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Friday, February 23, 2024

संगीनों की नोंक से शहंशाह की अभ्यर्थना में लिखी पंक्तियां नहीं होती हैं राष्ट्रगान

 शहर कलकत्ता: सलाम कलकत्ता


गीता दूबे 









कोलकाता मेरे लिए अपना शहर रहा है। आँखें भले ही  इस शहर में नहीं खुलीं लेकिन सही मायने में आँखें खुलने का मतलब यहीं जाना। जन्म हुआ उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के एक गाँव में। माँ बताती हैं कि मैं जब छ दिनों की थी तब माँ मुझे लेकर कलकत्ता आ गई थीं। हमारी जड़ें उत्तर प्रदेश में थीं, जहाँ जाने की हुड़क मन में बनी रहती थी जो गर्मी की छुट्टियों में पूरी होती थी। वहाँ फैला हुआ बड़ा सा घर था, छत थी, खेत थे, सखियाँ थीं और ढेरों रिश्तेदार थे।

मेरे बचपन का कोलकाता यानी कालीघाट और उसके आस -पास का परिवेश। मेरे परदादा गाँव से कोलकाता आ गये थे, रोजी -रोटी की तलाश में। उस जमाने में जिनके पास ज्यादा खेत नहीं हुआ करते थे, रोजी रोजगार का कोई खास इंतजाम नहीं हुआ करता था, वे रोजगार की तलाश में कलकत्ते की गलियों में समा जाते थे। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार से आए ढेरों लोग यहाँ अपनी छोटी सी दुनिया बसा लेते थे। उत्तर भारत में तो यह पंक्ति बड़ी प्रचलित थी- 

"लागा झुलनिया का झटका बलम कलकत्ता पहुँच गये।"

ये 'बलम' अपना घर- दुआर छोड़कर, कभी नयी -नवेली पत्नी तो कभी बच्चो को छोड़कर यहाँ किसी तरह गुजर- बसर करते थे ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसा अपने परिवार वालों को भेज सकें। इनकी जरूरत इस शहर को भी खूब थी। जूट मिलें हों या दुकानें, चौकादारी का काम हो या मजदूरी का, ये बड़ी आसानी से यहाँ खप जाते थे। यह बात और है कि यहाँ के मूल निवासियों या फिर संभ्रांत बंगालियों को इनकी संगत कुछ खास रास नहीं आती थी। ये उन्हें कहीं न कहीं घुसपैठियों की तरह जरूर महसूस होते थे जिन्होंने यहाँ के परिवेश को दूषित कर दिया है लेकिन धीरे- धीरे पूरे प्रांत में उन्होंने अपनी उपस्थिति को आवश्यक बना दिया। इसके बावजूद इन्हें कुछ ऐसे विशेषणों से संबोधित किया जाता रहा है, जो अपमानजनक लगते थे। बचपन में ऐसे शब्दों से मेरा सामना भी खूब हुआ है जैसे "मेड़ो"।  बाद में सोचने पर समझ में आया कि यह शब्द मारवाड़ से आए मारवाड़ी समाज के लोगों के लिए या फिर मड़ुआ की रोटी खाने वाले बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए व्यवहृत होता होगा। आज के समय में यह तिरस्कार या क्षोभ का भाव भले ही सतह पर दिखाई नहीं देता लेकिन शायद दिल की गहराई में कहीं न कहीं अब भी मौजूद जरूर है।

बचपन में मेरे लिए कलकत्ता का मतलब था घर, दुकान और स्कूल। घर था कालीघाट के महिम हलदार स्ट्रीट में। आस- पास बांगाल लोग काफी संख्या में रहते थे इसलिए बांग्ला भाषा का संग -साथ बचपन से रहा। दुकान का मतलब कालीघाट मंदिर के पास अवस्थित दादाजी और बाद में पिताजी की पेड़े की दुकान से है। हमारी कलकत्ते में यह चौथी पीढ़ी थी। पहला स्कूल भवानीपुर इलाके में था। बाद में कलकत्ता के प्रतिष्ठित स्कूल श्री शिक्षायतन में पढ़ने लगी। यह तो बहुत बाद में जाना कि सीताराम सेकसरिया जी ने राजस्थानी लड़कियों की पढ़ाई -लिखाई के लिए यह स्कूल खोला था जिसमें मुझ जैसी उत्तर प्रदेश या बिहार की लड़कियाँ भी मजे से शिक्षा प्राप्त करती थीं। स्कूल में आकर पता लगा कि कलकत्ते में कितने राज्यों और प्रांतों के लोग रहते हैं जो स्कूल में भले ही खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग करते हैं लेकिन इनकी अपनी एक माँ बोली भी है जिसका हल्का- फुल्का असर इनकी हिंदी पर दिखाई देता है। खान पान की आदतों में भी थोड़ी बहुत भिन्नता तो है ही। राजस्थानियों के अचार और सब्जी का स्वाद हमारे उत्तर प्रदेशीय स्वाद से हल्का सा ही सही भिन्न जरूर हुआ करता था। हमारी सभी शिक्षिकाएं हिंदीभाषी नहीं थीं लेकिन उनकी हिंदी कतिपय अपवादों को छोड़कर इतनी साफ हुआ करती थी कि कोई बता भी नहीं सकता था कि वे हिंदीभाषी नहीं हें। यह गजब का सांस्कृतिक सम्मिलन था। 

अपने स्कूली जीवन से ही मैंने कविता लिखना आरंभ कर दिया था। कॉलेज में पढ़ते हुए महाविद्यालय की पत्रिका और दीवार पत्रिका में कविताएँ लेख आदि छपे और एक आध जगह कविता सुनाने का अवसर भी मिला। हमारी एक प्राध्यापिका थीं, डॉ. माया गरानी जो भारतीय भाषा परिषद के तत्वावधान में विभिन्न विषयों पर साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन किया करती थीं। ऐसे ही एक आयोजन में पहली बार मैंने अपनी कविता पढ़ी। उस काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे, सुप्रसिद्ध गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र। उनका गीत "एक बार और जाल फेंक रे मछेरे", उन्हीं के मुख से सुना था। माया मैडम जो बाद में माया दी बन गईं क्योंकि इनके साथ थोड़े ही समय के लिए सही श्री शिक्षायतन कॉलेज में पढ़ाने का अवसर मुझे मिला, एक जिंदादिल महिला थीं। जिंदगी की परेशानियां कभी उनके माथे पर शिकन बनकर नहीं उभरीं। विभिन्न महाविद्यालय के विद्यार्थियों को युवा गोष्ठियों के माध्यम से उन्होंने मंच प्रदान किया। उनकी प्रतिभा को मांज -घिसकर साहित्य की दुनिया में पाँव धरने के लायक बनाया। बाद में पता चला कि माया दी कहानियां भी लिखती थीं और सिंधी से हिंदी में काफी अनुवाद भी किया था। उनका एक कहानी संग्रह "ठहराव" नाम से 2004 में प्रकाशित हुआ था। माया दी का एक निजी योगदान मेरे जीवन में है जिसे स्वीकार किए बिना आगे बढ़ने का मन नहीं कर रहा। 1994 के दिसंबर महीने में मेरी स्नातकोत्तर की परीक्षाएं समाप्त हुई ही थीं कि माया दी कि संदेश मिला कि बालीगंज शिक्षा सदन स्कूल में एक लीव वेकैंसी है। उन्हें फोन किया तो उन्होंने कहा- पढ़ाएगी ?..अंधा क्या चाहे दो आँखें.. मेरे अध्यापकीय जीवन की वह पहली सीढ़ी थी। आज माया दी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका स्नेहिल व्यक्तित्व हृदय में बसा हुआ है। शिक्षायतन की याद आते ही बरबस याद आती हैं, कवि कथाकार डॉ. सुकीर्ति गुप्ता जो मेरी प्रिय अध्यापिकाओं में से एक थीं। जयशंकर प्रसाद की कविताएं इतना डूबकर पढ़ाती थीं कि प्रसाद जाने कब मेरे प्रिय कवि बन गये। "आषाढ़ का एक दिन" पढ़ाते हुए वह कक्षा में ही नाट्य मंचन का मनोरम वातावरण सृजित कर देती थीं। उन्होंने 1998 में "साहित्यिकी" नामक अनूठी संस्था की स्थापना की और शहर की हिंदी अध्यापिकाओं के साथ पढ़ी- लिखी गृहणियों को मंच प्रदान किया। उन्हें सोचने समझने के साथ लिखने पढ़ने के लिए भी प्रेरित किया। उनकी प्रेरणा से लंबे समय तक साहित्यिकी नामक हस्तलिखित पत्रिका का प्रकाशन होता रहा। स्मृतिशेष सुकीर्ति गुप्ता के खाते में एक उपन्यास (चक्रव्यूह) , दो कहानी संग्रह ( दायरे, अकेलियां) और एक कविता संग्रह ( शब्दों से घुलते-मिलते ‌हुए) दर्ज हैं। उनका आत्मकथात्मक उपन्यास कोलाज उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ जिसका संपादन डॉ. किरण सिपानी ने किया। किरण दी से मेरी पहचान 'साहित्यिकी' में हुई। अदम्य ऊर्जा से भरी किरण दी ने अपना पूरा जीवन अध्यापन और साहित्य को समर्पित कर दिया है। पिछले वर्ष ही उनका यात्रा संस्मरण 'मेरी जापान यात्रा' छपकर आई है। अत्यंत रोचक पुस्तक है, रवानी और कथारस से भरपूर। किरण दी ने अपना अभिन्न सखी डॉ. विजयलक्ष्मी मिश्रा के साथ मिलकर वर्षों तक हनुमान मंदिर अनुसंधान संस्थानमें पूरे समर्पण के साथ काम किया।

विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान कोलकाता के साहित्यक और सांस्कृतिक जगत से परिचय लगातार बढ़ता गया। प्रख्यात नाटककार उषा गांगुली अतिथि प्रवक्ता के रूप में सप्ताह में एक दिन हमारी क्लास लेने आती थीं। संयोग से एक दिन जब वे बिना किसी पूर्व सूचना के प्रथम वर्ष की कक्षा लेने आई तो कक्षा में कुल पाँच विद्यार्थी मौजूद थे। उन्होंने संख्या पर ध्यान न देते हुए पूरे मन से वह क्लास ली और नाटकों के बारे में न केवल बताया बल्कि अपना नाटक देखने के लिए प्रेरित भी किया। मैंने सखी और सहपाठी अल्पना नायक जीवन का पहला नाटक "कोर्ट मार्शल" देखा और जाना कि हमारी गँवई नौटंकियों और रामलीलाओं से इतर भी ऐसे नाटक होते हैं जो प्रेक्षागृह में मंचित होते हैं और दर्शक टिकट खरीदकर इसे देखने जाते हैं। स्त्रियों के लिए यह वर्जित क्षेत्र नहीं है बल्कि वे न केवल इनमें अभिनय करती हैं बल्कि निर्देशन का दायित्व भी निभाती हैं। बाद में ऊषा जी के कई नाटक देखे। वह अभिनेत्री, निर्देशिका, सूत्रधार आदि सभी भूमिकाओं का निर्वाह कुशलतापूर्वक करती थीं। 'कोर्ट मार्शल', रूदाली, हिम्मत माई, चंडालिका,'काशीनामा' आदि नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन उषा जी ने किया है।‌ इनके दल के कई कलाकारों ने फिल्मों में भी शोहरत कमाई है जिसमें राजेश शर्मा का नाम उल्लेखनीय हैं। 

पढ़ाई के दौरान विभिन्न प्रतियोगिताओं में जाकर प्रतिभागिता का सुख तो पाया ही, परिचय के दायरे को भी विस्तार मिला। उस समय मौलाली युवा केंद्र में सरकार द्वारा विभिन्न प्रतियोगिताओं कार्यक्रमों आदि का आयोजन हुआ करता था जिसमें विभिन्न साहित्यक हस्तियों से मिलने का अवसर मिला। साहित्य पढ़ते पढ़ते साहित्य लिखने और गोष्ठियों से जुड़ने का सिलसिला जो एक बार शुरु हुआ, वह दोबारा थमा नहीं। 

यह बताते हुए सुख का अनुभव हो रहा है कि आज की मशहूर नाट्य शख्सियत उमा झुनझुनवाला मेरी सीनियर थीं। उनके अभिनय जीवन के शुरुआती चरण को प्रत्यक्ष देखने का अवसर मिला। आज कोलकाता के नाट्य जगत में अगर किसी की निरंतरता बनी हुई है तो इसका श्रेय निस्संदेह दिवंगत अजहर आलम और उनकी जीवन संगिनी तथा नाट्य संगिनी उमा झुनझुनवाला को जाता है। यह कह सकती हूँ कि जो कलकत्ता एक समय में श्यामानंद जालान के पदातिक, ऊष प्रतिभा अग्रवाल के नाट्य शोध संस्थान और उषा गांगुली के रंगकर्मी के कारण जाना जाता था, उसकी विरासत को आज बड़े सलीके से 'लिटिल थेस्पियन' ने सँभाल रखा है। पहले "जश्ने रंग" और अब "जश्ने अज़हर" के आयोजन ने राष्ट्रीय स्तर कर कोलकाता की नाट्य क्षमता को रेखांकित किया है।

एम. ए. में पढ़ते समय ही मनमोहन ठाकौर का उपन्यास 'गगन घटा घहरानी' पढ़ा, उसकी समीक्षा लिखी जो 'पश्चिम बंग पत्रिका' में प्रकाशित हुई। कलकत्ते में साहित्य के कई गढ़ थे और अब भी हैं। एक ओर तो सेठाश्रित संस्थानों ने साहित्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन उनका रूप समन्यवादी रहा। व्यवस्था विरोध से वे करीब -करीब दूर रहें। दूसरी ओर आरंभ, प्रतिध्वनि, प्रगतिशील लेखक संघ, आरंभ, पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज जैसी संस्थाओं ने साहित्य का मोरचा बखूबी सँभाला। इनसे जुड़े साहित्यकारों की रचनाओं में यथार्थ की अनुगूँज भी थी, व्यवस्था विरोध का माद्दा भी और थी प्रबल वैचारिक प्रतिबद्धता। वामपंथ की वैचारिकी से जुड़े साहित्यकारों की रचनाओं में आम आदमी के दुख और छोटे- छोटे सुखों के जिक्र के साथ इंकलाबी तेवर भी दिखाई देता था। 



इन साहित्यकारों के बहुत से अड्डे या ठेक रहे। हर जगह तो अपनी पहुँच नहीं रही लेकिन भारतीय भाषा परिषद के अलावा लेखक- पत्रकार के रूप में प्रसिद्ध और अपनी पुस्तक "धर्म के नाम पर" के लिए चर्चित दिवंगत गीतेश शर्मा के मशहूर अड्डे जनसंसार में जरूर आना -जाना होता था। वहाँ होने वाली विचारोत्तेजक बहसों, विभिन्न संगोष्ठियों  आदि ने बंगभूमि पर पनपने और पल्लवित होनेवाले हिंदी साहित्य से परिचित जरूर कराया। इन गोष्ठियों में छविनाथ मिश्र, अनय जी, छेदीलाल गुप्त, नगेंद्र चौरसिया आदि को बोलते, अपनी रचनाओं का पाठ करते सुना। ऐसी ही एक गोष्ठी में कवि ध्रुवदेव मिश्र 'पाषाण' ने अपनी चर्चित रचना 'चौराहे पर कृष्ण' का प्रभावशाली पाठ किया था। पाषाण जी की एक कविता मुझे बेहद प्रिय है-

"जिनसे छीन लिया जाता है उनका देश 

और जिनके खिलाफ बसा दिया जाता है

एक दूसरा देश

उनकी पीठ पर

संगीनों की नोंक से

शहंशाह की अभ्यर्थना में लिखी पंक्तियां

नहीं होती हैं राष्ट्रगान।"

कालांतर में पश्चिम बंग हिंदीभाषी समाज ने "पाषाण" जी पर केंद्रित एक गोष्ठी का आयोजन जनसंसार में ही किया था जिसमें डॉ. रूपा गुप्ता ने बहुत अच्छा पर्चा पढ़ा था। रूपा दी को पहली बार मैंने जनसंसार में ही मुक्तिबोध पर बोलते सुना था और उनसे बहुत प्रभावित हुई थी। आज तो उन्होंने दर्जनों किताबें लिखकर एकेडमिक जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है।

कुछ महत्वपूर्ण आयोजन जनवादी लेखक संघ द्वारा भी हुए। राहुल सांकृत्यायन की 125 वीं जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित गोष्ठी की याद अब भी ताजा है। प्रेमचंद जयंती के अवसर पर भी महत्वपूर्ण आयोजन होते थे। एक बार राजेन्द्र यादव भी जनवादी लेखक संघ के किसी आयोजन में आये थे। इसराइल जैसे कथाकार की कहानियों से इन्हीं आयोजनों में परिचय हुआ। इनकी वैचारिक और साहित्यिक प्रतिबद्धता का अक्स इनकी कहानियों में दिखाई देता है। आयोजन अब भी होते हैं लेकिन उनकी सूचना कम ही लोगों तक पहुंच पाती है। 

इन सभा -गोष्ठियों से अलग एक और किस्म की गोष्ठियों में शामिल होने का अवसर मिला जिनकी रवायत अब रही नहीं। वे थी सीढ़ी गोष्ठियाँ। नंदन या अलीपुर पुस्तकालय की सीढ़ियों पर आयोजित इन गोष्ठियों में जमीनी साहित्यकारों को खुल कर आपनी रचनाओं का पाठ करते, उस पर बहस करते सुना था। अशोक सिंह साहित्यकार भले नहीं हैं लेकिन साहित्यकारों को एक मंच पर लाने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। उनकी संगठन शक्ति का कमाल था कि 'प्रक्रिया' नामक एक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ जिसमें श्री हर्ष, छेदीलाल गुप्त, दुर्गा डागा, चंद्रकला पांडेय, संगीता गुप्ता आदि की रचनाओं को जगह मिली। अफसोस कि एक ही अंक के बाद यह पत्रिका बंद हो गई। 

1995 में डॉ शंभुनाथ ने हिंदी मेला की शुरुआत कर विद्यार्थियों को एक मंच प्रदान किया। मेला अब भी पूरे उल्लास और ऊर्जा के साथ कायम है। 

वर्तमान समय में बंगीय हिंदी परिषद, कुमार सभा, जालान पुस्तकालय, साहित्यिकी, अपनी भाषा, नीलांबर, मुक्तांचल आदि संस्थानों ने बंगभूमि में साहित्यिक -सांस्कृतिक आयोजनों का जिम्मा बखूबी संभाल रखा है।

कोलकाता के साहित्यक जगत की कहानी के न जाने कितने अध्याय और किरदार हैं। कुछ बरबस याद आए  और कुछ छूट गये हैं। मौका मिला तो उनपर भी बात करूंगी। बस एक प्रसंग के साथ बात खत्म करना चाहूँगी। 1985 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने कोलकाता को डाइंग सिटी (dying city) कहा था तो कोलकाता के साहित्यकारों का आक्रोश फूट पड़ा था। जनवादी कवि श्री हर्ष ने अपनी कविता के माध्यम इस आक्रोश को अभिव्यक्ति दी थी-

"कौन कहता है 

यह मरता हुआ शहर है 

यह तो जीवन गीत गाता हुआ शहर है

सलाम कलकत्ता..

लाल सलाम कलकत्ता.."

यह कविता बेहद लोकप्रिय हुई और विभिन्न अवसरों पर इसकी आवृत्ति करके विद्यार्थियों, साहित्य प्रेमियों ने इसे जन - जन तक पहुंचा दिया। कलकत्ता के साहित्यकारों की कलम की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है।

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Sunday, November 5, 2023

एक अलग आस्वाद और परिवेश की कहानियाँ अर्थात सौरी की कहानियां

कथाकार नवीन कुमार नैथानी का कहानी संग्रह सौरी की कहानियां वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ था. उसके बाद की कहानियां अभी तक किताब की शक्ल में नहीं आईं, हालांकि ‘हतवाक, होराइजन, धन्यवाद ज्ञापन, लैंड्सलाइड आदि कई महत्वपूर्ण कहानियां प्रकाशित हुईं और लगातार चर्चा में रहीं. लेकिन दिलचस्प है कि उनके उस पहले संग्रह की कहानियों का आस्वाद अभी भी उतना ही ताजा लगता है. इसकी मूल वजह क्या हो सकती है ? इस सवाल पर खुद से उलझने की जहमत उठाये बगैर भी हम उन कहानियों पर लगातार लिखी जा रही आलोचनाओं के जरिये भी पहुंच सकते हैं. समीक्षा के क्षेत्र में अपनी टिप्पणियों की विश्वसनीयता से स्थापित अलोचक गीता दूबे ने हाल ही मैं सौरी की कहानियों का उत्खनन किया है. पढते हैं उनका आलेख और जानते हैं सौरी की कहानियां के एक अन्य पाठ को.
विगौ


 गीता दूबे                                                         

बहुधा विभिन्न भाषाओं में एक ही चीज के लिए अलग- अलग शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ठीक उसी तरह एक ही शब्द विभिन्न भाषा परिवेश में अलग -अलग अर्थ में व्यवहृत होता है। उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में सौरी शब्द का अर्थ सौर गृह या प्रसूति गृह होता है लेकिन एक अलग कालखंड या स्थान पर उस शब्द विशेष के मायने बदल जाते हैं। वरिष्ठ कथाकार नवीन कुमार नैथानी जब 'सौरी की कहानियाँ' लिखते हैं तो वे प्रसूति गृह से संदर्भित कथा नहीं कहते बल्कि उनकी कहानियों में प्रयुक्त 'सौरी' एक ऐसा स्वप्नलोक या फैंटेसी जगत है जहाँ मनुष्य की आकांक्षाओं को एक नया आकाश मिलता है। ये कहानियाँ आमतौर पर कहीं कही, लिखी या सुनी जानेवाली साधारण कहानियों से भिन्न हैं या फिर ऐसा भी कहा जा सकता है कि  साधारणता सी नजर आनेवाली ये कहानियाँ पाठकों को असाधारण लोक में ले जाती हैं। एक ऐसी दुनिया जो जानी -पहचानी होती हुई भी अपने अंदर जिन गोपन बिंदुओं या रहस्यों को छिपाए हुई थी, वे एक -एक कर हमारी दृष्टि के समक्ष उजागर होने लगते हैं और हम कुछ नया जानने के आश्चर्यमिश्रित आनंद से भर उठते हैं। एक ऐसा आनंद जिसमें दुखों की किरकिराहट भी है और आँसुओं का गीलापन भी, चाहनाओं की उड़ान भी है और अतृप्ति की कसक भी। उस दुनिया के लोगों में अपनी मंजिल को हासिल करने के लिए तिकड़मे या जोड़तोड करने का नहीं बल्कि बहुत कुछ कर गुजरने का साहस है। कथाकार द्वारा सृजित यह प्रदेश अर्थात सौरी वास्तविक है या काल्पनिक, इसका पता कहानी पाठ की यात्रा में तो नहीं लगता लेकिन पाठकों के मन में यह आकांक्षा अवश्य जन्म लेने लगती है कि काश ! वह भी इस अद्भुत प्रदेश का निवासी होता और वहाँ के परिवेश में व्याप्त अलौकिक आनंद के साथ ही अतृप्ति के कसक को भी महसूस कर पाता। कथाकार यह कहानी संग्रह सौरी के उन तमाम लोगों को समर्पित करता है जो संसार में हर जगह बिखरे हुए हैं। यह बात और है कि उनकी वह अद्भुत सौरी काल के प्रवाह में कहीं खो सी गई है। जिससे एक अर्थ यह भी ध्वनित होता है कि कभी ना कभी ऐसी जगह जरूर थी जहाँ लोग सुख नहीं आनंद के प्रवाह में सहजता से बहते थे लेकिन जिस तरह तमाम अच्छी जगहें नष्ट हो जाती हैं, उसी तरह यह सौरी भी बर्बाद हो जाती है और गुरु नानक के जीवन की उस प्रसिद्ध कथा की तरह वहाँ के अद्भुत मानवीय लोग जिनके अंतस में प्रेम की निर्झरिणी प्रवाहित होती रहती है, इधर -उधर बिखर गये ताकि अपने प्रेम और सद्भावना का प्रकाश सब तक समान रूप से पहुँचा सके, दुनिया को और भी बेहतर और सुंदर बना सकें।

सौरी की यह विशेषता है कि यहाँ रहने वाले लोग अद्भुत हैं और बाहरी दुनिया से जो कोई व्यक्ति यहाँ प्रवेश करता है, उसकी समस्त पूर्व स्मृतियाँ लोप हो जाती हैं। संग्रह की पहली कहानी 'पारस' सौरी की उस खासियत या कमी को उद्घाटित करती है कि वहाँ किसी कन्या संतान का जन्म नहीं होता, मात्र लड़के ही पैदा होते हैं। आज अखबारों में इस बात पर लगातार चिंता प्रकट की जाती है कि लिंगानुपात गड़बड़ हो गया है, लड़कियों को मारते- मारते देश के बहुत से प्रदेश इस स्थिति में पहुँच गए हैं कि वहाँ लड़कों के मुकाबले लड़कियाँ बहुत कम संख्या में बची हैं और अब स्थिति यह है कि उन शहरों में लड़कों की शादी के लिए लड़कियाँ बाहर से खरीदकर लाई जाती हैं। सौरी के लोगों की भी बड़ी चिंता थी कि पिछले कई वर्षों से यहाँ कोई बारात नहीं आई है क्योंकि किसी लड़की का जन्म नहीं हुआ है और आस- पास के गाँव के लोगों ने यह तय किया है कि जब तक सौरी में कोई लड़की पैदा नहीं होती कोई अपनी लड़की का ब्याह उस गाँव के लड़कों से नहीं करेगा। यह बड़े- बुजुर्ग लोगों के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय था। शायद इसीलिए खोजाराम पारस पत्थर की तलाश में जंगल की ओर चल पड़ता है क्योंकि एक तो उसे एक ही कान से सुनाई देता है और वह एक पाँव से लंगड़ाता भी है। ऐसे में पारस पत्थर मिलने पर ही वह अपने ब्याह के अरमान को पूरा कर पाएगा। हालांकि इस किस्से के कई संस्करण और प्रारूप मिलते हैं हर आदमी के पास इस किस्से की अपनी व्याख्या है। किसी दैवीय कथा या जादुई कहानी की तर्ज पर खोजाराम अपने पैरों में घोड़े की तरह लोहे की नाल बँधवाकर सोने की तलाश में निकल पड़ता है और वक्त के प्रवाह में खो जाता है, उसकी स्मृतियाँ भी लोगों के जेहन से मिटने लगती हैं लेकिन उसकी संगिनी सुनैना एक कन्या को जन्म देकर मानो सौरी के लोगों को शापमुक्त करती है। लोकप्रिय व्रत कथाएँ जिस तरह फल प्राप्ति के साथ समाप्त होती हैं, ठीक उसी तरह यह सुनैना द्वारा बेटी के जन्म के साथ समाप्त होती है लेकिन यह कथा इस मायने में भिन्न है कि इसमें पुत्र की कामना के बजाय कन्या की कामना की भी जाती है और वह पूरी भी होती है। ऊपरी तौर पर किसी सामाजिक समस्या के तार कहानी से जुड़ते से नहीं लगते लेकिन पुत्र संतान की चाह में कन्याओं को कोख में मारनेवाले लोगों की इस देश में कमी नहीं है और  उनके ऊपर अब भी यह शाप ज्यों का त्यों बना हुआ है। सुनैना की कन्या संतान का स्वागत सौरी में भले हुआ है लेकिन आम सौरगृहों में जन्म का सुयोग पाकर भी ये कन्याएँ घर परिवार की उपेक्षा झेलती हुई ही बड़ी होती हैं। सौरी की कथा से हमें सीखने की जरूरत है। खोजाराम सोने की तलाश में कहानियों की दुनिया में अब तक भटक रहे हैं या फिर यह भी कहा जा सकता है कि कन्या के जन्म के बाद उनकी खोज समाप्त हो जाती है। कुछ लोग इसी तरह सिर्फ किस्से -कहानियों में ही जीवित रहते हैं और एक उदाहरण के तौर पर लोगों के बीच उन्हें याद किया जाता है।

सौरी के लोगों की खासियत है कि सारी दुनिया में विचरने के बावजूद वे फिर- फिर सौरी में ही लौटते हैं। जो नहीं लौटता वह कहीं खो जाता है। बच जाती हैं तो बस उसकी यादें और कहानियाँ। यहाँ की कहानियाँ भी किसी फंतासी कथाओं से कम नहीं हैं। यहाँ कई ऐसी जगहें हैं जिन्हें देखने के लिए, उनकी तलाश में लोग भटकते रहते हैं। एक ऐसी ही जगह है, 'चोर घटड़ा' जहाँ पहुँचना आसान नहीं है लेकिन पहुँचकर लोग अक्सर अपनी तरकीबों से कमाई हुई पूँजी तमाम सावधानी के बावजूद गँवा बैठते हैं और सौरी के बाहर की स्मृतियों से मुक्त होकर पुनः निश्छल हो जाते हैं अर्थात सौरी में बसने वाले लोगों के लिए भोलापन जरूरी है। कपटी लोगों के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है और फिर तो वह जगह स्वर्ग सरीखी ही होगी क्योंकि वहाँ कोई ईर्ष्या द्वेष या कपट आचरण नहीं होगा। चोर घटड़े तक भी उसी भोलेपन और विश्वास के साथ ही जाया जा सकता है। सैलानियों की तरह वहाँ पहुँचने वाले यात्री अपना सब कुछ गँवा बैठते हैं। पाली जैसे बुजुर्गों के पास उन लुटे हुए, गुमे हुए लोगों की, कलाधर वैद्य जैसे लोगों की कहानियाँ ही बची हैं। चोर घटड़े की तलाश में निकले पिता -पुत्र में से पुत्र तो उस जगह को ढूँढ लेता है लेकिन पिता अपनी दुनियादारी के बावजूद वहाँ तक नहीं पहुंच पाता। सौरी को केंद्र में रखकर कही -सुनी जानेवाली कहानियों में चोर घटड़ा बचा रहता है, भले ही वहाँ के लोग गुम हो जाएँ। ये किस्से ही लोक इतिहास रचते हैं जिमें बहुत सी अद्भुत अविस्मरणीय जगहें और उनकी कथा बची रह जाती है।

ऐसी ही एक कथा 'चाँद पत्थर' की भी है सौरी के दायरे में इसकी ढेरों कहानियाँ फैली हुई हैं और उन कहानियों के लोगों के पास अपने-अपने संस्करण हैं। हर कोई उसे अपने अंदाज में सुनाता है सौरी में आने वाले लोगों को सौरी के लोग यह सलाह देते हैं कि फुर्सत के वक्त जरा चा पत्थर तक घूम आइए, यानी चाँ पत्थर एक ऐसी जगह है जिस पर सौरी के लोगों को अभिमान है। अब  क्या यह चाँद पत्थर चोर घटड़े की तरह कोई वास्तविक स्थान है या बस पोल कल्पना या स्मृतियों का गह्वर ? इस चाँ पत्थर की कथा के साथ जुड़ी है वैद्य लीलाधर की कथा चोर घटड़ा वाली कहानी में वैद्य कलाधर थे जो भटकते हुए कहानियों की दुनिया में गुम हो जाते हैं और इस कथा में वैद्य लीलाधर हैं जो अपने समय के बेजोड़ वैद्य माने जाते थे और अपनी दवाइयाँ सौरी के आसपास फैले जंगलों से ढूँढ कर लाते  थे उनकी ख्याति सौरी के बाहर दूर-दूर तक फैली थी लेकिन वह मरीज को देखने भी सौरी के पास नहीं जाते थे शायद उन्हें भी अंदेशा रहा होगा कि अगर वह बाहर जाएँगे तो भटक जाएगे या दोबारा लौटकर नहीं पाएगे लेकिन कमल गोटा की कमला रानी की बीमारी ने उन्हें सौरी की सीमाओं को पार करने को विवश किया, यह बात और है कि वे कमल गोटा तक पहुँचे ही नहीं और कमला रानी उनकी प्रतीक्षा करते-करते हा कर खुद ही सौरी की ओर चल पड़ी लेकिन कमला रानी लोगों को नहीं मिली। शायद आपस में वे एक दूसरे से मिले। रात्रि के अंधकार में आभूषणों से लदी हुई कमला ही शायद सुस्ताने के लिए पत्थर पर बैठी हुई वैद्य जी को मिली या फिर उन्हें एक स्त्री की आवाज़ सुनाई दी और पत्थर पर आभूषणों की आभा दिखाई दी। दोनों एक दूसरे से मिल पाए या नहीं, यह कहानी तो बस हवा में तैरती रह गई लेकिन इस पत्थर पर बैठी हुई कमला या वायवीय स्त्री के आह्वान पर जब वह उस तक पहुँचने के लिए आगे बढ़े तो पत्थर पर चढ़ते ही फिसल कर नदी किनारे गिर पड़े। लोग ताप में पड़े, बर्राते हुए वैद्य जी को उठाकर गाँव ले गए लेकिन जरा सा ठीक होते ही वे जड़ी की तलाश में जंगल गए और फिर किसी को नहीं मिले। कमला और वैद्य जी दोनों ही गायब होकर मानो किसी जादुई लोक में पहुँच जाते हैं या लोककथाओं की तरह कमला अप्सरा की तरह स्वर्ग लोक में चली जाती है और वैद्य जी पत्थर में बदल जाते हैं। शायद इसलिए सौरी में जहाँ घरों की संख्या तीस से घटकर छ: पर गई थी, के बच्चे अंजुली में पानी भर -भर कर पत्थर पर डालते और कहते थे, वैद्य जी ठंडे हो जाओ अर्थात वह ताप मुक्त या शाप मुक्त हो जाएँ। ठीक उसी तरह जैसे राम कथा में अहिल्या पत्थर में बदल जाती है और फिर शापमुक्त होती है। ऐसा नहीं कि इस तरह की कहानियाँ हमारी स्मृतियों में नहीं है लेकिन हम उन कहानियों पर यकीन करना चाह कर भी कई बार नहीं कर पाते। यह बात और है कि ऐसे बहुत से लोग इस दुनिया में मिलेंगे जो इन पर यकीन करते हैं सौरी के लोगों के पास तो यकीन करने की कोई वजह ही नहीं थी। सौरी के लोग इसी तरह के विश्वास पर टिके हु लोग थे और उनका समय एक अद्भुत समय था। उनके वर्तमान भले ही अभावग्रस्त था लेकिन उनके पास अतीत की संपन्नता और समृद्धि की ढेरों कहानियाँ या स्मृतियाँ थीं जिनके साथ वह वर्तमान को खूबसूरत बना ही लेते थे। विस्मृति रोग से पीड़ित इस समय में यह स्मृति संपन्नता सचमुच आह्लादित करती है।

सौरी का हर किरदार अजूबा है जिसकी उपस्थिति सिर्फ वहीं हो सकती थी। यहीं मुँदरी बुढ़िया भी मिलती है जो उजाले से बचती फिरती है। रोशनी अर्थात कृत्रिम रोशनी से उसे परहेज हैं लेकिन चाँद की रोशनी से उसे कोई दुराव नहीं है। वह गोकुल मिस्त्री से अपने लिए एक अनोखा मकान बनवाती है जिसके कोने उसे आनेवाले लोगों से छिपने की जगह देते हैं। हालांकि वह मुसाफिरों का स्वागत करती है, उन्हें रात भर ठहरने की जगह भी देती है जो सौरी से कौड़सी तक जाते हुए उसके घर में पनाह लेते हैं लेकिन उसकी आवाज़ से ही लोगों का परिचय होता है या फिर उसके बारे में फैले किस्से -कहानियों से। सवाल यह है कि क्या असली जिंदगी में ऐसे किरदार होते हैं। इसका जवाब पाठकों को अपने अंदर या समाज के भीतर ढूँढने की आवश्यकता है। आज जब विमर्शों की धारा में एक और विमर्श अर्थात बुजुर्ग विमर्श भी जुड़ गया है और उनके जीवन की समस्याओं आदि पर बात होने लगी है, उस दौर में मुँदरी बुढ़िया किसी कल्पना लोक से उतरी हुई नहीं लगती। प्रेमचंद की बूढ़ी काकी को एक कोठरी में जगह मिलती है और भीष्म साहनी के शामनाथ अपनी बूढ़ी माँ को गैरजरूरी सामान की तरह एक कोठरी में छिपा देना चाहते हैं ताकि वह उनके विदेशी चीफ के सामने आकर उनकी भद न करवाए लेकिन नवीन नैथानी की वृद्ध किरदार अपनी बढ़ती उम्र को लेकर पारंपरिक चिंता में तो जरूर है और इसलिए लोगों से छिपती हैं क्योंकि "बहुत ज्यादा जीने के बाद अच्छा नहीं लगता। उनके सामने जाओ तो वे डर जाते हैं। लगता है मैं उनकी उम्र खा रही हूँ।"  (मुँदरी बुढ़िया के दरवाजे) ऐसे वृद्ध इस समाज में बहुतायत से मिलेंगे जिनकी मृत्यु की कामना उनके परिवार वाले ही करते हैं, इस तरह की बातें सुनने में आती हैं कि न जाने कितनी उम्र लेकर आई / आए हैं और इससे परेशान बुजुर्ग भी किलस कर कहते हैं कि भगवान बुलाता ही नहीं। ऐसे में मुँदरी का लोगों की नजर से छिपकर रहना कोई अजूबा नहीं है।

इस संग्रह की कहानियों में स्मृतियों की झीनी चादर पड़ी हुई है और एक ऐसे अद्भुत लोक का वर्णन है जहाँ जीवन और मृत्यु के बीच की विभाजक रेखा महीन होते -होते धुँधली पड़ जाती है। जीवन और मृत्यु भले ही जिंदगी के दो अलग -अलग किनारे हैं लेकिन क्षितिज की तरह वे भी कभी- कभार मिलते हुए से दिखाई देते हैं। दोनों लोकों के बीच एक अविश्वसनीय लेकिन आकर्षक लोक रचा गया है, 'अखंड सुहागवती' कहानी में। मृतक लोगों को इस तरह याद किया जाता है जैसे वे यह लोक नहीं बल्कि गाँव छोड़कर चले गए हैं और उनकी अनुपस्थिति के गह्वर को गाँव के लोग न केवल उनकी स्मृतियों से भरते हैं बल्कि जब जी चाहे उनसे मिल भी आते हैं। यह मिलना अस्वाभाविक नहीं बल्कि एकदम सहज- सरल लगता है जैसे हम अपने दोस्तों- रिश्तेदारों से मिलते हैं ठीक उसी तरह दिवंगत व्यक्तियों से भी मिलते हैं। इस मिलन में कोई जड़ता या भय नहीं बल्कि एक सुकून का भाव है, मानो उस पार के व्यक्तियों से हम इस पार की दुनिया को आनंददायक बनाने की युक्तियाँ या आश्वासन पाते हैं या उनके प्रति अपने नेह और सम्मान को अभिव्यक्ति देते हैं। यह मिलन स्थल कहाँ है, इसका कोइ ब्यौरा कहानीकार नहीं देता क्योंकि वह छोटे- छोटे ब्योरों या तथाकथित डिटेल्स में उलझने के बजाय अनुभूतियों का सघन और ऊष्मा से भरा हुआ लोक रचता है जो मानवीय प्रेम के भरोसे पर टिका हुआ है। मनुष्य का मन अपने लिए कुछ ऐसी जगहें या भावलोक ढूँढ ही लेता है जहाँ वह स्वप्न को यथार्थ और यथार्थ को स्वप्न में बदल दे। नवीन नैथानी की कहानियों में भी स्वप्न और यथार्थ, जीवन और मृत्यु, कल्पना और वास्तविकता के बीच की रेखाएँ गड्डमगड्ड हो जाती हैं और पाठकों के लिए एक अनोखा आस्वाद वह रस बचता है जो जीवन को तमाम वह प्रतिकूलताओं के बावजूद खूबसूरत और जीवंत बनाए रखता है। सत्यवती और किशन आखिरकार अपने डर पर काबू पाकर उस रस को बचा पाने में कामयाब हो जाते हैं। सत्यवती में वह पारंपरिक भारतीय स्त्री भी नजर आती है जो अखंड सुहागवती होने की कामना में परंपरागत जीवन मूल्यों को सीने से लगाए जीती है। सौरी की स्त्रियों में परंपरागत मान्यताएं जीती जागती हैं जो उनके अद्भुत चरित्र के बावजूद साधारण बनाती हैं।

सौरी के बाशिंदे रोजमर्रा की जिंदगी जीते हुए, साधारण होते हुए भी कुछ मायने में असाधारण होते हैं, इतने असाधारण कि दूर  दराज के लोग केवल सौरी को खोजने और देखने आते हैं बल्कि वहाँ के लोगों से मिलने भी आते हैं। ऐसा ही एक अविस्मरणीय किरदार है, 'चढ़ाई' कहानी का चौकीदार या बूढ़ा आदमी जो अपने उम्र की गिनती भूल गया है और शायद अपने घर का पता भी भूल जाना चाहता है, बस इसीलिए अपने घर पर कुंडी चढ़ाकर जंगलों में या फिर स्मृतियों की खोह में भटकता रहता है। वह आने जाने वालों को सौरी और कभी- कभार अपना ही पता बताता रहता है जो उसे सिर्फ नाम से जानते हैं। तकरीबन सौ की उम्र छू चुका या पार कर चुका रामप्रसाद अपने जीवन और पहाड़ों की चढ़ाई अपनी लाठी और शरीर के दम पर चढ़ता रहता है। उसके पास ढेरों कहानियाँ हैं, अपनी और सौरी की लेकिन उन कहानियों में उसकी अपनी कहानी कहीं खो सी गई है। अकेलापन आदमी को इसी तरह स्मृतिहीनता के अंधकार में झोंक देता है।

अकेलेपन का यह निचाट बियाबान अन्यान्य कहानियों में भी पसरा हुआ है। गाँव से शहर को प्रस्थान करतीं पीढ़ियाँ, वे चाहे सौरी की हों या फिर किसी भी गाँव की अपने पीछे अपने घर और घर में छूटे लोगों को अकेला छोड़ जाती हैं। समय और मौसम की 'आँधी' में मकान ढहता रहता है, छत उड़ जाती है, दीवारें सील जाती हैं और कोने- अँतरों में कबाड़ के ढेर जमा हो जाते हैं। गोकुल मिस्त्री जैसे माहिर कारीगर भी दीवारों के पोलेपन की बात करते हुए उसकी मरम्मत से इनकार कर देते हैं। पोलेपन की वजह सिर्फ पुरानापन ही नहीं अकेलेपन का त्रास भी है जिसकी ओर इशारा करता हुआ गोकुल मिस्त्री कहता है- "जब कोई नहीं रहता तो दीवारें पोली हो जाती हैं" और नौजवानों के पास शायद पैसा तो है जिसे वह मरम्मत पर खर्च करने को तैयार हैं लेकिन समय नहीं है जिसे वह घर और उसके बाशिंदों के साथ बाँट सके, उसकी दीवारों को मजबूत बना सके। जब रिश्तों और भावनाओं में पोलापन जाता है तो कोई सीमेंट या माहिर कारीगर घर की मरम्मत नहीं कर सकता है। गोकुल मिस्त्री की आँखों से फूटता घृणा का सैलाब अपनी जड़ों के प्रति उसके जुड़ाव को व्यक्त करता है और नैरेटर को उसकी स्वार्थपरता के लिए धिक्कारता है।

अकेलेपन का अवसाद जब संबंधों में घुलने लगता है, भावनाओं में सेंधमारी करता है तब मन मस्तिष्क के साथ शरीर में भी इतना ठंडापन पैठ जाता है कि गर्माहट की तलाश मनुष्य को बेचैनी से भर देती है। आश्चर्य इस बात का यह कि जिन जगहों से उसे 'गरमाहट' या ऊष्मा मिलनी चाहिए वे भी क्रमशः क्षरित होती जाती हैं। आखिरकार आदमी की महत्वाकांक्षाएँ उसे आदमियत से इस कदर मरहूम कर देती हैं कि वह अपनी सहज  स्वाभाविक जिंदगी को भुलाकर सत्ता के मद में चूर ऐसी जिंदगी जीने लगता है कि कृत्रिमता ही उसे तसल्ली बख्श लगती है। प्राकृतिक जीवन शैली से कटाव उसे कमजोर शख्सियत में तब्दील कर देता है। इंसान की संगत से दूर रहते हुए वह जीवन और संबंधों की ऊष्मा से भी दूर होता जाता है। निसंगता बर्फ सी डराने लगती है और फिर वह आवाजों के शोर के बीच, मनुष्यों के समुद्र के बीच दौड़ पड़ता है ताकि रगों को ठिठुराती हुई ठंड से निजात पा सके। लेकिन असली ठंड तो दिमाग में पसरी होती है इसलिए आदमियों की जिस उपस्थिति ने उसे ऊष्मा से भर दिया था, अंततः वह भी बर्फ सी हो जाती है और उससे बचने के लिए वह पानी में छलांग लगा देता है। अनुकूलता की हद से ज्यादा चाह जीवन में तमाम प्रतिकूलताओं को जन्म देती है। इसका उपाय क्या है ? आखिरकार क्या हो सकता है ? पलायन या मुकाबला। पलायन हमें कहीं नहीं ले जाता इसलिए मुकाबला बेहतर हो सकता है। लेकिन आत्ममुग्ध व्यक्ति मुकाबले के बजाय पलायन में यकीन करता है और अंततः सबसे कट जाता है।

आत्ममुग्धता की अति मनुष्य को किसी भी हद तक ले जा सकती हैं। उसमें अमरत्व की चाह को भी जन्म देती है और हमारे पास ढेरों कहानियाँ हैं कि यह चाह कितनी भयावह हो सकती है। आम आदमी चमत्कारों में यकीन करता है और अब तो विज्ञान ने बहुत से चमत्कारों को सच भी कर दिया है। इस संग्रह में एक विज्ञान फंतासी कथा भी है। क्लोनिंग की बहुत सी कहानियाँ कही-सुनी जाती हैं। पशुओं की क्लोंनिंग तो हो चुकी है लेकिन मनुष्यों की क्लोंनिंग अभी भी सवालों के घेरे में है, कानूनी मान्यता तो अलग बात है। हर किसी के मन में राजा ययाति की भाँति अक्षय यौवन की आकांक्षा जन्म लेती है ताकि वह अनंत भोग की लालसा को परितृप्त कर पाए। हालांकि तृप्ति एक कल्पित अवधारणा है क्योंकि वह शायद ही कभी मिलती है लेकिन अपनी तृप्ति के लिए मनुष्य अराजक और हिंसक भी हो सकता है। ययाति में भी ये प्रवृत्तियाँ थीं। इसी कारण वह पुत्र का यौवन माँगकर अनंत सुख भोगता है और प्रकारांतर से पुत्र को अपनी आकांक्षाओं पर कुर्बान कर देता है। 'एक हत्यारे की आत्मस्वीकृति' का पात्र भी अपने ही क्लोन की हत्या करता है। मनुष्य कितनी भी वैज्ञानिक उन्नति क्यों कर ले लेकिन ईर्ष्या द्वेष और प्रतिद्वन्द्विता जैसी मानवीय भावनाओं से कभी मुक्ति नहीं पा सकता। इन्हीं दुर्भावनाओं के हाथों वशीभूत होकर या कामनाओं से परिचालित होकर वह अपने पिता, भाई या पुत्र की हत्या कर सकता है तो फिर अपने ही प्रतिरूप या प्रतिद्वंद्वी को भी मार सकता है। अब यह अपराध है या नहीं यह कौन तय करेगा ? अदालत या मानवीयता ? भले ही किसी जमाने में द्वंद्व युद्ध में की जाने वाली हत्याएँ अपराध की श्रेणी में नहीं आती थीं लेकिन आज की अदालत के लिए हत्या किसी की भी हो, वह उसी प्रकार का अपराध है जैसे क्लोनिंग। वस्तुतः मनुष्य की अतिशय आकांक्षा जिससे किसी को भी क्षति पहुँचे, वह अपराध ही माना जाना चाहिए। अमरत्व की कामना भी ऐसी ही आकांक्षा है। 

संग्रह की कहानियाँ स्मृतियों का धूसर अलबम बनाती हैं। इस अलबम में बहुत सी पुरानी तस्वीरें, यादें, क्षण कैद होते हैं जो हमारे अवचेतन में पड़े रहते हैं। उनकी उपस्थिति भले ही बहुत सजग हो लेकिन हम उन्हें भुला नहीं पाते। इनमें से कुछ यादें बेहद आत्मीय और कोमल होती हैं जिनकी छुअन भर हमें उद्वेलित, स्पंदित कर देती है और कुछ कसक से भर देती हैं। जीवन में बहुधा परिवर्तन आता है, स्थितियाँ बदल जाती हैं लेकिन तस्वीरों में समय ठहर जाता है। जीवन की हताशा, निराशा या उदासी की झाइयाँ तस्वीरों पर जरा नहीं पड़ती। मुस्कराते हुए पल उनमें बँध कर अमर हो जाते हैं, तभी तो हम खूबसूरत क्षणों को या क्षणिक खुशियों की स्मृतियों को हमेशा के लिए अपने एलबम में कैद कर लेना चाहते हैं। 'तस्वीरें' अतीत और वर्तमान के बीच आवाजाही करती स्मृतियों की कथा है जिसमें नैरेटर पिता अपनी बेटी के लिए उसके जन्मदिन पर बड़े एहतियात से एक खूबसूरत अलबम तैयार करता है। एहतियात इसलिए कि बदलती परिस्थितियों का खुरदरापन उस एलबम को जरा भी छुए। पत्र शैली में बुनी गई इस कहानी में दांपत्य जीवन में क्रमशः घुलती कड़वाहट और संतान पर पड़ते उसके नकारात्मक प्रभावों के संकेत जरूर मिलते हैं लेकिन अपनी बेटी को उपहार देने के लिए पिता ऐसे क्षणों की तलाश करता है जब वे दोनों अर्थात पुत्री के माता- पिता कभी साथ में बेहद खुश हुआ करते थे। वह खुशी जीवन से भले ही फिसल गई लेकिन तस्वीर में हमेशा के लिए कैद हो गई। कोई भी पिता या माता अपनी संतान को अवसाद की कड़वाहट नहीं बल्कि खुशनुमा क्षणों की मिठास सौंपना चाहता है। हालांकि कई बार तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा संभव नहीं हो पाता। खुशियों या आशाओं का 'कद' घटते -घटते इतना सा रह जाता है कि मनुष्य को वे नजर ही नहीं आतीं और उनकी तलाश में आँखों की रोशनी भी साथ छोड़ती जाती है। माता -पिता का अपना दांपत्य कितना भी अवसाद पूर्ण या ठंडा क्यों हो वह अपनी संतान को खुश और आबाद ही देखना चाहते हैं। यह अलग बात है कि चाहने भर से ही कुछ नहीं होता। स्त्री जीवन की पराधीनता और घरेलू हिंसा के बीच पिसती हुई मानसिक संतुलन खोती स्त्री के लिए सहानुभूति का स्वर इस कहानी (कद)  में नजर आता है। हाँ प्रतिरोध की कमी जरूर खलती है लेकिन यथास्थितिवाद के प्रति क्षोभ को अभिव्यक्ति मिली है।

अधिकांशतः मैं शैली में लिखी गई इन कहानियों में स्मृतियों का घटाटोप छाया हुआ है। कहीं वह कुहासे की तरह मन के उल्लास पर बिछ जाता है तो कहीं रोशनी के तीर सा हृदय को बेध देता है। अतीत और वर्तमान को एक 'पुल' की तरह जोड़ती ये स्मृतियाँ रोज दर रोज अपने अतीत को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते इंसान के अंदर उस नामालूम अहसासात की तरह जिंदा रहती हैं जिनके बिना जिंदगी बेमानी होती है। वह वर्तमान समय में किसी पुराने परिचित से मिलते हुए उनमें किसी और परिचित की शक्ल को अनायास याद करने लगता है। हालांकि देबू दा और बल्लू की माँ के बीच कोई कड़ी नहीं जुड़ती लेकिन अट्ठाइस सालों बाद नैरेटर को अपने भाई के मित्र देबू दा से मिलकर जाने क्यों बल्लू की माँ की याद जाती है। उनका स्पर्श नब्बे वर्ष की बूढ़ी औरत के स्पर्श सा लगता है। देबू दा की हर बात, अदा या गतिविधियाँ उसे फिर- फिर बल्लू की माँ से क्यों जोड़ती हैं। शायद इसलिए क्योंकि हमें जिस व्यक्ति से जरा भी लगाव होता है या सहारा मिलता है, हम उसे बार- बार अन्य परिचित, अपरिचित या अल्प परिचित चरित्रों में खोजते हैं। चरित्रों का वैविध्य हमें आकर्षित भले करे लेकिन साम्यता हमें आशवस्त करती है और मनुष्य इस आशवस्ति या फिर शांति की तलाश में लगातार स्मृति लोक की यात्रा करता रहता है। देबू दा एक जगह कहता है- "सच कहूँ, यहाँ रहते हुए कभी कभी लगता है कि हम एक साथ दो अलग -अलग समय को जी रहे हैं।" वस्तुतः यह आम आदमी की नियति है कि वह कभी भी समूचा एक समय में नहीं जीता। अतीत का मुश्किलें और भविष्य की चिंता उसके वर्तमान पर दबाव डालती रहती हैं और जहाँ भविष्य को लेकर कोई स्वप्न नहीं बचता वहाँ अतीत की सपनीली छाया वर्तमान पर अपना आधिपत्य जमा लेती है। आलोच्य संग्रह की कहानियों के पात्रों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। नवीन नैथानी वर्तमान समय की बड़ी चुनौतियों या चिंताओं की जो सतह पर तैरती नजर आती हैं, की बात नहीं करते या किसी तथाकथित विमर्श या विचारधारा के दबाव में नहीं लिखते लेकिन मनुष्य के अंतर्मन को कुरदने वाली चिंताओं, उसके अवसाद, मानसिक विच्छिन्नता अथवा सामाजिक असंबद्धता या अलगाव के कारणों की पड़ताल करने वाली स्थितियों  को खोजने की कोशिश जरूर करते हैं। इस कोशिश में वे एक ऐसा सम्मोहक वातावरण या लोक रचते हैं जो हमें बेतरह आकर्षित करता है। ये कहानियाँ देश -काल की सीमा से परे ऐसे मनुष्यों की कहानियाँ हैं जो भौतिक सुख -दुख की सीमा से परे जा चुके हैं। उनके जीवन में संघर्ष तो हैं लेकिन वे रोजी-रोटी की चिंताओं से जुड़े संघर्ष नहीं है। जीवन में रोटी ,कपड़ा, मकान के अलावा भी मनुष्य की बहुत सी दिक्कतें होती हैं कहा जा सकता है कि इन कहानियों का लेखक आम आदमियों की कहानी कहता हुआ भी एक ऐसे वर्ग या समूह के लोगों की कहानी कहता है जो तथाकथित रोजमर्रा के संघर्ष से भले ही  गुजरते नजर नहीं आते लेकिन उनके अपने संघर्ष हैं। इनमें दफ्तर में काम करने वाला क्लर्क या ऑफिसर, लेखक, चित्रकार और ग्रामीण जीवन के तमाम पात्र बिखरे हुए हैं जो अपने जीवन की अंदरूनी लेकिन बड़ी   दिक्कतों से अपने तौर पर जूझ रहे हैं और जूझते- जूझते कभी -कभार अवसाद के गर्त में मुंह छिपा लेते हैं। शुतुरमुर्ग कहानी का लेखक 'रेगिस्तान में शुतुरमुर्ग' शीर्षक से कहानी लिखता है और उसकी प्रेमिका शुतुरमुर्ग के चरित्र को उसके जीवन में उतरते हुए देखते है। वह दिन की रोशनी में लोगों का सामना करने से कतराता है, अँधेरे कोनों में मुँह छुपा कर बैठा मानो वास्तविक समस्याओं से दूर भागता है लेकिन उसका यह पलायन क्या उसका कवच नहीं है?  हर व्यक्ति के पास अपना एक कवच होता है और उस लेखक के पास शायद यह दुराव छिपाव या अगर आप उसे पलायन का नाम देना चाहे तो यह पलायन ही कवच की तरह है। हम में से बहुत सारे लोग इस कवच को धारण किया करते हैं। कुछ लोग मुखौटे लगाने में माहिर होते हैं तो कुछ इस कवच के पीछे खुद को छुपाए रहते हैं और जब यह कवच अभेद हो जाता है तो वास्तविक दुनिया से हमारा रिश्ता कटने सा लगता है और उसे स्थिति में ही हम एक बार फिर से संबंधों की ऊष्मा की चाह में भटकने लगते हैं। भटकते हुए जब संबंधों की उष्मा हमारे आसपास इफरात मात्रा में हो जाती है तो फिर उससे भी दूर भागते हैं।

 दरअसल इस संग्रह की कहानियाँ आम नजर आते खास लोगों की एक विशेष किस्म की मानसिक बुनावट की कहानियाँ है जिसके कारण हमारे पास जो कुछ होता है वह हमें कभी संतुष्ट नहीं कर पाता। कुछ अलग, कुछ खास की चाह हमें निरंतर भटकाती रहती है और उस परेशान हाल स्थिति में हम जिंदगी गुजारने को विवश होते हैं। उस स्थिति में मनुष्य एक ऐसा जादुई लोक रचता है, जहाँ सब कुछ बेहद भला-भला सा और खूबसूरत है और उसकी स्मृतियों, कहानियों के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी जिंदगी गुजार देता है। सौरी के लोगों के पास शायद अब भी ये कहानियाँ बची होंगी और उस के साथ बचा होगा रचने और कहने का अलौकिक सुख, किस्सागोई की कला भी जो कथाकार नवीन कुमार नैथानी में भरपूर है। इन कहानियों में पाठक सहजता से रम जाता है क्योंकि ये किसी सरलीकरण के सूत्र, समाधान या सुझाव के रूप में नहीं लिखी गई हैं। इनमें कथा कहने और सुनने के साथ उसमें डूबने के सुख को बचाए रखने की अद्भुत क्षमता है।