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Tuesday, May 1, 2018

बाजार में जुलूस


मई दिवस के अवसर पर उपन्यास फांस का एक अंश 


आईसक्रीम के मौसमी काम में कोई बरकत नहीं, यह सोचकर ही वह फिर से सब्जी की रेहड़ी लगाने लगा था। लेकिन मोहल्ले-मोहल्ले घूमने की बजाय अब उसने बाजार के बीच ही एक  ठिया तलाश कर वहीं रेहड़ी को जमाने तय कर लिया था। पर वह क्या जानता था कि जिस काम को बहुत टिकाऊ और हमेशा जारी रहने वाला समझ रहा है, समय उसे वैसा रहने न देगा ? बाजार के दुकानदारों को रेहड़ी वालों की कमाई चुभने लगेगी और वे ही दुश्मन बन कर खड़े हो जाएंगे और बाजार को अपनी बपौती मान रहे दुकानदारों के क्षुब्ध होने पर रेहड़ी वालों के लिए अपने कारोबार को जारी रखना ही मुश्किल हो जाएगा ? पुरूषोत्तम तो हर वक्त अपनी किस्मत को ही कोसता। उसने तो मान लिया था कि जिस भी धंधे में हाथ डाला नहीं कि वही चौपट हो जाता है। 
मुश्किल से जुटाए पैसों से तैयार करवाई गई रेहड़ी हमेशा-हमेशा के लिए गली के नुक्कड़ में धूप-बारिश और सर्दियों में पड़ने वाले पाले से सड़ने और जर्जर होने के लिए छोड़ देनी पड़ी। बल्कि वही क्यों उस जैसे ही दूसरे, जो बाजार के बीच अपने रेहड़ी पर लदे सामानों के साथ आवाज लगा रहे होते थे, धंधे से हाथ धोने को मजबूर हो गए। फल और सब्जी वाले ही नहीं रेहड़ी पर कच्छा-बनियान और नाड़े बेचने वाले, चूड़ी कंगन या फिर लौंग इलायची और दूसरे मसाले बेचने वालों को भी ठिकाना तलाशना आसान न रह गया था। वे सभी दुकानदारों की आंखों की किरकिरी होने लगे। पूरे बाजार के बीच आवाज मारते हुए वे फेरी लगाते। ग्राहकों के पुकारने पर रुक जाते और माल बेचने लगते। रेहड़ी जिस दुकान के सामने लगी होती, गल्ले से बाहर को झांकते हुआ दुकानदार रेहड़ी वाले को हड़कान लगाता।

- अबे बाप की जगह है क्या...चल...चल आगे निकल।

दुकानदार को अनसुना करते हुए रेहड़ी वाला ग्राहक से उलझा रहता। बाजार में छा रही मंदी के मारे दुकानदार रेहड़ी-ठेली वालों को ही कहर-बरपा करने वाले के रूप में देख रहे होते। बिक्री का गिरता ग्राफ उनकी परेशानियों को बढ़ा रहो होता और चौकड़ियों में बतियाते हुए वे रेहड़ी-ठेली वालों को गलिया रहे होते। हर वक्त ऐसी ही बातों में उलझे रहते। अखबारों में छप रही खबरें उनको परेशान किए रहती। अपने-अपने तरह से हर कोई स्थिति का आकलन करता। कभी कोई राजनेताओं को गाली देता तो कभी सरकार को कोसता। तभी कोई दूसरा, जो कहीं गहरे तक उस पार्टी को अपना समझता, जिसकी सरकार होती, अपना एतराज दर्ज करता। बहस तीखी होने लगती। आंखों ही आंखों में अपनी-अपनी पार्टियों के हिसाब से उनके समूह, स्थितियों के पक्ष और विपक्ष में तर्क रखने लगते। बहसों के परिणाम थे कि जब चुनाव होते तो सरकार पलट जाती। जीतने वाली पर्टियों के दुकानदार मिठाई बांटते, जश्न मनाते। लेकिन कुछ ही समय बाद, सरकार के द्वारा लिए गए फैसलों को जब ज्यों को त्यों पाते तो फिर से किलसने लगते। फिर वही बहस-मुबाहिसें चालू होती। पर समस्या से निजात पाने का कोई रास्ता उन्हें न सूझता। दुकानदारों को लगने लगा था कि लोग सामान तो खरीद रहे हैं पर दुकानों से नहीं बल्कि रेहड़ी ठेली वालों से। दुकान के समाने खड़े हुआ वह रेहड़ी वाला उन्हें दुश्मन लगने लगता, जो बेशक ग्राहक से हील-हुज्जत करता लेकिन माल बेच पाने में सफल हो जाता। रेहड़ी ठेली वालों की हँसी  ठिठोली दुकानदारों को चिढ़ाने वाली लगने लगी थी। डॉक्टर होगया को चिढ़ा-चिढ़ा कर खिलखिलाने वाले रेहड़ी-ठेली वालों के तमाशे उन्हें बुरे लगने लगे। हलवाई ने दुकान के बाहर कच्छे बनियान बेचने वाले से साफ-साफ कह दिया, 
- कल से अपना ठीकाना कहीं और ढूंढ ले, ... कोई शरीफ घर की औरत जिस वक्त यहाँ...थड़े पर खड़ी हो कर लड्डू या बर्फी तुलवा रही होती है, उसी वक्त तेरा ब्रा और पेन्टी दिखाना जरूरी है ? 
कच्छे बनियान वाले की हकलाती जुबान से कुछ फूटने को भी होता तो हलवाई उसे चुप करा देता,
-...जा...जा साले ... अपनी लुगाई को खड़ा कर लियो और उसके फिट करके दिखाईयो ... देखिये बीबी जी कैसा फिट आया है।

बर्तन वाले ने बाहर को टंगे बर्तनों से बार-बार टकराती रेहड़ी की तिरपाल को जोर से खींचते हुए उस गजक-रेवड़ी और चूरन-कड़ाका बेचने वाले को ऐसा झिड़का कि इन्ट्रवल के समय स्कूल के बच्चों का धक्का-मुक्क्ी करने का आनन्द ही छिन गया। पहले से तय किराये को बढ़ा देने की चुनौति वह स्वीकार न कर पाया। कितने ही दूसरे रेहड़ी वाले अपनी गरज के चलते ज्यादा किराया देने को मजबूर होने लगे लेकिन जिनके लिए पहले से दुगने किराये को झेलना संभव न हो रहा था, अपने जमे-जमाये ठिये से हाथ धोने लगे। यह सोचकर कि कहीं और ठिया लगा लेंगे, ठिए उखाड़ने लगे। पुरूषोत्तम के लिए कपड़े वाले की दुकान के आगे खड़े होकर टमाटर, गोभी या भिंडी की आवाज लगाना संभव न रह गया। किराये के अलावा वह तो पहले ही रोज की मुफ्त सब्जी के अतिरिक्त बोझ से दबा था। कपड़े वाले का मन जब भी नींबू-पानी पीने का हो जाता तो पुरूषोत्तम महाराज न सिर्फ नींबू काटकर रस निचोड़ने को मजबूर होते बल्कि कई बार मन ही मन किलसते हुए दौड़े जा रहे किलोमीटर दूर-प्याऊ तक, पानी लेने। नींबू-पानी की अतिरिक्त खेप सुबह दुकान में भर कर रखे गए पानी को खत्म कर देती। लेकिन कपड़े वाले की निगाह में तो सिर्फ ठिये के किराये के रूपये ही मौजूद रहते। दूसरे दुकानदारों ने किराया बढ़ा दिया है, कई बार के राग अलापने के बाद एक दिन वह भी अपनी पर आ गया। 
पुरूषोत्तम ने बढ़ा हुआ किराया देने की बजाय कपड़े वाले से किनारा करना ही उचित समझा। अगले दिन रेहड़ी कपड़े वाले की दुकान के आगे लगाने की बजाय कहीं और लगाने का तय कर लिया। लेकिन कोई ऐसी जगह जहाँ ठिया जमाना संभव हो, उसे पूरे दिन इधर-उधर फिरते हुए भी नसीब न हुई। जहाँ भी खड़ा होने को होता कि दुकानदार की झिड़क सुनाई देने लगती। बल्कि कई बार तो ऐसा भी हुआ कि किसी ग्राहक को माल बेचने के लिए उसे रेहड़ी को खड़ा करना ही पड़ा। लेकिन जिस भी दुकान के आगे रुकना हुआ, दुकानदार झल्लाते हुए ऐसे बाहर निकला कि मानो अभी रेहड़ी ही पलट देगा। उस वक्त तो पुरूषोत्तम के गुस्से का ठिकाना न रहा दुकानदार की मजाल कि आगे बढ़े और छेड़े रेहड़ी का माल! लेकिन दिन भर की इस फिरड़ा-फिरड़ी के बाद भी बिक्री पिछले दिनों की अपेक्षा कम ही रही थी। दुकानदारों से लड़ाई रोज का किस्सा होने लगी। बाजार के बीच इधर से उधर फेरी लगाते हुए पुलिस वालों से तो हर कोई बचता फिरता। दूसरे रेहड़ी वालों की तरह अब पुरूषोत्तम के पास भी अपना कोई ठिकाना न था और न ही उसकी कोई संभावना ही दिखाई दे रही थी। बाजार के बीचों बीच फेरी लगाते रेहड़ी वाले माल बेचने की कोशिश में कभी किसी दोपहिया वाहन वाले की गाली सुनते तो कभी पैदल गुजर रहे राहगीर के रेहड़ी पर टकरा जाने पर ऐसी जलालत के शिकार होते कि गुस्सा उनके भीतर भी उठ रहा होता। रेहड़ी चलाने के लिए एक तरह का कानूनी लाइसेंस जो पुलिस वालों की जेब गरम करने के बाद ही मिलता, पूरी तरह से सुरक्षित नहीं कहा जा सकता था। दुकानदारों की चिक-चिक ग्राहक को ही भागने को मजबूर कर देती। झगड़ा कभी भी हो जाता। दुकानदारों की ‘चट्टानी’ एकता थप्पड़, मुक्कों और धक्के का सबब हो रही होती और पुलिस के सिपाही का डंडा हिचकोले खा रही रेहड़ी के भी नट-बोल्ट को हिला दे रहा होता। उस वक्त तो कोई भी रेहड़ीवाला अपने को पूरी तरह से असहाय ही पाता। 
दुकानदार एक हो जाते और मरने-मारने पर उतारू होते। रेहड़ी वाले एक-दूसरे को पिटते देख, अपने साथी की तरफदारी की हिम्मत भी न कर पाते। हर एक को लगता कि शायद उसकी खामोशी कल से उसका ठिया हो जाए। जबकि दुकानदारों का कोप भाजन हर एक को होना पड़ रहा था। चाहे वह कच्छा-बनियान बेचने वाला हो चाहे आम-पापड़, अचार और मुरब्बे बेचने वाला। मूंगफली बेचने वाला हो, चाहे पानी-बतासे, टिक्की और चाट, या फिर फल, सब्जी या कोई भी दूसरा सामान। लेकिन रेहड़ी वालों के बीच जातिगत भेदभाव जैसी गहरी खाई अपने बेचे जाने वालों सामानों की विशिष्टता के कारण मौजूद होती। सामानों की विभिन्न किस्मों ने उनके भीतर विशिष्टताबोध का ऐसा संसार रचा हुआ था कि कच्छे-बनियान वाला फल वाले को अपने से कमतर समझता। यहाँ तक कि फल वाला सब्जी वाले को अपने से कमतर मानता। श्रेष्ठताबोध में डूबे वे एक दूसरे से कोई मतलब ही न रखते और एक-एक कर पिटने को मजबूर होते। उनके गुस्से का संगठित स्वरूप उभरना संभव ही न था। बाजार के भीतर रोजाना मौजूद रहते हुए भी वे एक दूसरे से उतने ही अनजान होते जैसे बाजार में आए दिन पहुँचने वाले ग्राहकों से। कोई किसी दूसरे की फटी में टांग अड़ाने को तत्पर न था। सिर्फ सब्जी और फल वालों के बीच ही विशिष्टता बोध की वह दीवार थोड़ा कम मजबूत होन की वजह एकदम स्पष्ट थी कि मंडी में एक ही जगह से माल उठाने और एक ही तरह की स्थितियों में आढ़तियों की चालाकियों से निपटने के चलते वे कुछ सामानताएं महसूस करते थे। गुस्से को संगठित रूप दे पाने में इसीलिए उनकी भूमिका एक हद तक महत्वपूर्ण भी हो सकती थी। सड़े टमाटर, पके हुए केले या दूसरे खराब हो चुके फल और सब्जी उनके हथियार हो गए। उन्होंने रात के अंधेरे

में पूरे बाजार की सड़क पर उनको बिखरा दिया।
दुकानदारों के प्रतिरोध में रेहड़ी-ठेली वालों का प्रयोग बहुत सफल न हो पाया। सड़ती हुई फलों और सब्जियों की गंध ऐसी थी कि बाजार के भीतर होने का मतलब उल्टी का एक तेज झटका। नाक को दबाए दुकानदार दुकानों को खोल कर बाजार को बाजार का रूप देते रहे और खरीदार, एक सुई के लिए भी जिनकी निर्भरता बाजार पर ही होती, नाक को रूमाल, दुपट्टे या किसी भी कपड़े से ढकते हुए बाजार में घुसने को मजबूर थे। सड़ांध का तेज भभका रेहड़ी-ठेली वालों के प्रति उनके भीतर गुस्सा भरने लगा। रेहड़ी-ठेली वाले एकदम अलग-थलग से पड़ने लगे। नितांत अकेले। डॉक्टर होगया, जो रेहड़ी-ठेली वालों और दुकानदारों के बीच बंटती खाई के ही विरुद्ध था, हर तरफ से मार झेल रहे रेहड़ी-ठेली वालों के साथ फिर भी खड़ा रहा दुकानदारों को वह सनकी डॉक्टर उस वक्त तो और भी सनकी नजर आया जब वह रेहड़ी-ठेली वालों को इकट्ठा करने लगा। तुफैल जो हर वक्त डॉक्टर को चिढ़ाता रहता था, हर एक को डॉक्टर की दुकान पर इकट्ठा होने की सूचना देता रहा लोग पूछते,

- क्यों ?...किसलिए ?

वह नटखट अपने ही अंदाज में होता। 

- होगया ... हो ही गया आज तो! 

डॉक्टर की नेकदिली और अपने प्रति लगाव को रेहड़ी-ठेली वाले अच्छे से महसूस करते थे। डॉक्टर बुलाए और वे न आएं, ऐसा कैसे संभव था ? मरीज अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे और डॉक्टर उनसे प्रार्थनारत था कि आज का दिन उसे मौहलत दे दें बस। बेशक गम्भीर रूप से अस्वस्थों के प्रति वह स्वंय बेचैनी से भरा था और जहाँ तक संभव था उपचार में जुटा था। भीड़ बढ़ती चली जा रही थी। दुकानदारों के लिए कौतुहल का विषय था। वे इतना तो जान रहे थे कि डॉक्टर ने ही रेहड़ी-ठेली वालों को इकट्ठा किया है पर किसलिए, यह नहीं जानते थे। कंधे पर झोला टांग नाड़े बेचने वाला, धूप-बत्ती और अगरबत्ती बेचने वाला और दूसरी तरह के सामान बेचने वालों के अलावा हुजूम में ज्यादातर सब्जी और फल की रेहड़ी लगाने वाले ही थे। डॉक्टर के आदेश पर वे सभी, बिना हिचके, कहीं भी चलने को तैयार हो सकते थे। 
तुफैल की चुहल जारी थी। दुकानदार दूर से ही मजा लूट रहे थे। उनकी फब्तियों का अंदाज बिल्कुल बदला हुआ था। डॉक्टर जवाब न देना ही उचित समझता रहा दुकानदारों की फब्तियों में चुहल नहीं, नफरत से भरी चिढ़ाने वाली कार्रवाई का गाद साफ झलक रहा था। वह तो प्यार से छेड़ने पर ही जवाब दे सकता था। खुद चिढ़ जाने और चिढ़ाने वालों से तो उसने कभी नाता ही न रखा।
अपने व्यवसाय की विशिष्टता और जीवन में कभी ऐसे हुजूम के बीच शामिल न हुआ डॉक्टर कैसे जान सकता था कि एकत्रित भीड़ से क्या कहे ? 

- तुफैल...मेरे बच्चे... सब आ गए क्या ? ... अबे वो तरबूज वाला नहीं दिख रहा 

- हम इधर  डॉक्टर साहिब।

उस छोकरे को डॉक्टर तब ही से तरबूज वाला पुकारता था जब वह उससे पहली बार मिला था। उलट गई तरबूज की रेहड़ी की वो यादें उसे हमेशा तरबूज वाले के प्रति अतिशय रूप से विनम्र बना देती थी। तरबूज वाला भी डॉक्टर के प्रति गहरी श्रद्धा रखने लगा था। 

- ठीक है...ऐसा करते हैं हम एक जुलूस की शक्ल में चलते हैं...घूमेंगे...पूरे बाजार में। 

- ठीक है डॉक्टर साहब...! ठीक है डॉक्टर साहिब।

ढेरों आवाजों ने समर्थन किया था। वे सभी उत्साह से भरे थे। डॉक्टर उनसे भी कहीं ज्यादा। 

- मकदूम !

डॉक्टर ने झल्ली वाले को आवाज दी। झल्ली को उठाए ही वह हुजूम के बीच खड़ा था। मण्डी जाने की बजाय डॉक्टर की दुकान पर इक्ट्ठे हो गए सब्जी और फल वालों की वजह से वह भी खाली था। वरना सुबह का वक्त हो और मकदूम यूंही झल्ली उठाए घूमे भला ! अभी केले ढोने में जुटा है तो दूसरी ओर से प्याज वाले की आवाज सुनाई दे रही, 

- अबे जल्द धर आ इसे...प्याज की बोरी तुली पड़ी है यहाँ। 

डॉक्टर की आवाज सुन, भीड़ के बीच से ही, झल्ली उठाए मकदूम डॉटर की ओर को बढ़ा। गर्व से उसका सीना तना हुआ था। डॉक्टर के इस तरह भीड़ के बीच पुकारने से वह खुद को विशिष्ट समझने लगा। मकदूम उन गिने-चुने में से एक था, डॉक्टर जिन्हें नाम से भी जानता था। 

- मकदूम तू अपनी झल्ली लेकर ही चलना...आगे आगे ... औरों के पास तो ऐसा कुछ है नहीं जो जुलूस, जुलूस की तरह दिखे। 

- मैं नारे लगाऊं डॉक्टर साब।

तुफैल के मुँह से अपने लिए होगया की बजाय डॉक्टर साहब सुनना डॉक्टर को कुछ अजीब-सा लगा लेकिन उसमें एक सच्चाई थी। अपने प्रति तुफैल के प्यार को वह महसूस कर पा रहा था। 

- हाँ भाई लोगों नारे लगाने वाला तो ‘होगया’ ... ये तुफैल का बच्चा लगाएगा। 

खुद का ही मजाक बनाता डॉक्टर उनके सामने था। उसके कहने का अंदाज इतना खूबसूरत था कि हँसी का फव्वारा छूट गया। तुफैल तो मारे शर्म के पानी-पानी हो गया। 

- हाँ...मैं तो होगया ... किसी और को तो नहीं होना है बे!

स्वंय को सामान्य दिखाने के लिए उसकी खिसियानी सी आवाज में होगया का अर्थ इतनी स्पष्टता के साथ उभरा कि अवरोह की ओर खिसक रही सामूहिक हँसी  का वह स्वर पंचम में पहुँच गया। 

- ठीक है फिर ... तुफैल नारे लगाएगा सब उसका जवाब देंगे।

डॉक्टर का गम्भीर स्वर उभरा और हँसी  ठिठोली का वातावरण एक गम्भीर कार्रवाई में बदलने लगा। मई दिवस की परम्परागत रैलियों का दृश्य हर एक का देखा भाला था। पर उस जुलूस को देखकर उनकी हँसी के गोले छूटने लगते थे। बाबू साहब से दिखते लोगों का इस तरह नारे लगाते हुए जाना उन्हें लुत्फ देता था और हास्यास्पद भी लगता जब वे जानते कि ये अपने को मजदूर मान रहे हैं। बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारियों के उस जुलूस को वे मजदूरों के जुलूस के रूप में देख ही न पा रहे होते थे। लेकिन उनके नारों की आवाजों में वे अपने मन के भीतर उठते भावों की अभिव्यक्ति तो महसूस करते ही थे। जुलूस में नारा लग रहा होता- इंकलाब ! जवाब में तुफैल भी चिल्लाता-जिंदाबाद!! भीड़ के बीच भी उसकी आवाज ऐसे गूँजती थी कि नारे का जवाब दे रहे जुलूस के लोग भी चौंकते थे और उस नटखट कामगार के प्रति एक आत्मीय मुस्कराहट उनके चेहरों पर बिखर जाती। 
संघर्ष और एकता का कोई ठोस अनुभव न होने के बावजूद भी डॉक्टर जानता था कि समस्या की जड़ बाजार के दुकानदारों और रेहड़ी वालों के बीच आपसी मन-मुटाव में नहीं है। इकट्ठे हुए साथियों और दुकानदारों से इस बात को वह कई बार कहता भी रहा हर उस मौके पर जब भी कोई दुकानदार किसी रेहड़ी वाले को अपनी दुकान के सामने खड़े होकर सामान बेचने पर उससे लताड़ता तो डॉक्टर हस्तक्षेप किए बिना न रह पाता। बेशक दुनदारों को उस वक्त कोई ढंग की बात समझा पाना संभव न होता पर डॉक्टर के बीच में पड़ जाने से कितने ही झगड़े, मारपीट की पराकाष्ठा को पहुँचने से पहले रुक जाते। रेहड़ी ठेली वालों के साथ होते हुए भी वह बाजार के उन दुकानदारों के विरुद्ध कतई नहीं था, जो उसकी इस कार्रवाई पर भी, फब्तियां कस रहे थे। समझदारी के इस बिन्दु से ही डॉक्टर ने इकट्ठा भीड़ को संबोधित किया और जो नारा दिया उसका जवाब जब गूंजा तो दुकानदार पहले तो चौंके पर फिर उसे डॉक्टर की खब्त समझ, अपने में मशगूल हो गए। तुफैल ऊंची आवाज में दोहरा रहा था-

- व्यापारी एकता - जिन्दाबाद!

- रेहड़ी-ठेली दुकानदार एकता - जिन्दाबाद!

तुफैल की आवाज को जवाब जिन्दाबाद! जिन्दबाद! के नारों से गूंज रहा था। 

नारे लगाते हुए जुलूस बाजार के बीच से गुजरने लगा। बाजार के बीच रेहड़ी-ठेली वालों का रेला सा बह रहा था। दुकानदार चौंकते हुए अपनी दुकानों से बाहर झांकने लगे। डॉक्टर होगया की ‘खब्त’ को उसके नारों की शक्ल में सुनने का प्रभाव चाहे जो रहा हो पर जुलूस का विरोध करने की हिम्मत किसी की न हुई। उन पुलिस वालों की भी नहीं, जो मरियल से दिखते इन रेहड़ी वालों को जब चाहे धमका लेते और जिनसे डरते हुए रेहड़ी वाले इधर से उधर दुबकने की कोशिश करते। बाजार के बीच आवाजाही कुछ थम सी गई थी। सड़क के बीच घूम रहे लोग दुकानों के थड़े पर खड़े होकर अनिच्छा से उस नजारे को देख रहे थे, जिसमें वे रहड़ी वाले भी शमिल होते गए जो अपने सामानों की विशिष्टता के चलते अपने को सब्जी और फल वालों की तरह का रेहड़ी वाला मानने को तैयार नहीं थे।

Monday, October 19, 2015

बीच का आदमी

बीच का आदमी सतत रचनारत रहने वाले वरिष्‍ठ कथाकार मदन शर्मा का ताजा उपन्‍यास है। हाल ही में उपन्‍यास से गुजरने का अवसर मिला। अपने शीर्षक की अर्थ ध्‍वनि को प्रक्षेपित करती उपन्‍यास की कथा में भले भले बने रहने की मध्‍यवर्गीय प्रवृत्तियो को अच्‍छे से सामने रखती है। मदन शर्मा के कथा विन्‍यास की खूबी संवादों भरी भाषा में परिलक्षित होती है। पात्रों की सहजता एवं स्‍वाभाविकता वातावरण के साथ जन्‍म लेती है। कारखाने के जन जीवन को करीब से देखने वाले उपन्‍यासकार मदन शर्मा के उपन्‍यासों से गुजरना एक ऐसा अनुभव है जो बहुत बगल से गुजर जा रहे समय को देखने समझने की दृष्टि देता है। उनके उपन्‍यास का एक छोटा सा अंश यहां प्रस्‍तुत है।    
 वि गौ

उपन्यास अंश

   सभी कुछ बदस्तूर जारी था। आठ से पांच तक साधारण डयूटी, जिसमें एक से दो बजे तक लंचब्रेक और शाम, पांच से सात तक ओवरटाइम। वही मशीनों की कीं कीं और चीं चीं, लगातार खटखट, वही वर्कर लोगाों का आपसी गालीगलौज, मुक्कम-मुक्का, अश्लील मज़ाक और सुबह से शाम तक 'ऊपरवालों के साथ नाज़ायज़ रिश्तेदारियां क़ायम करना। वही अधिकारी वर्ग के उल्टे-सीधे और मूर्खतापूर्ण आदेश और निदेश, वही लम्बी लम्बी बहसें और तकरार... अरे मेरा काम तो सबसे अधिक हुआ था, फिर पीस वर्क प्राफिट, दूसरों को कैसे अधिक मिला?... लो, मेरा टूल फिर चोरी हो गया। मैंने अभी अभी ग्राइंड करके, यहां फ़ेस-प्लेट पर रखा था... उसका मिलिंग कटर ब्लंट हुआ पड़ा है और वह भद्र पुरूष बिना देखे ही कट देता चला जा रहा है... मुझे इस बार साबुन की टिकिया क्यों नहीं मिली? हाथ कैसे धोऊंगा?... उसकी मशीन का पानी बदला था। मगर यहां तो... मेरा काम इतना बढि़या बना, तब भी इंस्पेक्शन वालों ने पास नहीं किया। उन्हेें चाय की ट्रे और समोसे जो नहीं पहुंचाये गये... मेरा ट्रेडटेस्ट, मालूम नहीं कब होगा! छह महीने से ये लोग झांसा दिये जा रहे हैं! ... भर्इ वाह! उसका दो बार प्रमोशन हो गया! यह होता है रिश्तेदार होने का फ़ायदा!... आप कुछ करते क्यों नहीं? क्यों नहीं कुछ करते?
गरदन उठा कर देखा, लोकराम खड़ा है। 
- बुलाया है? मैंने जानते हुए भी पूछा।
-फौरन पहुुुंचने को कहा है।
- और कौन-कौन हैं वहां?
-अकेले हैं इस वक़्त तो।
-चलो, मैं आ रहा हूं।

वह हर रोज़ की तरह, कुर्सी पर तना बैठा था। काग़जों पर टिप्पणियां लिखने और हस्ताक्षर करने के बीच ही, वह मुझ से बोला, - क्या पोज़ीशन है आप के ग्रुप की इस महीने?
-पोज़ीशन ठीक है सर।
-ठीक का मतलब? टारगेट पूरे हो जायेंगे या नहीं?
-ख़याल तो यही है, कि हो जायेंगे।
-ख़याल? वह क्या होता है? मुझे पक्की बात बताओ।
-एक घंटे तक, चेक करकेे मैं आप को पूरी लिस्ट दे दूंगा।
-स्पेयर आर्डरस में भी ढील नहीं होनी चाहिये।
-इस बारे में आप निशिचंत रहें।
-ठीक है, चेक करने के बाद, लिस्ट बना कर दीजिये।
एक घंटे से भी कम समय में, मैं सूची तैयार करके पुन: मैनेजर के कार्यालय में उपसिथत हो गया। 
उसने सूची पर सरसरी नज़र दौड़ार्इ। महसूस हुआ, वह संतुष्ट नहीं हुआ। वैसे कोर्इ अप्रसन्नता भी उसने व्यक्त नहीं की। 
-अच्छा, ठीक है। ऐसा करना... मैं जहां जहां पेंसिल से लाल निशान लगा रहा हूं, ये काम सबसे पहले निकलवा देना।
-राइट सर।
मैं वापिस दरवाज़े तक ही पहुंचा था, आदेश मिला, -ज़रा रूकिये।
मैं पहले की तरह, फिर मेज के समीप जा खड़ा हुआ।
-मुझे एक बात याद आ गर्इ, बैठिये।
मैं 'थैंक्स कह कर बैठ गया।
वह कुछ सोचने लगा। फिर बोला, -उस लड़के का क्या रहा?
-जी?
- अरे भर्इ, वह खू़बसूरत और तेज़ तर्रार-सा लड़का, क्या नाम उसका?
-अनिल? 
- वही... कुछ पता चला उसका?
- कुछ पता नहीं चला सर।
- सो सैड! उसके घर वाले तो बहुत परेशान होंगे?
- बहुत ही बुरी हालत है उनके घर में!
- कौन कौन हैं घर में?
- बूढ़ी मां और दो बहनें हैं।
- एक तो वही, जो उस दिन मेरी कोठी पर आर्इ थी?
- जी। दूसरी उससे छोटी है।
--हूं..., कह कर वह पेपर व्हेट से खेलने लगा। फिर बोला, - तो उनके घर में कैसे चल पा रहा है?... हम लोगों को उन बेचारों की कुछ मदद करनी चाहिये। डिपार्टमेंट की तरफ़ से तो उन्हें अभी कुछ भी नहीं मिल सकता।
- वही तो परेशानी है सर। थोड़े से पैसे सेक्शन वालों ने इकटठे करके ज़रूर भिजवा दिये थे।
- उससे भला कितने दिन चलेगा? आपने क्या सोचा इस बारे में?
- इस बारे में, मेरा तो कुछ दिमाग़ काम नहीं कर रहा।
- तो... अच्छा, मैं बड़े साहब से बात करूंगा। लड़कियां कुछ पढ़ी लिखी हैं?
- बड़ी इन्टर पास है और छोटी इन्टर कर रही है।
- अच्छा... देखो, क्या होता है। बड़े साहब से बात करके ही कुछ बताउंगा।
मैं वहां से उठ कर बाहर आया। विश्वास नहीं हो पा रहा था, यह वही एन0 मोहन है!

Monday, August 18, 2014

मुश्किल रास्ता

प्रथम युगवाणी पुरस्कार से सम्मानीत कथाकार गुरूदीप खुराना का का उपन्यास ''रोशनी में छिपे अंधेरे" 1960 के आसापास के गुजरात की कथा को हमारे सामने रख्ता है। स्पष्ट है कि 1960 के आसपास जो स्थितियां थी उनसे नृशंसता के प्रतीक 2002 के गुजरात की कल्पना नहीं की जा सकती थी लेकिन 2002 का गुजरात भी आज इतिहास की एक हकीकत होकर सामने आया है। देख सकते हैं धर्म की आड़ लेकर लगातार तकात बटोरते गये दया भाईयों को सामाजिक रूप से विलग न कर देने के परिणाम कहां तक पहुंचे हैं। बेशक, कथाकार के निशाने में 2002 का गुजरात नहीं है लेकिन उपन्यास की कथा तो पाठक को खुद ब खुद वहां तक ले जा रही है। प्रस्तुत है इसी उपन्यास से एक अंश।
वि. गौ.

चांद खेड़ा की सरकारी कालोनी में एक मिस्टर चौधरी रहते थे। वो थे तो इन्जीनियर, पर विशेष अनुरोध पर उन्होंने स्टाफ के क्वार्टरों में एक एलॉट कराया हुआ था। थे तो हैदराबाद के रहने वाले, पर यह कोई नहीं जानता था कि वो मुस्लिम है। नाम के।बी। चौधरी से यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि कुंज बिहारी है या करीम बक्श या जो भी रहा हो। उनकी पत्नी बाकी औरतों की ही तरह बिन्दी वगैरा लगाती थी। बड़े ही शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। 

दंगों के दौरान पता नहीं दंगईयों को कैसे उनके मुस्लिम होने की भनक लग गई और बड़ी संख्या में आकर उन्होंने उनके क्वार्टर पर धावा बोल दिया। 

जिस बेरहमी से उन्होंने पूरे परिवारजनों को मारा और जिस तरह बेइज़्जत करके मारा, उसे सुनकर कानों पर विश्वास नहीं होता था। मिस्टर चौधरी के गुप्तांग को काटकर उसके मुंह में डालना और फिर ज़िन्दा जलाना और इससे मिलता जुलता ही सलूक बाकी परिवार जनों के साथ करना। यह ऐसी वारदात थी कि सुनकर अमन को आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया। यह हो क्या रहा है? वह हैरान था। 

ऐसा ही भयंकर प्रहार हिन्दुओं को भी सहने पड़े, उन इलाकों में जहां मुस्लिम समुदाय का बोलबाला था। इसी कारण शायद ये लोग मौका देखकर बदला लेने आये थे। लेकिन यह कैसा बदला। दंगई भी अपने घ्ारों में सुरक्षित थे और बदला लेने वाले भी। पिस रहे थे बेचारे बेकसूर, दोनों तरफ़। 

ऐसी घटनाएं चाहे इक्का दुक्का ही हो रही थी, पर उनसे वातावरण में भयंकर दहशत भर गई थी। हिन्दु मुस्लिम इलाकों में जाने से डरते थे और मुस्लिम हिन्दु इलाकों में आने से। मुस्लिम इलाकों में रहने वाले हिन्दुओं की और हिन्दु इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की जान सूखी रहती थी कि पता नहीं कब क्या हो जाए। 

एक शाम अमन को दया भाई टकरा गए, 'कैसे हो चौधरी साहब?" एक कुटिलता भरी टेढ़ी सी मुस्कुराहट थी उनके चेहरे पर। 

’मैं ठीक हूं, आप सुनाएं’ उसने बड़े शांत स्वर में पूछा, 'क्या खबर है?’ 

'खबर तो अच्छी है चौधरी साहेब। अब तो उनके दांत खट्टे कर दिए। उन्हें उनकी औकात समझा दी। चुन चुन कर सफ़ाया कर दिया सबका।। अब भी कुछ हैं जो छिपे बैठे हैं।। वो भी बच के किधर जायेंगे?’ 

अमन का मन खट्टा हो गया। हमेशा दया भाई से मिलकर यही होता था। 'चलता हूं।’ उसने आज्ञा मांगी। 

'आपको हमारी बात अच्छी नहीं लगी?’ 

'इसमें अच्छी लगने जैसी क्या बात थी?’ 

'एक बात बोलूं चौधरी साहेब?,

'जी कहिए?, 

'सुना है आपके ऑफ़िस की कालोनी में एक आप जैसे चौधरी साहब रहते थे, उनकी भी छुट्टी हो गई।’

'हूं। बहुत बुरा हुआ।’ 

'आपको दु:ख हुआ?’ 

'नेचुरली।’ 

'आपका भाईबंध था।’

'नहीं, मैं तो कभी उससे मिला भी नहीं।’

'ऐसा? पर था तो आपकी ही बिरादरी का।’ 

'मेरी बिरादरी का? क्या बात करते हैं, वो तो मुस्लिम था।’

 'पर वो भी ऐसा बताता तो नहीं था। उसकी भी वाईफ़ शुभ्रा बेन की तरह बिन्दी-विंदी लगाती थी।" 

'आप क्या कहना चाहते हैं?" 

 'यही कि--- प्रमाण तो आपके पास भी हिन्दु होने का कुछ नहीं। आपके घर में तो आपने कोई पूजा वूजा का कोना भी नहीं रखा। कोई देवी-देवता की तस्वीर भी नहीं। कोई गीता-रामायण भी नहीं।" 

'ये सब आपको कैसे पता?" 

'पता तो रखना पड़ता है न साहिब। हर घर की पूरी खबर रखनी पड़ती है। हमें यह भी पता है कि आपके ज्यादातर दोस्त मियां लोग हैं और यह भी कि अमन मुस्लिम लोग का नाम होता है।" 

'मेरा पूरा नाम अमनदीप है। दीप मुस्लिम लोगों के नाम में नहीं होता।" 

अगर हिन्दु के नाम में अमन हो सकता है तो मुस्लिम के नाम में दीप होने में क्या है---ऐसे भी कोई अपना नाम दिलीप कुमार रखने से हिन्दु नहीं हो जाता। 

'कैसी बातें कर रहे हैं दया भाई, इतनी छोटी बातें करना आपको शोभा नहीं देता।" 

'देखो अमन भाई, टालने से नहीं चलेगा। हमें प्रमाण चाहिए आपके हिन्दु होने का।" 

'मैं इसकी कोई जरूरत नहीं समझता, न मैं अपने आप को किसी धर्म के साथ जोड़ता हूं। हम केवल मानवता में विश्वास रखते हैं और वह ही हमारा धर्म है। आपको प्रमाण देने की मैं कोई जरूरत नहीं समझता।" 

'बहुत अकड़ नहीं दिखाने का अमन भाई। हमारे हिन्दु समाज में हिन्दु ही रह सकते हैं। इसलिए यह प्रमाण भी आपको देना होगा। नमस्कार।" 

अमन घर पहुंचा तो शुभ्रा ने उसका लटका चेहरा देखकर पूछा, 'खैरियत तो है?" 

'पता नहीं।" 

'पता नहीं? क्या मतलब?" 

'यहां एक शख्स रहता है जो मेरे खून का प्यासा है।" 

 'कौन?" 

'वही दया भाई, और कौन?" 

'अरे छोड़ो, उसकी बातों पर ध्यान न दिया करो। उसे मुंह ही मत लगाया करो।" 

'जानती हो आज क्या कह रहा था?" 'क्या?" 

'कि तुम मुस्लिम नहीं, इसका क्या प्रमाण है?" 

'ऐसा क्यों पूछ रहा था?" 

अमन ने पूरी बात सुनाई तो वह बोली, 'तुम उस नीच की बात की परवाह करना बन्द कर दो। क्या बिगाड़ लेगा वो तुम्हारा?" 

'तुला तो हुआ है वो मेरा कुछ न कुछ बिगाड़ने को। देखो!" 

'भूल जाओ उसे। आज देखो चाय के साथ क्या है!" 

'ओह! बटाका पोंहा।" 

अमन ने मुस्कराने की कोशिश की। 

'पापा, यह बटाका पोंहा होता है कि बटाटा पोंहा?" गुड़िया ने पूछ लिया। 

'तुम्हारे ख्य़ाल से क्या होना चाहिए?" उसने पूछा। 

'पता नहीं।" गुड़िया सोच में पड़ गयी। बोली, 'मुझे बटाटा कहने में ज्यादा अच्छा लगता है।" 

'तो बस फिर, आज से इसका नाम बटाटा पोंहा ही होगा।" 

गुड़िया को लगा, पापा इस समय उदार हो रहे हैं तो मौके का फ़ायदा उठाना चाहिए। बोली, 'पापा चाय पीकर मेरे साथ सांप-सीढ़ी खेलोगे?" 

वह टालते हुए बोला, 'यार सांप तो आज बहुत हो गया, आज रहने दो।" 

'कोई बात नहीं, आप भी सीढ़ी सीढ़ी खेल लेना।" 

चार साल की गुड़िया, जब भी पापा के साथ बैठकर सांप-सीढ़ी खेलती, तो सांप के मुंह में गोटी आ जाने पर रोने लगती। पापा ने इस कारण उसे छूट दे रखी थी कि वह केवल सीढ़ी-सीढ़ी का लाभ उठाए, सांप छोड़ दे। परिणाम स्वरूप वह हमेशा बाजी जीत जाती। अब उसका मनोबल इतना बढ़ गया कि वह पापा से कह रही है कि वह भी सीढ़ी-सीढ़ी खेलें, सांप छोड़ दें। 

अमन ने गुड़िया को अभी दो-तीन बाजी जिताईं थीं कि विश्वनाथ जी आ पहुंचे। अमन को जैसे उन्हीं के साथ की जरूरत थी। दया भाई की बातों से जो मन कलुषित हुआ था वह विश्वनाथ जी से बात करके काफ़ी कुछ शांत हो गया। 

अगली शाम जब वह ऑफ़िस से लौटा, तो भाग्य से दया भाई सामने नहीं पड़े। वह घर पहुंचा तो पीछे पीछे अनवर साहब भी आ पहुंचे। अमन उन्हें शाम के समय देख कर चौंका, 'अरे कमाल कर दिया, जनाब ,आपने तो। आजकल तो आसपास वालों की भी शाम को आने की हिम्मत नहीं पड़ती, कर्फ्यू के डर से।" 

'भई क्या बताएं। शुभ्रा जी के हाथ के पकौड़ों की याद आई तो रुका नहीं गया।" 

'क्या बात है! आपने तबियत खुश कर दी, अनवर साहब।" 

'एक बात कहूं?" अनवर साहब कहने लगे, 'आजकल मुझे अनवर न बुलाया करें, बस जॉन ही बुलाए। समझ रहे हैं न आप।" 

'खूब समझ रहा हूं। मैं तो खुद नाम में अमन होने से ही मुश्किल में हूं।" 

'अरे क्या बताएं आपको, मुझे तो इस अनवर नाम ने बहुत परेशान किया। जो भी खत आते है उन पर जे।अनवर ही लिखा रहता है। इसलिए शक के घेरे में लगातार बना रहता हूं। जा जा कर सबको बताना पड़ता है कि अनवर मेरा नाम नहीं तखल्लुस है, पर बहुत मुश्किल है सबको समझाना।" 

'और, आपके शायर दोस्तों की कोई खबर?" 

'कुछ नहीं। हां रहमत भाई एक बार जरूर मिले थे। अपनी पूरी फ़ैमिली के साथ। साबरमती स्टेशन पर फंसे हुए थे। कहीं बाहर से आ रहे थे। दंगों का सुनकर साबरमती में ही उतर गए। आगे अहमदाबाद स्टेशन जाना तो इतना खतरे से भरा नहीं था, लेकिन अहमदाबाद स्टेशन से जमालपुर पहुंचना तो खतरे से खाली नहीं था। कहने लगे-अनवर भाई हमें किसी तरह अपने घर पनाह दे दो। मैं जिन्दगी भर यह अहसान नहीं भूलूंगा। मैं कुछ समझ नहीं सका उनकी कैसे मदद करूं। मैंने अपनी मजबूरी समझाई। बताया कि पहले से ही मैं शक के घ्ोरे में हूं। यह भी बताया कि साबरमती में जहां-जहां पता लग रहा है, चुन-चुन कर मार रहे हैं। क्या बताऊं। मैं इतनी शर्मिंदगी महसूस करता रहा और अब तक कर रहा हूं कि एक रात भी चैन से नहीं सो पाया। मेरे इतने पुराने दोस्त, और मुझ से ऐसा टके सा जवाब मिला उन्हें।" अनवर साहब ने एक ठंडी सांस भरी। 

कुछ इधर उधर की बातें हुई। चाय-पकौड़ों का दौर पूरा हुआ और अनवर साहब ने अपनी घ्ाड़ी की तरफ देखा। सवा-सात। वो उठ खड़े हुए। बोले, 'अब मुझे फौरन निकलना चाहिए। आठ बजे कर्फ्यू से पहले साबरमती पहुंचना है।" 

अमन साथ चल पड़ा वाड्ज बस-अड्डे तक जाने के लिए। 

'नहीं आप तकल्लुफ न करें" अनवर साहब ने रोका, 'वाड्ज तक पैदल आने जाने में आठ से ऊपर का टाईम हो जाएगा।" 'चलिए, जहां साढ़े सात होंगे लौट पड़ूंगा।" 

'ठीक है। ज़रा ध्यान रखना टाईम का।" 

नाराणपुरा से वाड्स जाते हुए रास्ते में बहुत बड़ा मैदान पड़ता था। किसी कारण वहां की जमीन अभी प्लॉटों में नहीं बंटी थी। इस कारण उस सुनसान पड़े खाली भूखण्ड को सब मैदान की संज्ञा देते थे। बरसातों के बाद इस मौसम में, रेत के बीच काफ़ी झाड़-झंखाड़ भी उग आया था। 

अभी वे लोग मैदान पार के मेन रोड पर पहुंचे ही थे कि अनवर साहब ने घ्ाड़ी देखकर अमन से कहा, 'बस अब साढ़े सात हो गए हैं अब आप लौट चलिए। खुदा हाफ़िज।" 

सितम्बर के महीने का अंतिम सप्ताह चल रहा था। अंधेरा कुछ जल्दी ही होने लगा था। उस लम्बे चौड़े मैदान के बीच जो भावी सड़क का शॉर्ट-कट था जिससे कि वह लौट रहा था वहां तब कोई बिजली का खंभा नहीं था। बस अंधेरा ही अंधेरा था। अमन को ऐसा माहौल बहुत पसंद था। उसका मन हो रहा था कि वह कोई गाना गुनगुनाए। 

लेकिन तभी, कोई पांच-छ: परछाईयां एकाएक उसकी तरफ़ लपकी। उसे पता ही नहीं चला कि कैसे किसी ने उसके मुंह पर कपड़ा डाला। मुंह बंद करके, आंखों के आगे भी कपड़ा डाल कर दोनों हाथ पीछे बांध दिए। बात यहीं नहीं रुकी। उसे लगा उसकी पैंट खोली जा रही है। उस ज़माने में पैंट में ज़िप नहीं लगा करती थी। बटन ही होते थे। एक एक करके पैंट के बटन खुले और टार्च की रोशनी चमकी। फिर आवाज़ें सुनाई दी 'ठीक ही लग रहा है", कटवा तो नहीं।" 'बरोबर छे।" 'गलत आदमी को पकड़ने को बोल दिया। जावा दो!" किसी ने कहा और उसके हाथ खोल दिए गए। हुकुम हुआ, 'पीछे मुड़कर नहीं देखना साहब, वर्ना खल्लास।" 

जब तक वह होश संभालता और पैंट बांधता, वे परछाईयां विलुप्त हो चुकी थी। इस पूरे घटना-चक्र में बमुश्किल पांच मिनट लगे होंगे। 

वह तेज़-तेज़ कदमों से घर की तरफ़ जा रहा था, जितना तेज़ चल सकता था, चलकर वह इस अंधेरे इलाके से बाहर पहुंचना चाहता था। दिल की धड़कन बेकाबू हो रही थी। उसका दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा था। आखिर ऐसा क्यों हुआ उसके साथ। इतना भयानक! आबरू लुटने जैसा हादसा। 

जरूर यह दया भाई का ही करा धरा है, उसे लगा। वही प्रमाण मांग रहा था। अमन का मन हो रहा था वह सामने पड़ जाए तो उसका मुंह नोच ले। उस दया भाई की गलीच मुस्कुराहट याद आती, तो उसका मुा तन जाता उसके दांत तोड़ने के लिए। इतना गुस्सा उसे कभी नहीं आया था किसी पर। 

आठ बजे से पहले ही वह कॉलोनी तक पहुंच गया। कॉलोनी के लोग हमेशा की तरह घेरा बनाए खड़े थे और दया भाई का व्याख्यान चल रहा था। 

'केम चौधरी साहेब, तबियत तो ठीक है।" दया भाई ने पूछा। 

 'जी।" अमन बिना उस तरफ़ देखे, बिना रुके, अपने घर की तरफ बढ़ गया। 

शुभ्रा ने उसे देखते ही पूछ लिया, 'क्या बात है? सब ठीक तो है?" 

'हूं", उसने टालते हुए कहा, 'एक गिलास पानी दे दो।" 

'ये बाल-वाल क्यों बिखर रहे हैं कहीं गिरे थे क्या? कोई चर-वर तो नहीं आया।" 

'पता नहीं, कुछ ऐसा ही समझ लो।" 

'हो सकता है पकौड़े खाने से पेट में गैस हो गई हो, कोई बात नहीं, लेट जाओ थोड़ी देर।" 

एक तो वह गुड़िया के सामने कुछ बताना नहीं चाहता था, दूसरा इस समय उसका बात करने का मन ही नहीं हो रहा था। वह आंखे बंद करके चुपचाप लेट गया और मन शांत करने के लिए लम्बी-लम्बी सांसे लेने लगा। दिमाग में जैसे एक भूचाल सा आया हुआ था। समुुंदरी भूचाल। पहाड़ सी ऊंची और विकराल लहरें थमने में ही नहीं आ रही थीं। उसे लग रहा था कि कहीं दिमाग की नसें फट ही न जाएं। 

शुभ्रा खाना बनाकर और नन्हीं को सुलाकर उसके पास आ बैठी। उसके माथे पर हाथ फेरा तो चौंकी, 'अरे तुम्हारा तो माथा तप रहा है। तुम्हें बुखार है क्या?" 

'नहीं, बुखार-वुखार कुछ नहीं, सिर्फ माथा गर्म है। ठीक हो जाएगा। तुम पहले हाथ रखती तो अब तक ठीक हो गया होता।" 

'तुम कुछ छिपा रहे हो, दीप। सच सच बताओ, हुआ क्या? चर ही आया था या---?" 

'बाद में बताऊंगा" वह धीमे से बोला, 'गुड़िया के सो जाने के बाद।" 

'ऐसी भी क्या बात!" वह धीमे से फुसफुसाई। 

'है।" अमन ने चेहरे पर मुस्कुराहट लाने की पूरी कोशिश की। 

'सुनो, खाना तैयार है, लगा दूं।" शुभ्रा ने पूछा। 

 'बिल्कुल।" 

रात के खाने के बाद अमन को आदत थी टहलते हुए पान की दुकान तक जाने की। कालोनी के बाहर ही मेन रोड पर थी दुकान। वह एक सादे पान की गिलोरी मुंह में रखता, एक मीठा पान शुभ्रा के लिए बंधवाता, और एक सिगरेट सुलगा कर थोड़ी चहलकदमी करता। ऐसी आदत उन दिनों बड़ी आम हुआ करती थी। तम्बाकू-सिगरेट के नुकसान तब तक उजागर नहीं हुए थे। इन दिनों रात के कर्फ्यू के चलते वह दुकान बन्द रहती थी। कभी उसे याद रहता तो पहले से पान लाकर रख लेता था। लेकिन आज तो प्रश्न ही नहीं उठता था। फिर भी आदतन वह बाहर निकला और कालोनी की गली में ही चहलकदमी करने लगा। दो तीन चर लगाने के बाद वह जैसे ही दया भाई के घर के सामने से निकल रहा था तो भीतर से आवाज़ आई, 'चौधरी साहेब, रुकना एक मिनट।" 

न चाहते हुए भी उसके कदम थम गए। दया भाई प्रकट हुए, तो बोले, 'हमसे नाराज़ हैं कुछ चौधरी साहेब?" 'आप से नाराज़गी दिखाकर हमें जान से हाथ धोना है?" 

'ऐसा क्यों बोलते हो साहेब?" 

'ऐसा ही है दया भाई। आपकी ताकत का हमें परिचय मिल गया है।" 

'कैसी बातें करते हो भाई। मैंने तो आपको यह पूछने को रोका कि शाम आपने हमसे बात नहीं किया, क्या नाराज़गी है।" 

'आपको सब पता है, भाई साहब!" 

'क्या पता है, क्या हुआ? कुछ बोलो न अमन भाई।" 

'आपको मेरे मुस्लिम न होने का प्रमाण चाहिए था, सो आपको मिल गया।" 

'सुनो, अमन भाई, हमारे साथ ऐसा कड़क ज़बान में बात नहीं करने का। क्या?--- हमको कैसे पता होगा आपके साथ क्या हो गया? हम पर किस बात का इल्जाम डाल रहे हो?" 

'सॉरी।" अमन को अपनी आवाज़ के इतना ऊंचा होने पर स्वयं हैरानी हो रही थी। 

'कोई बात नहीं। जाने दो अमन भाई। यह बताओ कि हुआ क्या? क्या तुम्हारा छान-बीन हुआ?" 

'छान-बीन? इसे आप छान-बीन कहते हैं। इस तरह बेइज़्जत करना और वो भी बिना किसी कसूर के? इसलिए कि आपको प्रमाण चाहिए था?" 

'मुझ पर क्यों बरस रहे हो अमन भाई? मैंने प्रमाण का बात जरूर किया, परन्तु इसका मतलब यह तो नहीं कि छान-बीन भी मैंने करवाया। हद करते हो अमन भाई। देखो हमारी बात ज़रा ध्यान से सुन लो।" 

'कहिए।" 

 'देखो, यह जो कुछ भी हुआ छान-बीन वगैरा, इससे आप को जो कष्ट पहुंचा यह तो ठीक नहीं हुआ, परन्तु वैसे एक हिसाब से ठीक हो गया। अब आप पर कोई मियां होने का संदेह नहीं करेगा। क्या? आप नास्तिक हो, कोई बात नहीं, परन्तु मियां नहीं हैं, यह सबके लिए संतोष की बात होगी।" 

'इतनी घ्रणा। पूरी मुस्लिम जात से ऐसी घ्रणा?" 

'ऐसा है अमन भाई, हमारा सोचने का तरीका आपसे फर्क है। हम तो यह मानते है कि यह मियां लोग की कौम, जब तक इधर में बाकी है, हमारे राष्ट्र को खतरा ही खतरा है। मुट्ठी भर लोग अरब से आए थे, आज इधर में दो पाकिस्तान तो बना चुके हैं, अब कश्मीर भी उनके निशाने पर है और जिस रफ्तार से इनकी संख्या बढ़ रही है, वो दिन दूर नहंी जब पूरा भारतवर्ष पाकिस्तान बन जाएगा। जानते हो अमन भाई, एक एक मियां चार चार शादी करता है और दो दर्जन से कम बच्चे नहीं पैदा करता। ऐसे में कितने दिन टिक पायेंगे हम इनके सामने? इसलिए अमन भाई, इनका सफाया जरूरी है। अच्छा है कि आप उनमें से नहीं हो।" 

'कैसी बातें करते हो दया भाई। हमारे तो इतने मुस्लिम दोस्त हैं, न तो किसी की एक से ज्यादा शादी हुई है न ही ज्यादा बच्चे हैं।" 

'अमन भाई, अब क्या बोले? आपको उनकी बात पर ज्यादा विश्वास होता है, हमारी बात गलत लगती है। यही दुर्भाग्यपूर्ण है, अरे अगर आप सच्चे राष्ट्रवादी हैं तो आपको इन लोगों के साथ दोस्ती नहीं पालनी चाहिए। समझ गए न अमन भाई! हम हमेशा आपका भला सोचकर बात करते हैं।" फिर अपनी घड़ी की तरफ देखकर बोले, 'अच्छा अब आप को और नहीं रोकेंगे। शुभ्रा बेन इन्तजार देखती होगी। नमस्ते!" 

भारी कदमों में वह घर की तरफ बढ़ गया। 'क्या बात हो गई थी?" शुभ्रा ने दरवाज़ा खोलते हुए पूछा। 'कब? अभी या शाम को।" 

'दोनों ही बता दो।" 

'गुड़िया सो गई क्या?" 

'हां सो गई।" 'ठीक है तो आओ बैठो। पहले शाम वाली बात से शुरू करता हूं।" उसने शाम वाली पूरी वारदात सुना दी। 

शुभ्रा ने एक लम्बी सांस भरी। बोली, 'हुआ तो बहुत बुरा, बॅट टेक इट इज़ी। खाली देखा ही तो उन कमबख्तों ने, कुछ ले तो नहीं लिया। फ़ॉरगेट इट।" 

अमन ने कहा, 'सोचो, अगर मेरी जगह सोमेश होता, जिसे पेशाब में रूकावट के कारण सर्कमसीज़न कराना पड़ा था, उसका ये क्या हाल करते?" 

'अरे, ऐसे कहां तक सोचेगे," शुभ्रा ने कहा, 'यह तो अगर साई बाबा भी आ जाते तब भी वही सलूक करते। ऐसे में कोई दिमाग का इस्तेमाल थोड़े ही करते हैं।" फिर पूछने लगी, 'क्या दया भाई से भी अभी इसी बारे में बात हो रही थी।" 

'हूं।" 

 'उसका क्या लेना देना है इससे?" 

 'इसका मतलब तुम समझी ही नहीं पूरी बात। यह सब कारस्तानी उस दयाभाई की ही तो है। उसी को प्रमाण चाहिए था मेरे मुस्लिम न होने का।" 

 'इतना घटिया इन्सान है वो?" 

'फिलहाल इस घटियापन का ही बोलबाला है। सभी उसके पीछे पीछे चल रहे हैं। नफ़रत होने लगी है मुझे यहां के इस मुर्दा माहौल से। घ्ाृणा का इतना ज़हर भर गया है यहां कि यह जगह अब रहने लायक नहीं रही। अब यह पहले वाला अहमदाबाद नहीं रहा।" 

शुभ्रा उसकी आंखों में देखते हुए धीरे से बोली, 'नहीं दीप, ऐसी बात तुम्हारे मुंह से अच्छी नहीं लगती। अगर हालात ऐसे बने हैं तो इसमें शहर का क्या दोष। ऐसे दया भाई तो कहीं भी हो सकते हैं। कब, कहां ऐसा ज़हर भर दें, कुछ नहीं कह सकते। बहुत दिन नहीं ठहरेगा यह ज़हर। देखना जल्दी सब नार्मल हो जाएगा।" 

'मुझे तो लगता है इस दौरान नफ़रत के जो बीज बो दिए गए हैं उनका असर पुश्तों तक चलेगा।" 

'यह तो है। नफ़रत फैलाने में घड़ियां लगती हैं और मिटाने में सदियां।" 

'बिल्कुल ठीक।" 

'वैसे मैं एक बात और भी कहना चाहती हूं--- कह दूं?" 

 'जरूर!" 

'देखो दीप, घ्रणा केवल वही नहीं जो दया भाई जैसे लोग फैला रहे हैं--- घ्रणा वो भी है जो तुम्हारे मन में पल रही दया भाई के प्रति।" 

'कहना क्या चाह रही हो।" 

'यही कि वह घ्रणा भी कम घतक नहीं। मैं तो सोचती हूं--- उन लोगों के बारे में भी घ्रणा से नहीं, प्यार से भर कर सोचो। आखिर वे कोई अपराधी तत्व नहीं। अपनी तरफ़ से वे भी जो कर रहे हैं राष्ट्र हित में कर रहे हैं। बस दिशा भटक गए हैं। बहके हुए लोग हैं वे। अगर अब तुम्हें किसी भी कारण से अपना मानने लगे हैं तो तुम्हें मुंह मोड़ने के बजाए उन्हें अपना मान कर अपनी बात समझाने की कोशिश करनी चाहिए।" 

'क्या बात करती हो, दया भाई जैसे लोगों पर कोई असर होगा हमारी बात का?" 

'कुछ तो होगा, प्यार से समझाओगे, तो जरूर होगा। चाहे ज़रा सा ही हो। पूरा असर होने में तो खैर सदियां लग जाएंगी, पर जो भी हो सकता है, प्यार से ही हो सकता है, नफ़रत से नहीं।" 'बड़ा मुश्किल रास्ता सुझा रही हो।" 

'तुम्हारे लिए कोई मुश्किल नहीं।"

Friday, August 1, 2014

उपन्यास अंश

एक हद तक अन्तिम ड्राफ्ट की ओर सरकते उपन्यास 'भेटकी" का यह एक छोटा-सा अंश है। कोशिश रहेगी कि अपने स्तर पर अन्तिम ड्राफ्ट को जल्द पूरा कर लूं और कुछ ऐसे मित्रों की मद्द से जो बेबाक राय देने में हिचकिचाहट महसूस न करते हों, के बाद ही ड्राफ्ट को उपन्यास का रूप दे सकूं।
वि.गौ.


ज्ञानेश्वर ने फार्म हाऊस में एक मस्त पार्टी एरेंज की। लोन आफिसर, जमीन का मालिक और प्रदीप मण्डल तीन ऐसे चेहरे थे जिनके ईर्द-गिर्द ही पार्टी की पूरी रौनक को सिमटना था। हकीकत भी इससे अलग नहीं थी। बल्कि प्रदीप मण्डल का अंदाज सबसे निराला था। ज्ञानेश्वर के घेरे के लम्पटों के चेहरों पर बहुत शालीन किस्म की मुस्कान थी। पार्टी की सारी जिम्मेदारियां वे बखूबी निभा रहे थे। नशे को कुछ अधिक रंगीन एवं पार्टी को लोन ऑफिसर की ख्वाहिश पर हसीन यादगार में तब्दील करने के लिए ज्ञानेश्वर ने नाच गाने की व्यवस्था भी की हुई थी। पैग हाथ में लिये वह खुद कभी इधर और कभी उधर आ जा रहा था। कहीं कोई चूक न रह जाये, उसका सारा ध्यान इसी पर था। बेहद सीमित अतिथियों वाली वह कोई मामूली पार्टी नहीं थी। पूरा माहौल उसे एक भव्य कार्यक्रम में बदल दे रहा था।

नाच गाना चालू था, ज्ञानेश्वर चाहता था कि आज की यह यादगार शाम अतिथियों के मन मस्तिष्क में किसी रंगीन वाकये की तरह दर्ज रह सके। मेहमान भी उसकी आत्मीयता के कायल हुए जा रहे थे।

अनौपचारिक-सी स्थितियों की औपचारिक अदायगी प्रहसन हो जाती है।

यूं, प्रहसन को प्रहसन की तरह से पकड़ने के लिए गम्भीरता की जरूरत होती है। लेकिन बहुत औपचारिक कार्यक्रमों की हू-ब-हू तर्ज पर जब कुछ वैसा ही किया जाये तो उस वास्तविक प्रहसन को बहुत साफ देखा जा सकता है, जिसे गम्भीर सी दिखने वाली स्थितियों के कारण पकड़ना बहुत मुश्किल हो रहा होता है। प्रदर्शन की भव्यता के भुलावे में दर्शक बहुत करीब घट रहे घटनाक्रम के साथ ही आत्मसात हुआ होता है। बहुत बेढ़ंगे तरह से सरके हुए परदे के पीछे का बेढंगापन उसकी निगाहों से छूट जाता है।

कार्यक्रम को वाचाल बनाने के लिए ज्ञानेश्वर को खुद वाचाल बनना पड़ रहा था। जो कुछ भी वह पेश कर रहा था, हर कोई हंसते हुए, दोहरा हो-होकर उसका लुत्फ उठा रहा था। उसके घेरे के लम्पटों को तो वैसे भी बेवजह हंसने की आदत थी। ज्ञानेश्वर का ज्यादा से ज्यादा करीबी हो जाने वाली अघोषित प्रतियोगिता में वे कुछ भी करते हुए होड़ कर सकते थे। फिर यहां तो मामला हंसने भर का ही था। उनकी किसी भी गतिविधि को आपे से बाहर हो गयी नशेबाजों की स्थिति नहीं कहा जा सकता था। लोन अधिकारी को कंधे पर बैठाकर नाचने की होड़ में वे लड़खड़ा रहे थे। घोड़े की उचकती पीठ पर सवारी करने का आनन्द उठाता लोन अधिकारी कभी इधर डोलता कभी उधर। खुद को संभालने की कोशिश में वह बहुत अराजक तरह से घ्ाोड़ों के चेहरों को ही भींच ले रहा था। जिसका अंदाजा ऊपर को चेहरा न उठा पाने की स्थितियों में फंसे घ्ाोड़ों का उस वक्त होता जब बहुत बेतुके ढंग से कोई एक हाथ उनके एक ओर के थोपड़े पर पड़ता। खुद को संभालने की कोशिश में लम्पटों के नाक, मुंह और गालों पर कितने ही चींगोडाें के निशान लोन ऑफिसर ने बना दिये थे लेकिन अभी तक किसी ने भी इस बात का बुरा नहीं माना था। आगे भी उनमें से कोई बुरा मानने की स्थिति में नहीं था। वे खुश थे और खुशी के उन पलों को हमेशा खून-खराबे में रहने वाली स्थितियों के साथ नहीं जीना चाहते थे। हर स्थिति के प्रति पूरी तरह सचेत थे और जानते थे कि बोस के मेहमान की हर ज्यादियों के बाद भी यदि वे उसे खुश रखने में सफल हो पाये तो करीब से करीब जाने का रास्ता तैयार होता रह सकता है। किसी भी तरह की गुस्ताखी पर चूतड़ों पर पड़ने वाली ज्ञानेश्वर की पहली किक के बाद अनंत किकों की स्थितियों से कोई भी अनभिज्ञ न था। दिमाग के संतुलन को नापने का पैमाना होता तो नशे के बावजूद लोन अधिकारी के चेहरे की मंद-मंद मुस्कराहटों को व्यक्त करना आसान हो जाता कि उन मासूम मुस्कराहटों की कितनी ही बिजलियां जो अभी तक मचलती हुई उसके चेहरे पर फिसल गयीं उनका धनत्व कितना रहा होगा। प्रदीप मण्डल और जमीन मालिक भी उसकी रोशनी में नहा गये थे। जमीन की कीमत की रकम का चैक, जिसे जमीन मालिक अगले दिन अपने खाते में जमा करने वाला था, ज्ञानेश्वर ने उसे साथ लेते आने की हिदायत उसी वक्त दे दी थी ज बवह उसे पकड़ाया जा रहा था। इस वक्त जमीन मालिक को वही चैक अपनी गंजी की अंदरूनी जेब से बाहर निकालने का इशारा ज्ञानेश्वर ने इतने चुपके से किया कि जमीन-मालिक के अलावा किसी को नहीं दिखा। ऑरकेस्ट्रा की धुन पर बहुत धूम धड़ाका कर रहे गायक के हाथ का माइक, ज्ञानेश्वर ने अपने हाथ में ले लिया था।

''हां तो हाजरिन आज की इस रंगीन शाम हम आप सबके साथ हमारे आज के अजीज मेहमान श्रीमान गोगा साहाब का हृदय से आभार करते हैं। हमारे इस गरीब तबेले पर पहुंच कर उन्होंने हमारा मान बढ़ाया है। श्रीमान गोगा की तारीफ में ज्यादा कुछ न कहते हुए सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि दुखियारों के दुख के संकटों के निवारण में वे हमेशा बढ़-चढ़ कर आगे रहे हैं और अपनी कलम की नोंक पर बैठी उस चिड़िया को बेझिझक उन कागजों में बैठाने में भी उन्होंने कभी गुरेज न किया जिनके मायने एक जरूरतमंद का सहारा बन जाते है। उनके कलम की नोंक की चिड़िया की उड़ान पर ही हमारे सबसे प्रिय मित्र, बड़े भाई प्रदीप मण्डल ने जो ताकत हासिल की है वह किसी से छुपी नहीं है। आज का यह जलसा गोगा साहाब के हाथों भाई प्रदीप मण्डल को नवाजा जाने वाला यादगार दिन बन कर हमारे सामने है। मैं गोगा साहाब से अनुरोध करता हूं अपने पावन कर कमलों से दादा प्रदीप मण्डल को अपने हाथों वह चैक अदा करें जिसमें लाखों के वारे न्यारे करने की ताकत है। बारह लााख रूपये का तौहफा जरूरतमंद का सहारा बने।"

सभी का ध्यान ज्ञानेश्वर की ओर था। मानो उसे सुनने के लिए ही इक्टठा हुए हों। कुछ क्षणों के लिए माहौल का खिलंदड़पन जाने कहां गायब हो गया था। इधर-उधर की कह लेने के बाद जमीन-मालिक से अपनी कस्टडी में कर लिये गये चैक को बाहर निकाल कर उसने ऐसे लहराया कि मानो अभी उसे हवा में उड़ा देना चाहता हो। लोन अधिकारी गोगा साहब के हाथों प्रदीप मण्डल को सौंपे गये चैक का दृश्य वह फिर से जीवन्त कर देना चाहता था। उसकी कोशिश थी कि वास्तविक घटनाक्रम से जुड़ी ऐसी ही गतिविधियों की नकल के जरिये ही वह पार्टी को एक अनोखा रंग दे सकता है। उसके मौलिक अंदाजों ने हर एक को उत्साह से भर दिया था। हर कोई अपने को उन घट चुकी घटनाओं का जीवन्त हिस्सा महसूस कर रहा था। प्रदीप मण्डल के चेहरे पर तो पहली बार हाथ में आ रहे चैक की सी खुशी झलक रही थी। गोगा साहब भी डोलते हुए ऐसे खड़े हो रहे थे मानो चैक को किसी दूसरे के हाथों में सौंपनस ही नहीं चाहते हों। लेकिन मजबूर करता बैंक कर्मचारीपन लोन प्राप्त करता के सामने असहाय हो जा रहा हो। ज्ञानेश्वर ने हाथ आगे बढ़ा कर चैक उनका सौंपना चाहा तो नशे की लड़खड़ाहाट में गोगा साहब चैक पकड़ने से सूत भर फिसल गये और संभलने की कोशिश में डगमगाने लगे। गिरने-गिरने को थे। लेकिन ज्ञानेश्वर ने तेजी से लपक कर संभाल लिया। गोगा साहब की पेंट की जिप खुली हुई थी। नाच-गाना रूका हुआ था। किनारे खड़ी डांसिंग गर्ल्स के साथ-साथ सामने बैठे ज्ञानेश्वर के घेरे के हर लम्पटों तक की निगाह खुला हुआ लेटर बाक्स अटक रहा था। जोरदार हंसी का फव्वारा छूट गया। किसी लम्पट की फब्तियां हंसी का तूफान उठा देने वाली थी,

''अरे गोगा साहाब लोकर खुला पड़ा है उसे बंद कर लो वरना खुले लोकर पर धावा बोलने वालों की कमी नहीं यहां।"

हो हो हो की आवाज में कितने ही स्वर थे। लम्पटों की निगाहें सामने खड़ी डांसिग गर्ल्स को ताकती हुई थीं। बहुत तेज आवाज में दूसरी ओर से कोई कह रहा था,

''किस्तों की रकम वाले लॉकर का ग्राहक कोई नहीं यहां गोगा साहेब, बंद कर लो इसका ढक्कन।''

''गोगा साहब यदि उंगलिया कांप रही हों तो कहिय---बंद करने को बहुत सी मुलायम-मुलायम उंगलियों का इंतजाम किया है हमारे बोस ने।"

हंसी थी कि थम ही नहीं रही थी। बहुत तीखे नैन नक्श और बेहद तंग चोली वाली डांसिंग गर्ल की आंखों में बहुत खिलखिलाहट थी। अपनी उपस्थिति को उसकी आंखों में देखने को उत्सुक हर कोई, बहुत बढ़-चढ़ कर फब्तियां कसने लगा। डांसिग गर्ल का ध्यान सिर्फ ज्ञानेश्वर की ओर था। ज्ञानेश्वर से निगाहें मिलते ही उसने अपने बदन को कुछ इस तरह हिलाया था, घास में लोट लोट कर थकान मिटाती घोड़ी जैसे बीच-बीच में बदन को झटकती है, और नजरों को मटकाते हुए जाने ऐसा क्या कहा कि हंसी की बहुत तेज फुलझड़ियां भी मंद मुस्काराहटों में बदल गयी। पुकारे गये अपने नाम सुन कर प्रदीप मण्डल चैक लेने के लिए कुछ ऐसे खड़ा हुआ था मानो किसी महत्वपूर्ण पारितोषिक समारोह में हो। बहुत ही विनम्र होकर चैक को दोनों हथेलियों के बीच थामते हुए वह गोगा साहब से हाथ मिला रहा था। कुछ देर को खामोश हो गया ऑरकेस्ट्रा ड्रम गिटार और दूसरे वाद्य यंत्रों के स्वर हॉल को झन-झनाने लगा था। डांसिग गर्ल्स की करतल ध्वनियों पर चिल्लाहटों के तेज स्वर में लम्पटों के हाथ भी स्वत: तालियां की गूंज बन गये। सम्मान की रस्म अदायगी का यह पहला पड़ाव था। माइक पर ज्ञानेश्वर की आवाज फिर उभर रही थी।

''दोस्तों दादा प्रदीप मण्डल जैसे शख्स की महानता का बखान शब्दों में नहीं किया जा सकता। हमारे इस बेहद पिछड़े इलाके के बीच प्रदीप मण्डल सरीखे अपने मित्रों के दम पर ही हमने इलाके की तस्वीर संवारने की जिम्मेदारी ली है। यह जिम्मेदारी स्वैछिक है। किसी सरकारी एजेन्सी ने नहीं सौंपा है कि तन्ख्वाह के खतिर हमें इसके लिए खटना हो। गैर सरकारी संस्थाओं का विकास के नाम पर गांट हथियाऊ मामला भी हमारा नहीं। हम तो सचमुच में जन विकास की चिन्ताओं के साथ अपने नागरिक कर्तव्य को निभाना चाहते हैं। वरना आप ही बताइये--- ऐसी बंजर भूमि जो कि वर्षों से पूर्वज की जायदाद कह कर संभालने वालों के लिए ही जब एक दम निरर्थक साबित हो रही हो तो अपने जीवन की आज तक की गाढ़ी कमाई को यहां फूक देने वालों को क्या दे देने वाली है। इस पर भी दादा प्रदीप मण्डल ने हमारे आग्रह को स्वीकारा और हमारे बुजर्ग, नवाब सैनी साहब, जिनके जीवन का मामला इस बंजर भूखण्ड की चौकीदारी से तो चलने वाला था नहीं, उसके एक छोटे से हिस्से के बदले अच्छी खासी रकम से उन्हें नवाजने का फैसला लिया, हम उनके शुक्रगुजार हैं। मैं दादा से अनुरोध करता हूं कि अब वे अपने हाथों ही उस चैक को नवाब काका को सौंपने का कष्ट करें जो हमारे गोगा साहब ने बैंक के बिहाफ से उन्हें अभी कुछ क्षण पहले सौंपा है, ताकि इस दुर्लभ दिन का बखान करने का अवसर हमें मिल सके और इलाके के दूसरे जरूरत मंद भी बिना हिचकिचाये हमारे इस पुनीत कार्य में शामिल हो सके और इलाके को संवारने में बढ़-चढ़ कर आगे आ सके हैं। हम हमारे बड़े भाई, दोस्त और ऐसे सामाजिक कार्य के लिए हमेशा हमारे साथ खड़े रहने वाले बैंक के लोन अधिकारी गोगा साहब के भी आभारी हैं, जिनके सहयोग से ही प्रदीप मण्डल सरीखे हमारे दोस्त उस ताकत को हांसिल कर पाता है जिसमें वे अपने सामाजिक जिम्मेदारी को तत्काल निभा सकने की एक मुश्त ताकत हांसिल कर पाते हैं। दोस्तों हमें विश्वास है कि बंजर पड़ी सारी जमीनों को हम प्रदीप सरीखे अपने दोस्तों की मद्द से गांव के विकास के रास्ते खोलने के अवसर उपलब्ध करा सकेगें। यह आंकड़ों में सुना जा रहा एफडीआई नहीं बल्कि सीधे निवेशित होती पूंजी से गांव भर के लोगों के जीवन को रोशन करने वाला होगा। इस तरह से मिलने वाली रकम का एक बड़ा हिस्सा उन सभी आधारभूत जरूरतों पर खर्च करने के दूसरे आकर्षक प्रोग्राम भी हम गांव वालों की सुविधा के लिए बनवाना चाहते हैं जिससे हमेशा के अपने वंचित जीवन में वे भी खुशीयों की आधुनिकता लाने में सक्षम हों और आधुनिक उपभोग का वह सारा बाजार बिना हो हल्ले के उनके घरों के भीतर, कीचन के भीतर उनकी सेवा में हर वक्त मौजूद रह सके। गांव भर स्त्रियां बेवजह के कामों में जो अपने जीवन के कीमती समय को बेइंतिहा नष्ट करने को मजबूर हैं, एक हद तक छुटकारा पा सके और बचे हुए समय में दुनिया जहान की खबरें देते कार्यक्रमों का लुत्फ ही नहीं बल्कि कुछ हंसोड़ किस्म के दूसरे कार्यक्रमों को देखने का समय भी उन्हें हांसिल हो सके। "

चैक अदायगी की रस्म ने फिर से हो-हल्ले की संरचना कर दी। प्रदीप मण्डल खुश था कि जमीन खरीदने का उसका उपक्रम मात्र बैंक से लिये जाने वाले लोन का मामला भर नहीं बल्कि एक सामाजिक कर्म भी है। नवाब सैनी ही नहीं ज्ञानेश्वर के घेरे में बोक्सा जनजाति के तमाम युवकों के भीतर प्रदीप मण्डल के लिए गहरा सम्मान उपज रहा था। ज्ञानेश्वर का एक ही तीर कई-कई लक्ष्यों को बेध रहा था।

Sunday, October 13, 2013

कोरस

लिखे जा रहे उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा-      विजय गौड़



संगरू सिंह रिकार्ड सप्लायर था और रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंचने से काफी पहले ही मर चुका था। अनुकम्पा के आधार पर संगरू के बेटे को अर्दली की नौकरी पर रख लिया गया था। उस वक्त उसकी उम्र मात्र बीस बरस थी। वह संगरू सिंह का बेटा था पर संगरू नहीं। संगरू सिंह ने उसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजा था। वह एक पढ़ा लिखा नौजवान था और दूसरे पढ़े लिखों की तरह दुनिया की बहुत-सी बातें जानता था। बल्कि व्यवहार कुशलता में उसे कईयों से ज्यादा सु-सभ्य कहा जा सकता था। उसका नाम ज्ञानेश्वर है और धीरे-धीरे डिपार्टमेंट का हर आदमी उसे उसके नाम से जानने लगा था।
अर्दली बाप का नौजवान ज्ञानेश्वर दूसरे नौकरी पेशा मां-बाप की औलादों की तरह रूप्ाये कमा लेने और तेजी से बैंक बैलेंस बढ़ा लेने को कामयाबी का एक मात्र लक्ष्य मानता था और जमाने भर में चालू, अंधी दौड़ में शामिल होने के हर हुनर से वाकिफ हो जाना चाहता था। उसकी कोशिशें इन्वेस्टमेंट के नये से नये प्लान, और हर क्षण खुलते नम्बरों के साथ लाखों के वारे न्यारे कर लिए जाने के साथ रहती। इकाई के अंकों में ही अनंत दहाइयों का रहस्य छुपा है और जीवन का गणित ऐसे ही सवालों को चुटकियों में हल करने के साथ ही सफल हो सकता है, उसका जीवन दर्शन बन चुका था। सुबह से शाम तक कभी अट्ठा, कभी छा तो कभी चव्वे की आवाजें उसके भीतर हर वक्त गूंजती रहती थी। गोल्डन फारेस्ट से लेकर गोल्डन ओक, गोल्डन पाइन जैसे नामों वाली वित्तिय गतिविधियों के कितने ही गोल्डन-गोल्डन एजेंट उसके साथी थे। फुटपाथों पर कम्पनी के शेयर संबंधी कागजों की भरमार और कानाफुसी का चुपचाप बाजार जब खरीद पर भी कमीशन देने की उपभोक्तावादी नयी संस्कृति को जन्म दे रहा था, ज्ञानेश्वर अपने मित्रों परिचितों को अपनी अदाओं के झांसे में फंसाकर उनके भीतर के ललचाघ्पन को और ज्यादा उकसाने में माहिर होता जा रहा था। खामोश रहने और मंद-मंद मुस्कराने की निराली अदाओं को उसने इस हद तक आत्मसात कर लिया था कि उसके मोहक आकर्षण का दीवाना, कोई परिचित, रिश्तेदार जब उसके करीब आता तो वह उसे चुपके से और करीब से करीब आने का आमंत्रण दे चुका होता। ऐसे ही करीब आ गये प्रशंसक को वह किसी होटल की भव्यता के दायरे में लगती विस्तार वादी बाजार की कक्षाओं के महागुरूओं के हवाले कर देता। ब्रोकरो, स्टाकिस्टों और बिचौलिये के बीच बंटकर गुम हो जा रहे मुनाफे से बचने की चेतावनी को जरूरी पाठ मान लेने वालों की एक लम्बी श्रृखंला तैयार कर लेने की उसकी कोशिशें बेशक उसे आसानी से कामयाब बना देने में सहायक थी लेकिन साल-छै महीने के अन्तराल में ही उसे एहसास होने लग जाता कि महागुरूओं की आवाज का जादुईपन एक सीमा ही है। लगायी गयी रकम का रिर्टन न मिलने से निराश हो चुके परिचितों को दोपहिया से चोपहिया तक ले जा सकने के सपने दिखाना फिर उसके लिए आसान न रहता और धंधा बदलने को मजबूर हो जाना पड़ता। 

Friday, October 19, 2012

करतब दिखाती लड़की





फांस २०११ में प्रकाशित मेरा पहला उपन्यास है। आज (१९/१०/२०१२) सड़क से गुजरते हुए उपन्यास के पात्रों से नये सिरे से मुलाकात हुई। कुछ तस्वीरें हैं जो नायिका की हैं। नायिका से संबंधित उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा यहां शेयर कर रहा हूं। तस्वीरें आज शाम की हैं।
तब से आज तक जीने के लिए जान को जोखिम में डालने वाली यह लड़की देखो तो कैसे इतरा रही है न!!
जब से साइकिल वाले ने मजमा लगाया, छोटे ने वहीं अपना अड्डा जमा दिया। सुबह और शाम के वक्त जब दर्शकों की बेतहाशा भीड़ होती और साइकिल वाला तरह-तरह के करतब दिखाता तो छोटे को बड़ा मजा आता।  
अनवरत, सात दिनों तक साइकिल चलाने वाला वह शख्स इसी कारण छोटे का प्रेरणा स्रोत बनता जा रहा था। स्कूल जाने की बजाय वह दिन भर ही वहीं मण्डराता रहता। सुबह घ्ार से निकल जाता और देर रात को, जब साइकिल वाला स्वंय, बड़े प्यार से-अपने अजीज छोटे और सागर को खुद घर के लिए रवाना करता, तब ही घर पहुँचता। शाम के वक्त जब साइकिल वाला करतब दिखा रहा होता तो उस वक्त साइकिल पर सवार उसकी बेटी रीना भी साथ-साथ होती। अपने पिता के जैसे वह भी तरह-तरह के करतब दिखाती। उस छोटी सी लडकी के करतब तो छोटे को आश्चर्य से भर देते और उकसाने लगते- 'जब इतनी पुच्ची-सी यह।।।ये सब कर सकती है।।। तो मैं क्यों नहीं ?"
लोहे के गाल रिंग को वह गले में डालती और मुश्किलों से, गर्दन भर की गोलाई बराबर, रिंग के घेरे को नीचे पाँवों तक पहुँचा देती। छोटा ही नहीं हर कोई अचम्भित होता। तनी हुई रस्सी पर संतुलन बनाकर चलते हुए उसके चेहरे पर जो मुस्कान बिखर रही होती, छोटा उसमें नहाने लगता। देखने वाले तालियां पीटते। पर तनी हुई रस्सी पर करतब दिखाती रीना को साक्षात देखना तो छोटे के लिए संभव ही न होता। यदि देख पाता और हाथ खुले होते तो खूब तालियां पीटता। वह तो उस वक्त कंधे का पूरा जोर लगाते हुए खम्बे को थामे हुए होता। निगाहें जमीन की ओर झुकी होतीं। शरीर की पूरी ताकत कंधें पर सिमट आने की वजह से माथे पर तनाव उभर आता। भौहों पर एकाएक उठ आया माँस ऊपर कुछ दिख जाने की संभावना को भी खत्म कर देता। उस वक्त तो  सिर्पफ दर्शकों की तालियों को से ही महसूस कर सकता था कि रस्सी पर छाता ताने चलती रीना गजब की खूबसूरत दिख रही होगी। 
खम्बा कंधे के जोर पर टिका होता और दोनों हाथ खम्बे को कसकर पकड़े होते।
रस्सी जिन खम्बों पर बंधी होती उन खम्बों को पकड़ने के लिए दो मजबूत आदमियों की जरूरत थी। मजबूती ऐसी कि जिनकी पकड़ में कसे हुए खम्बों पर जो रस्सी तनती, उस पर ही वह अदाकारा लड़की एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ती, ठुमके लगाती। खम्बे जमीन में गाड़े नहींं जा सकते थे। करतब दर करतबों की श्रंृखला को स्थायी तौर पर गड़े खम्बों के साथ जारी रखना संभव न था। गड़े हुए खम्बों को जल्दी से हटाना संभव नहीं। और हटा भी दें तो छुट जाने वाले गड्ढों को कैसे भरें !  मजबूत, बलिष्ठ कंधें के जोर पर ही करतब को संभव किया जा सकता था। साइकिल वाले ने साइकिल पर चढ़े-चढ़े ही गोल घ्ोरे में घ्ाूमते हुए गुहार लगायी।

- मेहरबानों, कद्रदानों ।।।! ।।।।मैं।।।अपना आज का खेल शुरू करने से पहले।।।आप लोगों की दाद चाहता हूं।।।।

दर्शकों की करतल ध्वनि  गूँज गई।

-।।।मित्रों आज दूसरा दिन है।।।।कल आपने मेरी बेटी रीना को रिंग से पार होते देखा। ।।।आज भी देखोगे।

साथ-साथ चलती रीना के चेहरे पर उल्लास की रेखा खिंचती रही। छोटा नहाता रहा

- रीना आज आपके सामने वो करतब दिखायेगी।।।जिसे देखते हुए ।।। आपकी निगाह रुकी की रुकी रह जाएगीं।

दर्शकों की करतल ए"वनि के साथ-साथ गोल घेरे में चल रही रीना ने झटका देकर अपनी साइकिल के अगले पहिए को उसी तरह उठाया जिस तरह अक्सर, किशोर उठाता। पर वह उतनी कुशल नहीं थी कि पिता की तरह एक ही पहिये पर पूरा गोल चर काट सकती थी। बस एक सीमित दूरी तक ही साइकिल को साध् पाई। लड़खड़ाते हुए संभलने की कोशिश का वह क्षण ऐसा रोमंचकारी था कि पाँव जमीन पर टिकने की बजाय साइकिल के अगले रिम की किनारियों में पँफस गए। ठीक वैसे ही जैसे किशोर दोनों पाँवों को मात्रा एक इंच की चौड़ाई वाले रिम में में फंसा देता और एक हाथ से हैण्डल को थाम कर दूसरे हाथ से अगले पहिए को ढकेल कर आगे बढ़ा रहा होता। उसकी उम्र के घेरे में मौजूद दर्शकों की हथेलियां अनूठे अंदाज में करतब दिखाती अदाकारा के लिए यकायक खुल गईं। असपफलता का नहीं सफलता का वह बेहद मासूम क्षण था जिसने रीना को उत्साह से भर दिया। किशोर के चेहरे पर भी एक आश्चर्यजनक मुस्कराहट थी।

- हाँ तो दोस्तो।।।रीना जो करतब दिखायेगी ।।। उसके लिए मैं।।।दो मजबूत, बलिष्ठ आदमियों से दरखास्त करता हूँ ।।। वे आएं और मजबूती से इन खम्बों को पकड़क़र खड़े हो जाएं ।।। एक इध्र।।।और।।।दूसरा उध्र। ।।। अपने कंधें की ताकत पर यकीन हो तो चले आओ दोस्त। ।।। खम्बों पर तनी रस्सी पर ही रीना चलकर दिखायेगी।

कोई आगे न बढ़ा। मैदान के बीच जाकर, खम्बा पकड़ लेने का साहस, संकोच की चादरों में लिपटा रहा साइकिल वाले ने दूसरी बार गुहार लगायी। कोई सुगबुगाहट नहीं। हर कोई खेल देखना चाहता था, खेल का हिस्सा होना नहीं चाहता था। कंधें के जोर पर यकीन कैसे करें, सवाल मुश्किल था। कहीं भसक ही न जाए कंध ! क्यों बैठे ठाले ले लें पंगा। आशंकाएं चुप्पी की भाषा में तब्दील हो चुकी थी।
संकोच के लबादे को एक ओर पेंफक, छोटा आगे बढ़ा और अपने हर अच्छे-बुरे वक्त के साथी, सागर को भी खींच लिया था। सागर की देह ऐसी कि कमीज के टूटे हुए बटन से झांकता छाती का पिंजर। मनुष्य के शरीर की भीतरी संरचना के पाठ को पढ़ाने में भी उसकी मदद ली जा सकती थी। साइकिल वाला दोनों ही बालकों की कद काठी के कारण उनकी शारीरिक क्षमता का आकलन नहीं कर पाया। बल्कि उनको देखकर तो कुछ दर्शक भी खिलखिलाने लगे। लिहाजा साइकिल वाले ने एक बार पिफर गुहार लगायी।

- देखिए भाई लोगों ।।। इन दो होनहार बालकों ने अपना साहस दिखाया है।।।।।।। मैं दोनों ही बच्चों का सम्मान करता ।।।इनकी हिम्मत की दाद देता  ।।। पर भाईयों ये बच्चे इतने छोटे हैं कि खम्बे को अपने शरीर के जोर पर रोक न पायें।।।शायद ।।। मेरी गुजारिश है ।।। मजबूत कद-काठी के मेरे भाई ।।। अपने संकोच को छोड़कर ।।। आगे बढ़े ।।। और देखें कि मेरी बेटी रीना कैसे तनी हुई रस्सी पर।।।एक सीरे से दूसरे सीरे तक चलकर ।।।। आप लोगों को कैसे आनन्दित करेगी।

अपनी जाँघों के दम पर साइकिल के हैण्डल को थामे, आदमकद लम्बाई के बावजूद किशोर की आवाज में एक दयनीय पुकार थी-दर्शकों से की जा रही गुहार। कहीं कोई प्रतिक्रिया न हुई। खामोशी चारों ओर व्याप्त हो गई। पिता के साथ गोल घेरे में चक्कर काट रही रीना की आँखों में करतब दिखाने की चंचलता थी। साइकिल वाला वैसे ही गोल चर लगाता जा रहा था, जैसे उसे अगले पांच दिनों तक अनवरत लगाने थे।
साइकिल वाले की बार-बार लगायी गई गुहार पर भी कोई आगे न बढ़ा। साइकिल वाला सागर और छोटे के कंधें की ताकत और खम्बों पर उनकी पकड़ पर अपना विश्वास जमा नहीं पा रहा था। उसकी हर अगली गुहार पर छोटा अपने को और छोटा महसूस करने लगा। उसे साइकिल वाले का व्यवहार बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। गुस्सा उसके भीतर था पर मन ही मन वह बड़बड़ाता रहा- 'एक बार मौका तो दे के देख ।।। मजाल है खम्बा अपनी जगह से एक सूत भी खिसक जाए।'
अनेकों पुकारों के बाद भी जब कोई आगे न बढ़ा तो छोटा और सागर ही विकल्प के रूप में बचे रह गए। करतब तो दिखाना ही था। दोनो ही बच्चों की मदद से साइकिल वाले ने करतब दिखाने की ठान ली। लेकिन एक आवश्यक सावधनी उसने ले लेनी चाही, जो वैसे भी उसे लेनी ही थी। छोटे और सागर को एक पफासले पर आमने-सामने खड़ा होने की हिदायत देते हुए उसने जमीन पर उन जगहों को चिहि्नत कर-जहाँ लकड़ी के खूँटे गाड़े जाने थे, निशान मार देने को कहाँ

- मेरे बहादुर बच्चों।।।वहाँ दो लकड़ी के खूंटे रखे हैं ।।। उठा लाओ।

गोल घेरे के बाहर, जहाँ साइकिल वाले का सामान रखा था, छोटे और सागर वहाँ उलझे सामानों के बीच रखे, एक ओर से नुकीले, लकड़ी के दो भारी-भारी खूंटे उठा लाए।

- बहादुर बच्चों।।।जहाँ तुमने निशान लगाये हैं।।।वहीं पर दोनों को गाड़ दो। ।।। लकड़ी के इन खूँटों के सहारे ही तुम्हे खम्बे को टिकाना है और अपने कंधें के जोर पर उन्हें थामना है ।।। यह खूँटे तुम्हे मदद पहुँचायंेगे।।।।

सागर दौड़ कर गया और सामानों के साथ ही रखे एक भारी भरकम हथौडे को उठा लाया और खूँटों को ठोकने लगा। दोनों का ही उत्साह देखने लायक था। किसी प्रकार का संकोच उनके भीतर न था। लकड़ी के खूँटों को मजबूती से गाड़ दिया गया। मजबूती ऐसी कि भैंसे को बांध् दिया जाए तो पूरे जोर लगाने के बाद वह भी न उखाड़ सके। करतब के लिए मैदान तैयार हो गया। छोटे और सागर ने अपने-अपने खम्बों को खूँटों के सहारे टिका दिया। दोनों खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी खम्बों के एकदम सीधे होते ही खिंच गई। खूँटों के सहारे खम्बों को टिका दिया गया। दोनों ने ही अपनी पकड़ को मजबूत किया। जाँघ से लेकर कंधे तक का जोर लगाकर खम्बों को सीध किया। खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी पूरी तरह से तन गयी। अब किसी प्रकार का भी झोल उसमें दिखायी नहीं दे रहा था। रस्सी पर करतब दिखाने से पहले रीना ने उसके तनाव और खम्बों पर सागर और छोटे की पकड़ की मजबूती जांचनी चाही। साइकिल पर चलते हुए ही उसने दूसरी रस्सी में लंगड़ बांध् ऊपर को उछाल दिया। तनी हुई रस्सी पर फंदा डालने का उसका अंदाज निराला था। सागर और छोटे बेखबर थे। उनका सारा ध्यान तो इसी पर टिका था कि कब और कैसे रीना तनी हुई रस्सी पर चढ़ती है। तनी हुई रस्सी के दूसरी ओर निकल आए लंगड़ का पंफदा बना उसने जोर का झटका दिया। झटके के साथ ही कांप रस्सी ने दोनों ही ओर के खम्बों समेत छोटे और सागर भी लड़खड़ा दिया। हँसी का ऐसा फव्वारा छूटा, जिसमें रीना की हँसी की खनक भी शामिल थी। साइकिल वाला भी मुस्कराने लगा।

- कोई बात नहीं जवानों।।।कोई बात नहीं । बस ।।।एकदम सावधन रहो मेरे बच्चों ।।। तुम्हारे कंधें की ताकत पर ही मेरी बेटी रीना।।।या तो हुनरमंद करतबबाज कहलायेगी।।।या अनाड़ी। चलो अबकी बार पिफर से तय्यार हो जाओ ।।।। खम्बों को मजबूती से पकड़ लो ।।। कीलड़ों का सहारा नहीं हटना चाहिए ।।। रीना एक बार फिर से रस्सी को खींचकर देखेगी। खम्बे जरा भी हिले ।।। या झुके ।।। तो रस्सी का तनाव कम हो जाएगा। ।।। बस।।।समझ लो मेरे बहादुर बच्चों।।।वही क्षण हवा में झूलती रीना को नीचे पटक देगा ।।। तुम्हारे हाथों में मेरी इज्जत है मेरे बच्चों।।।!! ।।। चलो एक बार पिफर तय्यार हो जाओ और अपने शरीर के जोर पर रोको खम्बें।

रीना ने एक बार पिफर वैसे ही जोर का झटका दिया। छोटे और सागर अबकी बार मुस्तैद थे। अपने जिस्म की पूरी चेतना के साथ खम्बों को उन्होंने थामा हुआ था। कैसा भी झटका उनकी पकड़ को ढीला नहींं कर सकता था। रस्सी का तनाव ज्यों का त्यों बना रहा तालियों की जोरदार आवाज स्वाभाविक ही थी। छोटा भीतर ही भीतर गर्व से भर गया। सागर भी। रीना ने एक और अप्रत्याशित प्रयास थोड़े अंतराल में पिफर किया, यह जांचने के लिए कि कहीं सागर और उसका साथी छोटा पिफर से लापरवाह तो नहीं हो गए। पर खम्बों पर पकड़ पहले से भी मजबूत थी। आश्वस्त हो जाने के बाद साइकिल को एक ओर छोड़, लम्बे-लम्बे बाँस के डण्डों में बने कुंडों में दोनों पाँव पँफसा रीना डण्डों के सहारे खड़ी होने लगी। छटांक भर की लड़की पलक झपकते ही आसमान को छूने लगी। लम्बे-लम्बे बाँसों पर खड़ी वह हवा में चलती हुई सी लग रही थी। उसके चेहरे पर उल्लास था। दर्शकों को उसका चेहरा देखने के लिए अपनी-अपनी गर्दन को इस कदर उठाना पड़ रहा था कि एक बार को भ्रम हो सकता था कि वे तो आकाश को ताक रहे हैं। छोटे और सागर चाहकर भी गर्दन नहींं उठा सकते थे। खम्बों के लचक जाने का भय उन्हें छूट नहीं दे रहा था। वे तो बाँसों पर चढ़ी आदमकद ऊँचाई को छूती रीना का होना, बस गोल घेरे में चक्कर काटती दो बल्लियों के रूप में ही महसूस कर सकते थे- वह भी तब, जब वह साइकिल पर चर लगाते अपने पिता के साथ-साथ बाँसों के सहारे चलती हुई उनके एकदम नजदीक से गुजर रही थी।
बाँस के डण्डे जो उसके पाँवों में पँफसे थे, न जाने कब हटे कि वह तनी हुई रस्सी पर खड़ी हो गयी। हाथों को शरीर से बाहर की ओर पूरा खोलकर एक कुशल करतब बाज की तरह वह तनी हुई रस्सी पर चल रही थी। दर्शक झूम रहे थे और जिनकी करतल ध्वनियों से पूरा माहौल गूँज रहा था। लड़की अपना संतुलन बनाये हुए जितनी एकाग्र थी, छोटे और सागर की एकाग्रता को उससे उन्नीस नहीं कहा जा सकता था। हवा में उछलकर जब लड़की जमीन पर कूद गई तो छोटे और सागर की तनी हुई माँस-पेशियाँ अपनी सामान्य स्थितियों में लौटने लगी। उनके शरीर पसीने से भीग चुके थे। साइकिल वाला दोनों ही लड़कों के प्रति कृतज्ञ हो रहा था। लड़की फिर से साइकिल पर चढ़कर अपने पिता के साथ-साथ गोल चर काटने लगी। उसके करतब से प्रभावित हुए पहले से ही ढीली जेबों वाले दर्शक, अपनी उन जेबों को पूरी तरह से उलट कर ढीला कर देना चाहते थे। लड़की के हुनर का सम्मान करने के लिए अपनी भावनाओं का प्रदर्शन वे इसी तरह कर सकते थे। भारी जेब वालों की उंगलियां उनकी जेबों में फंसकर रह जा रही थी। 
(उपन्यास अंश- फांस)

 

Thursday, March 3, 2011

खिलखिलाने दो उसे सरे बाजार

मौज लेना एक चालू मुहावरा है। फिर उसके साइड इफ़ेक्ट पर बात करना ? ली गई मौज को मस्ती मान लिया जाए तो मौज बहार आ जाए। मौज का यथार्थ थोड़ा ज्यादा शालीन और कम औपचारिक होते हुए दोस्तानेपन का सबब बने।
हमारे घर के पास रहने वाला वह लड़का जो बोलते हुए हकलाता था, अल्टी नाम था उसका, सब उससे मौज लेते थे। वह भी कम न था। हकला-हकला कर गाली देते हुए पीछे भागता और मौज लेने को आतुर भीड़ से दूसरे की भी मौज लिवाने में कोई कसर न छोड़ता। हालांकि, नहीं जानता था कि उसके हुनर में ही वह ताकत है जो हर एक को मौज लेने का अवसर देती है और माहौल को कुछ ज्यादा आत्मीय बनाती है। डॉक्टर 'होगया’ भी ऐसे ही हुनर का मास्टर, उपन्यास 'फाँस’ का एक पात्र है। प्रस्तुत है उपन्यास का एक छोटा-सा अंश।


         रात के अंधेरे को परे धकेल, खुल चुकी सुबह का वह ऐसा समय था, जब अलसाई हुई दुनिया के मुँह पर पानी की छपाक मारता वह बाजार, जो कस्बे को शहर में तब्दील करने की ओर था, आँखें धो चुका था। रेहड़ी वाले मण्डी से उठाए माल को झल्लियों और माल ढुलाई के लिए लगी गाड़ियों पर लदवा रहे थे। ज्यादातर सब्जी वाले लद चुकी रेहड़ियों को धकेलते हुए अपने-अपने ठिकानों को निकल चुके थे। ठिकानों पर पहुँच चुकी रेहड़ी वाले रेहडियों पर सब्जियां सजाने लगे थे। फल वालों का माल अभी झल्लियों में झूलता चला आ रहा था। टमाटर वाला पेटियों को खोल-खोलकर एक-एक टमाटर उठाता, झाड़न से साफ करता और बहुत ही तल्लीनता से मीनार दर मीनार चढ़ाता जा रहा था। गारे मिट्टी की दीवारों को चिनने वाला कोई कारीगर देखता तो जरूर ही ठिठ्कता। ईर्ष्या करना भी चाहता तो टमाटर के रंग और उनकी चमकती सतह पर टिकी निगाहें उसे उल्लास से भर देती। वह फल वाला, जो पहले सब्जी का काम करता था और अब पफल बेचने लगा था, अपनी पूर्व आदत के साथ अब भी तड़के ही माल उठाने मण्डी पहुँच जाता। उन फल वालों की तरह उसने अपनी आदत बदली नहीं थी, सब्जी वालों के निकल जाने के बाद जो मण्डी पहुँचते और इस तरह देर से मण्डी पहुँचने में अपनी शान समझते। टमाटर वाले की तरह उसके हाथ भी पफलों को झाड़ने-पोंछने में व्यस्त थे। सँतरों को झाड़न से पोंछ-पोंछकर रेहड़ी पर सजाते हुए, चमकते छिलों को देखकर उसका मन प्रफुल्लित हो रहा था। केले के गुच्छे अभी रेहड़ी के किनारे ही रखे थे, बहुत जल्द ही वह उन्हें धागे से लटका देने वाला था। रेहड़ी पर उठायी हुई छप्पर में लगाई गईं खपच्चियाँ उसने पहले से ही केलों के लिए निर्धरित की हुई थी। सेब की पेटी को उसने अभी तोड़ा नहीं था।
आलू-प्याज वाले ने आलू और प्याज के बोरों का खुला मुँह अपनी ओर को रख, उन्हें ज्यों का त्यों बिछाकर अपना ठिया जमा लिया था। गंदे नाले का वह किनारा, लम्बे समय से टूटी पुलिया के कारण जो पैदल चलने वालों के लिए कुछ खतरनाक हो गया था, उसका ठिया था। बगल में ही खड़ी रेहड़ी से एक कप चाय और साथ में बेकरी का बना पंखा, जो मुँह में जाते ही किरच-किरच करता, उसने खरीदा और सुबह का नाश्ता करने लगा। पुलिया के ठीक सामने, दूसरी ओर, सड़क के किनारे वाली कपड़ों की दुकान का मालिक शॅटर को मत्था टेकने के बाद ताला खोल चुका था और बादलों की गड़-गड़ाहट-सी आवाज करते शॅटर को उसने ऊपर उठा दिया था। दुकान के अन्दर धूप-बत्ती कर और गल्ले को हाथ जोड़ने की कार्रवाई अभी उसे जल्द से निपटानी थी और ग्राहक के इंतजार में मुस्तैदी से बैठ जाना था। बगल की दुकान में बर्तन वाला धूप-बत्ती करने के बाद आतुरता से बोहनी हो जाने का इंतजार कर रहा था। दूसरे दुकानदार भी व्याकुलता से बोहनी का ही इंतजार कर रहे थे।

- बिना हील-हुज्जत वाला ही ग्राहक आए---हे भगवान!

केले वाला मन ही मन कल सुबह-सुबह ही आ गए उस ग्राहक की याद को अपने मन से मिटा नहीं पाया था, जिसने बोहनी के वक्त ही तू-तू, मैं-मैं कर देने को मजबूर कर दिया था और जिसका असर दिन भर की बिक्री पर पड़ा, ऐसा वह माने बैठा था।

- हे भगवान कहीं आज पिफर ऐसा न हो जाए!

लेकिन डॉक्टर 'होगया" की उपस्थिति में उस ग्राहक की स्मृतियां उसके भीतर बची रहने वाली नहीं थी। अपने क्लीनिक की ओर आते डॉक्टर को देख वह बीते दिन के वाकये को एकदम से भूल चुका था और जोर से चिल्लाया -        

- होगया--- होगया---।

डॉक्टर उसी की ओर देख रहा है, यह ताड़ते ही उसने भरसक कोशिश की चुप होने की लेकिन एक क्षण को उसका मुँह खुला का खुला ही रह गया। शब्द मुँह से छूट चुके थे। डॉक्टर की निगाह से वह अपने को छुपाने में पूरी तरह से नाकामयाब रहा। क्लीनिक में भी अभी ठीक से न पहँुचा डॉक्टर 'होगया’ केले वाले की हरकत से बुरी तरह चिढ़ गया था। उसके मुँह से दना-दन गालियां फूटने लगी। केले वाला आगे-आगे और डॉक्टर उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। डॉक्टर की पकड़ में आने से बचने के लिए केले वाला बित्ती भर चुका था। अब डॉक्टर होगया के लिए उसको पकड़ना आसान नहीं था। कहाँ पचास पार कर चुका डॉक्टर और कहाँ उसकी आधी उमर का वह उदंड। डॉक्टर की साँस उखड़ने लगी थी। वह एक ही जगह पर खड़े होकर उखड़ती साँसों से गालियां बकने लगा,

- ओ तेरी माँ का हो गया---साले हरामी तेरा हो गया।

डॉक्टर को रुका हुआ देख, बचकर भाग रहा वह केले वाला भी रुक गया और वहीं से खड़े होकर डॉक्टर को चिढ़ाने लगा। दूर से खड़े होकर अपने को चिढ़ाते उस हरामी का क्या करे ?, डॉक्टर की समझ नहीं आ रहा था। तभी कोई दूसरा चिल्लाया,

- होगयाह्णह्णह्ण--- होगयाह्णह्णह्ण---।

डॉक्टर नीचे झुका हुआ था और पाँव से चप्पल निकाल रहा था। परेशान था कि कैसे निपटे इन हरामियों से। निगाहें उसी पर टिकी थी, जो अब भी दूर से खड़ा होकर तरह-तरह की हरकत करते हुए चिढ़ाये जा रहा था। डॉक्टर अचानक उस ओर को घूमा जिधर से दूसरी आवाज आई थी और बिना देखे ही उसने चप्पल उस ओर को दे मारी। चप्पल सीधे उस झल्ली वाले के लगी, जो सिर पर रखी केलों की झल्ली को नीचे उतार रहा था। चारों ओर से हँसी का फव्वारा छूट गया। सड़क के आर पार के रेहड़ी वालों के साथ-साथ, बिना ग्राहकों के खाली बैठे दुकानदार भी खिल-खिलाने लगे और शुरु हो चुके तमाशे में शामिल हो गए। मुश्किलों से ही जिनके चेहरे पर हँसी की कोई रेखा खिंचती हो, ऐसे लोगों के लिए भी मुस्कराये बिना चुप रहना संभव न रहा। झल्ली वाला, चप्पल जिसके बेवजह पड़ी थी, खुद भी खिल-खिला रहा था,

-क्या ---'होगया’--- डॉक्टर साहिब --- यूं ही बिना देखे ही हमको बजा दिये ?

बेवजह ही एक निर्दोष को चप्पल मार देने पर डॉक्टर को अपनी गलती पर माफी माँगनी चाहिए, ऐसा सोचने वाले अजनबियों के लिए तो पूरा मामला ही पेचिदा हो गया कि डॉक्टर तो उल्टा झल्ली वाले को भी गालियां सुना रहा है।

- हरामखोर अभी देखता  तुझे --- साले तेरे नहीं होता है क्या ?
  
झल्ली वाला और भी खिल-खिलाकर हँसने लगा। उसके इस तरह खिल-खिलाने से खिसियाया हुआ डॉक्टर पिफर से गालियां बकने लगा। ''होगया--- होगया" की आवाजें अब हर तरफ से आ रही थीं। डॉक्टर कभी एक ओर को मुँह कर गाली देता तो कभी दूसरी ओर। उछल-उछल कर गाली देते हुए उसकी साँस फूलने लगी थी। चप्पल उठाने के लिए झल्ली वाले की ओर दौड़ ही रहा था कि तभी न जाने कहाँ से तुफैल दौड़ता हुआ आया और 'होगया" चिल्लाते हुए उसने चप्पल पर जोर से किक जमा दी। चप्पल हवा में उछलकर उस ओर जा गिरी जिधर बित्ती भरकर दौड़ने वाला, खड़ा होकर सुस्ता रहा था। वह आश्वस्त था कि अब तो डॉक्टर उसकी बजाए तुफैल से निपटना चाहेगा। तुफैल की हरकत पर डॉक्टर पूरी तरह से झल्ला भी गया,

- अबे रुक साले कटवे के--- तेरी माँ का होगा मादरचो---। हरामखोर अभी तो तू भी पूरी तरह से नी हुआ---।

दूसरे पाँव की चप्पल उतार कर उसने उस ओर उछाली, जिधर तुफैल दौड़ रहा था। पिद्दी-सा तुफैल तेजी से दौड़कर सड़क के पार निकल चुका था। अबकी बार केले की ठेली के बगल में बैठा वह कुत्ता चपेट में था, खुजलीदार शरीर पर उड़ चुके बालों की वजह से जो मरगिल्ला-सा दिखायी देता था। चप्पल उसके न जाने किस अंग पर लगी कि जोर से किकियाने लगा। कुत्ते की कॉय-कॉय और डॉक्टर की गालियों से पूरा माहौल ही तमाशे में बदल गया। चिढ़ाने वालों के पीछे-पीछे, सड़क के इधर-उधर दौड़ता डॉक्टर हँसी का पात्र हो चुका था। आस-पास के दुकानदार भी दुकानों से बाहर निकल, दौड़-दौड़ कर गाली देते डॉक्टर से मजा ले रहे थे। जानते थे कि डॉक्टर को कुछ भी कहना, खुद को भी गालियों का शिकार बना लेना है तो भी वे ऐसा करने से बाज न आ रहे थे। हँसी की उठती स्वर लहरियां नौकरों को भी दुकान में आए ग्राहकों से निबटने की बजाय कुछ देर लुत्फ उठा लेने की छूट दे रही थी। महावर क्लाथ हाऊस का सेल्समैन, जिसे क्षण भर भी कभी खाली बैठने की छूट न होती, गज में पँफसाये कपड़े को हाथ में पकड़े हुए, गद्दी से बाहर को लटक कर तमाशे का मजा लूटने लगा। सामने बैठी ग्राहक के द्वारा चुन लिये गए कपड़े को उसने पूरा नाप लिया था और काटकर बस अलग ही करना था। ग्राहक भी हँसे बिना न रह पा रहा थी।



Thursday, October 29, 2009

नेपाली क्रांति की अवश्यमभाविता


पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) डॉ. शोभाराम शर्मा का एक महत्वपूर्ण काम है। उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के पतगांव में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा। शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पिछलों दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इससे पूर्व 'क्रांतिदूत चे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) का हिन्दी अनुवाद, लेखन के प्रति डा.शोभाराम शर्मा की प्रतिबद्धता को व्यापक हिन्दी समाज के बीच रखने में उल्लेखनीय रहा है। इसके साथ-साथ डॉ. शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामंतवाद के विरोध् की परंपरा पर लिखी उनकी कहानियां पाठकों में लोकप्रिय हैं।
वनरावतों पर लिखा उनका उपन्यास "काली वार-काली पार" जो प्रकाशनाधीन है, नेपाल के बदले हुए हालात और सामंतवाद के विरूद्ध संघर्ष की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। प्रस्तुत है नेपाल के सीमांत में रहने वाली राजी जन जाति पर लिखे गए उनके इसी उपन्यास 'काली वार-काली पार" का एक छोटा सा अंश :


उपन्यास अंश

काली वार-काली पार

डॉ.शोभाराम शर्मा


उस साल चौमास (चातुर्मास) कुछ पहले ही बीत गया। आषाढ़-सावन में तो बारिश कुछ ठीक हुई, लेकिन भादो लगते ही न जाने क्यों रूठ गई। बादल आते, कुछ देर आंख-मिचौली खेलते और पिफर अंगूठा दिखाकर न जाने कहां गायब हो जाते। परिणाम यह हुआ कि हरी-भरी पफसल मुरझाने लगी। लगता था कि जैसे पफसल को पीलिया हो गया हो, धान, झंगोरा (सवां), मंडुवा में बालियां तो आ गई थीं, लेकिन ऐन मौके पर वर्षा बन्द हो गई। पुष्ट दानों का तो अब सवाल ही नहीं रहा। अदसार (अर्द्धसार) फसल हाथ लग जाए, बस वही बहुत था। नदी-घाटियों में जहां सिंचाई सुलभ थी, वहां तो अधिक नुकसान की सम्भावना कम ही थी। फ़िर भी आसमानी वर्षा की तो बात ही कुछ और है। उसके अभाव में वहां भी भरपूर फसल की आशा नहीं रही। ऊपर बसे गांवों का तो बहुत बुरा हाल था। मक्के में ठीक से दाने कहां से पड़ते जबकि पानी के अभाव में पौधे ही पीले पड़ने लगे थे। हर नई फसल के हाथ आने से पहले वैसे भी प्राय: हाथ तंग होता ही है। लेकिन जब अगली फसल के मारे जाने का दृश्य आंखों के सामने हो तो लोग कहां और किस ओर देखें। वनवासी राजियों की तो जैसे कमर ही टूट गई थी। रोपाई, गुड़ाई और निराई के काम से जो थोड़ा बहुत अनाज मिला था वह भी समाप्ति पर था। जंगलों के बीच खील काटकर फसल बोई तो थी, लेकिन बालियां आने से पहले ही सूखने लगी थीं। गींठी (बाराही कन्द), तरुड़ आदि के कन्द अभी तैयार नहीं हुए थे। लाचारी में खोदकर लाते भी तो बेस्वाद खाए नहीं जाते थे।
चिफलतरा के गमेर को अपनी और अपने लोगों की चिन्ता खाए जा रही थी। मुखिया था लेकिन कोई राह नहीं सूझ पा रही थी। अपनी छानी के आगे सांदण के एक कुन्दे को बसूले से छील रहा था कि सामने फत्ते के खेत पर नजर पड़ी। फत्ते के गाय-बछड़े अनाज के पौधों को चट करने में लगे थे। गमेर ने फत्ते को आवाज दी -
फत्ते! अरे वा फत्ते!! गाय खुल गई है रे! बाहर तो आ।
फत्ते छानी से बाहर निकला और गाय-बछड़े हांकने के बजाय झंगोरे के दो-तीन अधमरे पौधे उखाड़कर गमेर के पास आकर बोला-
दाज्यू, गाय खुली नहीं, मैंने ही चरने छोड़ दी है। देखो, फसल तो पूरी चौपट हो चुकी है। सोचा, गाय-बछड़े ही अपना पेट भर लें
गमेर ने पौधे छूकर कहा-
ठीक कहते हो भाऊ, फसल तो सचमुच बर्बाद है, डंगरों के मतलब की ही रह गई है। सोचता हूं यहां से बाहर निकल जाते, लेकिन अभी तो कम-से-कम एक महीना बाकी है।
लेकिन तब तक जिन्दा भी रह पाएंगे दाज्यू? घास-पात खाकर कब तक निभेगी। शिकार-मछली का जुगाड़ भी ठीक से नहीं बैठता तो क्या करें?
फत्ते ने निराश होकर कहा।
कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। काठ के बर्तन और खेती के जो उपकरण हमने इधर बनाए हैं, वे कब काम आएंगे? उनके बदले अनाज का जुगाड़ तो कर लें। महीने भर का गुजारा तो किसी-न-किसी तरह हो ही जाएगा। कल सुबह अंधेरे में पास के गांव तक हो आएंगे। चुन्या से भी तैयार रहने को कह देना। वैसे गांव वालों की हालत भी पतली है। फ़िर भी कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा,
गमेर से यह सुनने पर फत्ते अपनी छानी की ओर चला गया और गमेर अपने बनाये बर्तनों और उपकरणों को संभालने में लग गया।
अभी पौ नहीं फटी थी। गमेर, चुन्या और पफत्ते तीनों अंधेरे में ही जंगल से होकर चल पड़े - सिर पर काठ के बर्तन और खेती के उपकरण लादे। पाला इतना पड़ा कि पेड़ों से जैसे पानी बरस रहा था। नंगे बदन वे तीनों राजी बुरी तरह भीग गए। ठण्ड से कांपते-सिकुड़ते और जमीन पर केंचुओं को कुचलते हुए वे आगे बढ़ते रहे। न जाने कितनी जोंकें उनके पैरों की उंगलियों के बीच चिपक गई थीं। खुजली का आभास हो रहा था। पूरब की पहाड़ियों पर लाली क्या फूटी कि वे तीनों एक गांव के निकट थे। पनघट सामने था। वहीं बिछे पत्थरों पर बर्तन आदि रख दिए। फ़िर तीनों एक ऐसी घनी झाड़ी में जाकर छिप गए, जहां से पनघट का सारा दृश्य साफ-साफ दिखाई देता था। चुन्या ने कुछ कहना चाहा तो गमेर ने मुंह पर उंगली रखकर चुप रहने का संकेत कर दिया। आवाज करने से उनकी उपस्थिति का पता जो चल जाता। बेचारे इशारों में ही बतियाते रहे और पैरों से चिपकी जोंकों से पल्ला छुड़ाते रहे।
कुछ और उजास हुआ। गांव की दो औरतें पानी लेने आ पहुंची। राजियों के बर्तनों पर नजर पड़ी। गगरियां भरीं और एक-एक ठेकी भी साथ में लेती गईं। यही क्रम चलता रहा। कुछ ही देर में सारे बर्तन और उपकरण उठ गए थे। मुश्किल से दो-चार लोग ही अनाज लेकर आए। झाड़ी में बैठे राजी निराश होकर वह सब देखते रहे। नजरें बचाकर किसी तरह पत्थरों पर रखा अनाज उठाया, अपनी जाफ़ियों (रेशों से बने थैले) में भरा और छिप-छिपाकर अपने रौत्यूड़ा (रावतों अर्थात् राजियों की जंगली बस्ती) की ओर चल पड़े। रास्ते में फत्ते ने गमेर से कहा-
दाज्यू, यह तो कुछ भी नहीं हुआ।
चुन्या भी बोल उठा-
हम तो लुट गए दाज्यू। दो-तीन महीनों की मेहनत और इतना-सा अनाज!
गमेर ने कहा-
हां,इतने कम की आशा तो मुझे भी नहीं थी। लगता है कुछ लोग बर्तन तो ले गए, पर अनाज लेकर लौटे ही नहीं। इतना तो मैं भी मानकर चला था कि लोगों के हाथ तंग हैं, अनाज कम ही मिलेगा। लेकिन लोग बर्तन उठा ले जाएं और बदले में दो दाने भी न दें, इसकी आशा नहीं थी। ऐसी बात पहले कभी नहीं हुई, इसी का दु:ख है।

-तो क्या हम इसी तरह लुटते रहेंगे?, चुन्या ने आवेश में आकर पूछा।
कर भी क्या सकते हैं चुन्या? हम हैं ही कितने? वे अगर अपनी पर उतर आएं तो ---? हां, एक ही उपाय है, रजवार अगर चाहें तो बात बन सकती है। उनका आदेश कोई टाल नहीं सकेगा। जब भी मौका मिलेगा अस्कोट जाकर बात करेंगे। इसके अलावा हमारे पास कोई और चारा भी तो नहीं।
गमेर ने समझाया।

चुन्या और फत्ते पहले तो गमेर से सहमत नहीं हुए। मरने-मारने की बात ही बढ़-चढ़कर करते रहे। लेकिन गमेर ने जब उन्हें बताया कि रजवार तो रिश्ते में "भाऊ" (छोटे भाई) लगते हैं, वे कुछ न कुछ जरूर करेंगे। फ़िर हम हैं कितने जो दीगर लोगों का मुकाबला कर सकें? इस पर उनका जोश ठण्डा पड़ गया और वे भी अस्कोट के रजवार के पास जाने की बात मान गए। अदला-बदली के लिए वे दूसरे गांवों में भी गए, लेकिन वही ढाक के तीन पात। बहुत कम अनाज मिल पाया। किसी तरह दिन काटते रहे कि कब जाड़ा शुरू हो और बाहर निकलने का अवसर आए। घर-गृहस्थी के झंझट में वे रजवार से मिलने की बात तो जैसे भूल ही गए। एक दिन फत्ते को याद आई और वे तीनों गमेर की अगुवाई में अस्कोट के लिए चल पड़े।
जाड़े के मौसम की शुरूआत। तीन-चार दिनों से आसमान पर हल्के बादल छाए हुए थे। दिगतड़ के उफपर सीराकोट-द्योधुरा, गोरी-रौंतिस के बीच यमस्यारी घणधुरा तथा पूर्वोत्तर में गोरी-पार घानधुरा-पक्षयां पौड़ी और छिपलाकोट की ऊंचाइयों पर सफेद कुहरे की चादर मौसम के और बिगड़ने की सूचना दे रही थी। मौसम की परख आदमी से कहीं अधिक पशु-पक्षियों को होती है। चिफलतरा का गमेर बणरौत अपने दो साथियों - चुन्या और फत्ते के साथ अस्कोट के रजवार से भेंट करने निकला था। तीनों लगभग नंगे थे। केवल अपने गुप्तांग ही किसी तरह ढके हुए। मालू की बेल के रेशे से बने कमरबन्द और उसी के चौड़े पत्तों का उपयोग इस कुशलता से किया गया था कि हरे रंग के मुतके (लंगोट) का आभास होता था।
रौंतिस गाड (नदी) तक आते-आते उन पत्राधारी वनरौतों को अचानक एक काखड़ नीचे की ओर भागता नजर आया। वे समझ गए कि बर्फबारी के डर से जानवर नीचे गरम घाटियों की ओर आ रहे हैं। उनकी बांछें खिल गईं। यदि कोई जानवर हाथ लग गया तो रजवार से खाली हाथ भेंट करने की बेअदबी से तो बच ही जाएंगे। गमेर ने अपने तीर-कमान संभाले और दोनों साथियों को सतर्क नजरों से टोह लेने का इशारा किया। वे एक खेत के किनारे क्वेराल (कचनार) के पेड़ के नीचे खड़े थे। फत्ते ने नीचे की ओर नजर दौड़ाई तो मवा की एक शाखा के नीचे काखड़ को खड़ा पाया और गमेर को इशारा किया। काखड़ की नजर दूसरी ओर थी और गमेर ने जो तीर मारा तो काखड़ नीचे रौंतिस के पानी में जा गिरा। गमेर और फत्ते नीचे भागे ताकि काखड़ को कब्जे में कर सकें। लेकिन चुन्या की नजर तो खेत के किनारे गींठी (बाराही कन्द) खोदते एक साही पर टिकी थी। उसने दोनों हाथों से एक भारी सा पत्थर उठाया और दबे पांव पास जाकर साही पर दे मारा। बेचारे साही को अपने तीरों का उपयोग करने का अवसर ही नहीं मिला। साही भी हाथ लगा और गींठी भी उसने अपनी जापफी (रेशों से बुनी झोली) के हवाले की। पिफर वह भी गमेर और पफत्ते के पास चला आया। गमेर और फत्ते काखड़ को मालू की बेल से एक लट्ठे पर बांध चुके थे। चुन्या और पफत्ते ने काखड़ अपने कन्धों पर उठाया। गमेर ने चुन्या की जापफी भी अपने कन्धे से लटकाई और वे तीनों रौंतिस-पार अस्कोट के लिए चढ़ाई चढ़ने लगे।
वे छिप-छिपकर चल रहे थे। डर था कि कहीं पड़ोस के बसेड़ा, कन्याल या धामी लोगों में से किसी ने देख लिया तो कहीं काखड़ से हाथ न धोना पड़े। रह-रहकर ठण्डी पछुवा के झोंके चलने लगे थे। उफपर आसमान पर बादल भी गहराने लगे और बरसने-बरसने को हो आए थे। वे अभी उबड़-खाबड़ रौंतिस के किनारे से अधिक दूर नहीं जा पाए थे। अचानक पानी बरसने लगा। तीनों रौंतिस के किनारे एक ओडार (गुफा) की शरण लेने पर बाध्य हो गए। ऊंचाइयों पर सम्भवत: बर्फ पड़ने लगी थी। उधर से आते हवा के ठण्डे झोंके कंप-कंपी पैदा कर रहे थे। सौभाग्य से गुफा में कुछ सूखी लकड़ियां और झाडियां पड़ी मिल गईं। गुफा राजी बण-रौतों की यदा-कदा रात बिताने का आश्रय जो थी। मालू की एक बेल भी अपने चौड़े-चौड़े पत्तों के साथ गुफा के आधे खुले भाग को ढके हुए थी। पानी बरसना नहीं रुका तो अब रात उसी गुफा में काटनी थी। चुन्या ने मालू के पत्तों के बीच से बाहर झांका और बोला -
थिप्पे पौवा,(शाम हो गई है)।
ओअं, दे अस्कोट हं पियरे हूँर (हां, आज तो अस्कोट नहीं पहुंच पाएंगे), गमेर ने कहा।
उन्होंने काखड़ का शव गुफा की पिछली दीवार के सहारे एक पत्थर पर रख दिया था। गमेर ने अपनी जापफी से अगेला (आग पैदा करने वाला लोहे का टुकड़ा), डांसी (चकमक और कसबुलु ;एक वन्य पौधा जिसके पत्तों की सफेद परत को रेशों के रूप में उतार लिया जाता है, पुराना होने पर वह रेशा शीघ्रता से आग पकड़ लेता है) निकाले। डांसी से चिनगारियां निकली और कसबुलु ने आग पकड़ ली। सूखी पत्तियों, झाड़ियों और लकड़ियों के बीच रखकर हवा दी तो आग भड़क उठी और तीनों बैठकर आग सेंकने लगे। ठण्ड इतनी अधिक थी कि एक ओर जहां ताप का अनुभव होता, वहीं शरीर का दूसरा भाग सुन्न पड़ता महसूस होता। वे बारी-बारी से आग की ओर कभी मुंह करते तो कभी पीठ और इस तरह ठण्ड से बचने का प्रयास करते रहे। अंधेरा और गहराने पर गमेर ने दांत किट-किटाते चुन्या और फत्ते से कहा -
दे हं चुजावरे हूँर?(आज खाने का क्या होगा?)
चुन्या ने जवाब में अपनी जापफी से साही निकाला। उसके तीर जैसे कांटे उखाड़े और पत्थर के आघात से दो-तीन टुकड़े कर दिए। फत्ते तब तक मालू के साबुत पत्ते चुन चुका था। साही के टुकड़े मालू के पत्तों में लपेटकर धधकती आग में भूनने रख दिए गए और गीठी भी गरम राख में दबा दी गई। कुछ देर में मांस और गींठी दोनों पक गए। कुछ ठण्डे होने पर बिना नमक के ही वे तीनों मांस और गींठी का स्वाद लेने लगे। खाना समाप्त होते ही तीखी ठण्डी हवा फ़िर से सताने लगी। फत्ते ने आग को और धधकाने का प्रयास किया। किन्तु अब लकड़ियां समाप्त होने को थीं, केवल शोले भर रहे गए थे और उनसे तपन उस मात्रा में नहीं मिल पा रही थी, जितनी पहले लपटों से मिल रही थी। तीनों सटकर इस तरह बैठ गए कि एक-दूसरे के शरीर की गर्मी से ठण्ड का प्रकोप शान्त कर सकें। गमेर ने ठुड्डी पर हाथ रखते हुए गम्भीर होकर कहा-
बाप रे! यह हाल तो हमारा है, बेचारे गरीब-गुरबों का क्या होगा?