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Monday, September 11, 2023

उपेक्षित भेंट

उपभोक्तावादी मानसिकता ने जीवन की आधारभूत जरूरतों को ही ठिकाने नहीं लगाया, अपितु ज्ञान विज्ञान के प्रति भी सामाजिक उपेक्षा के भाव को स्थापित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है. पुस्तकों से दूरी बनाते भारतीय समाज की प्रवृति उसका एक उदाहरण है. यहां तक कि उपभोक्तावादी मूल्यबोध से प्रभावित भारतीय मानस दुनिया के किसी भी कौने मेंं निवास करते हुए भी उसकी गिरफ्त से बाहर नहींं है. 
अपने पारिवारिक सदस्यों के बीच आस्ट्रेलिया प्रवास मेंं रहते हुए, कथाकार मित्र दिनेश चंद्र जोशी ने एक ऐसी ही स्थिति को हमारे साथ शेयर करना जरूरी समझा है. तो पढ़ते हैं दिनेश चंद्र जोशी का ताजा संस्मरण -   उपेक्षित भेंट   
               

    दिनेश चंद्र जोशी





बच्चों के जन्मदिन के बहाने,कभी कभी ऐसा भी होता है,कि हमें विश्व के क्लासिक बाल कथा साहित्य से साक्षात्कार का मौका मिल जाता है। ऐसा ही अनुभव प्रवास के दौरान हुआ,जब घर में बच्चे का जन्मदिन मनाने के बाद प्राप्त हुए उपहारों में एक बड़े से मोटे और भारी  आयताकार उपहार का रंगीन आवरण हटाने के बाद प्राप्त पुस्तक को देख कर हुआ। 
हार्डबाउन्ड,ग्यारह गुणा नौ इंच आकार की इस किताब का नाम है,'द कम्पलीट एडवैंचर आफ स्नगलपाट एंड कडलपाई'।
इस किताब की लेखिका व चित्रकार का नाम है 'मे गिब्स'।
अन्य खिलोनेनुमा आकर्षक उपहारों के बीच इस किताब की स्थिति उपेक्षित सी हो गई थी,तथा इसकी प्राप्ति पर घर में कोई हर्ष,उल्लास, उत्तेजना या चर्चा भी नहीं हुई, हां, इतना जरूर पता चला कि जन्मदिन के दौरान भिन्न भिन्न संस्कृति के बच्चों व उपस्थित अभिभावकों में से एक,चायनीज बच्चे के मां,पिता द्वारा यह पुस्तक भेंट की गयी है।


यह पुस्तक,बच्चों को तो छोड़ दें,बड़ों के लिए भी कोई उत्साह व जिज्ञासा का सबब न बन कर अल्मारी में अन्य पुस्तकों के साथ अटा सटा दी गयी थी।
तीसरे चौथे दिन बाद मेरी नज़र उस किताब पर पड़ी और जिज्ञासावश गौर से उसके पृष्ठ पलटे तो भान हुआ,यह तो विश्व स्तरीय बाल साहित्य की प्रसिद्ध कृति है। 
किताब की लेखिका 'मे गिब्स' का परिचय पढ़ा तो और गहरी जानकारियां पता चली। 
लगभग एक शताब्दी पूर्व उन्नीस सौ अठारह में इस पुस्तक का पहला प्रकाशन आस्ट्रेलिया में हुआ था।
'मे गिब्स' का जन्म 1877 में इंग्लेंड में चित्रकार माता पिता के घर में हुआ। कुछ समय पश्चात ही यह परिवार आस्ट्रेलिया में बस गया। अपने पोनी (खच्चर) पर सवार हो कर खेत खलिहानों, झाड़ियों की सैर करती आठ दस वर्ष की उम्र की बच्ची 'मे गिब्स' ने उन भू दृश्यों व झाड़ियों के चित्र बनाने और उनके बारे में लिखना प्रारम्भ कर दिया था।
उनके बाद के चित्रों व लेखन में बचपन की इन प्राकृतिक सैरों की स्मृति व कल्पनाशीलता से रचे पगे अनुभवों के आधार पर नाना प्रकार के जीव जन्तुओं के अवतारवादी रुपांकन की तकनीक का विस्तार पाया जाता है‌। इस तरह के उनके रचनात्मक काम को 'एन्थ्रोमार्फिक बुश सैटिंग' के विशेषण व विधा के तौर पर ख्याति प्राप्त हुई। 

चित्रों के रेखांकन की विशेषता के साथ इस किताब के पाठ व चरित्रों का संसार इतना अद्भुत व अनोखा है कि काफी दिनों तक उनकी छवि मनोमस्तिष्क में घुमड़ती रहती है। किताब में दो छोटे गमनट भाईयों और उनके दोस्तों की ऐसी चित्ताकर्षक कथा है जिसने कई पीढ़ियों तक बच्चों के दिल,दिमाग व कल्पना पर राज किया है। इसके चरित्र अन्यथा उपेक्षित से,पेड़ पौधों खासकर युक्लिपटस पेड़ के नट,फल,फूल,डंठल, कलियां,फलियां हैं जिनको नवजात व बच्चों के प्रतीकों में दर्शाती व मानवीय रूप व्यवहार में तब्दील करती हुई चित्रकथायें हैं।
कीड़े,मकोड़े,चींटियां,मकड़ी,टिड्डी, मिस्टर लिज़ार्ड,छिपकली, मेंढक,मिसेज फिनटेल (चिड़ियां),पौसम (बिज्जूनुमा आस्ट्रेलियाई जीव) बंदर,मिस्टर बियर,कुकूबरा जैसे असंख्य अन्य सहायक पात्र हैं। बंकाशिया,जो भूरे काले रंग के कोननुमा बहुमुखी विभत्स मानव हैं, इन निर्दोष जीवों को नुक़सान पहुंचाने वाले खलनायक पात्रों के रूप में वर्णित व चित्रित हैं। इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने पर कथारस के साथ साथ  कीट पतिंगों की दुनिया व वनस्पतियों के संसार के प्रति प्रेम व सहानुभूति का ऐसा रिश्ता कायम होता है जो विकास के नाम पर जैवविविधता के नष्ट होने के सूक्ष्म षडयंत्रों का प्रतिकार करने की भावना व चेतना प्रदान करता है।  
अपने पहले प्रकाशन पर ही इस किताब की 17000 प्रतियों की बिक्री का जिक्र इसकी अपार लोकप्रियता को दर्शाता है। लेखिका की चार अन्य किताबें ऐसी ही विषय वस्तुओं को लेकर 1920 से 1924 के दौरान प्रकाशित हुई। प्रकाशन के शताब्दी वर्ष 2021 में उनके समग्र लेखन व चित्रांकन को समेटे हुए इस डीलक्स संस्करण की मांग व चर्चा पुनः हो रही है।
बाल साहित्य को लेकर ऐसा सृजन, प्रकाशन, मांग व उत्साह हमारे यहां कम देखने को मिलता है,जब कि पंचतंत्र से लेकर वेद पुराण, महाभारत की उप कथाओं का भंडार बाल साहित्य से सम्बद्ध है। ऐसे वृहत बालकथा ग्रंथ के प्रकाशन की कल्पना तो अपने हिंदी भाषा क्षेत्र में हम बमुश्किल ही कर सकते हैं। 

'स्कालास्टिक प्राइवेट लिमिटेड ग्रुप की इस वैश्विक प्रकाशन संस्था का कार्यालय दिल्ली में भी है,जिसके आस्ट्रेलिया कार्यालय ने यह किताब प्रकाशित की है। हो सकता है वे,अन्य भारतीय भाषाओं या अंग्रेजी में ऐसा प्रकाशन करते हों, मुझे जानकारी नहीं है।
बाल साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए इस चित्रकार लेखिका को आस्ट्रेलिया सरकार द्वारा,सन 1955 में सम्मान स्वरूप ब्रिटिश राजशाही की सदस्यता हेतु मनोनीत किया गया था।
1969 में उनकी मृत्यु हुई। मृत्यु के पश्चात भी उनके नाम का डाक टिकट जारी करने के अलावा जन्मशताब्दी वर्ष  में उनके नाम पर स्थलों, मुहल्लों यहां तक की टूरिस्ट नौकाओं व जहाजों के नाम तक रखने के उदाहरण बताते हैं कि अपने दिवंगत साहित्यकार,कलाकारों का कैसा सम्मान इन देशों में होता है।
जैसा कि हर लोकप्रिय कृति के साथ कोई न कोई विवाद या वितंडा पैदा हो जाता है,इस किताब के साथ भी हुआ। एक आरोप तो लेखिका पर अति शुचितावादियों ने यह लगाया कि बाल पात्रों के चित्रांकन में नग्नता है जो पीडोफोलिक मनोवृत्ति को उकसाने हेतु प्रेरक हो सकती है। तथा दूसरा, 'किताब के खलनायक चरित्र बंकाशिया मानवों के चित्रण व वर्णन से आस्ट्रेलियाई आदिवासी समुदाय की समानता झलकने के कारण उनके प्रति रंगभेदी नश्लीय भेदभाव प्रकट होता है।'
इन असंगत आरोपों के प्रभाव ने यहां तक जीत हासिल की कि बाद के नये संस्करणों में एकाधिक अध्यायों में परिष्कार भी किया गया है। रंगभेद अध्येताओं व विमर्शकारों द्वारा तात्कालिक समाज व परिस्थितियों में लेखिका के अवचेतन में मौजूद इन ग्रन्थियों को जांचने परखने में पूर्वाग्रहग्रस्त होने के कारण उनके निर्दोष सृजन को कठघरे में खड़ा करने के ये विवाद कितने वजनदार हैं,कह नहीं सकते।
पर इतना तय है कि आधुनिक और उन्नत होने के बावजूद नैतिकतावादी शुचिता की पहरेदारी में ये देश भी कम नहीं हैं। यदा कदा पुस्तकालयों व बुकस्टालों से आपत्तिजनक संदिग्ध किताबों की जब्ती और आर्ट गैलरियों में वास्तु व कलाकृतियों पर,अशिष्टता के शक में छापे मारे जाने की ख़बरें सुनकर जहां ताज्जुब होता है वहीं राहत भी मिलती है कि ऐसा जुल्म तो अभिव्यक्ति की आजादी पर कम से कम अपने यहां तो नहीं होता है।
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Alokuthi

Thursday, March 9, 2023

एक दोपहर की बतरस

दिनेश चंद्र जोशी


मेरे व अरुण कुमार असफल के साथ बीच में बैठै कथाकार सुभाष पन्त को कौन नहीं जानता।

वे देहरादून के ही नहीं हिन्दी कहानी जगत के सरताज किस्सागो हैं। लाक डाउन की वजह से पिछले लगभग डेड़ दो साल से उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो पाई थी। उनके घर डोभाल वाला गये तो मुझे भी काफी लम्बा अर्सा हो गया था, हां, गोष्ठियों में यत्र तत्र जरुर भेंटघाट हो जाती। पिछले दिनों एक फोन आया,मित्र कथाकार अरूण कुमार असफल का, 'पन्त जी के यहां चलेंगे? मैं जा रहा हूं,एक से भले दो ,वे स्वयं इधर उधर अब आ जा नहीं सकते,यूं स्वास्थ्य ठीक हैं, कह रहे थे,भाई,आप लोग ही आ जाओ,मैं तो अब कहीं आ जा नहीं सकता।'

मैंने हामी भर दी, बिल्कुल चलूंगा,यार! अब रिटायरमेंट के बाद भी फुर्सत का बहाना करूंगा तो मुझसे बड़ा एकलकट्टू कौन होगा, फिर आपका जैसा उदार साथी जो,घर से पिक अप करें घर तक छोड़ देता हो आग्रह करे तो अपने घरऊ काम व आलस्य को तिलांजलि देने का हक तो  मेरा भी बनता है। निश्चित ही आपकी सुविधा व समय के अनुसार मैं तैयार रहूंगा,चलने से पहले मिस काल मार देना।

अरूण जी नियत समय पर पहुंच गये थे।आधे घंटे के भीतर हम लोग पंत जी के गेट पर खड़े थे। पन्त जी बरामदे में बैठे हुए इन्तजार ही कर रहे थे। हम दोनों को देख कर वे प्रफुल्लित हो उठे, तपाक से मिले,

हाथ मिलाया और अन्दर बैठक में ले गये।बोले ,'यार ये मास्क वास्क की वजह से चेहरे ही पहचान में नहीं आ रहे। अब भंगिमा व आवाज से लोगों को पहचानना पड़ रहा है।'

पन्त जी के घर मैं पहले कई मौकों पर गया हूं। इस घर से कई यादें जुड़ी हैं, बीस तीस साल पहले जब यह मुहल्ला इतना चमकदार व आलीशान घरों से लकदक नहीं था,कस्बे व गांव की मिली जुली अनगढ़ता व महक थी,आम लीची के पेड़ हर घर में दिख जाते थे।सड़क पतली वह ऊबड़ खाबड़ रहती थी। टिन शेड की छतों वाले ढलुवा घर भी इक्का दुक्का नजर आते थे।डोभालवाला देहरादून का  पुराना मुहल्ला व बसावट का प्रतीक लगता था।अब तो मुहल्ले का हर घर नया रिनोवेटेड,डुप्लेक्स ट्रिपलेक्स नजर आ रहा था,सड़क बेशक पतली लेकिन समतल थी।

पन्त जी का घर भी वो लम्बे बरामदा वाला,अब परिवर्तित रुप में था,उस पुराने घर के बैठक में अपेक्षाकृत युवा कथाकार पन्त और आज के उम्रदराज कथाकार के शारीरिक ढांचे में कोई खास अन्तर नहीं था लेकिन आंखों की चमक,बोलने की इंटेंसिटी,और फुर्तीले पन का फर्क लाजमी तौर पर जाहिर हो रहा था।

इस नये वाले परिवर्तित घर की इसी बैठक में अपने पुत्र गोर्की की शादी के मौके पर पन्त जी ने अपने साहित्यिक मित्रों हेतु डिनर पार्टी का आयोजन किया था,पीने पिलाने के दौर के दौरान मदहोशी में वे,बेहद भावुक होकर बोले थे,'यार!जिंदगी में मेरी  कमाई आप लोग ही हैं मेरी,साहित्यिक बिरादरी के दोस्त,वरना व्यवहारिक जिंदगी में निपट अनाड़ी हूं, मुझे यकीन है आप लोग अपनत्व से मुझे ऊष्मा देते रहोगे,तो मेरी रचनात्मकता बची व बरकरार रहेगी। वह बात आज रह रह कर याद आ रही थी, मित्रों ने पन्त जी के सान्निध्य में खूब पीने खाने का लुत्फ उठाया था,

'अरुण तुम्हें याद है, तुम तो थे ना मौजूद उस पार्टी में ? मैंने पूछा।

'हां,हां,मैं बाकायदा था, बड़ी देर तक हम लोगों ने आनन्द लूटा था। लगभग बारह तेरह साल पुरानी बात होगी यह!' 'हां बिल्कुल।'

पन्त जी एकहरे शरीर के दुबले पतले सदाबहार एक जैसी काया में नजर आते हैं। जैसे चालीस साल पहले थे,वेसै ही अब हैं। सिर्फ़ चुश्ती फुर्ती व ऊर्जस्विता में फर्क पड़ा है,स्मृति ठीक है। लाक डाउन,करोना से बातें शुरू हुई तो फिर साहित्य,लेखन,पठन-पाठन की गतिविधियों का तब्सिरा शुरू हो गया। स्थानीय प्रकाशक समय साक्ष्य से नवीनतम कहानी संग्रह आने वाला है,वे कह रहे थे,बाहर के प्रकाशन से विलम्ब के बनिस्पत स्थानीय अच्छे प्रकाशन से त्वरित छपवा लेना उचित है।

हिंदी लेखक के लिए पुस्तक प्रकाशित करवाना हमेशा टेड़ी खीर रहा है,यह एक विडम्बना उसका पीछा कभी नहीं छोड़ती। हिंदी के बड़े से बड़े लेखक को भी प्रकाशक ठेंगा दिखा देते हैं। जगूड़ी जी जैसे लेखक भी गपशप में साहित्यकार की परिभाषा व संधि विच्छेद करते हुए कहते हैं, 'साहित्यकार' -यानी 'साहित्य' आपके पास, 'कार' प्रकाशक के पास।

'मुझे, वैसे अपने संग्रह छपवाने में बहुत समस्या नहीं आई, लेकिन विलम्ब व रायल्टी पारदर्शिता की शिकायत तो रहती ही है,यह हिंदी का दुर्भाग्य है।

मेरा पहला संग्रह बड़ी आसानी से छप गया था,

'तपती हुई जमीन' जवाहर चौधरी ने छापा था, सारिका में मेरी कहानी 'गाय का दूध छप कर चर्चित हो गई थी। उसके कवर पेज का डिजाइन मैंने ही जवाहर चौधरी से कह कर अवधेश (अवधेश कुमार) से बनवाया था। उसके बाद तो अवधेश को दिल्ली के प्रकाशक ढूंढ कर बुलवाने लगे थे,वह दिल्ली में छा गया था,बहुत टेलेन्टेड चित्रकार,व कवि था, हमारे देहरादून का लेकिन अपनी आवारगी व बदपरहेजी के कारण इतनी जल्दी चला गया हमारे बीच से। अवधेश को याद करते हुए पन्त जी भावुक हो उठे थे।

'आपकी शादी हो चुकी थी जब आपने लिखना शुरू किया'? अरुण ने पूछा। 

'हां हां,मैने तो बहुत बाद में लिखना शुरू किया,शादी मेरी ६४ में हो गई थी,लिखना छपना ७३-७४ में  शुरू हुआ,३५ साल की उम्र के बाद।उससे पहले सेहत गड़बड़ा गई थी,भवाली सेनेटोरियम में भर्ती रहा।बड़े हादसे झेले। 

देहरादून में लिखने पढ़ने वालों का माहौल बनने लगा था तब। साहित्य संसद की गोष्ठियां होती थी, ब्रह्मदेव जी,शशिप्रभा शास्त्री,सुरेश भटनागर,वीर कुमार अधीर आदि लोग आते थे। हम लोग अपेक्षाकृत युवा थे,हमारी अभिरूचि भिन्न थी

इसलिए मैने,नवीन नौटियाल व अवधेश ने मिल कर संवेदना संस्था का गठन किया, तय हुआ कि कोई इसका अध्यक्ष,सचिव नहीं होगा। तीनों ही इसके संवाहक होंगे। उसकी नियमित गोष्ठियां आयोजित करने लगे थे।

सारिका में छपने के बाद तो मेरी पहचान बनने लगी थी।समान्तर कहानी आयोजन देश भर में आयोजित होने लगे थे। इब्राहीम शरीफ ने मद्रास सम्मेलन  में बुला लिया,पहली बार घर से बाहर निकल कर उतनी दूर जाना हुआ। कमलेश्वर जी से पहली मुलाकात वहीं हुई,श्रवण कुमार, मधुकर सिंह,से.रा यात्री से मुलाकात हुई,सारिका के लेखक एक दूसरे से मिल कर गले लिपट पड़े।

मद्रास से लौटते हुए कालीकट विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में शामिल हुए।वहां कहानी पाठ व चर्चा के बाद रात में डिनर से पूर्व पीने वगैरह का दौर शुरू हो गया, छात्रों ने स्वय एक बूंद नहीं ली, लेकिन लेखकों के सम्मान में पेय का इंतजाम कर दिया। पानी के लिए उन दिनों वहां सुराही रक्खी होती थी मेज पर  छोटी छोटी। से.रा. यात्री धुरंधर खिलाड़ी थे। मदहोशी में बोले यार,ये बोतल में बची ह्विवस्की मैं झोले में डाल लेता हूं,कल काम आयेगी,उन्हें कौन रोक सकता था।

दूसरे रोज शौक फरमाने के लिए झोले में हाथ डाला तो बोतल के बदले सुराही निकली,एक से एक रोचक किस्से हैं उस यात्रा के, जवाहर चौधरी से भी हीं मुलाकात हूई, संग्रह के प्रकाशन का आगाज भी तभी हुआ बातो बातों में।

से.रा यात्री की बात चली तो फिर उनके किस्से चलते चले गये।बोले, 'यात्री बहुत फक्कड़ और घुमक्कड़ लेखक थे। उत्कृष्ट कोई खास नहीं लिखा उन्होंने लेकिन औसत दर्जे का जितना लिखा उतना किसी और ने नहीं लिखा होगा। खादी का सफेद कुर्ता पजामा और कंधे पर झोला उनकी पहचान थी। कहते थे लेखक के पास झोला अवश्य होना चाहिए पता नहीं कब क्या छुपाना पड़ जाय।'



'वो देहरादून में रिक्शे की सवारी वाला क्या किस्सा है, यात्री जी का,पन्त जी!' हमने उन्हें कुरेदा था।

'अरे हां,अद्भुत शख्स थे यात्री जी। उन्होंने अपनी एक कहानी में देहरादून में हाथ रिक्शा चलवा दिया।

इस बात को लेकर बड़ा हल्ला हुआ, देहरादून में रिक्शे चलते नहीं,यात्री नकली कहानियां लिखते हैं।

बात,साप्ताहिक हिंदुस्तान के मनोहर श्याम जोशी तक पहुंची, उन्होंने उपसंपादक हिमांशु जोशी से पूछा,'ऐसी गल्ती क्यों हुई, प्रूफ व तथ्यात्मक अशुद्धियों हेतु सम्पादक जिम्मेदार होता है।' साप्ताहिक के कार्यालय में आने पर हिमांशु जोशी ने यात्री से इस त्रुटि हेतु मनोहर श्याम जोशी की हिदायत व नाराजगी का हवाला दिया। यात्री भड़क गये और सीधे मनोहर श्याम जोशी के चैम्बर में घुस कर सफाई दे आये,कि लेखक को कहानी के पांच सौ रुपए पारिश्रमिक मिलते हैं इसमें क्या वो हवाई जहाज चलवा देता,देहरादून में!' एक से एक मजेदार किस्से हैं हमारे जमाने के लेखक मित्रों के।पन्त जी बात बात में कमलेश्वर जी की तारीफ कर रहे थे, कमलेश्वर बड़े ग़ज़ब के आदमी थे। 'सारिका में नये लेखकों को खूब छापते व प्रोत्साहित करते थे।'

'कमलेश्वर जी सबके साथ ऐसे ही पेश आते थे,जैसे आपके साथ?' अरुण पूछ बैठा।

शर्मीली सी गौरवान्वित मुस्कान के साथ वे बोले,

'हां,मेरे प्रति थोड़ा ज्यादा ही स्नेहिल थे,यूं सबके प्रति  उनका व्यवहार अच्छा रहता था।' सारिका बन्द होने के बाद 'गंगा' के सम्पादक बने। गंगा के आठ दस अंक निकले,उसमें उन्होंने मेरा उपन्यास 'सुबह का भूला' छापा।

'हां,हां मुझे याद है,गंगा में ही पढ़ा मैंने भी उसे,८८-९० के आसपास, मैने कहा।

'गंगा' के बन्द होने के बाद कमलेश्वर जी फिर पूर्णतया साहित्य से कट कर फिल्म संवाद लेखन की ओर उन्मुख हो गये थे। हालांकि उन्होंने 'कितने पाकिस्तान' जैसा मार्के का उपन्यास भी बाद में लिखा।

इस बीच पन्त जी बोले,' यार तुम इधर लगातार बड़ी अच्छी कविताएं लिख रहो हो,फेसबुक पर,वो स्त्री वाली कविता तो बहुत अच्छी है,क्या नाम है 'स्त्रियां' है,ना! 'हां,हां अभी हाल ही में डाली थी!'

तुम्हारे लेखन में इतनी वैरायटी है, व्यंग्य, कहानी, कविता। संग्रह आने चाहिए इन सबके।

'हां,हां अब कोशिश करता हूं, रिटायरमेंट के बाद फुर्सत मिली है इस वास्ते।'

बातों बातों में कब दो घंटे बीत गये पता ही नहीं चला,'अरे! मैं तो पूछना ही भूल गया चाय लोगे,या ड्रिंक्स चलेगी,तकल्लुफ की बात नहीं, है इंतजाम बोलो।' 

नहीं,नहीं ड्रिंक्स नहीं, दिन का वक्त हैं,चाय ही लेंगे

अरुण ने कहा,मैंने भी उसका समर्थन किया।

पन्त जी भीतर गये। थोड़ी देर बाद उनकी पुत्रवधू चाय का ट्रे व नमकीन बिस्कुट रख गई। इतनी देर की बातचीत व किस्से कहानियों के बाद गर्मा-गर्म चाय बिस्कुट की तलब लगी ही थी। 

मेल जोल व बातचीत से मन कितना बदल जाता है,यह पन्त जी की मुखर,उत्साही व प्रसन्न  भंगिमा से जाहिर हो रहा था,बनिस्पत दो घंटे पूर्व की उदास व शान्त भंगिमा से। मित्रों के सान्निध्य के बीच पुरानी स्मृतियों व किस्सों की अदायगी से उनके शरीर  में जैसे जान व रौनक आ गई थी।बढ़ती उम्र में इंसान की यह सामाजिक भूख और बढ़ जाती है,इसलिए हमें अपने अग्रज मित्रों,परिजनों से मुलाकात भेंट घाट करते रहनी चाहिए ताकि उनको एकाकीपन उपेक्षा,अवहेलना महसूस न हो। यह बात शिद्दत से हमें भी महसूस हो रही थी। हममें से अरुण इस भूमिका को बखूबी निभाता है ,यह गुण उसमें स्वभाव के अलावा जिम्मेदारी के दायित्व बोध का भी है।

वर्तमान साहित्य के परिदृश्य पर बातचीत करने का यह अवसर नहीं था,गपशप के बीच ही सहज अनौपचारिक रुप से पुरानी स्मृतियों के स्फुरण से हम लोग आनन्दित हो रहे थे और पंत जी को भी उल्लसित देख रहे थे।

वे बोले,'राजेन्द्र यादव की हंस पत्रिका में मैंने कहानी भेजी ही नहीं,छपने के वास्ते, क्योंकि उन्होंने सारिका में छपने वाले समांतर के दौर के रचनाकारों को कमलेश्वर के 'चेले चपाटे' कह कर हमारा  मजाक उड़ाया था। हंस में मेरी एक दो कहानियां ही शुरू में प्रकाशित हुई थी उसके बाद नहीं भेजी।

पिछले वर्षों में ज्ञानरंजन की पहल पत्रिका में कहानियां प्रकाशित व चर्चित हुई, ज्ञान जी सम्मान पूर्वक मंगवाते थे,मैंने भी उनका मान रक्खा और रचनायें भेजी।'कथादेश' में बहुत कहानियां छपी।'

कुछ इधर उधर की बातें हुई, एफ.आर.आई की नौकरी आदि की। अब संस्थान के पुनर्गठन के बाद काउन्सिल बन जाने के बाद भी इतने प्रसिद्ध नामी संस्थान की हालत से वे क्षुब्ध थे,कह रहे थे, 'काउन्सिल बनने के बाद संस्थान खुद नवोन्मेषी उद्यमों से अपनी आमदनी बढ़ा रहा है लेकिन ओवरहैड खर्चे इतने ज्यादा हैं कि घाटे में ही जा रहा है।'

इस बीच एक वक्त में काफी चर्चित हुई कहानियां, 'कामरेड का कोट,' 'भगदत्त का हाथी' व 'पिंटी का साबुन' तथा इनके कथाकारों की चुप्पी पर भी चर्चा हुई, इसी सिलसिले में  गंभीर सिंह पालनी की कहानी 'मेंढक' का जिक्र चला तो पंत जी बोले, 'मुझे खास अपील नहीं करती वह कहानी,मेंढक जैसे बचकाना प्रतीक पर है।'

अरुण ने प्रतिवाद किया,'नहीं,नहीं मेंढक तो अच्छी कहानी है,शिक्षा व्यवस्था पर करारा प्रहार है उसमें नयापन है',मैने भी अरुण का समर्थन किया।

'ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर धारदार लेखन ही अन्तत: सराहा जायेगा,आम आदमी की मुश्किलें अभी खत्म नहीं  हुई है।' पन्त जी ने कहा। यही सब बातें करते करते काफी देर हो गई थी, लगभग तीन घंटे तक हम लोग पंत जी से बोलते बतियाते रहे। चलने को उद्यत हुए तो वे,भीतर रैक से एक मोटी सी किताब लाकर मुझे थमाते हुए बोले,तुम रिटायर हो गये हो,वक्त की कमी नहीं है,इस जीवनी को पढ़ना। अब तो अनुवाद की बहुत सुविधा है,विश्व साहित्य की अनुदित अच्छी पुस्तकें हिंदी में आ रहीं हैं।

जरूर जरूर, मैंने पन्त जी द्वारा उपहार स्वरूप प्राप्त वह किताब ले ली।

बाल्जाक की जीवनी थी,चार्ल्स गोरहाम की लिखी तथा जंग बहादुर गोयल द्वारा हिंदी में अनूदित।संवाद प्रकाशन से छपी,काफी मोटे कलेवर की। 

उसके बाद हम तीनों ने साथ बैठ कर फोटोग्राफ खिंचवाया,जो उनकी पोती नताली ने खींचा। वह बड़ी हो गई है,क्लास सिक्स में पंहुच गई है,नताली के प्रथम जन्मदिन पर आयोजित समारोह में हम सब लोग एकत्रित हुए थे, नताली को देख कर उस समारोह की याद आ गई। फोटो खिंच जाने के बाद पंत जी हमें छोड़ने गेट तक आये।

'अच्छा फिर आते रहना आप लोग,मेरा तो आना जाना मुश्किल है।' 'जरूर, आयेंगे, नमस्ते।' हम दोनों समवेत स्वर में बोले और गेट बन्द कर लौट आये।

                *****


Friday, March 11, 2016

अभिव्यक्ति का झूला

“शब्द हथियार होते हैं, और उनका इस्तेमाल अच्छाई या बुराई के लिए किया जा सकता है; चाकू के मत्थे अपराध का आरोप नहीं मढ़ा जा सकता।“ एडुआर्डो गैलियानो का यह वक्तव्य डा. अनिल के महत्‍वपूर्ण अनुवाद के साथ पहल-102 में प्रकाशित है।
 
इस ब्लाग को सजाने संवारने और जारी रखने में जिन साथियों की महत्वतपूर्ण भूमिका है, कथाकार दिनेश चंद्र जोशी उनमें से एक है।
 
जोशी जी, भले भले बने रहने वाली उस मध्य वर्गीय मानसिकता के निश्छल और ईमानदार व्य।वहार बरतने वाले प्रतिनिधि हैं, जो हमेशा चालाकी भरा व्यवहार करती है और लेखन में विचार के निषेध की हिमायती होती है। पक्षधरता के सवाल पर जिसके यहां लेखकीय कर्म के दायरे से बाहर रहते हुए रचनाकार को राजनीति से परहेज करना सिखाया जाता है और रचना को अभिव्यक्ति के झूले में बैठा कर झुलाया जाता है, इस बात पर आत्म मुगध होते हुए  कि चलो एक रचना तो लिखी गयी। जोशी जी का ताजा व्यंग्य लेख इसकी स्पष्ट मिसाल है।
 
असहमति के बावजूद लेख को टिप्‍पणी के साथ प्रस्तुत करने का उद्देश्य स्पष्‍ट है कि ब्लाग की विश्ववसनीयता कायम रहे। साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी की हिफाजत हो सके, एवं ऐसे गैर वैचारिक दृष्टिकोण बहस के दायरे में आयें, जो अनर्गल प्रचारों से निर्मित होते हुए गैर राजनैतिक बने रहने का ढकोसला फैलाये रखना चाहते हैं लेकिन जाने, या अनजाने तरह से उस राजनीति को ही पोषित करने में सहायक होते हैं, जिसके लिए ‘लोकतंत्र’ एक शब्द मात्र होता है- जिसका लगातार जाप भर किया जाना है, ताकि अलोकतांत्रिकता को कायम रखा जा सके।

वि.गौ.

व्यंग्य लेख

                                 वाह कन्हैया, आह कन्हैया

         दिनेश चन्‍द्र जोशी
          9411382560
 
एक कन्हैया द्वापर युग में पैदा हुए थे, दूसरे आज के साइबर युग में प्रकट हुए है। द्वापर वाले कन्हैया गोपियों के साथ रास नचाते थे, ये नये वाले जे.एन.यू की गोपियों के साथ विचारधारा रूपी प्रेमवर्षा में स्नान करते हैं। ये बौद्धिकता की वंशी बजा कर जे.एन.यू के ग्वाल बालों को सम्मोहित करते हैं, देश उनके लिये कागज में बना नक्सा भर है, जिसको रबर से मिटा कर बदला जा सकता है। उनका लक्ष्य है, ''देश से नहीं, देश में आजादी,''  उनका नारा है, ''आजादी, आजादी'', मुह खोलने की आजादी, मन जो कहे उसे उड़ेलने की आजादी। क्योंकि उनका मन अभिव्‍यक्ति के लिये छटपटाता रहता है, इसी छटपटाहट के तहत उनकी संगत कुछ देश द्रोही किस्म के ग्वाल बालों से हो गई थी। वे आजादी के मामले में इससे दो हाथ और आगे थे, वे नारे लगा रहे थे, देश के टुकड़े टुकड़े कर देंगे, मुटिठयां उछाल रहे थे, हुंकारा भर रहे थे, आग उगल रहे थे, कन्हैया भी उनके झांसे में फंस गये, उस भीड़ में प्रकट नजर आये, नैतिक समर्थन देने को उत्सुक से। टुकड़े टुकड़े करने का नारा लगाने वाले भूमिगत हो गये।   छात्रसंघ के अघ्यक्ष होने के नाते  कन्हैया धर लिये गये। हवालात में, सुनते हैं, कन्हैया की ठुकाई भी हुई। उनका मोरमुकुट बंशी वंशी सब तोड़ दी गई होगी, जाहिर सी बात है। उन पर राजद्राोह का आरोप लगाया गया। कन्हैया की गिरफ्तारी पर बवाल मच गया। सारे जे.एन.यू के ब्रजमंडल सहित वामदल,पुष्पकमल दहलवादी विफर पड़े। देशभक्ति  की भाावुकता को संघियो का षडयन्त्र बताया, तर्क,विचार, ज्ञान,शोध आजादी के अडडे की श्रेष्ठता को बदनाम करने की साजिश बताया। सेक्युलरवादियों ने भी बहती गंगा में हाथ धोये। राहुल बाबा की बैठे बिठाये मौज हो गई। नितीश बोले, ये मथुरा वाला नहीं ,हमारे  बेगूसराय वाला कन्हैया है, इसको हिन्दूवादी तंग कर रहे हैं, अलबत्‍ता लालू जी के गोल मटोल ढोल से कुछ मौलिक किस्म का प्रहसन नहीं झरा। दक्षिणपंथियों ने देशभक्ति की विशाल रैली निकाली, तिरंगे फहराये, केशरिया लहराये, कहा, बन्द कर देने चाहिये देशद्रोह के जे..एन.यू जैसे अडडे, जहां पर शराब, ड्रग्स, कंडोम बहुतायत में पाये जाते हैं। ऊपर से देश के टुक्ड़े टुकड़े करने के नारे भी लगाये जाते हैं। आंतकवादी इनके आदर्श हैं, हाफिज सईद इनका सरगना है, इन सबको पाकिस्तान खदेड़ देना चाहिये। मीडिया की बहार हो गई, देशभक्ति व देश द्रोह की परिभाषायें खंगाली गई,कानूनी टीपें खोजी गई। इन विषयों के वक्ता प्रवक्ताओं की दुकानें चैनलों पर जम कर चलने लगी। भगत सिंह, गोलवलकर, गांधी, गोडसे सब लपेटे में लिये गये। कुछ ने सोनियां को महान देशभक्त बताया। उधर हनुमनथप्पा सियाचीन में बफ्र्र के नीचे दबे कराहते रहे, इधर जे.एन.यू के मुकितकामी, देशभक्ति को छदम अवधारणा ठहराने का तर्क गढ़ते रहे।  कन्हैया को कोर्ट में पेश किया गया, वहां काले कोट वालों ने उन पर लात घूंसे जड़ने की चेष्टा की, कुछ इस अभियान में सफल भी हुए,कुछ निराश जो देशभक्ति का कर्ज नहीं चुका पाये। बड़ा विलोमहर्षक –दृश्य था, जनता भौचक्की रह गई, उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर देशभक्ति होती क्या चीज है, तिरंगा फहराना या काले झंडे दिखना। जनता बिचारी को खुद अपनी देशभक्ति पर शक होने लगा। इधर कन्हैया को जमानत भी मिल गई, वे हवालात से हीरो बन कर लौटे, उनका इन्टरव्यू लेने को मीडिया में होड़ मच गई है।  कन्हैया ने जे.एन.यू के ग्वालबालों को भाषण दिया,उनको देशभक्ति की व्याख्या समझाई, वे काले जैकिट के भीतर सफेद टी शर्ट में सलमान खान वाले अंदाज में नमूदार हुए। जे.एन.यू की गोपियां उसकी रोमानिटक बौद्धिकता पर फिदा हुई। कन्हैया ने अपनी मां की गरीबी का हवाला दिया। उसने स्वयं को विधार्थी व बच्चा भी कहा, इस बच्चे ने फिर राजनीतिक भाषण दिया,उसका भाषण सुन कर तीसियों साल वामपंथ में खपा चुके बूढ़े कुंठित हुए। कन्हैया ने कहा, हमें मुक्ति चाहिये, गरीबी से, बेरोजगारी से, साम्प्रदायिकता से, सामन्तवाद से मुक्ति। हमें छदम देशभक्ति से मुक्ति चाहिये, असहिष्णुता से मुक्ति। मुक्ति का पाठ पढ़ाता कन्हैया, बच्चे से एक घाघ नेता में तब्दील नजर आया। उसकी नेतागिरी से प्रभावित हो कर सीताराम येचूरी ने उसको अपना चुनाव प्रचारक घोषित कर दिया,बंगाल के चुनाव हेतु। केजरीवाल उसके मुक्ति पाठ से प्रेरित होकर कहने लगे,हमें भी मुक्ति चाये,राज्यपाल जंग से। उसका मुक्ति पाठ इतना प्रभावशाली था कि उस पाठ ने कइयों को अपनी जद में ले लिया। स्त्रियां पतियों से मुक्ति चाहने लगीं,कर्मचारी बास से, बच्चे अभिभाावकों से, कांग्रेसी सोनियां राहुल से, विपक्षी मोदी सरकार से मुक्ति चाहने लगे,सत्‍ताधारी सहिष्णुता के ठेकेदारों से। गीतकार आधुनिक कविता से मुक्ति चाहने लगे, कहानीकार,लम्बी कहानी लाबी से। कन्हैया का मुक्ति पाठ वायरल हो गया। कन्हैया का देशद्रोह सफल हो गया, हालांकि उसकी मुक्ति व स्वच्छन्दता का राग कइयों के गले नहीं उतर रहा है,वे उसकी ठुकाई तैयार बैठे है, उसके सिर पर इनाम घोषित हो चुका है, ये उसको कंस बना कर छोड़ेंगे।
 

Wednesday, November 4, 2015

गैरसैण विधानसभा सत्र का औचित्य

दिनेश चन्‍द्र जोशी 
लेखक; कवि साहित्यकार, देहरादून

फिलवक्त तक उत्‍तराखंड की काल्पनिक राजधानी गैरसैण में विधानसभा के सत्र को आयोजित करने का हो हल्ला बड़े जोर ,शोर से चल रहा है। बिजली, पानी, आवास,सड़क, चमक दमक ,हाल ,माईक ,सजावट ,सोफे, कालीन ,बुके फूलमाला, गाडि़यों ,मिनरल वाटर , भोज, डिनर की व्यवस्था बाकायदा कार्यदल बना कर हो रही है। इस कार्य हेतु करोड़ों से कम बजट क्या लगेगा। जनभावना के सम्मान हेतु इतना गंवा भी दिया तो कोई हर्ज नहीं। खबरों में यह दृश्य बड़ा ही उत्साहजनक व पर्व की तरह पेश किया जा रहा है और राज्य की भोली भावुक जनता को दिगभ्रमित किया जा रहा है। 
गैरसैण भौगोलिक रूप से कुमाऊ व गढ़वाल के मèय व संगम स्थल पर, चौरस घाटी होने की वजह से निर्माण व विकास की संभावना से युक्त है। जल संसाधन व पर्यावरण की दृष्टि से भी निरापद है। भूकम्प व आपदारोधी होने की मान्यता हेतु गठित वैज्ञानिकों की कमेटी ने भी तीन चार सुझाये नामों में गैरसैण को अमान्य करार नहीं दिया है। इस कारण गैरसैण उत्‍तराखंड की स्थाई राजधानी हेतु एक फेवरेट ब्रांडनेम है। जनभावनाओं की अभिव्‍यक्ति, सामाजिक सरोकारों से जुड़े बुद्धिजीवी, जनप्रतिनिधि, आन्दोलनकारी ,पत्रकार व कलाकारों का पक्ष भी गैरसैण को साियी राजधानी बनाने के पक्ष में है। 
संयोग है कि यह स्थल वीर चन्‍द्र सिंह गढ़वाली के जन्म स्थान के निकट स्थित है। इन दिलचस्प तथ्यों को ही ध्यान में रखते हुए राजधानी के सवाल पर स्वंय डांवाडोल सरकारें भी जब तक विधानसभा सत्र आयोजित करके एक तीर से कई निशाने साधना चाहती रही हैं। सारा मसला वोट बटोरू राजनीति का है और अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए ही जिसका समय 2017 निकट आता जा रहा, वर्तमान सरकार अपने झूठ को गैरसैण ब्रांड की मारकेटिंग के साथ फोकट में ही लाभ अर्जित करने की मंषाएं पाले विधानसभा सत्र और मेले ठेले आयोजित करना चाहती है। 
अब जरा गौर से इस गैरसैण सत्र प्रकरण का विश्लेषण करें तो यह सारा माजरा पुराने जमाने के गोचर मेले, जौलजेबी, नन्दा देबी मेले या स्याल्दे, मोस्टमानू मेले जैसे सांस्‍कृतिक पर्व का आभास कराता प्रतीत होता है, जिनमें लोक संस्‍कृति व स्थानीय उत्पादों की बिक्री व ब्रांडिग होती थी। फर्क सिर्फ इतना है कि इस सत्र द्वारा गैरसैण मेले में वर्तमान सरकार,नेताओं, मंत्रियों, नोकरशाहों, अधिरकारियों, छुटभय्यों, ठेकेदारों व उत्साही कार्यकर्ताओं की ब्रांडिग व बिक्री होगी।
एक दो दिवसीय सत्र हेतु पूरी सरकार देहरादून से गैरसैण शिफ्ट होगी।कारों के काफिले दौड़ेंगे, प्राइवेट टैक्सी,इनोवा, स्र्कापियो गाड़ी वैन्डरों को काम मिलेगा, उनकी  चांदी कटेगी। हैलीकाप्टरों का उपयोग किफायत दर्शाने हेतु वÆजत किया जायेगा। मंत्रियों, नौकरशाहों को मार्ग की टूटफूट, दुर्गमता व कठिन भूगोल में नौकरी करने का अभ्यास कराया जायेगा। लेकिन कुल मिला कर यह एक सुगम व पिकनिकनुमा अवसर ही होगा,
केदारनाथ त्रासदी के वक्त जैसा कष्टपूर्ण व चुनौती भरा मौका तो यह कतई नहीं होगा, जब सरकार को अग्नि परीक्षा के बेहद कठिन दौर से गुजरना पड़ा था। उस वक्त बड़े बड़े आला अधिकारियों, चीफसेक्रेटरी,कलक्टर से लेकर छोटे कर्मचारियों तक को रुद्रप्रयाग  गुप्तकाशी, फाटा तक में कैम्प आफिस लगा कर आपदा राहत कायों की देखरेख कर असली नौकरी करने का कष्ट झेलना पड़ा था  साथ ही  मुख्यमंत्री सहित विधायकों तक की नींद हराम हो गई थी, हालांकि ठोस जमीनी कार्य सेना, अर्धसैनिक बलों व स्वैचिछक संगठनों ने किया था,पर संयोजन प्रबन्धन हेतु सरकार की भी एक भूमिका थी। 

गैरसैण सत्र के मौके पर यह अवांतर प्रसंग इसलिये जेहन में आना लाजमी है कि जब हम उस त्रासद कष्टपूर्ण समय में उतने दुर्गम स्थलों पर गये, ठहरे व सराकारी गैरसरकारी संगठनों के माèयम से एक बदतर सुविधा विहीन पहाड़ में सेवाभाव अथवा मजबूरीवश ही सही समस्या का समाधान कर पाये तो गैरसैण में स्थाई राजधानी बना कर क्यों नहीं रह सकते।
यह आयोजन इस कारण एक मजबूरीनुमा कर्तब्य जैसा ही है। मजबूरी इसलिये कि जनभावना को पटाये रखना है, कर्तब्य इसलिये कि मुद्दा जीवन्त बना रहे तो आज नहीं तो कल उसका लाभ उठाने की दहाड़ लगाई जा सके। हो सकता है गैरसैण स्थाई राजधानी बन ही जाय। लोकतंत्र की गति व आंखमिचौली इसी तरह चलती रहती है, जिसमें कभी रंगमंच भी वास्तविक यथार्थ के रूप में तब्दील हो जाता है।
हम उमीद करते हैं कि आने वाले बच्चों के समान्य ज्ञान में गैरसैण उत्‍तराखंड की राजधानी के रूप में अंकित हो, और वे, वीर चन्‍द्रसिंह गढ़वाली सहित दूसरे तमाम आन्दोलन कारियों को उस इतिहास में पढ़ें.बांचें और जान पाएं कि एक नामालूम से गांव गैरसैण के राजधानी बनने में कैसे कैसे संघर्ष और छद्म मौजूद रहे। दुनिया को खुशहाल बनाने की उम्‍मीद संजाेयी संघर्षशील जनता काे कभी हताश न होने का संदेश भी दे सके और संघर्ष की जीत के लिए छद्मों से निपटने के पाठ भी पढ़ा सके।  


Sunday, January 22, 2012

वोट मांगने की विविध शैलियां

दिनेश चन्द्र जोशी
dcj_shi@rediffmail.com
09411382560 
जैसे गायकी की विविध शैलियां होती हैं,घराने होते हैं, वैसे ही वोट मांगने की भी विविध शैलियां और घराने होते हैं। चुनावी मौसम में इन शैलियों की अदायगी और प्रदर्शन का उत्सवनुमा माहौल होता है। यहां कलाकार नेता होते हें और दर्शक मतदाता, यानी मतदाता के लिए चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात। सो, जनता इस चार दिन की चांदनी के उत्सव में नेताओं की विभिन्न याचक मुद्राओं का दर्शन करती है, आनन्दित होती है और जूते,चप्पल,झापड़,टमाटर,अंडों से परहेज रख कर नेता का अपमान नहीं करती तथा उससे स्वयं का सम्मान करा कर धन्य धन्य हो जाती है।  आधुनिक दौर में जिसे देह भाषा ( बाडी लेंग्वेज)  कहते हैं, उसका प्रयोग भी 'मार्डन' किस्म के नेता  वोट मांगने हेतु करने लगे हैं। एक ऐसे ही युवा नेता ने तय कर रक्खा था, अगर मतदाता साठ साल से उपर का होगा तो, उसके पांव छू कर वोट मांगूगा, अगर प्रौढ़ होगा, चालीस से पचास के बीच का, तो उसके समक्ष हाथ जोड़ूंगा, अगर बीस से चालीस के बीच का होगा तो उसे 'सहारा प्रणाम' कहूंगा, बीस से नीचे का होगा तो 'फ्लाइंग किस' दूंगा।  और सचमुच उसकी इस अन्तिम अदा पर फिदा होकर ,फ्लाइंग किस' के कारण यंग इंडिया ने उसे जिता दिया।
वोट मांगने की देह भाषा (बाडी लेंग्वेज) के  प्रयोग व विश्लेषण हेतु प्रबन्धन संस्थानों ने स्पेशल पैकेज तैयार कर लिये हैं। उनके अनुसार अगर नेता जी की परम्परागत शैली वोट बटोरने में नाकाम साबित हो रही है तो उन्हें तत्काल आधुनिक बाडी लेंग्वेज का प्रदर्शन सीखना चाहिए। यानी 'कीप स्माइलिंग' 'बी पाजीटिव', 'लुक कान्फीडेन्ट' 'आई टू आई कांटेक्ट' 'फोल्डिंग हैंड्स नाट नेसेसरी'( हाथ जोड़ना जरूरी नहीं) आदि आदि।
महानगरों और शहरी क्षेत्रों में यह मार्डन शैली काफी लोकप्रिय हो रही है।
ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में अलबा अभी वही पुरानी शैली से वोट मांगे जा रहे हैं। घिघियाते हुए, झुक कर हाथ जोड़ते हुए, बेशर्म शरारती मुस्कान के साथ थोड़ा लाचार, थोड़ा भिखारी विनम्रता ओढ़ी हुई अकिंचन शैली में।
इधर, मतदाता को भावुकता के चरम पर लाने हेतु नेताओं द्वारा रुदन क्रन्दन शैली का प्रयोग किया जाने लगा है।
भावुक मतदाता विवेकशून्य हो जाता है तथा दयाभाव की वर्षा कर वोट, क्रन्दन शैली के नेता के पक्ष में डाल देता है। इस चुनाव में यह शैली रिले रेस की तरह प्रयुक्त हो रही है। एक नेता का रुदन क्रन्दन इतना स्थाई भाव हो गया कि उसकी देखादेखी दूर दूर के कई अन्य नेताओं ने रो धो कर, आंसू टपका कर, दहाड़े मार कर,  बुक्का फाड़ कर उस शैली को आलम्बन भाव की तरह गले लगा लिया।
कुछ नेता अभी भी अपनी अकड़ शैली के लिए विख्यात होते हैं। इनमें भूतपूर्व राजा,उजड़े हुए नरेश किस्म के नेता होते हैं। ये अपनी अकड़ शैली के बावजूद भी चुनाव में बाजी मार ले जाते हैं। एक ऐसे ही राजा के वंशज
वोट मांगते वक्त जनता के समक्ष कभी भी हाथ नहीं जोड़ते थे। मतदाता को स्वयं ही इज्जतवश हाथ जोड़ने पड़ते थे। नबाबजादे ने हाथ जोड़ने के लिए दो कारिन्दे किराये पर ले रक्खे थे। वे, नबाबजादे की ओर से हाथ भी जोड़ते थे और पांव भी छूते थे। नबाबजादे, बीच बीच में अपनी मूछें ऐंठते रहते थे और आखों से ऐसी आग उगलते थे जैसे मतदाता को भस्म कर देंगे। लेकिन मतदाता नबाबजादे को उनके राजसी खानदान और क्षेत्र में की गई धन वर्षा के कारण हर बार जिता देते थे। एक बार कुछ मतदाताओं ने गल्ती से पूछ लिया, हजूर, आपने संसद में कभी क्षेत्र के विकास हेतु कोई मांग नहीं रक्खी।
वे बोले, 'राजा कभी किसी से कुछ मांगता नहीं है, देता है। आपको क्या चाहिये बोलिये प'
मतदाता बोले, 'सरकार, रेलवे लाइन चाहिए,रेलवे लाइन के आने से क्षेत्र का विकास होगा।'
नबाबजादे बोले, 'मेरी टांसपोर्ट कम्पनी की जीप टोयेटा,बुलेरो गाड़ियां दौड़ती रहती हैं उनमें यात्रा किया करें आप लोग, रियायती पास मुझसे ले जाया करें। मैं रेल मंत्री से रेलवे लाइन नहीं मांग सकता,, वरना राजा किस बात का! उनको अगर रेल कर इंजन चहिये तो खरीद कर दे दूंगा,उनसे मांग नहीं सकता।'
ऐसे अकड़ू नेताओं की शैली अकड़ शैली कहलाती है।
कुछ नेता आते हैं,, ध्यानावस्था में आंखें बन्द किये हुए जैसे जनता के दुख कष्टों के निवारण हेतु जप तप योग कर रहे हों। वे जनता के समक्ष हाथ नहीं जोड़ते उल्टा आशीर्वाद देते हैं, जनता उनके आशीर्वाद से अभिभूत हो कर उनके पैर छूने लगती है। ऐसे सन्त बाबा किस्म के नेताओं की वोट मांगने की द्रौली 'स्थितप्रज्ञ शैली' कहलाती है।
अब ये जनता का अपना अपना नसीब है कि उसके क्षेत्र के भूतपूर्व, अभूतपूर्व,भावी, प्रभावी निष्प्रभावी नेता वोट मांगने की किस शैली में सिद्धथस्त हैं।
 

Thursday, April 8, 2010

दिनेश चन्द्र जोशी की कविता


(दिनेश चन्द्र जोशी की कवितायें इस ब्लोग के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं कहानी-संग्रह राजयोग तीन वर्ष पूर्व प्रकशित हुआ था.उनकी कविताएं जीवन की सहज गति के बीच बह्ते हुए उन चीजों को उठाती हैं जो हर वक्त हमारे सामने रहती हैं लेकिन दृष्टि में नहीं आतीं.जीवन के सहज द्र्श्यों और कार्य व्यापारों को उनकी कविता संवेदना का अनिवार्य अंग बना डालती है. यहां हम उनकी ताजा कविता पाठकों के सामने सगर्व प्रस्तुत कर रहे हैं)
दरी

यह दरी विछी थी घर में
जिसमें बैठ कर बेटी की शादी के मौके पर
बन्नी गा रही थीं मुहल्ले की स्वाभाविक व
निपुण नृत्यांगनाएं
खिलखिला रही थीं हास परिहास करके


कई मौकों पर बिछाया गया , घर के फर्नीचर
सोफों कुर्सियों को हटाकर कमरे के चौरस
फ़र्श पर दरी को,
कितने सारे लोग अटा जाते हैं
कमरे में सामुहिक काम काज के मौके पर
’दरी बडी काम की चीज है’ पिता कहते थे बच्चों से


गोष्ठी, मीटिंग,कथा, कीर्तन, भजन के अनेक अवसरों पर
काम आयी दरी, इसे किन अनाम कारीगरों ने बनाया होगा
बनी होगी यह भदोही या चंदौली में या कि जौल्जेबी
गौचर चमोली में, जहां भी बनी हो , देश में ही बनी होगी
देशी किस्म के कामों के वास्ते

बिछती है दरी बडी बडी सभाओं में
गोष्ठियों .सेमिनारों .कार्यशालाओं में
कवि सम्मेलनों में भी बिछती थी दरी पहले सारी रात
अब न वैसे कवि रहे न श्रोता

दरी बिछती है घर मे शोक के अवसरों पर
पिता की मृत्यु के वक्त जिस पर बैठ कर दहाडें मारती है मां
सांत्वना व ढाढस देती हैं मां को दरी पर बैथी हुई स्त्रियां
दरी खुद भी हिम्मत बंधाती है मां की हथेलियों को
छूते हुए अपने अजीवित स्पर्श से

Wednesday, April 22, 2009

चुनावी कोरस

पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर चुनाव कितना बड़ा झूठ है, इसे कहने की भी अब कोई जरूरत नहीं। चुनने की आजादी के नाम पर खेला जाने वाला झूठा खेल जारी है। क्षेत्र, जाति और धार्मिक भावनाओं को भड़काकर सिर्फ और सिर्फ वोट बटोरने की जरूरी कार्रवाई ने राजनेताओं को व्यस्त किया हुआ है। अपना प्रतिनिधि चुनने की आजादी के नाम पर सिर्फ वोट डालने का अधिकार एक ऐसा षडयंत्र है कि फिर मलते रहो हाथ पूरे पांच साल तक। वास्तविक आजादी क्या अपने प्रतिनिधि को वापिस बुलाने का अधिकार दिए बिना संभव है ? किसी भी निर्वाचन क्षेत्र के कुल मतदाताओं का सिर्फ 10-15 प्रतिशत समर्थन हासिल कर लेने पर ही क्या कोई वास्तविक प्रतिनिधि हो सकता है ? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो इस पूरे खेल के गैर-जनतांत्रिक होने के बहुत साफ दिखते हुए स्तम्भ है। इसके अलावा जमाने की जटिलता में थोड़ा धूमिल से दिखने वाले और भी कई कारण हैं जिन पर विचार किए बगैर वास्तविक आजादी को पहचाना नहीं जा सकता। यहां सवाल है कि आरोप और प्रत्यारोप की उत्तेजना फैलाकर जीवन के जरूरी सवालों को दरकिनार करने की हर चालाकी जनता के साथ एक षडयंत्र नहीं तो और क्या है ? इतने बड़े देश के भीतर दमन के सारे औजारों के जरिए मत पेटियों को भर लेने का मामला एक सांख्यिकी आंकड़े के सिवा दूसरा कुछ नहीं। सिर्फ संख्याबल के द्वारा साम्प्रदायिकता की मुखालफत भी एक ढोंग ही कहा जाएगा। इतने सारे ढोंग और ढकोसलों ने ही जनता के एक सीमित हिस्से को इस झूठे खेल में दिलचस्पी लेने को उकासाया हुआ भी है और किसी ठोस विकल्प की लगभग अनुपस्थित-सी स्थिति ने उसे मजबूर भी किया है कि वह इस पूरे खेल में शामिल न हो तो क्या करे ?
चुनाव के इस मौसम में प्रस्तुत है दिनश चंद्र जोशी की कविता-


दिनेश चन्द्र जोशी


चुनावी कोरस




बेशर्मी की खाल ओढ़ कर
बगुले खड़े हैं हाथ जोड़ कर
लगा गिरगिटों का मेला
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान ।

गठबन्धन की गलबहियां हैं
धूर्त हंसी की बतकहियां हैं
पाखंडियों का रेला है
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान ।

इधर ठगों का जमघट है
उधर माफिया मरघट है
सत्ता का मद फैला है
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान ।

बड़े कपट की चाल चलेंगें
घिघिया कर के तुझे छलेंगें
पग पग पर घोटाला है
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान ।

भ्रष्टानन्द बड़े बड़े
धूर्त शिरोमणि हुए खड़े
गुंडाधीस चेला हैं
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान।

मर्यादा कोने पड़ी है
लोकतन्त्र की खाट खड़ी है
गिद्धों ने नाटक खेला है
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान।

Saturday, October 4, 2008

प्रसिद्ध है नजीबाबाद का पतीसा

दिनेश चन्द्र जोशी कथाकार हैं, कवि हैं और व्यंग्य लिखते हैं। पिछले ही वर्ष उनका एक कथा संग्रह राजयोग प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है उनकी ताजा कविता जो हाल की घटनाओं को समेटे हुए है।


आकाशवाणी नजीबाबाद
दिनेश चन्द्र जोशी


संदेह के घेरे में थे जिन दिनों बहुत सारे मुसलमान
आये रोज पकड़े जा रहे थे विस्फोटों में संलिप्त आतंकी,
आजमगढ़ खास निशाने पर था,
आजमगढ़ से बार बार जुड़ रहे थे आतंकियों के तार
ऐन उन्हीं दिनों मैं घूम रहा था नजीबाबाद में,
नजर आ रहे थे वहां मुसलमान ही मुसलमान, बाजार, गली
सड़कों पर दीख रहीं थी बुर्के वाली औरतें
दुकानों, ठेलियों, रेहड़ियों, इक्कों, तांगों पर थे गोल टोपी
पहने, दाड़ी वाले मुसलमान,
अब्बू,चच्चा,मियां,लईक, कल्लू ,गफ्फार,सलमान
भोले भाले अपने काम में रमे हुए इंसान,
अफजल खां रोड की गली में किरियाने की दुकानों से
आ रही थी खुसबू, हींग,जीरा,मिर्च मशाले हल्दी,छुहारे बदाम की
इसी गली से खरीदा पतीसा,
प्रसिद्ध है नजीबाबाद का पतीसा,सुना था यारों के मुह से,
तासीर लगी नजीबाबाद की
सचमुच पतीसे की तरह मीठी और करारी
'नहीं, नहीं बन सकता नजीबाबाद की अफजल खां रोड से
कोई भी आतंकी', आवाज आई मन के कोने से साफ साफ
नजीबाबाद जैसे सैकड़ों कस्बे हैं देश में,
रहते हैं जंहा लाखों मुसलमान
आजमगढ़ भी उनमें से एक है
आजमगढ़ में लगाओ आकाशवाणी नजीबाबाद
पकड़ेगा रेडियो, जरूर पकड़ेगा।

Wednesday, August 6, 2008

एक रचना का कविता होना

एक साथी ब्लागर ने अपने ब्लाग पर प्रकाशित कविता के बारे में मुझसे अपनी बेबाक राय रखने को कहा. पता नहीं जो कुछ मैंने उन्हें पत्र में लिखा बेबाक था या नहीं. हा समकालीन कविता के बारे में मेरी जो समझदारी है, मैंने उसे ईमानदारी से रखने की कोशिश जरूर की. उस राय को आप सबके साथ शेयर करने को इसलिए रख रहा हूं कि इस पर आम पाठकों की भी राय मिल सके और मेरी ये राय कोई अन्तिम राय न हो बल्कि आप लोगों की राय से हम समकालीन कविताओं को समझने के लिए अपने को सम्रद्ध कर सकें.

आपने टिप्पणी देने के लिए कहा था. बंधु कविता में जो प्रसंग आया है वह निश्चित ही मार्मिक है जैसा की सभी पाठकों ने, जिन्होंने भी अपनी टिप्पणियां छोडी, कहा ही है. पर यहां इससे इतर मैं अपनी बात कहना चाह्ता हू कि किसी भी घटना का बयान रिपोर्ट और रचना में जो फ़र्क पैदा करता है, उसका अभाव खटकता है. फ़िर कविताओं के लिए तो एक खास बात, जो मेरी समझ्दारी कहती है कि वह काव्य तत्व जो भाषा को बहुआयामी बनाते हुए एक स्पेस क्रियेट करे, होने पर ही कविता पाठक के भीतर बहुत दूर तक और बहुत देर तक गूंजती रह सकती है. भाषा का ऎसा रूप ही कविता और गद्य रचना के फ़र्क को निर्धारित कर सकता है वरना तो कुछ पंक्तियों को मात्र तोड-तोड कर लिख देने को ही कविता मानने की गलती होती रहेगी. समकालीन कविताओं को समझने के लिए यह एक युक्ति हो सकती है हालांकि इसके इतर भी कई अन्य बातें है जो एक रचना को कविता बना रही होती हैं.



(इस ब्लाग को अप-डेट करने वालों में दिनेश जोशी हमारे ऐसे साथी हैं जो कहानी, कविता के साथ-साथ व्यंग्य भी लिखते हैं और यदा कदा पुस्तकों पर समीक्षात्मक टिप्पणियां भी। यहां प्रस्तुत है उनकी एक ताजा कविता।)

दिनेद्रा चन्द्र जो्शी

अंधेरी कोठरी


खरीदा महंगा अर्पाटमैन्ट बहू बेटे ने
महानगर में,
प्रमुदित थे दोनों बहुत
मां को बुलाया दूसरे बेटे के पास से
गृह प्रवेश किया,हवन पाठ करवाया।
दिखाते हुए मां को अपना घर
बहू ने कहा, मांजी सब आपके
आशीर्वाद से संभव हुआ है यह सब
इनको पढ़ा लिखा कर इस लायक बनाया आपने
वरना हमारी कहां हैसियत होती इतना मंहगा घर लेने की
मां ने गहन निर्लिप्तता से किया फ्लैट का अवलोकन
आंखों में चमक नहीं / उदासी झलकी
याद आये पति संभवत: / याद आया कस्बे का
अपना दो कमरे, रशोई,एक अंधेरी कोठरी व स्टोर वाला मकान
जहां पाले पोसे बढ़े किये चार बच्चे रिश्तेदार मेहमान
बहू ने पूछा उत्साह से ,कैसा लगा मांजी मकान !
'अच्छा है, बहुत अच्छा है बहू !
इतनी बड़ी खुली रशोई,बैठक,कमरे ,गुसलखाने कमरों के बराबर
सब कुछ तो अच्छा है ,पर इसमें तो है ही नहीं कोई अंधेरी कोठरी
जब झिड़केगा तुम्हें मर्द, कल को बेटा
दुखी होगा जब मन,जी करेगा अकेले में रोने का
तब कहां जाओगी, कहां पोछोगी आंसू और कहां से
बाहर निकलोगी गम भुला कर, जुट जाओगी कैसे फिर हंसते हुए
रोजमर्रा के काम में ।'

Tuesday, June 10, 2008

बुलाकी का उस्तरा और राजधानी

व्यंग्य कथा

दिनेश चन्द्र जोशी 09411382560


बुलाकी को आप नहीं जानते होंगे,जानेंगे भी कैसे, कभी फुटपाथ में सिर घोटाया होता तो जानते भी। बहरहाल बुलाकी को जनवाने के लिये मैं आपका सिर नहीं घुटवाउंगा, आप निश्चिन्त रहें,हां,इस कथा को पढ़ने की जहमत अवश्य करें।

बालों की फ़िसलन पर

बुलाकी के बाप दादा गांव के पुश्तैनी नाई थे। गांव के जमीदारों,सेठ साहुकारों की हजामत बनाया करते थे.लोग कहते हैं उनके उस्तरे में ऐसी सिफत थी कि पता ही नहीं चलता था कब उस्तरा चला और बिना खूं खरोच के अपना काम कर गया। रही बात कैंची की, सुना है ऐसी चलती थी कि पचास फीसदी बाल कम हो जाने के बाद भी पता नहीं चलता था कि बाल कम हुए हैं. यानी कि बाल कट भी जायें और कटिंग हुई कि नहीं इस बात का पता भी न चले।

पहली छब्बीस जनवरी यानी आजाद नाऊ

इस फने हजामत के एवज में उन्हें इनाम इकराम भी खूब मिला करता था. सो, कहा जाता है कि बुलाकी के दादा के जमाने में घर की माली हालत अच्छी थी। बुलाकी के बारे में एक बड़ा दिलचस्प वाकया यह था कि सन पचास में जिस दिन पहली छब्बीस जनवरी मनाई गई,उसी दिन बुलाकी का जन्म हुआ। आजादी की लहर का जोर था और दूर दराज के कस्बों गांवों तक छब्बीस जनवरी मनाये जाने की खबर थी,सो इस कारण बुलाकी की जन्म तिथि लोगों की जुबान पर रट गई यहां तक कि शुरू शुरू में बुलाकी को गांव में कुछ लोग "आजाद नाऊ" के नाम से भी पुकारते थे। आजादी के बाद बुलाकी के बाप दादा का धन्धा हल्का पड़ गया,जमीदारों सेठ साहुकारों का रौबदाब घट गया,उनकी मूछों का बांकपन कम हुआ और हजामत के काम में भी वो बात नहीं रही जो पहले थी,सो बुलाकी के बाप को गर्दिश के दिन देखने पड़े।
थोड़ी बहुत खेती पाती और थोड़ा हजामत का काम चला कर बुलाकी के बाप ने किसी तरह बुलाकी व उसके भाई बहिनों को जवानी तक ला खड़ा किया। हजामत के फन में बुलाकी ने भी पुश्तैनी महारत अवश्य हासिल कर ली थी, लेकिन गांव में हजामत बनाने वालों, बाल कटवाने वालों और सिर घुटाने वालों को कस्बे और शहर की सैलून का फैशन भाने लगा था, दो चार बुजुर्गों व सयानों की खोपड़ी व हजामत के भरोसे बुलाकी का उस्तरा कब तक अपना काम चलाता,ऐसे नामुराद वक्त में एक रोज बुलाकी ने अपनी हजामत वाली बक्सिया उठाई और गांव के पास वाले नजदीकी कस्बे की ओर रूख कर लिया। कस्बे के चौराहे पर बरगद के पेड़ तले मौका देख कर उसने अपनी चटाई तथा हजामत वाली बक्सिया जमा दी।
कस्बे में बुलाकी का धन्धा ठीक ठाक चल पड़ा,कस्बे की आवादी गांव से कई गुना ज्यादा थी। आस पास के गावों से कई लोग कस्बे में सौदा सुलुफ,डाक्टर,हकीम तहसील,स्कूल, नून तेल राशन के चक्कर में आते थे। लगे हाथों कटिंग,मुंडन व हजामत भी बना लेते थे। बुलाकी एक तो सस्ता था ऊपर से मौके की जगह पर बैठा करता था,सो उसके उस्तरे की धार चमकने लगी। बाल तो वो काटता ही था लेकिन जो मजा उसे सिर घोटने में आता था,वो बात हजामत आदि में नहीं थी, सिर घोटने का तो वह एक्सपर्ट ही था। घोटते वक्त जब वह मस्ती में आ जाता था तो घुटे हुए सिर के इंच इंच हिस्से को उंगलियों से चटखाता मालिस करता हुआ चहक उठता था, ग्राहकों से कहता, "भय्या हम आदमी को चेहरा देख कर नहीं खोपड़ी देख कर पहचानते हैं, और अगर घुटी हुई खोपड़ी हो तो कहने ही क्या। एक बार जिस खोपड़ी को हमारा उस्तरा देख लेता है उसे ताजिन्दगी नहीं भूलता। चेहरा पहचानने में हमसे गल्ती हो सकती है,लेकिन खोपड़ी पहचानने में कतई नहीं होगी। आखिर भय्या,खोपड़ी ही तो हमारी रोजी रोटी है, रोजी रोटी को नहीं पहिचानेंगें तो जिन्दा कैसे रहेंगे।"

चेहरे से नही खोपडी से होती है आदमी की पह्चान

कस्बे में बुलाकी की दिनचर्या बड़ी मजेदार चल रही थी,लेकिन एक रोज ऐसा वाकया हुआ कि कस्बे से उसका मन उचट गया। हुआ यूं कि उस दिन सुबह सुबह बौनी के वक्त एक गोल मटोल भारी आवाज व सख्त गलमुच्छों वाली खोपड़ी बुलाकी के समक्ष घुटने के वास्ते प्रस्तुत हुई, खोपड़ी रौबीले अन्दाज में बोली, "ऐ नाऊ जी, फटाफट हजामत बनाओ,और सिर घोटो, जल्दी करो यह काम, टैम नहीं है।"
बुलाकी का उस्तरा यूं भी तैयार ही बैठा था,उसने चेहरे पर ज्यादा गौर न कर फटाफट हजामत बना दी, उसके पश्चात सिर घोटने लगा। यह सिर सामान्य सिरों से कुछ ज्यादा ही बड़ा व गोल मटोल था। इसे घोटने में बुलाकी को बड़ा मजा आया।
काम हो चुकने के बाद भारी भरकम आवाज वाली वह खोपड़ी सिर पर चादर लपेट कर,बुलाकी के हाथ में पांच का नोट पकड़ा कर चलती बनी, बकाया पैसे लौटाने के लिए उसने आवाज मारी,पर खोपड़ी इतनी त्वरित गति से चली गई कि बुलाकी को वे पैसे रखने ही पड़े। बुलाकी को वह व्यक्ति कुछ रहस्यमय कुछ संदिग्ध कुछ भयानक तो अवश्य लगा लेकिन अन्य ग्राहकों में व्यस्त हो जाने के कारण उसके दिमाग से यह बात जाती रही।
उसी दिन दोपहर तीन बजे के लगभग दो पुलिस वाले बुलाकी के पास अकड़ते हुए आये और एक मुच्छैल भयानक किस्म के आदमी का फोटो दिखाते हुए बोले, "देखो, ये आदमी तुम्हारे पास हजामत बनाने तो नहीं आया था।"
बुलाकी ने फाटो को गौर से देखा, चेहरा गलमुच्छों से इतना भरा हुआ था कि स्पष्ट रूप से नजर ही नहीं आ रहा था, हां, सिर का आकार लगभग वैसा ही था।
बुलाकी बोला, "हुजूर, चेहरे पर तो हम ध्यान नहीं दिये,लेकिन एक मूछों वाला आदमी सुबह सुबह बौहनी के वक्त आया था, वह हजामत बनवा ले गया साथ ही सिर भी घुटवा ले गया,हमारे हाथ में पांच का नोट रख कर चला गया। उसके घुटे हुए सिर की तस्वीर हो तो हम पा बता सकते हें कि वही आदमी था।"
पुलिस वाले बुलाकी पर बिगड़ गये,बोले,"तुम साले कैसे नाई हो, आदमी का चेहरा न पहचान कर खोपड़ी पहचानते हो, आईन्दा से चेहरा पहचाना करो, और स्साले गुंडे बदमाशों से घूस लेते हो." उन्होंने बुलाकी को डराया धमकाया साथ ही उसको दो डंडे जमाते हुए बोले,जानते हो वो आदमी जिले का एक नम्बरी गुंडा है,दसियों हत्याओं का इल्जाम है उसके उपर जिसकी तुमने हजामत बनाई है।"
बुलाकी बोला,"सरकार आईन्दा ऐसी गल्ती नहीं करूंगा और चेहरा देख कर उस्तरा चलाउंगा।"


समय सिखा देता है जीवन के रंग ढंग

इस घटना से बुलाकी बेहद परेशान व चिन्तित हो उठा, कस्बे से उसका जी उचट गया। उसके दिल में कस्बे से पलायन की हूक उठने लगी। इस बावत उसने जुगाड़ भी लगाना शुरू कर दिया। नतीजा यह निकला कि उक्त घटना को घटे दो माह भी नहीं बीते होंगे कि बुलाकी जी, कस्बे से कूच कर अपने जिला मुख्यालय की कचहरी के बाहर एक चबूतरे के कोने में अपनी चटाई और बक्सिया सहित जम गये।
जिला मुख्यालय का तो नजारा ही कुछ और था, फिर कचहरी के तो कहने ही क्या।
मुवक्किल, मुहर्रिर वकीलों, पेशकारों के अलावा शहर, गांव, देहात के लागों का रेला हर समय लगा रहता था। पान,सिगरेट,फल चाय,समोसा खस्ता पूड़ी वालों की दिन भर चांदी रहती थी।
चबूतरे के पास ही पीपल के नीचे तीन चार नाई और बैठते थे, उनके पास बकायदा कुर्सी,शीशा,तौलिया व हजामत वाली क्रीम आदि भी थी। उनकी आमदनी भी ठीक थी। बुलाकी ने फिलहाल अपनी चटाई व बक्सिया से ही काम चलाना शुरू किया। उसके हुनर व कारीगरी से प्रसन्न हो कर ग्राहकों की संख्या दिनों दिन बढ़ने लगी. सो जिला मुख्यालय में बुलाकी का काम बढिया चल निकला। समय का पहिया चलता रहा और कब जिला मुख्यालय में बुलाकी को चार पांच वर्ष बीत गये,पता ही नहीं चला।
इस बीच बुलाकी ने वकीलों ,बाबुओं, अफसरों के घर जाकर छुट्टी के रोज उनके बाल काटने का कार्य प्रारम्भ कर के 'डोर टू डोर' सेवा प्रारम्भ कर दी। यहां तक कि उसने दो एक जजों को भी अपने हुनर से प्रसन्न करके उनको नियमित ग्राहक बना लिया था। इस दौरान वह शहरी शिष्टाचार,सीप शउर,चुश्ती नर्ती, बोली बानी व चुतराई से भी वाकिफ हो गया था। उसका भोला देहातीपन कम होता गया और एक शहरी तेज तर्रार किस्म के आदमी के व्यवहार की नकल उसको भाने लगी। अपने उस्तरे के फन की बदौलत उसने कुछ रकम भी जोड़ ली थी सो अपने स्टैन्डर्ड में कुछ इजाफा किया और चटाई बक्सिया के बदले कुर्सी,शीशा व तौलिया वाला स्टेटस हासिल कर लिया।

मेरा मुंडन कोई न कर पायेगा

बुलाकी के राजधानी में बैठने की व्यवस्था क्या हुई कि उसने अपने मृद व्यवहार और मेहनत से आस पास के दुकानदारों,ठेले रेहड़ी पान वालों से दोस्ती गांठ ली, धन्धा भी धीरे धीरे चलने लगा,ग्राहकों की संख्या में आहिस्ता आहिस्ता बृद्धि होने लगी। बुलाकी का परिचय क्षेत्र बढ़ने लगा, राजधानी उसे रास आई। महीने दो महीने में सामूहिक घुटन्ना करवाने वालों की भीड़ चली आती थी। बुलाकी के उस्तरे को अपने करतब का भरपूर प्रदर्द्रान करने का मौका मिलने लगा। उसके अतिरिक्त कैंची का कमाल और हजामत का हूनर भी फलदायी साबित हो रहा था, लिहाजा राजधानी में बुलाकी प्रसन्न था,आमदनी भी बढ़ती जा रही थी। बुलाकी ने 'डोर टू डोर' सर्विस यहां भी जारी रक्खी। छुट्टी के दिन वह आसपास के रिहायशी इलाकों में जाकर सेवा प्रदान कर आता था, इसी सिलसिले में उसने विधायक निवास व मंत्री आवासों तक अपनी पंहुच बना ली थी। वहां पर विधायकों, नेताओं, छुटभय्यों, चमचों व क्षेत्र से आये हुए कार्यकर्ताओं समाजसेवकों, सेविकाओं, खक्ष्रधारियों, गुंडे बदमाशों, मुच्छैल हट्टे कट्टे विशालकाय महापुरूषों की भीड़ भाड़ व आवाजाही लगी रहती थी। वे लोग, दाड़ी हजामत बाल बनवाने हेतु बुलाकी की सेवायें प्राप्त कर लेते थे। इस प्रकार राजधानी में बुलाकी पूरी तौर पर फिट हो चुके थे । राजनैतिक क्षेत्र में भी उनके उस्तरे ने दबदबा बना लिया था। कारोबार भी उसने बढ़ा लिया था, लकड़ी की पक्की दुकान बना कर उसमें शीशा,कुर्सी,कलेन्डर क्रीम,तौलिये का इंतजाम करके दुकान को 'सैलून' का दर्जा दिलवाने योग्य अर्हतायें प्राप्त कर ली थी। एक दो लड़के भी सहयोगी के तौर पर रख लिये थे। कुल मिला कर बुलाकी जी राजधानी के सुपरिचित नागरिक बन गये थे,सिर्फ गांव से बच्चों को लाने की देर थी। जमीन के एक टुकड़े पर छोटी सी कुटिया बनाने की योजना भी उनके दिमाग में आकार लेने लगी थी। इस सारी उन्नति व जमजमाव के चलते बुलाकी को राजधानी में आये हुए आठ दस वर्ष हो गये थे। गांव से कस्बे को कूच करते युवा बुलाकी अब अधेड़ावस्था में पदार्पण कर चुके थे। बालों में सफेदी आ गई थी, चेहरा प्रौढ़ हो गया था, आंखों से उम्र व अनुभव की झलक नजर आने लगी थी। उस्तरा निरन्तर कार्यरत था, आये रोज उस्तरे को राजधानी के अनेकों महापुरूषों के मुंडन करने का सौभाग्य प्राप्त होता जा रहा था।
इसी क्रम में एक रोज बुलाकी के पास कालीदास रोड स्थित मंत्री आवासों में तत्काल पंहुचने का आदेश प्राप्त हुआ। हुआ यह था कि माननीय न्याय मंत्री जी की माता जी का स्वर्गवास हो गया था सो मुंडन हेतु नाई की आवश्यकता थी। बुलाकी से ज्यादा इस काम में सक्षम और कौन हो सकता था। बुलाकी ने तुरन्त इस नेक काम में सहयोग देना प्रारम्भ कर दिया। माननीय मंत्री जी के मुंडन से पूर्व अनेकों छूटभय्ये, चेले चमचे सहयोगी, शुभचिन्तक मुंडन हेतु प्रस्तुत हो गये। मंत्री जी उनकी वफादारी से प्रसन्न हुए,उनका ह्दय पसीज गया।
सेवकों के मुंडन के पश्चात अन्त में मंत्री जी मुंडन हेतु प्रस्तुत हुए। बुलाकी ने उनकी सेवा में अतिरिक्त सावधानी व सफाई से उस्तरा चलाना प्रारम्भ किया। नाम व गुण के अनुरूप मंत्री जी का सिर अन्य सिरों की अपेक्षा ज्यादा बड़ा व गोलाकार था, बुलाकी ने अभी एक तिहाई सिर घोटा ही था कि उसे यह सिर पूर्व परिचित लगा, आधा सिर घोटने के पश्चात तो वह अचानक चौंक कर कांप सा गया, यह तो वही सिर था जिसकी बदौलत कस्बे में पुलिस के डंडे खाये थे। लेकिन यह कैसे हो सकता है, कहां वह गुंडे बदमाद्रा का सिर और कंहा मंत्री जी का। नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता, मुझसे ही कोई गल्ती हो रही है,बुलाकी अजीब पेशोपेश में पड़ गया। पर सिर पहचानने में मुझसे गल्ती नहीं हो सकती चाहे कुछ भी हो जाय,यह सिर सौ फीसदी वही है। बुलाकी डरा,सहमा व आश्चर्यचकित था। किसी तरह इसी मनोदशा में उसने पूरा सिर घोटा,उसके समक्ष वही कस्बे वाला विशाल सिर सम्पूर्ण रूप से साकार हा उठा। डर व भय से बुलाकी का हाथ कांपा और मंत्री जी के कान के पास उस्तरे की हल्की खरोंच सी लगी,मंत्री जी थोड़ा क्रुद्ध से हुए उन्होंने पलट कर बुलाकी का चेहरा घूरा,इससे पूर्व कि बड़बड़ाते,झुंझलाते उनकी तीक्ष्ण सृमति ने बुलाकी को चीन्ह लिया,क्रोध के बदले चेहरे पर आत्मीयता के भाव उभरे,सेवक लोग इस बीच गुस्ताखी के लिए बुलाकी पर बरसने ही वाले थे कि मंत्री जी बोल पड़े,"अरे भाई,नाऊ जी से कोई गल्ती नहीं हुई है, हमही सिर हिला दिये थे,सो खरोच लग गई। इसके साथ ही उन्होंने एक सेवक को हिदायत दे डाली, तुरन्त एक दूसरा नाई बुला कर इनका भी मुंडन किया जाय,ये अपने गांव जवांर के आदमी हैं,ऐसे मौकों पर गांव बिरादरी के लोगों का मुंडन जरूरी होता है,माता जी की आत्मा कों शान्ति मिलेगी।'
बुलाकी बड़ी असमंजस की स्थिति में था,उसने सेवक जी से दूसरा नाई लाने हेतु मना कर दिया,और जिन्दगी में पहली बार अपने ही हाथों से अपना मुंडन करने लगा।


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Wednesday, April 9, 2008

दिनेश चंद्र जोशी की कविता

डांगरी

जब तक साफ सुथरी चमकती रहती है डांगरी
तब तक नहीं लगती असली खानदानी डांगरी,
असली लगती है तभी, जब हो जाती है मैली
चमकते हैं उस पर ग्रीस तेल कालिख के
दागआता है डांगरी के व्यक्तित्व में निखार,
जब मशीन की मरम्मत करता हुआ कारीगर
निकलता हे डांगरी पहना हुआ,
छैल-छबीला, गबरू जवान या चश्मा पहना हुआ
हुआ कोई अनुभवी मिस्त्री ही सही, अचानक प्रकट होता हुआ
मशीन या ट्रक के गर्भ से बाहर
मैली कुचैली धब्बेदार डांगरी पहने हुए
सने हों हाथ ग्रीस या कालिख से और आंखों में
चमक हो, साथ में बत्तीसी निकली हो श्रम के संतोष से, तो
समझ लो सार्थक हो गया डांगरी का व्यक्तित्व।

साफ सुथरी बिना दाग धब्बे की डांगरी
पहनते हैं कई उच्च अधिकारी, प्रबंधक, महाप्रबंधक जब दौरा होता है
कारखाने में किसी विशिष्ट अतिथि मंत्री या प्रधानमंत्री का।
ख्याल आता है, इन सब भद्रजनों को अगर पहना दी जाय
कालिख सनी डांगरी और कर दिया जाय किसी बूढ़े मैकेनिक की
कक्षा में भर्ती, तो कैसा होगा परिदृश्य।
वैसे पहनते रहनी चाहिए डांगरी हर इंसान को जीवन में
एक नहीं कई बार, छूट नहीं मिलनी चाहिए इसकी कवियों,
लेखकों, कलाकारों, मशीहाओं और पंडे पुजारियों बाबाओं को भी।

(दिनेश चंद्र जोशी की इस कविता का पाठ 'संवेदना" की मासिक गोष्ठी में हुआ था। संवेदना, देहरादून के रचनाकारोंे एवं पाठकों का अनौपचारिक मंच है। महीने के पहले रविवार को संवेदना की मासिक गोष्ठियां पिछले 20 वर्षों से अनवरत जारी हैं। 6 अप्रैल 2008 की गोष्ठी में, इस कविता का प्रथम पाठ हुआ। गोष्ठी में पढ़ी गयी अन्य रचनाओं में मदन शर्मा का एक आलेख भी था, जिसमें उन्होंने अपनी पसन्दिदा सौ पुस्ताकों का जिक्र किया। राम भरत पासी ने भी अपनी नयी कविताओं का पाठ किया। सुभाष पंत, डॉ। जितेन्द्र भारती, गुरुदीप खुराना, एस पी सेमवाल, प्रेम साहिल आदि गोष्ठी में उपस्थित थे। )