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Saturday, February 16, 2019

होना से ज्यादा दिखना


चित्र: अरविन्‍द शर्मा

होने से ज्यादा दिखने की चाह भारतीय मिजाज का ऐसा पक्ष रहा है जिसके कारण उत्सर्जित हुए सामाजिक मूल्य और नैतिकताओं का ढोल जब तब फटते हुए देखा जा सकता है। भारतीय राजनीति का विकास भी इस होने और दिखने की जुगलबंदी में ही एक ओर अंग्रेजों की गुलामी का विरोध करते हुए दिखता हुआ रहा, तो उसी के साए में आजादी की परिकल्पना भी करता रहा। यहां तक कि राजनीति का सबसे प्रगतिशील चेहरा जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की पृष्‍ठभमि में आकर लेता रहा और आज तक विद्यमान है, वह भी उस से अछूता नहीं रह पाया। यही वजह है साहित्‍यक सांस्कृतिक क्षेत्र में जो हलचल सांगठनिक जैसी हुईं, उनमें उसके प्रभाव अन्‍तविरोध की टकराहट को जन्‍म देने वाले भी हो जाते रहे। यह बात काफी हद तक जग जाहिर सी है। ज्‍यादा स्‍पष्‍ट तरह से देखना चाहें तो हिंदी भाषी क्षेत्रों से बाहर उसके स्वरूप को पहचानने के लिए लेखक संगठनों की कार्यशैलियों को देखा जा सकता है। ये लेखक संगठन जहां नेतृत्‍व के स्‍तर पर हिंदी भाषी प्रभुत्व राष्ट्रीय दिखते हुए हैं, वही अन्य भाषी क्षेत्रों में एक बड़े छाते के नीचे ही एक ही भूभाग में भाषायी आधारों पर गठित इकाइयों के रूप में कार्यरत रहते हैं। एक ही नाम से दो भिन्न-भिन्न भाषाओं के संगठन आम बात हैं, जिनमें आपस में कभी कोई एकजुटता नहीं दिखायी देगी। यहां तक कि हिंदी वाले उस अमुक भाषायी क्षेत्र के रचनाकारों से अपरिचित बने रहते हैं और अमुक भाषायी स्‍थानिकता तो हिंदी की रचनात्‍मक दुनिया को दोयम ही मानती हुई हो सकती है। कोलकाता के संदर्भ में भी यह उतना ही सच है बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा सच ही कोलकाता के साहित्यिक सांस्कृतिक समाज को अपने अपने तरह से गतिमान बनाए हुए है। शासन पर बदलते राजनीतिक प्रभाव के बावजूद उसमें यथास्थिति का बना रहना जहां एक और बांग्ला भाषी साहित्य समाज को विशिष्टताबोध के रसोगुलला-पैटेंट के भावबोध से भरे रहता है तो वही दूसरी ओर मारवाड़ी चासनी को नवजागरण के डंडे से हिलाते रहने वाले हिंदी मिजाज को प्रभावी होने का अवसर देता है। इन दोनों की ही अपनी अपनी कार्यशैली है। बांग्ला भाषी साहित्यिक सांस्कृतिक आवाज में जहां  उच्चतम कलात्मक मूल्यों को स्वीकारने का दिखावा है तो हिंदी में बौद्धिक दिखने के लिए एकेडमिक स्वरूप को धारण करती शोधार्थियों और चेले चपाटों की बड़ी भीड़ है।


यह बातें किन्‍हीं विशेष संदर्भ को ध्यान में रखकर नहीं कही जा रही है बल्कि एक निकट के मित्र द्वारा पूछे गए उस सवाल का जवाब में है जिसमें बहुत सी जिज्ञासाएं मेरे सोचने समझने की धारा की पहचान से वाबस्ता रहीं।

Tuesday, January 26, 2010

उनकी टोपी इनके सिर


अरविंद शेखर 



कहते हैं संस्कृति की कोई सरहद नहीं होती। सच भी है, क्योंकि हिमाचल के किन्नौर की हरी पट्टी वाली किन्नौरी टोपी अब उत्तराखंड के लोगों के सिरों पर भी खूब सज रही है। दून में तो आपको किन्नौरी टोपी पहने बहुत से लोग दिख जाएंगे, लेकिन उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के सुदूरवर्ती के हरकी दून ट्रैक के क्षेत्र में तो हर दूसरा आदमी हरे रंग की पट्टी वाली किन्नौरी टोपी पहने दिखता है। हम जिन टोपियों को आम तौर पर हिमाचली टोपियां कहते और समझते हैं, वे क्षेत्रवार तीन प्रकार की हैं- कुल्लू टोपी, बुशहरी टोपी और किन्नौरी टोपी। कुल्लू टोपी स्लेटी रंग के ऊनी कपड़े पर रंग बिरंगी सुनहरे रंग की वी डब्लू जैसी डिजाइन वाली ऊन की कढ़ाई वाली होती है।

अमूमन इसीको हिमाचली टोपी के रूप में जाना जाता है। दूसरी बुशहर टोपी में लाल या मैरून वेलवेट लगा होता है। यह सफेद वैलवेट पर हरे किनारे की पट्टी वाली टोपी भी हो सकती है। तीसरे किस्म की टोपी है-किन्नौर जिले की पहचान किन्नौरी टोपी। शेष अन्य टोपियों से महंगी इस टोपी की खासियत यह है कि इसे किन्नौर में पुरुष और महिलाएं दोनों पहनते हैं। हलके स्लेटी रंग के ऊनी कपड़े से बनी इस टोपी में हरी वैलवेट की पट्टी होती है। कहा जाता है कि हरे रंग का यह वैलवेट एक जमाने में तिब्बत से तस्करी कर लाया जाता था। इस वैलवेट की पट्टी के तीन किनारों पर नारंगी, लाल या केसरिया पट्टी होती है। ज्यादा सर्दी पड़ने पर वैलवेट की पट्टी को खोलकर कान ढंके जा सकते हैं। किन्नौर में इस टोपी को दलित नहींपहन सकते, लेकिन उत्तराखंड में पहुंचते ही यह गलत धारणा खत्म हो जाती है। बहुपति प्रथा वाले किन्नौर क्षेत्र में एक पति अगर पत्नी के साथ हो तो वह संकेत के तौर पर दरवाजे के बाहर खूंटी में अपनी टोपी टांग देता है, ताकि उनका एकांत भंग हो। ट्रैकिंग के शौकीन युवा रंगकर्मी साहित्यकार विजय गौड़ कहते हैं कि हरकी दून का इलाका हिमाचल जिले से लगा हुआ है। यहां के लोग अक्सर किन्नौर चले जाते हैं और वहां से किन्नौरी टोपियां ले आते हैं। हरकी दून के पूरे इलाके में आपको क्या पोर्टर, क्या दुकानदार, सभी किन्नौरी टोपी में नजर आते हैं। लगता है जैसे हरी टोपियों के संसार में कदम रख दिए हों। उत्तरकाशी निवासी डीपी उनियाल बताते हैं किन्नौरी टोपी कितनी लोकप्रिय हो चुकी है, यह बात पिछले साल रिलीज हुए गढ़वाली के एक म्यूजिक एलबम टिकुलिया मामा के लूण भरी दूण फुंदू लूण भरी दूण गाने में सभी कलाकारों ने किन्नौरी टोपी पहनी है।


Sunday, January 10, 2010

तू दिखयांदी जनि जुन्याली

उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के संघर्ष में सांस्कृतिक कर्मियों की भूमिका और भागीदारी को सुनिश्चित करने की जो कोशिशें दृष्टि देहरादून ने की उनके फलस्वरूप ही उत्तराखण्ड सांस्कृतिक मोर्चे के गठन की प्रक्रिया आगे बढ़ी थी लेकिन जिन कारणों से वह पहल अपने शुरूआती दौर में ही बिखरने लगी थी, उस पर कभी विस्तार से चर्चा करने का मन है। अभी प्रस्तुत है भाई सुनील कैंथोला का विश्लेषण जिसमें राज्य निर्माण के बाद देहरादून में मेले ठेलों की संस्कृति के रूप में फैलते गए प्रदूषण को पकड़ने की कोशिश की गई है। 
सुनील समाजिक सांस्कृतिक उद्यमी हैं, वर्तमान में Mountain Sheperds से जुड़े हैं।






सुनील कैंथोला

टोपियों के थोक विक्रेता

‘‘पहाड़ी आदमी को दो चीज की रक्षा करनी चाहिए - अपनी टोपी और अपने नाम की। टोपी की रक्षा वही कर सकेगा जिसके पास टोपी के नीचे सिर है और नाम की रक्षा वह, जिसके दिल में आग है।’’ ऐसा मेरा दागिस्तानके लेखक रसूल हमजातोब कहते हैं। चूंकि इस लेख में टोपियों के कारोबार पर टिप्पणी करने का प्रयास किया  गया है। अतः रसूल का जिक्र करना मैने उचित समझा। जहां तक इसे लिखने की प्रेरणा है तो राजभवनों की एय्याशियों से सम्बन्धित ताजा सुर्खियां इसका मुख्य कारण है। दिलचस्प बात यह है कि इन खबरों में नया कुछ भी नहीं। ऐसा तो इस लोकतंत्र में आजादी के बाद से ही चल रहा है। वो जब यहां राज करते थे तो उनकी पसंद के चर्चे हर एक की जुबां पर थे। वो जब लखनऊ में थे या फिर दिल्ली में, तब भी उन्होंने ऐसी ही लीलाएं रचाई होंगी। राज भवनों के बाहर संतरी बन्दूकें लेकर खड़े रहे होंगे,
दरअसल उत्तराखण्ड निर्माण के उपरांत प्रदेश में एक विशेष कल्चरल ब्यूरोकेसी का जन्म हुआ, जिसके प्रथम सचिव संस्कृतिकर्म को टेंडर और परियोजना प्रस्तावों के अंतर्गत स्थापित करना चाहते थे। उनके ही सदप्रयासों से तम्बू लगाने वालों और वैरायटी शो दिखाने वालों का धन्धा चमकने लगा। सचिव का प्रसाद उन्हीं को मिलता था, जो सहलाना जानते थे। चूंकि चारण/भाटों की जमात इस कार्य में सिद्ध थी अतः उन्हे भी प्रसाद मिला और कालांतर में प्रसाद वितरण की ऐजेंसियां भी मिल गई। प्रदेश में यत्र/तत्र मेले ही मेले लगने लगे। मूल मुद्दे हवा हो गए और बांदों  गीत (बांकी गोरी के रुप और उनकी मोहक अदा से भरे) पूरे पहाड़ में गूंजने लगे।
और इसी तरह देश की आजादी के 6 दशक गुजर गए। इस घटना को मैं इसी परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश कर रहा हूं। आजादी के बाद इस प्रजाति के नेतृत्व ने भी देश चलाया और इसे कहां ले गए, इस बारे में विचार तो किया ही जाना चाहिए। यदि ये उत्तर प्रदेश को ढंग से चलाते तो भला हमें पृथक पर्वतीय प्रदेश के लिए क्यों संघर्ष करना पड़ता। इससे पहले कि ये छोटा सा पर्वतीय राज्य अपने छोटे-छोटे सपने पूरे करने की दिशा में बढ़ता, इन्हें हमारे ऊपर थोप दिया गया और जैसे कि होना ही था देखते ही देखते हमारे बुग्यालों के फूलों को राज महलों तक पहुंचाने का तंत्र खड़ा हो गया। यहां मैं पुनः अपनी बात को दोहराना चाहूंगा कि यह कोई बड़ी बात नहीं थी। जिसने जिन्दगी भर यही किया हो और जो सिर्फ इसी चीज में पारंगत हो, वह उम्र के इस दौर में भला आपके हिसाब से काम कैसे करेगा? बहरहाल! इस पृष्ठभूमि के साथ, इन्हें फिलहाल यहीं छोड़ते हैं और लेख के मुख्य शीर्षक पर आते हैं।
मेरी तरह शायद कुछ और लोग भी मानते होंगे कि मात्र राज आश्रय पर चलने वाले संस्कृतकर्म की अंतिम परिणिति चारण और भाटों के रूप में ही होती है। चारण/भाटों की मूल प्रतिबद्धता राजतंत्र से होती है और संस्कृतिकर्मियों की अपनी जड़ों  से। जब तक सत्ता के केन्द्र, महलों के रूप में संचालित होंगे तब तक चारणों की रोजी-रोटी चलेती रहेगी या इसे यूं भी कह सकते हैं कि तब तक जनपक्षीय राजनीति और संस्कृतिकर्मी इन महलों को ध्वस्त करने में जुटे रहेंगे। इस जटिल समाज/नृवंशास्त्रीय गणित में संस्कृतिकर्मियों और चारण/भाटों का परस्पर आंकड़ा हमेशा 36 का ही रहेगा। यहां एक बात और है कि चारण/भाटों का चोला हमेशा संस्कृतिकर्मियों का ही होता है और इनकी असली पहचान के अवसर यदा-कदा ही आते हैं। ऐसा ही एक दुर्लभ अवसर उत्तराखण्डी कवि और गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के नौछमी गीत के प्रचारित होने के उपरांत आया था। तब टोपियों के थोक विक्रेता अपना आपा खो बैठे थे।
दरअसल उत्तराखण्ड निर्माण के उपरांत प्रदेश में एक विशेष कल्चरल ब्यूरोकेसी का जन्म हुआ, जिसके प्रथम सचिव संस्कृतिकर्म को टेंडर और परियोजना प्रस्तावों के अंतर्गत स्थापित करना चाहते थे। उनके ही सदप्रयासों से तम्बू लगाने वालों और वैरायटी शो दिखाने वालों का धन्धा चमकने लगा। सचिव का प्रसाद उन्हीं को मिलता था, जो सहलाना जानते थे। चूंकि चारण/भाटों की जमात इस कार्य में सिद्ध थी अतः उन्हे भी प्रसाद मिला और कालांतर में प्रसाद वितरण की ऐजेंसियां भी मिल गई। प्रदेश में यत्र/तत्र मेले ही मेले लगने लगे। मूल मुद्दे हवा हो गए और बांदों (बांकी गोरी के मोहक अदा से भरे) गीत पूरे पहाड़ में गूंजने लगे।
ऐसा माहौल बना कि जैसे सब पा लिया गया है। यह चारणों के प्रमोशन का काल था। कलम हो या जुबां, सब पर सत्ता के प्रसाद का अंकुश था। ऐसे में सत्ता के गलियारों में चरम आनन्द के सुमन पनपे और सरकार के साहित्य एवं कला मंचों में जाकर खिले। यह लम्बी फेरहिस्त है। जब यह सब हो रहा था, तब टोपियों के विक्रेता अपनी प्रसाद एजेंसी के विस्तार के गठजोड़ में लीन थे। पिछले दस बरसों में यहां अजब तमाशे हुए। कोई साहित्यकार नेता जी को प्रदेश का पिता बनाने पर तुला है तो कोई खिचड़ी खाऊ ठेकेदार बिरादरी का झंडाबरदार है। कहीं बायोग्राफी लिखी जा रही है तो कोई इनके जीवन पर वृत्तचित्र बना रहा है। कुटिल केन्द्रीय राजनीति का अहसास तो उत्तराखंड को अपने जन्म के समय से ही हो गया था। जब उसके नामकरण से लेकर राजधानी तक के निर्णयों से उसे अलग रखा गया। जब देहरादून के परेड ग्राउण्ड में 9 नवम्बर 2000 को उसके वैधानिक जन्म की पार्टी में शामिल होने के अगले ही दिन उ.प्र.के मुख्यमंत्री ने मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों में से एक अनन्त कुमार सिंह पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने से मना कर दिया। तब धर्म से बड़ी जात हो गई थी।
ऐसे समय में, ऐसा नहीं कि भाई लोग जानते न थे। सभी, सब कुछ जानते समझते थे। पर मंचों का मोह, महलों से घनिष्ठता का नशा और विशेषकर प्रसाद वितरण व टोपी पहनाने के विशेषाधिकार ने उन्हें न नर, न नारी की श्रेणी में खड़ा कर दिया और जिसके लिए यह पदवी गढ़ी गई थी, वह अपनी कथित जनसेवा में आकण्ठ डूबा रहा। उसने इस हेतु विशेष ओ.एस.डी. भी नियुक्त कर डाले। जब नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत ने इस आधुनिक मुहम्मद शाह रंगीले की सतत् मधु चंद्रिका का पर्दाफाश किया तो गजब हो गया। कानूनी और गैर कानूनी शब्द जनता के लिए गढ़े गए हैं, सत्ता उनसे ऊपर है। वह सेंसर बोर्ड से लेकर मसूरी जैसे छोटे शहर तक अपनी धौंस जमा सकती है। उसने ऐसा ही किया। इस अभियान में वे सब भी शामिल हो गए, जो नरेन्द्र सिंह नेगी के रचनात्मक युग के खात्मे का बरसों से इन्तजार कर रहे थे। उनके पास इसके लिए खिसियाहट भरे अपने तर्क थे। परन्तु इसके मूल में उस विराट मधुचन्द्रिका में खलल पड़ने का आक्रोश था, जो जन संघर्षो से उपजे इस राज्य के शीर्ष में मनाई जा रही थी।
नौछमी नारायण का एक दूसरा पहलू भी है कि आखिर एक गीत में इतनी ताकत कि भोगतंत्र चरमरा उठे और यह भी कि यदि आरंभ से ही ऐसे गीतों की परंपरा होती तो संभवतः आज राज्य की दशा और दिशा कुछ और ही होती। इसी से जुड़ा एक और सवाल कि उत्तराखण्ड आन्दोलन में संस्कृतिकर्मियों की सशक्त भूमिका के उपरांत भी ऐसा क्यों न हो पाया? राज्य स्थापना के उपरांत इस सन्दर्भ में संस्कृतिकर्मियों के बीच यह चर्चा भी हुई थी कि अब राज्य के लाभार्थी बनें या इसके दिशासूचक का जिम्मा लें। जो लाभार्थी बनना चाहते थे, उनमे एका रहा और बाकी गैर रचनात्मक बहसों का शिकार हो गए। यहीं से टोपियों का धन्धा चल निकला। ये सब भी अपने ही लोग हैं, कोई पराये नहीं। सच कहूं तो ये बेईमान भी नहीं। सत्ता का मायाजाल अच्छों-अच्छों को सम्मोहित कर देता है, ये उसी का शिकार हुए। परन्तु इतिहास बड़ा ही निरपेक्ष और निर्मम है। इतिहास के गर्भ में यह सवाल इनके लिए सदैव जीवित रहेगा कि जब एक गीत इस लोकतंत्र के छद्म आवरण को गिरा रहा था, तब आपके टोपी-टोपी के खेल और प्रेमचंद के शतंरज के खिलाड़ियों में कितनी समानता/भिन्नता थी। मुझे लगता है यहां पाश की निम्न पंक्तियों को रखना कोई अभद्रता न होगी
‘‘सबसे खतरनाक वो दिशा होती है
जिसमे आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए’’
अब पाश़ के बाद और कहने को यूं बचा ही क्या है, पर अभी हाल ही में केन्द्रीय गृह मंत्री द्वारा भारत में माओवाद को नेस्तनाबूद करने के लिए साठ हजार सैनिक/अर्धसैनिक बलों की तैनाती सम्बन्धी बयानों से मुझे झुरझुरी आने लगती है। कहीं ऐसा भी पढ़ा था कि आंध्र प्रदेश के राजभवन की रंगरेलियों का भांडा तब फूटा, जब माल सप्लाई के एवज में खनन का पट्टा दिए जाने का वादा रंगीले नवाब पूरा न कर पाये। क्या ये खनन पट्टे उन्ही  क्षेत्रों में आवंटित होने थे जहां माओवादियों को नेस्तनाबूद करने की मुहिम शुरू की जा रही है? न जाने कितने रंगीलों ने, कितने सप्लाईयरों को, न जाने किस की कीमत पर, जाने क्या-क्या देने का वादा कर रखा हो! नारायण-नरायण!!





Thursday, July 16, 2009

हरेला के शुभ अवसर पर

उत्तराखंड में मनाये जाने वाले त्यौहारों में से एक प्रमुख त्यौहार हरेला भी है। इस त्यौहार को मुख्यतया कृषि के साथ जोड़ा जाता है।
हरेले को प्रतिवर्ष श्रावण मास के प्रथम दिन मनाया जाता है। इसे मनाने का विधि विधान बहुत दिलचस्प होता है। जिस दिन यह पर्व मनाया जाता है उससे 10 दिन पहले इसकी शुरूआत हो जाती है। इसके लिये सात प्रकार के अनाजों को जिसमें - जौ, गेहूं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत और भट्ट (गहत और भट्ट पहाड़ों में होने वाली दालें हैं) के दानों को रिंगाल से बनी टोकरियों, लकड़ी से बने छोटे-छोटे बक्सों में या पत्तों से बने हुए दोनों में बोया जाता है।

हरेला बोने के लिये हरेले के बर्तनों में पहले मिट्टी की एक परत बिछायी जाती है जिसके उपर सारे बीजों को मिलाकर उन्हें डाला जाता है और इसके उपर फिर मिट्टी की परत बिछाते हैं और फिर बीज डालते हैं। यह क्रम 5-7 बार अपनाया जाता है। और इसके बाद इतने ही बार इसमें पानी डाला जाता है और इन बर्तनों को मंदिर के पास रख दिया जाता है। इन्हें सूर्य की रोशनी से भी बचा के रखा जाता है।

इन बर्तनों में नियमानुसार सुबह-शाम थोड़ा-थोड़ा पानी डाला जाता है। कुछ दिन के बाद ही बीजों में अंकुरण होने लगता है और फिर धीरे-धीरे ये बीज नन्हे-नन्हे पौंधों का रूप लेने लगते हैं। सूर्य की रोशनी न मिल पाने के कारण ये पौंधे पीले रंग के होते हैं। 9 दिनों में ये पौंधे काफी बड़े हो जाते हैं और 9वें दिन ही इन पौंधों को पाती (एक प्रकार का पहाड़ी पौंधा) से गोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिसके पौंधे जितने अच्छे होते हैं उसके घर में उस वर्ष फसल भी उतनी ही अच्छी होती है।

10 वें दिन इन पौंधों को उसी स्थान पर काटा जाता है। काटने के बाद हरेले को सबसे पहले पूरे विधि - विधान के साथ भगवान को अर्पण किया जाता है। उसके बाद परिवार का मुखिया या परिवार की मुख्य स्त्री हरेले के तिनकों को सभी परिवारजनों के पैरों से लगाती हुई सर तक लाती है और फिर सर या कान में हरेले के तिनकों को रख देती है। हरेला रखते समय आशीष के रूप में यह लाइनें कही जाती हैं -
लाग हरियाव, लाग दसें, लाग बगवाल,
जी रये, जागी रये, धरति जतुक चाकव है जये,
अगासक तार है जये, स्यों कस तराण हो,
स्याव कस बुद्धि हो, दुब जस पंगुरिये,
सिल पियी भात खाये


(अर्थात - हरेला पर्व आपके लिये शुभ हो, जीते रहो, आप हमेशा सजग रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान बनो, आकाश के समान विशाल होओ, सिंह के समान बलशाली बनो, सियार के जैसे कुशाग्र बुद्धि वाले बनो, दूब घास के समान खूब फैलो और इतने दीर्घायु होओ कि दंतहीन होने के कारण तुम्हे सिल में पिसा भात खाने को मिले।)

जो लोग उस दिन अपने परिवार के साथ नहीं होते हैं उन्हें हरेले के तिनके पोस्ट द्वारा या किसी के हाथों भिजवाये जाते हैं। कुमाऊँ में यह त्यौहार आज भी पूरे रीति-रिवाज और उत्साह के साथ मनाया जाता है।

-विनीता यशस्वी