Showing posts with label पुरस्कार. Show all posts
Showing posts with label पुरस्कार. Show all posts

Monday, January 25, 2010

साहित्य की स्वाधीन और जनपक्षधर परंपरा का उपहास है समसुंग पुरस्कार -जन संस्कृति मंच

जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य सुधीर सुमन के हवाले से जारी यह  प्रेस बयान  प्रतिरोध की एक जरूरी पहल है, इसी आशय के साथ इसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।


समसुंग कंपनी और साहित्य अकादमी की ओर से दिया जा रहा टैगोर साहित्य पुरस्कार साहित्य अकादमी की स्वायत्ता, भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा और टैगोर की विरासत के ऊपर एक हमला है। दे्श की तमाम भाषाओं के साहित्यकारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों को इस प्रवृत्ति का सामूहिक तौर पर प्रतिरोध करना चाहिए--- साहित्य अकादमी को सत्तापरस्ती और पूंजीपरस्ती से मुक्त किया जाना चाहिए।
जिस तरह साहित्य अकादमी ने लेखकों का नाम चयन करके पुरस्कार के लिए समसुंग के पास भेजा है वह भारतीय साहित्यकारों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाला कृत्य है और इससे साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लग गया है। क्या अब इस दे्श की साहित्य अकादमी समसुंग जैसी कंपनियों के सांस्कृतिक एजेंट की भूमिका निभाएगी? यह खुद अकादमी के संविधान का उपहास उड़ाने जैसा है।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिए जाने वाला यह पुरस्कार स्वाधीनता और जनता के लिए प्रतिबद्ध इस दे्श की लंबी और बेमिसाल साहित्यिक परंपरा पर कुठाराघात के समान है। बेशक दे्श की ज्यादातर पार्टियां और उनकी सरकारें साम्राज्यवादपरस्ती और निजीकरण की राह पर निर्बंध तरीके से चल रही हैं। दे्शी पूंजीपति घराने भी साहित्य-संस्कृति को पुरस्कारों और सुविधाओं के जरिए अपना चेरी बना लेने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, बावजूद इसके दे्श के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों की बहुत बड़ी तादाद अपनी रचनाओं में इनका विरोध ही करती रही है। साहित्य अकादमी और समसुंग के पुरस्कारों के जरिए इस विरोध को ही अगूंठा दिखाने का उपहासजनक प्रयास किया जा रहा है और इसके लिए समय भी सोच समझकर चुना गया है। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पूरे देश को एक तरह का संकेत देने की तरह है कि जैसी साम्राज्यवादपरस्त जनविरोधी अर्थनीति पिछले दो दशक में इस दे्श पर लाद दी गई है, वैसे ही मूल्यों को साहित्य में प्रश्रय दिया जाएगा और साहित्य अकादमी जैसी अकादमियां इसका माध्यम बनेंगी। बे्शक साहित्य अकादमी सरकारी अनुदान से चलती है, मगर इसी कारण उसे सरकारी संस्कृति का प्रचार संस्थान बनने नहीं दिए जा सकता। जिस पैसे के जरिए यह अकादमी चलती है वह पैसा जनता के खून-पसीने का है और इसीलिए उस संस्था का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के जशन का ठेकेदारी ले लेना आपत्तिजनक है। इस पुरस्कार का विरोध करना साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ इस दे्श की जनता का भी फर्ज है।
साहित्य अकादमी को और भी स्वायत्त बनाने और सही मायने में एक लोकतांत्रिक दे्श की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी बनाने की जरूरत है। जिस शर्मनाक ढंग से समसुंग के समक्ष समर्पण किया गया है उसे देखते हुए सवाल खड़ा होता है कि क्या साहित्य अकादमी की विभिन्न समितियों में जो लेखक हैं, वे इस हद तक पूंजीपरस्त हो चुके हैं। उनका यह विवेकहीन निर्णय इस जरूरत को सामने लाता है कि अकादमी को लोकतांत्रिक बनाया जाए और उसे सत्तापरस्ती से मुक्त किया जाए।
टैगोर ने साहित्य-संस्कृति, शिक्षा और विचार को जनता से काटकर इस तरह समसुंग जैसी किसी कंपनी की सेवा में लगाने का काम नहीं किया था। जबकि आज साहित्य अकादमी ठीक इसके विपरीत आचरण कर रही है। यह टैगोर की विरासत के साथ भी दुर्व्यवहार है। देश के तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और लोकतंत्रपसंद-आजादीपसंद जनमत का ख्याल करते हुए पुरस्कृत लेखकों को भी एक बार जरूर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे किन मूल्यों के साथ खड़े हो रहे हैं और इससे वे किनका भला कर रहे हैं। साहित्य मूल्यों और आदर्शों का क्षेत्र है। बेहतर हो कि वे उसके पतन का वाहक न बनें और इस पुरस्कार को ठुकराकर एक मिसाल कायम करें। 25 जनवरी को पुरस्कार समारोह के वक्त अपराह्न 3 बजे जन संस्कृति मंच के सदस्यों समेत दिल्ली के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी ओबेराय होटल के सामने जो शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल होना चाहिए।
         

Friday, January 8, 2010

पुरस्कार का एक अर्थ होता है प्रतिफल

"समांतर कोश में पुरस्कार के तमाम अर्थों में से एक है- प्रतिफल। अब यह प्रतिफल किसका?"
साहित्य और पुरस्कार के सवाल पर अशोक कुमार पाण्डे की यह टिप्पणी हिन्दी साहित्य की दुनिया की उन हलचलों को पकड़ते हुए जो वर्ष 2009 को आंदोलित करती रहीं, कुछ जरूरी सवाल छेड़ रही है। अशोक के परिचय के तौर पर इतना ही कि कविता, कहानी के साथ-साथ आलोचना लिखते हैं। हिन्दी का ब्लाग जगत उन्हें न सिर्फ एक जिम्मेदार टिप्पणीकार के रूप में जानता है बल्कि एक सजग और मानवीय सरोकारों से जुडे सवालों भरी पोस्टों को अपने ब्लागों में पोस्ट अपडेट करने वाले ब्लागर के रूप में भी पाता है। 






साहित्य के विकास में पुरस्कारों की भूमिका

अशोक कुमार पाण्डेय


इस नवसाम्राज्यवादी समय में संस्ह्नति, साहित्य और कला भी सर्वग्रासी बाजार से मुक्त नहीं है। वैसे ऐसा भी नहीं है कि साहित्य में पुरस्कारों की अवधारणा कोई नयी चीज है। दरअसल हर क्षेत्र में हमेशा से ही दो धारायें मौजूद रही हैं- एक वह जो राज्यव्यवस्था से नाभिनालबद्ध हो अपना मूल्य उगाहती रहती है तो दूसरी वह जो समाज का जैविक हिस्सा बनकर इसके सार्थक बदलाव के लिये अपना योगदान देती है। सामंतकालीन युग में भी एक तरफ केशव और बिहारी जैसे राज्याश्रित कवि थे तो दूसरी तरफ कबीर जैसे विद्रोही जनकवि। लेकिन पहली धारा के लोग वर्तमान में महत्व भले पा जायें इतिहास में तो जनपक्षधर रचनाकार ही जीवित रहता है।
एक साहित्यकार का मूल्यांकन उन पुरस्कारों से नहीं होता जो उसे राज्यव्यवस्था या श्रेष्ठिवर्ग देता है , उसका मूल्यांकन समय और समाज में उसके हस्तक्षेप से निर्धारित होता है। सार्त्र ने नोबेल इसलिये ठुकरा दिया था कि वह इसे देने वालों की वर्गीय भूमिका के विरुद्ध सर्वहारा के पक्ष में खड़ा था। क्या इससे वह कमतर साहित्यकार साबित होता है? ब्रेख्त, नेरुदा, नाजिम हिकमत, प्रेमचंद, गोर्की, लोर्का, निराला, मुक्तिबोध, शील या नागार्जुन को हम उन्हें मिले पुरस्कारों से नहीं उनकी युगप्रवर्तक जनपक्षधर रचनाओं और तदनुरूप जीवन से जानते हैं।

आज जिस तरह वरिष्ठ से लेकर बिल्कुल युवा साहित्यकारों में पुरस्कारों के लिये आपाधापी मची है यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि राज्याश्रित कवियों की ही भांति आज भी साहित्यकारों का एक तबका बस पुरस्कारों और सम्मान के लिये ही लिख रहा है। जिन्हें बड़े पुरस्कार नहीं मिल पाते उन्हें पुरस्कार देने के लिये शहर-शहर में छोटी-बडी दुकानें खुली हैं। हालत यह है कि अब तो ऐसी संस्थायें भी उपलब्ध हैं जो इन पुरस्कारों के बदले लेखकों से धन भी वसूल रही हैं।
समांतर कोश में पुरस्कार के तमाम अर्थों में से एक है- प्रतिफल। अब यह प्रतिफल किसका? निश्चित तौर पर पुरस्कारप्रदाता के हित में किये गये किसी कार्य का। जब कोई साहित्यकार किसी संस्था से पुरस्ह्नत होगा तो निश्चित तौर पर प्रभावित भी। पुरस्कारों का एक पक्ष प्रोत्साहन भी निश्चित रूप से है। ब्राजील की महान लोकगायिका मारिओ सूसो को उनके स्कूल के दिनों में मिले एक पुरस्कार ने उनका जीवन बदलकर रख दिया। उससे मिली प्रेरणा ने उनको वह ताकत दी की अपने क्रांतिकारी गानों से उन्होंने पूरे लैटिन अमेरिका में एक नयी चेतना का प्रसार किया। कम से कम आजादी के तुरंत बाद साहित्य एकेडमी जैसी तमाम संस्थाओं के गठन के पीछे भी एक हद तक यही उद्देश्य था। आरंभिक दौर में उन्होंने सकारात्मक भूमिका भी निभाई। लेकिन तमाम सरकारें, पूंजीपतियों के धन से चलने वाली संस्थायें इत्यादि जो पुरस्कार साहित्यकारों को देती हैं उनका एकमात्र उद्देश्य प्रोत्साहन देना नहीं होता अपितु कहीं न कहीं वे साहित्य को नियंत्रित तथा अपने हित में अनूकूलित करना चाहती हैं और हमारे समय में इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। कांग्रेसी सरकारों के दौर में दिये गये पुरस्कार उसके हितों के अनुरूप थे तो भाजपा के शासनकाल में दक्षिणपंथ के एजेण्डे को ध्यान में रखकर पद एवं पुरस्कार निर्धारित किये गये जिसके लोभ में तमाम लोगों ने अपने पाले भी बदले। इस तरह इन पुरस्कारों ने साहित्य की दिशा भी बदली है। अभी हाल में जब विष्णु खरे ने सैमसंग जैसी कंपनी के साहित्य एकेडमी से हुए करार पर आपत्ति जताई तो एक युवा लेखक ने इस करार का स्वागत करते हुए साहित्य को बाजार से जोडने की हिमायत की। पुरस्कारों का ही प्रभाव है कि कविता और कहानी में बेहद वाचाल लेखक समाज के तमाम मुद्दों पर जमीन पर बिल्कुल खामोश नजर आता है। लेखन और जीवन के बीच की खाई निरंतर गहरी होती गयी है।


आज जिस तरह वरिष्ठ से लेकर बिल्कुल युवा साहित्यकारों में पुरस्कारों के लिये आपाधापी मची है यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि राज्याश्रित कवियों की ही भांति आज भी साहित्यकारों का एक तबका बस पुरस्कारों और सम्मान के लिये ही लिख रहा है। जिन्हें बड़े पुरस्कार नहीं मिल पाते उन्हें पुरस्कार देने के लिये शहर-शहर में छोटी-बडी दुकानें खुली हैं। हालत यह है कि अब तो ऐसी संस्थायें भी उपलब्ध हैं जो इन पुरस्कारों के बदले लेखकों से धन भी वसूल रही हैं। हमारे अपने शहर में भी ऐसे खरीदे पुरस्कारों सहित अपने फोटो अखबारों में छपाने वाले साहित्यकारों की कोई कमी नहीं है।

पुरस्कारों के अतिरेक और पाठकों के अभाव से स्थिति यह बनी है कि आज साहित्य चर्चा के केन्द्र से बाहर जा रहा है और पुरस्कार तथा सम्मान चर्चा के केन्द्र में है। इस आपाधापी में वैचारिक प्रतिबद्धता, सामाजिक सरोकार और लेखकीय आत्मसम्मान जैसी चीजें पीछे छूट गयी हैं। अभी एक समय सांप्रदायिकता के खिलाफ सशक्त कहानियां लिखने वाले कहानीकार उदयप्रकाश गोरखपुर की मिलिटेंट हिन्दू राजनीति के अगुआ आदित्यनाथ से पुरस्कार ले आये तो 1857 में अंग्रेजों का साथ देने वाले अयोध्या के एक पूर्व राजा के नाम पर स्थापित पुरस्कार को स्वीकार करने वालों में उनके साथ मंगलेश डबराल जैसे प्रतिष्ठित कवि भी हैं। पिछले दिनों विष्णु खरे ने भारतभूषण पुरस्कार पाये कवियों पर सवाल खडा तो किया पर खुद को बचाकर। लेकिन इस पर भी किसी सार्थक बहस की जगह बस पुरानी समिति के कुछेक लोगों को हटाकर और अधिक विवादित लोगों को शामिल कर लिया गया। कुल मिलाकर पुरस्कारों के जरिये स्थापित होने की भूख ने साहित्य के व्यापक आधारों को संकुचित कर जनमानस में इसके प्रभाव को अत्यंत सीमित कर दिया है। ऐसे में उम्मीद उन्हीं से है जो कर्म और रचना के द्वैत से मुक्त हो अपने समय की विसंगतियों से जूझते हुए बेहतर दुनिया के निर्माण की लडाई में जनता के पक्ष में खडे होकर अपना रचनाकर्म कर रहे हैं।

Tuesday, December 8, 2009

सॉलिटरी रेसिसटेंस



अरुण कुमार असफल की यह टिप्पणी विष्णु खरे जी के आलेख पर प्रतिक्रया स्वरूप लिखी गई पोस्ट पर किसी अनाम भीम सिंह जी की टिप्पणी के विरोध में प्राप्त हुई है। अरूण को उसके लिखे से जानने वाले जानते हैं कि अरूण एक गम्भीर रचनाकार हैं और सनसनी की हद तक चर्चाओं में बने रहने की बजाय अपने लिखे पर यकीन करते हैं। इस आभासी दुनिया में अरूण का यह प्रवेश साहित्य की दुनिया के भीतर गुंडावाद के विरुद्ध और अपने लिखे पर यकीन करने वाले रचनाकार का ही प्रवेश है।




भीम सिंह जी,,

आपने पूरे ब्लॉग का एक एक पन्ना न पढ़ा हो पर मैं इस ब्लॉग का नियमित पाठक हूं । यदि इस ब्लॉग पर कुछ नॉन सेन्स जैसा है तो वह है आपकी टिप्पणी। आपका बस चले तो ब्लॉग क्या बोलने बतियाने पर भी रोक लग जाये। केवल आपके श्रद्धेय विष्णु खरे के 'सॉलिटरी रेसिसटेंस " को ज्यों का त्यों आत्मसात कर लें। आप एक तरफ तो विजय को कहतें हैं कि "पूरी जिन्दगी कुछ न किया"। तो इस "पूरी जिन्दगी कुछ न किये वाले" कि इतनी औकात कहॉ से आ गई कि हिन्दी साहित्य के चेग्वेरा से अपना पुराना हिसाब करने लगा ? पर हमने तो लेख में आपके श्रद्धेय को ही किन्ही से पुराना हिसाब करते पाया है। माफ कीजिये हमें भी पढना नही आता । क्या उस विश्वविद्यालय का नाम बतायेगे जहॉ से आपने लिखने पढ़ने की यह समझ हासिल की है।

अरुण कुमार असफल, जयपुर

Sunday, December 6, 2009

किसी भी मामले में सनसनी पैदा करना आसान है

विष्णु खरे एक जिम्मेदार रचनाकार हैं- यह ब्लाग और मैं स्वंय उनको इसी अर्थ में लेते हैं। उनके मार्फत लिखी गई पोस्ट इसी का परिचायक है। लेकिन क्या एक जिम्मेदार लेखक से असहमति नहीं रखी जा सकती ? क्या उनके लिखे के उस पाठ को पकड़ना, जो गलियारों में होने वाली बातचीत का हिस्सा होता है और उसे दर्ज करना, उसका गलत पाठ है ? यह सवाल जनसत्ता में प्रकाशित उनके उस आलेख से सहमति और असहमति रखते हुए लिखी पोस्ट पर हमारे एक सहृदय पाठक भीम सिंह जी की टिप्पणी के कारण उठ रहे हैं। मैं नहीं जानता कि भीम सिंह जी कौन है ? वे सच में भीम सिंह ही है या, उनका वास्तविक नाम कुछ और है ? पर इस बिना पर कि मैं अदना सा व्यक्ति उनको नहीं जानता तो वे मुझसे असहमति नहीं रख सकते। जरूर रख सकते हैं और इससे भी तीखे स्वर में उनका स्वागत हमेशा रहेगा। मैं किसी दार्शनिक के विचारों के मार्फत कहूं तो कह ही सकता हूं कि स्वतंत्रता के मायने यह नहीं कि मेरा कोई विरोधी मेरे विरोध में बोले तो मैं उसके बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार को छीन लूं। अब भीम सिंह जी से माफी चाहते हुए कहना चाहूंगा कि कहीं वे मुझसे उस दार्शनिक का नाम न पूछने लगें कि किसने कहा था यह (?), मैं नाम बता न पाऊंगा और फिर कहीं यादाश्त पर जोर देकर नाम बता भी दूं और वे रुष्ट होने लगें कि दार्शनिक द्वारा कहे गए वक्तव्य को मैंने अपने अंदाजों में प्रस्तुत किया है, यानी उन्हें शब्दश: नहीं कहा तो मेरे पास इस बात की सफाई देने की कोई गुंजाइश न रह जाएगी कि श्रीमान मैंने तो जो कहा वह पढ़े गए वक्तव्य का आशय है और मैं किसी भी आलेख को पढ़ने के बाद उसके आशय पर यकीन करता हूं, उसमें कहे गए हुबहू शब्दों पर नहीं। विष्णु जी के आलेख पर भी मेरी प्रतिक्रिया उसी आशय का पाठ है। यहां यह भी स्पष्ट जाने कि विष्णु जी से असहमति भी अपने आशय में एक जिम्मेदार और गम्भीर रचनाकार से असहमति है। असहमति के आशय भी स्पष्ट है, " सामूहिक कार्रवाई की किसी ठोस पहल की शुरूआत करने की बात विष्णु जी क्यों नहीं करना चाहते, जनपक्षधर लेखकों के संगठनों के सामने वे इस सवाल को क्यों नहीं रखना चाहते ? --- कौन सा पुरस्कार किस घराने और किस संस्था द्वारा किस मंशा के लिए दिया जा रहा है, इसे वक्त बेवक्त के हिसाब से परिभाषित करने के गैर जनतांतत्रिक रवैये पर भी होने वाली थुक्का-फजिहत से भी बचा जाना चाहिए।"
किसी बात को सनसनी बनाकर प्रस्तुत करने की मंशा इस "nonsense blog" की कभी न रही। अब भी नहीं है। मामला जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार का बहुराष्ट्रीय पूंजी की वाहक सैमसुंग कम्पनी के तिजारती मंसूबों को सांस्कृतिक चेहरा प्रदान करने वाली घृणित मानसिकता का है। उसकी मुखालफत होनी चाहिए और सामूहिक रूप से होनी चाहिए। ऐसी किसी भी जनतंत्र विरोधी कार्रवाई की मुखालफत ताल ठोकू वक्तव्यों से संभव नही, यह बात मैं फिर-फिर कहना चाहूंगा।
यहां यह कहना तो अब और भी जरूरी लगने लगा है कि जब साहित्य अकादमी की इस कार्रवाई की कोई अधिकारिक सूचना (मेरी सीमित जानकारी में तो कहीं दिखाई न दी ) अभी तक भी कहीं दिखाई न दी और विष्णु जी को कहीं से पता लगी तो तय है कि किसी अन्य के द्वारा तो उसके विरोध की कोई गुंजाइश कैसे दिखाई देती भला ? लेकिन विष्णु जी का आलेख उस जानकारी को इसलिए शेयर करने के लिए कि सच में प्रतिरोध करने की गुंजाइश तलाशी जाए, दिखता नहीं। बजाय इसके चंद साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवियों के सामने चुनौति प्रस्तुत करने जैसा ही ज्यादा है।
अच्छा हो कि ऊर्जा को सनसनी पैदा करने में जाया न करें और किसी ठोस पहल की शुरूआत करने में जुटे। 

-विजय गौड़

Saturday, December 5, 2009

सामूहिक प्रतिरोध जरूरी है

29 नवम्बर 2009 के जनसत्ता में प्रकाशित विष्णु खरे जी के आलेख पर बहुत सख्ती से न भी कहा जाए तो भी यह तो देखा ही जा सकता है कि एक गैर जनतांत्रिक शासकीय (साहित्य अकादमी एक स्वायत संस्था है, बावजूद इसके ) प्रक्रिया के खिलाफ उनकी टिप्पणी आत्मरक चिंताओं से घिरी है जिसमें उस प्रक्रिया की जो साहित्य संस्कृति को भी बाजार का हिस्सा बना रही है, मुखालफत कम और खुद की आत्मतुष्टी कहीं ज्यादा है। विरोध के नाम पर जो कुछ है उसमें विरोध की संभावना को जन्म देने वाली चिंताओं की बजाय एक ताल ठोकू और ललकार भरी चुनौति के साथ खुद मामले से पल्ला झाड़ लेने की कवायद भी। व्यक्तियों को निशाना की बनाने की यह ऐसी प्रवृत्ति है जो खुद को ही चर्चा के केन्द्र में देखने की खराब मंशाओं भरी मनौवैज्ञानिक बिमारी है। एक वरिष्ठ एवं जिम्मेदार आलोचक और नागरिक की इस प्रवृत्ति पर आखिर सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए जो किसी भी घटनाक्रम में सनसनी पैदा करने वाली एक बाजारू मानसिकता का परिचय बनकर सामने आ रही है। मामला देश की सर्वोच्च संस्था साहित्य अकादमी द्वारा एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के साहित्यिक, सांस्कृतिक चेहरे को चमकाने वाली बेहद गैर जनतांत्रिक प्रक्रिया का है। जनता के द्वारा चुनी हुई एक सरकार का बहुराष्ट्रीय पूंजी की वाहक सैमसुंग कम्पनी के तिजारती मंसूबों को सांस्कृतिक चेहरा प्रदान करने वाली घृणित मानसिकता का है। उसकी मुखालफत होनी ही चाहिए और सामूहिक रूप से होनी चाहिए। ऐसी किसी भी जनतंत्र विरोधी कार्रवाई की मुखालफत ताल ठोकू वक्तव्यों से संभव नहीं, यह बात विष्णु जी की समझ नहीं आती क्या ? विष्णु जी ही क्यों अन्य उनकी जैसी ही समझदारी रखने वालों को भी भली प्रकार से मालूम होगा कि एकल प्रतिरोध का कोई मायने नहीं। फिर इतने मजबूत तंत्र के सामने तो कोई नहीं। बावजूद इसके विष्णु जी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त चंद कवियों के नाम ही इसके प्रतिरोध का ठेका क्यों छोड़ देना चाहते हैं फिर ? सामूहिक कार्रवाई की किसी ठोस पहल की शुरूआत करने की बात विष्णु जी क्यों नहीं करना चाहते, जनपक्षधर लेखकों के संगठनों के सामने वे इस सवाल को क्यों नहीं रखना चाहते ? ऐसी किसी भी नीति के विरोध में किसी अकेले व्यक्ति के विरोध का क्या मायने ? लेखक संगठनों को चाहिए कि ऐसे सवालों पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर एक राय तैयार करें और किसी ठोस कार्यनीति की शुरूआत हो। जिसमें साहित्य अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कारों का मामला ही नहीं, दूसरे, अन्य घरानों द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार और लेखकीय नैतिकताओं से जुड़े अन्य सवालों पर भी एक सर्वानुमति कायम हो। ठीक वैसे ही जैसे दलित शोषित आम जन के बारे में और साम्प्रदायिकता के मामले में एक सामाजिक स्वीकृति बनी हुई है, वैसा ही, अमुक अमुक पुरस्कार के बारे में भी स्पष्ट हो। वरना तो किसी रचनाकार द्वारा किसी पुरस्कार को ग्रहण कर लेना और किसी का छोड़ देना व्यक्ति की निजी नैतिकता का मामला हो जाएगा, जो कि आज भी ऐसा ही बना हुआ है। पुरस्कारों को रचनाकारों का निजी मामाला जैसा मानने की समझदारी पर लेखक संगठनों को विचार करना चाहिए और उसे सार्वजनिक मसला बनाना चाहिए। कौन सा पुरस्कार किस घराने और किस संस्था द्वारा किस मंशा के लिए दिया जा रहा है, इसे वक्त बेवक्त के हिसाब से परिभाषित करने के गैर जनतांतत्रिक रवैये पर भी होने वाली थुक्का-फजिहत से भी बचा जाना चाहिए। सिर्फ छिछालेदारी करना ही यदि रचनात्मक अलोचना है तो विष्णु जी के वक्तव्य पर खूब ताली पीटी जा सकती है। आखिर वरिष्ठ अलोचक ही तो पहले व्यक्ति है न जो हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा सैमसुंग के सहयोग से दिए जाने वाले रवीन्द्र पुरस्कार की मुखालफत कर रहे हैं !!!!     

-विजय गौड़