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Tuesday, November 15, 2022

ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक : विसंगतियों का सिलसिला थमता नहीं

पढ़ते हैं हाल ही में प्रकाशित रेणु गौरीसरिया की आत्मकथात्मक पुस्तक पर लिखी वाणी श्री बाजोरिया की समीक्षा।

वाणी श्री बाजोरिया एक स्नातकोत्तर  अवकाश प्राप्त शिक्षिका हैं, जिन्होंने साउथ प्वाइंट स्कूल और गोखले मेमोरियल गर्ल्स स्कूल में 20 वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया।कविताएँ,कहानियाँ,समीक्षा,यात्रा-संस्मरण आदि लेखन में उनकी विशेष रूचि है। उनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। 'साहित्यिकी' नामक साहित्यिक संस्था से वे वर्षों से जुड़ी हैं जिसमें साहित्य चर्चा में वे समय समय पर वक्तव्य रखती हैं। वे विश्व में महिलाओं की सबसे बड़ी संस्था इनरव्हील से जुड़ी हैं जिसमें समाज सेवा का कार्य किया जाता है ।गरीब और निचले तबकों के लोगों के जीवन में सुधार लाने के लिए अनेक तरह के छोटे-बड़े काम करने में उन्हें सुख मिलता है।वे विभिन्न  रोगों के निवारण के लिए प्राणिक हीलिंग भी करती हैं। 

 

वाणी श्री बाजोरिया

9830617013

 रेणुजी से जब एक छोटी सी बातचीत मैंने उनकी आत्मकथा पर शुरू की और कहा कि आपको देखकर लगता नहीं कि आपने इतना कुछ सहा है तो बोलीं-' अरे बचपना था उस समय उम्र कम थी तो बचपने में ये सब कुछ हो गया था।'यही एक बात उन्हें सबसे अलग करती है।

न दुरूह शब्दों की श्रृंखलाओं के बोझ से दबी स्त्री-विमर्श की बड़ी-बड़ी बातें  न नारी शोषण के मुहावरों में स्वयं को फिट करने की मंशा। यही बेबाकी, ईमानदारी और सच्चाई उनकी पूरी पुस्तक, उनकी जीवनी में है- जिसका नाम है 'ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक'।

उच्च मध्यवर्गीय संपन्न व्यवसायिक परिवार में पैदा हुई रेणुजी के जीवन की घटनाओं को  चार भागों में बाँटकर देखा जा सकता है। प्रथम भाग में बचपन एवं परिवार की घटनाओं,  सुखद क्षणों एवं पारिवारिक माहौल का अत्यंत अंतरंगता से वर्णन किया है, क्योंकि  निर्माण की प्रक्रिया में बनी जीवन की इमारत का वह  कोना आज भी उनकी यादों से महक रहा है। भाई बहन के साथ खेलता- कूदता ,सुमधुर,किलकता प्यार भरा बचपन, संयुक्त परिवार में स्त्रियों का अपनापा, पुरुषों का संगठित पारिवारिक ढाँचा उनकी यादों के संसार में आज भी जीवित है। कोई भी नहीं भूल पाता इतना सुखमय बचपन, विशेषकर तब जब उसके बाद दुखों का अप्रत्याशित समुद्र लीलने सामने खड़ा हो। 

रेणु जी के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू होता है उनके विवाह के पश्चात।प्रथम विवाह रेणु जी के जीवन में खुशियों का साम्राज्य लेकर आया  परंतु बहुत जल्द ही नियति के कुचक्र का ग्रास बन गया ।पत्नी पर जान छिड़कने वाले पति की असमय ही मृत्यु हो जाती है। वे चार महीने की  गर्भवती पत्नी को छोड़कर दुनिया से विदा ले लेते हैं। इतने बड़े बज्रपात के बाद एक तरह से वे पूरी तरह से टूट गईं परंतु उनके परिवार वालों ने उन्हें बहुत सहारा दिया और सँभाले रखा। रेणुजी लिखती है, "मैं सोचती हूँ जैसा बचपन मैंने जिया जैसे संस्कार मुझे मिले जिन आदर्शों को लेकर मैं आगे बढ़ी वह सब कैसे हुआ होगा! उस कच्ची उम्र में हठात् जो आँधी मुझे झकझोर गई थी उसे मैंने कैसे सहन किया होगा? मेरे परिवार वालों ने ,मेरे मित्रों ने मुझे टूटने नहीं दिया। मैंने तय किया कि मैं अपनी छूटी हुई पढ़ाई फिर से जारी करूँगी"।          

तत्पश्चात उनका पुनर्विवाह लंदन से पढ़ कर आए लक्ष्मीनारायण गौरीसरिया जो उम्र में उनसे दस वर्ष बड़े थे, से कर दिया गया। 

द्वितीय  विवाह की विसंगतियों को उन्होंने बेबाकी से लिखा। पति के साथ साथ ससुराल वालों का व्यवहार भी उनके साथ बहुत बुरा था। वे लिखती हैं " दर्द इतना बढ़ गया कि मेरा आत्मविश्वास डगमगाने लगा था और इन कष्ट कर हालातों से मुक्ति पाने के लिए तब मैंने दो दो बार आत्महत्या की चेष्टा की थी,जैसे -तैसे मुझे बचा लिया गया।"  "दूसरी बार होशियारी बरतते हुए किसी को कुछ बताए बगैर बहुत सारी नींद की गोलियाँ खा ली थीं पर समय रहते बचा ली गई। आज सोचती हूँ यह सब करते वक्त पम्मी नहीं थी क्या मेरे विचारों में कहीं भी।" एक जगह वे लिखती है कि "कुछ मधुर तो कुछ कटु दिन बीती रहे थे अचानक कुछ ऐसी घटना घटी कि मैं बुरी तरह घबरा कर बहुत ही असहाय महसूस करके माँ भैया के पास चली गई। आगे  लिखती हैं-यह कैसा पति है जो मेरी सुरक्षा का दायित्व नहीं ले सकता।" तीसरी बार उन्होंने फिर आत्महत्या का प्रयास किया मकान से कूदकर। तारीख थी 23 जून 1963 अगले महीने वे  22 वर्ष की होतीं।"

उम्र के उस पड़ाव पर जब कलियों जैसी वनिताओं को ससुराल में सुकोमल परिवेश की आवश्यकता होती है पर वह हमेशा नहीं मिल पाता ।वह कुछ समझने लायक हो उसके पहले ही पितृसत्तात्मक सोच और व्यवहार की चाबुकें उन्हें घायल कर देती हैं एवं कलियों का मासूम मन कुम्हला जाता है,जैसा कि रेणु जी के साथ हुआ। पुरुष अपनी वंशानुगत पुरानी सोच की श्रृंखला स्त्री के पैरों में डालकर सोचता है कि वह कदम से कदम मिलाकर चले,पर यह हो नहीं पाता है। अपनी मायके की जड़ों से काट दी गई स्त्री को दोबारा पनपने के लिए जिस कोमल जमीन  की आवश्यकता होती है उसकी जरूरत को पुरुष का अहंकार उपेक्षित कर देता है।दाम्पत्य की लंबी दायित्व पूर्ण यात्रा में स्त्री से ही अपेक्षा की जाती है कि उसे जो भी मिला है उसे शिरोधार्य मानकर अपना ले। अगर वह यह करने में चूक गई या उसने नकार दिया तो उसके सारे संबंधों के तार तोड़ दिए जाते हैं। अनकहा होकर भी यहाँ स्त्री- शोषण का एक व्यथा पूर्ण ढाँचा आकार ले ही लेता है, इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। अपनी पुत्री से दूरी एक माता के लिए कितनी वेदना पूर्ण है यह उनकी पुस्तक में  जाहिर है ग्यारह वर्षों तक पुत्री से उनका संपर्क तोड़ दिया जाता है ।यहाँ तक कि उनकी पुत्री को यह भी नहीं पता कि उनकी माँ जीवित है या नहीं। 

रेणुजी के जीवन में विसंगतियों का सिलसिला थमता नहीं ,उन्हें दूसरी बार वैधव्य का सामना करना पड़ता है ।

रेणुजी के जीवन का तीसरा अध्याय अब शुरू होता है। इतने वेदना भरे अतीत के बावजूद वे स्वयं को समेट कर खड़ा करतीहैं।  द्वितीय बार वैधव्य के पश्चात जिस ढंग से उन्होंने स्वयं को  स्थापित किया वह अपने आप में प्रेरणास्पद है ।यह एक आम सी दिखनेवाली स्त्री की संघर्षपूर्ण गाथा है जो इस मायने में अपने को खास बनाती है कि किस तरह एक परकटी चिड़िया अपनी जिजीविषा को कायम रख कर अंततः पंख पा ही लेती है ।वे धीरे-धीरे उच्च शिक्षा प्राप्त कर पग पग पर अपने अतीत की स्मृतियों की अवहेलना कर आगे बढ़ती हैं, अध्यापन के कार्य से स्वयं अपनी नियति-निर्मात्री बनती हैं एवं 'जीवन' की उपस्थिति को सार्थकता देती हैं । स्मृतियों के चित्रों को जिस तरह से उन्होंने माला की तरह पिरोया है वह बहुत खूबसूरत है पढ़ते रहने को बाध्य करता है,कहीं भी ऊब नहीं होती ।सबसे बड़ी बात है आत्मीयता से जीवन के सारे चित्रों को ऐसे साहस के साथ उकेरना ।पुस्तक में कहीं ना कहीं पूरे स्त्री वर्ग की विडंबना का दस्तावेज हमारे सामने आता है,साथ ही साथ एक बहुत गहरा संदेश भी है कि माता- पिता हमेशा पुत्री का साथ दें जैसा रेणुजी के मायकेवालों ने दिया। उसे पराया धन मान कर अकेला न छोड़ दें ताकि  वह स्वयं को असहाय महसूस न करे ।

बचपन के विभिन्न कलाकारों, साहित्यकारों का संसर्ग ,फिल्मी दुनिया के लोगों का साथ ,नाटक की दुनिया के लोगों के साथ संपर्क, महान विद्वानों एवं संगीतज्ञों के साथ संपर्क, विभिन्न संस्थाओं से जुड़ाव के साथ-साथ मित्र संबंधों का फैलाव उनकी जीवन यात्रा को बल देता है।पुस्तक का यह चौथा भाग इन्हीं  संबंधों एवं संपर्कों को समर्पित है ।जहाँ आरंभ में एक ओर अभिजात्य वर्ग की स्त्री का मौन रहकर मर्यादा की सीमा को न तोड़ कर सब कुछ चुपचाप भोगने का वर्णन है ,तो पुस्तक के अंत में उनके स्वयं के पुत्र, पुत्री के मुक्त जीवन शैली की चर्चा भी बेबाकी से करती हैं। पुस्तक में एक पूरा युग बोलता है, जिसमें जीवन के बदलते रंगों का समाहार है।ऐसा लगता है मानो कोई नाटक चल रहा है जिसका हर बदलता दृश्य हमें आश्चर्यचकित भी करता है तो वर्णन की खूबसूरती के कारण पूरा प्रभाव भी डालता है। इतनी लंबी यात्रा के बाद भी मौन रहकर आज भी वे कार्यरत हैं। पुस्तक में वर्णित कथ्य कहीं भी शब्दों एवं भाषा का मोहताज नहीं है। बड़ी सादगी ,सरलता, निस्पृहता से अत्यंत प्रवाहमयी प्राँजल भाषा में पुस्तक लिखी गई है ।उम्र के इस पड़ाव पर आकर जीवन का पुनरावलोकन करना एवं उसे शब्द बद्ध करना कोई साधारण काम नहीं है। अपने को खोने के लिए रेणुजी ने किसी अन्य चीज का सहारा नहीं लिया वरण स्वयं को पाने एवं पुनर्स्थापित करने के लिए कलम थामी ।साहित्यिकी को गर्व है ऐसे संघर्षमय व्यक्तित्व की स्वामिनी सदस्य को अपने बीच पाकर।

Thursday, January 25, 2018

सोशल‌ मीडिया के आत्मसजग समय में ‌

पिछले दिनों कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा ‘जूठन’ को विवाद में घसीटकर पाठ्यक्रम से उसे बाहर निकलवाने का जो षड़यंत्र सामने आया। उसकी तीखी प्रतिक्रिया हिंदी समाज में हुई। बहस में ‘जूठन’ ही नहीं अन्य दलित रचनाकारों की आत्मकथाओं के भी इस पहलू को उजागर किया गया कि आत्मकथाओं में एक व्यक्ति के जीवन के ब्योरे भर ही जगह नहीं पाते, बल्कि समाज व्यवस्था की पर्तें भी ज्यादा प्रमाणिक रूप से खुलती हैं। वाल्मीकि जी की आत्मकथा पर लिखी गयी टिप्पणी को आगे भी इस ब्लाग में पढ़ा जाना संभव होगा। अभी तो वाल्मीकि जी के सबसे घनिष्ट पारिवारिक मित्र कथाकार मदन शर्मा जी आत्मकथा में आए प्रसंगों पर कुछ बात करना ही उचित लग रहा है। कवि एंव आलोचक गीता दूबे ने हाल ही प्रकाशित इस आत्मकथा ‘’उन दिनों’’ के उन पक्षों को रेखाकिंत किया है जिसका वास्ता देश विभाजन की दास्तान से है। इस रचनात्‍मक सहयोग के लिए गीता दूबे जी का आभार। उनका यह आलेख न सिर्फ इस ब्लाग को समृद्ध कर रहा है, अपितु आत्मकथाओं के लिखे जाने औचित्य को भी महत्व‍पूर्ण मान रहा है।
वि. गौ.

सहजतापूर्ण आत्मीय अभिव्यक्ति से सराबोर आत्मकथा :  उन दिनों (मदन शर्मा

गीता दूबे

आत्मकथाएं लिखी क्यों जाती हैं, इस पर सोचने बैठें तो कई बातें दिमाग़ में चक्कर लगाने लगती हैं। किसी की आत्मकथा पढ़कर भला हमें मिलने क्या वाला है ? लेकिन इसके बावजूद आत्मकथाएं लिखीं और पढ़ी जाती हैं । इसके पीछे जहां एक ओर अपनी कहानी लोगों को सुनाने की ख्वाहिश काम करती है तो दूसरी ओर किसी और के बारे में जानने का कौतूहल भी अहम भूमिका निभाता है। 'बिग बास' जैसे धारावाहिकों का निर्माण भी इस मानवसुलभ जिज्ञासा या कौतूहल को भुनाने के लिए ही हुआ है। इसके साथ ही यह प्रश्न भी सिर उठाता दिखाई देता है कि जब भी कोई रचनाकार अपनी आत्मकथा लिखता है तो उसके पीछे उसका उद्देश्य क्या होता है। खुद को उधेड़ना या छिपाना। अगर उधेड़ना तो कितनी निर्ममता से और छिपाना तो भला क्यों, क्योंकि जब आपबीती सुनाने की ठान‌ ही ली है‌ तो‌ फिर लुकाछिपी का खेल भी क्यों खेलना? लेकिन यह खेल खेल जाता है और पूरे कौशल के साथ। जिस तरह अदालत में गीता पर हाथ रखकर झूठी कसमें बेशर्मी से खाईं जाती हैं ठीक उसी तरह आत्मकथा लेखक भी बड़े मजे से‌ मनगढ़ंत गप्पे कुछ इस अंदाज में हांकता है कि सजग पाठक ही नहीं रचनाकार के‌ समकालीन लेखक भी हतप्रभ-से रह जाते हैं। इसी कारण बहुत सी आत्मकथाएं झूठ का पुलिंदा साबित नहीं तो घोषित जरूर हो जाती हैं और‌ उनके प्रकाशन के साथ ही बहस का तूफान उठ खड़ा होता है। लेकिन इसके साथ यह भी कहना चाहूंगी कि कई बार ये बहसें प्रायोजित भी होती हैं जिनका उद्देश्य रचना विशेष को समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में हिट या फिट करना होता है। बहुधा आत्मककथा लेखक अपनी उपलब्धियों का डंका तो जोर- शोर से पीटते हैं और अपने संघर्षों की कथा भी बहुत दर्दभरे अंदाज में बयां करते हैं लेकिन अपनी जिंदगी के बहुत से पन्नों को अंधेरे में रखने का खेल भी बेहद कुशलता से खेलते हैं। वहीं कुछ तथाकथित बोल्ड लेखक जानबूझकर कुछ सनसनीखेज खुलासों को परोसने के लिए ही आत्मकथा लिखने का जोखिम उठाते हैं। जाहिर है कि इन खुलासों में बहुत से जाने-पहचाने चेहरे भी शामिल होते हैं और लेखक खुद भी कटघरे में खड़ा होने की स्थिति में पहुंच जाता है। लेकिन बदनाम गर हुए तो नाम भी तो होगा की तर्ज पर कुछ साहसी (?) रचनाकार यह जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। तो क्या जिस लेखकीय तटस्थता की बात बार- बार कही जाती है वह 'आत्मकथा' में संभव है ? कविता, नाटक, कथा साहित्य या फिर अन्य साहित्यिक विधाओं में लिखते हुए तो लेखक फिर भी तटस्थ हो सकता है लेकिन आत्मकथा में तो उसका स्व इस कदर घुला मिला होता है कि तटस्थ होना बेहद मुश्किल होता है और इसी कारण बहुत से रचनाकार आत्ममुग्धता के शिकार होकर आत्मप्रशंसा और परनिंदा पर उतर आते हैं। कहीं -कहीं तो भावुकता की चाशनी इतनी गाढ़ी हो जाती है कि तथ्य उसमें डूब जाते हैं। खैर आत्मालोचन के साथ- साथ जग की पड़ताल और अपने समय का दस्तावेजीकरण करती हुई आत्मकथाएं भी लिखी गयी हैं जो सिर्फ साहित्य न ह़ोकर इतिहास का हिस्सा भी बन जाती हैं । भारतीय संदर्भ में गांधी और नेहरू की आत्मकथाएं तो उल्लेखनीय हैं ही। कुलदीप नैयर की आत्मकथा 'एक जिंदगी काफी नहीं' भी एक महत्वपूर्ण और पठनीय आत्मकथा है। 

फिलहाल मैं बात करना चाहूंगी हाल ही में प्रकाशित साहित्यकार मदन शर्मा की आत्मकथा 'उन दिनों' का जिसकी सहजता ने बरबस मुझे आकर्षित किया और एक बैठक में पढ़वा भी लिया। हालांकि मदन शर्मा मेरे लिए चर्चित और परिचित नाम नहीं था लेकिन आत्मकथा के दो एक पन्ने पलटते -पलटते कब मैं इसे पूरा पढ़ गयी पता ही नहीं चला । सवाल है कि ऐसा कैसे होता है। बहुधा आप बहुत से महान रचनाकारों की बेहद बेहद चर्चित, पुरस्कृत रचानाओं की प्रसिद्धि की अनुगूंज से प्रभावित होकर उन्हें पढ़ना शुरू तो करते हैं लेकिन पूरा पढ़ नहीं पाते। और खुद को कोसते भी हैं कि कमी शायद कहीं न कहीं अपनी समझ में होगी जो इस दुर्लभ रस का आस्वादन कर पाने में असमर्थ है। लेकिन कुछ रचनाएं ऐसी भी होती हैं जिनके नाम का चर्चा या डंका भले न गूंज रहा हो पर‌ वे साहित्य के परिदृश्य पर इतने हौले से अपनी जगह बना लेती हैं जैसे शक्कर दूध में और नमक सब्जी में घुल जाता है। जिसकी उपस्थिति के बिना सब कुछ बेस्वाद हो जाए यह बात और है कि उस उपस्थिति का कोई नोटिस ले‌ या न ले पर उसकी कमी से सब कुछ अधूरा-अधूरा सा जरूर लगने‌ लगे। 

मदनजी की आत्मकथा की सबसे बड़ी खासियत है इसकी सहजता और वही तटस्थता जोकिसी भी रचनाकार के लिए एक चुनौती की तरह होती है।मदन शर्मा ने इस कला को बड़ी सहजता से इसे साध लिया है।जब वह अपनी तकलीफों, संघर्षों या अभावों की बात करते हैं तो कहीं भी अश्रुविगलित भावुकता की तैलीय परत तैरती नजर नहीं आती। वह इतने सहजता से अपने संघर्षों को उकेरते हैं जैसे अपनी नहीं किसी और की बात कर रहे हैं।और  रही बात उधेड़ने की तो अपने पूरे परिवेश के साथ- साथ वह अपने परिवार, रिश्तेदारों आदि को भी बेबाकी से तो उधेड़ते ही हैं खुद अपने आपकोभी नहीं बख्शते।अपने पिता का चित्र खींचते करते हुए उनके जेलर जैसे व्यवहार का जिक्र करते हैं तो उनकेकोमल पक्षों की ओर भी इंगित करते हैं।  कोई भी रचनाकार जब अपनी आत्मकथा लिखता है तो दो तरह की मनोवृत्तियां दिखाई देती हैं , एक तो वह अपने परिवार, कुल या खानदान की गौरवशाली परंपरा के माहात्म्य का वर्णन करते नहीं अघाता दूसरी ओर वह अपनी दीनता के ऐसे चित्र खींचता है कि पाठक के मन में रचनाकार के प्रति दयामिश्रित सहानुभूति जैसा भाव उत्पन्न होने लगता है। साथ ही कहीं न कहीं इस लेखन के पीछे खुद को महान समझने या समझाने की प्रेरणा भी काम करती है लेकिन मदन शर्मा जी की आत्मकथा इस मायने में जुदा है कि वहां किसी प्रकार की आत्ममुग्धता या आत्मप्रशंसा की कोई भावना दिखाई नहीं देती।वह पहले ही खुद से सवाल करते हैं कि "मैं यह राग क्यों अलापने लगा हूं ?‌ क्या होगा इससे ? किसी को क्या मतलब, मुझे बचपन में किस किस ने दुलारा, पुचकारा या लताड़ा..."(पृ.11) लेकिन इसके बावजूद लेखक अपने बचपन से लेकर अपने विवाह तक  की कथा को इतने सहज और दिलचस्प तरीके से बयां करता है कि साधारण पाठक को भी इस रचना को पढ़ते हुए किसी उपन्यास को पढ़ने जैसा आनंद मिलता है। अपने परिवार की समृद्धि के दिनों का वर्णन करते हुए पारिवारिक झगड़ों और पारिवारिक सदस्यों की आपसी तनातनी का वर्णन भी दिलचस्प  अंदाज में पर बेहद निस्पृह ढंग से करते हैं। कभी -कभी यह निस्पृहता ऐसी लगती है मानो लेखक आपबीती नहीं कोई रोचक किस्सा सुनाने बैठा है। अपने परिवार में पिता- चाचा के झगड़े हों या स्त्रियों की दुर्दशा या फिर विभिन्न पारिवारिक सदस्यों की खामियां और खूबियां, इन सभी का वर्णन मदन जी जीवंतता से करते हैं जिन्हें पढ़कर पाठक उनसे सहज सामंजस्य बैठाता चला जाता है। अपने चचेरे भाई परमानन्द का चित्रण करते हुए वह एक  घटना का जिक्र बड़े रोचक ढंग से करते हैं जब भाई परमानन्द गाजरपाक बना रहे हैं और  एक बुजुर्ग के बार -बार पूछे जाने पर कि हलवा बन गया या नहीं खीजकर उनके मुंह में गर्मागर्म गाजर का हलवा ठूंस कर खिलखिलाते हुए कहा उठते हैं-" बहन के यार ने सुबह से परेशान कर रखा था...बच्चा गाजर पाक का।"(पृ 29)  हालांकि सामान्य दृष्टि से देखने पर परमानंद का यह व्यवाहर उचित नहीं लगता लेकिन इस घटनाक्रम से गुजरते हुए पाठक भी परमानंदकी खिलखिलाहट को आत्मसात कर उसके साथ खुद भी खिलखिला उठता है। किसी भी रचनाकार की बड़ी विशेषता होती है जब वह अपने पाठकों को अपने पात्रों के साथ हंसने- रोने को विवश कर देता है और इस रचना में निसंदेह यह खूबी है। इसी तरह वह अपनी चचेरी बहनों का किस्सा भी बड़ी बेबाकी से कहते हैं। उनकी तथा अपनी भाभियों की जिंदगी के चित्रण के माध्यम से तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा कावर्णन सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से करते हुए उनके दुख दर्द और  संघर्षों को उकेरते हुए उनके साहस की सराहना भी करते हैं।

ऐश्वर्यपूर्ण जिंदगी जीते हुए अचानक हालात के बद से बदतर होते जाने के कारणों के साथ अपनेपरिवार के कष्टोंऔर पारिवारिक सदस्यों  के संघर्षों का वर्णन लेखक तटस्थता से करता है। कहीं भी कष्ट या तकलीफ कोजरूरत से ज्यादा बढ़ा -चढ़ा कर नहीं दिखाया गया है। देश- विभाजन के दौरान हुए दो बड़े भाइयों की मृत्यु और उस दुख से कातर पिता और माता की मनःस्थिति का वर्णन बेहद मार्मिक बन पड़ा है। जब तक हम किसी को अपनी आंखों के आगे मरते हुए नहीं देखते वह हमारी स्मृति में हमेशा जीवित बने रहते हैं और हमारे दिल में उनकी अनकही प्रतीक्षा बनी रहती है, मृत घोषित भाइयों‌ के प्रति इस प्रतीक्षा या उम्मीद को रचनाकार में भी देखा जा सकता है- "मैं उस समय सातवीं में पढ़ रहा था। मौजूदा हालात में, पढ़ाई-लिखाई में बिल्कुल मन नहीं लग रहा था। ध्यान हर वक्त घर की बाहर वाली चौखट पर ही लगा रहता...शायद कोई आकर कह दे... किसी ने उन्हें वहां देखा है, या वे तो बस पहुंचने ही वाले हैं...बाहर दिल्ली दरवाजे के पास खड़े, किसी से बात कर रहे हैं....(पृ 64) आप कल्पना कीजिए जिस व्यक्ति का बचपन बेहद लाड़- प्यार और ऐशो- आराम से कट रहा हो कि अचानक उसे दो घूंट दूध के लिए भी तरसना पड़ जाए , बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ जाने और बुआ के घर पर रहकर अपनी पढ़ाई आगे बढ़ाते हुए घर को संभालने के लिए खेलने- कूदने की उम्र अर्थात महज चौदह वर्ष में नौकरी से लगना पड़ाहो उसने क्या -क्या नहीं झेला होगा लेकिन हर बार वह मुश्किलों को धता बताते हुए उन्हें पीछे छोड़कर मुस्कराते हुए मानो उन्हें चुनौती देने के अंदाज में कहता हुआ नजर आता है-

"हमने बना लिया है नया फिर से आशियां जाओ ये बात फिर किसी तूफान से कह दो।"

अपनी छोटी- छोटी कमजोरियों और हल्के फुल्के आकर्षणों का वर्णन भी वह बड़े तटस्थ ढंग से करता है औरसगाई तथा शादी की घटनाएं तो बेहद नाटकीय ढंग से घटती दिखाई देती हैं।उसके बाद की घटनाओं को लेखक ने जिक्र भर में समेटते हुए अपने लिखने की शुरुआत की ओर भी संकेत सा ही किया है मानो वह कोई बहुत उल्लेखनीय बात ही न हो। जिस व्यक्ति ने अपने शुरुआती जीवन में हिंदी की शिक्षा ही न पाई हो उसका हिंदी में लिखना निश्चित तौर पर एक श्रमसाध्यकाम रहा होगा लेकिन लेखक उस श्रम को महिमा मंडित करना तो दूर उसके उल्लेख तक से कतराता है। आज सोशल‌ मीडिया के आत्मसजग समय में जब हम कुछ भी लिखकर लेखकीय पहचान कमाने के लिए व्याकुल रहते हैं वहीं बहुत कुछ लिखकर भी मदन शर्मा खुद को लेखन मानने से इन्कार करते हैं-" जितना छपा, उससे दुगना डस्टबिन के हवाले कर चुका था। इसके बावजूद, अपने छपे हुए को देख कितना दुख हुआ।वास्तविकता यही थी कि मुझे लिखना आता ही नहीं था।" (पृ 173) इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मुक्तिबोध की कहानी 'मैं फिलसाफर नहीं हूं' की याद आ जाती है जिसमें ज्ञानी प्रोफेसर अपने आपको 'टैब्यूला रासा" अर्थात  बिलकुल कोरा बताने का साहस करता है। आत्ममुग्धता के दौर में जहां जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना वह चाहे सुखद हो या दुखद प्रर्दशन की चीज समझी जाती है वहां आत्मस्वीकार का यह विनय या साहस कितनों में है यह प्रश्न भी इस रचना से गुजरते हुए सहज ही दिमाग में कौंध मारने लगता है। विनम्रता का यह भोला अंदाज और आत्मस्वीकृति का सहज साहस इस रचना की बड़ी खासियत है।

आत्मकथा को कथेतर गद्य की परिभाषा में बांधते हुए हम भले ही उसे किस्से कहानी से इतर विधामाने पर कथा रस कई मर्तबा वहां कहानियों से जरा भी कम नहीं होता यह बेझिझक कहा जा सकता है क्योंकि जिंदगी से दिलचस्प और हैरतअंगेज किस्सा कोई हो ही नहीं सकता। किस्सों कहानियों जहां में कोरी गप्प होती है वहीं आत्मकथा में सच्ची गप्प और आपबीती के साथ जगबीती भी। हालांकि इस आत्मकथा में आपबीती ही ज्यादा है पर अपनी कथा के साथ -साथ अपने रिश्तेदारों, दोस्तों की जिंदगी की झलकियां पेश करते हुए मदन शर्मा जी ने तत्कालीन शासक की सनकों के साथ शासन व्यवस्था की जो चंद तस्वीरें उकेरी हैं, उन्हें पढ़ते हुए किसी कथा को पढ़ने के  आनंद  के साथ ही इतिहास में झांकने  का अवसर भी मिलता है। मदनशर्मा जी की एक खासियत और है कि  इन्होंने लेखकीय सहजता को सपाटबयानी में ढलने नहीं दिया है। आलोच्य आत्मकथा  से गुजरते हुए सहज सरल और ईमानदार लेखन की प्रेरणा जरूर मिलती है। आज  के दौर में जब बतौर लेखक स्थापित या प्रचारित होने के लिए सिर्फ लिखना ही काफी नहीं होता बल्कि बहुत से कौशल भी करने पड़ते हैं, मदन शर्मा बहुत प्रसिद्ध या बड़े रचनाकार हैं या नहीं यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इसमें कोई दो राय  नहीं कि बेहद सुलझे हुए भले और ईमानदार इंसान जरूर हैं।और अच्छा इंसान होना मशहूर लेखक होने से कहीं ज्यादा अच्छा है यह कहनेऔर स्वीकारने में मुझे जरा भी हिचक नहीं।

Saturday, January 28, 2017

बनारस कालिज के प्रिन्सिपल और प्रोफेसर(3)







संस्कृत विभाग के उपाचार्य पहले एक साहब थे जिनका नाम संस्कृत के आन्दोलन में कुछ-कुछ लिया जाता है.ग्रिफिथ साहव के स्थान में, उनके प्रिन्सिपल बनने पर, डाक्टर थीवी जर्मनी से लाये गये.उनकी विद्या और विशेषतः परिश्रम की धूम मची हुई थी.गर्मियों में रात की आँधी में न बुझने वाला लैम्प जलाकर ग्यारह बजे तक उन्हें पढ़ते देख एक आदमी ने आश्चर्य प्रकट किया.उत्तर मिला कि रात को गणित का फिर से अभ्यास किया करते हैं और इस प्रकार किसी भी पढ़े हुए विषय का ज्ञान बासी नहीं होने देते.आते ही पं० बालशास्त्री से दर्शनशास्त्र का पढ़ना और संस्कृत संभाषण का अभ्यास आरम्भ कर दिया.थोड़े दिन पीछे ही षाण्मासिक परीक्षा में संस्कृत के परीक्षक हुए.एक भी अनुत्तीर्ण न हुआ.यह पहले यूरोपियन थे जिनकी दाढ़ी के साथ मूँछों का भी सफाया मैंने देखा.प्रसिद्ध यह था कि धर्मशास्त्र में उच्चिष्ट की निन्दा सुनकर इन्होंने मूँछ मुड़ा ली है , जिससे बालों में उच्चिष्ट न फँस जाए.
गणित के प्रोफेसर मिस्टर राजर्स भी अपने विषय में निपुण थे और उन्हीं के पढ़ाये हुए, उनके शिष्य, लक्ष्मी नारायण मिश्र सहायक प्रोफेसर थे और पीछे से गणित-साइन्स, दोनों के प्रोफेसर हो गये.
इतिहास के प्रोफेसर इङ्लिस्तान से एक सिफारिशी युवक बुलाये गये,जिनको अयोग्यता के कारण कोई डिग्री न मिल सकी तो उन्हें बनारस कालिज के गले मढ़ा गया.इनको विद्यार्थी बहुत तंग किया करते थे और इनकी इतिहास से अनभिज्ञता की पोल खोला करते थे.
अंग्रेजी के सहायक प्रोफेसर दो हिन्दुस्तानी एम०ए० थे-एक बाल्कृष्ण भट्ट और दूसरे उमाचरण मुकर्जी.ये दोनों भी अपने विषय में बहुत योग्य थे, जिनमें भट्टजी तोसदाचार की मूर्ति थे.दोनों ही कालिज के अतिरिक्त एण्ट्रेंस की दोनों कक्षाओं को भी पढ़ाया करते थे.रह गये दो प्रोफेसर उन विषयों के जो गौण सस्मझे जाते हैं .अंग्रेजी उस समय मुख्य भाषा समझी जाती थी.ब्रिटिश गवर्नमेंट के स्कूलों और कालिजों में अब भी मुख्य भाषा अंग्रेजी और संस्कृत तथा फारसी-अरबी दूसरी वा गौण भाषा समझी जाती हैं.संस्कृत के उपाध्याय पण्डित रामजसन थे जो प्रिन्सिपल ग्रिफिथ को संस्कृत से अंग्रेजी उल्था में भी सहायता देते थे.इसके अतिरिक्त किसी विशेष आश्रय पर इनका ग्रिफिथ साहब पर बड़ा अधिकार था.यही कारण था कि इनके बड़े लड़के लक्ष्मीशंकर मिश्र एम०ए०पास करते ही प्रोफेसर बन गये.दूसरे उमाशंकर अंग्रेजी में फ़ेल होकर बिजनौर जिला के ताजपुर के राजा के पुत्रों के अध्यापक नियत  होकर भेजे गये और तीसरे रमाशंकर मिश्र एम०ए० परीक्षोत्तीर्ण होते ही पहले बनारस कालिज केमें गणित के सहायक प्रोफेसर और फिर अलीगढ़ मेंस्थापित नये  ऐंग्लो महम्मडन कालिज के गणित के मुख्य प्रोफेसर बन कर गये.

Friday, January 27, 2017

स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा (२)



    बनारस कालिज के प्रिन्सिपल और प्रोफेसर
बनारस में विद्यार्थी बनकर मैं संवत१९३० के पौष मास से लेकर संवत१९३४ के ज्येष्ठ मास तक बराबर रहा.इस अन्तर में केवल संवत१९३२ का पूरा वर्ष रेवड़ी तालाब के स्कूल ‘जयनारायनज कालेज’ में गुजारा, शेष साढ़े तीन वर्ष बनारस कालिज की चारदीवारी में ही व्यतीत किये.रेवड़ी तालाब के स्कूल में एक वर्ष मेहमान बनकर ही काटा,असली विद्यागृह मैं कुइन्स कालिज को ही समझता रहा.
एक बात यहाँ बतला देनी आवश्यक है.उन दिनों संयुक्त प्रान्त में कोई यूनिवर्सिटी न थी  और ना पंजाब में ही .दोनों प्रान्तों के विद्यार्थी एण्ट्रेंस से लेकर एम.ए.  तक की परीक्षा कलकत्ता यूनिवर्सिटी के अधीन देते थे.हाँ,संस्कृत विद्यालय विभाग अपने आप में अवश्य स्वतन्त्र था.
कालिज के प्रिन्सिपल ग्रिफिथ साहब थे जो वाल्मीकीय रामायण का अनुवाद इंग्लिश पद्य में करने के अतिरिक्त चारों वेदों के भी अनुवादक थे.पाँच फीट से शायद एक आध इंच ही लम्बे हों,परन्तु थे नख-शिख से दुरूस्त.जैसे वामन आप थे वैसा ही बौना भृत्य आपको मिला हुआ था.उसने भी साहब बहादूर के अनुकरण में गमुच्छे रक्खे हुए थे.ग्रिफिथ साहब एक टांग से लंगड़े हो चुके थे.इसका कारण भी विचित्र था.कवि ही तो ठहरे, टमटम इतनी ऊँची बनवाई कि जब एक सड़क से दूसरी सड़क की ओर घुमाने लगे तो गला तार में फंस गया और साहब शेष जीवन भर के लिये लंगड़े हो गये.लंगड़ी टांग की एड़ी जरा ऊंची रखवाते और ऐसी सावधानी से चलते कि देखने वाले को टांग का व्यंग प्रतीत न होता.शौकीन ऐसे थे कि नया कोट वा नई पतलून पहिरते समय यदि तनिक भी बेढब मालूम हुई तो ब्बाहर के बरामदे में फेंक दी गई.जो भी भृत्य उपस्थित हुआ उसके भाग्य उदय हो गये.बंगले की सजावट जगत-प्रसिद्ध थी.ऐसा कोई ही हतभाग्य विद्यार्थी होगा जिसने गल्मुच्छ वाले बौने भृत्य को अठन्नी वा रूपया देकर ,प्रिन्सिपल साहब की अनुपस्थिति में उनकी नरम गद्देवाली कोचों और कुर्सियों का आनन्द न लूटा हो.कवि ने विवाह तो किया नहीं था, परन्तु बीच के सड़क की दूसरी ओर एक कोठी किराये पर  लेकर अपनी सदा साहागिन प्रिया को रखा हुआ था.नाजुक इतने कि यदि कोई उनकी ओर बढ़े तो पीछे हटते जाते थे.साधारण पुरूष के मुँह से निकली अपावायु को सहन नहीं कर सकते थे.प्रायः बोते बहुत धीरे थे और इसीलिए मिलने वाले को आगे बढ़ना पड़ता था,परन्तु जब पढ़ाते तो गरज ऐसी होती कि एक-एक शब्द स्पष्ट सुनाई देता.शायद गरज की सारी शक्ति का संचय उसी समय के लिये कर छोड़ते थे.मेरे अंग्रेजी प्रोफेसर की बीमारी पर एक बार , संवत १९३४ मेंउन्होंने मेरी कक्षा को एक सप्ताह तक इंग्लिश पद्य पढ़ाया था,जिसे मैं कभी नहीं भूला.

Thursday, January 26, 2017

‘कल्याण मार्ग का पथिक’- स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा (१)



(‘कल्याण मार्ग का पथिक’ स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा है. यह हिन्दी की संभवतः पहली आत्मकथा है.इस पुस्तक को भाषा  और वर्णन की रोचकता तथा उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज के जीवन्त चरित्रों से परिचय के लिये तो पढ़ा ही जाना चाहिये , आत्मकथा की बेबाकी और ईमानदारी के लिये भी यह एक जरूरी सन्दर्भ है. इस शॄँखला में डेढ़ सदी पुराने भारतीय समाज के कुछ चित्र देने का प्रयास रहेगा)
वकालत की परीक्षा में रिश्वत
मार्गशीर्ष संवत १९४३ के उत्तरार्ध(दिसम्बर सन १८८६ ई.के आरम्भ) में मैंने वकालत की परीक्षा दी थी और परिणाम महिनों तक रुका रहा.इसका कारण यह था कि  पंजाब यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार मिस्टर लार्पेण् ने इस वर्ष दोनों हाथों से लूटना शुरू कार दिया था.गतवर्ष तो अभी साहब बहादूर नव-शिक्षित थे इस्लिये कोई इक्का-दुक्का ही उनके काबू चढ़ा, इस वर्ष वे किसी को सूखा छोड़ना नहीं चाहते थे.वकालत में पास होने के लिये १५०० रूपये प्रति याचक की खुली शरह थी.साहब बहादूर ने दलाल वा एजेण्ट भी रख छोड़ा था जिसका नाम गण्डा सिंह था.२०० रूपये भाई गण्डासिंह की भेंट होते ही १०० अंग्रेज देवता की पूजा में स्वीकार हो जाता और वकालतरूपी  स्वर्ग-प्राप्ति की अदृश्य हुण्डी उसी दम मिल जाती.मुखतारी के प्रार्थियों से शायद १००० रूपये,बी.ए.,एम.ए. से कुछ कम लिया जाता था.कोई-कोई एफ़.ए. भी लार्पेण्ट गर्दी चक्कर पर चढ़्ने से न बच सके.कोई-कोई तो अक्ल के  ऐसे पुतले निकले कि पास होने तक ही शान्त न हुए प्रत्युत पहले-दूसरे होने की ठान ली.वकालत में पहले होनेवाले के लिये ३५०० और दूसरे होनेवाले के लिये २५००रूपये.यह चढ़ावा केवल उन्हीं को नहीं चढ़ाना पड़ा जो सचमुच अनुत्तीर्ण थे बल्कि जो पास थे उनके भी घर पहुँच-पहुँचकर साहब के दूत ने उनकी जेबें भी खाली कीं.यह रोग यहाँ तक बढ़ा कि मेरे कुछ मित्रों ने मुझे पत्र लिखकर लाहौर बुलाया, क्योंकि गण्डासिंह मुझे ढूँढता और कहता फिरता था कि यद्यपि मैं पास हूँ तो भी बिना १००० रूपये दिये मुझे भी प्रमाणपत्र से वंचित रहना पडेगा.मैं यह दृढ़ संकल्प करके लहौर पहुँचा कि इस अनाचार का भण्डा फोड़कर रहूँगाअ, किन्तु मेरे पहुँचने से पहिले ही हिसार के प्रसिद्ध वकील लाला चूड़ामणि ने गण्डासिंह की खूब खबर लेकर सर विलियम रैटिंगन (उस समय वाइस चाँसलर) के यहाँ दुहाई जा मचाई.वाइस चाँसलर ने उसी समय सायंकाल को परिणाम की सारी फाइल सँभाल ली.लाला चूड़ामणि भाग्यशाली थे कि पहल उनकी ओर से हुई.विश्व्विद्यालय सभा ने अकेले लाला चूड़ामणि को पास करके बाकी सबको फेल कर दिया, और मैं भी बलवे की भीड़ में निरपराध बालक की तरह गोली का शिकार हो गया