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Sunday, July 10, 2011

किसी प्रात: स्मरण में जिक्र नहीं टट्या भील का

   धर की युवा कविता में हमें अतिवाद के दो छोर दिखाई देते हैं कुछ कवियों में शिल्प के प्रति अतिरिक्त सतर्कता है तो कुछ में घोर लापरवाही । अतिरिक्त सजगता के चलते जहां कविता गरिष्ठ एवं अबोधगम्य हुई है तो घोर लापरवाही के चलते लद्धड़ गद्य। अतिरिक्त सजगता का आलम यह है कि पता ही नहीं चलता है कि आखिर कवि कहना क्या चाह रहा है । दरवाजे से भारी सांगल मुहावरा इन कविताओं पर चरितार्थ होता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कथ्य शिल्प के लिए नहीं होता है बल्कि कथ्य के लिए शिल्प होता है। ये कविताएं शिल्प के बोझ तले दम तोड़ती हुई लगती हैं। दूसरी ओर शिल्प के प्रति घोर लापरवाही के बीच यह ढूंढना मुश्किल हो जाता है कि अमुक कविता में वह कौनसी बात है जो उसे कविता बनाती है या गद्य से अलगाती हैं। ये दोनों ही स्थितियां  कविता के लिए अच्छी नहीं हैं । दोनों ही पाठक को कविता से दूर करती हैं । बहुत कम युवा कवि हैं जो इन दोनों के बीच का रास्ता अख्तियार करते हुए संतुलन बनाकर चलते हों। अशोक कुमार पांडेय इनमें से ही एक हैं । अशोक की कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी है। वह जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देते हैं।उनकी भा्षा काव्यात्मक है लेकिन उसमें उलझाव नहीं है। उनकी कविताएं पाठक को कवि के मंतव्य तक पहुंचाती हैं। जहां से पाठक को आगे की राह साफ-साफ दिखाई देती है।  यह विशेषता मुझे उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत लगती है। अच्छी बात है अशोक अपनी कविताओं में अतिरिक्त पच्चीकारी नहीं करते। उनकी अनुभव सम्पन्नता एवं साफ दृष्टि के फलस्वरूप उनकी कविता संप्रेषणीय है और अपना एक अलग मुहावरा रचती हैं। उनकी कविताएं अपने इरादों में राजनैतिक होते हुए भी राजनैतिक लगती नहीं हैं। कहीं कोई जार्गन नहीं है। 
    
विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के बावजूद उनकी कविताओं में कहीं भी विचारधारा हावी होती हुई नजर नहीं आती है जबकि उनकी विचारधारा ने ही उनकी कविताओं को एक धार प्रदान की है। विचार को अपने अनुभवों के साथ इस तरह गूंथते हैं कि उसे अलगाना संभव नहीं है। कहीं से लगता नहीं कि किसी विचार को साबित करने के लिए कविता लिखी गई है , बल्कि इंद्रियबोध सबकुछ कह जाता है। प्रतिबद्धता के मामले में न कहीं कोई समझौता करते हैं और न कोई भ्रम बुनते हैं। जनता का पक्ष उनका अपना पक्ष है । जनता के सुख-दु:ख उनके अपने सुख-दु:ख हैं। उनकी कविताएं अपने समय और समाज की तमाम त्रासदियों-विसंगतियों -विडंबनाओं - अंतर्विरोधों -समस्याओं पर प्रश्न खड़े करती है तथा उन पर गहरी चोट करती हैं। यही चोट है जो पाठक के भीतर  यथास्थिति को बदलने की बेचैनी और छटपटाहट पैदा कर जाती है। यहीं पर कविता अपना कार्यभार पूरा करती है। प्रगति्शील-सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी का प्रभाव इन कविताओं में देखा जा सकता है। ये कविताएं "फाइलों में टिप्पणियों" की तरह लिखी जा रही ढेर सारी कविताओं से अलग हैं। विश्वास को किसी " बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन' होने से बचाने के लिए प्रतिबद्ध कविताएं हैं। अशोक  कविता को जीवन-यथार्थ के नजदीक ले जाते हैं हमारे रोजमर्रा के जीवन को कविता की अंतर्वस्तुु में तब्दील कर देते हैं। अपने पास-पड़ोस के जीवन में कवि की तरह नहीं बल्कि एक " पड़ोसी ' की तरह हस्तक्षेप करते हैं। जीवन में हाच्चिए में खड़े लोग इनकी कविता के केंद्र में चले आते हैं। ये लोग यहाघ् प्रतिरोध की मुद्रा में खड़े दिखते हैं। जीवन की उष्ण ,अनगढ़ तेजोमय दीप्ति के साथ सक्रिय जीवन की उपस्थिति इन कविताओं में दिखाई देती है।  

शोक उस दौर से कविता लिख रहे हैं जो विश्व व्यवस्था में सोवियत ढंग के ढहने तथा नई आर्थिक नीतियों के लागू होने का दौर था। पर उनकी कविताओं से मेरा परिचय उनकी कविता की दूसरी पारी से हुआ जो 2004 के आस-पास से शुरू हुई। उनकी कविताओं की वैचारिक परिपक्वता ,स्पष्टता एवं प्रतिबद्धता ने पहले-पहल उनकी ओर मेरा ध्यान खींचा। आम जन-जीवन पर वै्श्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के प्रभाव को अपनी कविता के माध्यम से जितने साफ-सुथरे ढंग से अच्चोक समझते एवं व्यक्त करते हैं युवा कवियों में उतना अन्य बहुत कम कर पाते हैं। उनकी कविताओं को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मैं निरंतर पढ़ता रहा हूं। एक साथ पढ़ने का अवसर इसी वर्षा  शिल्पायन से प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह  लगभग अनामंत्रित में मिला । इसमें 48 कविताएं संकलित हैं। इन कविताओं में जीवन की विविधता दिखाई देती है। इनमें जहां एक ओर वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण के प्रभाव की कविताएं है तो दूसरी ओर प्रेम की कोमल एवं सघन अनुभूति की भी। "प्रका्श की गति से तेज हजार हाथियों के बल वाला बाजार" और उसके "अंधेरों के खौफनाक विस्तार के खिलाफ" लड़ते हुए मजदूर-किसान उनकी कविताओं में हैं।  " वैश्विक गांव के पंच परमेश्वर"' हैं तो चाय बेचता अब्दुल और जगन की अम्मा भी। छत्तीसगढ़-झारखंड-उड़ीसा के जंगलों में अपनी जल-जंगल-जमीन के लिए लड़ते आदिवासी हैं तो अपनी आजादी के लिए लड़ती कच्च्मीरी जनता भी।गुजरात में साम्प्रदायिक कल्तेआम के बाद सहमे-सहमे मुस्लिमों और पिछले बारह साल से अनशन कर रही इरोम शर्मिला ,अहमदाबाद की नाट्यकर्मी फरीदा ,सींखचों के पीछे कैद सीमा आजाद को भी वे भूले नहीं हैं। स्त्रियों पर  उनकी अनेक कविताएं हैं जो हमें स्त्री संसार की अनेक विडंबनाओं एवं मनोभावों  से परिचित कराती हैं। सामाजिक रूढ़ियां ,विवाह संस्था की सीमाएं और ऑनर किलिंग भी कवि की चिंता की परिधि में हैं। इस तरह ये कविताए अपने चारों ओर के जीवन से संलाप करती हैं।
  
शोक कुमार पाण्डेय की कविताएं अपने समय तथा समाज से मुटभेड़ करती कविताएं हैं। समय की आहटों को कवि बहुत तीव्रता से सुनता और कविता में दर्ज करता है । समय की आंक उनके भीतर गहरे तक है।समाज में व्याप्त  शोषण-उत्पीड़न-अत्याचार से पैदा बेचैनी और उसके प्रति पैदा आक्रोश से शुरू होता है उनकी कविताओं का सिलसिला और उसके प्रतिपक्ष तक जाता है।  यह एक ऐसा समय है जिसमें एक युवा के सारे सपने एक अदद नौकरी पाने तक सिमट के रह जा रहे हैं जबकि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी और नौकरी जिंदगी की मजबूरी बन गई । बहादुरी किसी विवशता का परिणाम ।" एक सैनिक की मौत"  कविता में यह भाव सटीक रूप से व्यक्त हुआ है। निजीकरण के कारण आज सेना ,पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के अलावा नौकरी अन्यत्र रह नहीं गई है। यहां भी इसलिए है क्योंकि यह शासक वर्ग की जरूरत है। इन्हीं के बल पर तो हमारे दलाल शासक जनता के संसाधनों पर कब्जा जमाकर उन्हें बेदखल करने में लगे हुए हैं। इन्हीं के रहते हथियारों का व्यापार फल-फूल रहा है। इन नौकरियों रहते हुए जहां गरीब युवा भरती की भगदड़ में बच जाता है तो बारूदी सुरंगों में फघ्सकर मारा जाता है और " शहीद" हो जाता है । यह शहीद होना भी इसलिए नहीं कि वास्तव में दे्श के सामने कोई खतरा पैदा हो गया हो बल्कि किसी बहुरा्ष्ट्रीय कंपनी जो युद्ध का सामान बनाती है को लाभ पहुंचाने के लिए । दो देशों के बीच युद्ध किसी तीसरे के लाभ के लिए प्रायोजित होता है। इस युद्ध में शहीद होते हैं गरीब के बेटे। अशोक की यह कविता इस पूरे षड्यंत्र को पहचानती और हम सबको उससे सचेत करती है। वे पाते हैं कि इन्हीं के कारण जलियांवाला बाग फैलते-फैलते हिंदुस्तान बन गया है और देश इन दिनों बेहद मु्श्किल में है । पूंजीवादी व्यवस्था के पोषक अपने संसाधनों के हक-हकूक की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को जंगली और बर्बर तथा उनकी चीत्कार को अरण्यरोदन साबित करने में लगे हैं। यह सब सुनियोजित तरीके से हो रहा है। जंगल की शांति को अशांति में बदला जा रहा है। आदिवासियों का पिछड़ा ,असभ्य और असंस्कृत कहा जा रहा है । उनकी भाषा-संस्कृति को हेय दृष्टि से देखा जा रहा है। विकास के नाम पर उन्हें उनके घरों से खदेड़ा जा रहा है। जो इससे इनकार कर रहे हैं उन्हें अपराधी व राष्ट्रद्रोही करार दिया जा रहा है। इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कविता "अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्का" इस पूरे परिदृश्य को हमारे सामने गहराई से उदघाटित करती है। पूंजी परस्त शासक वर्ग की मानसिकता के  ताने-बाने को पूरा खोलकर पाठक के सामने ले आती है- उन्हें बेहद अफसोस / विगत के उच्छिष्टों से / असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिए / मनु्ष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर / थोड़ी दया ,थोड़ी घ्रणा और थोड़े संताप के साथ/ आदिवासी कहते उन्हें / उनके हंसने के लिए नहीं कोई बिंब /रोने के लिए शब्द एक पथरीला-अरण्यरोदन। इस वर्ग द्वारा इनकी हमे्शा कैसी उपेक्षा की गई इन पंक्तियों में बहुत अच्छी तरह व्यक्त हुआ है- हर पुस्तक से बहिश्क्रत उनके नायक /राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति / साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की /पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुंडा/किसी प्रात: स्मरण में जिक्र नहीं टट्या भील का / जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई सिंधू-कान्हू। इस उपेक्षा और शोषण के खिलाफ यदि कोई आवाज उठाता है तो वह अपराधी और राष्ट्रद्रोही घोषित कर  कुचल दिया जाता है- हर तरफ एक परिचित सा शोर / अपराधी वे जिनके हाथों में हथियार/अप्रासंगिक वे अब तक बची जिनकी कलमों में धार/वे दे्शद्रोही इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज/कुचल दिए जाएंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के खिलाफ। आदिवासियों का शोषण-उत्पीड़न हो या फिर किसानों की आत्महत्या कवि भली भांति जानता है कि इसके पीछे कौनसी ताकतें काम कर रही हैं-पूरी की पूरी फौज थी जादूगरों की /चली आई थी सात संमुदर पार से / शीशे-सी चमकती नई-नवेली सड़कों से / सरपट सवार दिग्विजयी रथों पर / हमारा सबसे ईमानदार नायक था सारथी। ऐसे में कवि का यह कहना बहुत प्रीतिकर लगता है - सदियों के विषपायी थे हम/वि्ष नहीं मार सकता था हमें। जनता का पक्षधर और उसकी ताकत पर वि्श्वास रखने वाला कवि ही इतने विश्वास और दृढ़ता से यह बात कह सकता है। 

क सच्चा संवेदनशील कवि कभी भी आधी दुनिया की उपेक्षा नहीं कर सकता है।  इन कविताओं का सबसे सघन एवं आत्मीय स्वर स्त्री विषयक है । संग्रह में सबसे अधिक कविताएं स्त्रियों से संबंधित हैं।वहां प्रेम भी है स्त्री विमर्श भी और पुरू्ष प्रधान सामंती मानसिकता पर करारी चोट भी । गहरी आत्मीयता के साथ बौद्धिक परिपक्वता भी। माघ् -पत्नी-बेटी -प्रेमिका के माध्यम से वे स्त्रियों की स्थिति पर अपनी बात बहुत तर्कपूर्ण ढंग से कह जाते हैं। इन कविताओं से गुजरते हुए पता चलता है कि अपने व्यक्तिगत एवं पारिवारिक संबंधों के प्रति संवेदन्शील और ईमानदार व्यक्ति ही बाहरी दुनिया के प्रति सच्चे रूप में संवेदनशील हो सकता है। " उदासी माघ् का सबसे पुराना जेवर है---तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका---माघ् के चेहरे पर तो / कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान--- '' अलग-अलग कविताओं ये पंक्तियां साबित करती हैं कि कवि स्त्री की पीड़ा को कितनी गहराई महसूस करता है।
   
वंश-परम्परा का आगे बढ़ना पुत्र से ही माना जाता है । इस बात को औरतें भी मानती हैं। उन्हें अपना नाम वश-वृक्ष में कहीं नहीं आने पर दु:ख नहीं होता है , दु:ख होता है तो इस बात पर कि अगली पीढ़ी में वंश-वृक्ष को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं है । कवि इसको तोड़ना चाहता है और धरती को एक नाम देना चाहता है । अर्थात लड़की को वंश-वृक्ष का वाहक बनाना चाहता है। सारा परिवार दु:खी है " कि मुझ पर रुक जाएगा खानदानी शजरा "' लेकिन कवि अपनी बेटी से पूरी दृढ़ता से कहता है - कि विश्वास करो मुझ पर खत्म नहीं होगा वह शजरा / वह तो शुरू होगा मेरे बाद / तुमसे ! ये शब्द जहां रूढियों का खंडन करते है वहीं स्त्री को समानता का दर्जा प्रदान करते हैं।कवि को लगता है पुरानी पीढ़ी को बदलना कठिन है इसलिए वह नई पीढ़ी से इसकी शुरूआत करना चाहता है।भ्रूण हत्या के इस दौर में कवि का यह संकल्प मामूली नहीं है। यह सामंती मूल्य का प्रतिकार है। इन कविताओं में नारी के प्रति कवि के मन का सम्मान भी प्रकट होता है। वही व्यक्ति स्त्री को धरती का नाम दे सकता है जो सचमुच उसका सम्मान करता हो। वही अपने भीतर औरत को टटोलना चाहता है ,उसकी भाषा में बात करना चाहता है उससे , उसी की तरह स्पर्श करना चाहता है उसे। अशोक यहां अपनी माघ् के दु:खों को याद करते हुए  स्त्री मात्र के दुख को स्वर देते हैं। कवि को चूल्हा याद आता है तो याद आ जाती है माघ् की -चिढ़-गुस्सा -उकताहट -आंसू  / इतना कुछ आता है याद चूल्हे के साथ / कि उस सोंधे स्वाद से / मितलाने लगता है जी--- ये चिढ़ ,गुस्सा ,उकताहट ,आंसू केवल कवि की माघ् के नहीं हैं बल्कि पूरी स्त्री जाति के हैं जो कल्पों से चूल्हे-चौखट तक सीमित है। यहां चूल्हे की याद से जी मितलाना इस पूरी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होना है जिसने स्त्री के जीवन को नरक बना दिया ।  " माघ् की डिग्रियां"' कविता में अपने परिवार के प्रति  औरत का समर्पण दिखाया गया है । बालिकाओं के रास्ते में आने वाली कठिनाइयां भी यहां दर्ज हैं। कैसी विडंबना है यह एक स्त्री जीवन की कि पढ़ने-लिखने के बाद भी किसी स्त्री के आंखों में जो स्वप्न चमकता है वह है - मंगलसूत्र की चमक और सोहन की खनक का। ऐसा क्यों होता है ? यह कविता उस ओर सोचने के लिए प्रेरित करती है। इसकी जड़ बहुत दूर तक जाती है । आखिर क्यों होता है ऐसा कि किसी लड़की की डिग्रियाघ् ही दब जाती हैं चटख पीली साड़ी के नीचे ? घर परिवार के लिए उसको ही क्यों करने पड़ते हैं अपने सपने कुर्बान ?अशोक  कामकाजी महिलाओं  के दोहरे बोझ को भी गहराई से समझते हैं। उनकी जीवनचर्या को लेकर " काम पर कांता" बेहद खूबसूरत कविता है। कांत के बहाने कामकाजी महिलाओं की घर-बाहर की परिस्थितियों को बारीकी से चित्रित किया गया है । इन महिलाओं की दिनचर्या सुबह पांच बजे से शुरू हो जाती है और रात ग्यारह बजे तक चलती रहती है। ये शारीरिक-मानसिक रूप से इतने अधिक थक जाती हैं कि कभी स्वर्गिक सुख की तरह लगने वाली प्रेम की सबसे घनीभूत क्रीड़ा भी रस्म अदायगी में बदल जाती है। सकून भरी जिंदगी उनके लिए नींद में आने वाले स्वप्नों की तरह हो जाती है। अक्सर यह कहा जाता है कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर औरत अपने जीवन को अपने तरीक से जीने के लिए स्वतंत्र होती है। क्या यह सही है ? यह कविता उस ओर सोचने को आमंत्रित करती है। 
 
संग्रह की पहली कविता है - सबसे बुरे दिन । इस कविता में वर्तमान के बारे में बताते हुए भविष्य की क्रूरता की ओर संकेत किया गया है । कवि का मानना है कि अभाव की अपेक्षा अकेलापन अधिक बुरा है । अकेलेपन में चाहे कितनी ही सुख-सुविधाएं हो वे सब तुच्छ हैं - बुरे होंगे वे दिन /अगर रहना पड़ा/सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला । नई अर्थव्यवस्था यही कर रहीं है -व्यक्ति को सुख-सुविधा तो दे रही है लेकिन उससे उसका संग-साथ ,उसका सुकून ,उसकी स्वाभाविकता ,उसकी उमंग छीन ले रही है। उसे अकेला कर दे रही है। यहाघ् कवि का सामूहिकता के प्रति आग्रह सामने आता है। कवि जिन बुरे  दिनों के आने की आशंका व्यक्त कर रहा है दरअसल वे आ चुके हैं । आज "विश्वास किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के विज्ञापन" की तरह हो गया है और "खुशी घर का कोई नया सामान" जो चंद दिनों में ही पुरानी और फीकी पड़ जा रही है। समझौता आज के आदमी की आदत बन गई है। नि:संदेह ये सबसे बुरे दिन हैं। 
 
दारीकरण के दौर में जीवन बदलता जा रहा है न चाहते हुए भी व्यक्ति बाजारवाद के गिरफ्त में फंसता जा रहा है।बाजार हमारे आंखों में रंगीन सपनों की फसलें रोप रहा है। जो जरूरी भी नहीं है उसे भी हमारी जरूरत बना रहा है। बाजार में सतरंगे प्लास्टिकों में पैक सामान हमारे गुणवत्ता पूर्ण उत्पाद को बाहर कर दे रहा है। ये सारी प्रक्रिया चुपके-चुपके होती जा रही है किसी को कुछ पता तक नहीं चल रहा है । लोगों के संभलने तक बाजार अपना काम कर ले जा रहा है। छोटे-छोटे धंधे करने वाले लोग उजड़ते जा रहे हैं। सतरंगे पैकों में बंद चीजें न केवल कुटीर उद्योग-धंधों को निगल रही हैं बल्कि उन आत्मीय संबंधों को भी निगल गई हैं जो क्रेता-विक्रेता के बीच होता था वो ऐसा संबंध नहीं था जो किसी लाभ-हानि के आधार पर बनता-बिगड़ता हो।खून के रिश्तों की तरह था वह।   " कहां होगी जगन की अम्मा" इसी व्यथा की अभिव्यक्ति है। बेटी के लिए अंकल चिप्स खरीदते हुए कवि की चिंता फूटती है- क्या कर रहे होंगे आजकल / मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हाथ ? श्रम करने वाले हाथों की चिंता केवल जन सरोकारों से लैस कवि को ही हो सकती है।
   शोक की कविताओं में यत्र-तत्र व्यंग्य भी मिलता है। यह और बात है कहीं-कहीं यह व्यंग्य पूरी तरह उभर नहीं पाया है जैसे " किस्सा उस कमबख्त औरत का' कविता में। " वे चुप हैं' सत्ता से नाभिनालबद्ध बुद्धिजीवियों पर करारा व्यंग्य है । अच्चोक चुप्पी को जिंदा आदमी के लिए खतरा मानते हैं । इस कविता में एक ओर सत्ता तो दूसरी ओर उससे नजदीकियां गांठकर लाभ लेने वाले लोगों के चरित्र को उघाड़ा गया है।"एक पुरस्कार समारोह से लौटकर", " अच्छे आदमी " भी अच्छी व्यंग्य कविता है। 
   
वि का मानना है कि इस दुनिया में न प्रकृति का सौंदर्य बचा न शब्दों का वैभव और न भावों की गहराई । " दे जाना चाहता हूं" कविता ऊब और उदासी भरी इस दुनिया का एक सच बयान करती है - खेतों में अब नहीं उगते स्वप्न/ और न बंदूकें/ बस बिखरी हैं यहां-वहां / नीली पड़ चुकी लाशें / सच मानो / इस सपनीले बाजार में / नहीं बचा कोई भी दृश्य इतना मनोहारी - जिसे हम अपनी अगली पीढ़ी को दे सकें - नहीं बचा किसी शब्द में इतना सच /नहीं बचा कोई भी स्पर्श इतना पवित्र। इस सब के बावजूद कवि की सद्भावना है - बस/ समझौतों और समर्पण के इस अंधेरे समय में / जितना बचा है संघर्षों का उजाला / समेट लेना चाहता हूं अपनी कविता में । और इसे ही कवि उम्मीद की तरह नई पीढ़ी को देना चाहता है। यह बहुत बड़ी बात है कि कवि संघर्षों में ही उजाला देख रहा है और यही है जो चारों ओर फैले तमाम तरह के अंधकारों का अंत करेंगे। संघर्ष पर विश्वास अंतत: जनता की शक्ति पर वि्श्वास है। जनता का कवि ही जनता की शक्ति और उसके संघर्षों पर इतना विश्वास रख सकता है।
  
शोक कुमार पाण्डेय की  कविताओं में उदासी-निराशा बहुत आती है। उनके लिए यह दुनिया ऊब और उदासी भरी हुई है जहां उदासी मां का गहना है ---,जिसके पास चटख पीली लेकिन उदास साड़ी है ,--- उदास हैं दादी ,चाची ,बुआ ,मौसी ---,चूल्हा लीपते हुए गाया करती है बुआ गीतों की उदास धुनें ,--- उदास कंधों पर सांसों को जनाजे की तरह ढो रहे हैं साम्प्रदायिकता के दंश से डसे  गुजरात के मुसलमान ,--- बारुद की भभकती गंध में लिपटे काले कपोत नि:शब्द -निस्पंद -निराश हैं,--- लौटा है अभी-अभी आज के अंतिम दरवाजे से /समेटे बीस जवान वर्षों की आहुति उदास आंखों में ,--- सदियों से उदास कदमों से असमाप्त विस्थापन भोग रहे आदिवासी ------यहां दफ्तर भी हैं जहां थके हुए पंखे बिखेरते हैं घ्ब और उदासी पर यह उदासी-निराशा इस अर्थ में नहीं कि सब खत्म हो गया है ,अब कुछ नहीं हो सकता है ,भगवान ही मालिक है इसका ,बल्कि इस अर्थ में कि इससे बाहर निकलने की आवश्यकता है । यह जितनी जल्दी हो सके इसको बदल देने की तीव्र लालसा पैदा करती है। संघर्ष इसका एकमात्र उपाय है। अंधेरे पक्ष को उदघाटित करने के पीछे कवि की उजाले की आकांक्षा छुपी है। वे अपनी कविता के माध्यम से बीजना चाहते हैं विश्वास उन हृदयों में जो बेचैन हैं ,हताश हैं ,निरा्श हैं जिनके सपने झुलसाए हैं लेकिन जिंदा हैं तथा जो संघर्षरत हैं। वे भर देना चाहते हैं आंखों में उमंग ,स्वरों में लय ,परों में उड़ान । " उम्मीद" और " विश्वास ' कवि के प्रिय शब्द हैं । कवि की दृढ़ आस्था है कि पार किए जा सकते हैं इनके सहारे गहन अंधकार ,दु:ख और अभावों के अनंतमहासागर । कवि खुद से ही शुरू करना चाहता है संघर्षों का सिलसिला गाता हुआ मुक्तिगान और तोड़ देना चाहता है सारे बंधनों को। वह कहता है - लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खामोश/लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं / लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़ बिन / लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तक। यह पंक्तियां जीवन तथा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाने वाला कवि ही लिख सकता है। 
  
स सब के अतिरिक्त अशोक की कविताओं में कहीं मां का संवलाया चेहरा दिपदिपाता है तो कहीं पसीने की गुस्साइन गंध कहीं जेठ के जलते सीने पर अंधड़ सा भागता " बुधिया" जो - पार कर लेना चाहता है /दु:ख के बजबजाते नाले / अभावों से उफनते महासागर /दर्द के अनगिनत पठार । " बुधिया" उस सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि है जो वर्गीय व्यवस्था में हमेशा से शोषण का शिकार होता आ रहा है ,जिनसे सपने सदियों से रूठे हैं ,भूख जिनकी नियति है-जहां बच्चों को नहीं होती सुविधा /अठारह सालों तक /नाबालिग बने रहने की । जो कभी नहीं आते " अच्छे आदमी ' की श्रेणी में क्योंकि - अच्छे आदमी के /कपड़ों पर नहीं होता कोई दाग/ घर होता है सुंदर सा / पत्नी-सु्शील-बेटा मेधावी -बेटी गृहकार्य में दक्ष!--- संतोष एक पवित्र शब्द होता है जिनके शब्दको्श का जो चुपचाप नजरें झुकाए गुजर जाते हैं बाजार से/ जिन्होंने दूर ही रखा जीभ को स्वाद से पैरों को पंख से/आंखों को ख्वाब से। यही लोग हैं जिनकी आवाज को अपना स्वर देती है अशोक की कविताएं। इसी तरह के लोगों पर एक कविता है " उधार मांगने वाले लोग" जो उधार मांगने वालों की विवशता को व्यक्त करती है , उन हाथों की दास्तान को जो दूसरों के आगे पसरने को विवश हैं- मरे व नर मरने के पहले बार-बार/ झुका उनका सिर / और मुंह को लग गई आदत छुपने की / लजाई उनकी आंखें और इतना लजाई / कि ढीठ हो गई । यह कविता उन कारणों की ओर भी संकेत करती है कि आदमी अपना स्वाभिमान क्यों और कैसे खोते हैं ? ये कारण कहीं न कहीं व्यवस्थागत हैं - जान ही न हो शरीर में / तो कब तक तना रहे सिर ? / भूख के आगे /बिसात ही क्या कहानियों की ।
    
शोक की कविताएं पढ़ते हुए कहीं पाश ,कहीं धूमिल ,कहीं मुक्तिबोध तो कहीं नागार्जुन याद हो आते हैं । यह अच्छी बात है कि एक जनवादी कवि में उसकी पूरी परम्परा बोल उठती है और विस्तार पाती है । इस आधार पर  यह कहना होगा कि कवि दायित्व के प्रति सजग तथा मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित इस युवा कवि में अपार संभावना दिखाई देती हैं। वे सामंतवादी-साम्राज्यवादी-पूंजीवादी विकल्पों को खारिज करते हुए नया वैज्ञानिक , जनपक्षीय और श्रमपक्षीय विकल्प प्रस्तुत करते हैं।

- महेश चंद पुनेठा

Sunday, May 1, 2011

पूछो,सवाल पूछो

 भ्रष्टाचार के खिलाफ़ पिछले दिनों शुरू हुई बहस अभी थमी नहीं है। अलिखित कानूनी स्वीकार्यता का दर्जा पा चुका भ्रष्टाचार संस्थागत रूप में है। न्याय की चौहद्दी के भीतर घुसते हुए, अनाप-शनाप रूप से लिखे एम.आर.पी मूल्यों पर माल को खरीदते हुए, बड़े-बड़े होर्डिंग टांगकर सेल सेल के हल्ला मचाऊ तरीके से माल को बेचते हुए, और भी न जाने कितने ही दूसरे रूपों में भ्रष्टताभरी कार्यवाहियों की स्वीकारोक्ति चारों ओर है। कानून के किसी दायरे में उसे समेटने की कोई भी कोशिश उसी मध्यवर्गीय मानसिकता के लिए, जो बहुत जोर शोर से भ्रष्टाचार की मुखालफ़त करने को खड़ी है,  नाक भौं सिकोड़ने वाली है।  भ्रष्टाचार कोई नैतिक व्यवहार का मामला नहीं एक राजनैतिक षड़्यंत्र है। बिना राजनैतिक सवाल उठाये उससे मुक्कमिल तौर पर टकराया नहीं जा सकता। लोकपाल विधेयक हो चाहे कोई भी दूसरा कानून जब तक उसके दायरे में ऎसे सवाल समेटने की कोशिश नहीं होती है तो तय है जीवन को दूभर बना देने वाला घटनाक्रम और ज्यादा चुस्त और आक्रामक होगा।
मेहनतकश आवाम की आवाज के दिन, मई दिवस के अवसर पर लिखा यह गीत जिसे अभी अभी मेरे मित्र अशोक कुमार पाण्डे ने लिखने के तुरन्त बाद  सिर्फ पढ़ने को भेजा था, ऎसे ही सवालों को उठा रहा है। लड़ने की ललक के साथ और कामयाबी की उम्मीदों से भरी आवाज में ऎसे सवालों को उठाने की कोशिश करने के लिए गीत की पंक्ति को दोहरायें- पूछो /सवाल पूछो /न चुप रहो /अब सवाल पूछो 

पूछो
सवाल पूछो 
न चुप रहो 
अब सवाल पूछो 

ये पूछो भूख आज भी है बस्तियों में क्यूं बसी?
ये पूछो कर रहे किसान किस लिए यूं खुदकशी 
ये पूछो क्या हुए वो वादे  रोज़गार के सभी?
ये क्या हुआ कि जिंदगी बाज़ार में यूं बिक रही.

बहुत हुआ
बहुत सहा 
न अब सहो ये बेबसी 

पूछो...

ये पूछो सारे मुल्क में आग सी है क्यूं लगी?
ये पूछो जाति-धर्म की दीवार क्यूं नहीं गिरी?
ये पूछो खून पी रहा क्यूं आदमी का आदमी?
ये क्या हुआ सिमट गयी क्यूं महलों ही में चांदनी?

कहाँ है वो 
कौन है 
कि जिसने लूट ली खुशी 

पूछो 

जो आग सीने में लगी वो कब तलाक दबाओगे 
न गर मिला जवाब फिर भी  सच तो जान जाओगे
जागोगे खुद जो नींद से तो औरों को जगाओगे 
चलो हमारे साथ तनहा कुछ भी कर न पाओगे 

कठिन तो 
राह है बहुत 
पर रौशनी भी है यहीं 

पूछो 

Thursday, February 4, 2010

शोषण के अभयारण्य

वैश्वीकरण की इस बीच जितनी चर्चा हुई है उस लिहाज से हिंदी में उस पर अर्थशास्त्रीय अनुशासन के तहत लगभग नहीं के बराबर काम हुआ है। विशेष कर ऐसा काम जो सामान्य पाठक को उसकी सैद्धांतिकी के साथ व्यवहारिक पक्षों से भी परिचित करवा सके।

अशोक कुमार पाण्डेय, कवि होने के बावजूद, उन बिरले लेखकों में से हैं, जिन्होंनें साहित्य की चपेट में सिमटी हिंदी में ऐसे विषयों पर भी लेखन किया है जो समकालीन समय, उसकी चुनौतियों और संकटों को समझने-समझाने में मददगार साबित होता है। अर्थशास्त्र जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लगातार हिंदी में किया गया उनका लेखन कई दृष्टियों से प्रशंसनीय है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह लेखन पाठ्यक्रमीय लेखन नहीं है जैसा कि अक्सर होता है। वैश्वीकरण के विभिन्न पक्षों पर विगत कुछ वर्षों में लिखे गए इस संग्रह के लेखों में दृष्टि संपन्नता, मानवीय सरोकार और विषय की गहरी पकड़ साफ देखी जा सकती है।

एक युवा अर्थशास्त्री के ये लेख आम पाठक के लिए भी उतने ही ज्ञानवर्द्धक और पठनीय हैं जितने कि विषय के अध्येताओं और विशेषज्ञों के लिए हो सकते हैं। यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि अगर किसी भी दौर को समझना हो तो यह काम उसकी आर्थिक प्रवृत्तियों को बिना जाने नहीं हो सकता। आज के दौर के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है।

एक संपादक के रूप में ही नहीं बल्कि एक आम पाठक के तौर पर भी मैंने इन लेखों को पढ़ा है और मैं चाहूंगा कि इसे वे सब लोग अवश्य पढ़ें जो अपने दौर को सही परिप्रेक्ष्य में समझना चाहते हैं।

ये लेख हिंदी में साहित्येत्तर लेखन की चुनौती को तो स्वीकारते ही हैं साथ में सभी भारतीय भाषाओं के पक्ष को ऐसे दौर में मजबूत करते हैं जब कि अंग्रेजी ने शायद ही ज्ञान का कोई पक्ष छोड़ा हो जिस पर एकाधिकार न जमा लिया हो।
- पंकज बिष्ट  

पुस्तक : शोषण के अभयारण्य
लेखक : अशोक कुमार पाण्डेय
प्रकाशक: शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली (मो.  09810101036)
कीमत : 200 रु
              

Friday, January 8, 2010

पुरस्कार का एक अर्थ होता है प्रतिफल

"समांतर कोश में पुरस्कार के तमाम अर्थों में से एक है- प्रतिफल। अब यह प्रतिफल किसका?"
साहित्य और पुरस्कार के सवाल पर अशोक कुमार पाण्डे की यह टिप्पणी हिन्दी साहित्य की दुनिया की उन हलचलों को पकड़ते हुए जो वर्ष 2009 को आंदोलित करती रहीं, कुछ जरूरी सवाल छेड़ रही है। अशोक के परिचय के तौर पर इतना ही कि कविता, कहानी के साथ-साथ आलोचना लिखते हैं। हिन्दी का ब्लाग जगत उन्हें न सिर्फ एक जिम्मेदार टिप्पणीकार के रूप में जानता है बल्कि एक सजग और मानवीय सरोकारों से जुडे सवालों भरी पोस्टों को अपने ब्लागों में पोस्ट अपडेट करने वाले ब्लागर के रूप में भी पाता है। 






साहित्य के विकास में पुरस्कारों की भूमिका

अशोक कुमार पाण्डेय


इस नवसाम्राज्यवादी समय में संस्ह्नति, साहित्य और कला भी सर्वग्रासी बाजार से मुक्त नहीं है। वैसे ऐसा भी नहीं है कि साहित्य में पुरस्कारों की अवधारणा कोई नयी चीज है। दरअसल हर क्षेत्र में हमेशा से ही दो धारायें मौजूद रही हैं- एक वह जो राज्यव्यवस्था से नाभिनालबद्ध हो अपना मूल्य उगाहती रहती है तो दूसरी वह जो समाज का जैविक हिस्सा बनकर इसके सार्थक बदलाव के लिये अपना योगदान देती है। सामंतकालीन युग में भी एक तरफ केशव और बिहारी जैसे राज्याश्रित कवि थे तो दूसरी तरफ कबीर जैसे विद्रोही जनकवि। लेकिन पहली धारा के लोग वर्तमान में महत्व भले पा जायें इतिहास में तो जनपक्षधर रचनाकार ही जीवित रहता है।
एक साहित्यकार का मूल्यांकन उन पुरस्कारों से नहीं होता जो उसे राज्यव्यवस्था या श्रेष्ठिवर्ग देता है , उसका मूल्यांकन समय और समाज में उसके हस्तक्षेप से निर्धारित होता है। सार्त्र ने नोबेल इसलिये ठुकरा दिया था कि वह इसे देने वालों की वर्गीय भूमिका के विरुद्ध सर्वहारा के पक्ष में खड़ा था। क्या इससे वह कमतर साहित्यकार साबित होता है? ब्रेख्त, नेरुदा, नाजिम हिकमत, प्रेमचंद, गोर्की, लोर्का, निराला, मुक्तिबोध, शील या नागार्जुन को हम उन्हें मिले पुरस्कारों से नहीं उनकी युगप्रवर्तक जनपक्षधर रचनाओं और तदनुरूप जीवन से जानते हैं।

आज जिस तरह वरिष्ठ से लेकर बिल्कुल युवा साहित्यकारों में पुरस्कारों के लिये आपाधापी मची है यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि राज्याश्रित कवियों की ही भांति आज भी साहित्यकारों का एक तबका बस पुरस्कारों और सम्मान के लिये ही लिख रहा है। जिन्हें बड़े पुरस्कार नहीं मिल पाते उन्हें पुरस्कार देने के लिये शहर-शहर में छोटी-बडी दुकानें खुली हैं। हालत यह है कि अब तो ऐसी संस्थायें भी उपलब्ध हैं जो इन पुरस्कारों के बदले लेखकों से धन भी वसूल रही हैं।
समांतर कोश में पुरस्कार के तमाम अर्थों में से एक है- प्रतिफल। अब यह प्रतिफल किसका? निश्चित तौर पर पुरस्कारप्रदाता के हित में किये गये किसी कार्य का। जब कोई साहित्यकार किसी संस्था से पुरस्ह्नत होगा तो निश्चित तौर पर प्रभावित भी। पुरस्कारों का एक पक्ष प्रोत्साहन भी निश्चित रूप से है। ब्राजील की महान लोकगायिका मारिओ सूसो को उनके स्कूल के दिनों में मिले एक पुरस्कार ने उनका जीवन बदलकर रख दिया। उससे मिली प्रेरणा ने उनको वह ताकत दी की अपने क्रांतिकारी गानों से उन्होंने पूरे लैटिन अमेरिका में एक नयी चेतना का प्रसार किया। कम से कम आजादी के तुरंत बाद साहित्य एकेडमी जैसी तमाम संस्थाओं के गठन के पीछे भी एक हद तक यही उद्देश्य था। आरंभिक दौर में उन्होंने सकारात्मक भूमिका भी निभाई। लेकिन तमाम सरकारें, पूंजीपतियों के धन से चलने वाली संस्थायें इत्यादि जो पुरस्कार साहित्यकारों को देती हैं उनका एकमात्र उद्देश्य प्रोत्साहन देना नहीं होता अपितु कहीं न कहीं वे साहित्य को नियंत्रित तथा अपने हित में अनूकूलित करना चाहती हैं और हमारे समय में इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। कांग्रेसी सरकारों के दौर में दिये गये पुरस्कार उसके हितों के अनुरूप थे तो भाजपा के शासनकाल में दक्षिणपंथ के एजेण्डे को ध्यान में रखकर पद एवं पुरस्कार निर्धारित किये गये जिसके लोभ में तमाम लोगों ने अपने पाले भी बदले। इस तरह इन पुरस्कारों ने साहित्य की दिशा भी बदली है। अभी हाल में जब विष्णु खरे ने सैमसंग जैसी कंपनी के साहित्य एकेडमी से हुए करार पर आपत्ति जताई तो एक युवा लेखक ने इस करार का स्वागत करते हुए साहित्य को बाजार से जोडने की हिमायत की। पुरस्कारों का ही प्रभाव है कि कविता और कहानी में बेहद वाचाल लेखक समाज के तमाम मुद्दों पर जमीन पर बिल्कुल खामोश नजर आता है। लेखन और जीवन के बीच की खाई निरंतर गहरी होती गयी है।


आज जिस तरह वरिष्ठ से लेकर बिल्कुल युवा साहित्यकारों में पुरस्कारों के लिये आपाधापी मची है यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि राज्याश्रित कवियों की ही भांति आज भी साहित्यकारों का एक तबका बस पुरस्कारों और सम्मान के लिये ही लिख रहा है। जिन्हें बड़े पुरस्कार नहीं मिल पाते उन्हें पुरस्कार देने के लिये शहर-शहर में छोटी-बडी दुकानें खुली हैं। हालत यह है कि अब तो ऐसी संस्थायें भी उपलब्ध हैं जो इन पुरस्कारों के बदले लेखकों से धन भी वसूल रही हैं। हमारे अपने शहर में भी ऐसे खरीदे पुरस्कारों सहित अपने फोटो अखबारों में छपाने वाले साहित्यकारों की कोई कमी नहीं है।

पुरस्कारों के अतिरेक और पाठकों के अभाव से स्थिति यह बनी है कि आज साहित्य चर्चा के केन्द्र से बाहर जा रहा है और पुरस्कार तथा सम्मान चर्चा के केन्द्र में है। इस आपाधापी में वैचारिक प्रतिबद्धता, सामाजिक सरोकार और लेखकीय आत्मसम्मान जैसी चीजें पीछे छूट गयी हैं। अभी एक समय सांप्रदायिकता के खिलाफ सशक्त कहानियां लिखने वाले कहानीकार उदयप्रकाश गोरखपुर की मिलिटेंट हिन्दू राजनीति के अगुआ आदित्यनाथ से पुरस्कार ले आये तो 1857 में अंग्रेजों का साथ देने वाले अयोध्या के एक पूर्व राजा के नाम पर स्थापित पुरस्कार को स्वीकार करने वालों में उनके साथ मंगलेश डबराल जैसे प्रतिष्ठित कवि भी हैं। पिछले दिनों विष्णु खरे ने भारतभूषण पुरस्कार पाये कवियों पर सवाल खडा तो किया पर खुद को बचाकर। लेकिन इस पर भी किसी सार्थक बहस की जगह बस पुरानी समिति के कुछेक लोगों को हटाकर और अधिक विवादित लोगों को शामिल कर लिया गया। कुल मिलाकर पुरस्कारों के जरिये स्थापित होने की भूख ने साहित्य के व्यापक आधारों को संकुचित कर जनमानस में इसके प्रभाव को अत्यंत सीमित कर दिया है। ऐसे में उम्मीद उन्हीं से है जो कर्म और रचना के द्वैत से मुक्त हो अपने समय की विसंगतियों से जूझते हुए बेहतर दुनिया के निर्माण की लडाई में जनता के पक्ष में खडे होकर अपना रचनाकर्म कर रहे हैं।