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Thursday, March 23, 2023

कंधे पर पहचान का झोला लटकाये

हिंदी की रचनात्मक दुनिया में अपने समकालीनों पर कविता लिखने की एक अच्छी और सम्रिद्ध परम्परा है. कुछ समय पूर्व कवि श्याम प्रकाश जी ने भी अपने समकालीन और प्रिय कथाकार सुभाष पंत के केंद्र में रखते हुए एक कविता लिखी और अपनी मित्र मंडली के बीच में उसे शेयर भी किया. उस कविता की खूबी इस बात में देखी जा सकती है कि न सिर्फ सुभाष पंत का व्यक्तित्व बल्कि उनका रचना संसार भी कविता में नजर आने लगता है. रचनाओं के शीर्षको को कविता में पिरोकर इस तरह से रखा गया है कि उनसे केंद्रिय रचनाकार की आकृति भी साफ दिखने लगती है. उस कविता को भाई शशि भूषण बडोनी जी के बनाये चित्रों के साथ पढे तो कथाकार सुभाष पंत और भी खूबसूरत नजर आ रहे हैं. बडोनी जी का विशेष आभार कि उन्होंने इस अनुरोध का मान रखा कि भिन्न भिन्न भाव मुद्राओ में पंत जी के स्केच बनाये. 

विगौ 

जेब में पहाड़ 

  श्याम प्रकाश

दरअसल चीफ़ के बाप की मौत हो गई थी

न चाहते हुए भी मेरा वहां जाना जरूरी था

मरने वाला कोई और नहीं मेरे चीफ़ का बाप था

 

चिलचिलाती दुपहर की तपती हुई ज़मीन पर

नंगें पांव श्मशान में खड़ा मैं

कभी दांया तो कभी बांया पैर ऊपर उठाता

पैरों को ज़मीन पर रखते-उठाते

मुझे कंटीली-पथरीली,

चढ़ती-उतरती पगडंडियों पर पांव बचा

चलना याद आ गया


मैं पहाड़ की सुबह में था

पीले से सफेद होता हुआ सूरज,

गुनगुनी धूप,

पहाड़ पर  छोटे-बड़े पेड़ों का पहाड़ बनाते पेड़ ,

चिड़ियों की बोलियां

और इन सब के बीच गुजरती ठंडी-ठंडी हवा....

 

मैं सहसा चौंक पड़ा

मैं तो श्मशान में खड़ा हूं

इस मौके अपनी सोच के‌ भटकाव का  यह रोमांटिसिज्म मुझे कतई नहीं भाया

आखिर मैं  मौत में आया हूं

 

चिता से उठती लपटों से छूटते चिंगारों को देखते

मै फिर पहाड़ चढ़ गया

और वो आदमी, जिस का नाम फिलहाल मुझे ध्यान नहीं आ रहा,

जो अक्सर मुझे वहां दिखाई  पड़ता था,

मेरे साथ था

हर बार ही वो आदमी मुझे हर पिछली बार से लम्बाई में छोटा होता हुआ आदमी लगता

असल में वह चौड़ाई में फ़ैल रहा था

अपने लिबास और स्वभाव दोनों से निहायत आम आदमी लगता

कंधे पर पहचान का झोला लटकाये

सुबह का भूला सा,

अक्सर वह बरसाती नदी के पास के पत्थर पर

बैठा दिखता

कुछ सोचता,  टहलता,

कभी ‌नदी में से पत्थर उठा दूर नदी में फेंकता ,

अचानक ही जोर-जोर से

एक से दस  तक गिनती ऐसे बोलता

जैसे एक का पहाड़ा...

एक ईकम एक,एक दूनी दो,एक तिया ‌तीन.... पढ़ रहा हो

बेतरतीब-सी उसकी बातों में कोई ताल मेल नहीं होता

अजीब-अजीब बातें किया करता वो

कभी जिन्नों के डरावने किस्से

तो कभी अलादीन के चिराग से निकले

जिन्न और अन्य कहानियां सुनाता ,

पास के पेड़ की टहनी पर बैठी चिड़िया को

टकटकी लगा देखता,

कहता इस चिड़िया की आंख गिरगिट की तरह

रंग बदलती है

जब लोग देखते चिड़िया को उड़़ते नहीं 

आदमी को टहनी पर से कूदते देखते,

अक्सर वो कुछ गुनगुनाया करता कहता

ये मुन्नी बाई की प्रार्थना है

बड़ी लय में गाया करती थी मुन्नी बाई

पता नहीं कब उसे बीच में ही छोड़ और किस्सों में उलझ जाता,

कहानियों का उसे बहुत शौक था

गिनती कर वह बताता

इक्कीस कहानियां उसे अच्छी तरह याद हैं,

जिन्हे सुनाते वह हर बार गड्ड-मड्ड कर देता

उसने बताया उस के पास कुछ किताबें भी हैं

कहते -कहते जैसे कुछ भूल रहा था,

कुछ रुक कर उंगलियों से माथा ठोकता बोला... क्या कहते हैं.... क्या कहते हैं उन्हें

जो अच्छी और अलग सी होती हैं

वह सोच में पड़ गया

हां याद आया, फिर बोला- प्रतिनिधि

उसके पास इस नाम की एक किताब है जिस में किसी एक ही लिखने वाले की 

दस प्रतिनिधि कहानियां हैं

वे सुरक्षित हैं किसी खास जगह

एक फाइल में

लेकिन वह फाइल बंद है अभी

बिलकुल खोई चाबी वाला ताला लगे बक्से की तरह

 

और वो दिन

वो तो न भूलने वाला बन गया था

मैंने उसे कभी इस तरह नहीं देखा था

मुंह से  सिंगिंग बेल की बजती घंटियों जैसी

आवाज़ निकालता , कुछ-कुछ बोलता

वह दौड़ा जा रहा था

मेरे साथ और लोगों ने भी

उसे रोकने की कोशिश की

वो रुका नहीं

बल्कि उस की दौड़ और तेज़ हो गई

इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ की तरह

जिसका हिस्सा वह दूर-दूर तक नहीं था

 

कुछ दूर दौड़ ,पस्त हो वह रुक गया

गिरते-गिरते बचते ‌धम्म‌ से ज़मीन पर बैठ गया

वो हांफ रहा था,

उसका चेहरा पसीने-पसीने हो रहा था,

गुस्से में लाल उबलती आंखें

आधी बाहर लटक गई थीं

अब तक एक छोटी-मोटी भीड़

उसके चारों ओर थी

सांसें संभल जाने पर वह उठा

और फिर दौड़ने लगा

छोड़ूंगा नहीं उसे....

बिलकुल नहीं छोडूंगा....

उस्स ......

वह उबल रहा था

 

चिता से उठती लपटें शांत हो चुकी थीं

लोग क्रिकेट, मंहगाई, बेरोजगारी

और सरकार को कोसते

अपने - अपने घरों को लौटने लगे थे

लगा श्मशान से नहीं लंच के बाद दफ्तर में अपनी-अपनी सीट पर जा रहे हों

मुझे लगा मैं उनके साथ नहीं चल रहा हूं

कहीं और दौड़ रहा हूं

पहाड़ के उस आदमी के साथ

जो हौसले से लबरेज़,

अपने थके-हारे पांवो के बावजूद

दौड़ रहा है,

पीछा कर रहा है

उसका

जो पहाड़ चोर है

जिसकी जेब में पहाड़ है ।

                     _____

                               

Tuesday, March 21, 2023

कथाकार सुभाष पंत की रचनाएं एवम उनके पाठक

सौरभ शाण्डिल्य एवम कथाकार विद्या सिन्ह से जानकारी मिली है कि प्रगतिशील एवम जनवादी सरोकरो के स्वतंत्र संगठन 'धागा: विमर्श का मंच' ने आभासीय दुनिया के अपने पटल पर मार्च 2023 में ही कथाकार सुभाष पंत की कहानी ‘ए स्टिच इन टाइम’ सदस्यो के पढने के लिए एवम उस पर खुल कर बात करने के लिए लगाई गई थी. वहा प्राप्त हुई प्रतिक्रियाएं यहाँ पुनः सांझा की जा रही हैं. इसके साथ ही आभासीय दुनिया में इसी माह अन्य जगहो पर भी कथाकार सुभाष पंत के पाठक उनकी कहानियो को सांझा करते हुए दिखे.

कहानी ए स्टिच इन टाइम ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि इन मल्टिनैशनल कंपनियों की बढ़ती लोकप्रियता में हम भी कहीं शामिल हैं, शामिल हैं हुनर के उन काट दिए हाथों के गुनाह में,भूख और मजबूरी के चक्रव्यूह में जो हमारी रजामंदी से रचाया गया। केवल एक दर्जी नहीं जाने कितने हुनरमंदों को मालिक से नौकर बनना पड़ा है। वैश्वीकरण की नीतियों ने पूँजीपतियों की मंशा को किस कदर फलीभूत किया है, हम अपने आसपास आसानी से देख रहे हैं लेकिन महसूस नहीं कर पा रहे। इस कहानी में मुख्य पात्र ने महसूस किया और पाठक को महसूस करवाया कि एक बड़ी मछली किस तरह छोटी मछलियों का शिकार कर पूरे तालाब में अपना वर्चस्व बढ़ाती है। कहानी में दो पीढ़ियों के बीच परिवर्तन के अंतराल और मानसिकता को बाखूबी दर्शाया गया है। यह आर्थिक रूप से सक्षम लोगों का ही शगल है, जिन्हें दाम से नहीं ब्रांडेड नाम से मतलब है, अपनी शान बनाने के लिए इन कंपनियों का समर्थन करते हुए कितने लोगों को मालिक से मजदूर बनने को विवश कर दिया। हमारे बुजुर्ग और हमारी पीढ़ी के लोग भले ही आज भी दर्जी से सिलवाए कपड़े शौक से पहन भी लेते हैं किंतु हमारे बच्चों पर ब्रांडेड कंपनियों का भूत सवार है। मोबाइल पर आनलाइन शापिंग का खूब खेल चल रहा है। माॅल संस्कृति ने आमजन की जेबों पर कब्जा कर रखा है। यही तो वह आर्थिक खाई है जो बढ़ती जा रही है क्योंकि यह सर्वोन्मुखी विकास नहीं है। कहावत है कि पैसा पैसे को खींचता है लेकिन किनके पैसे को खींचता है शायद यह हम सोच नहीं पाते या सोचना नहीं चाहते। कहानीकार कहानी को अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ाते हुए पाठक को अपनी मानसिक दशा से अवगत कराते हुए कहीं न कहीं पाठक का समर्थन भी हासिल करता जाता है। किंतु मुख्य पात्र का खुल कर विरोध न कर पाना पाठक को निराश भी करता है। यहां तक कि नशे में भी वह अपना आपा नहीं खोता, एक ओर बीवी का स्टेटस तो दूसरी ओर बेटी के मनचाहे भविष्य की चिंता में वह अपने मन की करना तो दूर खुल कर कह भी नहीं पाता। कहानी का आखिरी हिस्सा बेहद मार्मिक बुना गया। जब दर्जी नज़र अहमद की बेटी अपनी आपबीती कहती है, अपने लिए दयायाचना नहीं बल्कि एक हुनरमंद पिता की बेटी से हुई ग़लती की माफ़ी माँगती है, और अपनी कुंठा से बाहर आते ही मुख्य पात्र अपनी ब्रांडेड कमीज़ में लगे अतिरिक्त बटन की जगह लगा हुआ उल्टा बटन देखता है तो दिल धक्क से रह जाता है। कहानी पूरी तरह से मस्तिष्क को मथ कर रख देती है इसकी शैली और शिल्प बेजोड़ है। एक बेहतरीन कहानी पढ़वाने के लिए धागा : विमर्श का मंच का धन्यवाद 💐🙏 रूपेंद्र राज तिवारी रायपुर/छत्तीसगढ़
मल्टी नेशनल ब्रांडेड कम्पनियों ने किस तरह ,दर्ज़ी , कुटीर उद्योगों को अपनी विकरालता में लील कर इन्हें असहाय और दरिद्रता के कगार पर ला दिया है। कहानी ' अ स्टिच इन टाइम' लेखक -सुभाष पंत जी ने बहुत ही मार्मिक पड़ताल करते हुए इसे लिखा है। अमन टेलर्स जैसे कई नज़र अहमदों की दुकान का बंद होना,मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाना। लेखक इसे नफ़ीस हत्याएं कहता है जहां दोषी को कोई सज़ा नहीं होती। कहानी के कुछ वाक्यांश कविता की तरह हैं। - श्रम का कविता और संगीत हो जाना। आयशा अंसारी का एकालाप व्यथित करने वाला है। आभार: धागा विमर्श का मंच🙏🏻 ख़ुदेजा जगदलपुर/ छत्तीसगढ़
आधुनिकता कितने मुंह का निवाला छीन रही है उनके दर्द को दिखलाती संवेदन शील कहानी। एक कहानी बहुत सारे विषयों को समेटे है। परंपरा,रिश्ते,अवसरवादी, पीढ़ियों की कश्मकश में गुंथी कहानी पटल पर रखने के लिए साधुवाद सुनीता पाठक
एक जरुरी और विचारवान कहानी है यह। इसे पढ़ते हुए प्रज्ञा रोहिणी की कहानी 'मन्नत टेलर्स' या आती रही। ग़ज़ब संयोग यह कि वहां टेलर है रशीद भाई और यहां नजर अहमद। दोनों की दुकानों को रेडीमेड वस्त्रों का कारोबार निगल गया। इस कहानी में अपनी पीड़ा चरित्र खुद कहते हैं जबकि मन्नत टेलर्स में परिस्थितियों के मार्फ़त स्थिति व पीड़ा खुलती है। हालांकि दोनों कहानियों के क्लाइमेक्स और अंत अलग हैं। लेकिन पीड़ा एक ही है जोकि होना भी चाहिए। हुनरमंद और छोटे पेशे में लगे लोगों के बेरोजगार हो जाने की कथाओं में मनीष वैद्य की 'घड़ीसाज' को भी शामिल किया जाना चाहिए। ग्रामीण शिल्पकार को परेशानी में डालती कहानी हवाई जहाज सन 85 में सारिका में छपी थी। इस कहानी में उसके बृहद आकार के अनुरूप तमाम दृश्य और सम्वाद भी हैं। दर्जी की बेटी का आत्मालाप एक नए शिल्पगत प्रयोग के रूप में सामने आता है। रितु वेरी नाम का प्रयोग भी नया शिल्पगत प्रयोग है। बाजार के बहुलतावादी युग मे छोटे छोटे प्रचार प्रयोग भी कहानी को नया विस्तार देते हैं। हुनरमंद पीढ़ी को छोटा दुकानदार खा रहा है और बड़ा उसको; तो इसको भी मल्टीनेशनल कंपनी खाए जा रही है। शीर्ष पर एकाधिकार यूँ ही होता जा रहा है तभी तो दर्जी से सिलाई जाने वाली सादा शर्ट की कीमत 500₹ (कपड़ा300+सिलाई 200) की तुलना में अच्छी शर्ट ऑफ सीजन और स्टॉक क्लियरेंस में आउटलेट व शो रूम में 100/ 200 मात्र में शर्ट मिल जाती हैं, भोपाल का न्यू मार्केट बरामदाहो या दिल्ली का कनॉट प्लेस /पालिका बाजार का कैम्पस; सब जगह यही हाल। कहानी खत्म हो के भी खत्म नहीँ होती, पाठक के मन मे जारी रहती है, यह लेखक की बड़ी रचनात्मकता है। धागा: विमर्श का मंच राज बोहरे
मल्टी नेशनल ब्रांडेड कम्पनियों ने किस तरह ,दर्ज़ी , कुटीर उद्योगों को अपनी विकरालता में लील कर इन्हें असहाय और दरिद्रता के कगार पर ला दिया है। कहानी ' अ स्टिच इन टाइम' लेखक -सुभाष पंत जी ने बहुत ही मार्मिक पड़ताल करते हुए इसे लिखा है। अमन टेलर्स जैसे कई नज़र अहमदों की दुकान का बंद होना,मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाना। लेखक इसे नफ़ीस हत्याएं कहता है जहां दोषी को कोई सज़ा नहीं होती। कहानी के कुछ वाक्यांश कविता की तरह हैं। - श्रम का कविता और संगीत हो जाना। आयशा अंसारी का एकालाप व्यथित करने वाला है। आभार: धागा विमर्श का मंच🙏🏻 ख़ुदेजा जगदलपुर/ छत्तीसगढ़





अंजु शर्मा ने आपनी फेसबुक टाइमलाइन पर एक कहानी क जिक्र कुछ इस तरह किया, कल रात सुभाष पंत सर की एक बहुत शानदार कहानी पढ़ी - रतिनाथ का पलंग। बहुत ही उम्दा और मार्मिक कहानी है। मानवीय संवेदनाओं और व्यवहार की कितनी सूक्ष्म पड़ताल है इस कहानी में। ये विश्वास पुख़्ता हुआ कि वे ऐसे ही नहीं मेरे प्रिय कथाकार हैं। उनकी टाइमलाइन पर ही अन्य टिप्पणिया देखी जा सकती हैं.


राजेश सकलानी ने आपनी फेसबुक टाइमलाइन पर एक कहानी क जिक्र कुछ इस तरह किया, " मक्का के पौधे " हिन्दी के वरिष्ठ और संभवतः सबसे ज्यादा सक्रिय कथाकार सुभाष पंत की यह कहानी अपने सुघढ स्थापत्य और भाषा के अतिरिक्त सामाजिक जीवन की जटिलता और सौंदर्यबोध के कारण ध्यान आकर्षित करती है। निम्नवर्गीय परिवार का लालता और उसकी पत्नी मुश्किल स्थितियों में पड़ जाते हैं जब उनका जवान लड़का जो ट्रक ड्राइवर है, एक शादी शुदा औरत को अपने घर ले कर आ जाता है। यह उन्हें अनुचित जान पड़ता है। अंत के एक दृश्य में औरत खेत में रौंदे गए मक्की के पौधों को फिर से रोप कर सीधा खड़ा कर देती है।औरत का सलीका और व्यवहार लालता को अच्छा लगने लगता है। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि औरत का पूर्व पति यहां ज्यादती का शिकार हो रहा है। सुगनी इस पुरुष की रक्षा में अपनी बात रखती है और औरत को अपने घर लौटने को कहती है। औरत मानती है कि उसके पति में कोई दोष नहीं है।वह उसके विरुद्ध नहीं है। लेकिन वह अपने प्रेम के लिए यहीं रहना चाहती है। कथाकार शायद समाज में ऐसी ही पारदर्शिता और ईमानदारी को स्थापित करना चाहते हैं। यद्यपि ऐसी स्थितियों में लोक किसी न किसी पात्र को शत्रु बनाने पर उतारू हो जाएगा। लालता को भाग कर आई औरत स्वीकार्य नहीं है।सुगनी को सहानुभूति है पर सामाजिक मर्यादाएं उसे कटु बना रहीं हैं।उसका कहना है कि " हाथ जोड़ती हूं , तू अपने घर चली जा" वह पूछती है " उससे छूट हो गई ? " जबाव मिलता है " नहीं ।छूट तो मन की है।जब मन ही नहीं मिला । " उनकी टाइमलाइन पर ही अन्य टिप्पणिया देखी जा सकती हैं.

Monday, August 22, 2022

आलोचना का सकारात्मक पक्ष

 

पुलिस में नौकरी, यानी धौंस-पट्टी का राज. वाह जी वाह, क्या हसीन है निजाम. पुलिस ही नहीं, गुप्तचर पुलिस, वह भी आफिसर . फिर तो कुछ बोलने की जरूरत तो शयद ही आए कि उससे पहले ही चेहरे के रूआब को देखकर, यदि मूंछे हुई तो और भी, आपराधी ही क्या, अपनी नौकरी पर तैनात कोई साधारण कर्मचारी, बेशक ओहदेदारी में किसी रेलवे स्टेशन का स्टेशन मास्टर तक हो चाहे, बुरी तरह से चेहरे पर हवाइयां उडते हुए हो जाए और यदि ओफिसर महोदय ने अपना परिचय दे ही दिया तो निश्चित घिघया जाये. यह चित्र बहुत आम है लेकिन एक सम्वेदनशील रचनाकार इस चित्र को ही बदलना चाहता है. निश्चित तौर पर श्री प्रकाश मिश्र भी ऐसे ही रचनाकर हैं. अपनी स्मृतियों के देहरादून को खंगालते हुए वे इससे भिन्न न तो हैं और न ही होना चाहेंगे, यह यकीन तो इस कारण से भी किया जा सकता है कि एक दौर में वे उन्न्यन जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का स्म्पादन करते रहे हैं.   

देहरादून की स्मृतियों पर केंन्द्रित होकर लिखे जा रहे संस्मरण के उन हिस्सों की भाषा से श्री प्रकाश मिश्र के पाठकों को ही फिर एतराज क्यों न हो, जहाँ उनका प्रिय लेखक उन्हें दिखाई न दे रहा हो. एक मॉडरेटर होने के नाते इस ब्लॉग के पाठकों की क्षुब्धता के लिए खेद व्यक्त करना मेरी नैतिक जिम्मेदारी है. फिर संस्मरण की भाषा पर एतराज तो किसी यदा कदा के पाठक का नहीं है, बल्कि जिम्मेदार नागरिक चेतना से भरे एक ऐसे संवेदंशील रचनाकर, चंद्रनाथ मिश्र, का विरोध है, जिनके सक्रिय योगदान से यह ब्लाग अपनी सामग्री समृद्ध करता रहता है. चंद्रनाथ मिश्र के एतराज मनोगत नहीं बल्कि तथ्यपूर्ण है, “एक वरिष्ठ लेखक और 'उन्नयन ' जैसी लघु पत्रिका के संपादक रहे श्री प्रकाश मिश्र जैसे व्यक्ति से इस तरह के आत्म केंद्रित और नकारात्मक सोच की आशा नहीं की जा सकती. पूरे आलेख में प्रारंभ से अंत तक उन के सानिध्य में आने वाले व्यक्तियों के जीवन और व्यक्तिगत रूप रंग पर आक्षेप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं. रेलवे के छोटे कर्मचारी से लेकर स्टेशन मास्टर तक , पीतांबर दत्त बड़थ्वाल जैसे शिक्षाविद और वरिष्ठ साहित्यकार, उनकी संताने,उनके गांव के सारे लोग प्रकाश मिश्र की इस आवानछनीय टीका टिप्पणी के दायरे मे शामिल हैँ. देहरादून के तात्कालिक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य पर उनकी कोई उल्लेखनीय टिप्पणी तो कहीं भी नजर नहीं आती. यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के साहित्य कर्म पर लिखने के बजाय, वे उनके व्यक्तिगत, शारीरिक, जातिगत और स्थान विशेष में रहने वालों को सामूहिक रूप से कुरूप और अनाकर्षक घोषित करने का प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं.”

 

यह सही है कि एक पात्र की पहचान कराने के लिए एक गद्य लेखक अक्सर पात्र के रूप रंग, उसकी चाल, हंसने-बोलने के अंदाज, वस्त्र विन्यास और बहुत सी ऐसी रूपाकृतियों का जिक्र करना जरुरी समझते है और यह भी स्पष्ट है कि उस हुलिये के जरिये ही वे प्रस्तुत हो रहे पात्र के प्रति लेखकीय मंशा को भी चुपके से पाठक के भीतर डाल देते है. वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत जी के द्वारा अक्सर कही गई बात को दोहरा लेने का मन हो रहा, जब वे कहते है, "जब कोई लेखक अपने किसी पात्र के बारे में लिखता है कि 'वह चाय सुडक रहा था' तो उसे अपने पात्र के परिचय के बारे में अलग से कुछ बताने की जरुरत नहीं रह जाती कि वह अमुक पात्र कौन है, किस वर्ग और पृष्ठभूमि का पात्र है." कथाकार सुभाष पंत की यह सीख हमें भाषा की ताकत से परिचित कराती है और साथ ही उसे यथायोग्य बरतने के लिए सचेत भी करती है. श्री प्रकाश मिश्र एक जिम्मेदार लेखक है. स्वयं देख सकते हैं, भाषा को बरतने वह  चूक उनसे क्यों हो गई कि जिन व्यक्तियों को प्रेम से याद करना चाह रर्है थे, उनके हुलिये के वर्णन पर ही पर चन्द्र्नाथ मिश्र और देहरादून के अन्य जिम्मेदार नागरिक एवं रचनाकारों को असहमति के स्वर में सार्वजनिक होना पडा है.

उम्मीद है श्री प्रकाश मिश्र जी चंद्रनाथ मिश्र के एतराजों को सकारत्मक रूप से ग्रहण करेंगे और पुस्तक के रूप संकलित किये जाने से पहले वे दोस्ताना एतराज एक बार लेखक को दुबारा से अपनी भाषा के भीतर से गुजरने की राह बनेगें.      


विजय गौड़ 

   

Wednesday, December 9, 2020

राजनीति का काव्यात्मक लहजा- सीता हसीना से एक संवाद

 

पूंजीवादी संस्‍कृति की मुख्‍य प्रवृत्ति है कि नैतिकता और आदर्श का झूठ वहां बहुत जोर-जोर से गाया जाता है। विज्ञापनी जोश ओ खरोश के साथ। तानाकसी के चलन में पूंजीवादी चालाकियों का झूठा आदर्शीकरण किया जाता है। इतने जोर से कि कोई सच स्‍वयं को ही झूठ मानने के विभ्रम में जा फंसे। यही वजह है कि व्‍यापक अर्थ ध्‍वनि से भरे शब्‍द भी वहां अपने रूण अर्थों तक ही सीमित हो जाते हैं। देख सकते हैं कि राजनीति की लोकप्रिय शब्‍दावली में राजनैतिक शुद्धता को अक्‍सर कटटरता के रूप में परिभाषित किया जाने लगताहै। हालांकि शुद्धतावाद की राजनीति की आड़ में विवेक हीनता को छुपा लेने की चालें भी दिककतें पैदा करने वाली ही होती हैं।

अतिवाद के इन दो छोरों के बीच आदर्शों का झूला मध्‍यवर्गीय मिजाज वाला हो ही जाता है। हिंदी साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त राजनैतिक चेतना इसी मध्‍यवर्गीय मिजाज की गिरफ्त में रही है। सिद्धांतत: स्‍वीकारोक्ति के इस माहौल में ही यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद को महत्‍वपूर्ण मान लिया गया है। प्रतिफल में आधुनिकता की विकास प्रक्रिया का बाधित हो जाना और गंवई ढंग का बना रहना सामाजिकी में वास करता रहा है। सामाजिक संयोग के व्‍याप्‍त वातावरण में की जाती रही कदमताल को झूठे रचनात्‍मक आंदोलन से परिभाषित करते रहने की चाल ही गंवई आधुनिकता का पर्याय भी हुई है। जबकि आदर्शोंन्‍मुखी गंवईपन की सरलता का उठान यदि वस्‍तुनिष्‍ठ यथार्थ के साथ सिलसिलेवार बना रहता तो निश्चित ही आधुनिकता की विकासमान रेखा स्‍पष्‍ट होती चली जाती। उसके लिए जरूरी था, राजनैतिक आंदोलन न सिर्फ जारी रहें बल्कि रचनात्‍मक दायरों तक अटते चले जाएं। लेकिन मुक्‍कमिल रूप से ऐसा न हो पाने के कारण रचनात्मक गतिविधियों में मौलिक होने की कोशिशें इस कदर कुचेष्‍टाएं हुई कि गंवई आधुनिकता की सरलता भी भ्रष्‍ट होने लगी और कुतर्कों को सहारा पकड़ते हुए आधुनिकता की ओर भी पेंग बढ़ाती गईं। मध्‍यवर्गीय झूलों की आवृतियों के आयाम इन दो छोरों पर ही दोलन करते नतर आते हैं। मनोगत तरह से समाज का विशलेषण करते हुए यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद की गति अपने मध्‍यमान पर स्थिर रह भी नहीं सकती थी। संतुलन की स्थिति को हांसिल करने के लिए भाषायी जतन नाकाफी होते हैं। शिल्‍पगत प्रयोगों के जरिये और अन्‍य तरह से रूपाकार गढ़ने में वह बनावटीपन का शिकार हो जाते हैं। रचनाकार के भीतर की हताशा और निराशा भी उस छुपे न रह गए को स्‍वयं दिख जाने में ही जन्‍म लेती है।

 

साहित्‍य और कला की दुनिया में 'प्रतिबद्धता' और 'स्‍वतंत्रता' का शोर बहुत ज्‍यादा रहा है। प्रतिबद्धता का स्‍वांग भरते हुए सांगठनिक दायरों के भीतर भी गिरोह बनाने वाले, प्रगतिशील कहलाना चाहते रहे। प्रगतिशीलता को मूल्‍य मानते हुए भी बौद्धिक स्‍वतंत्रता का राग अलापने वाले एवं स्‍वतंत्रता को ब्‍यूरोक्रेटिक अंदाज में बरतने वाले कलावादी खेमे में पहचाने जाते रहे हैं। राजनीति को नकारने की प्रवृत्ति दोनों ही खेमों में अपने-अपने तरह से प्रभावी है। भाषा और शिल्‍प के अतार्किक प्रयोग के नाम पर 'प्रगतिशील' भी 'बौद्धिक स्वतंत्रता' का पक्षधर हो जाने में ही ज्‍यादा गंभीर रचनाकार हो जाना चाहता है। साहित्‍य एवं कला की दुनिया की इस प्रवृत्ति पर चर्चा करने लगें तो यह टिप्‍पणीकार भी मध्‍यवर्गीय दायरे के उस व्‍यवहार से शायद ही पूरी तरह मुक्‍त दिखाई दे जिसकी व्‍याप्ति के असर से विघटनकारी शक्तियां समाज में खुद को स्‍थापित करने में प्रभावी रही हैं। स्‍पष्‍ट जानिये कि मुक्तिबोध की शब्‍दावली में कहा जाने वाला मुहावरा 'पार्टनर तेरी पॉलिटिक्‍स क्‍या है' का आशय सिद्धांत को व्‍यवहार में ढालने और अनुरूप जीवनमय होने के आह्वान की पुकार बनकर हर वक्‍त गूंजता रहने वाला ऐसा राजनैतिक बोध है जिसकी संगति आधुनिकता को ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण रूप से परिभाषित करती रहने वाली है।

 

रचनात्‍मक सक्रियता और ऊर्जा से भरी कथाकार सुभाष पंत की कहानी ''सीता हसीना से एक संवाद'' को पढ़ते हुए ऐसे कितने ही सवाल जेहन में उठते हैं जो खुद के भीतर व्‍याप्‍त अन्‍तर्विरोधों से टकराने का अवसर प्रदान करते हैं। यूं तो 'पॉलीटिकली करेक्‍ट' होने की कोशिश सुभाष पंत कभी नहीं करते। उनका ध्‍येय एक ऐसी राजनीति के पक्ष को रखना होता है जिसमें आम जन के दुख दर्दों का शमन किया जा सके। 'मुन्‍नीबाई की प्रार्थना' से लेकर पहल 122 में प्रकाशित कहानी इसका साक्ष्‍य है। पहल 122 की कहानी से पहले की कहानियों में कथाकार सुभाष पंत की यह रचनात्‍मक विकास यात्रा कदम दर कदम आगे बढ़ते हुए नजर आती है। यानी पहले की कहानियों में संवेदना के स्‍तर पर पाठक को छूने की कोशिशें अक्‍सर हुई हैं। जबकि उल्‍लेखित कहानी के आशय उससे आगे बढकर बात करते हुए हैं।

वर्तमान दौर की सामाजिक चिंताओं को रखने के लिए कथाकार ने कहानी की बुनावट को विभाजन की पृष्‍ठभूमि और उस त्रासदी में की मार को झेलने वाले पात्र की मदद से बहुत से ऐसे इशारें भी किये हैं जिनका वास्‍ता दुनिया में अमन चैन कायम करने की ओर बढ़ता है। उसके लिए जिन औजारों का प्रयोग होना है, कथाकार के यहां वे औजार साहित्‍य के रूप में दिखायी देते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना का यह कहना यूंही नहीं, ''कृपया बताइए कि बिशन सिंह पागल है या सियासत पागल है जिसने एक लाख बीस हजार लोगों को बेघरबार किया, दस लाख्‍ लोगों को मौत के मुंह में धकेला और पिचहतर हजार औरतों को ज्‍या‍दतियों का शिकार किए जाने को मजबूर किया और यह भी कि टोबाटेक सिह कहानी बड़ी है या उसका लेखक बड़ा है ?''

घटनाओं के संयोग से बुनी जाने वाली रचनाओं पर लेखक का भरोसा हमेशा से है। साहित्‍य के प्रति लेखक के भीतर अतिशय विश्‍वास की यह उपज हिंदी की रचनात्‍मक दुनिया के बीच से ही है। लेकिन बिगड़ते सामाजिक हालातों ने शायद लेखक के भीतर के इस विश्‍वास पर सेंधमारी सी कर दी है। ऐसे में अपने भरोसे पर टिके रहना लाजिमी है। यह कहानी उस द्वंद को उभारने में भी सक्षम है। कथा पात्र सीता हसीना का सवाल इस विश्‍वास का चुनौती देता है और कथाकार के भीतर के द्वंद ही सीता हसीना के सवालों में जगह पा जाते हैं।     

  

 

पंत जी की यह कहानी समाज और साहित्‍य के जरूरी रिश्‍तों पर एक बहस शुरू करते हुए जिस तरह से अपने कथानक में प्रवेश करती है, उससे गुजरते हुए यह देखा जा सकता है कि यह कहानी आलोचना की उस शाखा से परहेज कर रही है जिसने बदलावों के झूठ में रचे गये की अनुशंसा या उसको सही दिशा मान लेने को ही सर्वोपरी माना है। ऐसी रचनाओं के कथानक सत्‍य घटनाओं वाले यथार्थ की गारंटी करते हुए भी हो सकते हैं। 'सीता हसीना' का लेखक संवेदना के धरातल पर भीतर तक हिला देने वाली रचनाओं से रिश्‍ता बनाना चाहता है। मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' का जिक्र अनायास नहीं है, लेखकीय मंशा को जाहिर करता है।

मनुष्‍य की पहचान को धर्म के साथ देखने का आग्रह, उस वैचारिकता से मुक्‍त नहीं जिसने धर्मनिरपेक्षता को 'सर्वधर्म सम्‍भाव' की तरह से परिभाषित किया है। लेकिन कहानी में लेखकीय वैचारिकी का यह तत्‍व इसलिए अनूठा होकर उभर रहा है कि यहां लेखक समाज के शत्रुओं से निपटने के लिए निहत्‍था होकर उनके घर में प्रवेश करते हुए भी उनके ही हथियारों से लड़ने की कला का नमूना पेश करता है। दुश्‍मन के खेमे में घुसकर लड़ना, निहत्‍थे होकर घुसना और दुश्‍मन के हथियारों से ही उस पर वार करना, इस कला को सीखना हो तो कथाकार सुभाष की इस कहानी को विशेष तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। कोई रचनाकार अपने समय काल से जब पूरी तरह संवादरत रहता है, तो ही ऐसी रचनाएं सामने आती हैं।

 

समाज के विकास में राष्‍ट्रवाद एक चरण है, लेकिन अन्तिम नहीं। यह कहानी भी कुछ इसी तरह की अनुगंजों में घटित होती है। स्‍थानिकता से वैश्विक होती यह एक अन्‍तराष्‍ट्रीय फ्रेम को बनाती रचना है। यथार्थ की पृष्‍ठभूमि से उपजी और अवधारणा के स्‍तर पर जददो जहद करने को मजबूर करती यह एक राजनैतिक कहानी है। जिसकी रेंज राष्‍ट्रवाद तक सीमित नहीं है। झूठे राष्‍ट्रवाद की प्रतीक 'माता' की स्‍थापना में धर्मों की विभिन्‍नता भरे समाज की कल्‍पना करता है, बल्कि इतिहास में मौजूद इस सच को ही प्रमुख बना देता है। अपने माता-पिता के धर्मो का खुलासा करती सीता हसीना दरअसल भारत माता की उस छवि को देखने का इशारा बार-बार कर रही है जिसकी संगति में 'विशेष धर्म ही राष्‍ट्र है', मध्‍यवर्ग के बीच इधर काफी ही तक स्‍वीकार्य होता हुआ है। आपसी भाईचारे में आकार लेता समाज संरचित करने का यह तरीका उस राजनीति का पर्याय है जिसका वास्‍ता सर्वधर्म सम्‍भाव से रहा है। राष्‍ट्रवादी झूठ को फैलाने वाले भी जिसके सहारे ही जब चाहे तब प्रेममय दिख सकते हैं और जब चाहे तब 'लव-जेहाद' के फतवे जारी करते रहते हैं। पंत जी कहानी कुछ-कुछ उस ध्‍वनि को ही अपना बनाती है जिसने 'लव-जेहाद' के शाब्दिक अर्थ को विग्रहित करके उसकी नकारात्‍मक अर्थ-ध्‍वनि को चुनौती देनी शुरू की है। हालांकि अपने निहित अर्थ में यह चुनौती भी कोई ऐसा फलसफा लेकर साने नहीं आती जिसमें आर्मिक आग्रहों से जकड़ा समाज मुक्ति की राह पर बढ़ सके।     

ठीक इसी तरह पंत जी भी अपनी उल्‍लेखनी कहानी में झूठे राष्‍ट्रवादी से मुक्‍त नहीं हो पाते हैं और उसकी जद में ही बने रहते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना के मार्फत विभाजन के कारणों पर टिप्‍पणी करते हुए सीता हसीना का संवाद सुनाई पड़ता है- दरअसल यह ऐसा जंक्‍चर है जहां से खड़े होकर एक लेखक के भीतर परम्‍परा की गहरी जड़ों और उससे मुक्ति की चाह भरी छटपटाहट को समझा जा सकता है। उसकी गति को पहचाना जा सकता है। उसके उपजने के सामाजिक, नैतिक कारणें की पड़ताल की जा सकती है।   

      

अध्‍यात्‍म की गरिमा और कलाओं का माधुर्य कहते वक्‍त पंत जी के जेहन में क्‍या रहा होगा, यह विचारणीय है। सीता हसीना का परिचय देते हुए कथा का नैरेटर ऐसा वर्णन करता करता है। निश्चित ही यह बिन्‍दू गंवई आधुनिकता से पूरी तरह मुक्‍त न हो पाए रचनाकार का परिचय देता है। अलबत्‍ता यह कहानी अपनी बुनावट में आधुनिकता के झूठ को रचने वाली कहानियों की रफ्तार में एक हद तक शामिल होते हुए भी खुद को उससे बाहर ले आने की कोशिश भी लगती है। मेरा मानना है कि इस कहानी का महत्‍व कहानी के बीच आए इस संवाद में तलाशा जा सकता, ''मैंने एक अनिश्वरवादी धर्म के बारे में भी जाना, जिसकी मान्यता है कि सृष्टि का संचालन करनेवाला कोई नहीं है, वह स्वयं संचालित और स्वयं शासित।'' वैसे कहानी में यह संवाद एक विशेष धर्म की बात करते हुए कहा गया है लेकिन इसका अर्थ विस्‍तार करें तो धर्म विलुप्‍त हो सकता है और एक ऐसी राजनीति का चेहरा आकार ले सकता है जो सामाजिक व्‍यवस्‍था के संचालन में स्‍वय्रं को ही विलोपित कर लेने का आदर्श हो सकती है। यहीं उनकी गद्य भाषा का मिजाज भी काव्यात्मक लहजे की बानगी बनता है। हालांकि यदा-कदा की अपनी बातचीत में सुभाष पंत कविता के मामले में खुद की समझ पर संदेह से भरे रहते हैं। उनके पाठक भी उन्‍हें कहानीकार के रूप में ही जानते हैं। यूं भी उन्‍होंने कभी कोई कविता नहीं लिखी, अपने लेखन के शुरूआती दौर में भी नहीं।

Friday, May 22, 2020

तितलियों का प्रारब्ध

हिदी साहित्य की दुनिया में समीक्षातमक टिप्पणी को भी आलोचना मान लेना बहुप्रचलित व्यवहार है। इसकी वजह से आलोचना जो भी व्यवस्थित स्वरूप दिखता है, वह बहुत सीमित है। दूसरी ओर यह भी हुआ है कि समीक्षा के नाम पर वे विज्ञापनी जानकारियां जिन्हें पुस्तक व्यवसाय का अंग होना चाहिए, रचनात्मक लेखन के दायरे में गिना जाती है।
समीक्षा के क्षेत्र में इधर लगातार दिखाई दे रहे चन्द्रनाथ मिश्रा की उपस्थिति और उनकी लिखी समीक्षाएं आलोचनात्मक टिप्पणियों की बानगी बन रही है।
लेखिका श्रीमती नयनतारा सहगल के रचनात्मक साहित्य पर चन्द्रनाथ मिश्रा की लिखी समीक्षात्मक टिप्पणिया यहां चन्द्रनाथ मिश्रा से गुजारिश करते हुए इसी आशय के साथ प्रस्तुत हैं कि जिस शिद्दत के साथ वे फेसबुक पर लिख रहे हैं, उसी ऊर्जा के साथ साहित्य की दुनिया में पत्र पत्रिकाओं के जरिये भी अपनी दखल के लिए मन बनाएं। यह ब्लॉग उनकी ताजा टिप्पणी को यहां प्रस्तुत करते हुए अपने को समृद्ध कर रहा है।

वि गौ





अपने जीवन के 92 वे वर्ष में नयन तारा सेहगल उतनी ही सटीक, प्रभावशाली एवं राजनीतिक तौर पर मुखर हैं जितना वे अपने लेखन के प्रारम्भिक दिनों में जब उन्होंने Rich like us,(1985), Plans for departure (1985), Mistaken identity (1988) और Lesser Breeds(2003) आदि पुस्तकें लिखी थीं। वे PUCL (people's union  for civil liberties) की  Vice President की हैसियत से वैचारिक स्वतन्त्रता एवं प्रजातांत्रिक अधिकारो पर हो रहे प्रहारों के विरोध में सतत लिखति और बोलती रहीं। उन्हें साहित्य अकादमी, सिंक्लेयर प्राइस तथा कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज से नवाजा गया है।
फेट ऑफ बटरफ्लाईज़ पाँच छह लोगों की जिंदगी कि कहानी है जो ऐसे वक्त से गुज़र रहे हैं जो हमारा और हमारे देश का  ही वर्तमान है।ऐसा दौर जिसमे साम्प्रदयिक दंगो, लिँग औऱ  जाती के आधार पर भेद भाव  तथा राजनीति में घोर दक्षिण पन्थ  का बोलबाला है।इन लोंगो की नियति विभिन्न देश काल मे रहते हुए भी कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़ी है। फेट ऑफ बटरफ्लाई इन चरित्रों के जीवन पर  पड़ने वाले तत्कालीन राजनैतिक सामाजिक प्रभावो की कहानी है जिसने परिस्थितिजन्य कारणों से उनके जीवन को असीम दुख और विषाद से भर दिया। ये कहानी है सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी कैटरीना की  जिसका क्रूर  सामूहिक बलात्कार हुआ । जिस गांव में वह मदद के लिए गयी थी वहां के लोगों को उनके घरोँ में जिंदा जला दिया गया। ये कहानी है समलैंगिक युगल प्रह्लाद और फ्रैंकोइस की जिन्हे बुरी तरह पीटा गया और जिनका बुटिक होटल   दंगाइयों द्वारा मलवे के ढेर में बदल दिया गया। प्रह्लाद जो एक अच्छा नर्तक था अब कभी नही नाच सकेगा। लेकिन इस सब त्रासदियों के  बावजूद  ये महज़ नाउम्मीदी की दास्ताँन न होकर कही न कही जिंदगी में ख़ुसी औऱ जीने की छोटी से छोटी वजह  ढूंढ लेने की कामयाब कोशिस की भी कहानी है।
चूंकि उपन्यास मूल रूप से संकछिप्त है इसलिए संभवतः कथानक में  बहुत सी परतें मुमकिन नहीं थी। लेकिन विशेष परिस्थितियों की संरचना, समय का  चित्रण,  चरित्र विशेष की अंतर्दृष्टि, या भविष्य की  हृदयहीनता का पूर्वानुमान बखूबी घटनाओं व पत्रों के  माध्यम से दर्षित है।
प्रभाकर जो राजनीति शास्त्र का प्रोफेसर है एक दिन चौराहे पर एक नग्न शव देखता है, जिसके सिर पर केवल एक शिरस्त्राण है।
इसके कुछ दिनों बाद वह कैटरीना पर हुए सामूहिक बलात्कार की कहानी ,उसि के मुह से ,एक सादे और संवेग हीन बयान के रूप में सुनता है।  कैटरीना पर बीते हुए कल का प्रभाव इतना गहन है कि प्रभाकर के हाथ का हल्का सा स्पर्ष भी कैटरीना को आतंक से भर देता है।  वह एक नर्सरी स्कूल में जाता है जहां उसे बताया जाता कि किस प्रकार  कुछ अन्य स्कूलों में तितलियों को मार कर उन्हें बोर्ड में पिन से लगाकर रखा जाता है । प्रभाकर ऐसी बहुत सी  घटनाओ को देखता, सुनता और उनसे  प्रभावित होता है। वह अपने प्रिय रेस्टोरेंट बोंज़ूर को दंगाइयों द्वारा तवाह होते हुए देखता है, जहां उसकी प्रिय डिश गूलर कबाब पेश की जाती थी, जो रफीक़ मियां बनाया करते थे।
इन सब दृश्यों और घटनाओं से ऊपर मीराजकर जो एक राजीतिक नीति निर्देशक हैं। वह देश को उन सब तत्वों और प्रभाबो से मुक्त करना चाहतें हैं जो उनके अनुसार देश की तथाकथित सभ्यता औऱ संस्कृती से मेल नही खाते।जाहिर है  इस सभ्यता और संस्कृति की  परिभाषा और ब्यख्या  मीराजकर और उनके पार्टी  के लोग अपनी तरह से करते हैं। हिटलर के extermination की अवधारणा संभवतः इसी सोच का तार्किक विस्तार था।
प्रभाकर अपनी पुस्तक के कारण इन दक्षिणपंथी चिन्तको का ध्यान आकर्षित करता है। इस पुस्तक के माध्यम से वह राष्ट्र के लिए एक नई शुरूआत की परिकल्पना रखता है। उदाहरण के लिए वह गांधी की विशाल  छाया से देश को बाहर निकालने की कल्पना करता है। यद्दपि प्रभाकर किसी विचारधारा या सिद्धान्त से  प्रतिबद्ध नही होना चाहता यथापि परिस्थितिबस उसे एक ऐसे समारोह में जाना पड़ता है जहा राजनीतिक लोगों का जमावड़ा है जो सत्ता के केन्द्रीयकरण के घोर समर्थक हैं। एक भव्य हॉल में महँगी शराब और उत्कृष्ठ देसी विदेशी व्यंजनों का स्वाद चखते हुए  प्रभाकर जो कि एक मजदूर का बेटा तथा पादरियों द्वारा पाला हुआ था , औऱ एक गहन त्रासदी भरा बचपन बहुत पीछे छोड़कर आया था, स्वयम को ऐसे पुरोधाओं में बीच पाता है जो यूरोपियन महाद्वीप में दक्षिणपंथ के उत्थान का ऊत्सव मनाने को एकत्र हुए है। यहाँ प्रभाकर की तुलना वज्ञानिक फ्रेंकएस्टिन से की जाती है ,जिसने ऐसे राक्षस को पैदा किया जिसने विस्व में तवाही मचा दी।
प्रभाकर अपनी पुस्तक में इस थियोरी को प्रतिपादित करता है की अंतिम प्रभाव उनका नही होता जो अच्छाई, सदभाव व करूणा की बात करते हैं बल्कि  'matter of factness of cruelty'  (क्रूरता के वास्तविक प्रभाव)का होता है।
सर्जेई एक हथियार का व्यापारी है। उसका व्यापार भारत मे है। जो उसे पिता से विरासत में मिला है। हथियार के व्यापार को लेकर उसकी दुविधा का चित्रण
उल्लेखनीय है।

ये सारे क़िरदार एक बदलते हुए भारत के परिवेस में अपने अपने तरीके से अवतरित होते हैं।
उनकी जिंदगी कंही 'काऊ कमिशन'जो कि गो-माँस खाने वालों के उन्मूलन के लिए प्रयासरत है, से भी प्रभावित है। तथाकथित बुद्धिजीवी जो इतिहास का पुनर्लेखन व विश्लेषण  अपने एजेंडा और स्वार्थ के लिए कर रहे है, अपने अपने तरीके से सामने आते है।
पुस्तक की संकछिप्तता के कारण कई प्रसंगों के कल्पना की व्यापकता नियंत्रित लगती है। भाषा पर नयनतारा सहगल का अद्भुत नियंत्रण एवं इतिहास का विषद ज्ञान पुस्तक में  हर जगह परिलक्षित है। देस विदेश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सन्दर्भ लेखिका के विस्तृत ज्ञान और उनके लेखन के विस्तार का होराइजन दर्शाते है। उपन्यास  की भावप्रवणता  दुरदमनिय  है जहां जीवन की तमाम त्रासदियों और विसंगतियों के बावजूद अच्छे भविष्य का सपना कहीं ना कहीं झलकता रहता है।  मानवता कितनी भी अधोगामी हो जाए, चांदनी रात में नृत्य की अभिलाषा पूरी तरह कभी दमित नहीं होती।