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Tuesday, July 10, 2012

जिन्दगी से रची सरगम

पेशे से डाक्टर डा. जितेन्द्र भारती साहित्य के अध्येता हैं। कहानियां लिखते हैं। वैसे सच कहूं तो लिखते कम हैं सुनाते ज्यादा हैं। घटनाओं को कथा के रूप में सुनाने का उनका अंदाज निराला होता है। यकीकन वे किस्सागो हैं। उन सभी किस्सों को यदि वे लिख ले तो बेहतरीन कहानियां हैं। लेकिन वे लिखते कम ही हैं। कुछ ही कहानियां लिखी हैं। वैसे भी उनसे कुछ लिखवा लेना बड़ा मुश्किल होता है। लेकिन पेरिन दाजी पर लिखी संस्मरणात्मक  किताब के बाबत उन्होंने अपनी खुद की प्रेरणा से लिखा है।   डा.  भारती की यह खूबी है कि उनका मन जिस बाबत खुद से होता है, वही लिखते हैं और मनोयोग से लिखते हैं। उनके लिखे को यहां प्रस्तुत कर पाना हमारे लिए उपलब्धि से कम नहीं। 
वि.गौ.

 
डा. जितेन्द्र भारती
 
बेशक पेरिनदाजी और होमीदाजी ने प्रेम किया, विवाह किया और साठ वर्षो का एक लम्बा पारिवारिक जीवन जिया। अपनी आंखों कें सामने अपने जवान बच्चो को एक के बाद एक केंसर व अन्य जान लेवा बिमारियों मे जाते देखा। होमी दाजी ने स्वयं भी कई सारी तकलीफदेह बिमारियों को झेला। सेहत छिनी। सुख-चैन छिना। जिन्दगी के हालात भी बद से बदतर होते रहे लेकिन इन दोनों दाजियो के बीच इनका प्रेम उत्तरोतर समृद्ध ही होता गया। एक र्साथक प्रेम की सरगम थी इन की जिन्दगी। पेरिन दाजी ने बात तो अपनी और होमी दाजी की कही, मगर नहीं, उन्होने जमाने की नब्ज पकडी और जमाने की ही बात कही। इन्दौर के औधोगिक राजधानी  बनने, उसके शहरीकरण, उसके सर्वहाराकरण, राजनितिक सत्ताओं के गठजोड, चुनाव की उत्सवधर्मिता की बातें और बाकी तमाम बातों मे ही होमी दाजी, बतौर कामरेड, बतौर इसान हर कहीं मौजूद हैं। उन दोनो का प्रेम उनकी सीमाओं से बाहर-बाहर तक फैला हुआ। यह पेरिन दाजी की निर्दोष लेखनी का कमाल है जो अनजाने मे इतना कुछ कह गयी है जे सधे हुए लेखको के लिए सीखने लायक है। एक तरफ बांहें फैलाता पेरिन दाजी और होमी दाजी का प्रेम है। दूसरी तरफ लेखन के कथित विश्वास से भरे सुधी जनो के साहित्य जगत मे इस बीच प्रेम को लेकर कई सारे विशेषांक निकले। जिनमे दर्जनो कहानियां, बिसियों लेख और सैंकडो कविताएं साथ ही ढेर सारी टिप्पणियां पाठको ने देखी। प्रेम ही प्रेम था हर तरफ। शायद नहीं था। हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने अपने सम्पादकीय में प्रेम भावों का जायजा लिया। उन्होने अफसोस जनक सिथतियों और उनकी अभिव्यकितयों में हस्तक्षेप किया और रुटीन प्रेम को सन्देह से देखते हुए बलिक अपर्याप्त सा मानते हुए लिखा कि पिछले पचास सालों मे पति-पत्नी के बीच प्रेम की कोई रचना उन्होने नहीं देखी। बात यूंही और महज छेडखानी भी नही थी। पति-पत्नी के बीच का प्रेम या कहा जाय उनका प्रेम कब और कहां बिला जाता है यह शायद उन्हें भी पता नही चलता। उसकी ऊष्मा और उद्वेग क्या सिथति ग्रहण कर लेते हैं? या उनहे चिह्नित नहीं किया जा सकता या मुशिकल  हो जाता है,  बहर हाल! मामला आसान तो नही रह जाता।
 नैतिक व उपदेशात्मक कथित ज्ञान आमतौर पर द्वन्दात्मक और अनतर तनावों को संप्रेषित न करके एकतरफियत के संवाहक होते हैं, लिहाजा काम नही करते। इनका नाकाम रह जाना ही यह भी बता जाता है कि वें स्थितियां उतनी समान और सामान्यता से गुंथी नही हैं बलिक असामान्य व असमानता उनकी हकीकत है। अब उस असामान्य सिथतियों को देखने, समझने और उनमे हस्तक्षेप के दृषिटकोणों का संम्बन्ध और अन्तर-सम्बन्धों का तादात्मय से एक नया उत्कर्ष पैदा होगा। जो उन्हे महज पति-पत्नी न रहने देकर, उन्हें साथ ही एक कार्मिक भी बनाता है। यहां भी एक अपनापा और प्रेम का उन्मेष उपजता है जिसमे एक आर्कषण भी होगा। बेशक वे मौजूदा अर्थों वाले पति-पत्नी रह भी नहीं जायेगें। ये अन्तर्विरोधी और द्वन्दात्मक तनावों से ओत-प्रोत परिवेश, उनमें ठहराव आने ही नही देगा। यह वस्तुगत यथार्थ है जो गतिशील है, और इससे उपजा प्रेम भी।
पेरिन दाजी और होमी दाजी का यह प्रेम प्रेरणादायक है। जो पति-पत्नी को उस सम्बंध से बाहर असीमता और विस्तार में ले जाता है जहां उनका व्यकितत्व और भी खुलता और खिलता है।
कामरेड होमी दाजी किसी भी पार्टी मे होते तो भी वे कामरेड ही होते। अगर वे ऐसा संघर्ष कर रहे होते तो। बेशक वे कम्युसिट पार्टी मे प्रतिबद्धता के साथ रहे।
कामरेडस इन आर्म्स। इसका भावार्थ ही-सकारात्मक और रचनात्मक आयामों मे-साथी और साझीपना है। वे अच्छे कामरेड थे, इसलिए एक अच्छे कम्युनिस्ट थे।
पेरिन दाजी द्वारा 'अपने कामरेड को यूं याद किया जाना, जिन्दगी की एक सरगम जैसा ही है। पेरिन दाजी ने अपने अनजाने ही यादो की रोशनी के माघ्यम से एक बेहतरीन रचना-कथा संस्मरण हिन्दी के साहित्य और समाज को दिया है जिसमे सीखने को काफी कुछ है उसे पढा और पढवाया जाना चाहिए ,                          
-और, पेरिन दाजी को ? होमी दाजी तक पहुंचने वाला-लाल सलाम ।