजर्स कालेज ग्राउण्ड मे कहानी पढ़ी गयीं । बहुत जबरदस्त कहानियाँ थीं । वास्तविकता के करीब । सरल शब्दों । बोलचाल की भाषा । और उनके प्रति गम्भीरता। 

विवेक भाई अब हमारे पारिवारिक सदस्य की तरह हो गये थे । सुबह ही घर आ जाते और दोपहर खाना खा कर ही जाते । 

उन्हे जगजीत सिंह की ग़ज़लें बहुत पसंद थीं । कहते कि इनमे गले बाजी बहुत कम है और सहज हैं। अखबार लेते थे पंजाब केसरी। उसमे उनकी कहानी भी छपी थी । 

एक बार उनके घर कहानीकार सैली बलजीत आये तो मैने अपने घर पर एक गोष्ठी रखी थी,,,, वहाँ बहुत से रचनाकारों को भी बुलाया था । बलजीत ने विवेक मोहन की कहानी पढ़ी थी और विवेक ने सैली बलजीत की । 

आज सुबह जब भाई विजय गौड़ ने विवेक मोहन पर लिखने को कहा तो बहुत सी यादें आ बैठीं मेरे पास । 

हमने एक सिलसिला शुरू किया था कि महीने मे एक बार किसी रचना कार के घर जाते और गोष्ठी होतीं । उस रचनाकार को एक मोमेंट भी दिया जाता । इसी सिलसिले मे विवेक मोहन के घर भी गोष्ठी हुई थी । 

बहुत सी स्मृतियाँ है । 

एक दिन विवेक आये तो उनकी सांस फूल रही थी । बात करते हुए खांसी भी आ रही थी । वह अपना बैग संभाल कर बैठ गये । और बताया कि आज गाधी पार्क मे एक कहानी की शुरुआत की है । उन्होंने बैग से एक पत्रिका निकाली और मेरी तरफ बढायी । यह सारिका थी । मैने पन्ने पलटे तो उसमे मेरी कहानी छपी थी,,,, " पार्क की बैंच पर चश्मा"। नैशनल न्यूज़ एजेन्सी से खरीद कर लाये थे वे । उनके चेहरे की मुस्कान नहीं भूल पाता । 

 

वे बाहर गये हुए थे । काफी दिन वहाँ रहे । और फिर कभी नही आये । 

वहीं उनका देहांत हो गया । मन शोक से भर गया । 

 

पर वे जीवित है यादों मे। बहुत सी यादे है,,,, 

दून स्कूल मे एक गोष्ठी आयोजित की तो वहाँ विवेक भाई ने कहानी सुनाई तो रचनाकार अवधेश कुमार ने कहा कि ये तो प्रसिद्ध कहानी द कार्पेट से मिलती जुलती है,,,, उसके बाद विवेक न दो महीने तक द कार्पेट कहानी ढूंढ निकाली और पढी़ ,,,, वह कहानी विवेक की कहानी से अलग थी पर उसमे भी कालीन का जिक्र था और इसमे भी,,, अवधेश बहुत गम्भीर रचनाकार थे तो उनकी बात को भी विवेक ने गम्भीर होकर समझा और अपनी कहानी मे बदलाव की सोचने लगे,,, फिर बदलाव नही कर पाये, वे बस कालीन हटा कर कुछ और करना चाहते थे । 

 

एक गम्भीर कहानीकार और सह्रदय इंसान के रूप मे वे आज भी मेरी यादों मे हैं  

 


Thursday, June 12, 2008

नदी को बहता पानी दो

(आज ज्यादा कुशलता से जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करती व्यवस्था का चक्र बड़ी तेजी के साथ घूम रहा है। प्रतिरोध की कार्यवाहियों में जुटी जनता के संघर्षों का दौर भी हमारे सामने है। एक समय पर चिपको आंदोलन की पृष्ठभूमि में जंगलो को बचाने की लड़ाई लड़ने वाला उत्तराखण्ड का जनमानस आज नदी बचाओ आंदोलन की आवाज को बुलन्द कर रहा है। अशोक कबाड़िये ने जिस अतुल शर्मा को अपने कबाड़ में से ढूंढ निकाला था वही अतुल शर्मा नदियों के बचाव के इस आंदोलन में अपने गीतों के साथ है। अतुल शर्मा के मार्फत ही नदी बचाओ आंदोलन की उस छोटी सी, लेकिन महत्वपूर्ण कोशिश को हम जान सकते है। अतुल मूलत: कवि है। जो कुछ यहां है, वह कविता नहीं है पर कविता की सी संवेदनाओं से भरे इस आलेख को रिपोर्ट भी तो नहीं कहा जा सकता।



अतुल शर्मा 09719077032


अब नदियों पर संकट है, सारे गांव इक्ट्ठा हों


नदियों पर बांध बनेगें ---! छोटे-छोटे बांध। उससे बिजली उत्पादन होगा। बिजली सबके लिए जरुरी है। तो फिर क्यों हुआ इन बांधों को लेकर विरोध ? विरोध भी ऐसा कि गांव का गांव इक्टठा हो गया। पुरुषों से ज्यादा महिलायें थी मार्चों पर। गांव को बचाने के लिए उनके सब्र का बांध टूट गया और वे सभी सड़कों, पगडंडियों और घरों से बाहर आ गये। खुले आकश के नीचे। क्या उन्हें बिजली नहीं चाहिए ? यह सवाल पिछले आठ साल से मेरे साथ रहा। पर उसके उत्तर भी मुझे मिलते रहे। विरोध करने वालों से ।

एक लघु जल विद्युत परियोजना में पूरी नदी को सुरंग में डाला जाता है और मिलों दूर से आने वाली नदी सूख जाती है। बिजली बनाने के लिए जितना प्रवाह चाहिए, उससे ज्यादा लिया जाता है। अब नदी के आस-पास के गांव सूख जाते हैं। सुरंग बनाने के लिए होने वाले धमाकों से स्रोत भी सूखने लगे। नदी के आस-पास के दस गांव जल संकट और खेतों और मकानों पर पड़ी दरारों के साथ जैसे-तैसे जीते रहे।

दरारों वाला जीवन जीते हुए उन्होंने बहुत सहा भी और कहा भी। पर क्योंकि बिजली जरुरी थी इसलिए नदी को सुरंग में डालना जरुरी था। गांवों को विस्थापन का जहर पीना था। विस्थापन के लिए कोई ठोस नीति पर बात नहीं हो रही थी। टिहरी बांध जैसे बड़े बांधों में आज भी विस्थापन की समस्या, समाधान के लिए भटक रहे हैं लोग।

कुमाऊ से लेकर गढ़वाल तक कई बांधों का काम निजि कम्पनियों को सोंप दिया गया। मुनाफे के लिए और बिजली उत्पादन के लिए काम शुरु हुआ ही था कि अपनी बुनियादी समस्याओं को लेकर लोग सामने आ गये।

यह आठ साल पुरानी बात है। टिहरी के फलेण्डा गांव में बांध बनना था। गांव और प्रशासन आमने-सामने थे। लोग भाषणों से अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। प्रशासन चुपचाप सुन रहा था। फिलहाल। भाषणों का सिलसिला कितना चलता ? वहीं के लोगें के साथ नुड़ नाटक जत्था तैयार किया गया। दिल्ली से आये राजेन्द्र धस्माना (पूर्व समाचार सम्पादक दूर दर्शन दिल्ली) ने बताया कि जब नाटक एक सुदूर गांव में जन-मानस को उद्वेलित कर रहा था, तो मैंने पूछा, "तुम अतुल को जानते हो ? अतुल शर्मा।" उन्होंने बताया कि उन्होंने ही तो हमें यह नुक्कड़ नाटक तैयार कराया है। नाटक का नाम था, क्या नदी बिकी। उन्होने ने ही बताया था कि इस आंदोलन का पहला गीत अतुल ने ही लिखा, "अब नदियों पर संकट है, सारे गांव इक्टठा हो ---। "

यह "सारे गांव इक्टठा हों" एक जिजीविषा से भरे आंदोलन का सार्थक नारा बन गया।

नदी बिकी भई नदी बिकी

अब "नदी बचाओ आंदोलन" के तहत व्यापक रणनीति बननी शुरु हुई। नदियों में "कोसी", अलखनन्दा, जमुना, भिलंगना, भागीरथी पर बनने वाले दर्जनों बांध सवालों के घेरे में खड़े कर दिये गये। यह गांव के लोगों की ही ताकत थी।

जो तकलीफ में होता है - अगर वही बोलेगा तो निश्चित उसका सार्थक और व्यवहारिक असर होगा।

अगर नदियों के आस पास संसकृतियां पलती थी तो आज नदियों के आस-पास सूखा पड़ा है। कुछ लोगों ने तो यह तक कहा कि ऐसा ही रहा तो गंगा दिखेगी नहीं।

जंगलों, वन्य जीवों और नदी के भीतरी संसार को तहस नहस करने वाली भागेवादी सभ्यता को व्यवहारिक स्वरूप् मिलेगा - ऐसा नदी के किनारे रहने वाले लोगों का कहना है। उन्हें छोटे बांध से आपत्ति नहीं है। पर उनकी कार्यशैली और उनकी भागीदारी पर सवाल जरुर है।

नदी को बेचकर, जंगलों, पहाड़ों और श्रम और श्रमिक को खरीदकर पूरे वर्तमान को परेशानियों में डालना कुछ लोगों के लिए ठीक होगा, पर भविष्य के लिए यह खतरे की घन्टी है।

कहते हैं अगला विश्व युद्ध पानी की समस्या को लेकर हो सकता है ---। ऐसा न हो, ऐसा चाहते हैं लोग। बहुत से लोग। बोलने वाले लोग। आवाज उठाने वाले लोग।

पर इस सबके लिए "बीच तूफानों" में जाना होगा। "नदी बचाओ आंदोलन" में गांव की ही प्रमुख भूमिका है। वे अपनी जीवन रेखा, "नदियों" , को बचाना चाहते हैं। स्वंय को बचाना चाहते हैं और भविष्य को भी बचाना चाहते हैं। इनके साथ राधा भटट, सुरेश, राजेन्द्र सिंह, रवि चोपड़ा, शमशेर सिंह, गिर्दा, नरेन्द्र नेगी, शेखर पाठक, अनुपम मिश्र भी मजबूती के साथ खड़े हैं।

गांव और नदी के साथ मेरे आठ साल के संस्मरण हैं। जिन्हें नदी दर नदी और गांव दर गांव पहुंचकर लिखा है और वहीं सौंप दिया है। यह उसका परिचय भर है।

---आज गांव के लोगों के लोक जलनीति को मसैदा तैयार किया और शासन प्रशासन को सौंपना चाहा। उन्हें सबको गिरफ्तार किया गया।

"यहां कोई जलनीति नहीं है ।।।।"

इसीलिए मेरा एक जनगीत लोगों के काम आता है -

नदी को बहता पानी दो
हर कबीर को वाणी दो
सिसकी वाली रोतों को
सूरज भरी कहानी दो।
अब शब्दों पर संकट है
सारे गांव इक्टठा हों
आवाजों पर संकट है
सारे गांव इक्टठा हों

गांवों के घरों की छोटी बड़ी दीवारों पर आंदोलनी परम्पराओं से लिखा यह गीत सिपाही की तरह काम कर रहा है।

इस जत्थे को लेकर, हम खटीमा, नैनीताल, अल्मोड़ा, कौसानी, बागेश्वर होते हुए श्रीनगर, नई टिहरी, देहरादून, फलेण्डा, बूढ़ा केदार, घनसाली, झाम, चिन्याली सौड़, रुड़की, धरासू, उत्तरकाशी, बड़कोट, नौगांव, मोरी, पुरोला और फिर प्रभावित गांवों में गये। इसकी पुस्तकें-पोस्टर बटे। अब यह जत्था अपने नये तेवर के साथ स्वंय आवाज उठा रहा - नदियों के मार्फत जीवन के समर्थन में ---।