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Sunday, March 13, 2011

उत्तराखण्ड में भाषा-बोली

                               

दुनिया के पैमाने पर आज कितनी ही जनभाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं और कितनी ही विलुप्त हो चुकी हैं। दुनिया पर राज करती मुद्रा और भाषा के चौतरफा हमले के चलते सब कुछ इतनी तेजी से घट रहा है कि यह भी समझना मुश्किल हो जा रहा है कि कब और कैसे हम स्वंय भी हमले के षड़यंत्र के शिकार हो चुके हैं और अनजाने में ही उसके तर्कों के साथ खड़े हैं। बिना इस बात को ठीक तरह से जाने, सिर्फ अस्मिता के सवाल के साथ न तो किसी भाषा को बचाया ही जा सकता है और न ही ऐसा भाषायी आंदोलन खड़ा किया जा सकता जिसके व्यापक विस्तार की संभावना बने।
सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियों को समग्रता में देखे बिना और समग्रता में ही मुखालफत किये बिना जन भाषाओं के बचाव के लिए की जा रही कोई भी पहल अधूरी साबित होने वाली है। फिर यह भी देखने और समझने की बात है कि ऐसी विकट स्थितियों में भाषायी सवाल पर गैर-सरकारी संस्थानिक आंदोलनों का बाजारू फंडा क्या है ? दुनिया के विकास का मौजूदा मॉडल किस तरह का वैश्विक ढांचा खड़ा करना चाहता है, गैर-सरकारी संस्थानों की भूमिका उसके बीच किस तरह की है ? शासन प्रशासन के पूंजीवादी मॉडल के भीतर गैर-सरकारी संस्थानों की दखल जिस तरह की सामाजिक विसंगति के सवालों को अपनी परियोजनओं का हिस्सा बनाती है, उसके निहितार्थ उस समग्रता को छू पाते हैं क्या ? यह भी देखना होगा कि जनभावनाओं के निरादर वाली पूंजीवादी मॉडल की शासन प्रणाली को बचाये रखने की चालाकियों के साथ जनभाषाओं को बचाए रखना क्या आज संभव रह गया है ? गैर-सरकारी संस्थानों का ढांचा ऐसी ही शासन-प्रणालियों से पोषित होता हुआ है, यह कोई छुपी हुई बात नहीं रह गया है। उसको ही बचाये रखने के ध्येय के साथ अनुदानों की आर्थिक मद्द से चलने वाले संगठन या सदस्यों के सहयोग से चलने वाली संस्थाओं की कार्यशैली में कोई ज्यादा फर्क है नहीं। देखा जा सकता है कि जनभावनाओं का निरादर ही नहीं अपितु उसे पूरी तरह से कुचलने की शासन प्रणालियों वाला यह मॉडल न सिर्फ अपनी प्रवृत्ति में षड़यंत्रकारी है बल्कि उसके तंत्र का जाल बेहद उलझा हुआ है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन से लेकर राज्य निर्माण की पूरी प्रक्रिया के सिलसिलेवार अध्ययन से एक सिरा जो हाथ लगता है उसमें दिखायी देता है कि जनआकांक्षाओं को शिकस्त प्रतीकात्मक तरह से भी दी जा सकती है। राज्य का नाम उत्तरांचल करने की घोषणा उसका एक नमूना है। परिणाम सीधा-सीधा यह रहा कि राज्य निर्माण की प्रक्रिया अपनाये जाने के बाद भी जनता खुद को ठगा हुआ पाती है - समझना मुश्किल हो जाता है कि जनता की जीत का राज्य निर्माण हुआ है या फिर राज्य के नाम पर एक और चोर जेब सा कुछ हाथ आया है। प्रतीक के तौर पर बदले गये नाम को ही सही और एकमात्र सही नाम बताने वाले एवं चोर जेब के तंत्र को स्थापित करने के बाद नाम बदलने की प्रक्रिया को अंजाम देने वालों की चालाकी भरी चुप्पी कोई छुपी हुई बात नहीं है। बहुत से जनतांत्रिक सवालों को छुपाये रखने की यह ऐसी षड़यंत्रकारी कार्रवाई रही,  जिसमें वास्तविक संघर्ष को दरकिनार रखते हुए- मात्र अस्मिता के सवाल के साथ नाम बदलने की लड़ाइयां ही सर्वोपरी मान ली जाती रही। जन विरोधि नीतियों के प्रतिरोध की वाष्प को मात्र नाम बदलने की कार्रवाई में झोंक देने को मजबूर कर और अंतत: उसे पूरा कर दिये जाने की प्रक्रिया, एक खेल खेलने जैसा ही रहा है। ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या जन भाषाओं के बचाव की लड़ाई संविधान की आठवीं अनुसूची तक की एक निरर्थक कोशिश है या उसकी यात्रा का उन पड़ावों से गुजरना है जहां जल, जंगल, जमीन और रोजी-रोजगार के ठिकाने मौजूद हैं ? उत्तराखण्ड में आज भाषा-बोली का जो सवाल जोर पकड़ता जा रहा उसके केन्द्र में सिर्फ गढ़वाली और कुमाऊंनी को ही तरजीह दी जा रही है। यदा-कदा जौनसारी का जिक्र भी हो जा रहा है। पंजाबी, गोरखाली और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की वह भाषा जो राज्य की राजधानी के एक बड़े भू-भाग में मौजूद है, उसका जिक्र बहुधा छूट जा रहा है। यहां सवाल यह नहीं है कि आंदोलन के केन्द्र में सिर्फ गढ़वाली, कुमाऊंनी को ही तरजीह क्यों दी जा रही है, बल्कि उस बिन्दु को छेड़ना है जो उत्तराखण्ड में सारे मुद्दों को, मात्र अस्मिता के नाम पर दरकिनार कर देना चाहता है। जरूरत है राज्य के भीतर व्याप्त विसंगतियों और रोजी रोजगार के दूसरे मसलों की रोशनी में ही जनभाषाओं के बचाव की मुहिम जारी हो। एक बड़े फलक पर बोली जाने वाली भाषा हिन्दी, जो कि देश और दुनिया के पैमाने पर वैसे ही उपेक्षित होने की स्थिति में है जैसे किसी भी राज्य में बोली जाने वाली दूसरी अन्य भाषाएं, उत्तराखण्ड राज्य में एक हद तक काम-काज की भाषा है। यह अपने आप में उल्लेखनीय है कि राज्य के बहुभाषी चरित्र को पूरी तरह से समेटने में ज्यादा स्वीकार्य भी है।   
          

Monday, June 7, 2010

विलुप्ति के कगार पर भाषा-बोलियां

आज से पांच दशक पूर्व जब मैं शोध हेतु राजियों की जंगली बस्तियों में गया तो मैंने पाया कि वे अलगाव की स्थिति से बहुत कुछ उबर चुके थे। कभी की गुहावासी और पत्रधारिणी जाति के वे लोग अपने पड़ोसियों के खेतों में खेतिहर मजदूरों का काम करने लगे थे। लकड़ी के बरतनों के बदले अनाज लेकर चुपचाप खिसक जाने की जगह सौदा तय करने की स्थिति में आ गए थे। इसके लिए उन्हें पड़ोसियों की भाषा सीखनी पड़ी और इस तरह उनकी भाषा में अन्य भाषा-बोलियों के शब्द घुसपैठ करने लगे। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दबावों के चलते आज राजी भाषा उनके अपने घर-परिवार से भी बहिष्कृत होने लगी है। डॉक्टर कविता श्रीवास्तव के अनुसार भी राजी भाषा आज उनके धार्मिक रीति-रिवाजों और घर-परिवार तक ही इतनी सीमित हो चुकी है कि वहां भी अब पड़ोस की भाषा-बोलियों के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग होने लगा है। संपर्क की भाषा कुमाऊंनी-नेपाली या विशेष रूप से हिंदी हो चुकी है। नई पीढ़ी अपनी भाषा के प्रति पूर्णत: उदासीन लगती है और यह भाषा विलुप्त होने की जद में है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट में हिमालयी किरातस्कंधीय तथा अन्य उन बोलियों के नाम आए हैं जो खतरे में हैं लेकिन राजी का नाम नहीं है। जबकि इस अल्पसंख्यक जनजाति की भाषा का कोई भविष्य दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी के समीप पुरानी जौहारी जो दरमियां-चौंदासी-ब्यांसी के अपने ही सर्वनामीय वर्ग की थीं, बहुत पहले विलुप्त हो गईं थीं और उसकी जगह आज कुंमाऊनी बोली जाती है। लगता है यही स्थिति राजी भाषा की भी होने वाली है।
- डॉ. शोभाराम शर्मा
डॉ. शोभाराम शर्मा
राजी, राजी भाषा और उसका क्षेत्र:


पश्चिम में हिंदुकुश-पामीर की वादियों से लेकर पूरब में अरुणाचल प्रदेश तक भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल हिमालयी क्षेत्र में जिन भाषा-बोलियों का प्रचलन रहा या है उनमें से उत्तराखंड के पूर्वी छोर और पश्चिमोत्तर नेपाल के जंगलों में व्यवहृत एक अल्पसंख्यक राजी नामक जनजाति की भाषा भी है। काली नदी जो उत्तराखंड और नेपाल को अलग करती है, उसी के आर-पार के जंगलों में राजी भाषा-भाषी भी निवास करते हैं। यह नदी नैनीताल जिले के टनकपुर-बनबसा तक काली कहलाती है और यहीं तक वह उत्तराखंड की पूर्वी सीमा का निर्धारण करती है। इसके आगे वह शारदा, अयोध्या में सरयू और अंतत: घाघरा नाम से गंगा में समाहित हो जाती है। उत्तराखंड के पूर्वी जिलों पिथौरागढ़ एवं चंपावत के धारचुला, डीडीहाट, पिथौरागढ़ और चंपावत तहसीलों के जंगल ही राजी भाषा-भाषियों के मुख्य आवास-स्थल हैं। इधर नैनीताल के चकरपुर में भी इनके कुछ परिवारों का पता चला है।
    भारतीय सीमा के भीतर सन् 2001 की जनगणना के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या मात्र 517 आंकी गई है। नेपाल की सीमा में भी इस जनजाति की लगभग यही स्थिति है। राजी के अतिरिक्त इन्हें बनरौत, रावत, वनमानुष या जंगली या जंगल के राजा भी कहा जाता है। अटकिन्सन आदि के अनुसार राजी राजकिरात का तद्भव है। पौराणिक ग्रंथ हिमालयी जनजातियों में किन्नर किरातों और राज किरातों का उल्लेख भी करते हैं। ये राजकिरात किरात ही थे या किरातों पर शासन करने वाली दूसरी जाति के लोग थे इसकी छानबीन करना सरल नहीं है। राजी अपने को अस्कोट के रजवारों में से मानते हैं। जबकि अस्कोट आदि के रजवार कत्यूरी वंश के हैं और कत्यूरी खस थे या बाद के शक-कुषाण, यह विवादास्पद है। राजियों के वर्तमान रूप-रंग और आकार-प्रकार को देखकर यही प्रतीत होता है कि राजी एक वर्णसंकर कबीला है जिसमें मुख्यत: निषाद जातीय तत्व प्राप्त होते हैं और गौण रूप में मंगोल प्रभाव भी परिलक्षित होता है। यही कारण है कि वे तराई-भाबर के थारू एवं बोक्सों से अधिक मेल खाते हैं। इस दृष्टि से इस जाति को मलयेशियन जातियों के समकक्ष रखा जा सकता है। जिनमें मंगोल और आस्ट्रिक जातियों का सम्मिश्रण प्राप्त होता है।
   राजियों की भाषा का अलग से कोई स्वतंत्र नाम नहीं है। जाति के नाम से ही इसे राजी नाम मिला है। विकल्प से इसे रौती या जंगली भी कह दिया जाता है और ये नाम भी बनरौत एवं जंगली जैसे जाति नामों पर ही आधारित हैं। जाति और उसकी भाषा के लिए जंगली नाम का उल्लेख सर्वप्रथम जार्ज ग्रिर्यसन ने सन् 1909 के अपने सर्वेक्षण में किया था।

राजी भाषा का संक्षिप्त इतिहास:

राजी जाति और उनकी भाषा का कोई क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं है। राजी भाषा-भाषी आज तक भी अर्धघुम्मकड़ वन्य कबीले के रूप में जीवन-यापन करने से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। इनकी भाषा को सामान्यत: बोली कहा जाता रहा है। लेकिन यह न तो अपने चारों ओर की आर्य परिवार की खस-प्राकृत से निसृत कुमाऊंनी और नेपाली से मेल खाती है और न उत्तर में पड़ोस की किरातस्कंधीय-दरमियां-चौंदासी-ब्यांसी जैसी तिब्बती-बर्मी वर्ग की बोलियों से ही सीधे-सीधे संबंधित है। अपने क्षेत्र विशेष में अलग-थलग पड़ी होने से इसे बोली की जगह भाषा कहना ही युक्तिसंगत लगता है।
भाषाविद् ब्रियान हार्टन हाग्सन ने किरातस्कंधीय बोलियों को सर्वनामीय एवं असर्वनामीय दो वर्गों में विभाजित किया है। इन दोनों वर्गों में एक भिन्नमूलक तलछंट पाई जाती है। जिसे भाषाविद् मुंडा परिवार का अवशेष मानते हैं। डॉक्टर स्टेन कोनी के इस मत को स्वीकार करते हुए ग्रिर्यसन का मानना है कि मुंडा के ये अवशेष असर्वनामीय वर्ग की जगह सर्वनामीय वर्ग में अधिक मुखर हैं। इस वर्ग की कुछ भाषा-बोलियों में तो ये अवशेष इतने अधिक हैं कि उन्हें मुंडा परिवार की भाषा-बोली कहने में संकोच नहीं होता।

   तिब्बत-बर्मी उप परिवार की भाषा-बोलियां हिमालय के दक्षिणी ढलानों और पूर्वोत्तर में बोली जाती हैं। इसी परिवार के भाषा-भाषियों को किरात कहा जाता है। भाषाविद् ब्रियान हार्टन हाग्सन ने किरातस्कंधीय बोलियों को सर्वनामीय एवं असर्वनामीय दो वर्गों में विभाजित किया है। इन दोनों वर्गों में एक भिन्नमूलक तलछंट पाई जाती है। जिसे भाषाविद् मुंडा परिवार का अवशेष मानते हैं। डॉक्टर स्टेन कोनी के इस मत को स्वीकार करते हुए ग्रिर्यसन का मानना है कि मुंडा के ये अवशेष असर्वनामीय वर्ग की जगह सर्वनामीय वर्ग में अधिक मुखर हैं। इस वर्ग की कुछ भाषा-बोलियों में तो ये अवशेष इतने अधिक हैं कि उन्हें मुंडा परिवार की भाषा-बोली कहने में संकोच नहीं होता। हिमाचल प्रदेश की कनावरी या किन्नौरी एक ऐसी ही बोली है जिसे कुछ भाषाविद् मुंडा परिवार की ही एक बोली मानते हैं। राजियों के समीप की किरातस्कंधीय बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की हैं किंतु उनके बोलने वाले भी राजी को समझ नहीं पाते। जबकि ग्रिर्यसन ने जंगली नाम से राजी भाषा को भी सर्वनामीय वर्ग में ही गिना जाता है। इसका कारण शायद यही है कि राजी भाषा में मुंडा के अवशेष इतने अधिक हैं कि उसे न तो किरातस्कंधीय और न आर्य भाषा-भाषी ही समझ पाते हैं। हिमालय के इस क्षेत्र में पूर्वी नेपाल की किरान्ति बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की हैं। मेघालय की खासी बोली को तो भाषाविद् कुन (KUHN) ने आग्नेय परिवार की मौन-ख्मेर के साथ जोड़ा है। उधर पश्चिम में कनावरी और उसके आस-पास की कतिपय बोलियां भी सर्वनामीय वर्ग की मानी जाती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि यह क्षेत्र कभी आस्ट्रो-एशियाटिक ;आग्नेय देशीय भाषा-भाषियों का गढ़ था और राजी भाषा भी उसी की एक बची-खुची निधि है जिस पर कालांतर में उत्तर की तिब्बत-बर्मी वर्ग की भाषा-बोलियों का प्रभाव भी कम नहीं है। कुछ लोग भौगोलिक सामीप्य और कुछ शब्दों के मिलने से उसे तिब्बत-बर्मी वर्ग की ही बोली मान लेते हैं। लेकिन राजियों की भाषा का वर्तमान रचनागत वैशिष्ट्य उसके मूल पर अधिक प्रकाश डालता है। राजियों की भाषा पर दो विजातीय प्रभाव तो स्पष्ट हैं, एकाक्षर परिवार की तिब्बत-बर्मी वर्ग का प्रभाव केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं है बल्कि एकाक्षर धातुओं की उपलब्धि भी उसी प्राचीन प्रभाव की ओर इंगित करती है। आर्य प्रभाव शब्द ग्रहण के रूप में अधिक व्यापक है किंतु इन दोनों परिवारों से राजी भाषा में जो भिन्नताएं प्राप्त होती हैं वे इतनी मुखर, व्यापक और सूक्ष्म हैं कि राजी भाषा का इन दोनों परिवारों में से किसी एक में स्थान निर्धारित करना असंगत है। जहां तक द्रविड़ परिवार का संबंध है उसकी किसी जीवित बोली का हिमालय क्षेत्र में आज तक कोई पता नहीं चल पाया है। इस परिवार की भाषा-बोलियों से राजी भाषा की भौगोलिक दूरी ही नहीं अपितु रचनागत दूरी भी उतनी ही अधिक है। इस भाषा में यदि निम्न विशेषताएं प्राप्त न होतीं तो इसे बास्क, हायपर-बोरी, एनू और जापानी आदि की भांति भाषा परिवार की दृष्टि से अनिर्णीत कोटि में ही रखने पर बाध्य होना पड़ता। -

1 अश्लिष्ट योगात्मकता: राजी के क्रियापद में कर्म और कर्ता प्रत्ययवत् संयुक्त हो जाते हैं। भिन्न भावों और वृत्तियों तथा कालों के लिए प्रत्यय जुड़ते हैं। नए शब्द भी प्रत्यय जुड़ने से निर्मित होते हैं किंतु योग संश्लिष्ट नहीं हो पाता। कुछ वाक्यों में योगात्मकता संश्लिष्ट रूप में प्राप्त होती है किंतु उनकी संख्या नितांत न्यून है।
2 अंत: प्रत्यय की विद्यमानता।
3 क्रिया में निश्चयात्मकता के लिए निर्धारक निपात का योग।
4 क्रिया के आत्मबोधक, परस्पर बोधक और समभिहारार्थक रूप।
5 निपीड़ित व्यंजनों ;अर्धव्यंजनों की प्राप्ति।
6 कंठद्वारीय अवरोध।
7 आंशिक क्लिकत्व।
   उपर्युक्त विशेषताएं अपने-आप में इतनी महत्वपूर्ण हैं कि ये राजी भाषा के परिवार की ओर स्वत: इंगित कर देती हैं। आग्नेय-देशी-मुंडा आदि की इन विशेषताओं के प्राप्त होने से स्पष्ट हो जाता है कि राजी भाषा इसी परिवार से संबंध रखती है। शब्द-भंडार भी अधिकतर इसी मूल का है। युगों से संबंध टूट जाने से और भिन्नमूलक भाषाओं के प्रभाव स्वरूप अनेक अंतर भी उत्पन्न हो गए हैं। कंठद्वारीय अवरोध प्राप्त तो होता है किंतु उसका वही रूप नहीं है जो मुंडा वर्ग की भाषा-बोलियों में है। राजी भाषा में इस अवरोध के पश्चात प्राय: हृस्व या फुसफुसाहट वाले स्वरों का उच्चारण हो जाता है। इसी प्रकार चेतन पदार्थों में द्विवचन, बहुवचन के लिए पुरुषवाचक सर्वनाम के रूपों का योग भी राजी भाषा में स्पष्ट नहीं है। स्वराघात की दृष्टि से भी राजी भाषा मुंडा के बलात्मक स्वराघात का अनुगमन नहीं करती। फिर भी राजी भाषा का ध्वन्यात्मक गठन, व्याकरण और शब्द-भंडार तीनों इस बात के प्रमाण हैं कि आज चाहे जितने स्थूल अंतर क्यों न उत्पन्न हो गए हों, राजी भाषा मूलत: आग्नेय परिवार से संबंधित मुंडा परिवार की बोली है।

संदर्भ-ग्रंथों की सूची:

1 कुमाऊं तथा पच्च्चिमी नेपाल के राजियों (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन,
डॉ. शोभाराम शर्मा
2 एस्से रिलेटिंग टू इंडियन सब्जैक्ट्स- खंड-1, ग्रियान हारटन हाग्सन
3 कुमाऊं का इतिहास, श्री बद्रीदत्त पांडे
4 गजेटियर(अल्मोड़ा) अटकिन्सन
5 लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, जार्ज इब्राहम ग्रिर्यसन(हिंदी अनुवाद- भारत का भाषा सर्वेक्षण, डॉक्टर उदित नारायण तिवारी)
6 लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, भाग-2, ;मौन-ख्मेर एवं ताई परिवार, जार्ज इब्राहम ग्रिर्यसनद्ध
7 भारत की भाषाएं तथा भाषा संबंधी समस्याएं, डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी
8 भारतीय संस्कृति में आर्येतरांश, श्री शिवशेखर मिश्र
9 हिमालय परिचय (कुमाऊं), राहुल सांकृत्यायन
10 राजी: लैंग्वेज ऑफ ए वेनिशिंग हिमालयन ट्राइब, डॉक्टर कविता श्रीवास्तव
11 प्रीहिस्टोरिक इंडिया, स्टूवर्ट पिगॉट

Wednesday, November 25, 2009

भाषा का वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्र

डॉ.शोभाराम शर्मा

भाषा का वर्गीय एवम् औपनिवेशिक चरित्र होता है। यह बात कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन सच्चाई यही है कि कोई भी समाज जिन परिस्थितियों से गुजरता है उनका प्रभाव सर्वग्रासी होता है। और तो और भाषा तक भी अछूती नहीं रह पाती। हर समाज आर्थिक, राजनीतिक, धर्मिक और सांस्कृतिक आदि कारणों से समस्तर नहीं होता। वह अनेक वर्गों और उपवर्गों में बंटा होता है। उन वर्गों-उपवर्गों की भाषा-बोलियां एक मूल की होने पर भी एक जैसी नहीं रह पाती। पढ़े-लिखे पंडितों और जन-साधरण की भाषा का अंतर इसका अकाटय प्रमाण है। भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो भाषा के वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्रा का तथ्य खुली किताब के रूप में सामने आ जाता है। आर्य भाषा-भाषी जन-गणों का यहां द्रविड़ भाषा-भाषियों से ही नहीं अपितु आग्नेय भाषा-भाषी संथाल, मुंडा और कोल-भीलों से भी जूझना पड़ा। संघर्ष में आर्य प्रबल सिद्ध हुए और आर्येतर भाषा-भाषियों को या तो दक्षिण-पूर्व की ओर हटना पड़ा या आर्य कबीलों के बीच उनके उपनिवेशों में ही अधीन होकर रहना पड़ा। इन उपनिवेशों के विस्तार और उनमें आर्येतर भाषा-भाषियों के संसर्ग से उनकी भाषा-बोलियों का प्रभावित होना स्वाभाविक था। भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि संस्कृत में टवर्गीय ध्वनियाँ द्राविड़ी प्रभाव स्वरूप आई हैं। जहाँ तक शब्दों के आदान-प्रदान का सवाल है, आर्य और आर्येतर मूल की सभी भाषा-बोलियों में एक-दूसरे के शब्द सैकड़ों नहीं हजारों की संख्या में उपलब्ध् हैं और उनकी रूपात्मकता भी निश्चित रूप से प्रभावित हुई है।
प्राचीन आर्यावर्त या मध्य देश तथा उसके बाहर जहां तक आर्य भाषा-भाषी प्रबल सिद्ध हुए वहां पैशाची, खस, शौरसैनी, महाराष्ट्री, अर्द्धर्माग्धी और पाली आदि प्राकृत भाषाओं के और आगे विकास में आर्य और आर्येतर भाषा-भाषियों का संसर्ग ही मुख्य कारण था। इन प्राकृत भाषाओं का स्वरूप मोटे रूप में आर्य भाषा-भाषियों की बोल-चाल की भाषा ही थी लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में उनमें जो अंतर पैदा हुए वे उन आर्येतर भाषा-भाषियों का प्रभाव था जो आर्य भाषा-भाषियों के बीच रहने पर बाध्य हो गए थे। इनमें से अधिकांश समाज के निचले स्तर के वे लोग थे जिन्हें शूद्र कहा गया। इन क्षेत्रों में कई आर्येतर भाषा-भाषी कबीले तो अपनी मूल भाषा तक त्यागने पर बाध्य हो गए। भील आदि जन-जातियों का यही इतिहास है। वे आज पूर्णत: आर्य भाषा-भाषी हो चुके हैं। मध्य पहाड़ी क्षेत्रा में जोहार-मुन्सार के भोटांतिक आज कुमाउफंनी के ही एक रूप का उपयोग करते हैं, जबकि उनकी मूल भाषा दारमा-चौदाँस और व्यास के भोटांतिकों की मुंडा प्रभावित तिब्बत-बर्मी बोलियों की सजातीय थी।
समाज के शीर्ष पर बैठे ब्राह्मण-पुरोहितों और शासकों को दलित शूद्रों के प्रभाव से अपनी देव-भाषा को बचा कर रखने की चिंता सताने लगी और इस तरह पाणिनि आदि के द्वारा संस्कृत का स्वरूप निर्धरण संभव हुआ। अपने धर्म और संस्कृति के प्रसार के लिए उन्हें पूर्व और दक्षिण के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच जाना पड़ा और उनसे वैवाहिक संबंध् भी स्थापित करने पड़े। आर्यावर्त या मध्य देश में अपनी अतिरिक्त कामेच्छा की पूर्ति के लिए भी वे दलित स्त्रियों को दासी या रखैलों के रूप में स्वीकार करने लगे थे। आर्येतर भाषा-भाषी पत्नियों या रखैलों, दास-दासियों से भी देव-भाषा के विकृत होने का खतरा था और इसीलिए शूद्र व नारी वर्ग को संस्कृत के पठन-पाठन आदि से वंचित कर दिया गया। संस्कृत के नाटक इस तथ्य के प्रमाण हैं कि उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिाय आदि पात्रों के संभाषण संस्कृत में हैं लेकिन शूद्र या नारी पात्रा प्राकृत में ही अपनी बात कहते नजर आते हैं। इतना ही नहीं शूद्रों पर वेद मंत्रा सुनने या बोलने पर भी पाबंदी लगा दी गई। यहां तक कहा गया है कि वेद मंत्रा सुनने पर उनके कानों में खौलता हुआ सीसा उड़ेल देना चाहिए और अगर वह वेद मंत्रा जुबान पर लायें तो जुबान काट देनी चाहिए।
आपसी वार्तालाप, अभिवादन और कुशल-क्षेम पूछने तक में भी भाषा का वर्गीय स्वरूप नजर आता है। मनुस्मृति के अनुसार-
भवत्पूर्वं चरेभ्दैक्ष मुपनीतो द्विजोत्त्म।
भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्।।

अर्थात् यज्ञोपवीतधरी ब्राह्मण को भिक्षा मांगने पर "भवत्" शब्द का उच्चारण पहले क्षत्रिय को मध्य में और वैश्य को अंत में करना चाहिए। ब्राह्मण कहे- "भवति भिक्षां देहि", क्षत्रिय कहे- "भिक्षां भवति देहि" और वैश्य कहे- "भिक्षां देहि भवति।" इस श्लोक में चौथे वर्ण शूद्र का जिक्र नहीं है क्योंकि उसे न तो यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार था न संस्कृत बोलने का। न्यायालय तक में यह भाषा-भेद बरता जाता था। मनुस्मृति के ही अनुसार-

ब्रृहीति ब्राह्मणं पृच्छेत्सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम्।
गो बीज काञ्चनेर्वैश्यं शूद्रं सर्वेस्तु पातकै:।।

अर्थात् न्यायकर्ता ब्राह्मण से गवाही देने और क्षत्रिाय से सत्य बोलने को कहें। वैश्य से कहें कि अगर झूठ बोले तो उसे गौ, बीज और स्वर्ण चुराने का पाप लगेगा और शूद्र से कहें कि झूठ बोलने पर तुम्हें सारे पातकों का दोष लगेगा।
हिंदू वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत भाषा का यह वर्गीय चरित्रा आज भी समाप्त नहीं हो पाया है। खस प्राकृत से निकली गढ़वाली में एक दलित को ब्राह्मण आदि का अभिवादन "समन्या ठाकुरो या समन्या साब" (सेवा मानें ठाकुर या साहब) कहकर करना होता है। बदले में आर्शीवचन "जी रै" (जिंदा रह) कहा जाता है। उनके लिए "प्रणाम", "नमस्कार", "आयुष्मान" या "चिरंजीव" आदि शब्द वर्जित हैं। आर्य समाज के प्रभाव में कुछ पढ़े-लिखे दलितों ने अपने को आर्य लिखना आरंभ किया तथा अभिवादन के लिए "नमस्ते" का प्रयोग शुरू किया। लेकिन वर्ण व्यवस्था के समर्थकों की नजर में "आर्य" और "नमस्ते" दोनों ही अपना मूल्य खो बैठे और यही हाल गांध्ी जी के दिए गए नाम 'हरिजन" का भी हुआ। गढ़वाली में दलित वर्ग से संबंध्ति डूम (नीच/शूद्र), डुमण (शूद्र निवास) डुमिणु (नीच/शूद्र होना), डुमण्य (शूद्रता प्राप्त), डुम्याणु (शूद्र बना देना), डुमटाल (नीचता का पातक), डुमैण (नीच शूद्रा) जैसे शब्दों के पीछे निश्चित रूप से वर्गीय घृणा ही नजर आती है। उनसे संबंधित मुहावरों और कहावतों में भी उसी घृणा के दर्शन होते हैं और यही स्थिति इस देश की अन्य भाषा-बोलियों में भी मिलती है।
समाज में पेशों पर आधरित जो विभिन्न वर्ग बन जाते हैं उनकी बोल-चाल भी एक जैसी नहीं रह पाती। उदाहरणार्थ, जिन जातियों को आपराधिक प्रवृति का मान लिया गया है, उनकी भाषा बोली कुछ ऐसा रूप ले लेती है कि दूसरे उसे समझ पाने में अपने को असमर्थ पाते हैं। साँसी, बावरिया और भाँतू जिस छद्म भाषा का प्रयोग करते हैं उसे वे ही आपस में समझ पाते हैं। गुप्तचरों और सटोरियों की भाषा भी सामान्य जन की भाषा से अलग ही होती है। पढे-लिखे सुसंस्कृत वर्ग और दबे-कुचले दलित-शोषितों की भाषा-बोलियों में जो अंतर होता है, वह भाषा के वर्गीय चरित्र को ही स्पष्ट करता है।
आर्य भाषी जन-गण जब दक्षिण और पूरब के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच अपने उपनिवेश बसाने तथा सत्ता हथियाने में सपफल हो गए तो उनकी भाषा, ध्म और रहन-सहन को महत्व मिलना जरूरी था। आर्येतर भाषा-भाषी कुछ कबीले बीहड़ घने जंगलों की शरण लेने पर बाध्य हो गए थे लेकिन अध्सिंख्य आर्य भाषा-भाषियों के रंग में रंगते चले गए। उनके शासकों ने भी ब्राह्मणवाद के प्रभाव में आकर संस्कृत को ही धर्म, प्रशासन और साहित्य की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की। यही कारण है कि संस्कृत साहित्य के विशाल भंडार का एक बहुत बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत की देन है। द्रविड़ भाषा-बोलियों ने भी बहुत कुछ संस्कृत से ग्रहण किया लेकिन उनकी कीमत पर सत्ता और आश्रमों के गलियारों में संस्कृत की अभिवि्र्द्धि ही होती रही। उत्तर और दक्षिण दोनों जगह संस्कृत जन-सामान्य से दूर होती गई। पंडितों ने उसे ऐसे नियमों में जकड़ दिया कि सामान्य जन उनका पालन नहीं कर सके और संस्कृत पंडित, पुरोहित वर्ग तक सीमित रह गई। मध्य कालीन निर्गुणपंथी संत कबीर ने इसीलिए कहा- "संस्कीरत है कूप जन भाखा बहता नीर" कबीर से बहुत पहले ही संस्कृत के वर्चस्व के विरूद्ध विद्रोह का सूत्रापात हो चुका था। बौद्धों ने जन-भाषा पालि-प्राकृत को तो जैनियों ने अपभ्रंश को अपनाया। धुर दक्षिण में आलवार संतों ने भी अपनी बात वहां की जन-भाषा में ही कही।
मुसलमान शासकों की ध्म-भाषा तो अरबी थी लेकिन प्रशासनिक कार्य के लिए उन्होंने पफारसी का सहारा लिया। शायद इसलिए कि फारसी भी उसी मूल से निकली थी जिससे संस्कृत और उत्तर भारत की अन्य प्राकृत भाषा-बोलियां निकली थीं। पश्चिमोत्तर भारत ईरान के संपर्क में प्राचीन काल से ही रहा था। किंतु इध्र प्राचीन ईरानी से विकसित फारसी में इस्लाम की धर्म-भाषा अरबी की भारी घुसपैठ से फारसी भी भारतीय जन-मानस के लिए बहुत कुछ समझ से परे हो चुकी थी पिफर भी रोजी-रोटी का प्रश्न जुड़ा होने से एक छोटे से वर्ग ने उसे अपनाया और उसका असर जन-सामान्य की भाषा-बोलियों तक भी पहुंचता चला गया। शासक वर्ग में भी कुछ ऐसे संवेदनशील व्यक्ति थे जो समझते थे कि ऊपर से थोपी गई भाषा में प्रजा का एक छोटा-सा वर्ग पैठ बनाने में सपफल हो पाएगा। अधिसंख्यक लोगों को समझने-समझाने के लिए तो उन्हीं की जुबान का सहारा लेना होगा। फारसी के विद्वान अमीर खुसरो ने इसीलिए ब्रज और खड़ी बोली की ओर ध्यान दिया और इसी प्रक्रिया में आगे चलकर उर्दू जैसी एक नयी भाषा का प्रादुर्भाव संभव हुआ जिसमें इस्लाम की धर्म भाषा अरबी से ग्रस्त फारसी का खड़ी बोली हिंदी से घाल-मेल बखूबी हुआ है। दूसरी ओर धर्म संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में प्रादेशिक भाषाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित करना आरंभ किया और इस तरह थोपी गई फारसी को प्रशासन के एक कोने तक सिमट कर रहने को बाध्य कर दिया।
थोपी गई भाषा का प्रतिरोध् एक विश्व व्यापी लक्षण है। उत्तर भारत में कबीर जैसे निर्गुणपंथियों ने जहाँ पंचमेल खिचड़ी भाषा का उपयोग किया, वहीं सगुणोपासकों ने ब्रज और अवधी का आश्रय लिया। और तो और प्रेम मार्गी सूफियों तक ने भी अरबी-पफारसी की जगह अवधी का दामन थाम लिया। अन्यत्रा भी मराठी, बांग्ला और गुजराती आदि ने भी उभरना आरंभ कर दिया। जहां तक दक्षिण का सवाल है, वहां भी तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ जैसी प्रादेशिक भाषाओं ने अपनी पकड़ और महत्व में उत्तरोत्तर व्रद्धि आरंभ कर दी। इसी समय देश पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने आरम्भ में फारसी से छेड़-छाड़ नहीं की लेकिन धीरे-धीरे एक सोची-समझी योजना के अंतर्गत उसकी जगह अपनी भाषा अंग्रेजी थोप दी। भारत ही नहीं दुनिया में जहां कहीं भी अंग्रेज अपने उपनिवेश स्थापित करने में सपफल हुए, वहां सर्वत्र अंग्रेजी भी अपना पैर जमाने में सपफल हो गई। उस समय दुनिया की एकमात्र बड़ी शक्ति होने के कारण दूसरे स्वतंत्र देशों को भी अंग्रेजी का महत्व स्वीकार करना पड़ा और इस तरह अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा होने का दर्जा प्राप्त करने में सपफल हो गई। र्‍ेंच, जर्मन और रूसी जैसी सशक्त भाषाएँ भी उसका मुकाबला नहीं कर सकीं। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत रूसी भाषा की चुनौती भी अंग्रेजी का कुछ नहीं बिगाड़ पाई। आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी का वैश्वीकरण हो चुका है। सारे महा्द्वीपों में उसी की तूती बोल रही है। इसका एक बड़ा कारण तो यह भी है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की मौलिक सामग्री का सबसे बड़ा भंडार उसी में है और सभी देशों को एक-दूसरे से संपर्क रखने के लिए उसी का सहारा लेना पड़ता है।
अंग्रेजी के इस अभ्युदय से दुनिया भर की दूसरी भाषाओं का विकास बाधित हुआ है। उपनिवेशीकरण का अभिशाप यह है कि हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की कीमत पर अंग्रेजी की ओर देखना पड़ता है। ब्रिटिश काल में स्थापित अंग्रेजी के वर्चस्व को तोड़ने के सारे प्रयास असफल सिद्ध हो रहे हैं। रोजी-रोटी के प्रश्न को लेकर यहां काले अंग्रेज नौकरशाहों का जो शक्तिशाली वर्ग पैदा हुआ उसका प्रभाव आज भी ज्यों-का-त्यों है। अंग्रेजी का ज्ञान सामाजिक स्तर पर श्रेष्ठता का मानदंड बन चुका है। आर्थिक स्थिति में कुछ सुधर आने पर आज मध्यम वर्ग भी अंग्रेजियत अपनाने को आतुर है। यहां तक कि भारतीय संस्कृति और संस्कृत की श्रेष्ठता का बखान करने वाले सा्धु-संत तक भी अंग्रेजी बोलने में अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। जनता और जन-भाषा की बातें करने वाले नेतागण भी अपनी औलाद को अंग्रेजी माध्यम से ही शिक्षा देने पर बाध्य हैं।
भाषा के प्रश्न पर उत्तर और दक्षिण के बीच जो खाई थी उसे और चौड़ा करने में अंग्रेजी समर्थक नौकरशाही वर्ग का हाथ होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। भाषा का प्रश्न इतना उलझा दिया गया है कि उसे सुलझाने का कोई सीध रास्ता नजर नहीं आता। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत सुदूर टुंड्रा-टैगा और काकेशस की अल्पसंख्यक जन-जातियों तक की भाषा-बोलियों को जिस तरह विकास करने का अवसर प्रदान किया गया, यदि उसी तरह की कोई नीति यहां भी अपनाई जाए तो संभव है इस समस्या का कोई हल निकल सके। ऐसा करने से देश की दबी-कुचली जन-जातियों को आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा और वे अपने वर्गीय हितों की रक्षा करने में अपने स्तर पर समर्थ हो सकेंगे।

Monday, November 23, 2009

विलुप्त होती भाषा बोलियां


 विलुप्त होती भाषा बोलियों की चिन्ता जिस तरह से अनुवादक यादवेन्द्र जी को दुनिया भर के रचनात्मक साहित्य तक जाने को मजबूर करती है, पत्रकार अरविंदशेखर  की वैसी ही चिंताएं तथ्यात्मक आंकड़ों के रुप में दर्ज होते हुए हैं। प्रस्तुत है विलुप्त होती भाषा बोलियों पर अरविंद शेखर  की रिपोर्ट । 


वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जाएगी राजी बोली 

अरविंद शेखर, देहरादून
किसी भी भाषा बोली के बचे रहने की गारंटी क्या होती है, यह कि उसकी भावी पीढ़ी उसको बोले। मगर उत्तराखंड की सबसे अल्पसंख्यक राजी जनजाति की राजी बोली वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जान वाली है। वजह साफ है उसके 20 प्रतिशत बच्चे अपनी बोली में बातचीत करना ही पसंद नहीं करते क्योंकि वे समझते हैं कि अपने पूर्वजों की बोली की बजाय कुमाऊंनी बोलना ज्याद फायदेमंद है। 60 प्रतिशत लोग अपनी बोली के प्रति बेपरवाह हैं, जबकि केवल 20 प्रतिशत को अपनी बोली में बात करना भाता है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में राजी या वनरावतों की आबादी महज 517 है। यह छोटी-सी खानाबदोश जनजाति नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों में रहती है। इसके महज पांच फीसदी लोग ही साक्षर हैं। ऐसे में राजी बोली का केवल मौखिक रूप जीवित है। हाल में ही दून आईं लखनऊ विश्वविद्यालय की रीडर डा. कविता रस्तोगी का सर्वेक्षण इस बोली के अंधेरे भविष्य की ओर संकेत करता है। डा.रस्तोगी के सर्वे के अनुसार 90 प्रतिशत राजियों का मानना था कि राजी बोलने से कोई फायदा नहीं, जबकि 60 फीसदी को अपनी जबान से कोई मतलब ही नहीं था। 26 से 35 साल के 65 फीसदी तो 16 से 25 साल के 60 फीसदी युवाओं को अपनी भाषा में बोलना पसंद नहीं। 26 से 35 साल के 40 प्रतिशत लोगों को अपनी भाषा संस्कृति पर कोई गर्व नहीं तो, 16 से 35 साल के 80 फीसदी तो 36 से 45 साल के 70 फीसदी राजी नहींमानते कि राजी बोलना अच्छा है। डा. रस्तोगी के मुताबिक दरअसल राजी लोगों में धीरे-धीरे अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति हीनताबोध घर कर रहा है। इसलिए वे धीरे-धीरे कुमाउंनी या हिंदी पर निर्भर होते जा रहे हैं। राजी लोग अपनी बोली का 84 फीसदी इस्तेमाल धार्मिक कर्मकांड के दौरान ही करते हैं। बोली का घरों में 75 फीसदी तो दूसरे स्थानों पर केवल 30 फीसदी ही इस्तेमाल होता है। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषा विज्ञानी डा. शोभाराम शर्मा का कहना है कि किसी भी भाषा बोली के जिंदा रहने के लिए उसके बोलने वाले समाज का उसके प्रति झुकाव और उसकी भौतिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। उन्होंने बताया के पिछली कांग्रेस सरकार ने राजी जनजाति पर संकट भांपते हुए जनजाति के लोगों को ज्यादा संतान पैदा करने पर पुरस्कृत करने और सुविधाएं मुहैया कराने की घोषणा की थी लेकिन उसका क्या हुआ पता नहीं। जिन भाषाओं में जीविका का जुगाड़ नहीं होता वे मर जाती हैं। राजी बोली का खत्म होना देश ही नहीं दुनिया की अपूरणीय क्षति होगा। सरकार को चाहिए कि वह भाषाई विविधता की रक्षा के लिए राजी जनजाति और उनकी बोली के संरक्षण के लिए प्रयास करें।


Friday, May 22, 2009

यूरो- इंगलिश : "X" WOULD NO LONGER BE PART OF THE ALPHABET

कविता कोश के सम्पादक अनिल जनविजय के द्वारा प्रेषित पत्र यहां सूचनार्थ प्रस्तुत है :-


The European Commission has just announced an agreement whereby English will be the official language of the European Union rather than German, which was the other possibility. As part of the negotiations, the British Government conceded that English spelling had some room for improvement and has accepted a 5-year phase-in plan that would become known as 'Euro-English'.

In the first year, 's' will replace the soft 'c'. Sertainly, this will make the sivil servants jump with joy. The hard 'c' will be dropped in favour of 'k'. This should klear up konfusion, and keyboards kan have one less letter. There will be growing publik enthusiasm in the sekond year when the troublesome 'ph' will be replaced with 'f'. This will make words like fotograf 20% shorter.
In the 3rd year, publik akseptanse of the new spelling kan be expekted to reach the stage where! more komplikated changes are possible.
Governments will enkourage the removal of double letters which have always ben a deterent to akurate speling.
Also, al wil agre that the horibl mes of the silent 'e' in the languag is disgrasful and it should go away.
By the 4th yer people wil be reseptiv to steps such as replasing 'th' with 'z' and 'w' with 'v'.
During ze fifz yer, ze unesesary 'o' kan be dropd from vords kontaining 'ou' and after ziz fifz yer, ve vil hav a reil sensibl riten styl.
Zer vil be no mor trubl or difikultis and evrivun vil find it ezi tu understand ech oza. Ze drem of a united urop vil finali kum tru.
Und efter ze fifz yer, ve vil al be speking German like zey vunted in ze forst plas.
If zis mad you smil, pleas pas on to oza pepl.


--
anil janvijay


रोमन लिपि में है "X"का भविष्य खतरे में



Wednesday, February 25, 2009

खतरे में भाषा-बोलियाँ

अरविंद शेखर युवा हैं। एक प्रतिबद्ध पत्रकार हैं। नेपाल में जिन दिनों जनता का एक निर्णायक संघर्ष जारी था, उस दौरान अरविन्द ने नेपाल की स्थिति पर पैनी निगाह रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण आलेख लिखे। उसी दौरान अरविन्द को उमेश डोभाल स्म्रति सम्मान से भी सम्मानित किया गया। वर्तमान में अरविंद शेखर दैनिक जागरण, देहरादून मे काम कर रहे हैं। भाषा के सवाल पर उनकी यह रिपोर्ट पिछले दिनों दैनिक जागरण में प्रकाशित हुई थी। यहां प्रस्तुत करने का खास कारण यह है कि भाषा को लेकर ऎसी ही चिन्ता इससे पूर्व हमारे वरिष्ट साथी यादवेन्द्र जी रख चुके है। अरविन्द ने हमारे बिल्कुल आस पास उन स्थितियों को पकडते हुए अपनी चिन्ताओं को रखा है।


अरविंद शेखर

गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो समेत उत्तराखंड की दस बोलियां भी खतरे में है। इनमें से दो बोलियां तोल्चा रंग्कस तो विलुप्त भी हो चुकी हैं। यूनेस्को ने अपने एटलस आफ दि वल्र्ड्स लैंग्यूएजेज इन डेंजर में सूबे की इन भाषाओं को शामिल किया है। यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (यूनेस्को)के एटलस के मुताबिक उत्तराखंड की पिथौरागढ़ जिले में बोली जाने वाली रंग्कस और तोल्चा बोलियां विलुप्त हो चुकी हैं। इसके अलावा उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र की बंगाणी बोली को लगभग 12000 लोग बोलते हैं। यह भी विलुप्ति के कगार पर है। पिथौरागढ़ की ही दारमा और ब्यांसी, उत्तरकाशी की जाड और देहरादून की जौनसारी बोलियों पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। एटलस के मुताबिक दारमा बोली को 1761 लोग, ब्यांसी को 1734 , जाड को 2000 और जौनसारी को अनुमानत: 114,733 लोग ही बोलते समझते हैं। एटलस के मुताबिक गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो बोलियां पर भी खतरा मंडरा रहा है। इन्हें असुरक्षित वर्ग में रखा गया है। यूनेस्को के मुताबिक अनुमानत: दुनिया में 279500 लोग गढ़वाली, 2003783 लोग कुमाऊंनी और 8000 लोग रोंगपो बोली के क्षेत्र में रहते हैं मगर इसका मतलब यह नहींकि इन क्षेत्रों में रहने वाले सभी लोग ये बोलियां जानते ही हों। मालूम हो कि 30 भाषाविदों के अध्ययन पर आधारित यह भाषा एटलस शुक्रवार को जारी हुआ है। यूनेस्को के मुताबिक विश्व में 200 भाषाएं पिछली तीन पीढि़यों के साथ विलुप्त हो गईं। दुनिया में 199 भाषा-बोलियां ऐसी हैं जिन्हें महज 10-10 लोग ही बोलते हैं। 178 को 10 से 50 लोग ही बोलते समझते हैं। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषाविद डॉ. शोभाराम शर्मा का कहना है हालंाकि यूनेस्को ने पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों की राजी जनजाति की बोली को एटलस मे शामिल नहीं किया है मगर यह भाषा भी विलुप्ति की कगार पर है। 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में राजी या वनरावत जनजाति के महज 517 लोग ही बचे हैं। डॉ. शर्मा के मुताबिक उत्तराखंड की बोलियां उन पर हिंदी-अंग्रेजी के वर्चस्व, असंतुलित विकास पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन, विकास परियोजनाओं की वजह से विस्थापन बढ़ते शहरीकरण की मार झेल रही हैं। मानव विज्ञान सर्वेक्षण के अधीक्षक डॉ.एसएनएच रिजवी के मुताबिक खतरे में पड़ी इन भाषा बोलियों का संरक्षण बहुत जरूरी है अन्यथा मानव समाज अपनी बहुमूल्य विरासत को खो देगा।