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Thursday, June 25, 2015

प्रेम, प्रकृति और मिथक का अनूठा संसार


हमारे द्वारा पुकारे जाने वाले नाम प्रीति को स्‍वीकारते हुए भी हमारी साथी प्रमोद कुमारी ने अब प्रमोद के अहमदपुर के नाम से लिखना तय किया है। अहमदपुर उनके प्रिय भूगोल का नाम है। प्रीति का वर्तमान भूगोल यद्यपि देहरादून है। डॉ शोभाराम शर्मा द्वारा अनुदित ओर संवाद प्रकाशन से प्रकाशित उपन्‍यास जब व्हेल पलायन करते हैं की समीक्षा प्रीति द्वारा की गयी है। रचनात्‍मक सहयोग के लिए प्रीति का आभार ।
वि गौ
 
प्रमोद के अहमदपुर 

प्रेम की ताकत पशु को भी मनुष्य बना सकती है। प्रेम की ताकत को दुनिया भर की आदिम जनजातियां भी सभ्यता का प्रकाश फैलने से पहले ही पहचान चुकी थीं जो उनकी दंतकथाआें में आज भी देखने को मिलता है। एेसी ही प्रेम की ताकत की कथा है यह उपन्यास। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मनुष्यता का इतिहास सदियों से संजोई गई एेसी ही दंतकथाआें में परतदर परत दर्ज हैजो बुद्ध की तरह प्रेम और करुणा से मनुष्य के मनुष्य हो जाने में विश्वास करती हैं। इन्हीं जीवन मूल्यों में रचा बसा प्रेम प्रकृति और मिथक का अनूठा संसार है उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं।' 
ऐसे समय में जब समूचा विश्व हिंसा से ग्रस्त हो। दुनिया के ताकतवर देश अपनी वस्तुआें के लिए बाजार पैदा करने के लिए अपने से कमजोर देशों पर अपने मूल्य लादने में जुटें हो और संकीर्णता व सनक के मारे कुछ लोग अपने ही इतिहास को नष्ट करने में जुटे होंसिर्फ इसलिए दूसरों की हत्या कर देते हों कि वे उनके जैसे नहीं दिखते। एेसे में डॉ. शोभाराम शर्मा द्वारा अनुदित उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं का प्रकाशन एकसुखद अनुभूति देता है। यह उपन्यास बताता है कि प्रेम की ताकत से ही मनुष्यता आज तक जीवित है। दरअसल प्रेम ही मनुष्य की जीवन शक्ति है। प्रेम उसके सभी क्रियाकलापों का केंद्र बिंदु है। जब भी मनुष्य इस सत्य को भुला देता है या उससे दूर हो जाता हैमानवता का खून बहने लगता है। 
जब व्हेल पलायन करते हैं साइबेरिया की अल्पसंख्यक चुकची जनजाति की अद्भुत कलात्मक दंत कथाआें व लोक विश्वासों पर आधारित उपन्यास है। वह दंतकथा जो साइबेरिया के चुकची कबीले के लोग ठिठुरती ध्रुवीय रातों में यारंगा (रेनडियर की खाल के तंबू) के भीतर चरबी के दीयों की हल्की रोशनी में न जाने कितनी सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सुनाते आ रहे हैं। चुकची जनजाति के लोगों का भोलासा विश्वास है कि वे व्हेलों के वंशज हैं। इस जनजाति के पहले लेखक यूरी रित्ख्यू की इस पुस्तक का ईव मैनिंग द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 19७7 में सोवियत लिटरेचर में प्रकाशित हुआ था। यह लघु उपन्यास या कहें आधुनिक दंत कथा मौखिक कथा कहने का एक बहुत ही सुंदर नमूना है। व्हेलों और इंसानों के बीच के रिश्तों की कवितामयी कहानी कहता यह लघु उपन्यास उन लोगों के लिए भी अहम है जो पुराने लोगों की कथाआें को हंसी में उड़ा देते हैं और मनुष्य के अनुभवजन्य ज्ञान की उपेक्षा कर मुनाफे और लालच के मारे अपने ही पर्यावरण का विनाश करते हैं।
मनुष्य के ह्वेल में बदल जाने और व्हेल के मनुष्य में बदल जाने की यह कथा मौजूदा दौर के एक चुकची व्यक्ति द्वारा आधुनिक संदर्भों में फिर से कही गई दंतकथा है। जो एक कथा वाचक की तरह अपनी लोक कथा को अपने समय के संदर्भ में पेश करता है। यह उपन्यास इस तरह से विकास के आधुनिक पश्चिमी विचार की भी तीखी मानवीय आलोचना करता है। यह दंतकथा मौजूदा लालच और मुनाफे की व्यवस्था पर भी प्रहार करती है और बिना किसी घोषणा के बताती है कि प्रकृति से मनुष्य का तादात्म्य कितना जरूरी है और यदि मनुष्य के हृदय में प्रेम न हो तो प्रकृति से तादात्म्य भी असंभव है। यूरी रित्ख्यू ने भी अपनी मूल भूमिका में लिखा है''जब एक पुस्तक लिखी जाती है तो कभी कभी वह एेसे पहलुआें और विशेषताआें को प्रदर्शित कर बैठती हैजिस पर लिखते समय लेखक ने सोचा तक न हो। मैं इस पुस्तक में कुछ एेसा ही पाता हूं।'' डॉ. शोभाराम शर्मा ने इस उपन्यास को अंग्रेजी से  हिंदी में प्रस्तुत किया है। पुस्तक की खास बात यह है कि इसमें उपन्यास की यूरी रित्ख्यू की मूल भूमिका के साथसाथ यूरी रित्ख्यू के दो लेख स्वर लहरी के संगसंग और सदियों की छलांग भी शामिल हैंजो उपन्यास लिखे जाने की पृष्ठभूमि समझने में पाठक की मदद करते हैं। अनुवादक की भूमिका और परिशिष्ट में उनके द्वारा दिया गया यूरी रित्ख्यू का साहित्यिक परिचय स्पष्ट कर देता है कि मनुष्य के मनुष्य बने रहने के लिए लोक विश्वासों व दंतकथाआें पर आधारित एेसी कृतियां कितनी जरूरी हैं। अनुवादक डॉ. शोभाराम शर्मा ने भी अपनी भूमिका में लिखा है—''यदि हमारे लेखक भी अपने लोक साहित्य और दंतकथाआें की बहुमूल्य थाती का उपयोग कर एेसी निर्दोष कलाकृतियां प्रस्तुत कर सकें तो कितना अच्छा हो।''

जब व्हेल पलायन करते हैं : मूल लेखक यूरी रित्ख्यू
अनुवाद : डॉ. शोभाराम शर्मा
संवाद प्रकाशन, आई-499 शास्त्रीनगर मेरठ-250004 (उ.प्र.)
संवाद प्रकाशन, ए-4, ईडन रोज,वृन्दावन एवरशाइन सिटी वसई रोड (पूर्व)
ठाणे (महाराष्ट्र.) पिन-401208

Monday, April 22, 2013

पेशावर विद्रोह की वर्षगांठ (23 अप्रैल:) पर विशेष



हुतात्मा एक सच्चे जनयोद्धा की महाकाव्यात्मक संघर्ष गाथा
एक सच्चे जनयोद्धा की महागाथा


उषा नौडियाल



डॉ. शोभा राम शर्मा द्वारा रचित महाकाव्य हुतात्मा पेशावर विद्रोह के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के संपूर्ण जीवन की महाकाव्यात्मक प्रस्तुति है। आत्मविज्ञापन, आत्मश्लाघा के इस दौर में जब हर वस्तु, हर विचार बाजारवाद का शिकार या पोषक हो रहा है। ऐसे समय में साहित्य ही मनुष्य को उसके जीवन मूल्यों का बोध कराने के साथ साथ उसकी संघर्षशीलता का स्मरण करा सकता है। 
आजादी के सच्चे सिपाहियों के जीवन संघर्ष और आत्म बलिदान से अवगत कराए बिना दिग्भ्रमित युवा पीढी को विचार शून्यता से बचाना असं व है। उत्तराखंड समेत पूरे देश में आज निजी स्वार्थों को लेकर जिस तरह की राजनीति हो रही है उसमें पेशावर विद्रोह के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली और ी प्रासंगिक हो गए हैं। इन स्थितियों में वंशवाद व सांप्रदायिकता में लिपटी थोथी देशभक्ति की पोल खोलना ी जरूरी है। चंद्र सिंह गढ़वाली जिन्हे पहले अंग्रेजों ने करीब 13 वर्ष फिर देश की आजाद सरकार ने कई बार कारावास में रखा। आर्य समाज से गांधीवाद, फिर कम्युनिज्म तक उनकी विचारयात्रा ,उथलपुथल से री 20वीं सदी के ारत के राजनीतिक इतिहास की महागाथा है। तमाम विपरीत परिस्थितियों में ी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली टूटे न झुके। वह चाहते तो आसानी से विधायक या सांसद हो सकते थे। पंडित नेहरू ने उन्हे खुद कांग्रेस का टिकट देने की पेशकश की थी। लेकिन उन्होनेे विचारधारा से समझौता नहीं किया। आर्थिक तंगी के वावजूद वे विचारधारा की तलवार लिए आजादी के बाद ी वंचित वर्ग की असली आजादी के लिए लड़ते रहे। जिसका स्वप्न कितने कर्मवीरों और शहीदों ने देखा था। कविता के रूप में उनके संघर्ष का समग्र चित्रण निश्चय ही पाठकों को कौतुहूल के साथ उद्वेलित, आनंदित व किंचित विस्मित करने में समर्थ है। 
कविता का वास्तविक उद्देश्य जितना पाठकों के हृदय में सौंदर्यानुभूति जगाना है,उससे अधिक उद्दात मानवीय अनुभूतियों का प्रस्फुटन करना है। प्रकृति की तरह ही कविता ी त्रस्त हृदय के लिए मरहम का काम करती है। 
नर को अपना लोक न ाता, ाता मन का छायालोक। 
त्रस्त हृदय की पीड़ा हरता, सुख सपनों का मायालोक।। (केदार यात्रा पृष्ठ-28)
उच्च कोटि की कविता में एक यूनिवर्सल अपील होती है। वह सार्वभौमिक और सर्वकालिक होती है। हुतात्मा महाकाव्य का फलक अपने नाम के अनुरूप विस्तृत और व्यापक है। जहां एक ओर नायक के जीवन का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवरण है, वहीं दूसरी ओर तत्कालीन समाज, उसके परिवेश, संस्कृति का सूक्ष्म और गहन चित्रण ी है। मानवीय ावनाओं पर गहरी पकड़ और अंतर्मन की गुत्थियों को उजागर करता मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ी परिलक्षित होता है। प्रामाणिक युग चित्रण कवि की विद्वता और अध्ययनशीलता की छाप छोड़ जाता है। महाकाव्य एक ओर गुलाम ारत में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दारुण यंत्रणा का मार्मिक चित्रण है वहीं दूसरी ओर प्रथम विश्वयुद्ध व सके कारणों और प्रभावों का सरल विवरण है
पूरबपश्चिम, उत्तर दक्खिन बांट चुके सब योरुप वाले।
दुनिया उनके हाथों में थी, दास बने जन पीले काले।।
बाजारों की छीनाझपटी, अपनी अपनी धाक जमाना।
गौरांगों में होड़ लगी थी, युद्ध-युद्ध का छेड़ तराना।। (प्रथम विश्वयुद्ध पृष्ठ-4)
  ारत की आजादी के संघर्ष का हो या आजादी के बाद का काल। तमाम राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का विशद विवरण निश्चय ही गहन अध्ययन और सूक्ष्म अनुसंधान के बिना सं व नहीं हो सकता। पर्वतवासियों के सरल जीवन की विकट परिस्थितियों का चित्रण, उनकी स्वभावगत सरलता, जुझारूपन और खुद्दारपन का चित्रण गढ़वालीजी के जीवन चित्रण के माध्यम से उ रकर आया है। पलायन की समस्या पर ये पंक्तियां सटीक और मार्मिक प्रतीत होती हैं- 
इस धरा के फूल कितने खल अ ावों में पले हैं।
शठ उदर का पेट रने हर छलावों में छले हैं।।
स्वर्ग जैसी ूमि से उड, दूर बीती है जवानी।
हिम शिलाओं के तले यह आपबीती है पुरानी ।।(केदारभूमि पृष्ठ-14)
प्रगतिशीलता के प्रति कवि की निजी प्रतिबद्धता, व्यवस्था परिवर्तन की अदम्य आकांक्षा काव्य में आद्योपांत झलकती है। अभिव्यक्ति की स्पष्टता, ावोें की संप्रेषणीयता ाषा के सहज सौंदर्य व सौष्ठव के माध्यम से बरकरार है। प्रकृति चित्रण में संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग जहां अनिवार्य प्रतीत होता है वहीं अन्य घटनाओं के चित्रण में बोलचाल की ंिहदी और स्थानीय गढ़वाली शब्दों का प्रयोग प्रशंसनीय है। करीब 300 पृष्ठो का यह महाकाव्य इन अर्थों में महत्वपूर्ण है कि हिंदी कविता से लग ग बाहर कर दी गई छंदबद्ध कविता को यह पुनर्प्रतिष्ठित करने का प्रयास करता है। हुतात्मा को ंिहदी कविता में महाकाव्य और छंद की वापसी के तौर पर ी देखा जा सकता है। महाकाव्यो में जहां नायक राजा महाराजा, उच्चकुल उत्पन्न, दिव्यगुणों, महान आदर्शों वाले व मानवीय दुर्बलताओं से मुक्त होते हैं वहीं हुतात्मा का नायक वीर ढ़़वाली एक सामान्य कुल में उत्पन्न आम आदमी हैं जिन्होंने उच्च मानवीय आदर्शों को जिया। इस नाते यह पुस्तक महाकाव्य की शाóीय परिभाषा की रुढ़ि को ी तोड़ती है।  

Monday, April 23, 2012

पेशावर-काण्ड का प्रभाव



उत्तराखण्ड और इस ब्लाग के महत्वपूर्ण रचनाकार डा. शोभाराम शर्मा  की पुस्तक  "हुतात्मा" के प्रकाशन की सूचना आज प्राप्त होना एक संयोग ही है। २३ अप्रैल १९३० यानी आज ही के दिन पेशावर विद्रोह की वह ऎताहासिक गाथा रची गयी थी जिसमें आजादी के संघर्ष ने एक ऎसा मुकाम हासिल किया कि जिसकी रोशनी में  एक सच्चे भारतीय  नागरिक के चेहरे की पहचान साम्प्रदायिकता के  खिलाफ़ खडे़ होने पर ही आकार लेती है। पेशावर का यह विद्रोह रायल गढ़वाल रायफ़ल के उन वीर सैनिको का विद्रोह था जो निहत्थे नागरिकों पर हथियार उठाने के कतई पक्ष में न थे। चंद्र सिंह गढ़वाली के नेत्रत्व में यह अपने तरह का सैनिक विद्रोह कहलाया। डा. शोभाराम शर्मा  ने चंद्र सिंह गढ़वाली के जीवन पर आधारित महाकाव्य  को रचा  है और इस महत्वपूर्ण दिवस पर एक पुस्तक के रूप में उसका प्रकाशन एक बड़ी खबर जैसा है। प्रस्तुत है पुस्तक से ही एक छोटा-सा अंश। पुस्तक प्राप्ति के लिए इस मेल आई डी पर सम्पर्क किया जा सकता है: arvindshekar12@gmail.com


एक शहर था पेशावर जो, कभी हमारा अपना था।

जहाँ न कोई दीवारें थीं, एक हमारा सपना था।।

लेकिन गाथा शेष रही अब, दिल से कोसों दूर वही।

दिल की धड़कन एक नहीं जब, लगता सब कुछ सपना था।।

        उस सपने को देख सके थे, अनपढ़ सैनिक गढ़वाली।

        नया सवेरा आएगा फिर, मुक्त खिलेगी नभ लाली।।

        परिचित था इतिहास न उनका, नहीं किसी ने प्रेरा था।

        स्वप्न सुमन थे उनके अपने, रहे अपरिचित बन-माली।।

वन-फूलों से खिले झरे वे, सुरभि समाई धरती में।

बीज न उनके कहीं गिरे पर, बंजर-ऊसर परती में।।

आजादी के फूल खिले हम शीश उठाकर चलते हैं।

वन-फूलों का सौरभ अब भी, दबा पड़ा है धरती में।।

व्यक्ति मिटाया जाता है पर, भाव न मिटने पाता है।।

        जालिम लाखों यत्न करें पर, त्याग-तपस्या फलती है।

        वह तो ऐसा जादू है जो सिर पर चढ़कर गाता है।।

पेशावर में ज्योति जली जो, उसे बुझाना चाहा था।

खुली जगत की आँखों से ही, खुले छिपाना चाहा था।।

लेकिन उनके यत्न फले कब, फिरा सभी पर पानी था।

सैनिक थे पर रग-रग बहता, शोणित हिन्दुस्तानी था।।

        रोमाँरोला1 रजनी-सुत2 ने, खुलकर उन्हें सराहा था।

        अपने पण्डित मोहन3 ने भी, मूल्य समझकर थाहा था।।

        मृत्यु-वेदना झेल रहे थे, भारत माँ के मोती जब।

        पेशावर के गढ़वीरों का, त्याग वरद अवगाहा था।।

भूल न जाना कुर्बानी को, अन्तिम स्वर वे बोले थे।

कितनी पीड़ा थी उस मन में, कहते-कहते डोले थे।।

और जवानी भूल न पाई, पेशावर की भाषा को।

आग न सचमुच बुझने पाई, तोड़ा घ्ाोर निराशा को।।

        पेशावर का बीज उगा फिर, सिंगापुर की धरती में।

        गढ़वाली थे कफन उठाकर, प्रस्तुत पहले भरती थे।।

        बीस हजारी कुल सेना4 में-तीन सहस्र थे गढ़वाली।

        कब्र खुदी थी जालिम की, तब लाश पड़ी अब दफना ली।।

नौ सेना5 ने सागर-तट पर, तर्पण उसका कर डाला।

सत्ता ने संकेत समझकर, स्वयं समर्पण कर डाला।।

जमीं विदेशी सत्ता की जड़, सेना के बल-बूते पर।

जिसके बदले-बदले रुख ने, अन्त उसी का कर डाला।।

        एक लड़ी सी विद्रोहों की, पेशावर से शुरू हुई।

        जिसकी लहरें मणिपुर होती, मुम्बई तक भी पहुँच गई।।

        अब न विदेशी सत्ता के हित, अपनी जड़ को खोदेंगे।

        और गुलामी चुपके-भुपके, होंठ चबाती चली गई।।

आजादी का सूरज निकला, अपना परचम फहराया।

माँ की पावन गोदी में फिर, सिन्धु खुशी का लहराया।।

लेकिन खुशियाँ बाँट न पाए, भाई-भाई बिखर गए।

जो कुछ अपने पास रहा भी, श्रेय स्वयं का बतलाया।।

        पेशावर के वन-फूलों का, सौरभ हमने झुठलाया।

        उनकी सारी कुर्बानी को, जान-बूझकर बिसराया।।

        उन फूलों की महक निराली, सत्ता की थी गन्ध नहीं।

देश कभी क्या भूल सकेगा, लाख किसी ने भुलवाया।।





1।फ्रांस के प्रसिद्ध विचारक

2।ब्रिटिश कम्युनिष्ट नेता रजनी पामदत्त

3।पंडित मदन मोहन मालवीय

4।आजाद हिन्द फौज

5।सन् 1947 में भारतीय नौसेना ने भी विद्रोह कर दिया था।


Monday, March 19, 2012

स्या-स्या

कहानी   
डा शोभाराम शर्मा                 



यह कहानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद की व्यांस, चौदांस और दारमां पट्टी में रहने वाली भोटांतिक 'रं़ड" जनजाति की वैवाहिक प्रथा पर आधारित है। इस जनजाति में विवाह अधिकांशत: अपहरण द्वारा सम्पन्न होते थे। विवाह के लिए जिस लड़की का अपहरण किया जाता था उसके साथ उसकी सहेलियाँ भी पकड़ ली जाती थी। विवाह हो जाने की स्थिति में सहेलियाँ मुक्त कर दी जाती थी। इस सहेलियों को ही स्या-स्या कहा जाता था।         - लेखक

सूरज ढल चुका था। पूर्वोत्तर की बर्फीली चोटियों पर संध्या की सलज मुस्कान स्वर्ण विखेर रही थी। तिथलाधार की मनोरम उपत्यका से एक छोटा सा काफिला गुजर रहा था, उन दो पहाड़ियों के बीच जहाँ न जाने कब से मानव की श्रान्त ठोकरों ने चट्टानी भूमि को तोड़कर एक गहरी पतली रेखा का मार्ग बना डाला था। काफिले के लोग काली की घाटी में धारचुला की ओर अपने जाड़ों के आवास की ओर जा रहे थे। घरेलू सामान से लदे झप्पुओं, गाय-बैलों और भेड़-बकरियों के गलों में बंधी घण्टियों का टनन-टन्, टनन-टन् अजीब समाँ बांध रहा था। भेड़-बकरियाँ यदा-कदा में-में करती हुई रास्ते से भटकती तो साथ में चलते रक्षक कुत्ते भौंकते हुए उन्हें पुन: रास्ते पर ले आते। कफिले को आज सौसा गाँव के नीचे ज्यूंती गाड के किनारे डेरा जमाना था और काफिले का बड़ा हिस्सा वहाँ पहुंच भी चुका था।
तिथलाधार की दूसरी ओर से एक नवयौवना अपनी पीठ पर अपने नन्हें शिशु को लादे ऊपर चढ़ी। थकान के मारे माथे का पसीना पौंछते हुए वह मुलायम घास पर बैठ गई। एकान्त और कुछ-कुछ अंधेरे से त्रस्त उसने चारों ओर देखा। एक ओर रागा (देवदार के समान एक सुन्दर वृक्ष) नीले चीड़ों और बाँज-बुराँस के पेड़ों तथा देव रिंगाल की झाड़ियों से ढकी श्रेणी संध्या के स्याह परदे में काले दैंत्य का आकार ग्रहण कर रही थी और दूसरी ओर पीले बुग्याल से ढकी पहले सी्धी खड़ी, फिर कुछ-कुछ ढालू और सिर पर त्रिशूल के आकार के बौने पेड़ों को सजाए पर्वत श्रेणी उतर की ओर हिम की रजत-धवल टोपी पहने नीचे ज्यूंती गाड की छोटी सी उपत्यका की ओर झांक रही थी। पूरब की ओर नीचे  और बहुत नीचे काली नदी की गहरी घाटी के पार नेपाल के जंगलों के ऊपर खड़े श्वेत शिखरों के बीच पूर्णिमा का चांद अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ बढ़ने लगा था। चांदनी के प्रकाश में ऊंचाई पर पितरों  की स्मृति में रखे बड़े-बड़े पाषाण नजर आए। लगता था कि वे जैसे अपने वंशजों के काफिलों को आशीर्वाद देने हेतु सामूहिक रूप से वहाँ पर जमा हों। नवयौवना ने भय और श्रद्धा के वशीभूत रागा के पेड़ों पर बंधे घण्टे-घण्टियों को हिलाया, जिनका गम्भीर स्वर हेमन्त की तीखी बर्फीली बयार का स्पर्श पाकर चारों ओर फैल गया और मानव के भोले विश्वासों के रंग-बिरंगे चीर भी बुरी तरह फड़फड़ाने लगे।
नवयौवना ने पहले घबराहट में इधर-उधर देखा और फिर किसी तरह आश्वस्त होकर पुकारा- 'दीदी, ओ! डमसा दीदी!" उसकी वह पतली आवाज हवा में फैलकर विलीन हो गई। उसने कई बार पुकारा लेकिन उत्तर नहीं पाया। काफी देर बाद डमसा दीदी ने एक अन्य कमसिन बाला के साथ प्रवेश किया और सुस्ताने के लिए पूर्वागत यौवना के पास बैइ गई।
'दीदी, तुमने सुना नहीं, मेरा तो गला ही बैठ गया था।" पहली ने उलाहने के स्वर में कहा, 'यहाँ तो दम ही निकलने को था। मन भर से कम क्या होगा।" डमसा ने पसीना पोंछते हुए कहा।
'वाह! बच्चे का बोझ तो और भी भारी होता है, पर तुम क्या जानो?" पहली ने शिशु को गोद में लेते हुए कहा। इस पर कमसिन अबोध बाला ठहाका मारकर हंस पड़ी। उसकी निर्दोष हंसी उस बर्फीली हवा की सांय-सांय में गूँज उठी।
डमसा की छाती में जैसे तीर चुभ गया। तुम क्या जानो? हवा का हर झोका उसके कानों में कह उठा। तुम क्या जानो? हंसी की हर गूँज में वही ध्वनि झंकृत हो उठी। और उस नन्हें से जीव की इकहरी आवाज में वही-तुम क्या जानो? तुम क्या जानो? डमसा का जैसे मर्म दहल उठा। काले कम्बल की गांठों से घिरा, काले बादलों के बीच पूर्णिमा का चांद सा चेहरा मुझांकर रह गया। वह रोनी-रोनी हो गई। उच्छवास लेकर उठ खड़ी हुई और बोझ सम्भालकर शीघ्रता से नीचे की ओर चल पड़ी।
वे दोनों अवाक। डमसा दीदी का यह व्यवहार उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। चकित मृगी सी वे भी उठी और उसी ओर चल पड़ी। डमसा चल रही थी, किन्तु उसके कानों में हवा का हर झोंका वहीं स्वर घोल रहा था- तुम क्या जानो? उसका मानस तिक्त हो उठा। उसकी हर लहर में वहीं तिक्त भावना छा गई थी- तुम क्या जानो?
बैसाखी उससे दो वर्ष छोटी थी। पिछले साल ही उसके हाथ पीले हुए थे और आज उसकी गोद में नन्हा सा शिशु खेल रहा था। अपना-अपना भाग्य है। डमसा के दिल में कभी ईर्ष्या नहीं जगी। वह बैसाखी को कितना चाहती थी, किन्तु आज उसके एक छोटे से वाक्य ने डाह का बवण्डर खड़ा कर दिया। वह जितना ही मन को समझाती मन उतना ही संतप्त होता गया। जीवन की कठोर वास्तविकता अपनी समस्त व्यंग्य की पैनी धार से जैसे उसके मर्म को कचोट रही थी- तुम क्या जोना? हाँ, क्या जाने? समाज  की वेदी पर माँ के अपराध का दण्ड उसी को तो भोगना था। वह मन-मन भर के पाँवों से चल रही थी और अचानक ठोकर लगने से गिर पड़ी। चार कदम पीछे घनारी ने दखा और उसने दौड़कर बोझ संभाला। इतने में बैसाखी भी पहुँच गई।
'दीदी, चोट तो नहीं लगी?" बैसाखी ने पूछा।
'अरे! तुम तो रो रही हो!" घनारी ने डमसा की पतली-पैनी आँखों में आँसू की बूँदें देख कर कहा।
'दीदी, बुरा मान गई क्या?" बैसाखी ने फिर से पूछा।
डमसा बोले तो क्या? वह कैसे कहे कि चोट पाँव पर नहीं उसके दिल पर लगी है। उठी और बोझ को पीठ पर ठीक से जमाते हुए बोली- 'नहीं-नहीं, बहिन, बुरा किस बात का लगेगा? पाँव के अंगूठे पर चोट लग गई है न।"
किन्तु आँसुओं ने कपोलों को चूमते हुए सब कुछ कह दिय। तीनों पिफर चल पड़ी। किसी को कुछ कहने का साहस न हुआ। घनारी भी अपनी चुहुल भूल गई। वे सोसा गाँव की धार पर पहुँच चुकी थी। दूसरी ओर अभी चांदनी का प्रकाश नहीं था। कुछ पेड़ों और झाड़ियों के कारण अंधेरा और भी घना था। नीचे ज्यूंती गाड के किनारे तम्बू-तन चुके थे। कभी-कभी प्रकाश की  क्षीण रेखा चमक उठती थी। उन्हें वहीं पहुँचना था।
बैसाखी सबसे आगे थी। बीच में घनारी और पीछे डमसा अपने मन को समझाने की चेष्टा करती हुई चल रही थी। इतने में नीचे से आवाज आई- 'बैसाखी हो!" यह बैसाखी के पिता, डमसा के चाचा की आवाज थी। बैसाखी उत्तर देने को था कि इतने में डमसा की चीख उसके कानों में पड़ी। मुड़कर देखा तो वह स्तब्ध रह गई । झाड़ी से निकलकर तीन-चार आदमियों ने डमसा को घेर लिया था। बैसाखी के लिए तो यह नई बात नहीं थी उसके साथ भी पिछले साल यही तो हुआ था। शादी की परम्परा यही चली आई है तो किसी का क्या दोष? घनारी का भय से बुरा हाल था। वह चीखने को थी कि दो युवकों ने उसे भी घेर लिया। अंधेरे में बीड़ी सुलगाते हुए वे किसी प्रेत की छाया से लग रहे थे।
'मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, हमें छोड़ दो।" डमसा ने अनुनय की।
'वाह! छोड़ दो, छोड़ने के लिए ही क्या हम यहाँ बैठे थे?" उनमें से एक ने कहा 'अजी, ऐसे नहीं चलती तो उठाकर ले चलो।" दूसरे ने प्रस्ताव रखा।
और एक बलिष्ठ युवक आगे बढ़ा। डमसा घबरा गई। घबराहट में उसके मुख से निकल पड़ा- 'मैं अपने-आप चलूँगी। हाथ न लगाओ।" और उपस्थिति पुरुष ठहाका मारकर हँस पड़े। मछली पफँस गई थी। वे चल पड़े। घनारी और बैसाखी ने भी डमसा का रुख देखकर अधिक विरोध नहीं किया। फिर ऐसे विरोध का मूल्य भी क्या था? वह तो परम्परा थी। उन्हें डमसा दीदी के विवाह में स्या-स्या तो बनना ही था।
मार्ग अंधेरे में था। वे चल रहे थे। घनारी और बैसाखी में मीठी चुटकियां चल रही थी। डमसा अपने ही में खोई, यह सब क्या हो रहा है? उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था। क्या सचमुच उसके भाग्य ने रास्ता सुझा दिया है? क्या विधाता ने अपनी आँखें खोल दी हैं? कई प्रश्न उसके अन्तर को झकझोर रहे थे। और वह उसी झोंक में युवकों से घिरी आगे बढ़ रही थी। गाँव आ गया। एक बड़े से घर के आगन में कई लोग आ जा रहे थे। मंगल-वाद्य बजने लगे। रास्ते में एक सफेद कोरा कपड़ा बिछाया जाने लगा। अन्तिम सिरे पर चकती (स्थानीय सुरा) की भरी बोतल रख दी गई। वह कोरा कपड़ा, वह चकती की बोतल दुल्हन के पक्ष वालों के लिए चुनौती थी। आते हो तो आओ, चकती को स्वीकार करो और मित्राता के धागे में बंध जाओ। अन्यथा यह लक्ष्मण-रेखा है। तुम उस सीमा से आगे नहीं बढ़ सकते।
तीनों को एक कोठरी में ढकेल दिया गया। बैसाखी का नन्हा शिशु रोने लगा और वह उसे चुप कराने में लग गई। डमसा और घनारी सहमी सी कोने में दुबक गई। डमसा का हृदय डूब-उतराने लगा। तुम क्या जानो? शिशु का रुदन अभी भी वह व्यंग्य उसके कानों में प्रतिध्वनित हो रहा था। शायद अब वह जान सके। एक आशा की किरण कहीं से उसके हृदय में चमक उठी। वर्षों से वह इसी कामना के पीछे दौड़ी थी, किन्तु स्या-स्या बनने के अतिरिक्त उसके भाग्य में दुल्हन बनना तो लिखा ही न था। उसे लगा कि जैसे आज उसकी मनोकामना पूर्ण होने को थी। उसके संचित, किन्तु अधूरे अरमान फिर उसके मानस में अपनी समस्त चपलताओं का खेल खेलने लगे। वह अब किसी की बन सकेगी, अपने समस्त संचित प्यार का प्रतिदान लेगी ओर पिफर उनका प्यार एक नन्हा सा शिशु बनकर उसकी गोद में खेलने लगेगा। कल्पना का वह शिशु उसकी गोद में खेलने भी लगा, रोने भी लगा। उसने देखा- आनन्द तिरोहित हो गया- वह उसका नहीं, बैसाखी का था जो हाथ-पाँव चलाकर जोर-जोर से रो रहा था।
इतने में कुछ उ(त युवक-युवतियां कमरे में आए। लालटेन भी थी एक के हाथ में। एक अधेड़ सी नारी ने भी प्रवेश किया। उसने डमसा के पास जाकर उसके चेहरे को अपनी ओर किया और उछल पड़ी। सभी सकपका गए। आश्चर्य भरी आँखें जैसे डमसा को निगलने लगीं।
'अरे! ये तो किसी और को उठा लाए हैं। यह तो डमसा है, जो दूसरे घ्ार में पैदा हुई। अभी तो इसकी माँ का हिसाब तक नहीं हुआ।" वह अधेड़ नारी एक सांस में कह उठी और बाहर चल पड़ी। सनसनी  सी पफैल गई। डमसा को काटो तो खून नहीं। वह लाज में गड़ी जा रही थी। लोगों में कानापूफसी चलने लगी। कई आए, गए। उन्होंने डमसा को देखा तक नहीं। तर्क-वितर्क चलने लगे। अन्त मंे बड़े बूढों ने पफैसला दिया कि यह नहीं हो सकता है और डमसा की रही-सही आशा भी जाती रही। वह सुबकने लगी। आँसुओं से उसके कपोल भीग गए। किन्तु उन आँसुओं का मूल्य ही क्या था? फिर निर्णय हुआ- क्यों न घनारी को दुल्हन बना दिया जाए? कोई छोटी भी नहीं। दूल्हा देखने भी आया। डमसा ने उधर देखा भी नहीं। उसका मन मर गया था। बेचारी दुल्हन बनते-बनते स्या-स्या बन गई। देखते-देखते घनारी दूसरे कमरे में पहुँचा दी गई और डमसा उपस्थित युवकों की कृपा-दृष्टि का लक्ष्य। उसका सौन्दर्य-दीप पतिंगो को आकृष्ट करने के लिए यथेष्ट था। सभी चकती में मस्त। कुछ गा रहे थे, कुछ ही-ही, हू-हू कर रहे थे। फिर समां बध गया। आनन्द का दिन था। शादी जो थी। ऐसे ही दिन तो होते हैं जब उद्दाम (उद्दाम) इच्छाएँ अपनी सीमा तोड़ बाहर फूटना चाहती हैं। गाँव की कुछ और अल्हड़ युवतियाँ आ गई। गीत चलने लगे। नृत्य चलने लगा। चकती के दौर पर दौर चलने लगे। सारा कमरा विचित्रा मदाहोशी में रम गया। युवक थक गए। युवतियाँ थक गई। लेकिन वे डमसा को न मना सके। वह न हिली न डुली। सोचती रही और सोचती रही- पिछले साल वह बैसाखी की शादी में रात-रात भर नाचती रही। युवक थक गए। कोई जोड़ का नहीं मिला। हर साल वह ऐसी शादियों में स्या-स्या बनती रही, पीती रही, अपने हाथों पिलाती रही और मस्त होकर नाचती रही। शायद यही उसका भाग्य है। दूसरों की खुशी में खुशी माने, नाचे, गाए और वासना की आँखों से अपने सौन्दर्य की कीमत आंकने वालों को अपनी कृपा-दृष्टि से निहाल करे। युवक उसे घूर रहे थे। जबरन उठाना चाहते थे। उनके लिए वह खिलवाड़ थी। वह खिलवाड़ थी समाज की। कोई उसे अपनी नहीं बना सकता। किसी में इतना साहस नहीं। समाज के बन्धनों से कौन टकराए? ठकराने की जरूरत ही क्या है, जबकि वे उसके यौवन से खिलवाड़ कर सकते हैं, उसके जीवन से खेल सकते हैं तो पिफर बैठे-बिठाए कौन हत्या मोल ले? वह सचमुच हत्या है- समाज की हत्या। फिर हत्या को कौन स्वीकार करें? उसकी माँ के रुपए अदा नहीं हुए तो भला कौन उसे अंगीकार करें?
इतने में बैसाखी ने आकर बताया- 'दीदी, घनारी ने चकती और चावल ले लिए हैं।" डमसा का ध्यान भग्न हो गया। घनारी ने अपनी स्वीकृति दे दी थी। वह दुल्हन बन गई थी। अभागी डमसा के बदले घनारी ही सही। उसी का जीवन संवरे। उसे तो स्या-स्या बनकर ही जवानी की अनमोल घड़िया काट देनी हैं। वह किसी से डाह क्यों करे? और वह उठ खड़ी हो गई। एक लालायित युवक की उसने बांह पकड़ ली और उसके हाथ से दो लिन्च (चांदा का प्याला विशेष) चकती के वह एक सांस में पी गई। उसकी पतली-पैनी आंखों और उभरे रक्तिम गालों पर मादकता थिरकने लगी। वह नाचने लगी। गीत निर्झरणी की तरह उसके कण्ठ से झरने लगा। नृत्य में अद्भुत प्रवाह आ गया। सबके सब थिरकने लगे। सब की आवाज से अलग स्वर्गीय गिरा सी उसकी स्वर लहरी जैसे हवा में थिरकने लगी-
'न्यौल्या, न्यौल्या, लाल मेरो सांवरी, दिन को दिन जोवन जान लाग्यों।"
(प्रियतम! तुम नहीं आए, नहीं आए, दिन-वॐ-दिन मेरा यौवन ढलने लगा है।)
कौन जाने, उसका वह सांवरी इस जीवन में कभी आएगा भी या नहीं?
 

Friday, December 16, 2011

घेड़ गिंडुक की तेरहवीं


डा. शोभाराम शर्मा

ठाकुर बुथाड़ सिंह को बाप-दादों से वसीयत में जो कुछ मिला, उसमें से तीन चीजों का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली चीज थी इलाके की थोकदारी¹, दूसरी लाइलाज बीमारी और तीसरी कोठे² के एक अंधेरे कमरे में पड़ा घेड़ गिंडुक³। सत्ता चाहे जो भी और जैसी भी हो, उसके प्राण तो लाठी में ही बसते हैं। यहां भी उधर की सत्ता ने अपना आतंक जमाने के लिए जो हथियार चुना वह घेड़ गिंडुक के रूप में सामने आया। हक-दस्तूरी⁴ की जां-बेजां वसूली के लिए वह कारगर हथियार साबित हुआ। उसके बूते उपजी दौलत, और दौलत से उपजी विलासिता। दौलत ने विलासिता को ऐसी हवा दी कि उसके असर से बच पाना आसान नहीं था। पहले शिकार बने ठाकुर बुथाड़ सिंह के अपने ही दादा। जिनकी रसिकता की चर्चा लोग आज भी चटखारे ले-लेकर करते हैं। एक से जी नहीं भरा तो चार-चार शादियां कर डालीं। एक को तो विवाह मंडप से ही उड़ा लाए। इलाके को जैसे सांप सूंघ गया। विरोध् में एक उंगली तक नहीं उठी। घेड़ गिंडुक के आगोश में मौत को गले लगाने की हिम्मत जुटाना भी तो खेल नहीं था। पिफर क्या था, वासना का ज्वार सारी सीमाएं लांघ गया। मां-बाप ने जिस बेचारी से पल्ला बांध वह तो पति की बेरुखी का अभिशाप जीवन भर भोगती रही। गनीमत हुई कि थोकदारी का वारिस उन्हीं की कोख से पैदा हुआ और इलाके के लोग 'जैजिया⁵ का संबोधन उन्हीं के सम्मान में करते थे। संतोष था तो बस इतना ही।
उधर महफिलें जमतीं, नृत्यांगनाओं के नखरे उठाए जाते, ऊपर से इलाके की सुंदरियों की टोह भी लेनी पड़ती। रखैलों का ध्यान भी गाहे-बगाहे रखना ही पड़ता। सुरा-सुंदरी के मोहपाश में ऐसे फंसे कि असमय ही बुढ़ापे के लक्षण प्रकट होने लगे। हल्का-सा ताप और ऊपर से खांसी की मार। लगता था कि एक हरे-भरे पेड़ को बेरहम काठ कीड़ा भीतर से खोखला करने में लगा हो। रोग बढ़ता गया और एक दिन खून उगलते-उगलते वे दुनियां ही छोड़ गए।
बेटे ने शादियां तो दो ही कीं लेकिन सुरा-सुंदरी के आकर्षण से बच पाना उसके बस में भी नहीं था। बाप की सौगात जल्दी ही ऐसा रंग लाई कि अधबीच जवानी में ही रोग ने धर दबोचा। आज तीसरी पीढ़ी के ठाकुर बुथाड़ सिंह उसी की चपेट में हैं। थोकदारी के साथ बीमारी भी खानदानी हो गई। खानदान पर लगे इस घुन से पीछा छुड़ाने के लिए क्या कुछ नहीं किया गया। देवी-देवता, पूजा-पाठ, जप-तप, तीरथ-व्रत, झाड़-फूंक और दवा-दारू सबकुछ तो किया लेकिन ढाक के वही तीन पात। अभी तक तो छुटकारा मिला नहीं। ठाकुर बुथाड़ सिंह को तो बस यही चिंता खाए जा रही थी कि उनका अपना तो जो कुछ हो लेकिन अगली पीढ़ी इस बला के चंगुल में न फंसे। ऊपर से एक मुसीबत और। गोरखों तक तो ऊपरवालों से तालमेल बिठाने में कोई अड़चन नहीं आई लेकिन इधर जब से सात समंदर पार के पिफरंगी मालिक बने थोकदारी पर भी संकट के बादल मंडराते नजर आने लगे। बड़े-बड़े नवाब और राजे-महाराजे तक जिस कंपनी बहादुर के आगे नहीं टिक पाए, उसका थोकदार जैसे बौने सामंत भला क्या बिगाड़ लेते? अपनी इस बेबसी पर ठाकुर बुथाड़ सिंह भीतर-ही-भीतर कसमसा रहे थे कि बाहर से किसी की पदचाप सुनाई दी। दरवाजा ठेलकर अपने ही कुलपुरोहित प्रकट तो हुए पर झिझकते हुए कुछ दूरी बनाकर बतियाने लगे। बोले- ''ठाकुर साहब! राजवैध की दवाइयों से कुछ लाभ हुआ कि नहीं?
''किसका लाभ और कहां का लाभ पंडित जी। लगता है अब ऊपर जाने के दिन नजदीक आ गए हैं। मायूस होकर ठाकुर बुथाड़ सिंह ने जवाब दिया।
''इतने निराश न हों ठाकुर साहब। हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने से तो कुछ होगा नहीं। राजवैध यह भी तो सुझा गए थे कि मांसाहारी का मांस लाभ पहुंचा सकता है।
''तो आप चाहते हैं कि मैं गीदड़, कौवे और उल्लू आदि का मांस लेकर अपना अगला जनम भी अकारथ कर डालूं। नहीं पंडित जी मन नहीं मानता। आखिर अपने संस्कार भी तो कुछ हैं।
''आपका कहना भी सही है मन ही न माने तो उपाय भी व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा। आपकी जन्मकुंडली देखकर मैंने जो वर्षफल निकाला है उसके अनुसार शनि की साढ़े साती का अब एक ही साल शेष रह गया है। इस बीच अगर शनि-कोप-विमोचन-जाप किसी शिव मंदिर में शुरू कर दें तो रोग का प्रकोप अवश्य धीमा पड़ेगा और साल भर बाद अगर भगवान आशुतोष की कृपा हुई तो आप इस जानलेवा बीमारी के चंगुल से भी छुटकारा पा लेंगे।
''आप कहते हैं तो यही सही। लेकिन एक बात समझ में नहीं आती। यह साढ़े साती मेरे ही पीछे पड़ी है या मेरा पूरा खानदान ही इसकी चपेट में है। मैं तो तीसरी पीढ़ी में हूं। इसी रोग के मारे मेरे पुरखे भी असमय काल-कवलित हो गए। उन्होंने भी तो सारे उपाय किए थे। लेकिन हुआ क्या? जो कीड़ा खानदान की जड़ में लग गया वह तो छूटने का नाम ही नहीं लेता।
''देखिए ठाकुर साहब, शनि महाराज का कुछ स्वभाव ही ऐसा है कि किसी पर प्रसन्न हुए नहीं कि राज-योग बैठ गया और कहीं कुपित हो बैठे तो सालों-साल साढे़ साती के कोल्हू में पेर दिया। अति तो हर चीज की बुरी होती है। भगवान शनिदेव की कृपा से राजयोग बैठता तो है लेकिन विलास की अति उन्हें भी पसंद नहीं। राजयोग को राजयक्ष्मा में बदलते उन्हें देर नहीं लगती। कहते हैं कि अति विलासिता के कारण भगवान राम का वंश तक इसी रोग से समाप्त हो गया था। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हम भाग्य भरोसे बैठे रहें। मैं जिस जाप की सलाह दे रहा हूं, शायद वही काम कर जाए, कौन जाने?
''लेकिन मेरी सिथति क्या जाप करने की है?
''आपको नहीं, जाप तो मुझे करना है आपके लिए। आप तो बस संकल्प भर कर दें।
''तो ठीक है, जिस चीज की भी जरूरत हो आप निस्संकोच यहां से लेते रहें। हां … । ठाकुर बुथाड़ सिंह ने कुछ कहने के लिए गला सापफ करना चाहा तो खांसी उभर आई। कहीं थूक के छींटे उन तक न पहुंचे इस डर से पुरोहित ने मुंह फेर लिया। खांसी का वेग थमा तो बुथाड़ सिंह गहरी सांस छोड़कर बोले- ''पंडित जी, एक आप ही थे जो सामने आकर बतिया लेते थे। अब तो आप भी मुंह फेरने लगे हैं। खैर! आपको ही क्या दोष दूं जब अपने ही सामने आने से कतराते हैं। और-तो-और घरवाली तक छूने से परहेज करने लगी है। बस भोजन-पानी और दवा-दारू देकर कमरे से बाहर निकलने की जल्दी में रहती है। जबसे यह रोग लगा बेटे और बहू की एक झलक तक देखने को तरस जाता हूं। नाते-रिश्तेदार और इलाके के लोग बाहर-बाहर से हमदर्दी जताकर खिसक लेते हैं। एक तो बीमारी ऊपर से अकेलेपन का एहसास, इन दोनों ने तो मुझे भीतर से तोड़  दिया है। सोचता हूं इस दुनिया से जितनी जल्दी उठ जाउफं, उतना ही अच्छा।
''ठाकुर साहब! धीरज रखें एक ही साल की बात तो है। साढे साती निपटी नहीं कि आपको चंगा होने में देर नहीं लगेगी। हां, अगर चिंता ही करनी है तो थोकदारी को लेकर करें। पंडित जी ठाकुर की ओर मुखातिब होकर कह बैठे।
''क्यों? क्या कोई नई बात सामने आई है? बेगार और बरदाइश लेने का अधिकार हमसे तो छीन लिया लेकिन अपने अफसरों के लिए उसे कानून सम्मत मानने में कोई हिचक नहीं। गनीमत है अभी हक-दस्तूरी की ओर इस सरकार की नजर नहीं गई।
''बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी, ठाकुर साहब। थोकदारी के पर कुतरने का तो पुख्ता इंतजाम हो चुका। सारे मामले तो अब पटवारी और तहसीलदार जैसे सरकारी मुलाजिमों को देखने हैं। ऊपर से जमीन के बंदोबस्त की जो कवायद चल रही है उससे तो थोकदारी के हाशिए पर चले जाने का पूरा खतरा है। हिस्सेदार-तो-हिस्सेदार खैकरों और यहां तक सिरतावों को भी अब जमीन छिन जाने का भय नहीं रहेगा। रहे पायकाश्त तो उनकी संख्या ही कितनी है। डर के बिना तो लोग हक-दस्तूरी भी देने से रहे। लगान भी अब आगे से नकद जमा करने की बात सुनने में आई है। यह सुनकर ठाकुर साहब का चेहरा तो पीला पड़ा ही मुंह भी खुला-का-खुला रह गया। किसी तरह खांसी रोक कर बोले-''खटका तो मुझे भी था पंडित जी। आपने और भी आंखें खोल दीं। इन फिरंगियों के नियम-कानून कुछ समझ में नहीं आते। लगता है हम लोगों के दिन लद गए हैं। अंधेरा-ही-अंधेरा नजर आता है। दुख तो इस बात का है कि यह सब मेरी ही पीढ़ी के साथ होना था। बेटा ऐसा कि भविष्य की कोई चिंता नहीं। हर बात को मजाक में लेता है। सुनता हूं कि अब मनमानी पर भी उतर आया है। सात-सात खून माफ होने की बात उछालकर लोगों को धमकाने से भी बाज नहीं आता। ना-समझी तो मैंने भी की थी और उसका परिणाम भी भोग रहा हूं। पिफर भी जहां तक खानदान के हित का सवाल है, मैंने कभी अनदेखी नहीं की। लेकिन थोबू है कि इस ओर से बिल्कुल बेखबर। पिफरंगी सरकार के तौर-तरीकों से तालमेल नहीं बैठा तो अगली पीढि़यां भीखमंगों की जमात में शामिल होने से नहीं बचेंगी। सोचता हूं तो कलेजा मुंह को आता है।
तन और मन की दुहरी चिंता में घुलते थोकदार जी को सान्त्वना देने की गरज से पंडित जी बोले-''हरि इच्छा मानकर चिंता करना छोडि़ए ठाकुर साहब। उम्र की बढ़ती के साथ बेटा भी सब सीख जाएगा। जमाने के थपेडे़ उसे सही राह पर ले आएंगे। आप सोच-सोचकर क्यों जी हलकान करते हैं। मन को शांत रखिए और सबकुछ उफपर वाले पर छोड़ दीजिए वरना हालत और गंभीर हो सकती है।
''हां! और चारा भी क्या है पंडित जी, र्इश्वर की जो इच्छा।
''अच्छा तो मैं चलूं। कल से ही जाप शुरू कर देता हूं। यह कहकर पंडित जी कमरे से बाहर हो गए। भीतर बुथाड़ सिंह पिफर से खांसने लगे थे। खांसी के साथ-साथ कराहने का स्वर थोकदन⁶ के कानों में पड़ा तो वह नीचे चली आर्इ। कमरे में प्रवेश करते ही पूछ बैठी-''आपने दवा ली कि नहीं? थोकदार जी थूकदान में कपफ के साथ पहली बार खून के कतरे देखकर परेशान थे। उदास नजरों से थोकदन के चेहरे पर देखते हुए बुझे-बुझे स्वर में बोले-''जी कर ही क्या करूंगा जो दवा लूं।
''शुभ-शुभ बोलो जी! आप ही हिम्मत हार बैठे तो हमारा क्या होगा। थोकदन ने कहा।
''मन रखने को कुछ भी कहती रहो ठकुराइन लेकिन यहां मेरी चिंता ही किसको है। कारबारी हों या सिरताव-खैकर, नाते-रिश्तेदार हों या अपनी औलाद, सब-के-सब तो दूरी बरत रहे हैं। पास पफटकने में तो सबकी नानी मरती है। तुम तो अर्धंगिनी हो मेरी, सात पफेरे लिए हैं तुमने लेकिन जब से यह रोग लगा, पास आने में कतराती हो। बतियाने तक में कंजूसी बरतने लगी हो। ऐसे बच निकलती हो जैसे मैं आदमी न हुआ अजगर हो गया जो साबुत निगल जाउफंगा।
''हाय राम! यह सोच भी कैसे लिया आपने? कौन अभागिन होगी जो अपने सुहाग के बारे में ऐसा सोचे? कहते हैं इस रोग में दूरी बरतना ही सबके हित में है। यही सोचकर मैं अपने मन पर काबू रखने का प्रयास करती हूं। नहीं तो साथ निभाने की इच्छा किसकी नहीं होती।
घरवाली के मुंह से आत्म-नियंत्राण और संयम बरतने की बात सुनकर बुथाड़ सिंह के मुंह से बोल नहीं पफूटे। एकटक पत्नी के सुघड़ चेहरे पर देखते रहे। जवानी के दिन याद आने लगे तो बोले-''थोबू की मां! सोचता हूं देर-सवेर तो मरना ही है पिफर क्यों न जीवन का भरपूर आनंद उठाकर मरें। दूर क्यों खड़ी हो? पास आकर बैठो न। और वे पत्नी की ओर सरकने लगे। पत्नी ने बरजा-''छोड़ो भी। दादा-दादी की उम्र होने को आर्इ, उफपर से ऐसी बीमारी, कुछ तो खयाल करो।
लेकिन थोकदार जी अब कहां मानने वाले थे। झटके-से खड़े हुए और हिंसक पशु की तरह थोकदन की ओर लपके। आंखों में वासना के लाल डोरों की झलक देखकर थोकदन तेजी से बाहर निकल गर्इ। वह तो हाथ क्या चढ़ती, कमजोरी के कारण बुथाड़ सिंह की टांगे लड़खड़ार्इ और माथा दरवाजे से जा टकराया। आंखों के आगे चिनगारियां उड़ने लगीं और पिफर अंध्ेरा छा गया। लेकिन दिमाग की सुर्इ बीते दिनों के भूले-बिसरे परिदृश्यों पर जाकर अटक गर्इ। याद आया कि वे भी क्या दिन थे जब उनकी इच्छा ठुकराने का साहस किसी में नहीं था और आज अपनी ही घरवाली … । थोकदारी का आहत अहंकार जाग उठा और वे गुस्से में पास के उस अंध्ेरे कक्ष में घुस पड़े जहां बहुत दिनों से बेकार पड़ा घेड़ गिंडुक दीवार के सहारे खड़ा था।
आंखें मिचमिचाकर दीवार की ओर देखा तो घेड़ गिंडुक नजर आया। भारी-भरकम अजगरी आकार और सुरसा जैसा भयानक मुंह। यातना का वह राक्षसी औजार देखते ही ठाकुर को उफपर से नीचे तक झुरझुरी दौड़ गर्इ। कान भी बजने लगे। लगा कि जैसे घेड़ गिंडुक के भीतर कैद कोर्इ अभागा असहनीय यातना के मारे अपने भाग्य पर रो रहा हो। ठाकुर को घेड़ गिंडुक के मुंह से किसी आदमी का सिर बाहर लटकता नजर आया। बेतरतीब दाड़ी-मूछों वाला वह अजीब-सा चेहरा कभी सामने आया हो, ऐसा नहीं लगा। ठाकुर बुथाड़ सिंह यह नजारा देखकर किसी दूसरी ही दुनिया में खोते चले गए। देखते क्या हैं कि घेड़ गिंडुक से उछलकर वह दढि़यल सामने आकर मुंह चिढ़ा रहा है। उसने पहला व्यंग्य बाण छोड़ा-''अपमान पी जाना और गुस्सा थूक देना नागवंशी नागों ने कब से सीखा? कोर्इ प्रतिक्रिया होती न देखकर उसने पिफर कहा-''पुरखों के प्रताप का जाप झेल नहीं पाए क्या, जो आवाज तक नहीं निकलती। घबराहट में किसी तरह थूक निगलकर ठाकुर बुथाड़ सिंह बोले-''तुम हो कौन जो इस तरह बोल रहे हो?
''मैं … मैं तुम्हारे वंश का वह इतिहास हूं जो दगा-पफरेब, जालसाजी और लाठी के बल पर लिखा गया है। धूर्तता की जिस बुनियाद पर तुम्हारी थोकदारी टिकी है उसका पहला शिकार मैं हूं। सुनना चाहते हो? तो सुनो- बात उस समय की है जब खोहद्वार का यह इलाका मैदानी लुटेरों की शिकारगाह बना हुआ था। दरबार तक खबर पहुंची तो तुम्हारे दादा को इस आशय से भेजा गया कि वे लुटेरों को मार भगाएं। वे आठ-दस सैनिक लेकर यहां पहुंचे। पहली ही मुठभेड़ में दो सैनिक लुटेरों के हाथों मारे गए। एक बघेरे का शिकार हो गया। दूसरी मुठभेड़ में लुटेरों ने घात लगाकर दो और सैनिकों का काम तमाम कर डाला। उफपर से तुम्हारे परदादा और शेष तीन सैनिक मच्छरों के मारे जूड़ी-ताप के शिकार हो गए। निराश होकर वे किसी बस्ती की खोज में थे कि एक ओर अध्मरा सैनिक अजगर के पेट में समा गया। तुम्हारे पड़दादा और उनके दो साथी यहीं गध्ेरे⁷ के किनारे एक पत्थर की आड़ में अपनी मौत की बाट जोह रहे थे। मैंने उन्हें मरणासन्न अवस्था में देखा तो मुझसे रहा नहीं गया। मैं उन्हें अपने दो भाइयों की मदद से घर ले आया। हमारी सेवा-सुश्रुषा से वे कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गए। हां, तुम्हारे पड़दादा ध्ुन के तो सचमुच पक्के थे उन्होंने मुझे और गांव के दूसरे जवानों को भी अपनी मुहिम में शामिल कर लिया। एक मुठभेड़ में तुम्हारे पड़दादा के प्राण संकट में थे लेकिन मौके पर मेरी सूझबूझ ने पासा पलट दिया। खूंखार लुटेरा सरदार मारा गया। बाकी लुटेरे भाग खड़े हुए। इलाके को उनके आतंक से मुकित मिल गर्इ। लेकिन हमारे सरसब्ज गांव को देखकर तुम्हारे पड़दादा की आंखों में जो चमक पैदा हुर्इ उसका मतलब बाद में ही मालूम हो पाया।
हमारे पुरखों ने गांव की यह जमीन जंगल से छीनी थी। उसकी उर्वरता देखकर वे स्थायी बस्ती बसाने को प्रेरित हुए थे। गध्ेरे से गूल इस तरह निकाली गर्इ कि गांव की एक इंच भूमि भी असिंचित नहीं रह पार्इ। पूरा-का-पूरा गांव एक सेरे⁸ के रूप में उभर आया। गांव के नीचे भाबर का विशाल वन और सिर पर बांज-बुरांसों का शीतल जंगल। यह सब देखभाल कर तुम्हारे पड़दादा अपने दो साथियों के साथ राज-दरबार में अपनी कामयाबी की वाहवाही लूटने विदा हो गए। बात आर्इ-गर्इ हो गर्इ। लेकिन एक दिन वे घोड़े पर सवार हो थोकदारी का पटटा लेकर आ ध्मके। उनके साथ राज्य के दो सैनिक और एक पंडित जी भी थे। आते ही सबसे पहले मेरी पुकार हुर्इ। और जिस अकड़ के साथ मेरा चार नाली⁹ का खेत कोठे के लिए मांगा गया, सुनकर मैं तो हक्का-बक्का रह गया। कुछ कह नहीं पाया तो पंडित जी बोले-''देखो भार्इ! जमीन की तो कोर्इ कमी यहां है नहीं लेकिन वास्तुशास्त्रा के अनुसार तुम्हारा यह खेत कोठे के लिए सबसे शुभ ठहरता है। मैंने मिटटी का परीक्षण करके भी देख लिया है। देखो यह तो नागवंशी ठाकुर की भलमनसाहत है जो तुमसे जमीन का एक टुकड़ा मांगने की नम्रता बरत रहे हैं। मैं पिफर भी कुछ नहीं बोला तो नए-नए थोकदार जी ने पफरमाया- 'मैं तुम्हारा अहसान नहीं भूला हूं भार्इ। लेकिन पंडित जी का कहना है कि यही खेत कोठे के लिए सबसे उत्तम है तो क्या करें। इसके बदले तुम यहां चाहे जितनी जमीन ले लो मुझे कोर्इ आपत्ति नहीं।
इस पर मैंने कहा- 'इस खेत की उपज की भरपार्इ तो दूसरी जमीन शायद ही कर पाए। पिफर यहां आपकी कौन-सी जमीन है जो बदले में आप मुझे देने का सौजन्य बरत रहे हैं। उत्तर नहीं बन पाया तो पंडित जी यजमान की मदद को आगे आए। वे प्रश्न-पर-प्रश्न उछालते गए और खुद ही उत्तर भी देते गए। बोले-'यह ध्रती, यह दुनिया किसने बनार्इ? ईश्वर ने। तो पिफर यह दुनिया किसकी जागीर है? ईश्वर की। और ईश्वर ने इसकी देख-रेख का काम किसको सौंपा है? राजा को। और राजा ने किन लोगों में अपना दायित्व बांटा है? थोकदार-जमींदारों में। तो पिफर इलाके भर की जमीन किसकी हुई? थोकदार जी की। ध्र्मशास्त्रा तो यही कहते हैं भाई! वैसे तुम जानो। और मैं अनपढ़-गंवार भला क्या कहता। धर्मशास्त्र ने तो मेरी बोलती ही बंद कर दी थी।
दूसरे ही दिन मेरे उस खेत में कोठे के लिए नींव खुदने लगी। इलाके भर के सारे जवान मर्द-औरतों को प्रभु सेवा में जोत दिया गया। कुछ लोग चिनार्इ के पत्थर निकालने लगे। कुछ छवार्इ के पठाल¹⁰ तो कुछ लोग जंगल में इमारती लकड़ी तैयार करने में जुट गए। एक विशाल पेड़ के तने को घेड़ गिंडुक का आकार लेते भी हमने पहली बार देखा। इलाके भर के नामी ओड¹¹ भी धर लिए गए थे। थोकदार जी के कोठे की चिनार्इ साधरण बेजड़¹² से तो होनी नहीं थी सो इलाके भर से उड़द की ढेरों दाल इकटठा की गई। यहां तक कि शादी के लिए जमा उड़द भी छीन ली गर्इ। गांव की औरतों को उड़द की पीठी बनाने में जोत दिया गया। और इस तरह तुम्हारे पुश्तैनी कोठे ने आकार ग्रहण करना शुरू किया। पूरा होने पर परिवार भी आकर घेड़ गिंडुक के साथ यहां रहने लगा। लेकिन थोकदार जी परिवार के प्रति निष्ठावान होने के कायल कभी नहीं रहे। अपनी अमलदारी के चार अन्य गांवों में भी रखैलों के लिए प्रभु सेवा में घर बने। इन घरों में थोकदार जी का आना-जाना बारी-बारी लगा रहता। रखैलों में से किसी को उठा लाए थे तो कोर्इ उनके रौबदाब के मारे खुद ही गले पड़ गर्इ थी। खैर यहां तक तो गनीमत थी लेकिन जब एक बादिन¹ को कोठे में ही अपनी हवस का शिकार बना बैठे तो मुझसे नहीं रहा गया। बेचारा मंगतू बादी¹⁵ मेरे पास आया था। उसने बताया कि वह कुछ पाने की गरज से थोकदार जी की सेवा में हाजिर हुआ था लेकिन अपनी बादिन से ही हाथ धे बैठा है। थोकदार जी ने बलात उसे कोठे में बंद कर दिया है। विरोध् किया तो घेड़ गिंडुक की यातना भोगने से किसी तरह बचकर निकल आया है। मैंने उसे अपने साथ चलने को कहा लेकिन वह थोकदार जी के सामने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मैं अकेले ही थोकदार जी के पास जा ध्मका। पहुंचते ही पूछ बैठा-'ठाकुर साहब बादिन को आपने कहां छिपा रखा है? इस पर तुम्हारे पड़दादा ने जलती आंखों से मेरी ओर ताका और बोेले- 'खसिया की औलाद, तेरी इतनी हिम्मत! मंगतू बादी क्या तेरा रिश्तेदार लगता है? समझा, तू समझता है कि कभी एक लुटेरे के प्रहार से बचाकर तूने मुझ पर एहसान किया था, इसलिए जो चाहे मेरे मुंह पर कह सकता है। लेकिन एहसान किस बात का? राज-दरबार ने मुझे जो काम सौंपा था, प्रजा के नाते उसमें हाथ बंटाना क्या तुम्हारा पफर्ज नहीं था? आज तक मैं तुम्हारी हर गुस्तखी मापफ करता रहा लेकिन अब और नहीं। जानता है ये बेड़े-मेढ़े बड़े टेढ़े होते हैं। दबाकर न रखो तो सिर पर ता-थैया करने लगते हैं। इन कंगाल भिखमंगों की झोली में बिरमा जैसी नारी-रतन की बेकæी नहीं देखी जाती। मैं तो उसे दरबार तक पहुंचाना चाहता हूं, समझे!
इस पर मैं बोल उठा-'ठाकुर आप और यह ध्ंध! सुनना था कि उनकी आंखों में खून उतर आया। वे मुझे छज्जे से नीचे पफैंकने ही वाले थे कि 'जैजिया¹⁴ चंडी का रुप धरण कर बिरमा की बांह पकड़े नीचे उतर आर्इ। थोकदार जी सकपकाकर रह गए। देखते-ही-देखते बिरमा को लेकर ठाकुर और ठकुराइन में तू-तू मैं-मैं होने लगी। ठाकुर ने लताड़ा, बोेले-'बेहयार्इ की हद हो गर्इ। कल तक तो छज्जे से नीचे कदम नहीं रखे और आज एक पराए मर्द के सामने उघाड़े मुंह चली आर्इ। उफपर से जबान लड़ाती हो और वह भी एक कमजात बादिन जैसी नचनी के लिए। भला चाहती हो तो चुपचाप उफपर चली जाओ। मेरे काम में दखल देने की हिमाकत न करो तो अच्छा है, सरेआम कुल की इज्जत उछाल रही हो तुम।
''कुल की इज्जत! उँह, वह तो कब की नीलाम कर चुके नागवंशी ठाकुर। मैं आज तक सब सहती रही। रखैलों से तुम्हारे संबंध् तो जगजाहिर हैं ही, यहां गांव में भी कौन-सी ऐसी बहू-बेटी है जिसकी इज्जत से खिलवाड़ करने का प्रयास तुमने न किया हो। लाज-शरम के मारे कोर्इ कुछ नहीं बोले, तो तुम शेर बन गए। मैं कोर्इ रखैल नहीं ब्याहता पत्नी हूं तुम्हारी। अपने इस कोठे को मैं बार्इ का कोठा नहीं बनने दूंगी। इस बेचारी में तो मुझे अपनी बेटी नजर आती है और तुमने इसी से अपना मुंह काला किया।
इस पर थोकदार जी कुछ हतप्रभ होकर बोले- ''तुम हद पार कर रही हो ठकुराइन। नागवंशी ठाकुर ऐसा अपमान सहने के आदी नहीं। तुम सरासर इल्जाम थोप रही हो। आखिर मैं पति हूं तुम्हारा। इसने कहा और तुमने मान लिया। अरे, इनका तो यह पेशा ही है। यही तो एक हथियार है इनका जिससे ये अपना मतलब निकालने की कला बखूबी जानते हैं। मैंने तो इसकी कंगाली पर तरस खाकर राज-दरबार पहुंचाने की सोची थी। लेकिन कोर्इ किसी का भाग्य थोड़े ही बदल सकता है।
इस पर ठकुराइन बोल उठी- ''तो नागवंशी ठाकुर बहू-बेटियों का भाग्य भी बदलने लगे! सोचते होंगे दरबार को खुश करके और बड़ा इलाका हथिया लेंगे। हे भगवान! कैसे आदमी से पाला पड़ा। मैं यह सब देखने से पहले मर क्यों नहीं गर्इ। और ठकुराइन ने माथा पीट लिया। ठाकुर और ठकुराइन की इस कहा-सुनी के बीच मंगतू बादी आया और बिरमा का हाथ पकड़कर जाने लगा। ठाकुर ने हाथ आया शिकार जाते देखा तो बौखलाकर चीख उठा- ''बेड़े की औलाद ठहर। बिरमा अब तेरी घरवाली नहीं, दरबार को समर्पित इस इलाके की एक तुच्छ भेंट है। रोकने के लिए आगे बढ़ने का प्रयास किया तो ठकुराइन आड़े आ गर्इ। ठाकुर का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। बोेले-''ठकुराइन बहुत हो गया। हट जा मेरे आगे से वरना अच्छा नहीं होगा। ठकुराइन बोल उठी- ''क्या कर लोगे? बोलो! मैं भी कोर्इ ऐसी-वैसी नहीं जो घुड़की में आ जाउफँ। कत्यूरी खानदान की बेटी हूं मैं भी। मर जाउफंगी पर अपनी आँखों के आगे ऐसा अन्याय नहीं होने दूंगी।
और ठाकुर किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर रह गए। खिसियाकर मेरी ओर मुखातिब हुए और बोले- ''देखा तुमने, ठकुराइन पागल हो गर्इ है। कोर्इ पति का ऐसा विरोध् करता है भला। मैंने कहा-''जैजिया गलत नहीं है ठाकुर, जरा सोचकर तो देखें। इस पर ठाकुर ने त्यौरी चढ़ाकर मेरी ओर ताका और पिफर सीढि़यों से उफपर चढ़ती थोकदन को इस तरह घूरा जैसे निगल ही जाएंगे। मंगतू और बिरमा नजरों से ओझल हो चुके थे। अपने इरादों पर इस तरह पानी पिफरता देख ठाकुर तब तो हाथ मलते रह गए लेकिन उस अपमान को भूल नहीं पाए। मंगतू और बिरमा को खोज निकालने का प्रयास भी असपफल रहा। वे तो इलाका ही छोड़कर कहीं दूर जा छिपे थे। जल्दी ही ठाकुर के भीतर बैठी बदले की कुत्सा ने अपना खेल खेलना आरंभ कर दिया। पहली शिकार तो ठकुराइन ही हुर्इ। एक सुबह पता चला कि वे चल बसी हैं। मुझे उनके पफूल सिराने हरिद्वार जाने का आदेश हुआ। आदेश के पीछे ठाकुर के इरादे को भांपना मेरे बस में नहीं था। मैं हरिद्वार के लिए कुछ ही दूर निकल पाया था कि अचानक दो नकाबपोशों ने जंगल के एक मोड़ पर मुझे घेर लिया। एक ने पीछे से वार किया और ताबड़तोड़ इतने प्रहार हुए कि मैं बेहोश होकर गिर पड़ा। होश आया तो खुद को इस घेड़ गिंडुक के भीतर जकड़ा पाया। तुम्हारे पड़दादा सामने खड़े थे। भेदभरी मुस्कान के साथ बोले- ''क्यों रे, जैजिया तो गलत नहीं थी, पिफर भी दुनिया छोड़ गर्इ? हां, उफपरवाले को भी अच्छे लोगों की जरूरत होती है तो कोर्इ क्या करे। और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वे बाहर निकल गए। मैं अध्मरा इस घेड़ गिंडुक के भीतर कब तक जिंदा रहा, यह तो मुझे मालूम नहीं किंतु मेरी भटकती आत्मा ने ठाकुर की भूखी वासना का नंगा नाच बखूबी देखा है। ठकुराइन की मौत का भेद भी कोठे की दीवारों से बाहर नहीं जा सका। उनके न रहने पर बेलगाम ठाकुर आखिर राजरोग का शिकार हुआ और सौगात स्वरूप अपनी अगली पीढि़यों को भी सौंप गया। मेरी हत्या का रहस्य भी लोगों पर नहीं खुला। लोग तो यही जानते-मानते हैं कि हरिद्वार आते-जाते मैं किसी जंगली जानवर का शिकार बन गया। सुना है कि ठाकुर ने अपने कारिंदों से तब मेरी खोजबीन का नाटक भी करवाया था। इतना कहकर वह आÑति देखते-ही-देखते न जाने कहां तिरोहित हो गर्इ। उसकी जगह एक दूसरी ही आÑति उभर आर्इ। अपनी ओर इशारा करके वह आÑति बोल उठी- ''देख रहे हो ठाकुर, यह मेरा नीला पड़ा शरीर। यह तो कुछ भी नहीं, मेरी आत्मा में जो जहर घोला गया उसके असर का तो कोर्इ हिसाब ही नहीं। बात तब की है जब गोरखा-आंध्ी के आगे 'बोलंदा-बदरीश¹⁶ की सत्ता टिक नहीं पार्इ। हमारे कुछ खानदानी शेरों ने अनाचारियों के आगे घुटने ही नहीं टेके बलिक उनकी आड़ में अपनी कुतिसत इच्छाएं भी पूरी करने लगे। जाने कौन-सी अशुभ घड़ी थी जब अचानक पधन¹⁷ जी की तिबारी¹⁸ से मेरी बुलाहट हुर्इ। पधन जी के आंगन के एक ओर नारंगी के पेड़ पर थोकदार जी का घोड़ा बंध देखकर मैं न जाने कैसी-कैसी आशंकाओं में डूबने-उतराने लगा। तिबारी में पहुंचा तो वहां मौजूद लोगों के चेहरों पर मुर्दनी छार्इ देख मेरा रहा-सहा ध्ैर्य भी चूक गया। थोकदार जी मूछों पर ताव देकर मेरी ओर ताक रहे थे। उनके इशारे पर पधन जी बोले- ''चैतू भार्इ! थोकदार जी हम लोगाेंं की कितनी चिंता करते हैं आज पता चला। इतनी दूर से दौड़े चले आए कि हम लोग किसी मुसीबत में न पफंस जाएं। थोकदार जी को पता चला है कि गोरखा नायक तुम्हारी बेटी की पिफराक में हैं। अगर हम लोगों ने विरोध् किया तो पता नहीं क्या हो। हो सकता है गोरखे गांव के सभी जवान लड़के-लड़कियों को बतौर दास-दासियों के बेच देने की सोचें। इस टेढ़ी समस्या से निजात पाने की जो तरकीब थोकदार जी ने सोची है, मुझे तो उसी में गांव का भला नजर आता है। वैसे तुम जानो।
मुझे काटो तो खून नहीं। कुछ कहना ही नहीं आया। थोकदार जी ने खांसकर चुप्पी तोड़ी, बोले- ''गोरखे तो पिफलहाल कहीं दून की ओर गए हैं। सुना है वहां पिफरंगियों से खतरा पैदा हो गया है। कहीं लौट आए तो क्या होगा, यही सोचकर परेशान हूं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत पर कोर्इ बाहर वाला हाथ डाले, यह तो हमारे लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात होगी। सोचता हूं कि लड़की को मैं स्वयं अपने सरंक्षण में ले लूं। ऐसा होने पर गोरखे सौ बार सोचने को मजबूर होंगे। वे जानते हैं कि अगर हम जैसों ने उनका साथ नहीं दिया तो वे यहां टिक नहीं पाएंगे। सवाल एक घर की इज्जत का नहीं, पूरे गांव और इलाके की इज्जत का है। मेरी अमलदारी में ऐसा कुछ हो भला मैं यह कैसे सहन कर सकता हूं। मैं आज ही लड़की को अपने साथ ले जाने आया हूं।
थोकदार जी के मन की गहरार्इ में उतरकर झांका तो खून के आंसू पीकर रह गया। हाथों के तोते उड़ गए। दिल बैठ गया। रूंध्े गले से बस इतना भर बोल पाया- ''लेकिन अगले महीने तो उसके हाथ पीले करने हैं?
''तो क्या हुआ? मामला ठंडा पड़ने पर यह भी हो जाएगा। थोकदार जी स्वयं कन्यादान कर देंगे। चिंता किस बात की? पधन जी बोल उठे।
सभी की राय वही थी मैं क्या करता। एक उमरदार रोगी के साथ बेटी को जाते देखकर मेरी छाती दरककर रह गर्इ। उसकी मां तो रो-रोकर अपनी आंखें ही पफोड़ने पर तुल गर्इ थी। लेकिन हमारे पास चारा भी क्या था। छाती पर पत्थर न रखते तो क्या करते। समधियाने खबर पहुंचा दी कि लड़की पिफलहाल अपने ननिहाल गर्इ है। लेकिन कहीं उन्हें पता चल गया तो? इसी आशंका के मारे मैं एक दिन थोकदार जी के कोठे पर जा पहुंचा। सोचा था कि अगर लड़की को सकुशल वापिस ला सका तो इज्जत मिटटी होने से बच जाएगी। थोकदार जी बड़े प्यार से मिले। खुद ही बोले- ''गोरखों का खतरा तो टल गया। पिफरंगी उन्हें ध्ूल चटाकर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन आपसे विनती है कि लड़की को वापस ले जाने की बात न करेंं। यहां ठकुराइन की तबीयत ठीक नहीं रहती। परिचर्या के लिए उन्हें एक जवान हाथ की जरूरत है। और आपकी बेटी इस काम को बखूबी निभा रही है। अगर वह यहीं रहे तो कैसा रहे?
''लेकिन उसकी तो शादी तय है। मैंने कहा।
''तो क्या हुआ? समझ लो कि उसके भाग्य में यही घर लिखा था। थोकदार जी बोले।
''यह क्या कह रहे हैं, ठाकुर। मेरी तो बिरादरी में नाक कट जाएगी। लोग थू-थू करेंगे। कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह पाउफंगा मैं। पिफर अपनी उमर तो देखो ठाकुर?
''अरे! अभी तो साठ पर भी नहीं पहुंचा। और मर्द तो साठे पर पाठा होता है। हमसे संबंध् जुड़ना क्या तुम्हें पसंद नहीं?
''नहीं! बिल्कुल नहीं! मैंने चीखकर कह तो दिया मगर विश्वास के पांव डगमगा रहे थे। ठाकुर ने एक व्यंग्य भरी मुस्कान मेरी ओर पफेंकी पिफर अपने कारिंदों को सुनाते हुए बोला- ''लगता है इनकी समझदारी का दायरा बहुत तंग है। कुछ ऐसा करो कि बात इनकी समझ में आ जाए। इतना कहकर थोकदार जी एक ओर हट गए। पिफर क्या था, उनके दो लठैत यमदूतों की तरह मुझे घेर बैठे। एक बोला- ''क्यों रे! बछिया के ताउफ! थोकदार जी बेटी का हाथ मांग रहे हैं और तू इनकार कर रहा है। दूसरे ने कहा- ''बौड़म है या पूरा पागल! इतने उफंचे खानदान से रिश्ता जुड़ा और तू है कि तोड़ने की बात कर रहा है।
''कहां का रिश्ता और कैसा रिश्ता? गुस्से में मैं चीखा।
''अरे! तू दुनिया को बेवकूपफ समझता है क्या? तब जवान बेटी को चुपचाप थोकदार जी के साथ क्या सोचकर भेजा था? रिश्ता तो उसी दिन तय हो गया था। बेटी क्या कुंवारी बैठी है अभी तक। वह तो कब की छोटी ठकुराइन बन चुकी। शेर की मांद में घुसकर उसके मुंह से शिकार छीन लेगा क्या? पहले ने ध्मकी भरा सवाल किया तो दूसरे ने जोड़ा- ''पिददी न पिददी का शोरबा! छोटी मालकिन को कहीं और ब्याहेगा? अकल के अंध्े! तूझे तो खुश होना चाहिए कि तेरी बेटी राज कर रही है। यह सब सुनने पर भी जब मैंने अपनी जिदद नहीं छोड़ी तो वे दोनों मुझे यहां ले आए। मार बांध्कर जबरन घेड़ गिंडुक में ठूंस दिया गया। बहुत दिनों से खाली पड़ा घेड़ गिंडुक चूहों का घर बन चुका था। नागराज को भनक लगी तो दावत उड़ाने उसके भीतर घुस आए थे। ठुंसा-ठांसी में मेरे पैरों का दबाव नागराज के गले पर पड़ा तो उसमें पफंसा चूहा बाहर निकल भागा और नागराज ने पलटकर मुझे ही काट खाया। पांव से सिर तक दर्द की ऐसी लहर उठी कि मैं घेड़ गिंडुक से न जाने कैसे बाहर छिटक पड़ा। नागराज भी पफन उठाए बाहर रेंग आए। दोनों लठैत चिल्लाए- ''सांप! सांप! मुझे नीला पड़ता देख उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं। उनकी घबराहट भरी चिल्लाहट से कोठे में कुहराम मच गया। थोकदार जी खांसते, गिरते-पड़ते आए। नागराज अभी तक पफन पफैलाए घूरता नजर आया। मेरी आंखें मुंद रही थीं। उनमें मौत की छाया देखकर थोकदार जी सिथति भांप गए। मुझे घेड़ गिंडुक के पास से खींचकर सीढि़यों पर लिटा दिया गया। वे शायद मेरा हठ छुड़ाना चाहते थे, जान लेने का उनका इरादा नहीं था। और इसीलिए मेरे साथ जो कुछ घटा उसे एक दुर्घटना का रूप दे दिया गया। ठकुराइन के साथ बेटी आर्इ। बाप की दशा देखकर चीख मारकर गिर पड़ी। ठकुराइन ने उसे बड़ी मुशिकल से संभाला। कुछ और लोग भी जमा हो गए। भीड़ की बढ़ती नागराज को रास नहीं आर्इ और वह पफुपफकार छोड़ते हुए नीचे झाडि़यों में गायब हो गया। थोकदार जी ने जहर उतारने वाले तांत्रिक को तुरंत लाने का आदेश अपने लठैत को दिया तो सही लेकिन उसके रवाना होने से पहले ही मेरे प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। मेरे साथ जो कुछ बीती, वह आज तक किसी को पता नहीं है। हां, यह घेड़ गिंडुक ही उसका एकमात्रा साक्षी है।
उस आÑति के गायब होते ही एक और चेहरा सामने आ गया। बोला- ''ठाकुर, पहचाना? बचपन के दिन याद करो। तब तुम यही दस-ग्यारह साल के रहे होगे। तुम्हारे पिता को अल्मोड़ा पिफरंगी के पास जाना था। पिफरंगी सरकार का आदेश था कि सारे कमीण-थोकदार और अहलकार अपनी अमलदारी का सबूत लेकर अल्मोड़ा पहुंचे। उतनी दूर पैदल पांव नापने का तो सवाल ही नहीं था। डांडी¹⁹ बोकने के लिए आठ-दस तगड़े जवान छांटे गए और दुर्भाग्य उनमें मेरा अपना वह बेटा भी था जिसका विवाह उसी बीच होना तय था। मैंने थोकदार जी से विनती की लेकिन वे कब मानने वाले थे। बोले- 'तो क्या हुआ? तुम खसियों में तो वर की अनुपसिथति में भी विवाह संपन्न हो जाता है। दुल्हन से केले के सात पफेरे लिवा लिए और मुहर लग गर्इ। हम बाप-बेटे इसके लिए तैयार नहीं थे। बेटा कहीं दूर की रिश्तेदारी में चला गया। उसके भाग जाने की खबर थोकदार जी के कानों में पड़ी तो उनके लठैत मुझे ही पकड़ ले गए। लड़के को वापस बुलाने के लिए मुझ पर दबाव डाला गया। मैंने हाथ जोड़े, पैरों पड़ा और जोर देकर कहा कि वह बिना बताए ही कहीं चला गया है लेकिन थोकदारी हठ के आगे मेरी क्या चलती। मालिक थे, ठान ली तो ठान ली। जमीन छीन लेने और गांव से बेदखल कर देने की ध्मकी ही नहीं दी गर्इ बलिक मार-बांध्कर मुझे इस घेड़ गिंडुक के हवाले कर दिया गया। मेरी दुर्दशा का पता जब बेटे का लगा तो वह लौट आया। मैं तो घेड़ गिंडुक में पड़ा-पड़ा मौत की घडि़यां गिन रहा था। करवट बदलना तो दूर रहा, वहां तो टस-से-मस होना भी दूभर था। हाथ-पैर सीध्े तने हुए, पैरों से गरदन तक पसीने से तरबतर हाजत हुर्इ तो वहीं- विष्टा और मूत से सराबोर नरक की यातना भोग ही रहा था कि अचानक मुझे छोड़ देने का आदेश हो गया। लेकिन उतने दिनों सीध पड़े रहने का यह परिणाम निकला कि कमर से नीचे बिल्कुल बेजान होकर रह गया। टांगों ने काम करना बंद कर दिया और मैं एक अपाहिज की जिंदगी जीने पर मजबूर हो गया। जितने दिन जिंदा रहा रोते-कलपते ही बीते।
आप-बीती सुनाकर वह चेहरा भी न जाने कहां अन्तर्धन हो गया। उसके गायब होते ही एक के बाद एक कर्इ चेहरे सामने आए। उनकी शिकायतें भी लगभग एक जैसी थीं। उन्हें हक-दस्तूरी न चुका पाने या भेंट-पिठार्इ न पहुंचाने के आरोप में कुछ समय के लिए घेड़ गिंडुक का आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा था। अंत में एक ऐसा चेहरा प्रकट हुआ जिसकी अंध्ी आंखों से निकलने वाली अदृश्य चिंगारियों को थोकदार जी सहन नहीं कर पाए। उसने कहा- ''ठाकुर मुझे तो मारने के बाद भी तुम शायद ही भुला पाओ। अपनी मान-मर्यादा पर पड़ने वाली चोट क्या होती है, यह अनुभव तो तुम्हें मेरे ही कारण हुआ था। हमारी बहू-बेटियों से मनमाना खेल खेलना तो तुम लोग अपना अधिकार समझते रहे। तुम्हारे लेखे हम खैकर-सिरतान और उफपर से खसिया भला किस बूते तुम्हारी बगिया में सेंध् लगाने का दुस्साहस करते। मेरा कसूर इतना ही तो था कि मैंने तुम्हारी बहन को डूबने से बचाया था। कान के कच्चे तो तुम जनम से ही थे। किसी ने कान भरे कि मैं उस पर बुरी नजर रखता हूं और तुमने सच मान लिया। घेड़ गिंडुक के हवाले कर जिस बेरहमी से मेरी आंखों की रोशनी छीन ली गयी, उसकी मिसाल शायद ही कहीं और मिले। अपनी अंध्ेरी दुनिया में मैंने जो कुछ भोगा, मेरी आत्मा आज तक भुला नहीं पार्इ। यह देखकर भी भीतर की आग शांत होने का नाम नहीं लेती कि मेरी दुनिया में अंध्ेरा करने वाला आज अपने नसीब पर आठ-आठ आंसू रो रहा है। ठाकुर, तुमने और तुम्हारे पुरखों ने जो कुछ किया उसका परिणाम यही तो होना था। बुरे काम का परिणाम बुरा नहीं तो क्या भला होगा?
उसकी अंध्ी आंखों ने ठाकुर का मन कुछ-का-कुछ कर दिया। करतूत याद आर्इ तो सोचने-समझने की सलाहियत भी जाती रही। बाहर-भीतर जैसे अंध्ेरा छा गया और लगा कि अब तक देखे सारे चेहरे उसे घेरकर बदला लेने पर उतर आए हाें। बाहर भागना चाहा तो घेड़ गिंडुक से ऐसी ठोकर लगी कि संभल नहीं पाए। दीमक खाए कमजोर आधर वाला घेड़ गिंडुक ऐसा लुढ़का कि घेड़ गिंडुक ऊपर और ठाकुर नीचे। उफपर से सिर इतनी जोर से दीवार से जा टकराया कि दर्द के मारे बेचारे ठाकुर का हाथ-पैर मारना भी किसी काम नहीं आया।
और ठीक उसी समय बेटे ने आकर उध्र झांका तो दंग रह गया। घेड़ गिंडुक के नीचे दबा ठाकुर एक भारी-भरकम मंेंढक की तरह पिचका हुआ कबका टें बोल चुका था। बेटे ने घेड़ गिंडुक को एक ओर हटाने का प्रयास किया लेकिन अकेले उसके बस की बात भी कहां थी। अपनी ही अमलदारी के एक गांव से वह बहुत गुस्से में लौटा था। दिमाग तो वैसे ही काम नहीं कर रहा था। बाप की सेहत के लिए किसी सिरतान ने बकरे की मांग ठुकरा जो दी थी। गांव के दूसरे लोग भी जब उसी सिरतान का साथ देने लगे तो वह बंदूक लेने आया था उन Ñतघिनयों को सबक सिखाने। लेकिन यहां तो बाप की सर-परस्ती से ही हाथ धे बैठा था। चिल्लाकर मां को आवाज दी। थोकदन आकर रोने-चिल्लाने लगी तो गांव को भी खबर हो गयी। लोग आए तो सही लेकिन छूत लगने के डर से कोर्इ लाश छूने को तैयार नहीं था। यहां तक कि अपने कारिंदे भी सिर झुकाए एक ओर खड़े थे। बेटे ने आव देखा न ताव, भीतर से बंदूक उठा लाया और लोगों की ओर तानकर घोड़ा दबाने ही वाला था कि किसी ने पीछे से आकर बंदूक छीन ली। वह कोर्इ और नहीं पटटी-पटवारी थे जो पड़दादा की किसी रखैल की तीसरी पीढी में से थे और उस नाते चाचा लगते थे। पटवारी जी बोले- ''पागल हो गया क्या थोबू? गोली चलाकर पफांसी चढने का शौक चर्राया है क्या? वे दिन हवा हुए जब हमारा वचन ही कानून था, क्यों कानून अपने हाथ में लेता है? लाश का निरीक्षण करते हुए पिफर बोले- ''लगता है भार्इ साहब मरे नहीं मारे गये हंै। हत्या की गयी है इनकी। पहले सिर पर चोट मारी गर्इ और पिफर घेड़ गिंडुक इनके उफपर गिरा दिया गया। जिसने भी यह अपराध् किया है वह सामने आए अन्यथा सारे गांव को बांध् ले जाउफंगा। यह सुनना था कि सारे लोग सकते में आ गए । सबको जैसे काठ मार गया। बोलती बंद हो गयी। मरघट के उस सन्नाटे को तोड़ते हुए पटवारी ने आंसू बहाती थोकदन से पूछ लिया- ''भाभी, आपने किसी को आते-जाते या भार्इ साहब से बतियाते तो नहीं देखा?
इस पर थोकदन ने बताया कि उसने न तो किसी को आते-जाते देखा और न बतियाते सुना। हां, कुछ ही देर पहले वह खुद दवा पिलाकर जब बाहर निकल रही थी तो थोकदार जी भी उसके पीछे हो लिए थे, वह तो उफपर अपने कक्ष की ओर चली आर्इ थी। छज्जे से नीचे आंगन पर थोकदार जी को इसी कोठरी की ओर बढ़ते देखा था। सोचा शायद यों ही मन बहलाने निकले हैं। उसके बाद क्या हुआ उसे कुछ पता नहीं।
पटवारी ने अब दूसरे कोण से सोचना आरंभ कर दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि अंध्ेरे कमरे में घेड़ गिंडुक से बुरी तरह टकरा जाने के कारण यह कांड घटा हो। लाश के ओर नजदीक जाकर देखा तो दायें पैर के जख्मी अंगूठे ने पटवारी के हत्या वाले शक का निवारण कर दिया। बोले- ''मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद भार्इ साहब की मिटटी पलीद हो। मामला तो दुर्घटना का ही अधिक लगता है। किसी का हाथ होने की संभावना नजर नहीं आती। लेकिन आप लोग अभी तक चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे हंै। थोकदार जी घेड़ गिंडुक के नीचे मरे पड़े हैं और किसी में कोर्इ हरकत नहीं। अपने सरपरस्त को इस दशा में देखकर भी आप लोग चुप हैं, ताज्जुब है।
इस पर कोर्इ पफुसपफुसाया- ''छूत का रोग जो है …
''छूत लगे या भूत, कंध तो देना ही होगा। अगर कहीं शव परीक्षण के लिए ले जाना पड़ता तो क्या तुम्हारे पुरखे आते? बहुत देर हो चुकी, जल्दी करो।
पटवारी के जोर देने पर लोग हरकत में आए और थोकदार जी का अंतिम संस्कार जैसे-तैसे संपन्न हो गया।
शव-दहन के बाद लोग कोठे पर लौटे ही थे कि रास्ते पर कुछ ढांकरी²⁰ बैठे दिखार्इ दिए। अपने बोझ खेत की मेड़ पर उतारकर वे गीत गाने में मशगूल थे। एक ने टेक उठार्इ-
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी अब तो जाग)
दूसरों ने लंबी तान खींचकर साथ देना आरंभ किया-
गैड़ी च झूमक-डांडि-कांठयों घाम मेरी बौ गदन्यूं रूमक।
(झुमके गढ़े गए ;तुक के लिएद्ध धूप ऊंचे पर्वत-शिखरों पर पहुंच गई,
नदी-घाटियों में अंधेरा झूलने लगा है।)
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग)
गैड़ी जाली बीछी- अगि बटी द्वाड़ा दी मैची अब केन खाई गिच्ची।
(पैरों के बिछुवे गढ़े जाएंगे ;तुक के लिए)
पहले तो प्रत्युत्तर दे रही थी, अब तेरे मुंह को क्या खा गया?
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿ ।।
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग।)
उनका इस तरह उल्लासपूर्वक गीत गाना बाप की क्रिया में बैठे नए थोकदार को रास नहीं आया। बस क्या था, उठकर बाहर निकल आया। बंदूक अपनी ओर तनी देखकर ढांकरियों की तो सिटटी-पिटटी गुम हो गर्इ। किसी तरह साहस जुटाकर उन्होंने बताया कि वे तो कहीं दूर दूसरे इलाके के हैं लेकिन उनकी एक नहीं चली। कहा गया कि हैं तो वे उसी इलाके में जहां के थोकदार जी का आज ही निध्न हुआ है। ऐसे में गीत गाने का दंड तो उन्हें भोगना ही पड़ेगा। उन्होंने बहुत कहा कि उन्हें पता ही नहीं था लेकिन उनकी सुनता कौन? जबरन उनके बोझ घेड़ गिंडुक वाले कक्ष में रखवा दिए गए और मृतक के नाम उन सबके सिर मुंडवाने का आदेश दे दिया गया। पता नहीं कौन-सी सनक सवार हुर्इ कि कुछ के आध्े सिर तो कुछ की आध्ी मुंछ छोड़ दी गर्इ। यही तमाशा दाढि़यों के साथ भी किया गया। उनमें एक-दो तो ऐसे भी थे जिनके मां-बाप अभी जिंदा थे लेकिन आपत्ति करने पर भी उन्हें नहीं छोड़ा गया। जो भी उन्हें देखता छिप-छिप कर मुस्करा उठता। वे बेचारे करते भी क्या? थोकदार जी की बंदूक और घेड़ गिंडुक का भय जो सामने था। विरोध् करने का साहस वे क्या खाकर जुटा पाते? बेचारे मन मसोसकर रह गए। अब तो तेरहवीं होने पर ही छुटटी मिलनी थी।
सैंकड़ोें लोगों के भोजन के लिए रसद इकटठी करने, पकाने के लिए भांडे-बर्तन और लकडि़यां जमा करने तथा पत्तल-दोने आदि तैयार करने के काम में उन्हें जोत दिया गया। और भी छोटे-मोटे काम उनसे लिए जाते रहे। लेकिन ठीक तेरहवीं के दिन सुबह से ही इतनी भारी बरसात हुर्इ कि सारी लकडि़यां गीली हो गर्इं। भोजन पकना मुशिकल हो गया तो उन्हीं में से एक ने सूखे घेड़ गिंडुक की ओर इशारा किया। थोकदन तो उसे अपने कुल का अभिशाप ही मान बैठी थी। नए थोकदार ने भी अनुभव किया कि नयी व्यवस्था में घेड़ गिंडुक का शायद ही कोर्इ उपयोग है। और इस तरह वह घेड़ गिंडुक थोकदार जी की तेरहवीं में काम आ गया। उसकी चीर-पफाड़ करते हुए एक ढांकरी ने चुपके से कहा- ''चलो अच्छा हुआ, लोगों को सताने का यह औजार भी गया।
दूसरे ने कहा- ''हां, घेड़ गिंडुक की भी तेरहवीं हो गयी। और उपसिथत लोग होठों-ही-होठों में मुस्करा उठे।

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¹ थोकदारी . पहाड़ की छोटी-मोटी जमींदारी जिसे कमीणचारी भी कहा जाता था।
² कोठे. थोकदार बनाम कमीण या सयाणा का किलेनुमा घर।
³ घेड़ गिंडुक . कटे पेड़ का विशाल तना जिसे भीतर से खोखला कर दिया जाता था ताकि अपराध्ी को उसके भीतर ठूंसकर सजा भोगने के लिए मजबूर किया जाए।
⁴ हक-दस्तूरी .कमीण-सयाना-थोकदार या पधन आदि द्वारा लिया जाने वाला कर।
⁵ जैजिया .जिया- लोकप्रसिदध् कत्यूरी रानी। कुछ कत्यूरी वंशजों में 'जिया शब्द मां का अर्थ भी देने लगा और आज भी कहीं-कहीं सुनने को मिलता है। 
⁶ थोकदन .थोकदार की पत्नी
⁷ गध्ेरे . छोटी-मोटी नदी
⁸ .सेरे.उपजाउफ सिंचित भूमि
⁹ नाली . लगभग दो सेर
¹⁰ पठाल. 
¹¹ ओड . चिनार्इ करने वाले कुशल कारीगर
¹² बेजड .गारे-मिटटी का मिश्रण
¹³ .बादिन या बेडि़न- नाचने गाने वाली जाति की स्त्राी
¹⁴ बादी .नाचने-गाने वाली जाति का पुरुष 'बादी  
¹⁵ जैजिया.थोकदन
¹⁶ बोलंदा-बदरीश .बोलता हुआ अर्थात साकार बदरी नारायण
¹⁷ पधन .पधन मèय पहाड़ी समाज में कुल का मुखिया गांव का मुखिया भी होता था जिसे बि्रटिश सरकार ने भी मान्यता प्रदान कर दी थी।
¹⁸ तिबारी .उफपरी मंजिल का स्तंभों वाला एक ओर को खुला स्थान जो बैठक का काम देता था।

 ¹⁹ डांडी .पीनस या एक तरह की पालकी जिसे दो आदमी कंधें पर ढोते हैं।

²⁰ढांकरी . दूर किसी हाट-बाजार से घर के लिए आवश्यक सामान खरीदकर लाने वाले लोग।




Friday, September 2, 2011

रैणीदास का जनेऊ

गाथाओं, किंवदतियों, लोककथाओं और मिथों में छुपे उत्तराखण्ड के इतिहास को जिस तरह से उदघाटित किया जाना चाहिए, अभी वह पूरी तरह से संभव नहीं हो पाया है। इधर हुई कुछ कोशिशों के बावजूद उसके किये जाने की ढेरों संभावनाओं मौजूद हैं। उत्तराखण्ड के इतिहास को केन्द्र में रखकर रचनात्मक साहित्य सृजन में जुटे डॉक्टर शोभाराम शर्मा की कोशिशें इस मायने में उल्लेखनीय है। प्रस्तुत है ऎसे ही विषय पर लिखी उनकी ताजा कहानी।
वि.गौ

डा शोभाराम शर्मा

उस साल मौसम के बिगड़े मिजाज ने कुछ ऐसा रंग दिखाया कि भुखमरी की नौबत आ गई। चौमास के आखिरी दिनों पानी इतना बरसा कि तैयार फसल चौपट हो गई। और इधर मौसम ने फिर ऐसी करवट बदली कि पूरा जाड़ा बिना बरसे ही बीत गया, रबी की फसल भी सूखे की भेंट चढ़ गई। जाड़ों भर कड़ाके की कोरी ठण्ड ने जीना मुहाल कर दिया था। अलाव के सहारे दिन भी कटने मुश्किल हो गए थे। और एक दिन जब आंख खुली तो खुली की खुली रह गयी। खेत, खलिहान, बाटे । घाटे, पेड़-पौधे और छत आंगन सब के सब जैसे किसी सफेद चादर से ढ़क गए थे। अजीब नजारा था। आंखे हरियाली देखने को तरस गयी। पहले बर्फवारी का भ्रम हुआ लेकिन जल्दी ही टूट भी गया। आसमान तो साफ था तो फिर बर्फ कैसे? सचमुच वह पाला ही था और कुदरत का वह करिश्मा बड़े बूढों ने भी पहली बार देखा था। पिघल तो गया एक ही दिन में लेकिन अपने पीछे पत्ते पेड़ों की टहनियां तक झुलसा गया। अनाज के अभाव में उन दिनों लोग जाड़ों की जिन सब्जियों से जैसे-तैसे काम चला रहे थे, पाले ने उन्हें भी नहीं छोड़ा और तो और सकिन और बिच्छूघास जैसी जंगली वनस्पतियां भी झुलसकर रह गयी।
कुदरत की मार तो इलाके भर के लोग झेल ही रहे थे, लेकिन गांव के एक छोर पर बसे औजी (वादक और दर्जी) परिवारों की हालत सबसे पतली थी। आरम्भ में कोई एक औजी परिवार ही वहां आकर बसा होगा। सवर्ण परिवारों से मिलने वाले डडवार (हर फसल पर मिलने वाला अनाज) से उसकी गुजर-बसर हो जाती होगी। उसी एक परिवार के अब पांच-छह परिवार हो गये थे। हालांकि सवर्ण परिवार भी कुछ बढ़ गये थे लेकिन इतने नहीं कि सारे औजी परिवारों का गुजारा हो सके। ऐसे में तीन-चार बच्चों के बाद एक और बच्चे का आगमन परिवार को खुशी देने की जगह दुखी ही तो करता । कड़ाके की ठण्ड और ओढ़ने-बिछाने को एकाध चीथड़ा भी नहीं। ऊपर से अशौच की चिंता। प्रसूता को उस सीलनभरी कोठरी में जहां एक कोने में बकरी और बांझ गाय बंधी थी दूसरे कोने में गोबर और मेंगनी के बीच बच्चे को जन्म देना पड़ा। और वही दिन था, जिस दिन धरती पाले का सफेद कफन ओढ़े मुर्दे की तरह अकड़ी पड़ी थी। पराल के बिस्तर पर तड़पते पूरा एक दिन और एक रात बीत गए लेकिन प्रसव नहीं हो पाया, मरणान्तक प्रसव-पीड़ा सुयरि (दाई) जिसके प्रयास से प्रसूता और नवजात दोनों की जान बच गयी। लेकिन खून जमा देने वाली ठण्ड के कारण जिस टैणी(मांस पेशियों में होने वाली जकड़न) का अनुभव प्रसूता को हो रहा था, उससे बचने का प्रयास करना जारी था। पराल के बिस्तर के पास ही चार पत्थर रखकर अंगीठी बना दी गयी। प्रसूता के लिए जिस गिजा की जरूरत थी, उसे जुटा नहीं पाए तो चुनमण्डी (मंडुवे के आटे का फीका तरल पेय) से ही काम चलाना पड़ा। पेट चल गया तो प्रसूता की जान पर बन आई। कहीं से मांग मूंग कर सेर-आध सेर-चावलों का जुगाड़ बिठाया और तब कहीं माण्ड पी-पीकर उसकी जान बच पाई।

Friday, April 22, 2011

पेशावर काण्ड

भारतीय इतिहास में पेशावर काण्ड एक ऐसी घटना है जिसने आजादी के संघर्ष की उस बानगी को पेश किया जिसमें देश प्रेम का वास्तविक मतलब देश के नागरिकों से प्रेम के रूप में परिभाषित हुआ है। पेशावर के इस सैनिक विद्रोह की गाथा है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज की एक टुकड़ी ने निहत्थे नागरिकों पर हथियार उठाने से इंकार कर दिया था। 23 अप्रैल 1930 को घटी इस घटना का सुंदर काव्यात्मक जिक्र कथाकार और इतिहास के अध्येता शोभा राम शर्मा ने भी किया है। चन्द्र सिंह गढ़वाली के जीवन को केन्द्र में रखकर उन्होंने एक महाकाव्य लिखा है जो अभी तक अप्रकाशित है। इस अवसर पर महाकाव्य का वह अंश जिसमें पेशावर विद्रोह की पृष्ठभूमि और उसके लिए हुई आरम्भिक तैयारियां पुनसर्जित हुई है, यहां प्रस्तुत करते हुए वीर सिपाही चन्द्र सिंह गढ़वाली को याद करने की कोशिश की जा रही है।

अप्रैल 1930- पेशावर में जनता पर नहीं चली गोली। अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत फौज की एक टुकड़ी ने की, नेता कौन था? चन्द्र सिंह। संवत 1948(1891 ई।) पौष शुक्ल 15 को रौणसेरा गांव में पैदा होने वाला चन्द्र सिंह। जिसके बाप का बाप कमली चौहान, उसका बाप बनिया चौहान, उसका बाप गल्लू चौहान और उसका बाप दास चौहान। अपनी छ: पुश्तों का इतिहास जानने वाला- चन्द्र सिंह।

हरियाली से ढके ऊंचे पहाड़ों की सौम्यता, बुरांश का सुर्ख लाल रंग जिसके भीतर समाया रहा। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य ने जिसके व्यक्तित्व को तराशा। अपने पूर्वजों के नाम के आगे लिखे दास शब्द का अर्थ क्या रहा, मालूम नहीं, पर चन्द्र सिंह जानता था- दासता के चिन्ह को उसके पिता जाथली सिंह ने ही उतार फेंका। 18वीं-19वीं सदी में दास प्रथा गढ़वाल और पूरे देश में रही। जो दास नहीं थे, वे भी अपने मालिकोंे-सामन्तों या राजाओं के सामने बहुत नीचे स्थिति रखते थे और उनका जीवन भी अर्द्ध दास जैसा ही था।
वि.गौ.

पंचवटी में प्राप्त प्रशिक्षण, शिक्षक बनकर आया था।
उसकी सैनिक प्रतिभा से भी, असर वहाँ पर छापा था।।
मार्टिन था कप्तान उसी ने, ट्रेनिंग का खुद भार दिया।
अभी निशानेबाजी पर वह, भाषण ही दे पाया था।।
गोरा अफसर आकर बोला-''आज तुम्हें कुछ बतलाऊँ।
गढ़वाली क्यों पेशावर में, भेद यही सब समझाऊँ।।
मुस्लिम भारी बहुमत में हैं, हिन्दू रहते आफत में।
धन-दौलत क्या औरत लूटें, इज्जत सारी साँसत में।।
दूकानों पर धरना देते, लूट न पाते जब उनको।
तुमको सारी बदमाशी का, सबक सिखाना है इनको।।
इसीलिए तो हिन्दू पलटन, सोच-समझकर भेजी है।
शायद कल बाजार चलोगे, जहाँ निपटना है तुमको।।''
इस पर कोई उठकर बोला-''हमको कुछ पहचान नहीं।
हिन्दू-मुस्लिम एक सरीखे, रंग वही परिधान वही।।''
''जो भी धरना देता होगा, याद रखो मुस्लिम होगा।
फिर भी अफसर साथ चलेंगे, पास तुम्हारे हम होगा।।''
फूट बढ़ाओ राज करो की, धूर्त चमक थी आँखों में।
धूल मगर वह झोंक न पाया, भड़ की निर्मल आँखों में।।
इन बातों की समझ उसे थी, आया नहीं छलावे में।
संकट में क्या करना होगा, भूला नहीं भुलावे में।।
गोरा तनकर चला गया तो, रोक न पाया वह मन को।
बोला-''यदि कुछ सुनना चाहो, राज बता दूँ सब तुमको।।
कहीं किसी से मत कह देना, अपनी भी लाचारी है।
हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठाना, साहब की मारी है।।
झगड़ा शासित-शासक का है, प्रश्न खड़ा आजादी का।
बीज इन्होंने बो डाला है, जन-जन की बर्बादी का।।
सात समुन्दर पार निवासी, बना हमारा स्वामी है।
चूस रहा जो खून हमारा, शोषक जोंक कुनामी है।।
यहाँ निकलसन1 लाइन है या, हरिसिंह नलवा लाइन है।
बैर-विरोध न मिटन पाए, सोची-समझी लाइन है।।
देश-धरम पर मिटने वाले, इनको गहरे दुश्मन हैं।
झूठे-सच्चे केस चलाकर, नरक बनाते जीवन हैं।।
अपने घ्ार में बन्द अभागे, आपस में हम लड़ते हैं।
खुलकर नाच नचाया जात, कठपुतले हम पिटते हैं।।
आज चुनौती दे डाली तो, हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठा।
हमें चलानी होगी गोली, सोच-समझ तो आँख उठा।।
सिर पर बाँधे कफन खड़े हैं, आजादी के मतवाले।
गद्दारों में गिनती होगी, मूढ़ रुकावट जो डाले।।
गोली दागो, अच्छा होगा, गोली खाकर मर जाओ।
खून निहत्थे जन का होगा, हाथ न अपने रंग जाओ।।
कुल का नाम कलंकित करना, कहो कहाँ की नीति भली।
नहीं नरक में ठाँव मिलेगा, हमसे गोली अगर चली।।
दुनिया को दिखलादो यारो, टुकड़ों के हम दास नहीं।
समझ हमें भी दुनिया की है, चरते केवल घ्ाास नहीं।।
देश-द्रोह फिर बन्धु हनन का, पाप कमाना लानत है।
उदर-दरी तक सीमित रहकर, जीवित रहना लानत है।।
अंग्रेजों का नमक नहीं है, जिस पर अपना पेट पले।
नमक-हलाली किसकी यारों, देश हमारा भारत है।।



जाकर देखा भीड़ खड़ी थी, सम्मुख सैनिक डटे हुए।
चित्र लिखे से सिर ही सिर थे, पथ के पथ ज्यों पटे हुए।।
पूरी पलटन आ धमकी फिर, भीत न लेकिन भीड़ घ्ानी।
गगनांगन पर यान उड़ाए, तोप शहर की ओर तनी।।
अंग्रेजों का शक्ति-प्रदर्शन, खेल बना दीवानों को।
जल जाते हैं लेकिन तन की, चिन्ता कब परवानों को।।
जमघ्ाट जुड़ता देख भयातुर, आगे बढ़ आदेश दिया।
संगीनों की नोंक दिखाकर, पट्ठानों को घ्ोर लिया।।
तभी अचानक सिक्ख दहाड़ा, उर्दू में कुछ पश्तों में।
मुर्दो तक में हरकत ला दे, ताकत थी उन शब्दों में।।
'अल्ला हू अकबर !" का नारा, गले हजारों बोल उठे।
जय गाँधी, जय जन्म-भूमि के, शत-शत नारे गूँज उठे।।
उधर तिरंगे लहराते थे, पठानों के वक्ष खुले।
उधर मनोबल तुड़वाने पर, अंग्रेजों के दास तुले।।
सीटी लम्बी बजा-बजाकर, जनता को चेताया था।
गोली दागी जाएगी अब, पढ़कर हुक्म सुनाया था।।
गोरा था कप्तान जिसे अब, अग्नि-परीक्षा देनी थी।
अपने खूनी आकाओं की,, इच्छा पूरी करनी थी।।
''गढ़वाली ! बढ़ गोली दागो'', उसके मुख से जब निकला।
चन्द्रसिंह भी सिंह सरीखा आगे बढ़कर कह उछला।।
''गढ़पूतों ! मत गोली दागो'', साथ सभी थे चिल्लाए।
निर्भय उसके पग-चिह्नों पर, हुक्म गलत सब ठुकराए।।

Sunday, September 19, 2010

"सरकार" क्या होती है!




डॉ. शोभाराम शर्मा

    'सरकार, आपको बडे सरकार ने सलाम बोला है।" सुबह-सुबह कालेज का चपरासी संदेश दे गया और मुझे अपने बंटी के सवाल का जवाब सूझ गया। अपनी पुस्तक के पन्ने पलटते हुए उसने पिछली रात सवाल दागा था- ''पापा सरकार क्या होती है?"  और मैं अकचकाकर बोेला था- ''जो सर करती है यानि दूसरों पर अध्किार करती है, वही सरकार है।"   परिभाषा का पुरानापन और अव्याप्ति दोष ध्यान में आया तो मैंने पिंड छुडाने के लिए कह दिया था- ''वह आजकल कारों में सर छुपाकर चलती है, इसलिए सरकार कहलाती है।"
    चपरासी ने सरकार, बडे सरकार और सलाम, इन तीन शब्दों में सरकार का बाहर-भीतर खोलकर रख दिया। सरकार भी छोटी होती है, बडी भी होती है। और उसको सलाम भी करना पडता है। आकार से बात वर्ण पर आती है तो सरकार बाहर से गोरी और भीतर से काली भी होती है। इसका विलोम भी होता है और पीली से लेकर लाल सरकारें भी आज दुनिया में विराजमान हैं। उन्हें आकार-प्रकार और वर्ण के अनुसार छोटा-बडा, काला-पीला और लाल सलाम भी करना पडता है।

    सलाम में तो हर सरकार के प्राण बसते हैं। हैसियत के अनुसार उसे घुटना-टेकु से लेकर फर्जी सलाम तक ठोकने पडते हैं। हर जगह का अपना रिवाज है। कहीं दण्डवत लेट लगा दी, कहीं हें-हें कहकर हाथ जोड दिए तो कहीं बूट पर बूट चढाकर हाथ से माथा पीट लिया और सरकार खुश कि वह जिन्दा तो है। यह सब ठीक है, लेकिन सरकार का स्वरूप भौतिक है या आध्यात्मिक, यह विवाद का विषय है। जब थानेदार का डंडा सिर पर बजता है तो लगता है कि डंडा ही सरकार है लेकिन एक निर्जीव डंडे में करामाती सरकार कहां पर स्थित है, वह डंडे में है या डंडे के आघात से होने वाले मीठे-मीठे दर्द में, यह अभी तक समझ में नहीं आया। हां सारी साक्षियां यही बताती है कि डंडे से सरकार का संबंध् है जरूर।
    सरकारों के सरकार खुदा ताला, ने जब आदम-हौवा के लिए जन्नत के दरवाजे पर ताला डाल दिया तो लगता है कि उन बेचारों के पास कोई डंडा नहीं था और वे बेचारे ना नुकुर किए बैगर चुपचाप ध्रती पर चले आए। आदेश का डंडा खुदा के पास जन्नत में छूट गया और इध्र ध्रती पर आदम-हौवा की औलाद बढती गई। करामाती डंडे की जरूरत पडी तो कुछ जबर जन्नत से चुरा लाए और खुदा की जगह खुद दुनिया को हांकने लगे। चोरी तो चोरी है। सिर उफंचा रखने के लिए उन्होंने घ्ाोषित किया कि परम पिता परमात्मा ने ही उन्हें करामाती राजदण्ड स्वेच्छा से प्रदान किया है। पेट की मार और जबर की लाठी से विवश होकर अल्ला-ताला से सीध सम्पर्क बताने वाले पण्डित-मुल्ला और पादरियों ने भी स्वीकार कर लिया तो सरकार चल निकली और उसका सीध संबंध् नेति-नेति से हो गया। कुछ विचारकों का मत है कि सरकार मानव समाज के सामूहिक विवेक का परिणाम है। कुछ का मत है कि वह राज्य या राष्ट्र की आत्मा है।  दैवीय-इच्छा सामूहिक विवेक या आत्मा का आकार-प्रकार अभी तक तो कोई स्पष्ट नहीं कर पाया, लेकिन डंडा अपनी जगह है। आप चाहें तो उसे इनका प्रतीक मान सकते हैं। दूसरे शब्दों में डंडा निराकार का साकार रूप है, जो काम करता है।
   बाबा तुलसीदास ने निराकार ब्रह्म के विषय में लिखा है कि वह बिना कानों के ही सुनता है, बिना पैरों के ही चलता है, बिना जीभ के ही नाना स्वाद लेता है और बिना हाथों के ही सारे कार्य करता है। वही निराकार ब्रह्म ब्राह्मणों और साधुओं की रक्षा के लिए साकार भी हो जाता है। मेरा विश्वास है कि बाबा की नजर में परम पिता का वही डंडा रहा होगा, जो आज तक बडे लोगों की रक्षा की पुनीत दायित्व निभाता रहा है। उनका कथन इस सरकार बनाम करामाती डंडे पर ही सटीक बैठता है। उसकी मार, उसके होने की साक्षी देता है और तलवार की नोंक या बंदूक की नली के रूप में सीधे हमारी आंखों में घूरता है। हां, एक बात में बाबा भी चूक गए। वे यह लिखना भूल गए कि वह बिना दिमाग के ही सोचता है, क्योंकि डंडा चलता अधिक है और सोचता कम है।
   कुछ पहले तक सरकार अपने करामाती डंडे से तीन काम लेती थी। वह भीतर को ठीक-ठाक रखती थी, इसलिए कि उसका आसन बरकरार रहे, वह बाहर वालों पर झपटती थी, इसलिए कि उसके आसन पर कोई खतरा न आए और वह कर वसूल करती थी, इसलिए कि उसके होने का अहसास बना रहे। प्रजा की जेब हल्की करने से उसका रौब-दाब बढता था। खजाना भरा होने पर बिना जीभ के भी नाना स्वाद लेती और 'राज्ञ: प्रजारंजनात" का खेल भी बखूबी खेल सकती थी। उसका आसन सिंहासन कहलाता था, जो सोने से मढा होता और कोई नर-शार्दूल हाथ में राजदण्ड लिए सर पर रत्न-जडित मुकुट धरण किए, जब अकडकर उस पर बैठता जो प्रजा तमाशा देखकर प्रसन्न होती और जय-जयकार करने लगती। वह सचमुच का शेर होता या माना हुआ शेर होता, लेकिन राज्य में जो कुछ भी अच्छा या सुंदर होता उस पर उसीका अधिकार होता। उसकी रानी स्वर्ग की अप्सरा होती। एक नहीं कई-कई होतीं, जिनकी सुरक्षा के लिए वह अपने राजमहल में जनखे रखता। जनखे भी तब धंधे में लगे रहते और रनिवास की कहानियों से जनता का अच्छा मनोरंजन होता। कहीं किसी की बेटी या बहू सुंदर हुई तो उसका राजा के रनिवास तक पहुंचना प्राय: आवश्यक हो जाता, क्योंकि सबसे सुंदर पर सबसे बडे का ही अधिकार हो सकता था। राजा ने छुई और पारस हुई, तब नारी जीवन की सार्थकता इसी में थी। इसमें भी बडे-बडे उलट पफेर होते, रानी दासी बन जाती और दासी रानी। कवि लोग इस पर सुंदर-सुंदर नाटक और काव्य रचते। राजा लोग अपनी रानियों से सौ-सौ राजकुमार और राजकुमारियां पैदा करते, जिनकी शान-शौकत और छीना-झपटी में महाभारत रचे जाते ओर प्रजा तमाशा देखकर भौचक रह जाती। अश्वमेध् से नरमेध् तक कई प्रकार के मेध् होते। सब से बडी सरकार के सगे ब्राह्मण-पुरोहितों को इतना खिलाया जाता कि उन्हें पेट की अपच ही नहीं, दिमागी अपच भी हो जाती थी। पेट की अपच से चरक और सुश्रुत जैसे धन्वन्तरियों का धंधा चमकता और दिमागी अपच के मारे हमारी मेध वहां पहुंच जाती, जहां से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता।
    सिंहासन की सुरक्षा के लिए डंडा विशाल दुर्गों का निर्माण करवाता, परलोक बनाने के लिए बडे-बडे मठ-मंदिर बनते, विहार और स्तूप बनते, जहां महंतों व पुजारियों के मुफत रोटी तोडने का प्रबंध् हो जाता। चटटानों पर भित्ति-चित्र खुदवाए जाते, शिलाओं पर अपनी प्रशंसा उत्कीर्ण की जाती और राजा इहलोक तथा परलोक के बीच दलालों द्वारा उफपर वाले का प्रतिनिध् घ्ाोषित कर दिया जाता। कभी कोई सडक बन जाती, ध्मशालाएं खुल जातीं या सडकों के किनारे छायादार वृक्ष लग जाते तो प्रजा समझती कि उफपरवाली सरकार ही छोटी सरकार के रूप में धरती पर उतर आयी है। कुछ ऐसे भी आए जो तलवार के बल पर अपने भोंडे विश्वासों को जनता के मन मस्तिष्क में ठूंसना अपना सबसे पाक कारनामा मानते थे और जन्नात तथा जमीन के बीच के दलाल उन्हें गाजी घोषित करते। उनके उत्तराधिकारियों ने लाजबाब कबरें बनवाई और ताजमहल खडे किए। और ये तमाशे उस करामती डंडे की देन है, जिस पर हम आज भी अभिमान करते हैं।
    सुदूर पश्चिम में एक तमाशा और हुआ। भोक्ता और निर्माता के बीच दलाली पर जीने वाले की आंखों में इतनी चर्बी आ गई कि उसने प्रजा के नाम पर डंडा हथिया लिया। ईश्वर के पुराने प्रतिनिधियों की जगह नये प्रतिनि्धियों ने ले ली और उन्हें दुनिया को आपस में बांटना आरंभ कर दिया। अपने तैयार माल की खपत और कच्चे माल की उपलब्ध् के लिए उन्होंने दो-दो महायु्द्ध लडे और वे सभी ईसा मसीह की प्यारी भेडें थीं। कानून और शासन की पोथी में पैसे का नाग न जाने कहां से घुस आया, जिसने डंडे को स्टर्लिंग और डालर में बदल दिया। डंडे का यह नया रूप लोगों की जेब से लेकर चूल्हे तक निसंकोच घुस जाता है और भाड में जाए या चूल्हे में, हर जगह से कुछ-न-कुछ वसूल कर ही लेता है। लोग कहते हैं कि यह एक बहुत बडा परिवर्तन है। मुझे तो वही 'ढाक के तीन पात" दिखाई देते हैं। सामूहिक विवेक को पैसे की दीमक चाट रही है और राज्य की आत्मा नए-नए हिटलरों के रूप में यहां-वहां पफौजी बूट बजाती नजर आती है। सिंहासन की जगह कुर्सी ने भले ही ले ली हो, लेकिन छिन जाने का डर आज भी नए-नए तमाशे खडे करता है और वह भी राष्ट्रीय सम्मान के नाम पर बडी बेरहमी के साथ। पहले राजसूय-अश्वमेघ यज्ञ होते थे। आजकल बडे-बडे राष्ट्रीय और अर्न्तराष्ट्रीय जमावडे होते हैं। जनतंत्रों के नये बादशाह "अहो रूपं अहो ध्वनि" के अंदाज में उछलते कूदते हैं, दावतें उडाते हैं और बदले में भाषण पिलाकर, प्रस्तावों की मीठी नींद की गोलियां खिलाते हैं।
    पहले राजकुमार महलों में पैदा होते थे, आजकल वे गलियों में पैदा होते है और आवारा कुत्तों से राजनीति का पहला पाठ पढते हैं। पक्ष हो या विपक्ष, काट खाना उनका स्वभाव होता है और तिकडम के बल पर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचकर वे देश के हृदय-सम्राट बन जाते हैं। पहले ध्म के दलालों का पैदा किया गया कुहासा उनका प्रभा-मंडल होता था और आज अंध-धुंध् प्रचार व आंकडो की धुंध् उनके असली चेहरों को छिपाए रखती है। डंडा पहले बाहर-बाहर से नियंत्रण रखता था। आज वह जीवन के हर क्षेत्रा को अपनी चपेट में ले चुका है। जान वह पहले भी लेता था, आज भी लेता है। मौत का भय आज भी उसका सबसे बडा सहारा है।
    जनखे पहले रनिवास तक सीमित थे। आज सारा राज-काज जनखों के बल पर चलता है। राज-सेवा में आने से पहले अच्छे-खासे आदमी को जनखा बना दिया जाता है। उफपर वाले ने जिन्हें जनखा पैदा किया उनका धंधा चौपट है, क्योंकि जनतंत्रा के बादशाह रनिवास रखते ही नहीं।
   हां, जनखों को छेडने का खेल बदस्तूर चालू है। शोहदे आज भी गलियों में शिखण्डियों को छेडते हैं और कहीं सत्ता के रथ पर पहुंच गए तो बने हुए शिखण्डियों की आड में, चाहे जिस पर बाण छोड देते हैं। गली में जो शोहदापन माना जाता है, सरकारी डंडे के बल पर वही कूटनीति कहलाता है।
    इसी डंडे के मारे बेचारे मार्क्स ने एक देश से दूसरे देश भागते हुए लिख दिया कि एक दिन शासन का यह डंडा स्वत: हवा में विलीन हो जाएगा। कुछ लोग हैं जो उसी के शब्दों को घोलुआ घोलते रहते हैं किंतु आज जो स्थिति है, वह पुकार-पुकार कर कहती है कि आवरण भले ही बदलते रहें, डंडा अपनी जगह रहेगा।
    राजा हो या बादशाह, तानाशाह हो या जन-नेता, ये सभी उसी करामाती डंडे के डंडे हैं, जिसे लोग बडी अदब से "सरकार" कहते हैं। जो व्यक्त भी है और अव्यक्त भी, साकार भी है और निराकार भी, जो रूहानी भी है और जिस्मानी भी। इस डंडे को तोडने के लिए किसी और बडे डंडे की आवश्यकता होगी, लेकिन क्या उस डंडे को और भी बडा सलाम नहीं ठोकना पडेगा? जड ही पकड में नहीं आती तो खोदेगें क्या? इधर-उधर खोदेगें तो थानेदार का डंडा मुठभेड भी दिखा सकता है और पिफर कोई दूसरा ही होगा, जिससे उसका बंटी पूछता पिफरेगा- पापा सरकार क्या होती है?

Monday, June 7, 2010

विलुप्ति के कगार पर भाषा-बोलियां

आज से पांच दशक पूर्व जब मैं शोध हेतु राजियों की जंगली बस्तियों में गया तो मैंने पाया कि वे अलगाव की स्थिति से बहुत कुछ उबर चुके थे। कभी की गुहावासी और पत्रधारिणी जाति के वे लोग अपने पड़ोसियों के खेतों में खेतिहर मजदूरों का काम करने लगे थे। लकड़ी के बरतनों के बदले अनाज लेकर चुपचाप खिसक जाने की जगह सौदा तय करने की स्थिति में आ गए थे। इसके लिए उन्हें पड़ोसियों की भाषा सीखनी पड़ी और इस तरह उनकी भाषा में अन्य भाषा-बोलियों के शब्द घुसपैठ करने लगे। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दबावों के चलते आज राजी भाषा उनके अपने घर-परिवार से भी बहिष्कृत होने लगी है। डॉक्टर कविता श्रीवास्तव के अनुसार भी राजी भाषा आज उनके धार्मिक रीति-रिवाजों और घर-परिवार तक ही इतनी सीमित हो चुकी है कि वहां भी अब पड़ोस की भाषा-बोलियों के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग होने लगा है। संपर्क की भाषा कुमाऊंनी-नेपाली या विशेष रूप से हिंदी हो चुकी है। नई पीढ़ी अपनी भाषा के प्रति पूर्णत: उदासीन लगती है और यह भाषा विलुप्त होने की जद में है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट में हिमालयी किरातस्कंधीय तथा अन्य उन बोलियों के नाम आए हैं जो खतरे में हैं लेकिन राजी का नाम नहीं है। जबकि इस अल्पसंख्यक जनजाति की भाषा का कोई भविष्य दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी के समीप पुरानी जौहारी जो दरमियां-चौंदासी-ब्यांसी के अपने ही सर्वनामीय वर्ग की थीं, बहुत पहले विलुप्त हो गईं थीं और उसकी जगह आज कुंमाऊनी बोली जाती है। लगता है यही स्थिति राजी भाषा की भी होने वाली है।
- डॉ. शोभाराम शर्मा
डॉ. शोभाराम शर्मा
राजी, राजी भाषा और उसका क्षेत्र:


पश्चिम में हिंदुकुश-पामीर की वादियों से लेकर पूरब में अरुणाचल प्रदेश तक भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल हिमालयी क्षेत्र में जिन भाषा-बोलियों का प्रचलन रहा या है उनमें से उत्तराखंड के पूर्वी छोर और पश्चिमोत्तर नेपाल के जंगलों में व्यवहृत एक अल्पसंख्यक राजी नामक जनजाति की भाषा भी है। काली नदी जो उत्तराखंड और नेपाल को अलग करती है, उसी के आर-पार के जंगलों में राजी भाषा-भाषी भी निवास करते हैं। यह नदी नैनीताल जिले के टनकपुर-बनबसा तक काली कहलाती है और यहीं तक वह उत्तराखंड की पूर्वी सीमा का निर्धारण करती है। इसके आगे वह शारदा, अयोध्या में सरयू और अंतत: घाघरा नाम से गंगा में समाहित हो जाती है। उत्तराखंड के पूर्वी जिलों पिथौरागढ़ एवं चंपावत के धारचुला, डीडीहाट, पिथौरागढ़ और चंपावत तहसीलों के जंगल ही राजी भाषा-भाषियों के मुख्य आवास-स्थल हैं। इधर नैनीताल के चकरपुर में भी इनके कुछ परिवारों का पता चला है।
    भारतीय सीमा के भीतर सन् 2001 की जनगणना के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या मात्र 517 आंकी गई है। नेपाल की सीमा में भी इस जनजाति की लगभग यही स्थिति है। राजी के अतिरिक्त इन्हें बनरौत, रावत, वनमानुष या जंगली या जंगल के राजा भी कहा जाता है। अटकिन्सन आदि के अनुसार राजी राजकिरात का तद्भव है। पौराणिक ग्रंथ हिमालयी जनजातियों में किन्नर किरातों और राज किरातों का उल्लेख भी करते हैं। ये राजकिरात किरात ही थे या किरातों पर शासन करने वाली दूसरी जाति के लोग थे इसकी छानबीन करना सरल नहीं है। राजी अपने को अस्कोट के रजवारों में से मानते हैं। जबकि अस्कोट आदि के रजवार कत्यूरी वंश के हैं और कत्यूरी खस थे या बाद के शक-कुषाण, यह विवादास्पद है। राजियों के वर्तमान रूप-रंग और आकार-प्रकार को देखकर यही प्रतीत होता है कि राजी एक वर्णसंकर कबीला है जिसमें मुख्यत: निषाद जातीय तत्व प्राप्त होते हैं और गौण रूप में मंगोल प्रभाव भी परिलक्षित होता है। यही कारण है कि वे तराई-भाबर के थारू एवं बोक्सों से अधिक मेल खाते हैं। इस दृष्टि से इस जाति को मलयेशियन जातियों के समकक्ष रखा जा सकता है। जिनमें मंगोल और आस्ट्रिक जातियों का सम्मिश्रण प्राप्त होता है।
   राजियों की भाषा का अलग से कोई स्वतंत्र नाम नहीं है। जाति के नाम से ही इसे राजी नाम मिला है। विकल्प से इसे रौती या जंगली भी कह दिया जाता है और ये नाम भी बनरौत एवं जंगली जैसे जाति नामों पर ही आधारित हैं। जाति और उसकी भाषा के लिए जंगली नाम का उल्लेख सर्वप्रथम जार्ज ग्रिर्यसन ने सन् 1909 के अपने सर्वेक्षण में किया था।

राजी भाषा का संक्षिप्त इतिहास:

राजी जाति और उनकी भाषा का कोई क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं है। राजी भाषा-भाषी आज तक भी अर्धघुम्मकड़ वन्य कबीले के रूप में जीवन-यापन करने से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। इनकी भाषा को सामान्यत: बोली कहा जाता रहा है। लेकिन यह न तो अपने चारों ओर की आर्य परिवार की खस-प्राकृत से निसृत कुमाऊंनी और नेपाली से मेल खाती है और न उत्तर में पड़ोस की किरातस्कंधीय-दरमियां-चौंदासी-ब्यांसी जैसी तिब्बती-बर्मी वर्ग की बोलियों से ही सीधे-सीधे संबंधित है। अपने क्षेत्र विशेष में अलग-थलग पड़ी होने से इसे बोली की जगह भाषा कहना ही युक्तिसंगत लगता है।
भाषाविद् ब्रियान हार्टन हाग्सन ने किरातस्कंधीय बोलियों को सर्वनामीय एवं असर्वनामीय दो वर्गों में विभाजित किया है। इन दोनों वर्गों में एक भिन्नमूलक तलछंट पाई जाती है। जिसे भाषाविद् मुंडा परिवार का अवशेष मानते हैं। डॉक्टर स्टेन कोनी के इस मत को स्वीकार करते हुए ग्रिर्यसन का मानना है कि मुंडा के ये अवशेष असर्वनामीय वर्ग की जगह सर्वनामीय वर्ग में अधिक मुखर हैं। इस वर्ग की कुछ भाषा-बोलियों में तो ये अवशेष इतने अधिक हैं कि उन्हें मुंडा परिवार की भाषा-बोली कहने में संकोच नहीं होता।

   तिब्बत-बर्मी उप परिवार की भाषा-बोलियां हिमालय के दक्षिणी ढलानों और पूर्वोत्तर में बोली जाती हैं। इसी परिवार के भाषा-भाषियों को किरात कहा जाता है। भाषाविद् ब्रियान हार्टन हाग्सन ने किरातस्कंधीय बोलियों को सर्वनामीय एवं असर्वनामीय दो वर्गों में विभाजित किया है। इन दोनों वर्गों में एक भिन्नमूलक तलछंट पाई जाती है। जिसे भाषाविद् मुंडा परिवार का अवशेष मानते हैं। डॉक्टर स्टेन कोनी के इस मत को स्वीकार करते हुए ग्रिर्यसन का मानना है कि मुंडा के ये अवशेष असर्वनामीय वर्ग की जगह सर्वनामीय वर्ग में अधिक मुखर हैं। इस वर्ग की कुछ भाषा-बोलियों में तो ये अवशेष इतने अधिक हैं कि उन्हें मुंडा परिवार की भाषा-बोली कहने में संकोच नहीं होता। हिमाचल प्रदेश की कनावरी या किन्नौरी एक ऐसी ही बोली है जिसे कुछ भाषाविद् मुंडा परिवार की ही एक बोली मानते हैं। राजियों के समीप की किरातस्कंधीय बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की हैं किंतु उनके बोलने वाले भी राजी को समझ नहीं पाते। जबकि ग्रिर्यसन ने जंगली नाम से राजी भाषा को भी सर्वनामीय वर्ग में ही गिना जाता है। इसका कारण शायद यही है कि राजी भाषा में मुंडा के अवशेष इतने अधिक हैं कि उसे न तो किरातस्कंधीय और न आर्य भाषा-भाषी ही समझ पाते हैं। हिमालय के इस क्षेत्र में पूर्वी नेपाल की किरान्ति बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की हैं। मेघालय की खासी बोली को तो भाषाविद् कुन (KUHN) ने आग्नेय परिवार की मौन-ख्मेर के साथ जोड़ा है। उधर पश्चिम में कनावरी और उसके आस-पास की कतिपय बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की मानी जाती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि यह क्षेत्र कभी आस्ट्रो-एशियाटिक ;आग्नेय देशीय भाषा-भाषियों का गढ़ था और राजी भाषा भी उसी की एक बची-खुची निधि है जिस पर कालांतर में उत्तर की तिब्बत-बर्मी वर्ग की भाषा-बोलियों का प्रभाव भी कम नहीं है। कुछ लोग भौगोलिक सामीप्य और कुछ शब्दों के मिलने से उसे तिब्बत-बर्मी वर्ग की ही बोली मान लेते हैं। लेकिन राजियों की भाषा का वर्तमान रचनागत वैशिष्ट्य उसके मूल पर अधिक प्रकाश डालता है। राजियों की भाषा पर दो विजातीय प्रभाव तो स्पष्ट हैं, एकाक्षर परिवार की तिब्बत-बर्मी वर्ग का प्रभाव केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं है बल्कि एकाक्षर धातुओं की उपलब्धि भी उसी प्राचीन प्रभाव की ओर इंगित करती है। आर्य प्रभाव शब्द ग्रहण के रूप में अधिक व्यापक है किंतु इन दोनों परिवारों से राजी भाषा में जो भिन्नताएं प्राप्त होती हैं वे इतनी मुखर, व्यापक और सूक्ष्म हैं कि राजी भाषा का इन दोनों परिवारों में से किसी एक में स्थान निर्धारित करना असंगत है। जहां तक द्रविड़ परिवार का संबंध है उसकी किसी जीवित बोली का हिमालय क्षेत्र में आज तक कोई पता नहीं चल पाया है। इस परिवार की भाषा-बोलियों से राजी भाषा की भौगोलिक दूरी ही नहीं अपितु रचनागत दूरी भी उतनी ही अधिक है। इस भाषा में यदि निम्न विशेषताएं प्राप्त न होतीं तो इसे बास्क, हायपर-बोरी, एनू और जापानी आदि की भांति भाषा परिवार की दृष्टि से अनिर्णीत कोटि में ही रखने पर बाध्य होना पड़ता। -

1 अश्लिष्ट योगात्मकता: राजी के क्रियापद में कर्म और कर्ता प्रत्ययवत् संयुक्त हो जाते हैं। भिन्न भावों और वृत्तियों तथा कालों के लिए प्रत्यय जुड़ते हैं। नए शब्द भी प्रत्यय जुड़ने से निर्मित होते हैं किंतु योग संश्लिष्ट नहीं हो पाता। कुछ वाक्यों में योगात्मकता संश्लिष्ट रूप में प्राप्त होती है किंतु उनकी संख्या नितांत न्यून है।
2 अंत: प्रत्यय की विद्यमानता।
3 क्रिया में निश्चयात्मकता के लिए निर्धारक निपात का योग।
4 क्रिया के आत्मबोधक, परस्पर बोधक और समभिहारार्थक रूप।
5 निपीड़ित व्यंजनों ;अर्धव्यंजनों की प्राप्ति।
6 कंठद्वारीय अवरोध।
7 आंशिक क्लिकत्व।
   उपर्युक्त विशेषताएं अपने-आप में इतनी महत्वपूर्ण हैं कि ये राजी भाषा के परिवार की ओर स्वत: इंगित कर देती हैं। आग्नेय-देशी-मुंडा आदि की इन विशेषताओं के प्राप्त होने से स्पष्ट हो जाता है कि राजी भाषा इसी परिवार से संबंध रखती है। शब्द-भंडार भी अधिकतर इसी मूल का है। युगों से संबंध टूट जाने से और भिन्नमूलक भाषाओं के प्रभाव स्वरूप अनेक अंतर भी उत्पन्न हो गए हैं। कंठद्वारीय अवरोध प्राप्त तो होता है किंतु उसका वही रूप नहीं है जो मुंडा वर्ग की भाषा-बोलियों में है। राजी भाषा में इस अवरोध के पश्चात प्राय: हृस्व या फुसफुसाहट वाले स्वरों का उच्चारण हो जाता है। इसी प्रकार चेतन पदार्थों में द्विवचन, बहुवचन के लिए पुरुषवाचक सर्वनाम के रूपों का योग भी राजी भाषा में स्पष्ट नहीं है। स्वराघात की दृष्टि से भी राजी भाषा मुंडा के बलात्मक स्वराघात का अनुगमन नहीं करती। फिर भी राजी भाषा का ध्वन्यात्मक गठन, व्याकरण और शब्द-भंडार तीनों इस बात के प्रमाण हैं कि आज चाहे जितने स्थूल अंतर क्यों न उत्पन्न हो गए हों, राजी भाषा मूलत: आग्नेय परिवार से संबंधित मुंडा परिवार की बोली है।

संदर्भ-ग्रंथों की सूची:

1 कुमाऊं तथा पच्च्चिमी नेपाल के राजियों (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन,
डॉ. शोभाराम शर्मा
2 एस्से रिलेटिंग टू इंडियन सब्जैक्ट्स- खंड-1, ग्रियान हारटन हाग्सन
3 कुमाऊं का इतिहास, श्री बद्रीदत्त पांडे
4 गजेटियर(अल्मोड़ा) अटकिन्सन
5 लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, जार्ज इब्राहम ग्रिर्यसन(हिंदी अनुवाद- भारत का भाषा सर्वेक्षण, डॉक्टर उदित नारायण तिवारी)
6 लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, भाग-2, ;मौन-ख्मेर एवं ताई परिवार, जार्ज इब्राहम ग्रिर्यसनद्ध
7 भारत की भाषाएं तथा भाषा संबंधी समस्याएं, डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी
8 भारतीय संस्कृति में आर्येतरांश, श्री शिवशेखर मिश्र
9 हिमालय परिचय (कुमाऊं), राहुल सांकृत्यायन
10 राजी: लैंग्वेज ऑफ ए वेनिशिंग हिमालयन ट्राइब, डॉक्टर कविता श्रीवास्तव
11 प्रीहिस्टोरिक इंडिया, स्टूवर्ट पिगॉट