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Thursday, March 23, 2023

कंधे पर पहचान का झोला लटकाये

हिंदी की रचनात्मक दुनिया में अपने समकालीनों पर कविता लिखने की एक अच्छी और सम्रिद्ध परम्परा है. कुछ समय पूर्व कवि श्याम प्रकाश जी ने भी अपने समकालीन और प्रिय कथाकार सुभाष पंत के केंद्र में रखते हुए एक कविता लिखी और अपनी मित्र मंडली के बीच में उसे शेयर भी किया. उस कविता की खूबी इस बात में देखी जा सकती है कि न सिर्फ सुभाष पंत का व्यक्तित्व बल्कि उनका रचना संसार भी कविता में नजर आने लगता है. रचनाओं के शीर्षको को कविता में पिरोकर इस तरह से रखा गया है कि उनसे केंद्रिय रचनाकार की आकृति भी साफ दिखने लगती है. उस कविता को भाई शशि भूषण बडोनी जी के बनाये चित्रों के साथ पढे तो कथाकार सुभाष पंत और भी खूबसूरत नजर आ रहे हैं. बडोनी जी का विशेष आभार कि उन्होंने इस अनुरोध का मान रखा कि भिन्न भिन्न भाव मुद्राओ में पंत जी के स्केच बनाये. 

विगौ 

जेब में पहाड़ 

  श्याम प्रकाश

दरअसल चीफ़ के बाप की मौत हो गई थी

न चाहते हुए भी मेरा वहां जाना जरूरी था

मरने वाला कोई और नहीं मेरे चीफ़ का बाप था

 

चिलचिलाती दुपहर की तपती हुई ज़मीन पर

नंगें पांव श्मशान में खड़ा मैं

कभी दांया तो कभी बांया पैर ऊपर उठाता

पैरों को ज़मीन पर रखते-उठाते

मुझे कंटीली-पथरीली,

चढ़ती-उतरती पगडंडियों पर पांव बचा

चलना याद आ गया


मैं पहाड़ की सुबह में था

पीले से सफेद होता हुआ सूरज,

गुनगुनी धूप,

पहाड़ पर  छोटे-बड़े पेड़ों का पहाड़ बनाते पेड़ ,

चिड़ियों की बोलियां

और इन सब के बीच गुजरती ठंडी-ठंडी हवा....

 

मैं सहसा चौंक पड़ा

मैं तो श्मशान में खड़ा हूं

इस मौके अपनी सोच के‌ भटकाव का  यह रोमांटिसिज्म मुझे कतई नहीं भाया

आखिर मैं  मौत में आया हूं

 

चिता से उठती लपटों से छूटते चिंगारों को देखते

मै फिर पहाड़ चढ़ गया

और वो आदमी, जिस का नाम फिलहाल मुझे ध्यान नहीं आ रहा,

जो अक्सर मुझे वहां दिखाई  पड़ता था,

मेरे साथ था

हर बार ही वो आदमी मुझे हर पिछली बार से लम्बाई में छोटा होता हुआ आदमी लगता

असल में वह चौड़ाई में फ़ैल रहा था

अपने लिबास और स्वभाव दोनों से निहायत आम आदमी लगता

कंधे पर पहचान का झोला लटकाये

सुबह का भूला सा,

अक्सर वह बरसाती नदी के पास के पत्थर पर

बैठा दिखता

कुछ सोचता,  टहलता,

कभी ‌नदी में से पत्थर उठा दूर नदी में फेंकता ,

अचानक ही जोर-जोर से

एक से दस  तक गिनती ऐसे बोलता

जैसे एक का पहाड़ा...

एक ईकम एक,एक दूनी दो,एक तिया ‌तीन.... पढ़ रहा हो

बेतरतीब-सी उसकी बातों में कोई ताल मेल नहीं होता

अजीब-अजीब बातें किया करता वो

कभी जिन्नों के डरावने किस्से

तो कभी अलादीन के चिराग से निकले

जिन्न और अन्य कहानियां सुनाता ,

पास के पेड़ की टहनी पर बैठी चिड़िया को

टकटकी लगा देखता,

कहता इस चिड़िया की आंख गिरगिट की तरह

रंग बदलती है

जब लोग देखते चिड़िया को उड़़ते नहीं 

आदमी को टहनी पर से कूदते देखते,

अक्सर वो कुछ गुनगुनाया करता कहता

ये मुन्नी बाई की प्रार्थना है

बड़ी लय में गाया करती थी मुन्नी बाई

पता नहीं कब उसे बीच में ही छोड़ और किस्सों में उलझ जाता,

कहानियों का उसे बहुत शौक था

गिनती कर वह बताता

इक्कीस कहानियां उसे अच्छी तरह याद हैं,

जिन्हे सुनाते वह हर बार गड्ड-मड्ड कर देता

उसने बताया उस के पास कुछ किताबें भी हैं

कहते -कहते जैसे कुछ भूल रहा था,

कुछ रुक कर उंगलियों से माथा ठोकता बोला... क्या कहते हैं.... क्या कहते हैं उन्हें

जो अच्छी और अलग सी होती हैं

वह सोच में पड़ गया

हां याद आया, फिर बोला- प्रतिनिधि

उसके पास इस नाम की एक किताब है जिस में किसी एक ही लिखने वाले की 

दस प्रतिनिधि कहानियां हैं

वे सुरक्षित हैं किसी खास जगह

एक फाइल में

लेकिन वह फाइल बंद है अभी

बिलकुल खोई चाबी वाला ताला लगे बक्से की तरह

 

और वो दिन

वो तो न भूलने वाला बन गया था

मैंने उसे कभी इस तरह नहीं देखा था

मुंह से  सिंगिंग बेल की बजती घंटियों जैसी

आवाज़ निकालता , कुछ-कुछ बोलता

वह दौड़ा जा रहा था

मेरे साथ और लोगों ने भी

उसे रोकने की कोशिश की

वो रुका नहीं

बल्कि उस की दौड़ और तेज़ हो गई

इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ की तरह

जिसका हिस्सा वह दूर-दूर तक नहीं था

 

कुछ दूर दौड़ ,पस्त हो वह रुक गया

गिरते-गिरते बचते ‌धम्म‌ से ज़मीन पर बैठ गया

वो हांफ रहा था,

उसका चेहरा पसीने-पसीने हो रहा था,

गुस्से में लाल उबलती आंखें

आधी बाहर लटक गई थीं

अब तक एक छोटी-मोटी भीड़

उसके चारों ओर थी

सांसें संभल जाने पर वह उठा

और फिर दौड़ने लगा

छोड़ूंगा नहीं उसे....

बिलकुल नहीं छोडूंगा....

उस्स ......

वह उबल रहा था

 

चिता से उठती लपटें शांत हो चुकी थीं

लोग क्रिकेट, मंहगाई, बेरोजगारी

और सरकार को कोसते

अपने - अपने घरों को लौटने लगे थे

लगा श्मशान से नहीं लंच के बाद दफ्तर में अपनी-अपनी सीट पर जा रहे हों

मुझे लगा मैं उनके साथ नहीं चल रहा हूं

कहीं और दौड़ रहा हूं

पहाड़ के उस आदमी के साथ

जो हौसले से लबरेज़,

अपने थके-हारे पांवो के बावजूद

दौड़ रहा है,

पीछा कर रहा है

उसका

जो पहाड़ चोर है

जिसकी जेब में पहाड़ है ।

                     _____

                               

Tuesday, July 5, 2022

चैत की ऋतु गाने वाली हुड़क्या

मोहन मुक्त की कविताओं को पढ़ना, एक जिरह से गुजरना है। जिरह करती हुई, ये ऐसी कविताएं हैं जो मजबूर करती हैं कि इन कविताओं को पढ़ते हुए हमें कविता के उस पाठ से मुक्‍त होकर इन्‍हें पढ़ना चाहिए जिसका फलक बताता है कि स्‍पेश क्रियेट करती अभिव्‍यक्ति ही कविता के दायरा बनाती है। स्‍पेश को सीमित कर देने के लिए नहीं बल्कि एक बड़ी आबादी के लिए सीमित कर दिये गये स्‍पेश की जिरह को सामने लाती इन कविताओं से गुजरना एक युवा रचनाकार के भीतर की बेचैनियों का खुलासा है। ऐसा खुलासा जिसमें वर्तमान की विसंगतियों के विश्‍लेषण के लिए इतिहास में झांकना जरूरी है।

खुद भी अफसोस ही जाहिर कर सकता हूं कि अपने आस-पास की इस आवाज को अचानक से सुनना हुआ। अफसोस इस बात का भी हमारा आस-पास ऐसी आवाज को सुनाने के लिए अवसर मुमकिन करा पाने से बचता रहा है। वरना क्‍यों जी ऐसा होता कि जिस कवि ओमप्रकाश वाल्‍मीकि को बाद में हिंदी में दलित साहित्‍य का प्रणेता माना गया, उनकी पहली कविता पुस्तक ''सदियों का संताप'' की कविताओं के चयन करते हुए और पुस्तिका का रूप देते हुए मैं ही नहीं, भाई ओमप्रकाश वाल्‍मीकि भी दलित रचनाओं की संज्ञा से विभूषित नहीं कर पाये।

आभारी हूं कथाकार बटरोही जी का जिनकी एक टिप्‍पणी से कवि का नाम जाना और खोज कर फिर जिसकी कविताओं को पढ़ने का अवसर जुटाया।

मोहन मुक्‍त की कविताओं में पहाड़ का वह चेहरा आकार ले रहा है जिसे हर वक्‍त के 'ऐ गुया, ऐ कुता' वाले प्रेम के झूठ से सने काका, बोडा वाली संज्ञाये जन समाज में व्‍याप्‍त विसंगतियों को छुपा लेना चाहती रही हैं। यह खुशी की बात है कि जल्‍द ही इस कवि की कविताओं को एक जिल्‍द में देखना संभव होने जा रहा है। भविष्‍य के इस कवि की कुछ कविताओं को यहां देते हुए यह ब्‍लॉग अपनी विषय सामाग्री को समृद्ध कर रहा है।

 वि.गौ.  

 

कवि मोहन मुक्‍त का परिचय:

मध्य हिमालय के पिथौरागढ़ ज़िले में गंगोलीहाट के निवासी और रहवासी यह कवि पिछले 13 साल से पत्र पत्रिकाओं में वैचारिक लेखन करता आ रहा है।

 'हिमालय दलित है ' पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य.


 

फूल


बगीचे नहीं मेरे पास

होने भी नहीं चाहिए

जंगल पर मेरा हक़ नहीं

होना भी नहीं चाहिए

मैं फूल खरीद सकता हूँ

लेकिन वो तो बुके होगा फूल नहीं

मेरी प्यारी....

सच बात तो ये है

कि मुझे फूल तोड़ना पसंद नहीं

मैं तुम्हें किताब नहीं दूंगा

जिसके बीच सूखते फूल रखे हों

वो किताब है इस दुनिया की सबसे दुःखी जगह 

उस बंद किताब के भीतर

कागज़ और फूल दोनों गले मिलकर

अपने अपने पेड़ को याद करते हैं

रोते हैं...

और सारी लिपियाँ हो जाती हैं अस्पष्ट

दुःख की नदी में बहकर नहीं

सुख के घोड़े पर सवार नहीं 

मैं आना चाहता हूँ तुम्हारे पास

बिना किसी माध्यम के 

आदिम .... बेनक़ाब... ज़ाहिर और स्पष्ट

सुनो मेरी प्यारी...

मैं फूल नहीं भेजूंगा 

मैं ख़ुद आऊंगा

ख़ुशबू की तरह... 


मेरा पहाड़ ?????

 

मुंडा कोल

गोंड नाग

बौद्ध द्रविड़

या हडप्पन बाद के

जो कोई भी थे मेरे पुरखे

उन्होंने कभी नहीं कहा ....'मेरा पहाड़'

कम से कम रिकॉर्ड तो यही बताते हैं

अगर कहा भी हो

तो कैसे जानें 

उनकी तो बची नहीं भाषा भी कोई

जो कुछ बच गया 

उनकी भाषा का 

वो गाली बन गया

भाषाविद कहते हैं

कि 'डूम' शब्द आर्य भाषा का नहीं है 

खशो ने बनाया 'खशदेश'

उन्होंने जरूर कहा ....'मेरा पहाड़'

गुप्तों के अधीन कत्यूरियों ने  कहा....'मेरा पहाड़'

आर्यों ने कहा गंगा मेरी तो..... 'मेरा पहाड़

नीलगिरी पर  कब्ज़ा छोड़े बिना 

विंध्य को लांघकर 

सारी बुद्ध प्रतिमाओं को

शिव बनाकर

शंकराचार्य ने कहा .....'मेरा पहाड़'

मैदानी चन्दो ने कत्यूरियों को कहा खदेड़कर अब ...

.....'मेरा पहाड़'

नेपाली गोरखाओं ने चंदों से छीनकर कर कहा गरजते हुए

.......'मेरा पहाड़'

काली के इस तरफ़ ना आना 

सुगौली में अंग्रेज ने धमकाकर कहा गोरखों से.... 'मेरा पहाड़'

मल्ल पंवार कहते रहे ......'मेरा पहाड़'

गंगोली मड़कोटी राजा ने भी कहा... 'मेरा पहाड़ 

राजा का राजपुरोहित 

उप्रेती भी कहता रहा... 'मेरा पहाड़'

कहा जाता है कि उसने मार दिया था राजा 

उसकी जगह बैठाए

गुमानी के मराठी पुरखे भी बोले ...'मेरा पहाड़'

नेपाल के ज्योतिष 

जिन्हें राजा ने दी 

पोखरी की जागीर 

वो कहने लगे.... 'मेरा पहाड़

महाराष्ट्र से आये डबराल ने तो 

अपना नाम ही रखा हिमाल के डाबर गांव पर 

और कहा .......'मेरा पहाड़'

थानेश्वर कुरुक्षेत्र से आये 

जनार्दन शर्मा के वंशज 

मंदिर में पाठ करने के चलते कहलाये पाठक

वो सगर्व और साधिकार कहते हैं ...'मेरा पहाड़'

जो भी कहता है 'मेरा पहाड़'

वो प्यार नहीं करता 

वो जताता है दावा 

जीती गई 

लूटी गई 

छीनी गयी

कब्जाई गयी 

और बांटी गयी 

ज़मीनों पर 

जागीरों पर

बर्फ जंगल पानी और बुग्याल 

किसी के हो कैसे सकते हैं भला 

सारे कवि जो मुग्ध हैं पहाड़ों के सौंदर्य पर 

जो पहाड़ों को ऊंचाई और मजबूती का रूपक बताते हैं 

वो बेईमान हैं 

वो शिकार में मारे गए बाघ की लाश पर 

उसकी ताक़त का बखान कर

दरअसल गा रहे हैं हत्यारे की प्रशस्ति

सारे राजा

सारे विजेता

सारे हत्यारे 

सारे लुटेरे

सारे ज्योतिष

सारे पुरोहित 

सारे गुमानी

सारे धर्माधिकारी 

और सब के सब कवि एक साथ भी कहें अगर ...

.....'मेरा पहाड़'

तो भी मैं नहीं कहूंगा

मैं नहीं कहूंगा ....'मेरा पहाड़

मैं कह ही नहीं सकता कभी....'मेरा पहाड़'

दो वजहों के चलते

एक तो ...'मेरा पहाड़' ...ये भाषा नही मेरी

और ज़्यादा मज़बूत वज़ह 

मैं ही पहाड़ हूँ...................


जड़ों की ओर

 

लौटो जड़ों की ओर 

जब वे कहते हैं

तो आप लौट पड़ते हैं 

घर की ओर

रहवास की ओर

जमीन की ओर

भाषा की ओर 

संस्कृति धर्म सभ्यता की ओर

गांवो की ओर

कबीलों की ओर

और आखिरकार 

आप सिमट कर हो जाते हैं 

इंसानद्रोही 

जीवद्रोही 

चैतन्यद्रोही 

पदार्थद्रोही

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं आपको समेटता नहीं

मैं कहता हूँ लौटो इतिहास की ओर

लेकिन पीछे नहीं

नीचे नहीं

आगे और ऊपर

आपका और मेरा साझा अतीत आकाश में है

आपकी और मेरी जड़ें एक हैं

और वो जमीन में नहीं

अंतरिक्ष में हैं

हम दोनों की जड़ें चेतन में नहीं जड़ में हैं

हम दोनों की जड़ें बिग बैंग में हैं 

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो उसका मतलब है लौटो 'जड़'की ओर

जो एक है...केवल एक

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं उस जगह की बात करता हूँ

जहाँ विज्ञान और दर्शन में कोई विरोध नहीं

क्योंकि उनकी भी एक ही जड़ है

जैसे आपकी और मेरी

जैसे जड़ की और चेतन की

सबकी एक ही जड़ होती है

जब मैं कहता हूँ लौटो जड़ों की ओर

तो मैं इसी जड़ की बात करता हूँ

मैं पदार्थ की बात करता हूँ 


भू कानून 

 

किसने मांगा भू क़ानून 

 

टिहरी सोर या देहरादून 

किसे चाहिए भू कानून  

 

नौले पोखर ताल या सब्ज़ा

किसका पानी किसका कब्ज़ा 

 

डाने काने गाड़ गधेरे

किसके सेरे किसने घेरे 

 

कौन बाहरी कौन प्रवासी 

कौन यहाँ का मूल निवासी

 

किसके जंगल किसकी नदियां

कैद में बीती किसकी सदियां

 

चंद पंवार मल्ल कत्यूरी

कहो कहानी पूरी पूरी

 

कौन था पहला कब्ज़ाधारी

किसकी मारी हिस्सेदारी

 

किसकी लाठी कौन था गुंडा

खश आर्यन कोल या मुंडा

 

क्या आपने पीछे झांका

यहाँ पड़ा था भीषण डाका

 

लोग कटे थे लूट हुई थी

दान बंटा था छूट हुई थी

 

बुद्ध हुआ था कंकर कंकर

दक्षिण से आया था शंकर

 

धर्माधिकारी बना चौथानी

 घुसपैठी बन गया गुमानी 

 

चौथानी की सबने मानी

खसिया बामण राजा रानी

 

तभी बना था भू कानून

टिहरी सोर या देहरादून 

 

जल जंगल जमीन या सब्ज़ा

तब से अब तक किसका कब्ज़ा

 

छ्यौड छ्यौड़ियाँ ओड़ लुहार

लुटते  पिटते करें  गुहार

 

कब तक ऐसा जुलम चलेगा

कभी तो ये भी गुमां ढलेगा

 

खेत रास्ते नदियां सेरे

जंगल छोटे बड़े घनेरे

तेरे मेरे सबके डेरे

जिस जिस ने रखे हैं घेरे

 

पहले उनको करो बेदख़ल

ऊंच नीच को कर दो समतल

 

बिसरा देंगे पिछला किस्सा

सबको दे दो सबका हिस्सा

 

यही है असली भू  कानून

टिहरी सोर या देहरादून 

किसे चाहिए ये कानून

टिहरी सोर या देहरादून

 

हम चाहते ये क़ानून 

असली वाला भू क़ानून 

टिहरी सोर या देहरादून 

हमें चाहिए ये क़ानून

 

जिसका पहाड़

उसी का  नून

जो भेड़ चराये

उसी का ऊन

मुंडा कोलो का जो ख़ून

उसके लिये हो भू  क़ानून

उसके लिये जो भू क़ानून

सबके लिये वो भू क़ानून 

 

कब तक टालोगे क़ानून

फूट पड़ेगा कभी जूनून

दिल्ली तक जब बात उठेगी

कहाँ छुपेगा देहरादून

 

जल्द बनाओ वो कानून

असली वाला भू कानून

मुंडा कोलों का जो ख़ून

उसे चाहिए भू कानून

 

टिहरी सोर या देहरादून

असली वाला भू क़ानून....


होली और माँ

 

सफ़ेद साड़ी जिसका किनारा लाल है 

जिसमें जगह जगह सुर्ख फूल हैं 

रंग के धब्बे हैं 

मैं बचपन में

ऐसी ही दोपहरों में होली गाती इन साड़ियों के बीच

 अपनी माँ को ढूँढा करता था 

मैं बच्चा था सचमुच 

मुझे पता नहीं था कि उन औरतों में मेरी माँ हो ही नहीं सकती थी 

वहाँ माहौल बुरा नहीं था 

गुड़ और सौंफ मुझे भी दिया जाता था 

देने वाली कभी झिड़कती नहीं थी 

वो मुस्कुराती थी 

गुलाल वाले उसके चेहरे पर मुस्कुराहट देखते ही बनती थी 

हालांकि  उसके और मेरे हाथों के बीच बना रहे  कुछ  फ़ासला

वो ख़ास ध्यान रखती थी

ऊंचाई से देने पर कुछ सौंफ गिर जाती थी नीचे 

ऊंचाई से दी गई चीजें अक्सर गिर ही जाती हैं 

मुस्कराहट और फासला 

रंग और बदरंग 

गुड़ और सौंफ 

ये कॉम्बिनेशन मुझे आज भी समझ नहीं आये 

खैर मेरी माँ को वहाँ नहीं मिलना था 

वो मुझे वहाँ कभी नहीं मिली 

मेरी माँ ही नहीं वहाँ  मुझे मेरी अपनी कोई नहीं मिली 

ना चाची ना भाभी ना ताई ना बुआ ना बहनें 

मेरी ज़िन्दगी की सब औरतें उन फाग वाली दोपहरों में भी जंगल से घास और लकड़ियां ढो रही होती थीं 

मेरी ज़िन्दगी की औरतों के उत्सव अलग थे 

सफ़ेद साड़ी जिसका किनारा लाल है 

जिसमें जगह जगह सुर्ख फूल हैं 

रंग के धब्बे हैं 

मैंने पूरी ज़िन्दगी अपनी माँ को इस साड़ी में नहीं देखा 

उसके अपने कारण होंगे 

लेकिन मेरी माँ

मेरी एक और माँ को जला देने के उत्सव में 

कभी शामिल नहीं हुई.


काला बामण

एक 

शिल्पकार  जजमान खुश  है  बहुत  

आज  घर  पर  हो  रही  है सत्यनारायण  की  कथा  

काला  बामण कर  रहा  है कथापाठ और अनुवाद  

दोनों  कहानी  का  मर्म  समझने  की  करते  हैं  कोशिश

कहानी  में  अपनी  सही  जगह तय  करने  की  कोशिश

दोनो  होते  हैं  नाकाम  

एक  नजर  देखते  हैं  एक  दूसरे  की  ओर  

काला बामण बजा देता है सफेद  शंख जोर  से  ..

 

दो

कथा  के बाद  मैने  पूछा  काले  बामण से  

ये सत्यनारायण  तो  ब्लैक मेलिंग  है बड़ा 

हाथ  ना  जोडो  तो  डूबी  समझोनाव  

काला  बामण हंसा  जोर  से बोला 

''पूरा  धन्धा  ही  टिका  है  दरअसल ब्लैकमेलिंग  पर  ''

उसने  इतनी  सहजता से  ये कहा  कि  यकीन हुआ मुझे 

काले  बामण का  फिलहाल  तो नही  है वर्चस्व  कोई 

जिसके  टूट जाने  का  उसको डर  सताता  हो .

 

तीन                 

रामनामी ओढ़े रहता है 

करता है शिखा धारण 

साफ़ सुथरा रोज़ नहाता 

मुख पर भी है तेज 

काला बामण दशहरा द्वार पत्र चिपकाता है

ओड़ के घर पर 

ओड़ हाथ तो जोड़ता है पर उसमें लोच नहीं है 

काला बामण सबकी कुशल क्षेम पूछता हुआ

गुजरता है क़स्बे से

कोई उसे गुरुज्यू या पंड़ज्यू नहीं कहता 

लोग उसे हरदा या किड़दा ही कहते हैं 

'गोरे बामण 'को देखते ही वो बदल लेता है रास्ता 

मेहतर के सामने...

वो कुछ गोरा सा हो जाता है


चार

काले  बामण और  चैत  की  ऋतु  गाने  वाली  हुड़क्या 

औरत में  क्या  कोई  अंतर  होता  है  ?

हाँ  अंतर  तो  है  

स्त्री और पुरुष  का  पहला  शाश्वत  अंतर  

और  भी  बातें  हैं  कई  अलग  करने  वाली  

हुड़क्या  औरत  सभी  घरों  में  जाती  है  

काला  बामण जाता  है 

बस  शिल्पकार  के  घर  पर 

हुड़क्या औरत   जमीन  पर  बैठती  है  

दहलीज के  बाहर  

काला बामण घर के भीतर आता  है 

आसन सजाता है  

काले  बामण को  मिलता है 

सम्मान सत्कार और  दक्षिणा  

हुड़क्या औरत  पाती  है 

मडुवा ,भांग  के  बीज  और   बीडी का बंडल  

इतना  अंतर  होते  हुए  भी

इन  दोनो  में  एक  रिश्ता  है  

दोनों  माँ  बेटे  हैं  

एक  ही  घर  में  रहते  हैं .