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Sunday, May 1, 2011

पूछो,सवाल पूछो

 भ्रष्टाचार के खिलाफ़ पिछले दिनों शुरू हुई बहस अभी थमी नहीं है। अलिखित कानूनी स्वीकार्यता का दर्जा पा चुका भ्रष्टाचार संस्थागत रूप में है। न्याय की चौहद्दी के भीतर घुसते हुए, अनाप-शनाप रूप से लिखे एम.आर.पी मूल्यों पर माल को खरीदते हुए, बड़े-बड़े होर्डिंग टांगकर सेल सेल के हल्ला मचाऊ तरीके से माल को बेचते हुए, और भी न जाने कितने ही दूसरे रूपों में भ्रष्टताभरी कार्यवाहियों की स्वीकारोक्ति चारों ओर है। कानून के किसी दायरे में उसे समेटने की कोई भी कोशिश उसी मध्यवर्गीय मानसिकता के लिए, जो बहुत जोर शोर से भ्रष्टाचार की मुखालफ़त करने को खड़ी है,  नाक भौं सिकोड़ने वाली है।  भ्रष्टाचार कोई नैतिक व्यवहार का मामला नहीं एक राजनैतिक षड़्यंत्र है। बिना राजनैतिक सवाल उठाये उससे मुक्कमिल तौर पर टकराया नहीं जा सकता। लोकपाल विधेयक हो चाहे कोई भी दूसरा कानून जब तक उसके दायरे में ऎसे सवाल समेटने की कोशिश नहीं होती है तो तय है जीवन को दूभर बना देने वाला घटनाक्रम और ज्यादा चुस्त और आक्रामक होगा।
मेहनतकश आवाम की आवाज के दिन, मई दिवस के अवसर पर लिखा यह गीत जिसे अभी अभी मेरे मित्र अशोक कुमार पाण्डे ने लिखने के तुरन्त बाद  सिर्फ पढ़ने को भेजा था, ऎसे ही सवालों को उठा रहा है। लड़ने की ललक के साथ और कामयाबी की उम्मीदों से भरी आवाज में ऎसे सवालों को उठाने की कोशिश करने के लिए गीत की पंक्ति को दोहरायें- पूछो /सवाल पूछो /न चुप रहो /अब सवाल पूछो 

पूछो
सवाल पूछो 
न चुप रहो 
अब सवाल पूछो 

ये पूछो भूख आज भी है बस्तियों में क्यूं बसी?
ये पूछो कर रहे किसान किस लिए यूं खुदकशी 
ये पूछो क्या हुए वो वादे  रोज़गार के सभी?
ये क्या हुआ कि जिंदगी बाज़ार में यूं बिक रही.

बहुत हुआ
बहुत सहा 
न अब सहो ये बेबसी 

पूछो...

ये पूछो सारे मुल्क में आग सी है क्यूं लगी?
ये पूछो जाति-धर्म की दीवार क्यूं नहीं गिरी?
ये पूछो खून पी रहा क्यूं आदमी का आदमी?
ये क्या हुआ सिमट गयी क्यूं महलों ही में चांदनी?

कहाँ है वो 
कौन है 
कि जिसने लूट ली खुशी 

पूछो 

जो आग सीने में लगी वो कब तलाक दबाओगे 
न गर मिला जवाब फिर भी  सच तो जान जाओगे
जागोगे खुद जो नींद से तो औरों को जगाओगे 
चलो हमारे साथ तनहा कुछ भी कर न पाओगे 

कठिन तो 
राह है बहुत 
पर रौशनी भी है यहीं 

पूछो 

Thursday, May 1, 2008

आकर हरी घाटी में बस गयी सरकार, लेकिन डर लगता है

अपने स्थापना दिवस 1 मई के अवसर पर देहरादून की नुक्कड नाट्य संस्था दृष्टि ने गांधी पार्क, देहरादून में एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस अवसर पर कविताओं की पास्टर प्रदर्शनी लगायी गयी और दो कवियों, जिनमें दलित धारा के कवि ओम प्रकाश वाल्मीकि एवं युवा कवि राजेश सकलानी के काव्य पाठ का आयेजन किया गया।
दृष्टि, देहरादून की स्थापना 1983 में हुई थी। वर्ष 2008 को दृष्टि ने रजत जयंति वर्ष के रुप में मनाते हुए इस कार्यक्रम का आयोजन किया। पिछले 25 वर्षो में जनपक्षधर संस्कृति के सवालों के साथ स्थानीय स्तर पर दृष्टि ने देहरादून ही नहीं बल्कि समूचे उत्तराखण्ड में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की लड़ाई के दौरान उत्तराखण्ड सांस्कृतिक मोर्चे के गठन में दृष्टि की केन्द्रीय भूमिका रही।
आयेजित कार्यक्रम में हिन्दी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जो पिछले दो वर्षो से देहरादून में रह रहे हैं, के साथ-साथ कथाकार विद्यासागर नौटियाल, सुभाष पंत, जितेन ठाकुर, गुरुदीप खुराना, गढ़वाली कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर एवं घूमंतू निरंजन सुयाल, कुसुम भट्ट, कृष्णा खुराना, सीपीआई के उत्तराखण्ड महासचिव समर भंडारी, जगदीश कुकरेती और कई ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता एवं अन्य कविता प्रेमी श्रोता और दर्शक मौजूद थे।