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Friday, May 9, 2014

बारिश मेरा घर है


कुमार अनुपम की कविताओं का अपना मिजाज है जो न सिर्फ उनके शिल्प की बुनावट से बनता है बल्कि कथ्य में इतना तरल है कि एकाग्रचित हुए बिना पढ़े जाने पर जो कटोरे से छलकते पानी की तरह इधर उधर बिखर सकता है. यहां  तमगा लूटने के लिए लगाये जाते निशाने को साधने वाली एकाग्रता से कोई लेना देना नही. वह पारे की सी तरलता है जो उतनी ही ठोस है जितना किसी ठोस को होना चाहिए अपनी तरलता को बचाये रखते हुए.
माना कि दिल्ली में इस वक्त धूप तीखी पड़ रही. बेहद गरमी. उमस और चिपचिपापन. तो क्या उसे चुनौति देने के लिए हमें भी दोहराना होगा कवि के साथ बारिश मेरा घर है? कुमार अनुपम की कविता का यह पद तेज रफ्तार वाली दिल्ली को बारिश के पानी के कारण हो जाने वाले घिचपिचेपन  में फंसा देना चाहता है.चौकन्ने होकर सुनो वह कितना कुछ कह रहा. मसलन
यह
धार्मिकता का
सुपीरियारिटी का सत्यापन

फासिस्ट गर्व और भय
की हीनता का उन्मांद

यह
जाति धारकों
के निठल्लेपन का पश्चाताप

यह तत्काल टिप्पणी है. विस्तार से लिखने का मन है.

Friday, February 28, 2014

मध दा ने कर दी है दिन की शुरूआत



विजय गौड़

गांव और शहर दो ऐसे भूगोल हैं जो मनुष्य निर्मित हैं। उनकी निर्मिति को मैदान, पहाड़ और समुद्र किनारों की भौगोलिक भिन्नता की तरह नहीं देखा जा सकता। भिन्नता की ये दूसरी स्थितियां प्रकृति जनक हैं। हालांकि बहुधा देखते हैं कि गांव के जनसमाज के सवाल पर हो रही बातों को भी वैसे ही मान लिया जाता है जैसे किसी खास प्राकृतिक भूगोल पर केन्द्रित बातें। साहित्य में ऐसी सभी रचनाओं को अंाचलिक मान लेने का चलन आम है। यही वजह है कि पलायन की कितनी ही कथाओं को 'कथा में गांव" या 'कथा में पहाड़" जैसे शीर्षकों के दायरे में समेटने की कोशिश जब तक होती रहती है। पलायन की समस्या सिर्फ भौगोलिक दूरियों के दायरे में विस्तार लेते समाज का मसला नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा, बदलते श्रम संबंध और अतिरिक्त पर नियंत्रण की होड़ में विकसित होती बाजार व्यवस्था के नतीजे के तौर पर है। यदि विकास की कोई प्रक्रिया वास्तविक जनतांत्रिक व्यवस्था के विस्तार में आकार लेते कायदे कानूनों के तय मानदण्ड के भीतर जारी रही होती तो शहर और गांव के भेद को न तो चिहि्नत करना संभव होता और न ही उनके बीच कोई बहुत स्पष्ट सीमा रेखा जैसी खिंची हुई होती। गांव में शहर और शहर में गांव जैसे दृश्य देखने को न मिलते। यदि चरणबद्ध प्रक्रिया जैसा कुछ दिखता भी तो दोनों निर्मितियों के बीच की संज्ञा 'कस्बा" वहां हमेशा मौजूद रहता। गांव से शहर और शहर से गांव तक हवाई यात्रा क्षेत्र जैसा न बनता। आदिवासी और जंगल समाज की स्थितियां भी विकास की एक अवस्था में पहुंची होती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
महेश की कविताऐं ऐसे ही एक भूगोल को पाया जा सकता है तथाकथित विकास के नाम पर जहां विनाश की कथाओं के दिल दहलाने वाले हादसे अक्सर खबरों का हिससा होते सुने जा सकते है। ऐसे भूगोल विशेष का समाज, उसके अन्तर्विरोध और प्राकृतिक भिन्नता में विस्तार लेती प्रकृति से सीधा साक्षात्कार महेश की कविताओं के ऐसे विषय हैं जिन्हें व्यापक दायरे में लिखी जा हिन्दी कविता के बीच अलग से पहचानना मुश्किल नहीं। ''भय अतल में"" उनकी कविताओं के ऐसी ही पुस्तक है जिसमें पहाड़ी पक्षी सिंटोले की आवाज के साथ, घ्ासियारनों के दुख-दर्द को समेटते हुए दुल्हन की डोली की कथाऐं, लच्छू ड्राइवर की गमक में सभ्य होने की कितनी ही तस्वीरें हैं जिनसे महेश के भूगोल को पहचाना जा सकता है। पहाड़ी हिमालय क्षेत्र के जन समाज की संभावनाओं भरी तस्वीर और उन्हें ध्वस्त करने के चालक षडयंत्रों वाली सम्पूर्ण देश-समाज में विस्तार लेती स्थितियों का बयान करती ये कविताऐं मनुष्यता का पक्ष चुनते हुए अपने पाठक संवाद करती हुई हैं। मसलन,
भूल जाता हूं मैं/ यह सारी बातें
अवतरित हो जाता है दुखहरन मास्टर भीतर तक

खड़ा होता हूं जब/ पांच अलग-अलग कक्षाओं के
सत्तर-अस्सी बच्चों के सामने।

यहां भय है तो संभावनाओं के खो जाने का है। जिज्ञासाओं के दुबक जाने का है। निराशा और पस्ती के पसर जाने का है। और इसीलिए इस भय से मुक्ति को तलाशने के लिए अतल हो जा रहे तल को खोजने की कोशिश है। उसे ढूंढ निकालने की स्वाभाविक छटपटाहट है। अपने आस-पास की बहुत जानी-पहचानी स्थितियों से टकराना है। पेशे से अध्यापक महेश की चिन्ताओं में इसीलिए वह बुनियादी शिक्षा जो आदर्श नागरिक तैयार करने वाली पाठशालाओं में जारी है, निशाने में होती है। एक दृष्टि संपन्न शिक्षक के भी अप्रत्याशित व्यवहार को निर्धारित करने वाले शिक्षा तंत्र का मकड़ जाल यहां तार-तार होता हुआ है। प्राइमरी शिक्षा को आवश्यक मानने वाले तंत्र का झूठ यहां स्पष्ट दिखने लगता है जब कविता उस दृश्य-चित्र को अपने पाठक के सामने रखती है कि कक्षाओं के दर्जे का मायने क्या जब एक ही पाठ वह भी एक ही अंदाज में सबको पढ़ने को मजबूर होना पढ़े। यानी कुछ के लिए उस एक पाठ का लगातार दोहराया जाना निराशाजनक होकर सामने आये तो दूसरों के लिए उसका नया लेकिन अबूझपन कक्षा से छलांग लगाकर कूदने की दुस्साहसिक घ्ाटना तक पहुंचने को मजबूर करे। प्रकृति की सुुरम्यता का वर्णन भर नहीं बल्कि प्राकृतिक वातावरण की विशेष स्थितियों के बीच दैनिक जीवन की हलचलों को काव्य विशेष बनाती महेश की कविता में बहुत से चरित्र उभरते हैं, पाठक के भीतर जो हमेशा के लिए उसकी स्मृतियांे का हिस्सा हो जाते हैं। सुमित्रानंदन पंत के बरक्स गोपीदास गायक जैसे पात्रों के जिक्र से भरी महेश की कविता का पक्ष एक छोटे से भू-भाग के वंचित, शोषित जन समाज का पक्ष है। स्वंय को हीन मान लेने वाली नैतिक शिक्षाओं वालंे पाठों ने जातिवादी विभेद भरे जिस समाज को रचा है, महेश उसके हर छलावे को बहुत साफ देख पाते हैं और उसे साफ-साफ रख देने की हर संभव कोशिश करते हैं। कहीं-कहीं उनकी कविताओं को शिल्प के लिहाज से कच्चेपन के साथ देखा जा सकता है लेकिन दृष्टि की मौलिकता में वे अनूठी है।  

हो गई है दिन की शुरूआत/बाजार सजने लगी है
सामने मध दा ने भी खड़ा कर दिया है
अपना साग-पात का ठेला
तरतीब से सजाए/ताजी-ताजी सब्जियां
।।।।।।।।
।।।।।।।।।
ब्ास के चलने से पहले तक
छेख लेना चाहता हूं इसे जी भरकर
क्या पता अगली बार
दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में

शराब ने उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर इतना नशा बिखेरा है कि गैर-जिम्मेदार किस्म की मनोवृत्ति वाले पुरूष समाज से हमेशा प्रताड़ित और हर जगह खटती पहाड़ी स्त्री की तकलीफ को और ज्यादा बढ़ाया है। परिवार, बच्चों का भविष्य और अपने समाज की खुशहाली का प्रश्न पहाड़ी स्त्री की चिन्ताओं में हमेशा घ्ार किये रहा है। सेवा-निवृत फौजी को आबंटित होने वाली शराब के नशे की व्याप्तियां सस्ती शराब के लिए गांव भर में ऐसी शराब भटि्टयों के रूप्ा में पैदा हुईं हैं कि भोजन के लिए पैदा होने वाले अनाज तक को नशा पैदा करने वाली खदबदा में स्वाहा कर दिया जाने से अनाज के अभाव में भूखे रह जाने को मजबूर हो जाते गांवों की त्रासदियां न सिर्फ उत्तराखण्ड बल्कि हिमालयी क्षेत्र के दूसरे भू-भागों में भी बहुत आम है। ऐसी विकट स्थितियों के विरोध में ''नशा नहीं रोजगार दो"" - शराबबंदी आंदोलन की आवाज उठाती पहाड़ी स्त्रियों मंें जीवन को बचा ले जाने की अकुलाहट जैसे कितने ही विषय हैं जो हिन्दी कविता में अछूते रहे और उन्हीं आवाजों को महेश की कविताओं सुना-पढ़ा जा सकता है।
हम फालतू नहीं हैं/ न ही हैं हम ऐसी-वैसी औरतें
हम मजबूर औरते हैं जो/ लाख कोशिशों के बावजूद
नहीं ला सकी हैं पटरी में/ अपने शराबी पतियों को।

महेश की कविताऐं उस पहाड़ की कविताऐं हैं, जिसकी आबो-हवा बेशक स्थानीय जन के जीवन में दुश्वारियां भरने वाली हो लेकिन सैलानियों के मनोभावों को सरस बना देती है। जहां तरह-तरह की बे-जरूरत उत्पादों की जरूरत पैदा करवाता बहुराष्ट्रीय पूंजी का चमकदार बाजार कचरे से पूरे भू-भाग को पाट देने की स्थितियां पैदा कर रहा है। ऐसा कचरा जो भौगोलिक संरचना को ही बदल देने पर ही अमामदा है और प्राकृतिक आपदाओं के संकटों से हर वक्त पहाड़ों को ही नहीं, जब-तब स्थानीय जीवन को भी कंपाता रहता है। ऐसे गैर-जरूरी, गैर-सामाजिक, गैर-प्राकृतिक वातावरण को निर्मित करते बाजार के विरुद्ध ही उन पहाड़ी ढलानों को अपनी कविता में पिरोते हुए महेश की कविताऐं प्रतिरोध की नागरिक चेतना होना चाहती है। साग-पात का ठेला लेकर जाता 'मध दा" और उसके जैसे दूसरे कितने ही स्थानीय उद्यमियों द्धारा सजने वाले बाजार के साथ पहाड़ के उस सौन्दर्य को पाठक से शेयर करती हैं जो स्थानीय जन के भीतर भी उत्साह का संचरण कर सकती है।
सामने मध-दा ने भी खड़ा कर लिया है
अपना साग-पात का ठेला
बाजार सजने लगा है।

महेश की कविताओं की विशेषता है कि वे अपने उपजने की पृष्ठभूमि का वर्णन करते हुए स्वंय भी तटस्थ होने का खेल रचती है और उन दर्शकीय चिन्ताओं का हिस्सा होना चाहती जिसके लिए सौन्दर्य के मान दण्ड चम-चमाती दुनिया के रूप्ा में ही मौजूद रहते हैं,
बस के चलने से पहले तक
देख लेना चाहता हूं इसे जी भर कर
क्या पता अगली बार/ दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में।

त्ामाम तरह से जनता के पक्ष को प्रस्तुत करती इन कविताओं पर यदि कोई एक सवाल पूछा जा सकता है तो यही कि सांस्कृतिक होने की 'गैर-सरकारी संस्थाओं वाली" मानसिकता, यूं जिसके आधार पर ही सरकारी नीतियां भी फलीभूत होती हैं, जिसने सारे उत्तराखण्ड को और उत्तराखण्ड के बौद्धिक समाज को अपनी चपेट में लिया हुआ है, उससे महेश भी पूरी तरह मुक्त नहीं। यानी एक गैर-जनपदीय मानसिकता जो सिर्फ दया, करुणा के भावों के साथ सांस्कृतिक झूठ के प्रदर्शन में अपने असलियत के प्रविरोध की किसी भी आशंका को जड़ से मिटा देने वाली चालाकियों में संलग्न है। पोशाक, भोजन और गीत एवं नृत्यों के प्रदर्शनीय संरक्षण वाली स्थितियों में जो खुद को स्थानिकता के पक्ष में बनाये रखना चाहती है। देख सकते हैं तमाम पिछड़ी आर्थिक स्थितियों वाले वे भूगोल जहां संसाधनों की भरमार है और जिन पर कब्जे की लगातार कार्रवाइयां जारी है, ऐसे सांस्कृतिक परिदृश्यों को खड़ा करती वैश्विक पूंजी ने संभावनाशील स्थानिक ऊर्जा को ही अपनी चपेट में लिया है। महेश की कविताऐं भी ऐसी चालाकियों को पकड़ने में चूक जा रही है,

खाना चाहता हूं/ फाफर की बनी रोटी
आलू-राजमा का साग/ छौंक हो जिसमें
सेंकुवा-गंगरैण की।

यहां यह स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है कि विशेष प्राकृतिक उत्पादों की इच्छाओं वाली सांस्कृतिक पहचान का तब तक कोई मायने नहीं जब तक इसे किन्हीं इतर कारणों से विशिष्ट मानने वाले मंसूबों को भी ध्वस्त न किया जाये। महेश की इन चिन्ताओं के मायने कि जैव-विधिता वाले प्राकृतिक उत्पाद बचे रहें, तभी ज्यादा सार्थक हो सकते हैं जब ऐसी ही चालाक भाषा में पांव पसारती वैश्विक पूंजी का भी पर्दाफाश होता हुआ हो, वरना दो भिन्न उद्देश्यों वाली लेकिन सिर्फ कुछ तात्कालिक गतिविधियों की समानता वाली स्थिति में स्पष्ट फर्क करना संभव नहीं।

पुस्तक: भय अतल में
रचनाकार: महेश चन्द्र पुनेठा
मूल्य : 125/-
प्रकाशक: आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद।

Wednesday, August 21, 2013

फाउंडर्स ऑप मॉडर्न एडमिनिस्ट्रेशन इन उत्तराखंड: 1815—1884


उत्तराखंड के शोधार्थियों के लिए जरूरी किताब

डॉ. शोभा राम शर्मा
उत्तराखंड की वर्तमान आधुनिक प्रशासनिक प्रणाली के पीछे निश्चित रूप से अंग्रेज प्रशासकों का हाथ रहा है। उत्तराखंड यानी गढ़वाल और कुमाऊं अंग्रेजों से पहले यहां के राजाआे और फिर गोरखा सामंती तंत्र की अराजकता की गर्त में रहा। अंग्रेजों के ही प्रयासों से उत्तराखंड में पहली बार तार्किक तरीके से भूमि की नाप—जोख, वर्गीकरण और तदनुसार कर निर्धारण का कार्य संपन्न हुआ। जंगलात की सुरक्षा के लिए नियम बने। सार्वजनिक मार्गों और पुलों का निर्माण हुआ। सार्वजनिक शिक्षा और डाक व्यवस्था का शुभारंभ हुआ। तराई-भाबर में नहरों का निर्माण हुआ। इसी काल में कोटद्वार, रामनगर, हल्द्वानी, टनकपुर, रानीखेत, नैनीताल, पौड़ी, मसूरी, लैंसडाउन जैसे नगरों की स्थापना हुई। मौद्रिक व्यवस्था को स्थायित्व मिला । न्याय के लिए अदालतों का गठन हुआ। अपराधों की रोकथाम के लिए शेष भारत से अलग और केवल डंडे के बल पर काम करने वाली विशिष्ट किस्म की (राजस्व पुलिस) पटवारी व्यवस्था लागू हुई। इस व्यवस्था के तहत ही पटवारियों को पुलिसिया अधिकार प्राप्त हैं और यह व्यवस्था आज भी उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण अंचलों में विद्यमान है। अंग्रेजों के समय में ही यहां बच्चों और ियों की खरीद-फरोख्त जैसी कुप्रथाआें पर पाबंदी लगी। एक अर्थ में कहा जाए तो भले ही अंग्रेजों ने ये सारे काम अपने दूरगामी साम्राज्यवादी हित के लिए किए हों लेकिन यह यह निश्चित तौर पर सच है कि उन्होंने ही उत्तराखंड की परिस्थितियों के हिसाब से पहली बार एक व्यवस्था कायम करने का सफल प्रयास किया।
उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सचिव और पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त डॉ. रघुनंदन सिंह टोलिया द्वारा लिखित— फाउंडर्स ऑप मॉडर्न एडमिनिस्ट्रेशन इन उत्तराखंड :1815—1884 (उत्तराखंड में आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था के संस्थापक 1815—1884 ) संभवत: पहली पुस्तक है जिसने उत्तराखंड के आधुनिक प्रशासन के इतिहास को लिपिबद्ध किया गया है। यह एक तथ्यात्मक और एेसा एेतिहासिक दस्तावेज है, जिसे एक जगह संग्रहीत करने की बहुत बड़ी जरूरत थी।  गोरखों की पराजय (सन् 1815) के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुुमाऊं कमिश्नरी के नाम से जिस प्रशासनिक इकाई का गठन किया गया , लेखक ने उसमें नई प्रशासनिक व्यवस्था का सूत्रपात करने वाले प्रशासकों के कार्यकाल व कार्यप्रणाली का क्रमवार विवरण प्रस्तुत किया है। ये प्रशासक ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी थे। इनमें से कमिश्नर ट्रेल, लशिंगटन, बैटन और हेनरी रैमजे का कार्यकाल बहुत महत्वपूर्ण रहा। इन सभी कमिश्नरों ने प्रशासक के रूप में अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखी। हेनरी रैमजे कंपनी द्वारा 1856 में कमिश्नर नियुक्त हुे थे। 1857 के विद्रोह को सफलतापूर्वक झेलने के बाद वे कंपनी के कर्मचारी नहीं रहे क्योंकि 1848 में ब्रिटिश सरकार ने भारत का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था। लेकिन हेनरी रैमजे 1884 तक यहां के कमिश्नर बने रहे।
अंग्रेजों ने कुमाऊं कमिश्नरी  (टिहरी रियासत को छोड़ कर शेष गढ़वाल समेत) की विशिष्ट परिस्थितियों का आकलन कर उसे शेष ब्रिटिश भारत के समकक्ष नहीं रखा। बल्कि उसके लिए अलग नियम कानून बनाए या यहां के प्रशासकों को यह छूट दी कि वे स्थानीय जरूरत के मुताबिक नियम कानूनों को स्थगित या खारिज कर सकें। फलस्वरूप प्रशासकों के व्यक्तित्व की छाप भी यहां उभरती नई प्रशासनिक व्यवस्था पर पडी ।
लेखक ने बिना किसी पूर्वाग्रह के तत्कालीन अंग्रेज प्रशासकों की कार्यप्रणाली को यथातथ्य इस पुस्तक का विषय बनाया है और वह अपनी आेर से कोई विश्लेषण नहीं प्रस्तुत करते । उन्होंने यह अन्य शोधार्थियों के लिए छोड़ दिया है। उत्तराखंड के आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, प्रशासनिक इतिहास के शोधार्थियों को यह पुस्तक अवश्य पढऩी चाहिए। मेरा आग्रह है कि डॉ. टोलिया को अपनी कलम के माध्यम से 1884 के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति तक और उसके बाद का प्रशासनिक इतिहास प्रस्तुत करना चाहिए। वह स्वयं उत्तराखंड के प्रशासक रहे हैं। उत्तराखंड के इतिहास पर शोध करने वालों के लिए इसकी नितांत आवश्यकता है। लेखक ने इतने पुराने और लगभग विनष्ट होने की कगार पर पहुंचे सरकारी अभिलेखों और अन्य स्रोतों के जंगल से जो बहुमूल्य सामग्री संग्रहीत की और एेसा करने में जिस धैर्य और लगन से काम किया वह निस्संदेह प्रशंसनीय है। इसके लिए लेखक सचमुच बधाई के पात्र हैं।
फाउंडर्स ऑप मॉडर्न एडमिनिस्ट्रेशन इन उत्तराखंड:1815—1884
लेखक: आरएस टोलिया
प्रकाशक : बिशन सिंह महेंद्रपाल सिंह,देहरादून
मूल्य: 1250 रुपये, पृष्ठ : 408

Saturday, February 23, 2013

कोई हमेशा जागता है

कवि राजेश सकलानी के कविता संग्रह पर नवीन कुमार नैथानी की यह टिप्पणी है इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बिगडैल अलोचना जिस तरह से सिर्फ़ नामों के आधार पर लांग नाइन्टीज का निर्धारण कर रही है उससे हिंदी कविता पर समग्र द्रष्टि नहीं दिखायी देती और वक्त बेवक्त गिरोहगर्द हुई आलोचनाओं में उभरे नाम ही वहां उपस्थित दिख रहे हैं । राजेश सकलानी पिछले २५ वर्षों से लगातार लिख रहे हैं और हिंदी कविता का जो रूप उनके यहां दिखायी दे रहा है उसको दरकिनार करके पिछले २५ वर्षों की कविता पर बात करना सिर्फ़ एक सीमित दायरे में उभरे नामों को ही लांग नाइन्टीज कहना है। हिन्दी की गिरोहगर्द आलोचना की सीमा है कि वह अपने गिरोह से बाहर देखने में असमर्थ रही है।
- वि. गौ.


       पुश्तों का बयान राजेश सकलानी का दूसरा कविता-संग्रह है.पहला कविता संग्रह सुनता हूं पानी गिरने की आवाज ग्यारह वर्ष पूर्व आया था.       
                राजेश  प्रकाशन-भीरु कवि हैं.निपट अकेली राह चुनने की धुन उन्हें समकालीन कविता के परिदृश्य में थोडा बेगाना बानाती है-उनकी कविताओं का शिल्प इस फ़न के उस्तादों की छायाओं से भरसक बचने की कोशिश करते हुए नये औजारों की मांग करता है.अपने लिये नये औजार गढ़ना किसी भी कवि के लिये बहुत मुश्किल काम है. राजेश वही काम करते हैं.अस्सी से ज्यादा कविताओं के इस संग्रह से कोई प्रतिनिधि कविता चुनना दुरूह है- मुझे तो हर पृष्ठ पर एक नायाब मोती दिखा है. फिर भी जोखिम मोल लेते हुए एक कविता अमरूदवाला को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा
          लुंगी बनियान पहिने अमरूदवाले की विनम्र मुस्कराहट में
         मोटी धार थी, हम जैसे आटे की तरह बेढब
         आसानी से घोंपे गये

        पहुंचे सीधा उसकी बस्ती में
        मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते पुलटते
        थोडे से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
        बेतरतीबी में लुढ़के हुए
       बच्चे काम पर गये कई बार का उनका
        छोड दिया गया रोना फैला फ़र्श पर

       एक तीखी गन्ध अपनी राह बनाती,
       भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज का

     यहां विचलित करने वाले समय की गंध को पकडने की बेचैन कोशिश ध्यान खींचती है. कविता कीआखिरी पंक्ति मुझे उनके पहले संग्रह की याद दिलाती है-सुनता हूं बारिश के गिरने की आवाज  शीर्षक कविता में एक पंक्ति यह भी है-
              
जानता हूं चीजों को जहां से वह उठती है.
वहां आवाजों पर पूरा भरोसा था
अमरूदवाला कविता की आखिरी पंक्तियां है-
             भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज का

      पहले संग्रह में कवि बहुत भरोसेमन्द अन्दाज में चीजों को उनकी आवाजों के साथ जानने की जगह में खडा है.लगभग बीस वर्ष बाद कवि अमरूदवाले को देखते हुए एक भरोसे के ढहे जाने की व्यथा कह रहा है और इस बहाने समय की विडम्बना को खोल कर रख दे रहा है.
       कवि वही है,उसकी दृष्टि वही है,दृष्टिकोण भी वही है;समय बदल गया है. यह समय बाजार का समय है.यह बाजार चीजें और सहूलियतें देने वाला बाजार नहीं है जिसके बारे में गालिब कह आये थे
             और बाजार से ले आयेंगे गर टूट गया
             जामे-जम से ये मेरा मिट्टी का सिफाल अच्छा है.
       यह बाजार बहुत ज्यादा बदल गया है.लुंगी बनियान पहने अमरूदवाला अब यहां नजर नहीं आयेगा.वे बच्चे जिनका कई बार का छोड़ दिया गया रोना फ़र्श पर फैला है,अब कहीं नजर नहीं आयेंगे.वे कई बार रोए हैं.वह रोना छोड दिया गया है.अमरूद की गन्ध भी कहां है?माल्स की जगर-मगर आवाजों के बीच जैविक खाद से तैयार उत्पादों वाले  किसी ब्राण्ड में वह अमरूद भी होगा!वहां अमरूद की गन्ध नहीं होगी.यह आज का बाजार है.
             एक तीखी गन्ध अपनी राह बनाती
      कवि अमरूद की बात नहीं कह रहा है ,उसकी चिन्ता तो अमरूदवाले पर केन्द्रित है,जिसकी मुस्कराहट में मोटी धार थी.विनम्र मुस्कराहट में यह मोटी धार क्या है? महीन धार की कत्ल कर देने वाली मुस्कराहटों के बर-अक्स यह मासूमियत भी नहीं है-इसमें विद्रूप है.
   मुझे यह बात भी आश्चर्य में डालती है कि बेहद चुप्पे और शब्द-कृपण कवि राजेश के यहां आवाजें किस तरह घुसपैठ कर जाती हैं.उत्तराखण्ड आन्दोलन की पृष्ठ्भूमि में लिखी गयी कवितादीदियों और भुलियोंकी आखिरी पंक्तियां-
            जिन्हें सत्ता की भूख ने खूनी बना दिया है
             वे तुम्हारी आवाज से पस्त होते हैं.
      ‘जीवन की कलाकी शुरूआती पंक्तियां
           यहां आवाजों के बीच घटता
           कहीं दूर किसी कला में
           प्रकट होता हूं
             शब्दों इतना सटीक,श्लिष्ट और गत्यात्मक बर्ताव राजेश सकलानी की उपलब्धि है. यह संग्रह देखते ही मुझे पिछले संग्रह की एक कविता की कुछ पंक्तियां याद गयीं
      नहीं बनाये सीढीनुमा खेत
      नहीं लगाये पुश्ते
      जडों को मिट्टी में जमाये बिना
      इतने वर्ष बारिश में बहा दिये
              इस संग्रह की शीर्षक कविता हैपुश्तों का बयान’.
           हम तो भाई पुश्ते हैं
           दरकते पहाड की मनमानी
           संभालते हैं हमारे कन्धे
          यहां  पुश्तों का दूसरा अर्थ पीढियों के सन्दर्भ में भी ध्वनित हुआ है.
                    `हम भी हैं सुन्दर,सुगठित और दृढ़
    इसी कविता की आखिरी पंक्तियां हैं
              तारीफों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
              हमारी आत्मा
              हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
              है जीवन.
   इन कविताओं का फलक बहुत विस्तृत है.अमेरिका, पाकिस्तान,बगदाद से लेकर कस्बों का दैनिक जीवन इन कविताओं में छाया हुआ है-मछ्लियों,साइकिलों और बाजों की ध्वनियों से धडकता हुआ. फोटो,जूतों जैसी मासूम चीजों के बीच कहीं  मटर का दाना अपनी निराली धज के साथ ध्यान खींचता है-

        मैं लगा छीलने फलियां
       एक दाना छिटक कर गया यहां-वहां
      लगा ढूंढने उसे मेज के नीचे
      वह नटखट जैसे छिपता हो
 आगे की पंक्तियां देखिये
     एक और मेरा समय
     दूसरी और मटर के दाने का इतराना

    ज्यों-ज्यों आगे लगा काम में
    लगता जैसे अभी-अभी वह गेंद की तरह
    टप्पा खाकर उछला है.

   राजेश सकलानी की कविताओं को  प्रतिरोध की शान्त, शालीन और निश्छल टिप्पणी के रूप में भी देखा जा सकता है- उनकी निगाहें हमेशा वहां टिकी रहती हैं जहां जीवन की सामान्य गतिविधियां चल रही होती है और जिन्हें ऐसे ही नहीं छोडा जा सकता है.व्यवस्था से नाराजगी दिखाते हुए भी वे वाचाल नहीं होते.

        इतनी सफाई से गुजरता है समय
        कोई नहीं दुश्मन मेरी खोज में
   बेहद राजनीतिक कविता लिखते हुए भी वे ठेठ अराजनीतिक दिखायी पडते हैं-यह सायास निस्संगता बताती है कि वे कठोर काव्यानुशासन के हिमायती हैं. ‘राज ठाकरे कौन है?’ शीर्षक कविता इस तरह शुरू होती है
        ये राज ठाकरे कौन है?
      पता नहीं, मैं तो मनु ठाकरे को जानता हूं
      अंधेरी वैस्ट में रहता है.
   यहां गन्तव्यों तक पहुंचने में लगने वाले समयान्तरालों की सूचना देते हुए जीवन की सहज गतिविधियां पूरी मासूमियत के साथ उपस्थित हैं.बेहद सरल संरचना वाली यह कविता कामकाजी समय के बीच पैदा हो चुके खतरनाक वक्त की शिनाख्त करते हुए  इन पंक्तियों के साथ खत्म होती है-
          लेकिन ये वक्त का पहिया कौन चलाता है?

          जैसे ये मजदूर जो शहर छोड कर
       बाहर की ओर भाग रहे हैं.
      राजेश सकलानी की कविताओं में जगहों और लोगों की आमद खासतौर से ध्यान खींचती है. शहर और कस्बे अपनी अचंचल छवियों के साथ मौजूद हैं- ढाका,लाहौर,देहरादून से लेकर कर्णप्रयाग,चम्बा,चिन्यालीसौड जैसी जगहें इन कविताओं में उपस्थित हैं जहां कहींडी.एल.रोड पर एलेक्जेंडर रहते हैं’.इन शहरों में  कहीं  गायपूंछ के गुच्छे से अपनी पीठ पर थपकी लगातीतो कहीं  मियां जी अमरूद बेचते दिखायी पडते हैं

         मियां जी ने दो पत्तों सहित अमरूद रखा तराजू पर
       उधर बाट आकाश में झूलने लगा.

   इन्हीं शहरों में दुल्हन भी है जो कविता में असामान्य तरीके से प्रवेश करती है

    सपनों की त्वचा में रंगभेद नहीं होता
   और दुल्हन की साडी की कोई कीमत नहीं होती.    

        इन्हीं शहरों में गश्ती सिपाही,चौकीदार,चाय वाले नुक्कड ,महिला पुलिस,ड्राइवर सब लोग जीवन की निरन्तरता को बनाये और बचाये रखने के लिय अपने कर्म में तल्लीन नजर आते हैं .कविता में उनकी उपस्थिति दर्ज करना कवि का अभीष्ट है.रात यूं ही नहीं जातीशीर्षक कविता में वह कहता है
कोई हमेशा जागता है
तभी मुमकिन होती है नींद.

   नवीन कुमार नैथानी

   Mob-09411139155 


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