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Tuesday, October 2, 2012

कुछ मन की बातें

पिछले दो तीन महीनों की ऐसी व्यस्तता जिसमें लिखना पढ़ना संभव न हो पाया, उससे निजात मिली है। उस दौरान ब्लाग भी अपडेट करना संभव न हुआ और ब्लाग जगत की खबरों से भी बहुत ज्यादा परिचित न रह पाया। फिर से रूटीन में लौटना चाहता हूं लेकिन इतने दिनों की मानसिक स्थिति वापिस लौटने में आलस बनती रही है। अपने भीतर के आलस से लड़कर कल से कुछ शुरूआत संभव हुई। सोच रहा था पहले ब्लाग अपडेट करूं। लेकिन क्या लिखूं यह विचारते ही एक ऐसा पाठक जेहन में उभर आया, जिससे कभी मिलना संभव न हुआ। हां ब्लाग की दुनिया के उस जबरदस्त पाठक से बहुत से पत्र व्यवहार हुए। तीखे बहसों से भरे वे ऐसे पत्र हैं जो मुझे ऊर्जा देते हैं। उनमें से एक पत्र और जवाब में दिये गये खुद के पत्र को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। आगे भी मन हुआ तो वे दूसरे पत्र रखना चाहूंगा जिसमें मेरी रचनाओं पर भी उस साथी पाठक की तीखी आलोचनात्मक टिप्पणियां दर्ज हैं।
अपनी आदत के मुताबिक इन पत्रों की वर्ड फ़ाइल में न तो मैंने ही कोई तिथि दर्ज की है न ही साथी पाठक के पत्र पर कोई तिथि दर्ज है। मेल में जरूर तिथियां मौजूद है। लेकिन जब पत्रों की फ़ाइल में वे मौजूद नहीं तो उन्हें दर्ज न करने  की छूट ले रहा हूं ताकि इधर घटी बहुत सी घटनओं के संदर्भ में भी इसे पढ़ पाना संभव हो सके। वि.गौ.
प्रिय मित्र संदीप
क्या ही अच्छा हो कि जिस गिरोहगर्दी के बारे में मैंने अपनी चिन्ताएं रखीं, उसके लिए कोई सांझी कार्रवाई जैसी स्थितियां पैदा हों !!! मैं नहीं जानता कि आप मेरी बातों को सिर्फ एक व्यक्ति की एकल कार्रवाई तक सीमित क्यों मान रहे हैं। मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि साहित्य में ही नहीं जीवन के कार्यव्यापार के किसी भी क्षेत्र में बदलाव की सकारात्मक संभावना की तस्वीर को मैं बिना समान विचार के साथियों के सांझेपन और दोस्ताना सहमति में पहुंचे बगैर संभव नहीं मानता हूं। हां, यह जरूर है कि साहित्य की दुनिया में मेरे द्वारा की जा रही ऐसी पहलकदमियां समान विचारों वाले बहुत ही सीमित साथियों के चलते कई बार एकल जैसी दिखती हुई हो सकती है। लेकिन वे नितांत एकल तो शायद ही होती हो। आपको भी मैं एक समान विचारों वाले मित्र जैसा ही तो मानने लगा हूं। आपके पत्र और उनके मार्फत हमारे बीच के संवाद को क्या सांझापन नहीं कह सकते हैं ? हां, यह ऐसा सांझापन है जिसे शायद कई बार आप भी और मैं भी एकल ही समझ रहे हों। पर मैं इसे एकल तो कतई नहीं मानने को तैयार हूं, वह भी तब-जब हमारे बीच का संवाद, यदा-कदा ही सही, मध्यवर्गीय शालीनता की सीमाओं के पार निकल जा रहा हो और विचारों की आपसी टकराहट मुझे तो कई बार अपनी धारणाओं पर फिर से विचार करने को मजबूर करने लग जा रही हो। संदीप जी आपने रचना में एजेण्डे के बरक्स ट्रीटमेंट की स्वायतता की जो बात कही, वह एकदम दुरस्त बात है। यहां कहना चाहूंगा कि ट्रीटमेंट को ही कई बार एजेन्डा मानने की जिद ही है जो कलावाद की अंधी गलियों की ओर बढ़ रही होती है। रचना में प्रतिबद्धता की बजाय सिर्फ भाषा और शिल्प की व्याख्या करने वाली गैर वैज्ञानिक आलोचनाओं ने भी रचनाकारों के भीतर महत्वाकांक्षओं के खराब बीज रोपें हैं जिसकी वजह से निजी अनुभवों को समष्टी तक पहुंचाने वाली धमन भट्टी का ताप सिर्फ चमकदार भाषा और अनूठे शिल्प की कवायद में बेकार जाता हुआ है। वरना खूबसूरत अभिव्यक्तियों से भरे उजले टुकड़े न तो ऊर्जावान रचनाकार देवी प्रसाद मिश्र की रचनाओं में दिखते और न ही उदय प्रकाश की रचनाओं में। रचनाकारों के भीतर का आत्मबोध भी है जो उन्हें अपनी आलोचनाओं को बरदाश्त करने की ताकत नहीं दे रहा होता और न ही उससे टकराने की मानसिकता बना रहा होता है। ऐसे में गिरोहगर्द साथियों की जरूरत ही तीव्रता से महसूस होती है। तो तय जाने मेरी टिप्पणियां सिर्फ उस आलोचना की पुकार ही हैं जो एक गम्भीर रचनाकार के साथ दोस्ताना व्यवहार बरतते हुए खुलेपन के साथ हों। राग-द्वेष से उनका कोई लेना देना हो। एक जनतांत्रिक पहलकदमी उनका शुरूआती कदम हो। यानी मेरा मानना है कि यह भी वैसे ही ट्रीटमेंट का मामला है, एजेन्डे का नहीं जो कई बार एकल दिख सकता है। वरना यह जाने कि मैं, जिसको आप उसके लिखने भर से जान रहे हैं, देखते होंगे कि साहित्य की स्थापित दुनिया में अदना सा व्यक्ति है लेकिन उसके बाद भी कुछ कह पाने की हिम्मत जुटा पा रहा होता है तो स्पष्ट है कि अपने जैसे दूसरे साथियों से बहस मुबाहिसें में उलझ कर ही ताकत पाता है। हां, जैसा कि हिन्दी साहित्य का वर्गीय चरित्र उसमें हिस्सेदारी कर रहे रचनाकारों से बना है, वह मध्यवर्गीय है। जहां अपनी असहमतियों को रखना एक शालीन चुप्पी की तरह हो रहा है। बस मैंने उस शालीनता से एक हद तक थोड़ा परहेज करने की कोशिश की हुई है। हां मैं पूरी तरह मुक्त हूं, ऐसी गलतफहमी मुझे नहीं। असहमति की यह शालीन चुप्पी भी सांझेपन से ही टूट सकती है। पर किसी न किसी को तो वक्त बेवक्त उसे मुखर होने देने की संभावना खोजनी ही होगी। ऐसा मैं ही नहीं और भी कई दूसरे लोग है जो वक्त बे वक्त करते भी हैं। बल्कि कहूं कि ब्लाग की इस नई बनती दुनिया में यह होने की संभावनाएं भी दिखाई देती हैं। यदि सांझापन बढ़ा तो गोष्ठियों के वे ऑपरेटिंग पार्ट जो प्रतिबद्धतओं की वकालत करते हों जरूर ही बढ़ेंगे वरना उनका रूप तो रचनाकारों के आपसी मिलने जुलने और उसी गिरोहगर्द दुनिया को आगे बढ़ाने वाला है। उनके भीतर स्वीकार्य होकर ही अपनी बात की जा सकती है, बाहर खड़े होकर तो कहने की आज गुंजाइश ही नहीं। आपके पत्र के इंतजार में रहूंगा।
विजय


 मित्र विजय जी
 आप का पत्र पढ़ा। और आपकी चिन्ताओं से भी अवगत हुआ। आप बहुत पैशन के साथ पत्र लिखते हैं- यह मुझे बेहद सुकून देता है। मित्र आपकी चिन्ताएं बेहद सामयिक हैं और जरूरी भी। दरअसल आज साहित्य जहां ठहरा हुआ है-वहां से हम संकट के अनेक आयाम देख सकते हैं। वामिक जौनपुरी का एक शेर याद आ रहा है- ज़िन्दगी कौन सी मंज़िल पर खड़ी है आकर आगे बढ़ती भी नहीं राह बदलती भी नहीं साहित्य में प्रगतिशील पक्षधरता रखने वाले जो चन्द लोग हैं उन पर उपरोक्त शेर सटीक बैठता है। सत्ता प्रतिष्ठानों में आकण्ठ डूबे लोगों का यह संकट नहीं है। वे तो हर दिन राह बदलते रहते हैं। जनपक्षधर साहित्यकारों को भी यह मानने में अक्सर दित होती है कि साहित्य का अपना कोई स्वतन्त्र एजेण्डा नहीं होता। साहित्य का भी वही एजेण्डा होता है जो समाज का एजेण्डा होता है। साहित्य की स्वायत्ता उसके अपने स्वतन्त्र एजेण्डे में नहीं वरन उस एजेण्डे के 'ट्रीटमेंट" में होती है। यह और बात है कि बहुत से लोग इस 'ट्रीटमेंट" को ही साहित्य का स्वतन्त्र एजेण्डा घोषित कर देते हैं। खैर, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य को "गिरोहगर्दों" से छुड़ाने का काम हमेशा विचारधारा (जिसे कुछ लोग विजन कहना भी पसन्द करते हैं) ,सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन और आन्दोलन की अन्योन्यक्रिया से बनने वाले ठोस या तरल साहित्यिक संगठन करते हैं। भारत में प्रगतिशील लेखक संघ व इप्टा के शुरुआती वर्षों में आप इसकी आधी-अधूरी झलक देख सकते हैं। हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आज हम इन सभी क्षेत्रों में बेहद पिछड़े हुए हैं। बल्कि सच कहें तो हमें इसका अहसास भी बहुत कम है। पिछले पत्रों में मैने इस लिए कहा था कि गिरोहगर्द स्थितियां तो सिम्टम मात्र है हमें ज्यादा समय व ऊर्जा उपरोक्त समस्याओं पर विचारविमर्श करने व उसका कोई छोटा ही सही ऑपरेटिंग पार्ट निकालने पर खर्च करना चाहिए। अभी मैं अक्टूबर में उदयपुर में हुयी ''संगमन" की गोष्ठी की रपट पढ़ रहा था। आप खुद बताइये कि इस दो दिवसीय गोष्ठी में शाम को उदयपुर घूमने के अलावा इस गोष्ठी का ऑपरेटिंग पार्ट क्या था। आज 99 प्रतिशत गोष्ठियां ऐसी होती हैं जिनका कोई ऑपरेटिंग पार्ट नहीं होता। क्या साहित्य में कोई सामूहिक जिम्मेदारियां नहीं होती। और यदि होती हैं तो इसका ऑपरेटिंग पार्ट क्या होगा।यहां मै उन गोष्ठियों की बात कर रहा हूं जो छोटी जगहों पर और छोटे पैमानों पर होती हैं और जिसमें हम आप जैसे लोग भाग लेते हैं। उन गोष्ठियों की बात नहीं कर रहा हूं जो सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा कराए जाते हैं। मित्र, यह टॉलस्टॉय का जमाना नहीं है। जहां एक सामन्त अपने खूबसूरत आश्रम में बैठ कर लिखते हुए "रूसी क्रान्ति का चितेरा" बन जाए। यह बहुत जटिल वर्गीय संरचना व उथल पुथल वाला तेज भागने वाला समय है। खैर, इसपर फिर कभी। समाज के हर क्षेत्र की तरह साहित्य पर भी वर्गीय प्रभावों का पूरा पूरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए साहित्य में भी वर्गीय धु्रवीकरण की स्थितियां मौजूद होती हैं। हालांकि यह थोड़ा जटिल रूप में होती हैं। अत: यहां भी समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह ही गिरोहगर्दी को सामूहिक प्रयासों से ही तोड़ा जा सकता है। गिरोहगर्द स्थितियों की व्यक्तिगत आलोचना महज सहायक भर हो सकती हैं। वह भी बहुत कम सीमा तक। शायद मैं आपको कुछ स्पष्ट कर पाया। मुक्तिबोध के समय भी लगभग यही स्थितियां थीं। हां अन्तर अवश्य था। पहले प्रगतिशील लेखक संघ, परिमल, कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम जैसे संगठन संगठन की तरह थे। और ये संगठन के नार्म-फॉर्म कमोबेश निभाते भी थे। लेकिन आज ये सभी पतित होकर (कुछ तो इस प्रक्रिया में अपना अस्तित्व भी खो चुके हैं) संगठन से गिरोह में बदल गए हैं। जिससे स्थितियां और दुरूह हो गयी है- विशेषकर उन नए साहित्यकारों के लिए जो साहित्य में एक सामाजिक उद्देश्य लेकर प्रवेश करते हैं। तो इस बार इतना ही। मैने आपको बोर तो नहीं किया। दरअसल आपकी चिन्ताएं यह आश्वस्त करती हैं कि हम अकेले नहीं हैं। इस लिए आपसे बात करके एक तरह का सुकून मिलता है। इधर कुछ नया तो पढ़ा नहीं। हां एनबीटी से लोककथाओं के संकलन की एक किताब आयी है उसे ही पढ़ रहा हूं। 
पत्र की प्रतीक्षा में 
संदीप