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Sunday, December 25, 2011

दलित साहित्य के पुरोहित


        हिन्दी दलित साहित्य में कुछ ऎसी बहस करते रहने की परम्परा विकसित की जा रही है जिसका कोई औचित्य नहीं रह गया है .ये बहसे मराठी दलित साहित्य में खत्म हो चुकी हैं.लेकिन हिन्दी में इसे फिर नये सिरे से उठाया जा रहा है .वह भी मराठी के उन दलित रचना कारों के सन्दर्भ से, जो मराठी में अप्रासंगिक हो चुके हैं.उनकी मान्यताओं को मराठी दलित साहित्य में स्वीकार नहीं किया गया ,उन्हें हिन्दी में उठाने की जद्दोजहद जारी है.मसलन दलित शब्द को लेकर , आत्मकथा को लेकर .मराठी के ज्यादातर चर्चित आत्मकथाकार,रचना कार दलित ,शब्द को आन्दोलन से उपजा क्रांति बोधक शब्द मानते हैं. बाबुराव बागूल. दया पवार,नामदेव ढसाल ,शरणकुमार लिम्बाले, लोकनाथ यशवंत, गंगाधर पानतावणे, वामनराव निम्बालकर, अर्जुन डांगले, राजा ढाले,आदि. इसी तरह आत्मकथा के लिए आत्मकथा शब्द की ही पैरवी करने वालों में वे सभी हैं जिनकी आत्मकथाओं ने साहित्य में एक स्थान निर्मित किया है.चाहे शरण कुमार लिम्बाले (अक्करमाशी),दयापवार (बलूत),बेबी काम्बले (आमच्या जीवन), लक्ष्मण माने ( उपरा), लक्ष्मण गायकवाड (उचल्या), शांताबाई काम्बले ( माझी जन्माची चित्रकथा),प्र.ई.सोनकाम्बले ( आठवणीचे पक्षी),ये वे आत्मकथायें हैं जिन्होंने दलित आन्दोलन को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्मित की. इन आत्मकथाकारों को आत्मकथा शब्द से कोई दिक्कत नहीं है. लेखकों को कोई परेशानी नही हैं.यही स्थिति हिन्दी में भी है. लेकिन हिन्दी में अपेक्षा पत्रिका के  सम्पादक डा. तेज सिंह् को दलित शब्द और आत्मकथा दोनों शब्दों से एतराज है. उपरोक्त सम्पादक को दलित आत्मकथाओं में वर्णित प्रसंग भी काल्पनिक लगते हैं.कभी कभी तो लगता है कि ये सम्पादक महोदय दलित जीवन से परिचित हैं भी या नहीं ?क्योंकि दलित आत्मकथाओं में वर्णित दुख दर्द ,जीवन की विषमतायें,जातिगत दुराग्रह,उत्पीडन की पराकाष्टा,इन महाशय को कल्पनाजन्य लगती हैं..उनके सुर में सुर मिला कर  आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी  को भी आत्मकथाओं के मूल्यांकन में मुश्किलों का सामना करना पड रहा है.वे कहते हैं कि आत्मकथन क्योंकि आपबीती है,जिए हुए अनुभवों का पुनर्लेखन है,इसलिए उनकी प्रामाणिकता का सवाल प्राथमिक हो जाता है..क्या आत्मवृतों (आत्मकथाओं) की प्रमाणिकता जांची जा सकती है? क्या उन्हें जांचा जाना चाहिए? अगर हां तो क्या ये आत्मवृत (आत्मकथा) खुद को जांचे जाने को प्रस्तुत हैं? क्या अभी तक कोई आंतरिक मूल्यांकन प्रणाली विकसित हो पाई है? हम कैसे तय करें कि कोई अनुभव विशेष ,कोई जीवन प्रसंग कितना सच है और कितना अतिरंजित?   (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
      बजरंग बिहारी तिवारी    के ये सवाल कितने जायज हैं कितने नहीं ? इसे पहले तय कर लिया जाये तो ज्यादा बेहतर होगा. क्योंकि यह सिर्फ लेखक की अभिव्यक्ति पर ही आक्षेप नहीं है,बल्कि इस विधा को भी खारिज करने का षडयंत्र दिखाई दे रहा है.साथ ही यहां एक  ऎसा सवाल भी उठता है कि क्या एक आलोचक लेखक का नियंता हो सकता है? इस सवाल के सन्दर्भ में  कथाकार, सम्पादक  महीप सिंह का यह कथन प्रासंगिक लगता है.

        डा. महीप सिंह  का कहना है कि हिन्दी संसार के दो जातीय गुण हैं- जैसे ही कुछ सफलता और महत्ता प्राप्त करता है,वह एक मठ बनाने लगता है.कानपुर की भाषा में ऎसा  व्यक्ति गुरू कहलाता है.साहित्य क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है.थोडी सी आलोचना शैली ,थोडा सा वक्तृत्व कौशल ,थोडा सा विदेशी साहित्य का अध्ययन ,थोडी सी अपने पद की आभा और थोडी सी चतुराई से इस गुरूता की ओर बढा जा सकता है.कुछ समय में ऎसा व्यक्ति फतवे जारी करने के योग्य हो जाता है.एक दिन वह किसी के अद्वितीय का निकाल कर और किसी के नाम के साथ जोड देता है. ( हिन्दी कहानी : दर्पण और मरीचिका ,हिन्दुस्तानी जबान,,अंक अप्रैल-जून,2011,पृष्ठ- 15)

      बजरंग बिहारी तिवारी के सन्दर्भ में यहां बात की जा रही है, वे सिर्फ इतने भर से ही नहीं रुकते वे और भी गम्भीर आरोप लगाने लगते हैं, .आरोपों की इस दौड में वे बेलागाम घोडे की तरह दौडते नजर आते हैं.वे कहते हैं –‘विमर्श को चटकीला बनाने का दबाव,अपनी वेदना को खास बनाने की इच्छा किन रूपों में प्रतिफलित  होंग़े?


     बजरंग बिहारी तिवारी अपनी अध्ययनशीलता और उद्दरण देने की कला का दबाव बनाते हुए लुडविंग विट्गेंस्टाईन का सन्दर्भ देते हुए अपने तर्क को मजबूत करने की कोशिश करते  हैं.अपने ही पूर्व लेखन और स्थापनाओं को खारिज करने का नाटक करते हैं.. दलित साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा को यह आलोचक एक झटके में धाराशायी करने का आखिरी दांव चलता है .  दलित आत्मकथाओं की बढती लोकप्रियता और सामाजिक प्रतिबद्धता को किस दबाव के तहत नकार ने  की यह् चाल है, यह जानना जरूरी लगने लगता है.वे अपनी गुरूता , जो बडी मेहनत और भाग दौड से हासिल की  है,से आखिर फतवा जारी करने की कोशिश करते हैं एक अर्थ में आत्मकथन अनुर्वर विधा है.वह रचनाकार को खालीपन का एहसास कराती है.अनुभव वस्तुत: रचनात्मकता के कच्चे माल के रूप में होते हैं.....आत्मकथन में रचनात्मक दृष्टि के ,विजन के निर्माण की न्यूनतम गुंजाईश होती है......एक विभ्रम की सृष्टि की आशंका भी इस विधा में मौजूद है. (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
         यहां बजरंग बिहारी तिवारी तथ्यों का सामान्यीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं.दलित आत्मकथाओं ने समस्त भारतीय भाषाओं में अपनी रचनात्मकता से यह सिद्ध कर दिया है कि आत्मकथा अनुर्वर विधा नहीं है.न ही वह रचनाकार को खालीपन का एहसास ही कराती है .और इस बात को भी ये आत्मकथाएं सिरे से नकारती हैं कि इस विधा में रचनात्मक दृष्टि के विजन की न्यूनतम गुंजाईश है.
      आत्मकथाओं के सन्दर्भ में दया पवार कहते हैं,- वर्तमान समय में मराठी की आस्वाद की प्रक्रिया एक जैसी नहीं है .सांस्कृतिक भिन्नता के कारण आस्वाद प्रक्रिया भी भिन्न भिन्न हो रही है.यह दलित आत्मकथाओं का समय है; जिनकी काफी चर्चा रही है.परंतु इन आत्मकथाओं के मूल में जो सामाजिक विचार है ,उसे सदैव नजर अन्दाज किया जाता है. केवल व्यक्ति और व्यक्तिगत अनुभव इसी बिन्दु के चारों ओर इसकी चर्चा होती है.आगे वे कहते हैं,-दलितों का सफेदपोश पाठक अपने भूतकाल से बेचैन हो गया है.उसे खुद से शर्म महसूस होने लगी है.कचरे के ढेर में से कचरा ही निकलेगा? इस प्रकार के प्रश्न भी उन्होंने उपस्थित किये.वास्तविकता तो यह है कि यह केवल भूतकाल नहीं है.बल्कि आज भी दलितों का एक बडा समुदाय इसी प्रकार का जीवन जी रहा है.दलितों के सफेद पोश वर्ग को इसी की शर्म क्यों आ रही है?वास्तव में संस्कृति के सन्दर्भ में बडी-बडी बातें करने वाली व्यवस्था को इसकी शर्म आनी चाहिए........कुछ लोगों को ये आत्मकथाएं झूठी लगती हैं.सात समुन्दर पार किसी अजनबी देश की आत्मकथाएं,जिस जीवन को उन्होंने कभी देखा नहीं है,उनकी आत्मकथाएं इन्हें सच्ची लगती हैं.परंतु गांव की सीमाओं के बाहर का विश्व कभी दिखाई नहीं देता.इस दृष्टि भ्रम को क्या कहें.(दलितों के आन्दोअलन जब तीव्र होने लगते हैं,तब जन्म लेता है दलित साहित्य ,अस्मितादर्श लेखक-पाठक सम्मेलन सोलापुर,1983)
       अक्सर देखने में आता है कि हिंन्दी आलोचकों की यह कोशिश रहती है कि दलित साहित्य के सामाजिक सरोकारों से इतर मुद्दों  को ज्यादा रेखांकित किया जाये ताकि भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो .यह भटकाव कभी अपरिपक्वता के रूप में आरोपित होता है ,तो कभी भाषा की अनगढता के रूप में,तो कभी वैचारिक विचलन के रूप में  आरोपित किया जाता है. कभी विधागत , तो कभी शैलीगत होता है.
       किसी भी आन्दोलन की विकास यात्रा में अनेक पडाव आते हैं.दलित साहित्य के ऎसे आलोचक दलित मुद्दों से हटकर वैश्विकता को ही दलित का सबसे बडा मुद्दा घोषित करने में लग जायें तो इसे क्या कहा जाये? क्या यह असली मुद्दों से बहकाने की साजिश नहीं होगी.क्योंकि ऎसे आलोचक इससे पूर्व भी यह काम बखूबी करने की कोशिश में लगे रहे हैं.लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.कभी दलित साहित्य में रोमानी रचनाओं की कमी का रोना रोते हैं,तो कभी प्रेम का,तो कभी दलित साहित्य को स्त्री विरोधी कहने में भी पीछे नहीं रहे हैं.उनकी ये घोषणायें नये लेखकों को भरमाने की कोशिश ही कही जायेंगी.क्योंकि हजारों साल का उत्पीडन नये-नये मुखौटे पहन कर साहित्य को भरमाने का काम पहले भी करता रहा है.ये लुभावने और वाक चातुर्य से भरे हुए जरूर लगते हैं,लेकिन इनके दूरगामी परिणाम क्या होंगे इसे जानना जरूरी है.आन्दोलन की इस यात्रा में भी ये पडाव आये हैं.इस लिए यदि नयी पीढी अपनी अस्मिता और संघर्षशील चेतना के साथ दलित  चेतना का विस्तार करती है तो दलित साहित्य की एक नई और विशिष्ट निर्मिति होगी.
      यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि   दलित साहित्य में आत्मकथाओं ने जिस वातावरण का निर्माण किया है.वह् अदभुत है.जिसे चाहे विद्वान आलोचक जो कहें, लेकिन दलित जीवन की विद्रुपताओं को जिस साहस और लेखकीय प्रतिबद्धता के साथ दलित आत्मकथाओं में  प्रस्तुत किया है,वह भारतीय साहित्य में अनोखा प्रयोग है.जिसे प्रारम्भ से ही आलोचक अनदेखा करने की कोशिश करते रहे हैं.क्योंकि आत्मकथाओं ने भारतीय समाज व्यवस्था और संस्कृति की महानता के सारे  दावे खोखले सिद्ध  कर दिये हैं.साथ ही साहित्य में स्थापित पुरोहितवाद,आचार्यवाद् और वर्णवाद की भी जडें खोखली की हैं.साहित्यिक ही नहीं भारतीय संस्कृति की महानता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाये हैं और जिस गुरू की महानता से हिन्दी साहित्य भरा पडा है उसे कटघरे में खडा करने का साहस सिर्फ दलित लेखकों ने किया है जिसे बजरंग बिहारी तिवारी जैसे आलोचक सिरे से नकार कर अपनी विद्वता का परचम लहराकर आचार्यत्व की ओर बढने की कोशिश कर रहे हैं. आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर भी आक्षेप करके पाठकों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं.क्या उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता बदल गयी हैंया गुरूता भाव में लेखक का नियंता बनने की कोशिश की जा रही है?यह शंका जेहन में उभरती है.

       
              यहां मेरा बजरंग जी से सीधा सवाल है, दलित साहित्य स्त्री विरोधी नहीं है.यदि कोई लेखक इस तरह के विचार रखता है तो आप उसे किस बिना पर दलित साहित्य कह रहे हैं ? सिर्फ इस लिए कि वह जन्मना दलित है.मेरे विचार से दलित साहित्य की अंत:चेतना को पुन: देख लें. डा. अम्बेडकर की वैचारिकता में कहीं भी स्त्री विरोध नहीं है. और दलित साहित्य अम्बेडकर विचार से ऊर्जा ग्रहण करता है. जिसे सभी दलित  रचनाकारों ने, चाहे वे मराठी के हों या गुजराती ,कन्नड,तेलुगु या अन्य किसी भाषा के .यदि कोई जन्मना दलित स्त्री विरोधी है और जाति व्यवस्था में भी विश्वास रखता है,तो आप उसे एक दलित लेखक किस आधार पर कह रहे हैं? यह दलित साहित्य की समस्या नहीं है,यहा तो उस मानसिकता की समस्या है जो आप  जैसे आचार्य   विकसित  कर रहे .       
     समाज में स्थापित भेदभाव की जडें गहरी करने में साहित्य का बहुत बडा योगदान रहा है.जिसे अनदेखा करते रहने की हिन्दी आलोचकों की विवशता है.और उसे महिमा मण्डित करते जाने को अभिशप्त हैं.ऎसी स्थितियों में दलित आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने की एक सोची समझी चाल है.बल्कि यह साहित्यिक आलोचना में स्थापित पुरोहितवाद है जो साहित्य में कुंडली मारकर बैठा है.हिन्दी साहित्य को यदि लोकतांत्रिक छवि निर्मित करनी है तो इस पुरोहितवाद और गुरूडम से बाहर निकलना ही होगा. यदि वह ऎसा नहीं करता है तो उस पर यह आरोप तो लगते ही रहेंगे कि हिन्दी साहित्य आज भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरा हुआ है.अपने सामंती स्वरूप को स्थापित करते रहने का मोह पाले हुए है.
  
● ओम प्रकाश वाल्मीकि
 09412319034  

 

Friday, March 11, 2011

• प्रेमचन्द और दलित समस्या

हिन्दी भाषी भौगोलिक क्षेत्र में दलित राजनीति का उभार और हिन्दी साहित्य में दलित धारा का उदय का आरम्भिक काल लगभग एक समान आक्रामकता का चरण कहा जा सकता है। राजनीति में तिलक, तराजू और--- की गूंज तो सत्ता की चौहदी के लिए बेशक चरदार गलियों में गलबहियां डालने को मजबूर हो गई पर संवेदनाओं के गहरे दंश को अपने लेखन का हिस्सा बनाने वाले रचनाकारों ने अपने संशयों से मुक्ति की रचना के साथ एक ठोस वैचारिक जमीन को आधार बनाया है और साहित्य के मूल्यांकन के कुछ ऐसे मानदण्डों को खड़ा करने का लगातार प्रयास किया है जिसकी रोशनी में भारतीय समाज व्यवस्था के सामंति ढांचे में बहुत भीतर तक पैठी हुई मानसिकता उदघाटित होती हुई है। हाल में जनसत्ता में प्रकाशित दलित धारा के चिंतक, रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि का आलेख जो कथादेश मासिक फरवरी में प्रकाशित आलोचक चमन लाल के आलेख के प्रत्युत्तर में है, उसकी एक बानगी कहा जा सकता है। कथाकार प्रेमचंद की रचनाओं के मूल्यांकन के सवाल पर यह आलेख दलित धारा के चिंतन के उस दृष्टिकोण को सामने रखता है जिससे एक बहस जन्म ले रही है। दलित धारा के साहित्य के शुरुआती समय में जो बहस कफन कहानी को लेकर समकालीन जनमत से शुरू हुई थी बिल्कुल एक अलग ही अंदाज में आज दुबारा जिन्दा होती हुई है। कथाकार और कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि का मूल आलेख बिना किसी भी तरह के संपादन के साथ यहां इसी उद्देश्य से प्रकाशित किया जा रहा है कि एक स्वस्थ बहस आकार ले। अपनी प्रतिक्रिया तो मैं अवश्य ही लिखूंगा, चाहता हूं कि इस ब्लाग के सचेत पाठक और जिम्मेदार लेख कइस बहस को आगे बढ़ाये। अपनी प्रतिक्रियाओं के टिप्पणी के अलावा विस्तार से भी मेल कर सकते हैं- vggaurvijay@gmail.com

वि.गौ.
प्रेमचन्द ने अछूत समस्या पर जो भी लिखा ,उसे लेकर हिन्दी साहित्य में दो विपरीत ध्रुव निर्मित हो चुके है.हाल ही में कथादेश (फरवरी,2011) के अंक मे चमनलाल का आलेख ‘प्रेमचन्द साहित्य में दलित विमर्श ‘के द्वारा उस विभेद को और ज्यादा पुख्ता करने की कोशिश की गयी है.
क्या दलित रचनाकारोँ को अपना स्वतंत्र –मत निर्मित्त करना साहित्य – विमर्श में गैर जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक –साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है, कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती ? जिससे कुछ लोगों की धार्मिक भावंना को ठेस लगती है.
अपने आलेख के प्रारम्भ मे ही बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के हवाले से चमनलाल जी प्रेमचन्द के विरुद्ध बोलने वालों को चेतावनी देते है- ‘प्रेमचन्द के निन्दक मारे जायेंगे ,लेकिन प्रेमचन्द जीवित रहेंगे ,’चमन लाल जी की दृष्टि मे दलितों द्वारा प्रेमचन्द पर उठाये गये सवाल अतिवादी दृष्टि कोण है.साहित्य आलोचना और विमर्श के लिए जो स्पेस होता है ,उसे अतिवादी दृष्टिकोण कहकर खारिज करना ,क्या साहित्य की मूल भावना और उसके सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष में जाता है? क्या दलित रचनाकारोँ को अपना स्वतंत्र –मत निर्मित्त करना साहित्य – विमर्श में गैर जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक –साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है, कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती ? जिससे कुछ लोगों की धार्मिक भावंना को ठेस लगती है. बेहतर होगा प्रेमचन्द को धार्मिक आडम्बरों से मुक्त रखा जाये .आज यदि प्रेमचन्द जिन्दा हैं तो उन निरंतर और नयी –नयी आयामो से होने वाली चर्चा के कारण. बिना चर्चा के किसी भी रचनाकार की श्रेष्ठ रचनायें भी समय के गर्त में खो जाती हैं. उन्हें भूला दिया जाता है.किसी आलोचक ने यदि कोई स्थापना दे दी तो क्या आने वाली पीढ़ी को भी उस स्थापना को आँख मूँद कर मानते रहना चाहिए ?क्या यह प्रवृत्ति साहित्य के कालजयी होने के पक्ष में जाती है? ‌‌‌
प्रेमचन्द की अछूत-समस्याओं के सन्दर्भ में ,जो शंकाये और विचार दलित लेखकों के मन मे उठे ,उन्हें बेबाकी से रखा गया .जिसमें प्रेमचन्द की निन्दा करना ध्येय नहीं रहा ,बल्कि दलित दृष्टिकोण से तथ्यों को परखने की कोशिश की गयी .इस कोशिश को ‘अतिवादी’ कह कर खारिज करने वालो की वाणी और सोच पर अंकुश लगाने की न तो दलित लेखको की कोई मंशा रही है,न जिद्द .अपने पूर्व साहित्यकारो के कृतित्व ,उनकी प्रतिबद्धता ,उनके सामाजिक दायित्व और उनके जीवन अनुभवो को जानना,समझना यदि साहित्यिक दृष्टि से गलत है,तो यह गलती दलित लेखको ने की है,अपनी सामाजिक चेतना और दायित्व के निर्वाह के लिए .क्योंकि साहित्य ही एक माध्यम है ,मानवीय संवेदनाओँ और सरोकारो को जानने का.
73-74 वर्ष पूर्व प्रेमचन्द ने ‘क़फन ’ कहानी लिखी थी,जो मूल उर्दू मे थी.हिन्दी में यह कहानी बाद मे छपी.हिन्दी आलोचको ,विद्वानो ने इस कहानी को कला,शिल्प और विचार की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ कहानी कहा. तब से और आज तक यही भाव साहित्य मे मान्य रहा है.लेकिन हिन्दी मे दलित साहित्य के उभरने के साथ –साथ इस कहानी पर सवाल उठने लगे ,तो हाय तौबा मच गयी......’अब प्रेमचन्द दलित विरोधी हो गये ...जैसे शीर्षक छपने लगे.और साहित्य मे एक अजीब तरह का वातावरण निर्मित करने की कोशिशे शुरू हो गयी .कई प्रतिष्ष्ठित आलोचको ने यह भी कहने मे गुरेज नहीं किया – दलित लेखक प्रेमचन्द से अच्छा लिख कर दिखाएँ ...यानि प्रेमचन्द रूपी लाठी से दलित लेखको को डराया –धमकाया जाने लगा.जैसे दलित लेखक उनके अहम और वर्चस्व को खंडित करने ,उनके आरक्षित क्षेत्र मे घुसपैठ करने की कोशिश कर रहे थे.लेकिन विद्वानो ने दलित पक्ष को जानने ,समझने का प्रयास ही नही किया .क्योंकि यह उनके संस्कारो के विरुद्ध है. उन्हें सिखाने की आदत है ,सीखने की नहीं.
दलित का कोई वैचारिक पक्ष भी हो सकता है ,यह सच्चाई गले नहीं उतर रही है.ऎसे ही विद्वानों ने ‘क़फन’ को दलित पक्षधरता की कहानी सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क गढ लिए थे.और इस कहानी को पाठ्यक्रमो में ससम्मान शामिल करते रहे हैं .शिक्षक भी उन्ही तर्कों के सहारे भाव विभोर होकर इस कहानी को संवेदनशील (?) कह कर छात्रों के भीतर उतारते रहे हैं.यह वह समय था, जब हिन्दी में कुछ खास प्रवृत्ति और संस्कारों के लेखकों ,आलोचकों ,शिक्षा-तंत्र से जुडे विद्वानो क वर्चस्व था. लेकिन गत शताब्दी के उत्तरार्द्ध् में स्थिति बदल गयी. इस कहानी की संवेदना ,श्रेष्ठता ,शिल्प ,गठन ,और दलित पक्षधरता पर सवाल उठने लगे. यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि हिन्दी साहित्य प्रारम्भ से ही सनातनी मूल्यों का ध्वजवाहक रहा है.’क़फन ‘ कहानी इन ध्वजवाहकों ,जिनमे मार्क्सवादी आलोचक भी काफी मात्रा मे हैं, की दृष्टि मे यह कहानी कलात्मक हो सकती है,संवेदनशील भी हो सकती है.क्योंकि साहित्य के सृजन और विश्लेषण मे संस्कारों का बहुत बड़ा हाथ होता है.लेकिन जब दलित चेतना और अस्मिता के साथ इस कहानी को जोड़कर देखने के प्रयास होते हैं ,तब ‘अर्थ’ और ‘आशय’ बदलने लगते हैं. यहाँ यह कहना भी असंगत नहीं होगा कि भारतीय समाज में हज़ारों साल से शूद्र ,अंत्यज,अस्पृश्यों, चाण्डाल् ,डोम आदि के प्रति घृणा की भावना को आदर्श रूप में नैसर्गिकता के साथ स्वीकार किया जाता रहा है.जो आज भी पूर्वाग्रहों के रूप में मौजूद है.हिन्दू समाज मे मौजूद इन पूर्वाग्रहों को यह कहानी अपने पूरे सरोकारो के साथ सुदृढ करती है. इसी लिए संस्कारी मन को यह कहानी संवेदनशील लगती है.लेकिन जब एक दलित अपनी चेतना और अस्मिता के साथ इस कहानी को पढ़ता है ,तो उसे यह कहानी वैसी नहीं लगती जैसी नामवर सिह ,परमानन्द श्रीवास्तव ,काशीनाथ सिह,विश्वनाथ त्रिपाठी ,राजेन्द्र यादव, पी.एन.सिह, बच्चन सिह ,चमन लाल ......आदि को लगती है.
प्रेमचन्द ने अछूत –समस्या पर विपुल साहित्य रचा है.नि:सन्देह ,यह सही भी है, इस समस्या पर उनसे ज्यादा किसी प्रतिष्ठित स्थापित लेखक ने नहीं लिखा .
दलित लेखको ने इस कहानी को लेकर जो सवाल उठाये हैं, उनके उत्तर देना चमनलाल जी को जरूरी नहीं लगा .अपने आलेख में भरपूर उद्धरणो के द्वारा यही सिद्ध करते हैं कि प्रेमचन्द ने अछूत –समस्या पर विपुल साहित्य रचा है.नि:सन्देह ,यह सही भी है, इस समस्या पर उनसे ज्यादा किसी प्रतिष्ठित स्थापित लेखक ने नहीं लिखा . उन्होंने वैचारिक लेख ,टिप्पणियाँ ,सम्पादकीय ,कहानी उपन्यास अछूत – समस्या पर लिखे.उनकी सहानुभूति किसान,मजदूर और अछूतों के साथ थी.लेकिन जब उनके ही जीवन काल में एक निर्णायक मोड़ आया तो स्थितियाँ बदल गयी .प्रेमचन्द ही नहीं ,तमाम पारम्परिक स्थापित लेखक ,प्रगतिशील,जनवादी,मार्क्सवादी ,कहे जाने वाले रचनाकारों ,आलोचकों ,विद्वानों की भी,ऎसे निर्णायक मोड आते ही, भूमिकाएँ और प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं. उस वक्त दलित उनकी प्राथमिकता से बाहर हो जाता है.यह पहले भी हुआ है और आज भी जारी है.
प्रेमचन्द के सामने भी ऎसा ही एक निर्णायक मोड़ आया था.जब दलितों ने सामाजिक वैमनस्य ,उत्पीडन ,शोषण ,और मौलिक अधिकारों से वंचित ,त्रस्त होकर डा. अम्बेडकर के नेतृत्व में ‘प्रथक –निर्वाचन’ की मांग रखी थी.जो उनके हज़ारों साल की दासता से मुक्त होने का सवाल था.यह निर्णायक मोड गाँधी जी को स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि गाँधी जी की दृष्टि में यह हिन्दू धर्म के लिए खतरा था.इसी मुद्दे पर गाँधी जी गोलमेज –कांफ्रेंस से निराश और दुखी होकर लौटे थे. क्योंकि डा. अम्बेडकर ने यह ‘दलित –मुक्ति’ का सवाल अंतराष्ट्रीय मंच से उठाया था.इसी लिए गाँधी जी के लिए यह जीवन-मरण का सवाल बन गया था.और गाँधीजी ने भूख हड़ताल करके डा.अम्बेडकर पर दबाव बनाया कि वे इस सवाल और मांग को वापस लें. गाँधी जी इस में सफल रहे थे.पूना-पैक्ट के रूप में डा. अम्बेडकर को झुकना पडा. एक तरफा समझौता डा. अम्बेडकर की हार थी. ऎसे वक्त में प्रेमचन्द की भूमिका को भी जान लेना जरूरी है,कि इस निरणायक मोड पर वे किस ओर खडे़ थे.
‘प्रथक – निर्वाचन’ की मांग का मुद्दा गाँधी जी के लिए नैतिक और धार्मिक था.जबकि डा.अम्बेडकर के लिए ‘दलित –मुक्ति‘ और लोकतांत्रिक अधिकार पाने का सवाल था.प्रेमचन्द इस मुद्दे को गाँधी जी की दृष्टि से धार्मिक और राष्ट्रीय मान रहे थे.प्रेमचन्द भी दलितों की इस मांग को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे. यानि धर्म और राष्ट्र भी शोषितो .पीड़ितों की लाशों से ही फलते –फूलते हैं.’पूना –पैक्ट’ के बाद जहाँ डा.अम्बेडकर और दलितों में घोर निराशा थी,वहीं प्रेमचन्द इसे ‘राष्ट्रीयता की विजय ‘ कहकर ,इसी शीर्षक से 26,अक्टु,1932 ,के जागरण में सम्पादकीय लिख रहे थे- ‘.... शत्रू ने लक्ष्य भी उसी स्थान पर किया था ,जो कमजोर है,लेकिन गाँधी जी की तपस्या ने पासा पलट दिया और न जाने कितनी देवी शक्ति लेकर सामने आ गयी और शत्रूओं से घिरी हुई राष्ट्रीयता अपने मोरचे से निकल कर साम्प्रदायिकता का सहार कर रही है....’
‘प्रथक – निर्वाचन’ की मांग का मुद्दा गाँधी जी के लिए नैतिक और धार्मिक था.जबकि डा.अम्बेडकर के लिए ‘दलित –मुक्ति‘ और लोकतांत्रिक अधिकार पाने का सवाल था.प्रेमचन्द इस मुद्दे को गाँधी जी की दृष्टि से धार्मिक और राष्ट्रीय मान रहे थे.प्रेमचन्द भी दलितों की इस मांग को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे. यानि धर्म और राष्ट्र भी शोषितो .पीड़ितों की लाशों से ही फलते –फूलते हैं.’पूना –पैक्ट’ के बाद जहाँ डा.अम्बेडकर और दलितों में घोर निराशा थी,वहीं प्रेमचन्द इसे ‘राष्ट्रीयता की विजय ‘ कहकर ,इसी शीर्षक से 26,अक्टु,1932 ,के जागरण में सम्पादकीय लिख रहे थे- ‘.... शत्रू ने लक्ष्य भी उसी स्थान पर किया था ,जो कमजोर है,लेकिन गाँधी जी की तपस्या ने पासा पलट दिया और न जाने कितनी देवी शक्ति लेकर सामने आ गयी और शत्रूओं से घिरी हुई राष्ट्रीयता अपने मोरचे से निकल कर साम्प्रदायिकता का सहार कर रही है....’
यानि दलितों का हजारो साल की दासता से मुक्ति का संघर्ष प्रेमचन्द की दृष्टि में साम्प्रदायिक था,जिससे देश को दैविक शक्तियों ने बचाया .प्रेमचन्द की यह भूमिका और निर्णायक मोड पर आते ही अछूत – सहानुभूति अपना पाला बदल लेती है.’हंस’ के मुखपृष्ठ पर बाबा साहेब का चित्र तो छापते हैं,लेकिन उनकी प्राथमिकता में दलित पक्ष की जगह गाँधी जी का पक्ष ज्यादा महात्त्वपूर्ण था.जो पूना-पैक्ट के रूप में दलितों के हितों के खिलाफ ही गया.यह ऎतिहासिक सच्चाई है.और प्रेमचन्द उस वक्त भी डा.अम्बेडकर को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे.इस तथ्य को चमन लाल भी स्वीकार करते हैं- ‘..... दलित प्रश्न पर अधिक विचार मिलते हैं और ये विचार गाँधी और गाँधीवाद से प्रभावित हैं.’
अपने लेख में चमन लाल लिखते हैं – ‘..........पहली बार एक दलित को उपन्यास का नायक बनाने का सराहनीय समझा गया ,लेकिन उपन्यास छपने के अस्सी वर्ष बाद दलित नायकत्व स्थापित करने वाले उपन्यास को इस आधार पर ‘दलित विरोधी .कहा गया कि सूरदास क उल्लेख ‘जातिवाचक ‘नाम से किया गया है....” चमन लाल ही नहीं हिन्दी के स्वमनाम धन्य आलोचक इस बात से तो गदगद हैं कि एक दलित को नायकत्व प्रदान किया गया और अस्सी वर्षों तक इस नायकत्व पर किसी ने उंगली नहीं उठाई.लेकिन यह भूल जाते हैं कि उंगली उठाने वालों के हाथ में कलम कहाँ थी.और यदि थी भी तो उन्हें छापा नहीं जाता था.दूसरे प्रेमचन्द ने एक अछूत को नायकत्व प्रदान किया.लेकिन किस रूप में ?उस नायक के आदर्श क्या हैं ?एक दलित जो पैदा होते ही ‘जाति- उत्पीडन क दंश झेलते हुए बड़ा होता है,और घृणा के प्रति उसके मन में कहीं कोई प्रतिक्रिया न हो ,क्या यह सम्भव है?वहाँ कहीं कोई विरोध ,उस दंश की कोई छाया ,कोई अक्स, दिखाई नहीं पडता .उस पीडा ,दर्द को कहीँ किसी भी रूप में अभिव्यक्त नहीं करता ? हजारों साल के इस उत्पीडन पर यदि नायक चुप है,तो उस नायक के जीवन का उद्देश्य क्या है?नायक चेतना विहीन क्यों है?समाज ,धर्म ,व्यवस्था के प्रति उस नायक को कोई शिकवा नहीं ,कोई शिकायत नहीं ,ऎसे नायक पर गर्व किया जाये य उस पर शंर्मिन्दा हों ?सूरदास गाँधी जी के आदर्शों पर चलने वाला ‘दलित’ नहीं एक ‘हरिजन’ है.उसका सत्याग्रह भी गाँधी वादी आदर्शों की प्रतिछाया है. जबकि उस दौर में ,जब ‘रंगभूमि ‘उपन्यास ‘लिखा गया, डा. अम्बेडकर का ‘मुक्ति- आन्दोलन’समाज में चेतना पैदा कर रहा था.उ.प्र.में अछूतानन्द का आन्दोलन जारी था.पंजाब में मंगूराम ने अपने तरीके से दलितों को जागरुक करने का अभियान चलाया था.लेकिन प्रेमचन्द इन सभी आन्दोलनों को अनदेखा करके सिर्फ गाँधी जी के ‘अछूतोद्धार’ की सीमाओं में नायकत्व खड़ा कर रहे थे. इसी लिए सूरदास में दलित चेतना की शुन्यता है.
यही स्थिति ‘कफन’ कहानी की भी है.हजारों साल से हिन्दू समाज दलितों के प्रति नकारात्मक सोच रखता आ रहा है.यह सोच साहित्य के माध्यम से भी प्रचारित की गयी.और समाज में श्रेष्ठता भाव के साथ दलितों को दीन- हीन बनाने की मुहिम चलाई गयी.उनके लिए असभ्य,उज्जड,नीच,कमीन,ढेड,गंवार,निकम्मे,जाहिल जैसे शब्दों का प्रचलन जारी रहा है. बडे से बडे रचनाकारों आलोचकों ,विद्वानों ने इन शब्दों का प्रयोग दलितों के सन्दर्भ में किया है.दलित जातियों को गाली की तरह प्रयोग् करने की परम्परा आज भी समाज में मौजूद है.यही नकारात्मकता प्रेमचन्द के पात्रों ‘घीसू – माधो’ में भरपूर मात्रा में दिखाई देती है.जिसे प्रेमचन्द ने कुशलता से स्थापित किया है.यहाँ ‘कफन’ के शिल्प और संरचनात्मकता की बात नहीं कर रहे हैं .केवल ‘आशय’ की बात कर रहे हैं.क्योंकि चमन लाल जी के आलेख का केन्द्र बिन्दु भी यही है.
अक्सर ‘गोदान’ के मातादीन – सिलिया प्रसंग को आलोचक बहुत ऊंचे स्वर में रेखांकित करते हैं.इसी प्रसंग में प्रेमचन्द के अंतिम निष्कर्ष को भी देख लें .मातादीन और सिलिया का प्रेम-प्रकरण वियोगात्मक नहीं है.प्रेमचन्द उन दोनों के बीच होने वाले संवाद के जरिये बहुत कुछ ऎसा कहते हैं जिसे आलोचक अनदेखा करते रहे हैं –
‘......मैं डर रही हूँ,गांव वाले क्या कहेंगे ...’ ’जो भले आदमी हैं ,वह कहेंगे ,यही इसका धर्म था.जो बुरे हैं ,उनकी मैं परवाह नहीं करता.’ ’और तुम्हारा खाना कौन पकायेगा ?’ ’मेरी रानी ,सिलिया.’ ’तो ब्राह्मण कैसे रहोगे ?’ ’मैं ब्राह्मण नहीं ,चमार रहना चाहता हूँ .जो धरम का पालन करे ,वही ब्राह्मण ,जो धरम से मुँह मोडे़ ,वही चमार.’
सिलिया ने उसके गले में बाँहे डाल दी.( गोदान ,पृष्ठ -288-89 )
क्या प्रेमचन्द की उपरोक्त परिभाषा पूर्वाग्रहों पर आधारित नहीं है?इसी प्रकार के विरोधाभास प्रेमचन्द की अन्य रचनाओं में भी दिखाई देते हैं.मातादीन जिसके पूर्णत: बदल जाने का उल्लेख प्रेमचन्द करते हैं,उसके संवाद में श्रेष्ठता भाव जड़ जमाये बैठा है.मातादीन किस धर्म के पालन की बात कर रहा है,जो दलित का कभी हुआ ही नहीं.क्या एक चमार के लिए भी वह उतना ही स्वीकार्य है या नहीं ,इस बिन्दु पर प्रेमचन्द जैसे महान लेखक ने विचार करना क्यों जरूरी नहीं समझा ?क्या यह कथन् मानवीय गरिमा के अनुकूल है? इस वाक्य को जब एक चमार पढ़ता है ,तो क्या वह हीनता बोध का शिकार नहीं होगा ? यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि ‘गोदान’ का रचनाकाल 1936 ई.है.प्रगतिशील् लेखक संघ अस्तित्व में आ चुका था.अम्बेडकर – आन्दोलन राष्ट्रीय पहचान बना चुका था.पूना- पैक्ट पर हस्ताक्षर हो चुके थे .उस दौर में प्रेमचन्द की यह टिप्पणी – जो धरम का पालन करे ,वही ब्राह्मण ,जो धरम से मुँह मोडे ,वही चमार.’, गले नहीं उतरती.चमनलाल जी विद्वान हैं ,किसी भी तर्क से प्रेमचन्द को सही सिद्ध कर सकते हैं.लेकिन एक दलित होने के नाते मुझे यह टिप्पणी पूर्वाग्रह से परिपूर्ण लगती है. यहाँ यह कहना भी जरूरी लगता है कि किसी भी रचना का मूल्यांकन ,विश्लेषण ,बौद्धिक शब्दजाल या आख्यान भर नहीं होता.इससे परे भी कुछ अर्थ होते हैं .जिनके सामाजिक सरोकार होते हैं.प्रेमचन्द की रचनाओं को एक दलित ठीक उसी तरह स्वीकार करे ,जैसे गैर दलित उन्हें समझा रहे हैं .क्या परिवेशगत ,पारिवारिक संस्कारों की मनुष्य की सामाजिक चेतना के निर्माण में कोई भूमिका नहीं होती?क्या उन समीक्षकों ,विद्वानों की स्थापनाओँ को आँख मूँद कर स्वीकार कर लेना चाहिए ,जो मंचो ,सभा गोष्ठियों में मार्क्सवादी हैं और घर की देहरी पर कट्टर सामंतवादी,ब्राह्मणवादी संस्कारो से लैस हैं ? जो वर्ण और जाति के समर्थक बने हुए हैं ? ऎसे लोगो को प्रेमचन्द के लेखन में अंतर्विरोध दिखाई नहीं देते हैं.क्योंकि उनके लिए यह सहज और सामान्य है.

Friday, April 11, 2008

क्या है मुख्यधारा, कैसा है उसका यथार्थ


अस्मिता साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) : अध्यक्षीय भाषण (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
(12 एवं 13 अप्रैल 2008 को 28 वां अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में सम्पन्न होने जा रहा है। हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि कार्यक्रम की अध्यक्ष है। उनके अध्यक्षीय भाषण को संपादित रुप में, हम अपनी पूर्व घोषणा के मुताबिक प्रस्तुत कर रहे है।)


प्रिय भाईयों और बहनों ,
अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, 2008 का अध्यक्षता पद देकर जो सम्मान और प्रेम, विश्वास आपने मेरे प्रति दिखाया है, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं। इस क्षण मुझे अपने दो ऐसे मित्रों की यादें आ रही हैं उनका साहित्य हमारी धरोहर बन कर रह गया है। अरुण काले की कविताओं का मैंने जिस अपनेपन से हिन्दी अनुवाद किया था, काश उसे पुस्तक रुप में वे देख पाते तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होती। दूसरा नाम है भुजंग आश्रम का। जिनमें मैं प्रत्यक्ष कभी मिला नहीं। सिर्फ फोन पर ही बातें होती थी। इन दोनों कवियों को मैं सलाम करता हूं।
अस्मितादर्श साहित्य का यह सम्मेलन चंद्र पुर में सम्पन्न हो रहा है। मेरे लिए यह दोहरी खुशी का दिन है। पहला यह कि अस्मितादर्श पत्रिका के माध्यम से मराठी दलित साहित्य ने जो एक मुकाम हांसिल किया और अपनी विशिष्टता स्थापित की वह ऐतिहासिक महत्ता रखती है। इस पत्रिका ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। पत्रिका के विशिष्ट आयोजन की अध्यक्षता करना मेरे लिए गौरव की बात है।
आज इस मंच से बोलते हुए मैं अपने उत्तरदायित्व के प्रति और अधिक सजगता, जागरुकता, प्रतिबद्धता महसूस कर रहा हूं। दलित साहित्य और दलित आंदोलन की अनुगूंज आज सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है। बल्कि ये चिंगारी जो महाराष्ट्र से शुरु हुई थी, अब आग बन चुकी है। हिन्दी प्रांतों से लेकर पंजाब, हरियाणा, गुजरात, दक्षिण भारत, दिल्ली, बंगाल में फैल चुकी है। आज दलित साहित्य पूरे विश््रव में मानवीय संवेदना का पक्षधर बनकर अपनी पक्षधर बनकर अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध कर चुका है। बाबा साहेब डा। अम्बेडकर के जीवन दर्शन से ऊर्जा लेकर दलित साहित्य भारतीय अस्मिता की पहचान बन चुका है।
अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन की रचनात्मकता भविष्य का निर्माण करेगी। सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि को विकसित करने वाले कार्यक्रम लेखन, वाचन, व्याख्यान, समाज को एक नयी दृष्टि देगी। क्योंकि अस्मितादर्श हमेशा मनुष्य की अस्मिता को ही सर्वोपरि मानता है। उसके केन्द्र में मनुष्य है।
धार्मिक आडम्बरों, कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों, अनैतिक जीवन मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष का आगाज सुनायी पड़ता है। इस क्रांतियुग के हम साक्षी हैं। हमारा एक-एक शब्द विषमता, शोषण, प्रताड़ना की आग से तपकर निकला है। हमारी लड़ाई उससे कहीं आगे जाती है। दलित साहित्य ने साहित्य को कलावाद, तत्वज्ञान, दार्शनिकता जैसे छद्म और भ्रमित करने वाले साहित्यिक, शास्त्रीय, काव्य शास्त्र से बाहर निकाला है। जीवन मूल्यों और सौन्दर्यबोध को एक दूसरे से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति विकसित की है। किसी भी कृति का मूल्यांकन और उसकी गुणवत्ता उसके आकार, उसकी शास्त्रीय भाषा, उसकी दार्शनिकता के आधार पर नहीं की जा सकती है। बल्कि उसकी अंत:चेतना, उसके आशय के आधार पर होनी चाहिये।
'जान डयुई" ने अपनी पुस्तक 'आर्ट एज एक्सपीरियंस" में ब्रेडले के एक निबंध का हवाला देते हुए कहा था कि 'विषय" साहित्य का बाहय तत्व है। जबकि 'अंतर्वस्तु" अंत:तत्व। विषय की व्यापकता पर जोर देते हुए डयुई ने इसे स्वीकार किया है। जो रचनाकार के अनुभवों से जुड़कर अंतर्वस्तु में रुपांतरित होती है।
अर्जुन डांगले के शब्दों में यदि कहें - 'कलाकृति की मूल प्रवृत्ति को न समझ सकें तो कलाकृति की लय, उसके अनुभवों, उसकी प्रवृत्ति, संरचना, अनुभवों की गहनता आदि को समझना सम्भव नहीं है।
जब भी हम किसी कलाकृति का मूल्यांकन करते हैं तो यह जानना बहुत जरुरी होता है कि उसकी पार्श्वभूमि में कौन से जीवन मूल्य हैं। जीवन मूल्यों के बगैर किसी भी कलाकृति या साहित्यिक कृति का कोई महत्तव नहीं होता। तथाकथित कलावादी किस्म के प्रगतिशील, जनवादी, मार्क्सवादी आलोचक दलित साहित्य को 'अतीत का रोना" कहकर कमतर दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते है कि दलित जीवन तो दुखों का पिटारा है। दलित जीवन की जो वेदना है, दग्धता है , उसे सिर्फ दलित ही जानता है। यह यातना हजारों साल पुरानी है। ये तथाकथित आलोचक एक दिन के लिए ही सही इसे जी करर देखें और फिर बतायें कि उन अनुभव के बाद वे सत्यं शिवं सुन्दरम लिखेगें या दलित साहित्य।
एक शब्द का इन दिनों बहुत प्रचलन है। साहित्य में, राजनीति में, विकास में, इस शब्द का प्रयोग कुछ इस तरह से किया जाता है मानो यह शब्द विकास और उन्नति का प्रतीक हो। वह शब्द है मुख्यधारा।
आखिर इस शब्द का आशय क्या है ? यह जानना जरुरी है।
भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखें तो वह धारा जिसके साहित्यिक प्रयोजन 'आनंद", 'मोक्ष", 'अर्थ", और 'काम" हो। या ऐसे लोगों की धारा जिन्होंने 'वर्ण-व्यवस्था" का इस्तेमाल एक समूह विशेष को दासता की गिरफ्त में जकड़कर धारा से बाहर कर दिया और वापसी के तमाम रास्ते बंद कर दिये। धारा से बाहर धकेले गये ये लोग जिनकी अस्मिता, संस्कृति छिन्न-भिन्न कर दी गयी। क्या यही है मुख्यधारा जिसका इतना ढोल पीटा जा रहा है ? क्या यही है मुख्यधारा जिसके लिए बीस करोड़ लोगों को अपने मनुष्य होने की लड़ाई लड़नी पड़े। मुख्यधारा एक वर्ण-विशेष की इच्छा-अनिच्छा, आशा-आकांक्षाओं से उत्पन्न मानयताओं, स्थापनाओं की धारा है जिसके लिए एक दलित को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ता है और यह धारा बेहद खूंखार और निर्दयी होकर अपने तमाम दांव-पेंचों, कलाबाजियों, बौद्धिक-विमर्शों, साहित्यिक शिल्पों के साथ दीवार की तरह सामने खड़ी हो जाती है और दलित के अस्तित्व को ही नकार देती है। मुख्यधारा दलित को एक मनुष्य मानने से इंकार करती है। उसे खारिज करती है। या फिर दोयम दरजे का मानकर उसे अपना पिछलग्गू बनाने की कोशिश करती है। इस मुख्यधारा का जोर-शोर से डंका पीटा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि मुख्यधारा का साहित्य समय और समाज से कटा हुआ है। समाज में कुछ और हो रहा है, साहित्य किसी और दुनिया के किस्से सुना रहा है।
भक्तिकालीन संतों, कवियों ने भारतीय जीवन में रची-बसी जाति-व्यवस्था का विरोध तो किया, लेकिन जाति व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। डा। अम्बेडकर लिखते हैं -
''जहां तक संतों का प्रश्न है, तो मानना पड़ेगा कि विद्धानों की तुलना में संतों के उपदेश कितने ही अलग और उच्च हों, वे सोचनीय रूप से निष्प्रभावी रहे हैं। वे निष्प्रभावी दो कारणों से रहे। उनमें से अधिकतर उसी जाति के होकर जिये और मरे, उसी जाति के जिसके वे थे। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी कि ईश्वर की सृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं। दूसरा कारण यह था कि संतों की शिक्षा प्रभावहीन रही, क्योंकि लोगों को पढ़ाया गया कि संत जाति का बंधन तोड़ सकते हैं। लेकिन आम आदमी नहीं तोड़ सकता। इसीलिए संत अनुसरण करने का उदाहरण नहीं बन सके।""
जबकि दलित साहित्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ विद्रोह का भाव है। सामाजिक, धार्मिक जीवन की विसंगतियों और उससे उत्पन्न जीवन मूल्यों को खंडित करने की चेतना है। समाज में व्याप्त असमानता और घृणा इस तथाकथित मुख्यधारा की ही देन है, जिस मुख्यधारा से जोड़ने की इतनी जद्दोजहद हो रही है।एक दलित के लिए ऐसी किसी भी धारा से जुड़ने का अर्थ हैं - वर्ण-व्यवस्था के भयानक जबड़े में स्वंय को खुद ही ठूंस देना और मुख्यधारा के अलम्बरदार तो चाहते भी यही हैं कि समूचा दलित समाज, आदिवासी, अल्पसंख्यक उनकी धारा में आकर उनके अधीन रहें। ताकि उनका वर्चस्व बना रहे। हजारों सालों से यही तो हो रहा है। और भविष्य में कब तक चलता रहेगा कोई नहीं जानता।
इस मुख्यधारा के साहित्य में जहां बौद्धिक प्रलाप की बहुतायत होती है, वहीं समाज में घट रही तमाम स्थितियों के प्रति तटस्थ भाव रहता है। उस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की जगह चुप्पी साध लेते हैं। अपने समय की बड़ी से बड़ी घ्ाटना भी इन्हें प्रभावित नहीं करती। ये अतीत में जीना ज्यादा पसंद करते हैं। यह मुख्यधारा की सबसे बड़ी विशिष्टता है। साहित्य की मुख्यधारा समय के संघर्ष से बचकर निकलने का उपक्रम अपनी शास्त्रीय भाषा को मोहरा बनाकर करती है। मुगलकाल या उससे पूर्व मुस्लिम शासकों, सुल्तानों, खिलजी वंश, तुगलक वंश, अफगान आदि के काल में कहीं भी कोई विरोध या सामूहिक संघर्ष दिखायी नहीं पड़ता है। न राजनीति में, न साहित्य में, न समाज में, छिटपुट घटनायें होती हैं, जो सिर्फ निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है। जो वर्ण-व्यवस्था की देन है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था सिर्फ शुद्रों, अंत्यजों, अस्पृश्यों, को ही अलग-थलग नहीं करती, बल्कि द्विज कही जाने वाली जातियों को भी एक दूसरे से दूर रखने का कारण बनती है। जो किसी भी सामूहिक प्रयास के विरुद्ध जाती है। यही स्थिति मुगलकाल में दिखायी देती है। भारतीय क्षत्रप दूसरे क्षत्रपों को पराजित करने में मुगल शासकों का साथ देते हैं। चाहे वे राजस्थान के राजा हों या दक्षिण के।
मुख्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले कवि हमें यह बताने में असमर्थ रहते हैं कि उनके काल में भारत मुगलों के अधीन है। यह स्थिति किसी एक कवि की नहीं मुख्यधारा के तमाम रचनाकारों की है। जो समय से कटे रहकर भी स्वंय को मुख्यधारा के भ्रमित अहमभाव के साथ जीते हैं। इसीलिए आज जिसे मुख्यधारा कहा जा रहा है, वह हिन्दु वर्ण-व्यवस्था, सामंतवाद, ब्राहमणवाद की वह धारा है, जहां दलित और स्त्री के लिए कोई स्थान नहीं है। जो साहित्य और समाज दोनों में मौजूद है। संस्कृत साहित्य में राजवंशों की विरुदावली, राजाओं के देवत्व, उनकी प्रशस्ति करने वाले साहित्य की भरमार है। जो मुख्यधारा का केन्द्रीय भाव रहा हैं इसी धारा में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को जोड़ने की बात जोर शोर से की जाती है। जिसका उद्देश्य वर्चस्ववाद को स्थापित करना है। यही है मुख्यधारा का यथार्थ।
साथियों, दलित साहित्य सही मायनों में भारतीय साहित्य है। जो समूचे देश में प्रेम ओर समता, बंधुता का संदेश लेकर आया है। बुद्ध की मानव केन्द्रित दार्शनिकता, प्रेम और मानवीय विकास की बात करता है। जहां न भाषा के प्रति किसी प्रकार का भेद है, न क्षेत्रवाद के लिए कोई जगह है। न स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार की कोई संकीर्णता है। अखिल भारतीय साहित्य है। यहां मैं एक बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि देश को ब्राहमणीकरण की नहीं दलितीकरण की आवश्यकता है। तभी देश विकास के रास्ते पर चल सकता है। एक बार करके तो देखये। यह मेरा विश्वास है।