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Friday, October 24, 2014

एक अण्डे का स्वागत गान:जितेन ठाकुर

(जितेन ठाकुर की कहानियों में विषयों की विविधता बरबस ध्यान खींचती है.अण्डे का स्वागत गान इसलिये भी पढ़ी जानी चाहिये कि तरक्की की मध्यमवर्गीय लहरों के बीच यह कहानी समाज के तलछट की जिन्दगी को  संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है)

    लड़के ने प्लासटिक की पतली सफैद तांत से बुना हुआ बोरा उठाया हुआ था। लड़के की उम्र सात-आठ साल से ज्यादा नहीं थी और बोरा उसके दुबले-पतले छोटे से कद की तुलना में कहीं ज्यादा लम्बा था। वह कांधे से ढ़लक-ढ़लक जाते बोरे को बार-बार खींच कर संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। लड़के के काले जिस्म पर कुछ वैसे ही बदरंग और बेतरतीब कपडे़ थे जैसे किसी भी कूड़ा बीनने वाले दूसरे लड़के के जिस्म पर हो सकते हैं। बोरा लगभग खाली था और पिचका हुआ था। अभी सुबह की शुरुआत थी और बोरा भरने के लिए अभी पूरा दिन बाकी था। शायद इसीलिए लड़का जल्दी में नहीं था। लड़का चाय की एक दुकान के सामने इतिमनान से खड़ा हुआ, लोहे की तारों से बनार्इ गर्इ उस टोकरी को हसरत भरी नजरों से देख रहा था, जिससे झांकते हुए सफैद अण्डों का सिलसिला, करीने से कुछ इस तरह जमाया गया था कि वह बरबस ही रह गुजर की नजर खींच लेता।
    “क्या चाहिए?" दुकानदार ने सड़क पर देर से खड़े हुए लड़के को हंस कर पूछा
    “अण्डा।" लड़के ने बेझिझक उत्तर दिया
    “पैसे हैं?" उसने फिर पूछा
   “नहीं।" लड़के ने मासूमियत से सिर हिलाया
    “तो भाग फिर।" अब दुकानदार ने डपटा
    लड़का उदास हो गया और जाने को मुड़ा, पर तभी दुकानदार ने उसे पुकार कर रोक लिया। दुकानदार ने टोकरी से एक अंडा निकालकर उसकी छोटी सी हथेली को भर दिया। लड़के की आँखे चमकने लगीं।
    दरअसल दुकानदार को पंडितों से नफरत थी और वह उन्हें ठग समझता था। इसके विपरीत उसकी पत्नी पंडितों पर बहुत विश्वास करती थी। वह अक्सर पति पर दबाव बनाती कि वह सोमवार को सफैद चीज का दान दे और बृहस्पतिवार को पीली चीज दान करे। पत्नी का मानना था कि पंडितों ने उसका पत्रा बांच कर ही, ग्रहों के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए यह उपाए सुझाए थे। इससे रोजगार में बढ़ोत्तरी होना तय था। आज सोमवार था और वह पत्नी से बिना झूठ बोले यह कह सकता था कि उसने अण्डा दान करके सफैद और पीली वस्तु एक साथ दान में दे दी है। इस तरह पंडितों का मजाक उड़ाने और पत्नी को चिढ़ाने का एक बेहतरीन मौका उसके हाथ आ गया था।
    बहरहाल, कूड़ा बीनने वाला वह छोटा सा लड़का बेहद खुशी और हिफाज़त के साथ अण्डे को हथेली में दबाए हुए कूड़े के ढ़ोल से घुस गया। पर अब समस्या अण्डे को कहीं रखने की थी। क्योंकि एक हाथ से झोला पकड़ कर ही दूसरे हाथ से काम की चीजें बीन कर उसमें डाली जा सकती थीं। पर हाथ में अण्डे रहते हुए यह सबकर पाना मुमकिन नहीं था। लिहाजा लड़के ने अण्डा लोहे के कूड़े वाले ढ़ोल के चौड़े किनारों पर इस तरह टिका दिया कि वह लुढ़क न पाए। इतना करके वह अभी कचरे पर झुका ही था कि काफी देर से उसके पीछे-पीछे आता हुआ कुत्ता कूद कर ढ़ोल पर चढ़ गया और अण्डे को सूंघने लगा। लड़के की सांस अटक गर्इ। उसे लगा कि अभी अण्डा गिरकर फूट जाएगा। उसने बिजली की तेजी से झपटकर अण्डा उठा लिया और कूद कर ढ़ोल से बाहर आ गया। अलबत्ता, कुत्ता वहीं उसी ढ़ोल पर कुछ सूंघता हुआ खड़ा रहा।
    लड़का अब अण्डे की सुरक्षा के प्रति अतिरिक्त सतर्क हो गया था।
    जब से शहर की साफ-सफार्इ का ठेका किसी कम्पनी को दिया गया था- शहर में कूडे़ के ढ़ोल बहुत कम हो गए थे। कम्पनी के कारिंदे घर-घर से कूड़ा उठाते और उसमें से काम की चीजें बीन कर कबाड़ी को बेच देते। इस कारण लड़के के लिए संघर्ष बढ़ गया था। अब उसे कूड़े की खोज में दूर-दूर जाना पड़ता और वह सारे दिन में बा-मुशिकल दस-बीस  रुपए ही कमा पाता। टोकरियों में लटकते हुए सफैद अण्डे उसे लुभाते थे, वह उन्हें खरीदना चाहता था, खाना चाहता था। पर माँ समझी कि अण्ड़े की कीमत में डिबरी भर तेल खरीदा जा सकता है जिससे कुछ रातें उजियारी हो सकती हैं। वह मन मसोस कर रह जाता। पर आज तो उसे मुफ्त में अण्डा मिल गया था और वह खुश था, इतना खुश कि अण्डे को चूम रहा था और बार-बार उसे अपने गालों से छुवा कर उसकी ठंडक महसूस कर रहा था।
    अपने छोटे-छोटे कदमों से लम्बे रास्ते को नाप कर लड़का अब जहाँ पहुँचा था वह कूड़े से भरा हुआ एक खुला प्लाट था। उसने आस-पास देखा। वहाँ कोर्इ कुत्ता नहीं था। उसने अण्डे को हौले से एक इर्ंट पर रख दिया और ताजे फैंके गए कूड़े को कुरेदने लगा। कूड़े को कुरेदते हुए अभी उसे कुछ हासिल नहीं हो पाया था कि उसने अपने ऊपर किसी साए को अनुभव किया और चांैक गया। उसने गर्दन उठाकर आकाश की तरफ देखा। एक चील उसके ऊपर से होती हुर्इ निकल गर्इ थी। उसने पक्षियों की किताबें तो नहीं पढ़ी थीं पर इतना जानता था कि चील की नजर बहुत तेज होती है। उसके मन में शक पैदा हुआ कि हो न हो चील की नियत अण्डे पर डोल गर्इ हो। वह कुछ देर आसमान की तरफ देखता रहा। उसने देखा कि एक चक्कर लेकर चील वापिस लौट रही है। जहाज की तरह बिना पंख फड़फड़ाए हुए नीचे की तरफ झुकती हुर्इ। उसने झट से छलांगे लगा कर अण्डा उठा लिया और चल पड़ा। चील फिर ऊपर उठने लगी थी।
    लड़के को कूडे़ के नए ढ़ोल तक पहुँचने के लिए फिर एक लम्बी दूरी नापनी पड़ी। ढ़ोल के पास पहुँच कर उसने दूर तक जाती सड़क को देखा- कहीं कोर्इ कुत्ता नहीं था। फिर देर तक आसमान को देखता रहा, चील, कऊआ या कोर्इभी परिंदा आसमान में नहीं उड़ रहा था। अलबत्ता छोटी-छोटी चिडि़यों के झुंड यहाँ-वहाँ उड़ते हुए चहक रहे थे- फुदक रहे थे। वह निशिचंत हो गया। यहाँ अण्डे को कोर्इ खतरा नहीं था। कूड़े सेभरे हुए गहरे ढ़ोल में घुसने के लिए लड़का अ्भी ईंट पर चढ़ा ही था कि उसका कलेजा मुंह को आ गया। ढ़ोल के          अंधेरे में झुक कर कबाड़ बीनता हुआ एक तगड़ा लड़का अचानक सीधा खड़ा हो गया था और अब दिखलार्इ देने लगा था। यह लड़का कर्इ बार उसे पीट कर उससे कबाड़ छीन चुका था। तय था कि आज वह अण्डा छीन ही लेगा। लड़के ने बिना समय गंवाए हुए छलांग लगार्इ और सड़क पर अपनी पूरी ताकत से दौड़ पड़ा। वह जल्दी से जल्दी आने वाली मुसीबत की जद से बाहर निकल जाना चाहता था।
    लड़का फिर रास्ते में कहीं नहीं रुका। जब वह पेड़ों से बांधे गए काले तिरपाल वाले अपने सिकुड़े हुए घर में पहुँचा तो बुरी तरह हांफ रहा था। बदन पसीने से तर था जिस कारण  कमीज का कपड़ा चिपचिपाने लगा था। थकान से टांगें कांप रही थीं। वह अपनी जिंदगी में इतना कभी नहीं भागा था। इसके बावजूद वह खुश था कि उसने अण्डे को लुटने से बचा लिया था।
    “क्या हुआ? आज कुछ नहीं मिला क्या?" ईंटों के चूल्हे पर रोटी सेंकती हुर्इ माँ ने उसके खाली झोले के देख कर पूछा
   “मिला - ये अण्डा! मुफ्त!" उसने सांस को किसी तरह काबू करके उत्तर दिया। उसे कमार्इ न होने का कोर्इ मलाल नहीं था। वह जानता था कि वह दस-बीस रुपए कमा भी लेता तो उनसे अण्डा खरीदने की इजाजत हरगिज न मिलती।
    उसकी छोटी सी हथेली के ठीक बीच में रखा हुआ झक्क सफैद अण्डा चमक रहा था। माँ ने उसकी आँखों की चमक देखी और अण्डा उठाते हुए कुछ नहीं बोली। माँ को लगा कि वह आज की कमार्इ अण्डे पर उड़ा आया है, पर अब तो अण्डा खरीदा जा चुका था, इसलिए कुछ भी कहने का कोर्इ फायदा नहीं था। अलबत्ता छोटी ने अण्डे की खुशी में पहले  भार्इ से लिपट कर उसे प्यार किया और फिर उछल-उछल कर चिल्लाने लगी। वह अण्डे के लिए कोर्इ गाना गा रही थी जो किसी को  भी समझ नहीं आ रहा था।
    माँ ने अण्डा गर्म राख में दबा दिया। लड़का तिरपाल के नीचे बिछी हुर्इ दरी पर लेट गया और लम्बी-लम्बी सांसे भरकर थकान कम करने की कोशिश करने लगा। उसने हसरत के साथ आग के भरे चूल्हे की उस राख को देखा जिसके नीचे दबा हुआ अण्डा सिक रहा था।
    “माँ हम अण्डा कब खाएंगें?’ छोटी उतावली हो रही थी।
    “जब बाबा आ जाएंगें?” माँ ने रोटी तवे पर डालते हुए कहा।
    संतोष से्भरे हुए लड़के को लगा कि कुछ देर बाद जब यह अण्डा सिक कर राख से बाहर निकलेगा तो पूरा घरा जश्न के माहोल में डूब जाएगा।
    लड़के की खुली हुर्इ आँखों में अचानक, सिके हुए अण्डों से भरा हुआ बोरा समाने लगा।   उसने देखा कि बोरे से निकल कर अण्डों की जर्दी रूर्इ के नर्म फोहों की तरह उड़ने लगी है। जर्दी के उन गोल-गोल पीले बादलों में तैरते हुए लड़के ने बहन के उगते हुए नन्हें पंखों को देखा। उसने देखा कि पिता ने खांसना बंद कर दिया है और माँ चिड़चिड़ा नहीं रही है। अल्यूमीनियम की थाली बड़े-बड़े सफैद अंडों सेभरी हुर्इ है और आसमान में चील भी नहीं है। सड़क पर न तो कुत्ता है औन न ही मोटा लड़का। अलबत्ता, चिडि़याँ गा रही है।
    उबा देने वाले मनहूस काले तिरपाल के नीचे ऐसा खुशनुमा माहोल उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।

4, ओल्ड सर्वे रोड़
देहरादून- 248001
   

Monday, May 4, 2009

जिस पर न कोई गीत लिखा गया, न कोई अफसाना गढ़ा गया

मई २००९ के आउटलुक में प्रकाशित कथाकार जितेन ठाकुर की महत्वपूर्ण कहानी कोट लाहौर वालाकथाकार नवीन नैथानी और कवि राजेश सकलानी की टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत है।





नवीन नैथानी
एक कहानी को कैसा होना चाहिये? इस सवाल के बहुत सारे जवाब हैं.पाठकों की रुचि, संस्कार,सरोकार ओर विशिष्ट आग्रह विभिन्न जवाबों को जन्म देते हैं जिनसे कहानी के अलग-अलग स्कूल निकलते हैं.प्रायः एकतरह की कहानी पढ़ने वाला पाठक दूसरी तरह की कहानी को पसन्द नहीं कर पाता. लेकिन कुछ कहानियां स्कूलों की जकड़बन्दी से बाहर निकल कर सभी पाठकों को समान रूप से रिझा ले जाती हैं. इन कहानियों का कथ्य इतना जबर्दस्त होता है कि वे आपको अपने तूफान में बहा ले जाती हैं. एक विदेशी कहानी का अनुवाद पढ़ाथा जिसका शीर्षक याद नहीं रहा है - अभी योगेंद्र आहूजा की स्मृति का सहारा लिया है. उसका शीर्षक हैयानकोवाच का अन्त’. कहानी एक बढ़ई की जिन्दगी के बारे में है-यान कोवाच दैहिक अन्त के बाद लोगों की स्मृतियों से धीरे- धीरे गायब हो जाता है.उसकी बनायी चीजें क्षरण के स्वाभाविक चक्र से गुजर कर फ़ना होजाती हैं.सबसे अन्त में उसकी बनायी मेज का नामो-निशान दुनिया से मिटता है और यान कोवाच की मृत्यु के सौ वर्ष बाद वह दुनिया से पूरी तरह गायब हो जाता है. यह मौत के बाद बची रह गयी स्मृतियों के मरते चले जानेकी मार्मिक कहानी है.
जितेन की कहानी पढ़ने के बाद मुझे सहसा यान कोवाच की याद गयी.इस तरह की याद जब आती है तो मुझे समझ में जाता है कि अभी - अभी एक विलक्षण पाठकीय अनुभव से होकर गुजर आया हूं, कि जो अभी - अभी पढा़ ऐसा पढे़ हुए बहुत दिन हुए.यह स्मृति को जिन्दा रखे रहने वाली कहानी है-यह एक कोट की कहानी है जिसकी
बदनसीबी ये थी कि ये कोट यूरोप के किसी देश में नहीं सिला गया था। इसीलिए इस कोट पर कोई गीत लिखा गया, कोई अफसाना घड़ा गया।
यह लाहौर में सिला गया था.
(मुझे याद है कि मेरी मां बडे़ गर्व से कहा करती कि उसकी शादी के कपडे़ लाहौर से सिलकर आये थे.)
लाहौर में सिले गये इस कोट की कहानी कहते हुए जितेन जिस सहजता के साथ इतिहास में प्रवेश करने जाते हैंवह देखने लायक तो है ही उससे भी अधिक चमत्कारी लगता है विशुद्ध स्मृतियों की कथा को समकालीन बाजारकी मानसिकता उजागर करने के लिये इस्तेमाल कर ले जाने का लेखकीय कौशल !
जितेन मूलतः कथाकारों की उस नस्ल से आते हैं जो कहानी की तलाश में हर वक़्त जीवन - अनुभवों के बीहड़ मेंभटकते हैं.वे हमेशा अपने कान और आंख खुले रखते हैं. एक कुशल आखेटक के गुण उनमें होते हैं-पर कहानी भीवो चीज है जो हर वक़्त दिखायी भी देती है और सुनायी भी पड़ती है,पर कमबख़्त हाथ ही नहीं आती.जितेन जैसे शिकारी नस्ल के कथाकार जब पकड़ ले जाते हैं तो नायाब चीज पेश करते हैं.इस कहानी में जितेन अपनी वृत्ति सेअलग हटकर स्मृतियों की जो दुनिया ढूंढकर लाये हैं वह मुझ जैसे पाठक के लिये सुखद आश्चर्य है. उम्मीद है यहकहानी जितेन के लेखन में एक नये दौर के आगमन का संकेत है.
कोट लाहौर वाला एक और वजह से ध्यान खींचती है.औपन्यासिक समय को समेटे हुए कम ही कहानियां हैं जहांकथाकार विवरणों की स्फीति से बचा हो.इस कहानी में विवरणों के सटीक चयन और वर्णन में बरती गयीसांकेतिकता ने जो सहज असर पैदा किया है उसे साधना जितेन जैसे कुशल कथा - शिल्पी के ही बूते की बात है.
कहानी लिखना वैसे भी कोई आसान काम नहीं है और एक सहज कहानी लिख ले जाना तो विरल कथाकारों से हीसध पाता है.


राजेश सकलानी
हिन्दी कथा की दुनिया में कई पीढ़ियां एक साथ सक्रिय हैं। नए रचनाकार नई भाषा और प्रयोगशीलता के साथ परिदृश्य को रोचक और गतिशील बनाते हैं। लेकिन कुछ के अनुरूप नहीं बन पाती। कुछ अटपटापन बचा रह जाता है। आधुनिक होने की कोशिश के चलते जीवन की बारिकियों तक पहुंचने के बावजूद कथानक में पात्र अजनबी से लगने लगते हैं। कहानी अपनी स्थानिकता और जातीय पहचान से छिटक जाती है। शायद यही कारण सामान्य पाठक की जगह सीमित विशेषज्ञ पाठक ने ले ली है। उत्कृष्ट और लोकप्रिय कहानी की जगह अनूठी कहानी ने ले ली है। यह सारी बातें जितेन ठाकुर की कोट लाहौर वाला (आउट लुक, मई 2009 ) पढ़कर दिमाग में आती रही। लगा कि जैसे अपने समाज की कहानी मिल गई। सचमुच एक उतकृष्ट कहानी जो बिना आरोपण के अपनी भारतीय उप महाद्वीप की सांस्कृतिक निरन्तरता को सहजता के साथ प्रकट करती है। इसमें कथा समय काफी विस्तृत है। रियासत के दिनों को जिक्र है। इसे आजादी से पहले किसी समय से शुरू हुआ मान सकते हैं। आखिरी पंक्ति बिल्कुल आज के समय पर टिप्पणी करती है- 'क्यों अब इस मुल्क में लाहौर की चीजें बेची जाती हैं, खरीदी जाती हैं" यह एक बड़ा वक्तव्य है। यह पिछले इतिहास को कोमल तरह से देखने परखने की विनम्र गुजारिश भी है और अपनी जातीय स्मृतियों में छिपी सांस्कृतिक रचना पर फिर से गुजरने की मार्मिक अपील भी है। यह बेहूदा और आततायी वैश्वीकरण की जगह सदभावनापूर्ण विस्तरण (expainsion)कीशुरूआत भी करती है। इस सारे उपक्रम के लिए जितेन ने बहुत सरल और लगभग विस्मृत कर दी गई देशज भाषा का सहज प्रयोग किया है। लगता है अपने घर परिवार के बड़े बूढ़ों के माध्यम से चली रही भाषा औरकथा का नया रूप दे दिया है। यह कथा सांप्रदायिकता और वैमनस्यता को निश्छलता पूर्वक अस्वीकार कर देती है। यह भी याद नहीं रहता कि लाहौर पाकिस्तान में है और जिसे लेकर तमाम अखबार और दृश्य माध्यम गैर जिम्मेदार तरीके से और तमाम खतरों को उभारते हुए नकारात्मक तरीके से प्रस्तुत कर रहे है।


कोट लाहौर वाला
जितेन ठाकुर
09410925219


वो एक शानदार कोट था। चमकदार रोएं वाले ट्वीड के कपड़े का बेहतरीन कोट। इस कोट को शानदार बनाने में इसकी कसाव भरी सिलाई का भी हाथ था। कोट कहाँ सिला गया- यही दर्शाने के लिए दर्जी ने कोट की अंदरूनी जेब पर एक "टैग" सिल दिया था। टैग इतनी सफाई से सिला गया था कि उसके सिले जाने पर ही द्राक होता था। पहली नजर में तो ये टैग चस्पां किया हुआ ही दिखलाई देता। इस टैग पर लाहौर के किसी बाजार की एक दुकान का पता दर्ज था। कोट जितनी सफाई और नफासत से सिला गया था, अस्तर का कपड़ा भी उतना ही मुलायम और चमकदार था। कोट की सारी जेबों को ढ़कते हुए तिरछे कटे हुए कान बेमिसाल कारीगिरी की जुबान थे। सिर्फ एक पतली जेब, जिसे यकीनन फांउटेन पैन रखने के लिए ही बनाया गया था, खुली हुई थी और उसे ढ़कने के लिए किसी भी कोण से जामा नहीं बिठाया गया था।
कोट पर टांके गए बटन भी चमड़े की कारीगिरी का एक बेहतरीन नमूना थे। बराबर लम्बाई में काटी गई चमड़े की चकोर कतरनों को एक दूसरे के ऊपर से निकाल कर कुछ ऐसा सिलसिला बनाया गया था कि उन्होंने गोल मुलायम बटन की द्राक्ल इख्तियार कर ली थी। जितनी चमक कोट के कपड़े और अस्तर में थी उतनी ही चमक चमड़े के इन बटनों में भी थी। कहा जा सकता है कि ये कोट हर तरह से कारीगिरी का एक बेहतरीन नमूना था।
बदनसीबी ये थी कि ये कोट यूरोप के किसी देश में नहीं सिला गया था। इसीलिए इस कोट पर न कोई गीत लिखा गया, न कोई अफसाना घड़ा गया। अलबत्ता, लाहौर, के पास एक छोटी सी पहाड़ी रियासत के लोग इस कोट को देख कर जरूर ललचाते थे। कफ और कालर पर चमकदार काली मखमल लगी रियासत के दूसरे अहोदेदारों की बेशकीमती अचकनों के बीच भी ये कोट अपनी अलग आब रखता। यूँ कहें कि ये कोट रियासत में एक मिसाल था, तो गलत नहीं होगा। पर इस पहाड़ी रियासत के अनपढ़-गरीब मेहनतकशों के पास दो जून की रोटी के सिवा जिंदगी के और किसी भी सपने के लिए गीत गाने की ललक नहीं थी। बस सिर्फ एक बार, जब इस रियासत का राजा लाहौर से कार लेकर आया था, तब गूजरों की भीड़ कार के पीछे-पीछे भागती हुई सम्वेत स्वर में गा रही थी- 'राजो आयो, लारी को बच्चों लायो"- और समूहगान का यह दिन, रियासत की स्मृतियों में, किसी धरोहर की तरह सहेज लिया गया था।
ठीक उसी दिन राजा की अगवानी के लिए जुटी बीसीयों अहोदेदारों, टहलकारों और रियासत के सैंकड़ों बाशिंदों की भीड़ में, कसी हुई बिरजिस पर यही कोट पहने हुए और कमर पर किरिच लटकाए हुए कुमेदान ने फख्र से अपने चारों ओर देखा था और तन गया था। लोगों ने देखा कि कार के पायदान पर पैर टिका कर उतरते हुए राजा के जिस्म पर भी ठीक ऐसा ही कोट कसा हुआ है। ---और तब अहोदेदारों की बीसियों चमकदार अचकनों की चमक अचानक फीकी पड़ गई थी।
दरअसल, यह कोट सिला ही रियासत के राजा के लिए गया था। पर उसी बीच एक ऐसा हादसा गुजरा कि द्राहर तौबा-तौबा कर उठा। ये हादसा हुआ था राजा के शिकारी काफिले के साथ। चीते को गोली लग चुकी थी और चीता झाड़ियों में बेदम पड़ा था। पता नहीं ये चूक चीते पर नजर रखने वालों से हुई थी या फिर चीता ही सिरे का फरेबी था। पर करीब घंटा भर से मुर्दा पड़े चीते को जैसे ही कुमेदान ने बंदूक से ठेला, दर्द भरी भयानक गुर्राहट के साथ चीते ने कुमेदान पर हमला कर दिया। कुमेदान की एक पूरी बांह चीते के मुँह में समा गई। हा-हा कार करती हुई भीड़ भाग निकली। दर्द से छट-पटाते कुमेदान ने एक-एक को नाम लेकर पुकारा, पर कोई लौट कर नहीं आया। अंत में, कुमेदान ने ही एक हाथ से बंदूक भरी, कांछ के नीचे दबाई, नली को गुर्राते और बांह चबाते हुए चीते की दोनों आंखों के बीच में टिकाया और ट्रिगर दबा दिया। धमाके की भयानक आवाज के साथ उछलकर एक तरफ चीता गिरा था और दूसरी तरफ कुमेदान।
करीब डेढ़ साल बाद जब ठीक होकर कुमेदान पहली बार दरबार में आया तो बहादुरी की इस मिसाल के लिए दूसरे बहुत से तोहफों के साथ राजा ने अपना ये कोट भी कुमेदान को दिया था।
अब रियासत में ऐसे दो कोट थे। एक राजा के पास और दूसरा कुमेदान के पास। कुमेदान जब ये कोट पहन कर घोडे पर निकलता तो राहगीर फुस-फुसा कर एक-दूसरे को बताते ''देखो! कोट, लाहौर वाला''। पर कुमेदान ये कोट पहन कर हर घोड़े की सवारी नहीं करता था। पाँच घ्ाोड़ों में से एक काला घोड़ा, जिसके माथे पर नेजे के फल जैसा सफैद बालों का टीका था, उसी की सवारी के दिन कुमेदान ये कोट पहनता। या यूँ कहें कि कुमेदान जिस दिन ये कोट पहनता उस दिन उसी खास घोड़े की सवारी करता। पर एक दिन साईस की गलती से वही काला घोड़ा लंगड़ा हो गया और घोड़े को गोली मार दी गई।
कुमेदान के लिए साईस की ये गलती नासूर बन गई। उसने घोडे की मौत को बरदाच्च्त करने की कोशिश की- पर नहीं कर पाया। साईस को कोड़े मारने की सजा सुनाई गई। कोड़ों की मार के शुरूआती दौर में साईस चीख-चीख कर अपनी बेगुनाही बयान करता रहा और रहम की भीख मांगता रहा। पर जब उसे यकीन हो गया कि उसकी आवाज का किसी पर कोई असर नहीं होगा तो उसने कुमेदान को कोसना और बद्दुआएँ देना शुरू कर दिया। गालियों के साथ कोड़े की मार बढ़ती गई और साईस की सांसें घटती गईं। अब इसे साईस की बद्दुओं का असर कहें या फिर कुदरत का खेल कि अगले साल ठीक उसी दिन कुमेदान भी चल बसा जिस दिन घोड़े को गोली मारी गई थी। कुमेदान की याद में सहेज कर रखी गई बहुत सी चीजों में खाल के लबादे का और लाहौर वाले कोट का अपना एक अलग मुकाम था।

फिर बंटवारें के दिन आए। इस पहाड़ी रियासत को चारों ओर से कबायली हमलावरों ने घेर लिया। बेताड़ नाले के उस पार से चलाई जा रही कबायलियों की गोलियों से घरों की दीवारें छलनी होने लगीं। द्राहर छोड़ने के सभी रास्ते कबायलियों के कब्जे में चले गए और ये रियासत, दुनिया से कटा हुआ एक टापू बनकर रह गई। तभी एक दिन ऐलान हुआ कि रसद लेकर आने वाले फौजी-जहाज में जो यहाँ से निकलना चाहते हैं- तैयार हो जाएँ। पर माली जहाज में इतनी जगह नहीं थी कि आदमियों के साथ असबाब भी जा सके। इसलिए छोटी-छोटी गठड़ियां उठाए हुए लोगों ने जब इस द्राहर को अलविदा कहा तो ऐसी ही एक गठरी में लिपटा हुआ 'कोट लाहौर वाला" भी अपनी उम्र के सुनहरे वर्क को फाड़ कर रियासत से विदा हो गया।

धीरे-धीरे रियासत से विदा हुए काफिलों की पीढ़ियाँ बीत गईं। बच्चे जवान हुए, जवान-बूढे और बूढ़े विदा हो गए। पर उस कोट का खोया हुआ सम्मान फिर नहीं लौटा। कभी रियासत की रौनक कहालने वाला यह कोट अब महज सर्दी से बचने की चीज बनकर रह गया था। रोज-रोज बदलती जिंदगी की जंग में अतीत की चिंदियों का वजूद और हो भी क्या सकता था। पर हद तो ये थी कि इस भरपूर उपेक्षा के बावजूद कोट के रेच्चों में पहले जैसी ही चमक बरकरार थी। चमडे के नर्म बटन पहले ही कि तरह नर्म और मुलायम थे और अंदरूनी जेब पर टांका गया लाहौर के बाजार का टैग पहले ही की तरह साफ-सुथरा और चस्पां किया हुआ दिखलाई देता था। न तो जेबें ही लटकी थीं और न ही अस्तर ने अपनी, आब खोई थी। हैरानी तो इस बात की थी कि उम्र की एक सदी जी लेने के बाद भी अभी इस कोट में जीने की ललक बरकरार थी। पर एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि कोट ही चोरी हो गया।
पंतग और मांझा खरीदने के लिए घर के ही किसी नादान की नादानी से हुई इस चोरी की एक अलग कहानी है, पर कुनबे के लिए चोरी का सदमा गहरा था। जब तक कोट था, गुजरे हुए कल का सुनहरा वर्क फड़-फड़ाता था, जिसके सहारे ये कुनबा बार-बार चीथड़ा होते रौच्चनी के दायरों को सहेजने में कामयाब हो जाता था। पर आज इन्हें लगा जैसे माथे पर नेजे के फल वाला, काला घोड़ा, फिर लंगड़ा हो गया है और अब उसे गोली मारने के सिवा और कोई चारा नहीं बचा है।


लम्बी गुमशुदगी के बाद, एक सुबह पुराने कपड़ो से भरी एक ठेली पर वो कोट दोबारा दिखलाई दिया। मैल और चिकनाहट ने उसके रेशों की चमक को दबाने की भरपूर कोशिश की थी, पर किसी जिद्दी बच्चे की किलकारी की तरह उस कोट में चमक का लिश्कारा अब भी बाकी था। यह बात और है कि फांउटेन पैन रखने के लिए शौक से बनाई गई कोट की जेब अब सलामत नहीं थी। दूसरी जेबों को ढ़कने और उनकी हिफाजत करने वाले तिरछे कटे हुए कान-अब चिकनाई वाले हाथ पौंछने से चीकट हो चुके थे। कोट की किसी भी जेब से तम्बाकू के साथ मसले हुए भांग के सूखे पत्तों का चूरा बरामद किया जा सकता था और अस्तर भी छिछरा चुका था। ताज्जुब नहीं अगर किसी ने इसे नया बर्तन खरीदने के एवज में अपने पुराने कपड़ों के साथ बेच दिया हो।
पर ये तय था कि सौदागन ने बेचने के लिए ठेली पर रखने से पहले इस कोट को किसी घटिया साबुन से धोया था और बेतरतीबी से प्रैस भी किया था। इसीलिए इसके रेच्चों में अब भी चिकनाई और सलवटों में झुर्रियाँ मौजूद थीं। पर हैरानी तो ये कि लाहौर के बाजार की दुकान वाला वो टैग अब कोट की अंदरूनी जेब पर चस्पां नहीं था। वहाँ लंदन की किसी दुकान का पता करीने से छपा और चिपका हुआ था।
--- क्योंकि अब इस मुल्क में लाहौर की चीजें न बेची जाती हैं - न खरीदी जाती हैं।

Friday, December 5, 2008

साहित्य धंधा नहीं है, जनाब!

यह आम बात है कि कई बार बातचीत के दौरान वक्ता अपनी बात को रखने के लिए कुछ ऐसे मुहावरों को प्रयोगकर लेते हैं जो गैर जरूरी तरह की टिप्पणी भी हो जाती है। जो अपने मंतव्य में वक्ता के ही उदगारों के विरुद्ध हो जारही होती है। ऐसी स्थितियां क्या कई बार रचनाओं में भी नहीं दिख जा रही होती हैं ? मुझे लगता है कि अवचेतन मेंमौजूद किसी विषय की अस्पष्टता ही ऐसी गैर जरूरी टिप्पणियों के रूप में रचनाओं में भी और बातचीत में दिखजाती है। वरना अध्यनशील लोगों के लिए यह चिन्हित करना कोई मुश्किल काम नहीं कि क्या बात तार्किक रूप सेगलत है और जिसे नहीं कहा जाना चाहिए। वो तो अवचेतन ही है जहां हमारे मानस की वह महीन बुनावट होती हैजिसमें हम अपनी तमाम कमजोरियों के साथ पकड़ लिए जाते है। कथाकर जितेन ठाकुर का यह आलेख ऐसी हीस्थितियों पर चोट करता है और गैर जरूरी तरह से की जाने वाली टिप्पणियों की पड़ताल करता है।

जितेन ठाकुर

मौका था एक उदीयमान लेखक के पहले कथा संग्रह पर आयोजित संगोष्ठी का। संगोष्ठी में चर्चाओं का दौर, सहमति-असहमति, शिक्षा-दीक्षा सभी कुछ उफान पर था। पुस्तक की समीक्षा में सम्बंधों का निर्वाह भी हो रहा था और निर्ममता भी बरती जा रही थी। 'मैं लिखता तो ऐसे लिखता" की तर्ज पर कहानियों की चीर-फाड़ जारी थी। तभी महफिल की शमा एक स्वनामधन्य कवि के सामने पहुँच गई। कविराज ने अपने पहले ही वाक्य में साहित्य को 'धंधा" बतलाया तो मुझे हंसी आ गई। बात गम्भीर थी- हंसी की तो बिल्कुल भी नहीं थी। पर पता नहीं क्यों मुझे हंसी आ गई। मुझे समझ लेना चाहिए था कि यह वक्ता का नितांत व्यक्तिगत अनुभव है और इसे वक्ता से ही जोड़ कर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। पर सोच की जिस पैनी कनी ने मुझे तत्कला छील दिया था वह यह थी कि अगर साहित्य को धंधा मान लिया जाए तो लेखकों को तो धंधे वाला कह कर निपटाया जा सकता है पर लेखिकाओं को कैसे सम्बोधित किया जाएगा।
बहरहाल! मेरे हंसने के बाद वक्ताश्री सतर्क हो गए और अपनी कही हुई बात को सिद्ध करने की मुहिम में लग गए। अनेक उदाहरण देकर उन्होंने सिद्ध किया कि हम सब झूठ घड़ते हैं। ये झूठ की हमें साहित्यकार बनाता है, स्थापित करवाता है और बदले में ढेरों लाभ भी दिलवाता है। अब ये उन स्वनाम धन्य कवि का स्वानूभूत सत्य था, अतिरेक था या फिर अति आत्मविच्च्वास। पर ये जो भी था साहित्य के परिप्रेक्ष्य में व्यावसायिक दृष्टिकोण के साथ नकारात्मक सोच के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था।
जिस प्रकार कोई भी धंधा साहित्य नहीं हो सकता ठीक उसी प्रकार साहित्य भी धंधा नहीं हो सकता। साहित्य से जुडे अन्य सभी कर्म यथा छापाखाना, जिल्दसाजी विक्रय और प्रबंधन धंधा हो सकते हैं। साहित्य की आड़ लेकर पद, प्रतिष्ठा और पुरुस्कार हथियाने के लिए पैंतरे बाजी करना भी धंधा हो सकता है। साहित्यक चेले इठे करके महंत हो जाना, प्रायोजित चर्चाएं करना-करवाना, पुरुस्कारों की होड़ में सौदे पटाना, इसको उठाना- उसको गिराना यानी साहित्य की आड़ में ये सब धंधे हो सकते हैं पर इन सब कृत्यों की नींव में दफ्न साहित्य न कल धंधा था- न आज धंधा है। साहित्य को धंधा बना दिया जाए ये और बात है पर साहित्य धंधा हो जाए- ये मुमकिन ही नहीं है। इसलिए परिस्थितियों का सरलीकरण करते हुए साहित्य को धंधा कहने या फिर साहित्य कर्म को 'झूठ घड़ने" का फतवा देने से पहले आवच्च्यक है कि आत्म मंथन किया जाए। यह शोभनीय नहीं कि हम अपने को अपने से ही छुपाने की को्शिश में उन सब पर कीचड़ उछाल दें जो आज भी साहित्य को साहित्य ही मानते हैं- धंधा नहीं।
दरअसल, साहित्य जीवन की एक द्रौली है। तटस्थ और शुश्क इतिहास की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है। तीर और तलवार से पैनी और बारूद से अधिक विध्वंसक होते हुए भी जल से ज्यादा शीतल और प्रवाहमय है। साहित्य समय की अर्न्तधारा है, केवल स्थूल चित्रात्मकता नहीं। समाज की शिराओं में बहता हुआ लहू हैं साहित्य। साहित्य कंठ से नीचे उतरता कौर नहीं है बल्की श्वास नलिका में रिसती हुई प्राण-वायु है। साहित्य संस्कार है, आचमन है और तर्पण भी है साहित्य। शवों की सीढ़ियाँ चढ़ कर सिंहासन तक पहुँचने वालों के लिए चुभते रहने वाली कील है साहित्य। और यही साहित्य किसी प्रलंयकारी रात में सूरज की उम्मीद भी है।
साहित्य चेतना है, स्वाभिमान है और आत्ममंथन के लिए भी है। ऐसे में साहित्य को धंधा कहना किसी व्यापारी का दृष्टिकोण तो हो सकता है पर किसी साहित्यकार का नहीं।
साहित्य न तो त्रिवेणी में डुबकी का मोहताह है न हज का। न तो अमृत छकने में साहित्य बनता है और न ही शराब में भीगी रोटी जुबान पर छुआने से। इसे न तो कालिंदी तट की रास लीलाएँ दरकार हैं और न ही किसी आराध्य की एकांत उपासना। कोई दृद्गय, कोई स्थिति, कोई विचार, समय या समाज इनमें से कुछ भी अकेला साहित्य हो जाए ये सम्भव ही नहीं हैं- पर साहित्य इनमें से कुछ भी हो सकता है। क्योंकि साहित्य अनुकृति नहीं है सृजन है और सृजन की सीमाएँ नहीं होतीं। जिसकी सीमाएँ नहीं उसका व्यापार कैसा?
दरअसल जब हम साहित्य को धंधा कहते हैं तो हम आत्मप्रवंचना से भरे हुए होते हैं। हमें लगता है कि हमारा कहा हुआ वाक्य ही समय है और यही युगों के शिलालेख पर अंकित होने जा रहा है। आत्मकुंठा और आत्ममुग्धता के बीच की स्थितियों से गुजरते हुए, अपने होने के अहसास को बनाए रखने के लिए हम कई-कई बार ऐसी घोषणाएँ करते हैं- जो हमारे वजूद के लिए दरकार होती हैं। हम मान लेते हैं कि हमारा झूठ समय का झूठ है, हमारी कुंठा समय की कुंठा है। हम अपनी प्रवंचना को समय के साथ गूंथ कर उसे कालजयी बना देना चाहते हैं। हम यह सिद्ध कर देना चाहते हैं कि हम श्वास नहीं लेते फिर भी जीते हैं, हम नेत्र नहीं खोलते फिर भी देखते हैं। हमारे कान वो सब सुन सकते हैं जो पीढ़ियों पहले से वायुमण्डल में अटका हुआ है और हमारी जीह्वा जो कहती है- वही सत्य है। इसलिए जब हम कहें कि साहित्य धंधा है- तो उसे धंधा मान ही लिया जाए। नहीं तो इसे सिद्ध करने के लिए हमारे पास दलीलें हैं। हम जिरह कर सकते हैं और इस जिरह के लिए लावण्यमयी भाषा भी घड़ सकते हैं।
मुझे याद आता है कि वर्षों पहले अनेक संगोष्ठियों में साहित्य के कुछ पंडित अपना पांडित्य प्रदर्शित करते हुए बार-बार एक ही बात कहते थे कि साहित्य के पास अब पाठक नहीं रहा। साहित्य के पास पाठक रहा या नहीं- ये एक अलग बहस की बात हो सकती है पर उनके इस कथन में जो अर्थ निहित था वो यही था कि 'हे लेखक! हमारी शरण में आ जाओ क्योंकि साहित्य में तुम्हें स्थापित करने वाला पाठक अब शेष नहीं है। हमारे शरणागत होने के बाद ही तुम स्थापित और चर्चित हो पाओगे।" बहुत से लेखकों ने इस कथन के निहितार्थ को भांपा और शरणागत हुए। ऐसे ही साहित्य को धंधा बताने वाले स्वनामधन्य भी यदि नये लेखकों को अपने धंधे के गुर सिखाने के लिए कोई नया संस्थान खोल लें तो आश्चर्य नहीं।
अरविंद त्रिपाठी ने एक बार कहा था कि यह महत्वपूर्ण है कि हम अपनी रचना के साथ कितना समय बिताते है। इसका यही अर्थ है कि हमने जो लिखा उसका गुण-दो्ष हमें तुरंत ही पता नहीं चलता क्यों कि हम लम्बे समय तक अपनी रचना के सम्मोहन में जकड़े रहते हैं। इस सम्मोहन से मुक्त होने के बाद ही हम तटस्थ होकर अपने लिखे हुए का विश्लेषण कर सकते हैं। फिर ये कितना उचित है कि किसी संगोष्ठी में प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुए विचार से कोई स्वयं ही इतना सम्मोहित हो जाए कि उसे प्रमाणिक बनाने और मनवाने के लिए इतना जूझे कि विवेक को ही ताक पर रख दे। पर शायद कुछ लोगों का यही धंधा है क्योंकि उनके लिए यही साहित्य है।

Friday, November 28, 2008

यादों के झरोखों से

हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार डॉ कुसुम चतुर्वेदी का लम्बी बीमारी के बाद 26 अक्टूबर 2008 को अखिल भारतीयआयुर्विज्ञान संस्थान में निधन हो गया था। रविवार 2 नवम्बर 2008 को संवेदना की बैठक में देहरादून केरचनाकारों ने अपनी प्रिय लेखिका को याद करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजली दी।
आगामी रविवार 30 नवम्बर 2008 को डॉ कुसुम चतुर्वेदी की पुत्री नीरजा चतुर्वेदी ने अपने निवास पर एक गोष्ठीआयोजित की है जिसमें जुलाई 2008 में प्रकाशित डॉ कुसुम चतुर्वेदी की कहानियों की पुस्तक मेला उठने से पहले पर चर्चा होनी है।
कथाकार जितेन ठाकुर डॉ कुसुम चतुर्वेदी के प्रिय शिष्यों में रहे हैं। डॉ कुसुम चतुर्वेदी पर लिखा गया उनका संस्मरण प्रस्तुत है।




जितेन ठाकुर

श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी नहीं रहीं। सुनकर सहसा ही विश्वास नहीं हुआ। बार-बार नियति से जूझने वाली, पराजय स्वीकार न करने वाली। एक अनुशासित शिक्षिका, एक ममतामयी माँ, एक अकेली आशंकित महिला और एक गम्भीर लेखिका। मैडम अब कभी दिखलाई नहीं देंगी- यह सोच पाना मेरे लिए सरल नहीं है। स्व0 श्रीमती चतुर्वेदी देहरादून की उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थीं जब आदमी को आदमी के पास बैठने की फुर्सत होती थी, मिल बैठ कर दुख-दर्द बांटे जाते थे, लिखने-लिखाने पर लम्बी बातचीत और बहस होती थी, सम्बंधों में अपनत्व की सुगंध होती थी और इस द्राहर के लोग एक दूसरे को आहट से पहचान लेते थे।
1981 में मैंने पहली बार मैडम चतुर्वेदी के द्वारा पर दस्तक दी थी। डरा सहमा हुआ मैं दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा था, किवाड़ श्री चतुर्वेदी ने खोले थे। लम्बा कद, गोरा रंग। भव्य व्यक्तिव के स्वामी थे, श्री चतुर्वेदी
"जी! मुझे श्रीमती नारंग ने भेजा है।" मैंने जैस-तैसे थूक निगल कर अपनी बात कही थी। घर का हरियाला परिसर, विशाल भवन और चमचमाते हुए फर्श मेरे भीतर हीन भावना भर रहे थे। प्रयत्न के बाद ही शब्द मेरे कंठ से बाहर आ पाए थे। उन दिनों ऐसे परिसर और भवन, भवनस्वामी की सुरूची और सम्पन्नता के प्रतीक हुआ करते थे।
"ओह! अच्छा तुम पी0एच0डी0 करना चाहते हो।" श्री चतुर्वेदी को शायद मेरे आने की जानकारी थी। मैं सहमा हुआ उनके साथ ड्राईंगरूम में प्रवेश कर गया और झिझकता हुआ सोफों से दूर पड़ी एक सैटी पर बैठ गया। कुछ समय बाद मैडम चतुर्वेदी ने ड्राईंगरूप में प्रवेश किया। उन्होंने एक बेहद सादी धोती पहनी हुई थी। लम्बे-लम्बे डग भरती हुई वे आकर सोफे पर बैठ गई थीं। उनकी बातचीत इतनी सरल और सहज थी कि मेरी कल्पना में भरा हुआ उनकी विद्वता का आतंक जाता रहा।
कुछ ही समय बाद चतुर्वेदी साहब का निधन हो गया था। चतुर्वेदी साहब का निधन उस परिवार को रीत देने के लिए पर्याप्त था। उनके साथ मेरा सानिध्य बहुत ही कम रहा पर मैंने जितना भी उन्हें जाना, वे केवल व्यक्तिव से ही भव्य और विशाल नहीं थे- विचारों से भी अत्यंत उदात और आधुनिक थे। उनका व्यक्तिव भी ऐसा था कि सहसा ही श्रद्धा उत्पन्न होती थी।
विवाह के बाद जब मैं पहली बार पत्नी सहित उस घ्ार में गया था और पत्नी ने चतुर्वेदी जी के चरण स्पर्श किए थे तो उन्होंने जो कहा था वो मुझे आज भी याद है। वे थोड़ा पीछे हटते हुए बोले थे
"बेटी झुको मत! अपने को ऊँचा उठाओ और सिर उठा कर जियो"
पर पास खड़ी हुई मैडम ने हंसते हुए अधिकार भरे स्वर में कहा था "आप पैर छुवाएं या न छुवाएं मैं तो पैर छुवाऊंगी। जितेन की पत्नी है मेरा तो पैर छुवाने का अधिकार बनता है।" ऐसा था वो घर- ऊर्जा और अपनत्व से भरा हुआ।
मैडम ने अपना ये अधिकार कभी छोड़ा भी नहीं। अपनी व्यस्तता अथवा अन्य कारणों से यदि मैं कुछ समय मैडम के यहाँ नहीं जाता तो मैडम, फौरन उलाहना देतीं "अच्छा! अब तुमने भी आना बंद कर दिया है।" और मैं चोरी करते हुए पकड़े गए बच्चे की तरह सफाई पेश करने लगता।
स्व0 चतुर्वेदी के निधन के बाद घर में बहुत उदासी और अकेलापन हो गया था। परंतु मैडम ने ऐसे में भी अपनी बेटी को अमेरिका जाने की स्वीकृति केवल इसलिए दे दी थी क्योंकि यह उनके स्वर्गीय पति की इच्छा थी। बेटी नीरजा के चले जाने के बाद जीवन में आए अकेलेपन और उदासी का उन्होंने अदम्य इच्छा शक्ति के साथ सामना किया था। घर की साफ-सफाई, मरम्मत-पुताई और जीवन की दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वो किसी पर ज्यादा आश्रित नहीं हुई थीं।
महिला लेखिकाओं में वो समय स्व0 शाशि प्रभा शास्त्री का था। दिल्ली में अपने सम्पर्क और बाद में दिल्ली प्रवास के कारण श्रीमती शास्त्री का वर्चस्व लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं पर था। लगभग उसी समय धर्मयुग में छपी अपनी कहानी 'उपनिवेश' से मैडम चतुर्वेदी ने चौंकाया था। देहरादून के ही एक नामी स्कूल पर लिखी गई यह कहानी अपने पीछे बहुत से प्रश्न छोड़ गई थी।
लेखन का वो दौर जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों को कलात्मक तरीके से पिरोने का दौर था। मैडम की कहानियों में उस दौर की विशेषताओं के साथ ही स्त्रीमन की अतृप्त इच्छाओं ओर आकांक्षाओं की एक सबल अन्तर्धारा भी मिलती है। सारिका में छपी एक लम्बी कहानी और 'तीसरा यात्री' नामक कहानियाँ स्त्रीमन की साहसपूर्ण अभिव्यक्ति है। मैडम ने जितना भी लिखा, स्तरीय लिखा। जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों को आपने सफलतापूर्वक उकेरा। पर अपने अकेलेपन को आपने कभी किसी दूसरे पर नहीं थोपा, न जीवन में- ना साहित्य में।
बढ़ती आयु के साथ गिरते हुए स्वास्थ्य ने उन्हें चिंतित कर दिया था। इस चिंता के पीछे अकेलेपन का एहसास भी प्रभावी था। पर सात समुंदर पार बैठी बेटी को वो अपनी समस्याओं से अछूता रखने का प्रयत्न करतीं। एक बार उन्होंने ही मुझे बताया था कि बेटी के पूछने पर उन्होंन बहुत से नाम गिनवा कर कहा था- 'यह सभी लोग तो मिलने आते रहते हैं, मैं अकेली कहाँ हूँ। यद्यपि वास्तविकता ये थी लोग बहुत-बहुत दिनों के बाद ही मिल पाते थे।
पहली बार उनकी बीमारी की सूचना मिलने पर जब मैं हस्पताल में उन्हें मिलने गया था तो बातचीत में यूं तो वो सामान्य दिख रही थीं पर उनकी स्मृतियों से जैसे कुछ मिट गया था। काफी देर तक बातचीत करती रही थीं फिर बोली थीं
"मुझे तो याद ही नहीं आता कि मैं कैसे इतनी बिमार हो गई"
एक बार जब आँख के किसी डाक्टर ने उन्हें कहा था कि "देखती आँख है- चश्मा नहीं।" तब भी वो चिंतित हुई थीं। एक रात किसी लक्ष्ण से आच्चंकित होकर जब वो कारोनेशन हस्पताल चली गई थीं- तब भी वो चिंतित थी। जब एक डाक्टर ने अपना फोन नम्बर देकर उन्हें कहा था कि आपको सिर्फ फोन करना है बाकी हम देख लेंगे- हमारी एम्बुलेंस फौरन पहुँच जाएगी" तब भी वो चिंतित थीं पर इस अंतिम बिमारी में वो चिंतित नहीं थी क्यों कि उनकी बेटी उनके पास थी।
मैं अक्सर देखता था कि वो एक बहुत बड़े कप में पिया करती थीं। ड्राईंगरूम में रखी हुई स्व0 चतुर्वेदी साहब की तस्वीर पर धूल का एक भी कण बैठने नहीं देती थीं। किसी ने किसी कारण से हमेशा उनके फ्रिज में मिठाई रहती। ये बेसन के लड्डू और लौकी की लाज भी हो सकती थी और नारीयल की बर्फी और मोतीचूर के लड्डू भी। यह सब वो बहुत स्नेह और आग्रह से खिलाती थीं। बहुत सी घटनाएँ जो पिछली बार मिलने के बाद से आज तक हुई थीं- सिलसिलेवार सुनातीं। पर इन सब बातों के बीच वो लिखने और लिखते रहने की बात को अक्सर टाल जातीं।
अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने वहाँ के बहुत से संस्मरण सुनाए थे। मिशिगन के मोहक फोटोग्राफ भी दिखलाए थे। तब मैंने उनसे बार-बार संस्मरण लिखने के लिए कहा था। उन्होंने उत्साह भी दिखलाया पर शायद ही वो पूरे संस्मरण लिख पाई हों।
मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि उनके पास औसत महिलाओं से कहीं अधिक तीक्ष्ण अर्न्तदृष्टि थी, विषयके मर्म को समझने की अद्भुत सामर्थ्य थी और बेहतर लेखकीय समझ थी। पर वो कभी भी इसे प्रकट नहीं करती थीं। उनके जीने की द्रौली बेहद सरल, सहज और एक घरेलू महिला जैसी थी। शिक्षिका होने का न दम्भ न लेखिका होने की दिखावट। सब कुछ स्वभाविक और प्राकृतिक परंतु सजग। उन्होंने मकान की नेम प्लेट हटवाकर वहाँ नया पत्थर केवल इसीलिए लगवाया था क्योंकि उसमें बेटी नीरजा का नाम खुदा हुआ नहीं था।
अपनी दिनचर्या में उन्हें जितनी चिंता मकान के फीके होते रंग-रोगन की सताती थी उतनी ही लान में खिलते और मुरझाते हुए फूलों की भी। उन्हें फर्श पर उभर आया दाग भी चिंतित करता था और बढ़ते हुए घास की कटाई भी। उन्हें अपने घर के रख-रखाव से उतना ही मोह था जितना किसी भी घ्ारेलु महिला को हो सकता है। सात समुंदर पार बैठी अपनी बेटी के एक-एक पल की उतनी ही चिंता थी- जितनी किसी ममतामीय मां को हो सकती है। वो अपने अकेलेपन से उतना ही आतंकित रहतीं- जितना इस आयु में कोई भी अकेली महिला रह सकती हैं। पर उनकी बातचीत में सदा एक संकल्प होता था। परिस्थितियों से जूझने की अद्भुत सामर्थ्य थी उनमें।
मैडम सदा चाहती थीं कि उनके यहाँ साहित्यकारों का जमावड़ा हो। संगोष्ठी हो पर हमेशा संकोच कर जातीं। पता नहीं क्यों आमंत्रित साहित्याकारों की आवभगत को लेकर वो सदा चिंतित रहा करती थीं। यही एक कारण था कि उनके चाहने पर भी उनके यहाँ बैठकें टलतीं रहीं।
आज जब मैडम स्व0 श्रीमती चतुर्वेदी हमारे बीच नहीं है- उन्हें याद करते हुए अंत में मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता और हमारे संस्कारों में एक महिल का जो बिम्ब बनता है- वो ठीक वैसी ही थीं। देहरादून के साहित्य जगत में वो सदा याद की जाएंगी।

Sunday, June 8, 2008

वो जो शख्स था कुछ जुदा-जुदा

जितेन ठाकुर 4, ओल्ड सर्वे रोड़,देहरादून-248001


वैनगॉर्ड के हिन्दी प्रष्ठों पर

उन्नीस सौ उन्हत्तर-सत्तर के दिन थे। हाईस्कूल के इम्तहान से फारिग होकर मैं कविताएँ लिखता और छपवाने के लिए शहर के छोटे-छोटे अखबारों के दफ्तरों के चर लगाता हुआ घूमता रहता था। उन दिनों शहर में कुल जमा चार-छ: अखबार थे। दो-दो, चार-चार पेज के छोटे-छोटे। यदि इनमें से किसी अखबार के खाली रह गए कोने में मेरी कविता छाप दी जाती तो मैं लम्बे समय तक तितलियों के पंखों पर बैठ कर फूलों पर तैरता। तब जमीन बहुत छोटी और आसमान बहुत करीब लगता था। कमीज की जेब में कविता डालकर साईकल पर उड़ते हुए धूप, बारिश और सर्दी की परवाह किए बिना जब मैं किसी अखबार के दफ्तर में पहुँचता था तो सामने बैठा सम्पादक अचानक बहुत कद्दावर हो जाता था। वो मेरी कविता के साथ लगभग वही व्यवहार करता था जो किसी रद्दी कागज के टुकड़े के साथ किया जा सकता है। मैं हताश हो जाता पर हिम्मत नहीं हारता था। दरअसल, उन दिनों दैनिक अखबार तो एक दो ही थे- बाकी सब साप्ताहिक अखबार थे। पर पता नहीं क्यों इन छोटे-छोटे अखबारों को हाथ में लेते ही भूरे-मटमैले कागजों पर छपी काली इबारतों का जादू मुझे जकड़ लेता था और मैं सम्मोहित सा उनमें समा जाता।
यही वो दिन थे जब मुझे किसी ने "वैनगॉर्ड" के बारे में बतलाया था। आधा हिन्दी और आधा अंग्रेजी का अखबार। सप्ताह में निकलने वाले इस अखबार के पहले दो पेज अंगे्रजी में और आखिरी दो पेज हिन्दी के हुआ करते थे। अलबत्ता पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को बटोरे गए विज्ञापनों से इसकी मोटाई कुछ बढ़ जाती थी और ये हमारे लिए एक बेहद खुशी का अवसर होता। इससे जहाँ एक ओर रचना छपने की सम्भावना बढ़ती वहीं दूसरी ओर विशेषांक में छपने का गौरव भी हासिल होता था। इतने छोटे आकार, नगण्य सम्भावनाओं और सीमाओं के बावजूद भी यदि वैनगॉर्ड के हिन्दी प्रष्ठों के छपकर आने की प्रतीक्षा की जाती थी तो उसके पीछे महज एक शख्स की ताकत थी और वे थे सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ "कवि जी"। हैरानी तो ये कि यह प्रतीक्षा महज देहरादून में ही नहीं देहरादून से बाहर भी होती थी।

मशीनों की घड़घड़ाहट में

वो गर्मियों की चिलचिलाती धूप वाली एक सुनसान सी दोपहर थी जब मैं वैनगॉर्ड के दफ्तर में पहली बार पहुँचा था। पता नहीं उन दिनों सचमुच ये शहर कुछ ज्यादा बड़ा था या फिर किशोर मन के आलस्य के कारण करनपुर से कनाट प्लेस की दूरी, खासी लम्बी महसूस होती थी। जल्दी पहुँचने की कोशिश में मैने साईकिल तेज चलाई थी और अब हांफता हुआ मैं वैनगार्ड के दफ्तर के उस कोने में खड़ा था, जहाँ एक मेज के तीन तरफ कुर्सियाँ लगाकर बैठने का सिलसिला बनाया गया था। इसी के पीछे छापे खाने की चलती हुई मशीनों की घड़घड़ाहट थी, नम अंधेरे में फैली हुई कागज और स्याही की महक थी और काम कर रहे लोगों की टूट-टूट कर आती आवाजों का अबूझ शोर था।
"किससे मिलना है?" छापे खाने वाले बड़े दालाना नुमा कमरे से बाहर आते हुए एक आदमी ने मुझसे पूछा। सामने खड़ा सांवला सा आदमी पतला-दुबला और मझोले कद का था। सिर के ज्यादातर बाल उड़ चुके थे अलबत्ता मूँछों की जगह बालों की एक पतली सी लकीर खिंची हुई थी। पैंट से बाहर निकली हुई कमीज की जेब में एक पैन फंसा हुआ था और कलाई पर चमड़े के स्टैप से कसी हुई घड़ी।
""कवि जी से।'' मैंने झिझकते हुए कहा
"क्या काम है?" उन्होंने फिर पूछा
"कविता देनी है।"
"लाओ।" मैने झिझकते हुए कविता पकड़ा दी। समझ नहीं पाया कि ये आदमी कौन है। कविता पढ़ कर लौटाते हुए बोले
"कभी प्यार किया है।"
मैं शरमा गया। उन दिनों सोलह-सत्तरह साल का लड़का और कर भी क्या सकता था।
"पहले प्यार करो-फिर आना।" वो हंसे
तो यही थे सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ कवि जी जो उस समय मेरी कल्पना में किसी भी तरह खरे नहीं उतरे थे। दरअसल वो एक ऐसा दौर था जब किसी कवि की बात करते ही दीमाग में पंत और निराला के अक्स उभर आते थे कुलीन और सम्भ्रांत। पैंट और कमीज में भी कोई बड़ा कवि हो सकता है- उस समय मेरे लिए ये सोचना भी कठिन था और फिर कवि जी तो बिल्कुल अलग, एक साधारण मनुष्य दिखाई दे रहे थे- कवि नहीं।
छापे खाने से अजीबो-गरीब कागजों पर खुद कर आए काले-गीले अक्षरों को काट-पीट कर प्रूफ रीडिंग करते हुए, सिग्रेट या बीड़ी का धुआँ उगलते हुए और मद्रास होटल की कड़क-काली चाय पीते हुए बीच-बीच में कवि जी कविता के बारे में जो कुछ भी समझाते थे- वो मेरे जैसे किच्चोर के लिए खुल जा सिम-सिम से कम नहीं था। मैं कविता लिख कर ले जाता तो कवि जी उसके भाव, बिम्ब और शब्दों पर मुझसे बात करते। गीत लिखकर ले जाता तो मात्रा और मीटर के बारे में समझाते। कवि जी ये सब बहुत मनोयोग से किया करते थे- बिल्कुल उसी तरह जैसे एक पीढ़ी, अपनी विरासत दूसरी पीढ़ी को बहुत चाव और हिफाजत के साथ सौंपती है। साहित्य के क्षेत्र में यही मेरी पहली पाठशाला थी।

देहरादून में साहित्य की पाठ्शाला

मैं ही नहीं धीरेन्द्र अस्थाना, नवीन नौटियाल, अवधेश, सूरज, देशबंधु और दिनेश थपलियाल जैसे कई दूसरे युवा लेखकों के लिए वैनगार्ड उस समय किसी तीर्थ की तरह था। सब अपनी रचनाएँ लाते और कवि जी को पढ़ाते। देहरादून के लगभग सभी लेखक-कवि कमोबेश "वैनगॉर्ड" में आया ही करते थे और वहाँ घंटों बैठा करते थे। अप्रतिम गीतकार वीर कुमार 'अधीर" और कहानी के क्षेत्र में मुझे अंगुली पकड़कर चलाने वाले आदरणीय सुभाद्गा पंत से भी मेरी पहली मुलाकात यहीं पर हुई थी। ये वैनगार्ड के मालिक जितेन्द्र नाथ जी की उदारता ही थी कि उन्होंने कभी भी इस आवाजाही और अड्डेबाजी पर रोक-टोक नहीं की। ये वो दिन थे जब कवि जी का किसी कविता की तारीफ कर देना- किसी के लिए भी कवि हो जाने का प्रमाण-पत्र हुआ करता था।
वे तरूणाई और उन्माद भरे दिन थे इसलिए हमें परदे के पीछे का सच दिखलाई नहीं देता था। पर आज सोचता हूँ तो कवि जी के जीवट का कायल हो जाता हूं। एक छोटे से छापे खाने में लगभग प्रूफ रीडर जैसी नौकरी करते हुए घर परिवार चलाना और दुनियादारी निभाना कोई सरल कार्य नहीं था। पर मैंने शायद ही कभी कवि जी को हताश देखा हो। वो जिससे भी मिलते जीवंतता के साथ मिलते। अपनी भारी आवाज को ऊँचा करके आगंतुक का स्वागत करते, बिठाते, चाय पिलाते और कभी-कभी तो मद्रास होटल का साम्बर-बढ़ा भी खिलाते थे अगर देखने को प्रूफ नहीं होते तो इतना बतियाते कि घड़ी कितना घड़िया चुकी है इसका होश न उन्हें रहता न सामने वाले को। हाँ! अलबत्ता शाम को वो कभी भी मुझे अपने साथ नहीं रखते थे। ये समय उनके पीने-पिलाने का होता था। अपने लम्बे साथ में मुझे ऐसा एक भी दिन याद नहीं आता जब उन्होंने मुझसे द्राराब की फरमाईश की है।
कवि जी के पास कलम का जो हुनर था वो उसी के सहारे अपने को इस दुनिया के भंवर से निकालने की कोशिश में लगे रहे। आर्थिक निश्चिंतता की कोशिश में ही उन्होंने पहले अपना एक अखबार निकाला था जब वो नहीं चला तो हरिद्वार में एक दूसरे अखबार में नौकरी कर ली। पर वहाँ से भी उन्हें वापिस आना पड़ा। सचमुच ये वैनगार्ड के स्वामी जितेन्द्र नाथ ही थे कि उन्होंने उज्जवल भविष्य की तलाश में जाते कवि जी को न तो जाने से रोका और न ही असफल होकर लौटने पर उन्हें दर-ब-दर होने दिया।

दूरदर्शन पर देहरादून का पहला कवि

उन दिनों की प्रतिनिधि पत्रिकाओं कादम्बिनी, माया और मनोरमा के साथ ही पंजाब केसरी और ट्रिब्यून योजना आदि में भी कवि जी की रचनाएँ छपा करती थीं। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो कवि जी ही दूरदर्शन दिल्ली पर काव्य पाठ करने वाले देहरादून के पहले कवि थे। कवि जी जिस दिन आकाशवाणी से भुगतान लेकर लौटते या फिर किसी पत्रिका से पैसे आते उनकी वो शाम एक शहंशाह की शाम होती। कुछ लोग अपने आप जुट जाते थे और कुछ को संदेश भेज कर बुलाया जाता। फिर कवि जी इस "उल्लू की पट्ठी" दुनियो को फैंक दिए गए सिग्रेट की तरह बार-बार पैरों से मसलते और तब तक मसलते रहते जब तक कि उन्हें इसके कस-बल निकलने का यकीन न हो जाता। वो न तो अपनी कमियों पर परदा डालते थे और न ही अपनी खुशियाँ छुपाते थे। पर अपनी परेशानियों का जिक्र कम ही किया करते थे। दुर्घटना में अपनी एक बेटी की मृत्यु के बाद तो जेसे वो टूट से गए थे और लम्बे समय तक सामान्य नहीं हो पाए थे। पर उन्होंने तब भी किसी की हमदर्दी पाने के लिए अपनी आवाज की खनक को डूबने नहीं दिया था अलबत्ता बेटी का जिक्र आते ही वो कई बार फफक कर रो पड़ते थे।
उन दिनों देहरादून में कवि गोष्ठियों का प्रचलन था। लगभग हर माह किसी न किसी के यहाँ एक बड़ी कवि गोष्ठी होती। स्व0 श्री राम शर्मा प्रेम, कवि जी, श्रीमन जी इन गोष्ठियों की शोभा हुआ करते थे। और भी बहुत से कवि थे जिनका मुझे इस समय स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि आदरणीय विपिन बिहारी सुमन और रतन सिंह जौनसारी के गीतों की धूम थी। जिस गोष्ठी में ये दोनों न होते वो गोष्ठी फीकी ही रह जाती। सुमन जी के वासंती गीतों की मोहक छटा और जौनसारी जी की प्रयोगधर्मिता- गोष्ठियों के प्राण थे। ये एक प्रकार से बेहतर लिखने की मूक प्रतिद्वंदिता का दौर था। रामावतार त्यागी और रमानाथ अवस्थी से अगली पीढ़ी के ऐसे बहुत से गीतकारों को मैं जानता हूँ जिन्होंने अपने एक-दो लोकप्रिय गीतों के सहारे पूरी आयु बिता दी- उनकी बाकी रचनाएँ कभी प्रभावित नहीं कर पाईं। पर बहुत आदर के साथ मैं स्व0 रमेश रंजक और रतन सिंह जौनसारी का नाम लेना चाहूँगा जिन्होंने अपनी हर रचना में नया प्रयोग किया और सफल रहे।

गोष्ठियों का शहर

बहरहाल, ऐसी ही एक गोष्ठी में मैं पहली बार कवि जी के साथ ही गया था। कविता पढ़ने की उत्तेजना और गोष्ठी के रोमांच ने मुझे उद्वेलित किया हुआ था। किसी ने नया मकान बनाया था उसी के उपलक्ष्य में गोष्ठी का आयोजन किया गया था। मकान में अभी बिजली भी नहीं लगी थी इसलिए मोमबत्तियों की रौशनी में गोष्ठी हुई थी। मैंने भी किसी गोष्ठी में पहली बार अपनी कोई रचना पढ़ी थी। निच्च्चय ही कविता ऐसी नहीं होगी कि उस पर दाद दी जा सके इसीलिए सारे कमरे में सन्नाटा छाया रहा था पर कवि जी "वाह वाह" कर रहे थे। मेरा मानना है कि कवि जी के इसी प्रोत्साहन ने मुझे लेखन से जोड़े रखा और आगे बढ़ाया।

साहित्य की दलित धारा

कवि जी ने कई बार लम्बी बीमारियां भोगीं। कुछ अपने शौक के कारण और कुछ प्राकृति कारणों से। परंतु उनमें अदम्य जीजिविषा थी। वो जब भी लौट कर अपनी कुर्सी पर बैठे- पूरी ठसक के साथ बैठे। न उन्होंने हमदर्दी चाही- न जुटाई। कवि जी न तो अपनी कमजोरियों को छुपाते थे और न ही उन पर नियंत्रण पाने की कोशिश ही करते थे। जैसा हूँ- खुश हूँ वाले अंदाज में उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया। कवि जी अपने मित्रों की उपलब्धियों से भी उतना ही खुश होते थे जितना अपनी किसी उपलब्धि से। वो हर मिलने वाले से अपने मित्रों की चर्चा बड़े चाव और गर्व से किया करते थे। वो अक्सर श्याम सिंह 'शशि", शेरजंग गर्ग, विभाकर जी, अश्व घोष, विजय किशोर मानव और धनंजय सिंह की चर्चा बहुत स्नेह और अपनत्व से करते। इन सबके लेखन पर वो ऐसा ही गर्व करते थे जैसा कोई अपने लेखन पर कर सकता है। उन्हें गर्व था कि ये सब उनके मित्र हैं। स्व0 कौशिक जी को अपना गुरु मानते थे और बातचीत में भी उन्हें इसी सम्मान के साथ सम्बोधित भी करते थे। हिन्दी साहित्य में जिन दिनों दलित चेतना की कोई सुगबुगाहट भी नहीं थी कवि जी ने शम्बूक-बध जैसी कविता लिख कर अपने चिंतन का परिचय दिया था।
'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह हैं, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठक आज भी उस दर्ज पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिंदी साहित्य के केन्द्र में तो दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनायें, जो बाद में दलित चेतना की संवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिंदी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय रहा। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली पर वार करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। कागज का नक्शा भर नहीं है देहरादून -विजय गौड



नौकरी की सीमाओं, आर्थिक विषमताओं और खराब होती सेहत से
जूझते हुए भी वो अंत तक अर्न्तमन से कवि बने रहे।
उन्होंने क्या लिखा, कितना लिखा और उनके लिखे हुए का आज के दौर में
क्या महत्व है- ये एक अलग मूल्यांकन की बाते है। परंतु उन्होंने जो लिखा
मन से लिखा, निरंतर लिखा और और जब तक जिए लिखते ही रहे।
हरिद्वार के एक कवि सम्मेलन से लौटते हुए, सड़क दुर्घटना में मौत के बाद ही
उनकी अंगुलियों से कलम अलग हो पाई थी।
अपनी नौकरी की पहली तनख्वाह मिलने पर जब मैं उनके पास गया और
पूछा कि मैं उन्हें क्या दूँ- तो उन्होंने कहा था
"मेरा चश्मा टूटा गया है- कोई सस्ता सा फ्रेम बनवा दो।"
शोध पूरा करने के बाद जब मैंने कविता लिखने की चेष्टा की थी तो मैंने पाया
कि मैं कविता से बहुत दूर जा चुका हूँ। कवि जी को मेरा कविता लिखना
छोड़ने का दुख था। पर मेरे कहानियाँ लिखने और आगे बढ़ने से भी
वो बहुत खुश थे और गर्व अनुभव करते थे। इस बात को वो अपने मित्रों से कहते भी थे।
आज जब भी मैं कवि जी को याद करता हूँ तो मुझे रतन सिंह जौनसारी के गीत की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
मेरे सुख का बिस्तर फटा पुराना है,
जिसे ओढ़ता हूँ वो चादर मैली है,
घृणा करो या प्यार करो परवाह नहीं
ये मेरे जीने की अपनी शैली है।
सच! कवि जी ने तो जैसे इन पंक्तियों में अपने जीवन का अक्स ही ढूंढ लिया था।

Thursday, May 15, 2008

इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र जैसे अन्य विवरणों के बिना भी

अगली सुबह अखबार पढ़ते हुए मैं चौंक गया। पुलिस ने दावा किया था कि उसके पास से अनेक आपत्तिजनक दस्तावेज मिले थे। पुलिस को शक था कि उसके सम्बंध किसी नक्सलवादी पड़ोसी मुल्क से थे और वो देश में अशांति उत्पन्न करना चाहता था। - प्रस्तुत कहानी दुर्दांत से.

(आज यथार्थ का चेहरा इतना इकहरा नहीं रह गया है कि किसी भी घटना के कार्यकारण संबंधों को आसानी से पकड़ा जा सके। समकालीन यथार्थ की इस जटिल प्रवृति ने गम्भीरता से रचनारत संवेदनशील लोगों को उसको ठीक-ठीक तरह से पुन:सर्जित करने के लिए न सिर्फ कथ्य के स्तर पर बल्कि भाषा और शिल्प के स्तर पर भी नये से नये प्रयोग करने को मजबूर किया है। समकालीन युवा रचनाकारों की कहानियों में विशेषतौर पर यह बात स्पष्ट दियायी दे रही है। शिल्प और भाषा के इस प्रयोग के चलते कहानी का पारम्परिक ढांचा एक हद तक टूटता हुआ सा भी दिख रहा है।
ऐसे में कहानी को उसकी शास्त्रियता के ढांचे में ही कह पाने की कोशिश उतनी आसान नहीं रह गयी है। यही वजह है कि हर वह कहानी जो अपने कहानीपन के निर्वाह के साथ, बिना भाषायी और शिल्प के चमत्कार के जब उसी यथार्थ को कह पाने में समर्थ होती है तो उसकी तरफ ध्यान जाना लाजिमि है। जितेन ठाकुर एक ऐसे ही कहानीकार है जो कहानी को परम्परागत शास्त्रिय ढांचे में रखते हुए ही लगातार रचनारत है। दुर्दांत उनकी ऐसी ही कहानी है जिसमें हम उसी यथार्थ को हुबहू और बहुत ही सहज ढंग से प्रकट होते हुए देखते हैं, जिसके लिए इधर की अन्य कहानियां लम्बे लम्बे पैराग्राफों में इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र जैसे अन्य विवरणों के बिना संभव नहीं हो पा रही है।
"दहशतगर्द लोग", "अजनबी शहर में", "एक झूठ एक सच" जितेन ठाकुर के महत्वपूर्ण कथा संग्रह एवं "शेष अवशेष" उपन्यास के अलावा अभी हाल ही में, वर्ष 2008 में प्रकाशित एक अन्य उपन्यास "उड़ान" चर्चाओं में है। हिन्दी के अलावा जितेन डोगरी में भी समान रुप से लिखते हैं। "न्हेरी रात स्नैहरे ध्याड़े" उनके द्वारा डोगरी में लिखी कहानियों का संग्रह है।)


दुर्दांत
जितेन ठाकुर 09410593800

खलील जिब्रान को पढ़ने के बाद उसका भेजा घूम गया है- कम से कम दुनिया ने यही समझा था। उसने तय किया कि अब वो अन्याय और अव्यवस्था के विरूद्ध लड़ेगा। उसे विच्च्वास था कि उसकी आवाज पर लाखों सोई हुई आत्माएं जाग उठेंगी और करोड़ों अलसाई आत्माओं की मुटि्ठयां हवा को बींध देंगी। एक ऐसा झंझावत उठेगा जो इस गांव से उस गांव, इस कस्बे से उस कस्बे, एक द्राहर से दूसरे द्राहर होता हुआ एक दिन समुद्र की हदों को लांध जाएगा। फिर आदमी साफ हवा में सांस ले पाएगा, शुद्ध अनाज खाएगा, खालिस दूध पिएगा और हर तरफ फैली अव्यवस्था और अराजकता से मुक्त हो जाएगा।
इस सोच के बाद उसे फूलों के रंग ज्यादा शोख और चटख दिखने लगे थे। फूली हुई घास किसी सर्द और सब्ज अंगारे की तरह दहकने लगी थी। कैक्टस की फुनगियों पर बुरांस खिल उठे थे। आसमान का नीलापन उचक कर पकड़ लेने की हद तक झुक आया था और पहाड़ों की चोटियों पर अद्ध खिले चांद उतर आए थे। इस ख्याल ने उसके पोरों में होने वाली सूचनाओं की कसक को कम कर दिया था और अब कभी-कभी वो मुस्कुराने भी लगा था।
यह शहर छोटा था और यहाँ के कलैक्टर की आमदनी कुछ लाख रूपया महीना था। शहर छोटा था इसलिए पुलिस कप्तान की आमदनी भी इससे बहुत फर्क नहीं थी। थानों की बार-बार की गई निलामी और माफियाओं के साथ की गई बैठकों का भी कोई बहुत सकारात्मक प्रभाव नहीं हुआ था। पूरी कोशिशों के बाद भी माफियाओं की संख्या में वृद्धि नहीं हो पाई थी जिससे स्वस्थ प्रतिद्वंदिता का अभावा था। यहाँ का सारा अधिकारी वर्ग यह अभाव झेल रहा था और कुर्सियां सस्ते में नीलाम हो रही थी। पता नहीं लोग इस सच को जानते थे या नहीं- पर वो जानता था।
वो जानता था कि शहर की सारी बसें मिट्टी के तेल से चलती है। इसीलिए ढ़िबरी भर मिट्टी का तेल हासिल करने के लिए मजदूर को कई गुना दाम चुकाने पड़ते हैं। ढ़िबरी बुझने से पहले ही उसे नींद आ जाए इसलिए वो मिलावट वाली देसी शराब का पउआ पीता, सडे हुए सरकारी गेंहू का काला आटा फांकता और सो जाता। रात का सोया हुआ मजदूर जब सुबह उठता तो खुदा का भेजा हुआ सफैद दाढ़ी और नूरानी चेहरे वाला मौलवी मस्जिद की मीनार से उसे आवाज लगाता। भारी पेट और थुलथुले बदन वाला लिजलिजा पंडित घंटिया बजा-बजा कर उसे बुलाता। यह तब तक तक चलता जब तक उसकी जेब में बची रह गई पिछले दिन की बकाया कमाई झटक न ली जाती। खाली जेब और भूखे पेट के साथ एक भी दिन के आराम के बिना वो फिर कामगारों की पंक्ति में खड़ा पाया जाता।
वो जानता था कि ताजाबनी सड़कें क्यों एक बरसात भी नहीं झेल पातीं। लैंपपोस्ट के बल्ब आए दिन क्यों बुझे रहते हैं। क्यों द्राानदान बंगलों की घास गर्मियों में भी नहीं सूखती और म्यूनिसपैलिटी के नल सर्दियों में भी सूखे रहते हैं। पैदल चलता आदमी खादी पहनते ही कैसे शानदार गाड़ियों का मालिक हो जाता है ओर झंडा फहराकर भाषण देता अधिकारी कितना झूठ बोलता है।
वो ऐसी बहुत सी सच्चाइयां जानता था। उसका यह सब जान लेना अपराध नहीं था पर सोचना एक हिमाकत थी। उसकी यह हिमाकत आज तक ढकी-छुपी रही थी। पर आज वो द्राहर के बीचों-बची उधड़ी हुई सीवन की तरह बेनकाब हो गया था। वो सोचता है- सोच सकता है। वो बोलता है- बोल सकता है। उसके अंतस में ज्वालामुखी धधक रहा था और प्रशासन नहीं जान पाया। यह बात शासन और प्रशासन दोनों को हैरान कर रही थी। सबसे ज्यादा हैरानी उस अखबार के मालिक को थी जिसमें वो काम करता था।
मालिक ने पिछले तीन सालों में उसे बैल की तरह जोता था- वो चुप-चाप जुता रहा था। वो विज्ञापन लाता तो मालिक पीठ थप-थपाता। वो झूठ लिखता तो मालिक खुच्च होकर छापता। पर जिस दिन उसने सच लिखने की कोशिश की थी- मालिक ने झिड़क दिया था।
प्रशासन के आला हुक्मरानों की चिंता का कारण दूसरा भी था। अरबों रूपए के खर्च पर खड़ा सिस्टम आज खोखला और बेमानी साबित हुआ था। इसी शहर का एक आदमी लगातार सोचता रहा था और दसियों गुप्तचर एजैंसियां नहीं जान पाई थीं। सूचना विभाग नाराज था कि भरपूर विज्ञापन देने के बावजूद वो अखबार अपने एक अदने से नौकर पर काबू नहीं रख पाया। द्रारीफों की सांसे भी गिन लेने का दावा करने वाली पुलिस जान भी नहीं पाई और वो द्राहर के बीचों-बीच घंटाघर पर चढ़ गया था। हद तो यह थी कि घंटाघर की भरपूर ऊँचाई के बावजूद उसके हाथ में पकड़ा हुआ सच्च का पुलिंदा लोगों को दिखलाई दे रहा था और लोग उस पुलिंदे में बंधे सच को सुन लेना चाहते थे। पर विडम्बना यह थी कि उसकी ऊँचाई इतनी अधिक थी कि उसकी आवाज जमीन तक नहीं पहुंच पा रही थी।
सच का यह पुलिंदा उठाए-उठाए उसने कई दरवाजों पर दस्तक दी थी। दरवाजे खुले भी थे पर उसके पुलिंदे की गांठ खुलने से पहले ही दरवाजे बंद हो जाते थे। किसी के पास इतना समय नहीं था कि उसकी बासी बातों को- ऐसा वो लोग सोचते थे- सुन लेता।
उसे खलील जिब्रान पढ़ाने का अफसोस मुझे उस दिन हुआ था जब उसने सरे बाजार मेरे गिरेबां में भी झांक लिया।
दरअसल हुआ यह था कि हम लोग एक खोखे में बैठ कर चाय पी रहे थे। उसकी बातों से मैं प्रभावित था। उसकी तमाम नाकाम कोशिशों के बावजूद उसके होंसले में कोई कमी नहीं आई थी। उसे विश्वास था कि भले ही देर से सही पर इस देश में क्रांति का जन नायक वहीं होगा। जिस दिन उसकी आवाज आवाम तक पहुंचेगी- लोकतंत्र के सारे संदर्भ बदल जाएंगें। खलील जिब्रान को मैंने भी पढ़ा था। पर अपने होशों हवास पर काबू रख कर। इसीलिए मैंने उसे समझाने के लिए एक कविता की कुछ पंक्तियां सुनाई थी।
कविता सुनकर वो मुझे निस्पृह भाव से घूरता रहा था फिर अचानक उसका चेहरा तमतमा गया। वो लगभग चीखते हुए स्वर में बोला
"तुम साले लेखक अपने को तुर्रम खां समझते हो। जो तुमने कह दिया वही सच हो गया। अरे तुम्हारे बड़े-बड़े आलोचक पैसा लेकर किताबों को अच्छा बुरा कहते हैं। तुम्हारे जनवादी सम्पादक पैसे के लिए भगवा सरकार के विज्ञापन छापते हैं और तुम्हारे प्रगतिशील लेखक छपने और चर्चित होने के लिए इन्हीं सम्पादकों और आलोचकों की चप्पलें उठाते हैं।"
"तुम कुछ ज्यादा ही बहक रहे हो।" मैंने उसके आवेश को कम करने के लिए समझाने वाले स्वर में कहा
"बहके हुए तो तुम लोग हो। डिब्बा बंद मछली की तरह ठंडे और बासी। आम आदमी पर फिल्म बनाते हो और पैसा कमाते हो। पर आम आमदी को क्या मिलता है? आम आदमी पर कविता-कहानी लिखकर वाह-वाही लूटते हो- आम आदमी को क्या मिलता है? नंगी-भूखी तस्वीरें बनाकर अंतर्राषट्रीय हो जाते हो- आम आदमी को क्या मिलता है? अरे तुम लोग तो पैरासाईट हो - पैरासाईट।"
"पागल हो गए हो तुम सोचते हो कि खलील जिब्रान पढ़कर समाज बदल दोगे? सनकी हो तुम।"
मुझे उसके व्यवहार पर गुस्सा आ गया था। पर यह सच है कि यदि मैं जानता कि उसके पिटारे में हमारा सच भी छुपा है तो मैं इस चर्चा को आरम्भ ही नहीं करता।
"खलील जिब्रान पढ़ कर नहीं- खलील जिब्रान बनकर।" तमतमाता हुआ उसका चेहरा अचानक हंसने लगा थां पर इसे अपमान की चुभन कहें या सच का नश्तर! मैं हंस नहीं सका था। मुझे पहली बार अफसोस हुआ था कि मैंने पढ़ने के लिए उसे खलील जिब्रान क्यो दिया था। दो वक्त की रोटी कमाकर वो एक सीधी साधी जिंदगी बिता रहा था, मैंने उससे रोटी भी छीन ली थी और जिंदगी भी। अब उसके पास बेचैनी, कुढ़न और क्रोध के सिवा और कुछ नहीं था। उससे सहानुभूति होते हुए भी अब मैं उससे कतराने लगा था।
इस घटना के बाद उसने और कितने सच इठे किए थे- मैं नहीं जान पाया। पर मैंने उसके झोले को एक गट्ठर में बदलते हुए देखा। उस गट्ठर को उठाए हुए वो इतना हांफजाता कि रूक कर सुस्ताने लगता था पर गट्ठर को नीचे जमीन पर नहीं रखता था। उससे कतराने के बावजूद मुझे उससे सहानुभूति थी। द्राायद इसीलिए मैं उस दिन उससे नजर नहीं चुरा पाया।
"तुम इस गट्ठर को नीचे क्यों नही रख देते।" मैंने आत्मीय होने की तो चेष्टा की वो हंसा, फिर कड़वाहट की हद तक व्यंग्य भरे स्वर में बोला
"ताकी तुम इसे चुरा सको।"
"मैं क्या करूंगा तुम्हारा यह गट्ठर चुराकर?" मैंने खीझ कर कहा था।
"तुम्हारे लिखने के लिए इसमें तैयार शुद्ध माल है।"
उसकी यह निर्ममता मुझे अखर गई थी और मैंने उससे बोलना बंद कर दिया था।
पर मैं देख रहा था कि उसके जिस्म पर टिके कपड़ों की सिलाई उधड़ने लगी थी। उसकी खिचड़ी दाढ़ी बढ़ने लगी थी और उसके बाल लम्बे होकर बिखर गए थे। खलील जिब्रान पढ़ने से पहले तक झक काले उसके बाल अब आधे अधूरे सफेद हो चुके थे। उसका पूरा हुलिया एक बेतरतीब जिंदगी की नुमाईच्च बनकर रह गया था।
---और आज मैंने देखा कि वो घंटाघर पर चढ़ा हुआ खड़ा है और चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को अपने पिटारे का सच बताने की कोशिश कर रहा है। उसकी आवाज शायद नीचे तक पहुँच भी जाती पर नीचे लगातार बढ़ती हुई भीड़ का शोर उसकी आवाज को गुम कर रहा था। चीखने के कारण उसके गले की नसें फूल कर चमकने लगी थीं। कनपटी पर तेज धड़कन के साथ मोटी नस फड़क रही थी। उत्तेजना के कारण चेहरा लाल हो चुका था। मेरे अलावा शायद ही कोई और समझ पाया हो कि वो खलील जिब्रान के एक उपन्यास में मठ से निकाले गए पात्र की तरह व्यवहार कर रहा था। वो भीड़ को आंदोलित करना चाहता था। उसकी पूरी कोशिश थी कि उसकी आवाज किसी तरह भीड़ तक पहुंच जाए।
पर भीड़ का सच उसके सच से अलग था। भीड़ उसके मकसद से अनजान, घंटाघर, पर चढे हुए एक पुतले को देख-देख कर उत्तेजित और अल्हादित हो रही थी। पुतला गिरा तो क्या होगा- नहीं गिरा तो क्या होगा? भीड़ की जिज्ञासा इससे अधिक और कुछ नहीं थी। पर उसके लिए संदर्भ बिल्कुल बदले हुए थे। उसे लगा था कि नीचे इठा हुई भीड़ उसके आह्वान पर एकत्रित हुई है। जब वो एक हाथ उठा कर भीड़ को सम्बोधित करता तो भीड़ दोनों हाथ उठा देती। भीड़ समझती थी कि उसका हाथ उठाना-घंटाघर से कूदने की तैयारी है। इसलिए भीड़ उसे रोकने के लिए अपने दोनों हाथ उठा लेती।
वो खुशी से झूम उठा! उसे लगा कि भीड़ तक उसकी आवाज और उसका मकसद पहुँच रहे हैं। अब उसने अपने पुलिंदे की गांठ खोलना शुरू कर दी थी और भीड़ के और करीब आने के लिए घंटाघर के छज्जे पर उतरने की कोच्चिच्च करने लगा था। तभी सामने से उसके ऊपर पानी की तेज बोछार हुई और वो पीछे हट गया। उसने दांई और मुड़ने की कोशिश की तो उस ओर भी पानी की तेज बोछार थी। मैंने देखा दमकल की गाड़ियों ने घंटाघर को चारों ओर से घेर लिया था। वो जिस तरफ भी हिलता उसी ओर बोछार शुरू हो जाती। पानी की धार इतनी तेज थी कि वो जब भी उससे टकराता- गिर पड़ता। फिर एका-एक चारों ओर से एक साथ पानी की तेज धार उस पर पड़ने लगी। मैंने देखा सच के पुलिंदे को पेट से चिपका कर वो ऊकडू बैठ गया है। वो उसे गीला होने से बचाना चाहता था। दमकल वालों के लिए इतना मौका काफी था। लम्बी सीढ़ियां घंटाघर पर छा गईं और बीसियों आदमियों ने उसे दबोच लिया।


अगली सुबह अखबार पढ़ते हुए मैं चौंक गया। पुलिस ने दावा किया था कि उसके पास से अनेक आपत्तिजनक दस्तावेज मिले थे। पुलिस को शक था कि उसके सम्बंध किसी नक्सलवादी पड़ोसी मुल्क से थे और वो देश में अशांति उत्पन्न करना चाहता था। सच्चाई जानने और उसके साथियों का पता लगाने के लिए पुलिस ने उसे पोटा में निरूद्ध कर दिया था।
मेरा शरीर कांपने लगा। हाथ में पकड़ा चाय का गिलास मेज पर रखकर मैं धीरे-धीरे सिर को दबाने लगा। बात यहाँ तक पहुँच सकती है- इसका तो मुझे अंदाज ही नहीं था। मैं तो यही मान कर चल रहा था कि पुलिस उसे सुबह से शाम तक थाने में बिठाएगी, दो चार झांपड़ रसीद करेगी और छोड़ देगी। किसी सिर फिरे के साथ और किया भी क्या सकता था। परंतु यहाँ तो पूरा घटना क्रम ही नाटकीय तरीके से बदला गया था।
उसे छुड़ाने के लिए मैं पूरा दिन अपने सम्पर्का और सम्बंधों को भुनाने की कोच्चिच्च करता रहा। पुलिस कप्तान से लेकर आई जी पुलिस तक से मिला। कलैक्टर और कमीश्नर को दुहाई दे देकर सच समझाया। विधायक और सांसद को विश्वास में लेने की कोशिश की पर सब बेकार। अब तो जनता भी पुलिस की बनाई कहानी पर चटकारा ले रही थी।
रात गए मैं कमरे पर लौटा तो निढ़ाल हो चुका था। मैं समझ चुका था कि कहीं से भी मदद की कोई उम्मीद करना बेकार है क्योंकि उसके पास सच का जो हमाम था उसमे नंगे खड़े लोग भला उसकी मदद कैसे कर सकते थे।
हर ओर से हताश और निराश मैं बिजली बुझा कर पलंग पर लेट गया। पर तभी दरवाजे पर पड़ती दस्तक ने तंद्रा तोड़ दी। उठकर लाईट जलाई तो हक्का-बक्का रह गया। कमरे की हर खिड़की में संगीन तनी हुई थी।
---पुलिस को उसके जिस साथी की तलाश थी शायद वो उन्हें मिल गया था।