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Tuesday, May 1, 2018

बाजार में जुलूस


मई दिवस के अवसर पर उपन्यास फांस का एक अंश 


आईसक्रीम के मौसमी काम में कोई बरकत नहीं, यह सोचकर ही वह फिर से सब्जी की रेहड़ी लगाने लगा था। लेकिन मोहल्ले-मोहल्ले घूमने की बजाय अब उसने बाजार के बीच ही एक  ठिया तलाश कर वहीं रेहड़ी को जमाने तय कर लिया था। पर वह क्या जानता था कि जिस काम को बहुत टिकाऊ और हमेशा जारी रहने वाला समझ रहा है, समय उसे वैसा रहने न देगा ? बाजार के दुकानदारों को रेहड़ी वालों की कमाई चुभने लगेगी और वे ही दुश्मन बन कर खड़े हो जाएंगे और बाजार को अपनी बपौती मान रहे दुकानदारों के क्षुब्ध होने पर रेहड़ी वालों के लिए अपने कारोबार को जारी रखना ही मुश्किल हो जाएगा ? पुरूषोत्तम तो हर वक्त अपनी किस्मत को ही कोसता। उसने तो मान लिया था कि जिस भी धंधे में हाथ डाला नहीं कि वही चौपट हो जाता है। 
मुश्किल से जुटाए पैसों से तैयार करवाई गई रेहड़ी हमेशा-हमेशा के लिए गली के नुक्कड़ में धूप-बारिश और सर्दियों में पड़ने वाले पाले से सड़ने और जर्जर होने के लिए छोड़ देनी पड़ी। बल्कि वही क्यों उस जैसे ही दूसरे, जो बाजार के बीच अपने रेहड़ी पर लदे सामानों के साथ आवाज लगा रहे होते थे, धंधे से हाथ धोने को मजबूर हो गए। फल और सब्जी वाले ही नहीं रेहड़ी पर कच्छा-बनियान और नाड़े बेचने वाले, चूड़ी कंगन या फिर लौंग इलायची और दूसरे मसाले बेचने वालों को भी ठिकाना तलाशना आसान न रह गया था। वे सभी दुकानदारों की आंखों की किरकिरी होने लगे। पूरे बाजार के बीच आवाज मारते हुए वे फेरी लगाते। ग्राहकों के पुकारने पर रुक जाते और माल बेचने लगते। रेहड़ी जिस दुकान के सामने लगी होती, गल्ले से बाहर को झांकते हुआ दुकानदार रेहड़ी वाले को हड़कान लगाता।

- अबे बाप की जगह है क्या...चल...चल आगे निकल।

दुकानदार को अनसुना करते हुए रेहड़ी वाला ग्राहक से उलझा रहता। बाजार में छा रही मंदी के मारे दुकानदार रेहड़ी-ठेली वालों को ही कहर-बरपा करने वाले के रूप में देख रहे होते। बिक्री का गिरता ग्राफ उनकी परेशानियों को बढ़ा रहो होता और चौकड़ियों में बतियाते हुए वे रेहड़ी-ठेली वालों को गलिया रहे होते। हर वक्त ऐसी ही बातों में उलझे रहते। अखबारों में छप रही खबरें उनको परेशान किए रहती। अपने-अपने तरह से हर कोई स्थिति का आकलन करता। कभी कोई राजनेताओं को गाली देता तो कभी सरकार को कोसता। तभी कोई दूसरा, जो कहीं गहरे तक उस पार्टी को अपना समझता, जिसकी सरकार होती, अपना एतराज दर्ज करता। बहस तीखी होने लगती। आंखों ही आंखों में अपनी-अपनी पार्टियों के हिसाब से उनके समूह, स्थितियों के पक्ष और विपक्ष में तर्क रखने लगते। बहसों के परिणाम थे कि जब चुनाव होते तो सरकार पलट जाती। जीतने वाली पर्टियों के दुकानदार मिठाई बांटते, जश्न मनाते। लेकिन कुछ ही समय बाद, सरकार के द्वारा लिए गए फैसलों को जब ज्यों को त्यों पाते तो फिर से किलसने लगते। फिर वही बहस-मुबाहिसें चालू होती। पर समस्या से निजात पाने का कोई रास्ता उन्हें न सूझता। दुकानदारों को लगने लगा था कि लोग सामान तो खरीद रहे हैं पर दुकानों से नहीं बल्कि रेहड़ी ठेली वालों से। दुकान के समाने खड़े हुआ वह रेहड़ी वाला उन्हें दुश्मन लगने लगता, जो बेशक ग्राहक से हील-हुज्जत करता लेकिन माल बेच पाने में सफल हो जाता। रेहड़ी ठेली वालों की हँसी  ठिठोली दुकानदारों को चिढ़ाने वाली लगने लगी थी। डॉक्टर होगया को चिढ़ा-चिढ़ा कर खिलखिलाने वाले रेहड़ी-ठेली वालों के तमाशे उन्हें बुरे लगने लगे। हलवाई ने दुकान के बाहर कच्छे बनियान बेचने वाले से साफ-साफ कह दिया, 
- कल से अपना ठीकाना कहीं और ढूंढ ले, ... कोई शरीफ घर की औरत जिस वक्त यहाँ...थड़े पर खड़ी हो कर लड्डू या बर्फी तुलवा रही होती है, उसी वक्त तेरा ब्रा और पेन्टी दिखाना जरूरी है ? 
कच्छे बनियान वाले की हकलाती जुबान से कुछ फूटने को भी होता तो हलवाई उसे चुप करा देता,
-...जा...जा साले ... अपनी लुगाई को खड़ा कर लियो और उसके फिट करके दिखाईयो ... देखिये बीबी जी कैसा फिट आया है।

बर्तन वाले ने बाहर को टंगे बर्तनों से बार-बार टकराती रेहड़ी की तिरपाल को जोर से खींचते हुए उस गजक-रेवड़ी और चूरन-कड़ाका बेचने वाले को ऐसा झिड़का कि इन्ट्रवल के समय स्कूल के बच्चों का धक्का-मुक्क्ी करने का आनन्द ही छिन गया। पहले से तय किराये को बढ़ा देने की चुनौति वह स्वीकार न कर पाया। कितने ही दूसरे रेहड़ी वाले अपनी गरज के चलते ज्यादा किराया देने को मजबूर होने लगे लेकिन जिनके लिए पहले से दुगने किराये को झेलना संभव न हो रहा था, अपने जमे-जमाये ठिये से हाथ धोने लगे। यह सोचकर कि कहीं और ठिया लगा लेंगे, ठिए उखाड़ने लगे। पुरूषोत्तम के लिए कपड़े वाले की दुकान के आगे खड़े होकर टमाटर, गोभी या भिंडी की आवाज लगाना संभव न रह गया। किराये के अलावा वह तो पहले ही रोज की मुफ्त सब्जी के अतिरिक्त बोझ से दबा था। कपड़े वाले का मन जब भी नींबू-पानी पीने का हो जाता तो पुरूषोत्तम महाराज न सिर्फ नींबू काटकर रस निचोड़ने को मजबूर होते बल्कि कई बार मन ही मन किलसते हुए दौड़े जा रहे किलोमीटर दूर-प्याऊ तक, पानी लेने। नींबू-पानी की अतिरिक्त खेप सुबह दुकान में भर कर रखे गए पानी को खत्म कर देती। लेकिन कपड़े वाले की निगाह में तो सिर्फ ठिये के किराये के रूपये ही मौजूद रहते। दूसरे दुकानदारों ने किराया बढ़ा दिया है, कई बार के राग अलापने के बाद एक दिन वह भी अपनी पर आ गया। 
पुरूषोत्तम ने बढ़ा हुआ किराया देने की बजाय कपड़े वाले से किनारा करना ही उचित समझा। अगले दिन रेहड़ी कपड़े वाले की दुकान के आगे लगाने की बजाय कहीं और लगाने का तय कर लिया। लेकिन कोई ऐसी जगह जहाँ ठिया जमाना संभव हो, उसे पूरे दिन इधर-उधर फिरते हुए भी नसीब न हुई। जहाँ भी खड़ा होने को होता कि दुकानदार की झिड़क सुनाई देने लगती। बल्कि कई बार तो ऐसा भी हुआ कि किसी ग्राहक को माल बेचने के लिए उसे रेहड़ी को खड़ा करना ही पड़ा। लेकिन जिस भी दुकान के आगे रुकना हुआ, दुकानदार झल्लाते हुए ऐसे बाहर निकला कि मानो अभी रेहड़ी ही पलट देगा। उस वक्त तो पुरूषोत्तम के गुस्से का ठिकाना न रहा दुकानदार की मजाल कि आगे बढ़े और छेड़े रेहड़ी का माल! लेकिन दिन भर की इस फिरड़ा-फिरड़ी के बाद भी बिक्री पिछले दिनों की अपेक्षा कम ही रही थी। दुकानदारों से लड़ाई रोज का किस्सा होने लगी। बाजार के बीच इधर से उधर फेरी लगाते हुए पुलिस वालों से तो हर कोई बचता फिरता। दूसरे रेहड़ी वालों की तरह अब पुरूषोत्तम के पास भी अपना कोई ठिकाना न था और न ही उसकी कोई संभावना ही दिखाई दे रही थी। बाजार के बीचों बीच फेरी लगाते रेहड़ी वाले माल बेचने की कोशिश में कभी किसी दोपहिया वाहन वाले की गाली सुनते तो कभी पैदल गुजर रहे राहगीर के रेहड़ी पर टकरा जाने पर ऐसी जलालत के शिकार होते कि गुस्सा उनके भीतर भी उठ रहा होता। रेहड़ी चलाने के लिए एक तरह का कानूनी लाइसेंस जो पुलिस वालों की जेब गरम करने के बाद ही मिलता, पूरी तरह से सुरक्षित नहीं कहा जा सकता था। दुकानदारों की चिक-चिक ग्राहक को ही भागने को मजबूर कर देती। झगड़ा कभी भी हो जाता। दुकानदारों की ‘चट्टानी’ एकता थप्पड़, मुक्कों और धक्के का सबब हो रही होती और पुलिस के सिपाही का डंडा हिचकोले खा रही रेहड़ी के भी नट-बोल्ट को हिला दे रहा होता। उस वक्त तो कोई भी रेहड़ीवाला अपने को पूरी तरह से असहाय ही पाता। 
दुकानदार एक हो जाते और मरने-मारने पर उतारू होते। रेहड़ी वाले एक-दूसरे को पिटते देख, अपने साथी की तरफदारी की हिम्मत भी न कर पाते। हर एक को लगता कि शायद उसकी खामोशी कल से उसका ठिया हो जाए। जबकि दुकानदारों का कोप भाजन हर एक को होना पड़ रहा था। चाहे वह कच्छा-बनियान बेचने वाला हो चाहे आम-पापड़, अचार और मुरब्बे बेचने वाला। मूंगफली बेचने वाला हो, चाहे पानी-बतासे, टिक्की और चाट, या फिर फल, सब्जी या कोई भी दूसरा सामान। लेकिन रेहड़ी वालों के बीच जातिगत भेदभाव जैसी गहरी खाई अपने बेचे जाने वालों सामानों की विशिष्टता के कारण मौजूद होती। सामानों की विभिन्न किस्मों ने उनके भीतर विशिष्टताबोध का ऐसा संसार रचा हुआ था कि कच्छे-बनियान वाला फल वाले को अपने से कमतर समझता। यहाँ तक कि फल वाला सब्जी वाले को अपने से कमतर मानता। श्रेष्ठताबोध में डूबे वे एक दूसरे से कोई मतलब ही न रखते और एक-एक कर पिटने को मजबूर होते। उनके गुस्से का संगठित स्वरूप उभरना संभव ही न था। बाजार के भीतर रोजाना मौजूद रहते हुए भी वे एक दूसरे से उतने ही अनजान होते जैसे बाजार में आए दिन पहुँचने वाले ग्राहकों से। कोई किसी दूसरे की फटी में टांग अड़ाने को तत्पर न था। सिर्फ सब्जी और फल वालों के बीच ही विशिष्टता बोध की वह दीवार थोड़ा कम मजबूत होन की वजह एकदम स्पष्ट थी कि मंडी में एक ही जगह से माल उठाने और एक ही तरह की स्थितियों में आढ़तियों की चालाकियों से निपटने के चलते वे कुछ सामानताएं महसूस करते थे। गुस्से को संगठित रूप दे पाने में इसीलिए उनकी भूमिका एक हद तक महत्वपूर्ण भी हो सकती थी। सड़े टमाटर, पके हुए केले या दूसरे खराब हो चुके फल और सब्जी उनके हथियार हो गए। उन्होंने रात के अंधेरे

में पूरे बाजार की सड़क पर उनको बिखरा दिया।
दुकानदारों के प्रतिरोध में रेहड़ी-ठेली वालों का प्रयोग बहुत सफल न हो पाया। सड़ती हुई फलों और सब्जियों की गंध ऐसी थी कि बाजार के भीतर होने का मतलब उल्टी का एक तेज झटका। नाक को दबाए दुकानदार दुकानों को खोल कर बाजार को बाजार का रूप देते रहे और खरीदार, एक सुई के लिए भी जिनकी निर्भरता बाजार पर ही होती, नाक को रूमाल, दुपट्टे या किसी भी कपड़े से ढकते हुए बाजार में घुसने को मजबूर थे। सड़ांध का तेज भभका रेहड़ी-ठेली वालों के प्रति उनके भीतर गुस्सा भरने लगा। रेहड़ी-ठेली वाले एकदम अलग-थलग से पड़ने लगे। नितांत अकेले। डॉक्टर होगया, जो रेहड़ी-ठेली वालों और दुकानदारों के बीच बंटती खाई के ही विरुद्ध था, हर तरफ से मार झेल रहे रेहड़ी-ठेली वालों के साथ फिर भी खड़ा रहा दुकानदारों को वह सनकी डॉक्टर उस वक्त तो और भी सनकी नजर आया जब वह रेहड़ी-ठेली वालों को इकट्ठा करने लगा। तुफैल जो हर वक्त डॉक्टर को चिढ़ाता रहता था, हर एक को डॉक्टर की दुकान पर इकट्ठा होने की सूचना देता रहा लोग पूछते,

- क्यों ?...किसलिए ?

वह नटखट अपने ही अंदाज में होता। 

- होगया ... हो ही गया आज तो! 

डॉक्टर की नेकदिली और अपने प्रति लगाव को रेहड़ी-ठेली वाले अच्छे से महसूस करते थे। डॉक्टर बुलाए और वे न आएं, ऐसा कैसे संभव था ? मरीज अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे और डॉक्टर उनसे प्रार्थनारत था कि आज का दिन उसे मौहलत दे दें बस। बेशक गम्भीर रूप से अस्वस्थों के प्रति वह स्वंय बेचैनी से भरा था और जहाँ तक संभव था उपचार में जुटा था। भीड़ बढ़ती चली जा रही थी। दुकानदारों के लिए कौतुहल का विषय था। वे इतना तो जान रहे थे कि डॉक्टर ने ही रेहड़ी-ठेली वालों को इकट्ठा किया है पर किसलिए, यह नहीं जानते थे। कंधे पर झोला टांग नाड़े बेचने वाला, धूप-बत्ती और अगरबत्ती बेचने वाला और दूसरी तरह के सामान बेचने वालों के अलावा हुजूम में ज्यादातर सब्जी और फल की रेहड़ी लगाने वाले ही थे। डॉक्टर के आदेश पर वे सभी, बिना हिचके, कहीं भी चलने को तैयार हो सकते थे। 
तुफैल की चुहल जारी थी। दुकानदार दूर से ही मजा लूट रहे थे। उनकी फब्तियों का अंदाज बिल्कुल बदला हुआ था। डॉक्टर जवाब न देना ही उचित समझता रहा दुकानदारों की फब्तियों में चुहल नहीं, नफरत से भरी चिढ़ाने वाली कार्रवाई का गाद साफ झलक रहा था। वह तो प्यार से छेड़ने पर ही जवाब दे सकता था। खुद चिढ़ जाने और चिढ़ाने वालों से तो उसने कभी नाता ही न रखा।
अपने व्यवसाय की विशिष्टता और जीवन में कभी ऐसे हुजूम के बीच शामिल न हुआ डॉक्टर कैसे जान सकता था कि एकत्रित भीड़ से क्या कहे ? 

- तुफैल...मेरे बच्चे... सब आ गए क्या ? ... अबे वो तरबूज वाला नहीं दिख रहा 

- हम इधर  डॉक्टर साहिब।

उस छोकरे को डॉक्टर तब ही से तरबूज वाला पुकारता था जब वह उससे पहली बार मिला था। उलट गई तरबूज की रेहड़ी की वो यादें उसे हमेशा तरबूज वाले के प्रति अतिशय रूप से विनम्र बना देती थी। तरबूज वाला भी डॉक्टर के प्रति गहरी श्रद्धा रखने लगा था। 

- ठीक है...ऐसा करते हैं हम एक जुलूस की शक्ल में चलते हैं...घूमेंगे...पूरे बाजार में। 

- ठीक है डॉक्टर साहब...! ठीक है डॉक्टर साहिब।

ढेरों आवाजों ने समर्थन किया था। वे सभी उत्साह से भरे थे। डॉक्टर उनसे भी कहीं ज्यादा। 

- मकदूम !

डॉक्टर ने झल्ली वाले को आवाज दी। झल्ली को उठाए ही वह हुजूम के बीच खड़ा था। मण्डी जाने की बजाय डॉक्टर की दुकान पर इक्ट्ठे हो गए सब्जी और फल वालों की वजह से वह भी खाली था। वरना सुबह का वक्त हो और मकदूम यूंही झल्ली उठाए घूमे भला ! अभी केले ढोने में जुटा है तो दूसरी ओर से प्याज वाले की आवाज सुनाई दे रही, 

- अबे जल्द धर आ इसे...प्याज की बोरी तुली पड़ी है यहाँ। 

डॉक्टर की आवाज सुन, भीड़ के बीच से ही, झल्ली उठाए मकदूम डॉटर की ओर को बढ़ा। गर्व से उसका सीना तना हुआ था। डॉक्टर के इस तरह भीड़ के बीच पुकारने से वह खुद को विशिष्ट समझने लगा। मकदूम उन गिने-चुने में से एक था, डॉक्टर जिन्हें नाम से भी जानता था। 

- मकदूम तू अपनी झल्ली लेकर ही चलना...आगे आगे ... औरों के पास तो ऐसा कुछ है नहीं जो जुलूस, जुलूस की तरह दिखे। 

- मैं नारे लगाऊं डॉक्टर साब।

तुफैल के मुँह से अपने लिए होगया की बजाय डॉक्टर साहब सुनना डॉक्टर को कुछ अजीब-सा लगा लेकिन उसमें एक सच्चाई थी। अपने प्रति तुफैल के प्यार को वह महसूस कर पा रहा था। 

- हाँ भाई लोगों नारे लगाने वाला तो ‘होगया’ ... ये तुफैल का बच्चा लगाएगा। 

खुद का ही मजाक बनाता डॉक्टर उनके सामने था। उसके कहने का अंदाज इतना खूबसूरत था कि हँसी का फव्वारा छूट गया। तुफैल तो मारे शर्म के पानी-पानी हो गया। 

- हाँ...मैं तो होगया ... किसी और को तो नहीं होना है बे!

स्वंय को सामान्य दिखाने के लिए उसकी खिसियानी सी आवाज में होगया का अर्थ इतनी स्पष्टता के साथ उभरा कि अवरोह की ओर खिसक रही सामूहिक हँसी  का वह स्वर पंचम में पहुँच गया। 

- ठीक है फिर ... तुफैल नारे लगाएगा सब उसका जवाब देंगे।

डॉक्टर का गम्भीर स्वर उभरा और हँसी  ठिठोली का वातावरण एक गम्भीर कार्रवाई में बदलने लगा। मई दिवस की परम्परागत रैलियों का दृश्य हर एक का देखा भाला था। पर उस जुलूस को देखकर उनकी हँसी के गोले छूटने लगते थे। बाबू साहब से दिखते लोगों का इस तरह नारे लगाते हुए जाना उन्हें लुत्फ देता था और हास्यास्पद भी लगता जब वे जानते कि ये अपने को मजदूर मान रहे हैं। बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारियों के उस जुलूस को वे मजदूरों के जुलूस के रूप में देख ही न पा रहे होते थे। लेकिन उनके नारों की आवाजों में वे अपने मन के भीतर उठते भावों की अभिव्यक्ति तो महसूस करते ही थे। जुलूस में नारा लग रहा होता- इंकलाब ! जवाब में तुफैल भी चिल्लाता-जिंदाबाद!! भीड़ के बीच भी उसकी आवाज ऐसे गूँजती थी कि नारे का जवाब दे रहे जुलूस के लोग भी चौंकते थे और उस नटखट कामगार के प्रति एक आत्मीय मुस्कराहट उनके चेहरों पर बिखर जाती। 
संघर्ष और एकता का कोई ठोस अनुभव न होने के बावजूद भी डॉक्टर जानता था कि समस्या की जड़ बाजार के दुकानदारों और रेहड़ी वालों के बीच आपसी मन-मुटाव में नहीं है। इकट्ठे हुए साथियों और दुकानदारों से इस बात को वह कई बार कहता भी रहा हर उस मौके पर जब भी कोई दुकानदार किसी रेहड़ी वाले को अपनी दुकान के सामने खड़े होकर सामान बेचने पर उससे लताड़ता तो डॉक्टर हस्तक्षेप किए बिना न रह पाता। बेशक दुनदारों को उस वक्त कोई ढंग की बात समझा पाना संभव न होता पर डॉक्टर के बीच में पड़ जाने से कितने ही झगड़े, मारपीट की पराकाष्ठा को पहुँचने से पहले रुक जाते। रेहड़ी ठेली वालों के साथ होते हुए भी वह बाजार के उन दुकानदारों के विरुद्ध कतई नहीं था, जो उसकी इस कार्रवाई पर भी, फब्तियां कस रहे थे। समझदारी के इस बिन्दु से ही डॉक्टर ने इकट्ठा भीड़ को संबोधित किया और जो नारा दिया उसका जवाब जब गूंजा तो दुकानदार पहले तो चौंके पर फिर उसे डॉक्टर की खब्त समझ, अपने में मशगूल हो गए। तुफैल ऊंची आवाज में दोहरा रहा था-

- व्यापारी एकता - जिन्दाबाद!

- रेहड़ी-ठेली दुकानदार एकता - जिन्दाबाद!

तुफैल की आवाज को जवाब जिन्दाबाद! जिन्दबाद! के नारों से गूंज रहा था। 

नारे लगाते हुए जुलूस बाजार के बीच से गुजरने लगा। बाजार के बीच रेहड़ी-ठेली वालों का रेला सा बह रहा था। दुकानदार चौंकते हुए अपनी दुकानों से बाहर झांकने लगे। डॉक्टर होगया की ‘खब्त’ को उसके नारों की शक्ल में सुनने का प्रभाव चाहे जो रहा हो पर जुलूस का विरोध करने की हिम्मत किसी की न हुई। उन पुलिस वालों की भी नहीं, जो मरियल से दिखते इन रेहड़ी वालों को जब चाहे धमका लेते और जिनसे डरते हुए रेहड़ी वाले इधर से उधर दुबकने की कोशिश करते। बाजार के बीच आवाजाही कुछ थम सी गई थी। सड़क के बीच घूम रहे लोग दुकानों के थड़े पर खड़े होकर अनिच्छा से उस नजारे को देख रहे थे, जिसमें वे रहड़ी वाले भी शमिल होते गए जो अपने सामानों की विशिष्टता के चलते अपने को सब्जी और फल वालों की तरह का रेहड़ी वाला मानने को तैयार नहीं थे।