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Saturday, July 4, 2009

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था

(नागर्जुन की कविता हरिजन गाथा पर एक टिप्पणी)



साहित्य में दलित धारा की वर्तमान चेतना ने दलितोद्वार की दया, करूणा वाली अवधारणा को ही चुनौति नहीं दी बल्कि जातीय आधार पर अपनी पहचान को आरोपित ढंग से चातुवर्ण वाली व्यवस्था में शामिल मानने को भी संदेह की दृष्टि से देखना शुरू किया है। जहां एक ओर दलित धारा के चर्चित विद्धान कांचा ऐलयया की पुस्तक ''व्हाई आई एम नॉट हिन्दू" इसका स्पष्ट साक्ष्य है। वहीं हिन्दी की दलित धारा के विद्धान ओम प्रकाश वाल्मिकी की पुस्तक ''सफाई देवता" को भी इस संदर्भ में देखा जा सकता है। चातुवर्णय व्यवस्था की मनुवादी अवधारणा को सिरे से खारिज करते हुए दलितों को शुद्र मानने से दोनों ही विद्धान इंकार करते हैं।
हिन्दी साहित्य में दलित धारा का शुरूआती दौर ऐसे ही सवालों के साथ विकसित भी हुआ। उसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि अपने शुरूआती दौर में वह प्रेमचन्द के आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद से भी वह टकराता रहा है। यानी एक तरह का घ्ार्षण-संघ्ार्ष, जो स्थापित मानयताओं को चुनौति भी दे रहा है और आलोचना के औजार को पैना करने की दृष्टि से सम्पन्न माना जा सकता है। दलितोद्वार की दया, करूणा वाली अवधारणा जो पहचान के रूप्ा में शब्दावली के तौर पर हरिजन रूप्ा में आई, वह भी अस्वीकार्य हुई है। यहां अभी तक के प्रगतिशील विचार पर शक नहीं पर उसकी सीमाओं को चिहि्नत तो किया ही जा सकता है। थोड़ा स्पष्टता के साथ कहा जाए तो कहा जा सकता है कि दलित साहित्य ने भारतीय समाज की उन सिवनों को उधेड़ना शुरू किया है जो पूंजीवाद विकास के आधे-अधूरे छद्म और सामंती गठजोड़ पर टिका है। साथ ही दलित धारा की इस विकासमान चेतना पर भी सवाल तो अभी है ही कि सिर्फ और सिर्फ सामाजिक बुनावट के षडयंत्रकारी सच को उदघ्ााटित कर देने के बाद भी सामाजिक बदलाव के संघर्ष की उसकी दिशा, बदलाव के संघ्ार्ष की स्थापित वेतना से फिर कैसे अलग है ? संघर्ष का वह मूर्त रूप्ा कैसे भिन्न है ? और दलित चेतना के विचारक अम्बेडकर की वे स्थापित मान्यताएं जो पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर ही एक सुरक्षित जगह घेर लेने तक जाती है, कैसे दूसरे संघर्षों से अपने को अलग करेंगी ?
यह सारे सवाल जिन कारणों से मौजू हैं उसमें नागार्जुन की कविता ''हरिजन गाथा" का एक भिन्न पाठ भी उभरता है। दलित चेतना की दया, करूणा वाली अवधारणा ने दलितों को जो श्ब्द दिया है और जिससे वह इतिफाक नहीं रखती है, नागार्जुन भी उसी शब्द के मार्फत दलितों के प्रति अपनी पक्षधरता को जब रखते हैं तो कविता की सीमाएं चिहि्नत होने लगती हैं। लेकिन यहां यह भी स्पष्ट है कि हरिजन गाथा के उन प्रगतिशील तत्वों को अनदेखा नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने के वक्त तक मौजू थे। जैसे लाख तर्क वितर्क के बाद भी प्रेमचंद के रचना संसार में दलितों के प्रति मानवीय मूल्यों को दरकिनार करना संभव नहीं वैसे ही हरिजन गाथा के उस उत्स से इंकार नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने की वजह है और जिसमें जातिगत आधार पर होने वाले नरसंहारों का निषेघ है।
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था, बावजूद इसके जो कुछ भी हुआ था, वह अमानवीय था। एक यातनादायक कथा कविता का हिस्सा है। हरिजन गाथा ऐसे ही नरसंहार को निशाने पर रखती है और उन स्थितियों की ओर भी संकेत करती है जो इस अमानवीयता के खिलाफ एक नये युग का सूत्रपात जैसी ही है।

चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग
ऐसा नवजातक
न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !

जीवन के उल्लास का यह रंग जिस अमानवीय और हिंसक प्रवृत्ति के कारण है यदि उसे हरिजन गाथा में ही देखें तो ही इसके होने की संभावनाओं पर चकित होते वृद्धों की आशंका को समझा जा सकता है।
यदि इस यातनादायी, अमानवीय जीवन के खिलाफ शुरू हुए दलित उभार को देखें तो उसकी उस हिंसकता को भी समझा जा सकता है जो अपने शुरूआती दौर में राजनैतिक नारे के रूप में तिलक, तराजू और तलवार जैसी आक्रामकता के साथ दिखाई दी थी। और साहित्य में प्रेमचंद की कहानी कफन पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए थी। यह अलग बात है कि अब न तो साहित्य में और न ही राजनीति में दलित उभार की वह आक्रामकता दिखाई दे रही और जिसे उसी रूप में रहना भी नहीं था, बल्कि ज्यादा स्पष्ट होकर संघ्ार्ष की मूर्तता को ग्रहण करना था। पर यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय आजादी के संभावनाशील आंदोलन के अन्त का वह युग, जिसके शिकार खुद विचारवान समाजशास्त्री अम्बेडकर भी हुए ही, इसकी सीमा बना है। और इसी वजह से संघ्ार्ष की जनवादी दिशा को बल प्रदान करने की बजाय यथास्थितिवाद की जकड़ ने संघर्ष की उस जनवादी चेतना, जो दलित आदिवासी गठजोड़ के रूप में एक मूर्तता को स्थापित करती, उससे परहेज किया है और अभी तक के तमाम प्रगतिशील आंदोलनों की उसी राह, जो मध्यवर्गीय जीवन की चाह के साथ ही दिखाई दी, अटका हुआ है। हां वर्षों की गुलामी के जुए को उतार फेंकने की आवाजें जरूर थोड़ा स्पष्ट हुई हैं। हिचक, संकोचपन और दब्बू बने रहने की बजाय जातिगत आधार पर चौथे पायदान की यह हलचल एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हो और ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश् आवाम के जीवन की खुशहाली के लिए भी संघर्षरत हो नागार्जुन की कविता हरिजन गाथा का एक पाठ तो बनता ही है।
संघर्ष के लिए लामबंदी को शुरूआती रूप में ही हिंसक तरह से कुचलने की कार्रवाइयों की खबरे कोई अनायास नहीं। उच्च जाति के साधन सम्पन्न वर्गो की हिंसकता को इन्हीं निहितार्थों में समझा जा सकता है। जो बेलछी से झज्जर तक जारी हैं।
नागार्जुन की कविता हरिजन गाथा कि पंक्तियां यहां देखी जा सकती है जो समाजशास्त्रीय विश्लेषण की डिमांड करती हैं। नागार्जुन उस सभ्य समाज से, जो हरिजनउद्वार के समर्थक भी हैं, प्रश्न करते हुए देखें जा सकते हैं -

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि/हरिजन माताएं अपने भ्रूणों के जनकों को/ खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में/ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।।।

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं/तेरह के तेरह अभागे/अकिंचन मनुपुत्र/जिन्दा झोंक दिये गये हों/प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में/साधन सम्पन्न ऊंची जातियों वाले/सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि/महज दस मील दूर पड़ता हो थाना/और दारोगा जी तक बार-बार/खबरें पहुंचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की

नागार्जुन समाजिक रूप से एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। अमानवीय कार्रवाइयों को पर्दाफाश करना अपने फर्ज समझते हैं और श्रम के मूल्य की स्थापना के चेतना सम्पन्न कवि हो जाते हैं। खुद को हारने में जीत की खुशी का जश्न मानने वाली गतिविधि के बजाय वे सवाल करते हैं। हिन्दी कविता का यह जनपक्ष रूप्ा ही उसका आरम्भिक बिन्दु भी है। सामाजिक बदलाव के सम्पूर्ण क्रान्ति रूप को ऐसी ही रचनाओं से बल मिला है। वे उस नवजात शिशु चेतना के विरुद्ध हिंसक होते साधन सम्पन्न उच्च जातियों के लोगों से आतंकित नहीं होती बल्कि सचेत करती है। उसके पैदा होने की अवश्यम्भाविता को चिहि्नत करती है।
श्याम सलोना यह अछूत शिशु /हम सब का उद्धार करेगा
आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का / बेडा सचमुच पार करेगा
हिंसा और अहिंसा दोनों /बहनें इसको प्यार करेंगी
इसके आगे आपस में वे / कभी नहीं तकरार करेंगी।।।






-विजय गौड़

कविता कोश के सम्पादक अनिल जनविजय जी के आदेश पर लिखी गई यह टिप्पणी इससे पहले यहां प्रकाशित हुई है।

Tuesday, May 27, 2008

एक विषय दो पाठ

(ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी गयी हैं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।)

नागार्जुन साधारण के अभियान के कवि हैं। वे बड़ी सहजता से सौन्दर्य और व्यवहार की हमारी बनावटी और जन विरोधी समझ को तहस नहस कर डालते हैं। इतना ही नहीं वे पाठक को नए सौन्दर्य आलोक से परिचय कराते हैं। वो सच्ची समझ और आनन्द से भर उठता है। क्योंकि अपनी दुनिया को फिर से अन्वेषित कर पाने के लिए ज़रुरी नैतिक तार्किकता और विश्वास उनकी रचनाओं में बिना किसी बौद्धिक पाखंड के उपलब्ध हो जाता है। "पैने दांतों वाली" रचना में मादा सूअर मादरे हिन्द की बेटी है। हम जानते हैं कि सूअर, उससे जुड़े लोग और परिवेश को हिकारत से ही देखा जाता है। यह कविता बड़ी आसानी से इस दृष्टिकोण को तोड़-फोड़ देती है। मादा सूअर के बारह थन, जैसा कि सामाजिक उर्वरता को केन्द्र में लाकर रख देते हैं। भाषा ओर शिल्प साधने की अखरने वाली कोशिश नागार्जुन की कविता में ढूंढनी मुश्किल है। कविता का बीज कथा की ऊष्मा में ही स्फुटित होता है। 'मादरे हिन्द की बेटी' मुहावरा देशकाल को विस्तृत और सघन करता है।

वीरेन डंगवाल की रचना में बारिश में घुलकर सूअर अंग्रेज का बच्चा जैसा हो जाता है। हमारे बीच बातचीत में अंग्रेज शब्द व्यक्तित्व की शान ओ शौकत के लिए भी किया जाता है। सौन्दर्यबोध की हमारी इस जड़ता को इस पद में ध्वस्त होते देखना भी सुकून देता वाला है। हमारे जीवन की बुनावट आने वाली पंक्तियों में लगाव और कौतुक के साथ व्यक्त होती है। इसमें गाय, कुत्ता,घोडा भी शामिल हैं। चाय-पकौड़े वाले या बीड़ी माचिस वाले भी हैं। डीजल मिला हुआ कीचड़ भी अपने जीवन का हिस्सा है। बारिश में सभी जमकर भीगते हैं। सूअर के साथ हमारे हृदय में ठंडक सीझ कर पहुंचती है ओर आनन्द से भर देती है।

पैने दांतों वाली
नागार्जुन

धूप में पसर कर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर---

जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली!

लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिजाज ठीक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुंहे छौनो की रग-रग में
मचल रही है आखिर मां की ही तो जान!

जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पसर कर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है!
पैने दांतों वाली---

सूअर का बच्चा
वीरेन डंगवाल

बारिश जमकर हुई, धुल गया सूअर का बच्चा
धुल-पुंछकर अंग्रेज बन गया सूअर का बच्चा
चित्रलिखी हकबकी गाय, झेलती रही बौछारें
फिर भी कूल्हों पर गोबर की झांई छपी हुई है
कुत्ता तो घुस गया अधबने उस मकान के भीतर
जिसमें पड़ना फर्श, पलस्तर होना सब बाकी है।

चीनी मिल के आगे डीजल मिले हुए कीचड़ में
रपट गया है लिये-दिये इक्का गर्दन पर घोड़ा
लिथड़ा पड़ा चलाता टांगें आंखों में भर आंसू
दौड़े लगे मदद को, मिस्त्री-रिक्शे-तांगेवाले।

राजमार्ग है यह, ट्रैफिक चलता चौबीसों घंटे
थोड़ी सी बाधा से बेहद बवाल होता है।

लगभग बन्द हुआ पानी पर टपक रहे हैं खोखे
परेशान हैं खास तौर पर चाय-पकौड़े वाले,
या बीड़ी माचिस वाले।
पोलीथिन से ढांप कटोरी लौट रही घर रज्जो
अम्मा के आने से पहले चूल्हा तो धौंका ले
रखे छौंक तरकारी।

पहले दृश्य दीखते हैं इतने अलबेले
आंख ने पहले-पहले अपनी उजास देखी है
ठंडक पहुंची सीझ हृदय में अदभुद मोद भरा है
इससे इतनी अकड़ भरा है सूअर का बच्चा।