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Saturday, June 1, 2013

कविता के वाद्ययंत्र पर झंकृत जीवन की लय



                                - महेशचंद्र पुनेठा



  सिद्धेश्वर सिंह युवा पीढ़ी के उन विरले कवियों में हैं जो बिना किसी शोर-शराबे के अपने कवि कर्म में लगे है। अपनी कविता को लेकर उनमें न  किसी तरह की आत्ममुग्धता है और न कहीं पहुंचने या कुछ  पा लेने की हड़बड़ाहट। उनका विश्वास चुपचाप अपना काम करने में है। फालतू कामों में लगकर स्वयं को नष्ट नहीं करना चाहते हैं। एक साधक के लिए यह बड़ा गुण कहा जा सकता है। विज्ञापन के इस युग में यह बड़ी बात है। कवि किसी तरह के बड़बोलेपन का शिकार भी नहीं है और न ही किसी बड़े आलोचक का बरदहस्त पाने के लिए उतावला।  उनके व्यक्तित्व की इन वि्शेषताओं की छवि हमें पिछले दिनों प्रका्शित उनके पहले कविता संग्रह "कर्मनाशा" की कविताओं में भी दिखाई देती है।उनकी कविताओं में किसी तरह का जार्गन न होकर धीरे-धीरे मन में उतरने का गुण है।ऊपर से देखने में सीधी-सपाट भी लग सकती हैं। वे अपनी बात को अपनी ही तरह से कहते हैं।पूरी शालीनता से। अच्छी दुनिया के निमार्ण की दिशा में अपनी प्राथमिकता को बताते हुए  "काम" कविता में वे कहते हैं-दुनिया बुराइयों और बेवकूफ़ियों से भरी पड़ी है/ऊपर से प्रदूषण की महामारी /अत:/धुल और धुंए से बचानी है अपनी नाक/ पांवों को कीचड़ और दलदल से बचाना है/आंखों को बचाना कुरूप दृश्यों से/और जिह्वा को बचाए रखना है स्वाद की सही परख के लिए।

  माना कि "अच्छी दुनिया के निर्माण" के लिए इतना पर्याप्त नहीं है पर आज के दौर में जब "हर ओर काठ और केवल काठ" ही दिखाई दे रहा हो खुद को काठ होने से बचा लेना भी किसी संघर्ष से कम नहीं है। यही से होती है दुनिया को बचाने की शुरुआत। सिद्धे्श्वर "ठाठें मारते इस जन समुद्र में/वनस्पतियों का सुनते हैं विलाप" यह सामान्य बात नहीं है। यह उनकी संवेदनशीलता कही जाएगी कि उन्हें पहाड़ खालिस प्रकृति के रूप में नहीं दिखाई देते हैं- पहाड़ केवल पहाड़ नहीं होते/न ही होते हैं/नदी नाले पेड़ बादल बारिश बर्फ/पहाड़ वैसी कविता भी नहीं होते /जैसी कि बताते आए हैं कविवर सुमित्रानंदन पंत। पहाड़ को कवि उसके जन के सुख-दु:ख और संघर्षों के साथ देखता है। उनकी  कविता "दिल्ली में खोई हुई लड़की" इसका प्रमाण है। यह अपने-आप में एक अलग तरह की कविता है जिसके कथ्य में एक मार्मिक कहानी बनने की पूरी संभावना है। यह कविता उस पहाड़ के दर्द को व्यक्त करती है-जहां से हर साल ,हर रोज धीरू जैसे पता नहीं कितने धीरू दिल्ली आते हैं और खो जाते हैं। जिनकी ईजाएं रात-रात भर जागकर डाड़ मारकर रोती हैं और आज एक "बैणी" अपने भाई को ढूंढने निकली है। जिसे वहां हर जगह-हर तीसरा आदमी धीरू जैसा ही लगता है। वह सोचती है-क्यों आते हैं लोग दिल्ली/क्यों नहीं जाती दिल्ली कभी पहाड़ की तरफ? कविता में बस कंडक्टर का यह कहते हुए उस लड़की को समझना कि-तेरे जैसों के लिए नहीं है दिल्ली/हम जैसों के लिए भी नहीं है दिल्ली/फिर भी यहां रहने के लिए अभिशप्त हैं हम। मानवीय विडंबना को व्यक्त करती है।साथ ही ये पंक्तियां कविता को एक राजनैतिक स्वर प्रदान करती है। यह कविता दिल्ली पर लिखी गई तमाम कविताओं से इस अर्थ में अलग है कि इसमें दिल्ली में एक और ऐसी दिल्ली है जहां के लोगों को "लोगों में गिनते हुए शर्म नहीं आती"। इस कविता में पहाड़ के संघर्ष और दिल्ली के हृदयहीन चरित्र को व्यक्त करने की पूरी को्शिश की गई है।                                   

  युवा कवि-चित्रकार सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं में-बढ़ते बाजारभाव की कश्मकश में/अब भी/बखूबी पढ़े जा सकते हैं चेहरों के भाव। सुनी जा सकती है अपील-आओ चलें/थामे एक दूजे का हाथ/चलते रहें साथ-साथ। व्यक्तिवादी समय में साथ-साथ चलने की बात एक जन-प्रतिबद्ध कवि ही कह सकता है।  उन्हें "कुदाल थामे हाथों की तपिस" दिलासा देती है कि अब दूर नहीं है वसंत---खलिहानों-घरों तक पहुंचेगा उछाह का ज्वार। उनकी कविता में सामूहिकता और उम्मीद  का यह स्वर उस उजले चमकीले आटे की तरह लगता है जिससे उदित होती है फूलती हुई एक गोल-गोल रोटी जो कवि को पृथ्वी का वैकल्पिक पर्याय लगती है। पृथ्वी को रोटी के रूप में देखना पृथ्वी में रहने वाले अनेकानेक भूखों को याद करना है।  इतना ही नहीं अपने कविता संग्रह का शिर्षक एक ऐसी नदी के नाम को बनाता है तो अपवित्र  मानी जाती है। यह यूं ही अनायास नहीं है बल्कि सोच-समझकर किया गया है। इससे साफ-साफ पता चलता है कवि किसके पक्ष में खड़ा है। उसने गंगा-यमुना को नहीं "कर्मनाशा" को चुना। पुरनिया-पुरखों को कोसते हुए वह पूछता है-क्यों-कब-कैसे कह दिया/कि अपवित्र नदी है कर्मनाशा !/भला बताओ/फूली हुई सरसों/और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में/कोई भी नदी/आखिर कैसे हो सकती है अपवित्र ? इस तरह कवि  उपेक्षित-अवहेलित चीजों-व्यक्तियों को अपनी कविता के केंद्र में लाता है। वह दो दुनियाओं को एक-दूसरे के बरक्स खड़ा कर हमारे समाज में व्याप्त वर्ग विभाजन को और दोनों ओर व्याप्त "हाय-हाय-हाहाकार" दिखाता है। उनकी कविता "दो दुनियाओं के बीच" संबंध जोड़ती, संघर्ष करती , दीवारों को तोड़ती, जनता से परिचय कराती है। " बाल दिवस " कविता में इसे देखा जा सकता है- इस पृथ्वी के कोने-कोने में विद्यमान समूचा बचपन/एक वह जो जाता है स्कूल/एक वह भी जो हसरत से देखता है स्कूल को/एक वह जो कंप्यूटर पर पढ़ सकेगा यह सब/एक वह भी/जो कूड़े में तलाश रहा है काम की चीज---पर कवि को विश्वास है कि-बच्चे ही साफ़ करेंगे सारा कूड़ा-कबाड़। अंधेरे-उजाले का संघर्ष सदियों से चला आ रहा है और तब तक चलता रहेगा जब तक धरती के कोने-कोने से अंधेरा का नामोनिंशापूरी तरह मिट नहीं जाता है। कवि जीवन के हर अंधेरे कोने में "उजास" की चाह करता है-उजाला वहां भी हो/जहां अंधेरे में बनाई जा रही हैं/सजावटी झालरें/और तैयार हो रही हैं मोमबत्तियां/ उजाला वहां भी हो/जहां चाक पर चलती उंगलियां/मामूली मिट्टी से गढ़ रही हैं/अंधेरे के खिलाफ असलहों की भारी खेप। कवि अपील करता है-आओ!/जहां-जहां बदमाशियां कर रहा है अंधकार/वहां-वहां/रोप आएं रोशनी की एक पौध। इस तरह उनकी कविता अंधेरे से उजाले के बीच गति करती है। कवि जानता है -साधारण-सी खुरदरी हथेलियों में/कितना कुछ छिपा है इतिहास। कवि हथेलियों का उत्खनन करने वालों की चतुराई को भी जानता है कि-वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलिया/चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने/हथेलियां बंद होकर मुटि्ठयों की तरह तनना/उन्हें नागवार लगता है। पर कवि का विश्वास है-किसी दिन कोई सूरज/यहीं से बिल्कुल यही से/उगता हुआ दिखाई देगा। ---।यह रात है/नींद/स्वप्न/जागरण/और---/सुबह की उम्मीद। सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं में मुक्तिबोध की तरह अंधेरे और रात का जिक्र बहुत होता है इसके पीछे कहीं न कहीं कवि की रोशनी और सवेरे की आस छुपी हुई  है। कवि यत्र-तत्र उगते बिलाते देखता है उम्मीदों के स्फुलिंग, उनमें से एक कविता भी है। वह "निरर्थकता के नर्तन पर नतशीश" कविता से कुछ उम्मीद पाले हुए है। भले ही कवि के शब्दों में-कविता की यह नन्हीं-सी नाव/हिचकोले खाए जा रही है लगातार-लगातार।

   प्रस्तुत संग्रह की बहुत सारी कविताएं पाठक को अपने साथ यायावरी में भी ले जाती हैं। नए-नए स्थानों के दर्शन कराती हैं।वहां के जनजीवन से  परिचित कराती हैं।साथ ही कुरेदती है वहां के "व्यतीत-अतीत" को और खंगालती है इतिहास को।"बिना टिकट-भाड़े-रिजर्वेशन के" कभी वे विंध्य के उस पार दक्षिण देश ले जाते हैं, कभी आजमगढ़ तो कभी शिमला ,कौसानी ,रामगढ़,रोहतांग,नैनीताल। कवि वहां की प्रकृति और जन के साथ एकाकार हो जाता हैं। उसको अपने-भीतर बाहर महसूस करने लगता है। खुद से नि:शब्द बतियाने लगता है। अडिग-अचल खड़ा नगाधिराज,तिरछी ढलानों पर सीधे तने खड़े देवदार, बुरांस , सदानीरा नदियां, फूली हुई सरसों के खेत के ठीक बीच से सकुचाकर निकलती कर्मनाशा की पतली धार ,तांबे की देह वाली नहाती स्त्रियां ,घाटी में किताबों की तरह खुलता बादल उनकी कविता में एक नए सौंदर्य की सृर्ष्टी करते हैं।साथ ही पिघलते हिमालय की करुण पुकार ,आरा मशीनों की ओर कूच कर रहे चीड़ों, नदियों में कम होते पानी,ग्लोबल वार्मिंग की मार से गड़बड़ाने लगा शताब्दियों से चला आ रहा फसल-चक्र की चिंता उनकी कविताओं में प्रकट होती है। यह प्रकृति और  पर्यावरण के प्रति उनकी अतिरिक्त चेतना और संवेदना को बताता है। एक पर्यावरण चेतना का कवि ही इस तरह देख सकता है-यत्र-तत्र प्राय: सर्वत्र/उभर रही हैं कलोनियां/जहां कभी लहराते थे फसलों के सोनिया समंदर/और फूटती थी अन्न की उजास/वहां इठला रही हैं अट्टालिकाएं/एक से एक भव्य और शानदार(रसना विलास)। उसे ही महसूस हो सकती है-डीजल और पेट्रोल के धुएं की गंध।सूर्य का ताप।  यही है "हमारी लालसाओं की भट्ठी की आंच" जिसके चलते नगाधिराज की देह भी पिघलने लगी है। उनका विनम्र "आग्रह" है कि-कबाड़ होती हुई इस दुनिया में/फूलों के खिलने की बची रहनी चाहिए जगह। कवि वसंत को खोजता है। उस समय को खोजता है जब आग,हवा,पानी ,आका्श ,प्यार यहां तक कि नफरत भी सचमुच नफरत थी। कुछ खोते जाने का अहसास इन कविताओं में व्याप्त है जो बचाने की अपील करता है।यह बचाना पर्यावरण से लेकर मानवीय मूल्यों को बचाना है।  

 समीक्ष्य संग्रह की अनेक कविताओं में व्यंग्य की पैनी धार भी देखी जा सकती है। पुस्तक समीक्षा आज एक ऐसा काम होता जा रहा है जिसे न पढ़ने वाला और न छापने वाला कोई भी गंभीरता से नहीं लेता है। उसका इंतजार रहता है तो केवल पुस्तक-लेखक को। यह बहुत चिंताजनक स्थिति है पर इसके लिए खुद समीक्षक जिम्मेदार है। जितनी चलताऊ तरीके और यार-दोस्ती निभाने के लिए समीक्षा लिखी जा रही है उसके चलते समीक्षा इस हाल में पहुंच गई है। सिद्धेश्वर सिंह की कविता "पुस्तक समीक्षा" इस पर सटीक और तीखा व्यंग्य करती है। व्यंग्य का यह स्वर "इंटरनेट पर कवि", "कस्बे में कवि गोष्ठी","लैपटाप","टोपियां","बालिका वर्ष"," जानवरों के बारे में" आदि कविताओं में भी सुना जा सकता है।

 कवि-अनुवादक सिद्धेश्वर सिंह रोजाना बरती जाने वाली भा्षा में अपनी बात कहने वाले कवि हैं। उनका इस बात पर विश्वास है-भा्षा के चरखे पर/इतना महीन न कातो/कि अदृश्य हो जाएं रे्शे/कपूर-सी उड़ जाए कपास। आज लिखी जा रही बहुत सारी कविता के साथ "अद्रश्य" हो जाने का संकट है।यह संकट उनकी भा्षा और कहन के अंदाज ने पैदा किया है।  इसकी कोई जरूरत नहीं है ---इस तद्भव समय में कहां से प्रकट करूं तत्सम शब्द-संसार/रे्शमी रे्शेदार शब्दों में कैसे लिखूं-/कुछ विशिष्ट कुछ खास। कविता के लिए "रेशमी-रे्शेदार शब्दों" की नहीं उन शब्दों की जरूरत है जो क्रियाशील जन के मुंह से निकले हैं।किसी भी समय और समाज  की सही अभिव्यक्ति उसके क्रिया्शील जन की भाषा-शैली में ही संभव है। यहां मैं प्रसंगवश "अलाव" पत्रिका के अंक-33 के संपादकीय में कवि-गीतकार रामकुमार कृ्षक की बात को उद्धरित करना चाहुंगा-"" कविता का कोई भी फार्म और उसकी अर्थ-गर्भिता अगर सबके लिए नहीं तो अधिसंख्यक पाठकों के लिए तो ग्राह्य होनी ही चाहिए। मैं उन विद्वानों से सहमत नहीं हो पाता हूं ,जो चाहते हैं कि कविता में अधिकाधिक अनकहा होना चाहिए या शब्दों से परे होती है, अथवा जिसे गद्य में कहा जा सके , उसे पद्य में क्यों कहा जाए।"" अच्छी बात है कि सिद्धे्श्वर की कविता अधिसंख्यक पाठकों के लिए ग्राह्य है। यह दूसरी बात है कि कुछ कविताओं में सिद्धे्श्बवर हुत दूर चले जाते हैं जहां से कविता में लौटना मुश्किल हो जाता है। शब्दों और पंक्तियों के बीच अवकाश बढ़ जाता है और कविता अबूझ हो जाती है। कुछ कविताओं में वर्णनाधिक्य भी हैं। पर ऐसा बहुत कम है।  

  सिद्धेश्वर उन कवियों में से है जो अपनी पूरी काव्य-परम्परा से सीखते भी हैं और तब से अब तक के अंतर को रेखांकित भी करते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए सुमित्रानंदन पंत ,महादेवी वर्मा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,नागार्जुन, मुक्तिबोध, वेणुगोपाल, हरी्श चंद्र पांडेय, विरेन डंगवाल, जीतेन्द्र श्रीवास्तव आदि कवि अलग-अलग तरह से याद आते हैं। उनकी कविता अपने समय को देखती-परखती-पहचानती चलती है जो एक बेहतर दुनिया के सपने देखती है। वह अपने समय को हवा-पानी की तरह निरंतर बहता देखना चाहते हैं। इस संग्रह की एक खास बात यह है कि इनमें कविता के परम्परागत वि्षयों से बाहर निकलकर फेसबुक, इंटरनेट, मोबाइल, लैपटाप जैसे वि्षयों पर भी कविताएं लिखी गई हैं। भले ही कवि को इन कविताओं में और गहराई में जाने और संश्लिष्टता लाने की जरूर थी बावजूद इसके इन कविताओं के माध्यम से  कवि अपने समय की गति से अपनी चाल मिलाता चलता है।  उन्हें कवि कर्म "शब्दों की फसल सींचना" या "शब्दों को चीरना" "शब्दों का खेल कोई" जैसा कुछ लगता है। "सिर्फ जेब और जिह्वा भर नहीं है जिनका जीवन" वे जरूर सुन सकते हैं उनकी कविता के वाद्ययंत्र पर झंकृत जीवन की लय। आशा करते हैं उनकी कविताओं में जीवन की यह लय आने वाले समय में और व्यापक और गहरी होती जाएगी।

   

कर्मनाशा ( कविता संग्रह) सिद्धेश्वर सिंह  प्रका्शक - अंतिका प्रका्शन गाजियाबाद। मूल्य-225 रु0 

Saturday, May 18, 2013

नागरिक कर्म और रचना कर्म को साथ-साथ चरित्रार्थ करने की बेचैनी से भरा कवि



                                   
                                                                          - महेश चंद्र पुनेठा



  भले ही हिंदी कविता में जनपदीयता बोध की कविताओं की परंपरा बहुत पुरानी एवं समृद्ध है पर उच्च हिमालयी अंचल की रूप-रस-गंध ली हुई कविताएं अंगुलियों में गिनी जा सकती हैं। अजेय उन्हीं गिनी-चुनी कविताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी कविता के केंद्र में इस अंचल का क्रियाशील जनजीवन ,प्रकृति तथा विकास के नाम पर होने वाली छेड़छाड़ के चलते भौतिक और सामजिक पर्यावरण में आ रहे बदलाव हैं। कविता में उनकी कोशिश है कि अपने पहाड़ी जनपद की उस सैलानी छवि को तोड़ा जाय जो इस बर्फीले जनपद को वंडरलैंड बना कर पे्श करती है। वे बताना चाहते हैं कि यहां भी लोग शेष वि्श्व के पिछड़े इलाकों और अनचीन्हे जनपदों के निवासियों की भांति सुख-दु:ख को जीते हैं-पीड़ाओं को झेलते और उनसे टकराते हैं। जिनके अपने छोटे-छोटे सपने और अरमान हैं। कहना होगा कि इस कोशिश में कवि  सफल रहा है। हिंदी कविता में अजेय का नाम नया नहीं है। एक चिरपरिचित नाम है जो अपनी कविता की इस वि्शिष्ट गंध के लिए जाना जाता है। वे अरसे से कविता लिख रहे हैं और महत्वपूर्ण लिख रहे हैं। उन्होंने अपनी देखी हुई और महसूस की हुई दुनिया को बड़ी तीव्रता एवं गहराई से उतारा है  इसलिए उनके कहन और कथ्य दोनों में मौलिकता है। निजी आत्मसंघर्ष और सूक्ष्म निरीक्षण इस मौलिकता को नई चमक प्रदान करते हैं। सहज रचाव , संवेदन, ऊष्मा ,लोकधर्मी रंग , एंद्रिक-बिंब सृजन ,जीवन राग और सजग रचना दृष्टि इन कविताओं की विशिष्ट्ता है। अजेय बहुत मेहनत  से अपने नाखून छीलकर लिखने वाले कवि हैं जो भी लिखते हैं शुद्ध हृदय से ,कहीं कोई मैल नहीं। लोक मिथकों का भी बहुत सुंदर और सचेत प्रयोग इन कविताओं में मिलता है। अजेय उन लोगों में से हैं जो लोक के ऊर्जावान आख्यानों , सशक्त मिथकों और जीवंत जातीय स्मृतियों को महज अनुसंधान और तमा्शे की वस्तु नहीं बनाए रखना चाहते हैं बल्कि उन्हें जीना चाहते हैं। साथ ही किसी अंधविश्वास और रूढ़िवादिता का भी समर्थन नहीं करते हैं।

   उनकी कविताएं देश के उस आखिरी छोर की कविताएं हैं जहां आकाश कंधों तक उतर आता है। लहराने लगते हैं चारों ओर घुंघराले मिजाज मौसम के। जहां प्रकृति , घुटन और विद्रूप से दूर अनुपम दृश्यों के रूप में दुनिया की सबसे सुंदर कविता रचती है। जहां महसूस की जा सकती है सैकड़ों वनस्पतियों की महक व शीतल विरल वनैली छुअन। इन कविताओं में प्रकृति के विविध रूप-रंग वसंत और पतझड़ दोनों ही के साथ मौजूद हैं। प्रकृति के रूप-रस-गंध से भरी हुई इन कविताओं से रस टपकता हुआ सा प्रतीत होता है तथा इन्हें पढ़ते हुए मन हवाओं को चूमने,पेड़ों सा झूमने ,पक्षियों सा चहकने ,बादलों सा बरसने तथा बरफ सा छाने लगता है। इस तरह पाठक को प्रकृति के साथ एकमेक हो जाने को आमंत्रित करती हैं।  इन कविताओं में पहाड़ को अपनी मुटि्ठयों में खूब कसकर पकड़ रखने की चाहत छुपी है। पहाड़ ,नदी ,ग्लेशियर , झील ,वनस्पति , वन्य प्राणी अपने नामों और चेहरों के साथ इन कविताओं में उपस्थित हैं जो स्थानीय भावभूमि और यथार्थ को पूरी तरह से जीवंत कर देती हैं। अजेय उसके भीतर प्रवेश कर एक-एक रगरेशे को एक दृष्टा की तरह नहीं बल्कि भोक्ता की तरह दिखाते हैं। वे जनपदीय जीवन को निहारते नहीं उसमें शिरकत करते हैं। अपनी ज्ञानेन्द्रियों को बराबर खुला रखते हैं ताकि वह आसपास के जीवन की हल्की से हल्की आहट को प्रतिघ्वनित कर सकें।  यहां जन-जीवन बहुत निजता एवं सहजता से बोलता है।  ये कविताएं अपने जनपद के पूरे भूगोल और इतिहास को बताते हुए बातें करती हैं  मौसम की ,फूल के रंगों और कीटों की ,आदमी और पैंसे की , ऊन कातती औरतों की ,बंजारों के डेरों की ,भोजपत्रों की , चिलम लगाते बूढ़ों की , आलू की फसल के लिए ग्राहक ढूंढते का्श्तकारों की, विष-अमृत खेलते बच्चों की ,बदलते गांवों की। इन कविताओं में संतरई-नीली चांदनी ,सूखी हुई खुबानियां ,भुने हुए जौ के दाने ,काठ की चटपटी कंघी ,सीप की फुलियां ,भोजपत्र ,शीत की आतंक कथा आदि अपने परिवेश के साथ आती हैं।  

  यह बात भी इन कविताओं से मुखर होकर निकली है कि पहाड़ अपनी नैसर्गिक सौंदर्य में जितना रमणीय है वहां सब कुछ उतना ही रमणीक नहीं है। प्रकृति की विभिषिका यहां के जीवन को बहुत दुरुह बना देती है। यहां के निवासी को पग-पग पर प्रकृति से संघर्ष करना पड़ता है। उसे प्रकृति से डरना भी है और लड़ना भी। प्रकृति की विराटता के समक्ष आदमी बौना है और आदमी की जिजीवि्षा के समाने प्रकृति। उनकी कविता में प्रकृति की हलचल और भयावहता का एक बिंब देखिए- बड़ी हलचल है वहां दरअसल/बड़े-बड़े चट्टान/गहरे नाले और खड्ड/ खतरनाक पगडंडियां हैं/बरफ के टीले और ढूह/ भरभरा गर गिरते रहते हैं/गहरी खाइयों में/ बड़ी जोर की हवा चलती है/ हडि्डयां कांप जाती हैं।       

 कवि के  मन में अपनी मिट्टी के प्रति गहरा लगाव भी है और सम्मान भी जो इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- मैंने भाई की धूल भरी देह पर/ एक जोर की जम्फी मारी /और खुश हुआ/मैंने खेत से मिट्टी का/एक ढेला उठाकर सूंघा/और खुश हुआ। मिट्टी के ढेले को सूंघकर वही खु्श हो सकता है जो अपनी जमीन से बेहद प्रेम करता हो। वही गर्व से यह कह सकता है- हमारे पहाड़ शरीफ हैं /सर उठाकर जीते हैं/सबको पानी पिलाते हैं। उसी को इस बात पर दु:ख हो सकता है कि गांव की निचली ढलान पर बचा रह गया है थोड़ा सा जंगल , सिमटती जा रही है उसकी गांव की नदी तथा जंगल की जगह और नदी के किनारे उग आया है बाजार ही बाजार , हरियाली के साथ छीन लिए गए हैं फूलों के रंग ,नदियों का पानी ,उसका नीलापन ,तिलतियां आदि। वह जानता है यह सब इसलिए छीना गया है ताकि-खिलता ,धड़कता ,चहकता ,चमकता रहे उनका शहर ,उनकी दुनिया। इसलिए  कवि को असुविधा या अभावों में रहना पसंद है पर अपनी प्रकृति के बिना नहीं। वे अपने जन और जनपद से प्रेम अवश्य करते हैं पर उसका जबरदस्ती का महिमामंडन नहीं करते हैं। ये कविताएं जनपदीय जीवन की मासूमियत व निष्कलुशता को ही नहीं बल्कि उसे बदशक्ल या बिगाड़ने वालों का पता भी देती हैं। जब वे कहते हैं कि- बड़ी-बड़ी गाड़ियां /लाद ले जाती शहर की मंडी तक/बेमौसमी सब्जियों के साथ/मेरे गांव के सपने । तब उनकी ओर स्पष्ट संकेत करती हैं । बड़ी पूंजी गांव के सपनों को किस तरह छीन रही है? कैसे गांव शहरी प्रवृत्तियों के शिकार हो रहे हैं तथा अपने संसाधनों के साथ कैसे अपनी पहचान खोते जा रहे हैं? ये कविताएं इन सवालों का जबाब भी देती हैं। गांवों से सद्भावना और सामूहिकता जैसे मूल्यों के खोते जाने को कवि कुछ इस तरह व्यंजित है- किस जनम के करम हैं कि/यहां फंस गए हैं हम/कैसे भाग निकलें पहाड़ों के उस पार?/ आए दिन फटती हैं खोपड़ियां जवान लड़कों की /कितने दिन हो गए गांव में मैंने /एक जगह /एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा---शर्मशार हूं अपने सपनों पर/मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गांव/बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है /मेरे गांव की गलियां पी हो गई हैं। यहां गांव की तरक्की पर अच्छा व्यंग्य किया गया है। आखिर तरक्की किस दिशा में हो रही है? यह कविता हमारा ध्यान उन कारणों की ओर खींचती है जो गांवों के इस नकारात्मक बदलाव के लिए जिम्मेदार हैं। यह कटु यथार्थ है कि 'तरक्की’ के नाम पर आज गांवों का न केवल भौतिक पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है बल्कि सामाजिक पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है। यह आज हर गांव की दास्तान बनती जा रही है।    

  स्त्री पहाड़ की जनजीवन की रीढ़ हैं। उसका जिक्र हुए बिना पहाड़ का जिक्र आधा है। उसकी व्यथा-कथा पहाड़ की व्यथा-कथा का पर्याय है। ऐसे में भला अजेय जैसे संवेदनशील एवं प्रतिबद्ध कवि से वे कैसे छूट सकती हैं। उनकी कविताओं में आदिवासी स्त्रियों के दु:ख-दर्द-संघर्ष पूरी मार्मिकता से व्यक्त हुए हैं। कवि को चुपचाप तमाम अनाप-शनाप संस्कार ढोती हुई औरत की एक अंतहीन दबी हुई रुलाई दिखाई देती है। साथ ही वह औरत जो अपनी पीड़ाओं और संघर्षों के साथ अकेली है पर 'प्रार्थना करती हुई/उन सभी की बेहतरी के लिए /जो क्रूर हुए हर-बार /खुद उसी के लिए "। इस सब के बावजूद कवि औरत को पूरा जानने का कोई दावा नहीं करता है- ठीक-ठीक नहीं बता सकता है/कि कितना सही-सही जानता हूं /मैं उस औरत को /जबकि उसे मां पुकारने के समय से ही/उसके साथ हूं---नहीं बता सकता/कि कहां था /उस औरत का अपना आकाश।  यह न केवल कवि की ईमानदारी है बल्कि इस बात को भी व्यंजित करती कि पहाड़ी औरत के कष्ट-दु:ख-दर्द इतने अधिक हैं कि उसके साथ रहने वाला व्यक्ति भी अच्छी तरह उन्हें नहीं जान पाता है। उन्होंने आदिवासी औरत की ब्यूंस की टहनियों  से सटीक तुलना की है- हम ब्यूंस की टहनियां हैं /जितना चाहो दबाओ/झुकती ही जाएंगी /जैसा चाहो लचकाओ /लहराती रहेंगी / जब तक हममें लोच है /और जब सूख जाएंगी/ कड़ककर टूट जाएंगी। यही तो है पहाड़ी स्त्री का यथार्थ। एक असहायता की स्थिति। वह अपने साथ सब कुछ होने देती है उन मौकों पर भी जबकि वह लड़ सकती है। उसके जाने के बाद ही उसके होने का अहसास होता है।  वे औरत के गुमसुम-चुपचाप बैठे रहने के पक्षधर नहीं हैं उनका प्रतिरोध पर विश्वास है ,तभी वे कहते हैं- वहां जो औरत बैठी है/उसे बहुत देर तक/ बैठे नहीं रहना चाहिए/ यों सज-धज कर/गुमसुम-चुपचाप।

   अजेय अपने को केवल अपने जनपद तक ही सीमित नहीं करते हैं। उनकी कविताओं में खाड़ी युद्ध में बागी तेवरों के साथ अमरीकी सैनिक , अंटार्कटिका में शोधरत वैज्ञानिक ,निर्वासन में जीवन बिता रहे तिब्बती ,उनके धर्मगुरू आदि भी आते हैं। इस तरह उनकी कविता पूरी दुनिया से अपना रिश्ता कायम करते हैं। उनकी कविता का संसार स्थानीयता से वैश्विकता के बीच फैला है। अनुभव की व्यापकता के चलते विषयों की विविधता एकरसता नहीं आने देती है।  कहीं-कहीं कवि का अंतर्द्वद्व भी मुखर हो उठता है। कहीं-कहीं अनिर्णय और शंका की स्थिति में भी रहता है कवि । यह अनिर्णय और शंका व्यवस्था जनित है। उनके यहां ईश्वर भी आता है तो किसी चत्मकारिक या अलौकिक शक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक दोस्त के रूप में जो उनके साथ बैठकर गप्पे मारता है और बीड़ी पीता है। यह ईश्वर का लोकरूप है जिससे कवि किसी दु:ख-तकलीफ हरने या मनौती पूरी करने की प्रार्थना नहीं करता है। यहां यह कहना ही होगा कि भले ही अजेय जीवन के विविध पक्षों को अपनी कविता की अंतर्वस्तु बनाते हैं पर सबसे अधिक प्रभावित तभी करते हैं जब अपने जनपद का जिक्र करते हैं। उनकी कविताओं में जनपदीय बोध का रंग सबसे गहरा है।

  युवा कवि अजेय की कविता की एक खासियत है कि वे इस धरती को किसी चश्में से नहीं बल्कि अपनी खुली आंखों से देखते हैं उनका मानना है कि चश्में छोटी चीजों को बड़ा ,दूर की चीजों को पास ,सफ्फाक चीजों को धुंधला ,धुंधली चीजों को साफ दिखाता है। वे लिखते हैं -लोग देखता हूं यहां के/सच देखता हूं उनका /और पकता चला जाता हूं /उनके घावों और खरोंचों के साथ। कवि उनकी हंसी देखता है ,रूलाई देखता है ,सच देखता है ,छूटा सपना देखता है। इस सबको किसी चश्में से न देखना कवि के आत्मविश्वास को परिलक्षित करता है। एक बात और है कवि चाहे अपनी आंखों से ही देखता है पर उसको भी वह अंतिम नहीं मानता है। विकल्प खुले रखता है। अपनी सीमाओं को तोड़ने-छोड़ने के लिए तैयार रहता है। हमेशा यह जानने की कोशिश करता है कि- क्या यही एक सही तरीका है देखने का। अपने को जांचने-परखने तथा आसपास को जानने-पहचानने की यह प्रक्रिया कवि को जड़ता का शिकार नहीं होने देती। यह किसी भी कवि के विकास के लिए जरूरी है। इससे पता चलता है कि अजेय किसी विचारधारा विशेष के प्रति नहीं मनुष्यता के प्रति प्रतिश्रुत हैं। उनकी कविताएं इस बात का प्रमाण हैं कि अगर कोई रचनाकार अपने समय और जीवन से गहरे स्तर पर जुड़ा हो तो उसकी रचनाशीलता में स्वाभाविक रूप से प्रगतिशीलता आ जाती है। 

   उनके लिए कविता मात्र स्वांत:सुखाय या वाहवाही लूटने का माध्यम नहीं है। वे जिंदगी के बारे में कविता लिखते हैं और कविता लिखकर जिंदगी के झंझटों से भागना नहीं बल्कि उनसे मुटभेड़ करना चाहते हैं। कविता को जिंदगी को सरल बनाने के औजार के रूप में प्रयुक्त करते हैं। उनकी अपेक्षा है कि- वक्त आया है/कि हम खूब कविताएं लिखें/जिंदगी के बारे में/इतनी कि कविताओं के हाथ थामकर/जिंदगी की झंझटों में कूद सकें/जीना आसान बने/और कविताओं के लिए भी बचे रहे/थोड़ी सी जगह /उस आसान जीवन में। अर्थात कविता जीवन के लिए हो और जीवन में कविता हो। उनकी कविता ऐसा करती भी है जीवन की कठिनाइयों से लड़ने का साहस प्रदान करती है। वे जब कहते हैं कि-यह इस देश का आखिरी छोर है/'शीत" तो है यहां/पर उससे लड़ना भी है/यहां सब उससे लड़ते हैं /आप भी लड़ो। यहां पर 'शीत" मौसम का एक रूप मात्र नहीं रह जाता है। यह शीत व्यक्ति के भीतर बैठी हुई उदासीनता और निराशा का प्रतीक भी बन जाता है , सुंदर समाज के निर्माण के के लिए जिससे लड़ना अपरिहार्य है। कविता का ताप इस शीत से लड़ने की ताकत देता है। कविता अपनी इसी जिम्मेदारी का निर्वहन अच्छी तरह कर सके उसके लिए कवि चाहता है कि कविता में -एक दिन वह बात कह डालूंगा /जो आज तक किसी ने नहीं कही/जो कोई नहीं कहना चाहता। यह अच्छी बात है कि कवि को अपनी अभिव्यक्ति में हमेशा एक अधूरापन महसूस होता है। अब तक न पायी गई अभिव्यक्ति को लेकर ऐसी बेचैनी के दर्शन हमें मुक्तिबोध के यहां होते हैं।यह नागरिक कर्म और रचना कर्म को साथ-साथ चरितार्थ करने की बेचैनी लगती है। वे मुक्तिबोध की तरह परम् अभिव्यक्ति की तलाश में रहते हैं। यह अजेय की बहुत बड़ी ताकत है जो उन्हें हमेशा कुछ बेहतर से बेहतर लिखने के लिए प्रेरित करती रहती है। उनके भीतर एक बेचैनी और आग हमेशा बनी रहती है। एक कवि के लिए जिसका बना रहना बहुत जरूरी है। जिस दिन कवि को चैन आ जाएगा। समझा जाना चाहिए कि उसके कवि रूप की मृत्यु सुनिश्चित है क्योंकि एक सच्चे कवि को चैन उसी दिन मिल सकता है जिस दिन समाज पूरी तरह मानवीय मूल्यों से लैस हो जाएगा ,वहां किसी तरह का शोषण-उत्पीड़न और असमानता नहीं रहेगी। जब तक समाज में अधूरापन बना रहेगा कवि के भीतर भी बेचैनी और अधूरापन कायम रहेगा। यह स्वाभाविक है। कवि अजेय अपनी बात कहने के लिए निरंतर एक भाषा की तलाश में हैं और उन्हें विश्वास है कि वह उस भाषा को प्राप्त कर लेंगे क्योंकि आखिरी बात तो अभी कही जानी है । कितनी सुंदर सोच है- आखिरी बात कह डालने के लिए ही /जिए जा रहा हूं /जीता रहुंगा। आखिरी बात कहे जाने तक बनी रहने वाली यही प्यास है जो किसी कवि को बड़ा बनाती है तथा दूसरे से अलग करती है। मुक्तिबोध के भीतर यह प्यास हमेशा देखी गई। उक्त पंक्तियों में व्यक्त संकल्प अजेय की लंबी कविता यात्रा का आश्वासन देती है साथ ही आश्वस्त करती है कि कवि अपने खाघ्चों को तोड़ता हुआ निरंतर आगे बढ़ता जाएगा जो साहित्य और समाज दोनों को समृद्ध करेगा।

  अजेय उन कवियों में से हैं जिन्हें सुविधाएं बहला या फुसला नहीं सकती हैं। चारों ओर चाहे प्रलोभनों की कनात तनी हों पर वे दृढ़ता से संवेदना के पक्ष में खड़े हैं। यह सुखद है कि कवि तपती पृथ्वी को प्रेम करना चाहता है -कि कितना अच्छा लगता है/ नई चीख/नई आग/ और नई धार लिए काम पर लौटना। ठंड से कवि को जैसे नफरत है । वह ठंडी नहीं तपती पृथ्वी को प्रेम करना चाहता है। तपते चेहरे की तरह देखना चाहता है पृथ्वी को। आदमी की भीतर की आग को बुझने नहीं देना चाहता है शायद इसीलिए इन कविताओं में 'आग’ शब्द  बार-बार आता है। यही आग है जो उसे जीवों में श्रेष्ठतम बनाती है। कवि प्रश्न करता है-खो देना चाहते हो क्या वह आग? यह आग ही तो आदमियत को जिंदा रखे हुए है। आदमियत की कमी से कवि खुश नहीं है। कवि मानता है कि ठंडे अंधेरे से लड़ने के लिए मुट्ठी भर आग चाहिए सभी को। उनके लिए महज एक ओढ़ा हुआ विचार नहीं सचमुच का अनुभव है आग। इन कविताओं में अंधेरे कुहासों से गरमाहट का लाल-लाल गोला खींच लाने की तासीर है जिसका कारण कवि का यह जज्बा है -कि लिख सको एक दहकती हुई चीख/ कि चटकाने लगे सन्नाटों के बर्फ/ टूट जाए कड़ाके की नींद।  

   जहां तक भाषा-शिल्प का प्रश्न है , कहना होगा कि उनकी काव्यभाषा में बोधगम्यता और रूप में विविधता है। वे परिचित और आत्मीय भाषा में जीवन दृश्य प्रस्तुत करते हैं। उनकी भाषा में जहां एक ओर लोकबोली के शब्द आए हैं तो दूसरी ओर आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले अंग्रेजी शब्दों का भी धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है। इन शब्दों का अवसरानुकूल और पात्रानुकूल प्रयोग किया गया है।  इसके उदाहरण के रूप में एक ओर बातचीज तो दूसरी ओर ट्राइवल में स्की फेस्टीवल कविता को देखा जा सकता है। कवि जरूरत पड़ने पर अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से भी परहेज नहीं करता है। स्वाभाविक रूप से उनका प्रयोग करता है। रूप की दृ्ष्टि से भी इनकी कविताओं में विविधता और नए प्रयोग दिखाई देते हैं। आर्कटिक वेधशाला में कार्यरत वैज्ञानिक मित्रों के कुछ नोट्स और 'शिमला का तापमान" इस दृष्टि से उल्लेखनीय कविताएं हैं। ये बिल्कुल नए प्रयोग हैं। इस तरह के प्रयोग अन्यत्र कहीं नहीं दिखते।कनकनी बात, कुंआरी झील, तारों की रेजगारी, जैसे सुंदर प्रयोग उनकी कविताओं के सौंदर्य को बढ़ाते हैं। उनके अधिकांश बिंब लोकजीवन से ही उठाए हुए हैं जो एकदम अनछुए और जीवंत हैं। इन कविताओं का नया सौंदर्यबोध ,सूक्ष्म संवेदना और सधा शिल्प अपनी ओर आकर्षित करता है।

    अजेय की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे कवि भवानी प्रसाद मिश्र की ये पंक्तियां बार-बार याद आती रही कि यदि कवि व्यक्तित्व स्वच्छ है ,उसने जाग कर जीवन जिया है और उसके माध्यम के प्रति मेहनत उठाई है तो वह सौंदर्य से भरे इस जगत में नए सौंदर्य भी भरता है। ये पंक्तियां अजेय और उनकी कविताओं पर सटीक बैठती हैं। उनकी कविताओं में भरपूर सौंदर्य भी है और सीधे दिल में उतरकर वहांघ् जमी बर्फ को पिघलाने की सामर्थ्य भी। आ्शा है उनकी धुर वीरान प्रदेशों में लिखी जा रही यह कविता कभी खत्म नहीं होगी तथा कविता लिखने की जिद बनी रहेगी। हिंदी के पाठक  इसका पूरा आस्वाद लेंगे।







  

Sunday, September 9, 2012

बाबा नागार्जुन , हरिजन गाथा और दलित विमर्श

- महेश चंद्र पुनेठा                                                                               

    नागार्जुन जीवन से सीधे मुठभेड़ करने वाले विरले कवियों में से एक हैं । उनकी कोशिश हमेशा कवि या साहित्यकार बनना  नहीं बल्कि एक आदमी बनना रही। उनकी प्रतिबद्धता  शोषित-दलित -पीड़ित के प्रति रही । शोषित-उपेक्षित के दु:ख-दर्द, हर्ष-उल्लास तथा आशा-आकांक्षाएं हमेशा उनके लेखन के केंद्र में रहे। जहॉ भी शोषण-अत्याचार-उत्पीड़न देखते वहॉ नागार्जुन पहुंच जाते । अपने समकालीन यथार्थ से वे कभी ऑख मूंद कर नहीं रहे । इसलिए उनकी कविता पर तात्कालिकता का आरोप भी लगता रहा। लेकिन कोई परवाह नहीं ,क्योंकि वे तो कविता को प्रतिरोध के एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते थे । इसी के चलते उन्हें अनेक बार जेल की यात्रा भी करनी पड़ी । प्रेमचंद की " साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है " वाली बात नगार्जुन के साहित्य को लेकर बहुत हद तक सही सिद्ध होती है। उनकी कविता अपने समकालीन राजनीति पर जरूरी हस्तक्षेप करने के साथ-साथ आगे की दिशा भी दिखाती है। उन्होंने समाज को जाति और वर्ग दोनों ही दृष्टियों से देखा। दलितों को लेकर भी उनकी दृष्टि एकदम साफ थी दलितों पर लिखा गया उनका साहित्य केवल सहानुभूति का साहित्य नहीं कहा जा सकता है, गहरी संवेदना ,समझ और आक्रोश उनके यहॉ दिखाई देता है। वे केवल स्थितियों का चित्रण नहीं बल्कि उन्हें बदलने की बात भी करते हैं।एक ऐसे समय जब दलित विमर्च्च की कोई अनुगूंज हिंदी साहित्य में नहीं थी उन्होंने "बलचनमा" जैसा उपन्यास तथा " हरिजन गाथा" जैसी कविता रची।
   " हरिजन गाथा" जनसंहार की पृष्ठभूमि पर लिखी गई कविता है। सन् 1977 ई0 में 27 मई को पटना जिले के बेलछी गॉव में कुर्मी भूस्वामियों ने 13 दलितों  को आग में झोंककर जिंदा जला दिया। इस हृदयविदारक और नृ्शंस घटना की भयावहता को कवि कुछ इस तरह व्यक्त करता है-ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि /एक नहीं ,दो नहीं, तीन नहीं-/तेरह के तेरह अभागे-/अकिंचन मनुपुत्र /जिंदा झोंक दिए गए हों/प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में /साधन-संपन्न ऊॅची जातियों वाले/सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा! दुखद यह है कि यह घटना पुलिस प्रशासन के नाक के नीचे घटती है । घटना की सूचना उनके पास पहुंच जाती है लेकिन फिर भी उसको रोकने के कोई प्रयास नहीं किए जाते। सचमुच कितनी बिडंबना है - महज दस मील दूर पड़ता हो थाना / और दरोगा जी तक बार-बार /खबरें पहुंचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की । बावजूद इसके पुलिस प्रशासन घटना स्थल पर नहीं पहुंचा । इससे  पता चलता है कि देश का शासन-प्रशासन किस वर्ग और जाति के हितों के लिए काम करता आ रहा है। दलित उत्पीड़न के इतिहास में यह एक मात्र घटना नहीं थी जिसमें सूचना होने के बावजूद भी पुलिस प्रशासन समय पर घटना स्थल पर समय पर नहीं पहुंची , इससे पहले भी ऐसा देखा गया है और उसके बाद भी। पिछले दिनों मिर्चपुर में हुई घटना में भी कुछ ऐसा ही हुआ। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह तो हमारे व्यवस्था की सामंती पुलिस का चरित्र ही है। भले ही शासन व्यवस्था कहने के लिए लोकतांत्रिक हो गई हो पर उसको संचालित करने वालों की मानसिकता अभी तक भी लोकतांत्रिक नहीं हो पाई है। यदि लोकतांत्रिक हो गई होती तो  साधन-संपन्न ऊॅची जातियॉ इस तरह के सुपर मौज में नहीं दिखती - खोदा गया हो गड्ढा हॅस-हॅसकर/और ऊॅची जातियोंवाली वो समूची आबादी/आ गई हो होली वाले "सुपर मौज" के मूड में / और ,इस तरह जिंदा झोंक दिए गए हों/ तेरह के तेरह अभागे मनुपुत्र/ सौ-सौ भाग्यवान मनुपुत्रों द्वारा । कैसी हृदयहीनता है यह ! अपने को श्रेष्ठ घोषित करने वाली जाति की संवेदनशीलता देखिए ! किसी की मौत का सामान जुटाया जा रहा है वह भी "हॅस-हॅसकर"।  कविता में प्रयुक्त "सुपर मौज" शब्द इस हृदयहीनता की पराका्ष्ठा को बताता है। शब्दों का ऐसा सटीक चयन एक बड़ा कवि ही कर सकता है, ऐसा कवि जो हृदय से उत्पीड़ितों के साथ हो।
  कवि नागार्जुन इस कविता में आगे एक दलित-सर्वहारा बच्चे के माध्यम से उनके भवि्ष्य की अनि्श्चितता तथा दलितों के अभावग्रस्त जीवन-स्थितियों  को बारीकी से उजागर करते हैं  -क्या करेगा भला आगे चलकर? ।।।।कौन सी माटी गोड़ेगा ?/ कौन सा ढेला फोड़ेगा ?/ मग्गह का यह बदनाम इलाका /जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से/पैदा हुआ है बेचारा-/ भूमिहीन बंधुआ मजदूरों के घर में/ जीवन गुजारेगा हैवान की तरह/ भटकेगा जहॉ-तहॉ बनमानुस-जैसा / अधलपेटा रहेगा अधनंगा डोलेगा। यह स्थिति केवल भोजपुर के मग्गह इलाके की नहीं है बल्कि दे्श के किसी भी इलाके में देख लें दलित-भूमिहीन-बंधुआ मजदूरों की यही स्थिति है। यही शोषण-उत्पीड़न और यातना है। यही अनिश्चितता है कि कल क्या खाएगा-क्या लगाएगा-क्या रोजगार करेगा ? यही अनिश्चितता है जो उन्हें भाग्यवादिता की ओर धकेलती है-रामजी के आसरे जी गया अगर ।।।।।रामजी ही करेंगे इसकी खैर । पर यह महत्वपूर्ण है कि इतने भगवान भरोसे रहने वाले लोगों के भीतर प्रतिरोध की प्रेरणा भरती है यह कविता। उनके माथे के अंदर हथियारों के नाम और आकार-प्रकार नाचने लगते हैं। उनको सब कुछ नया-नया लगने लगता है। यह इस कविता की ताकत कही जाएगी । एक बड़ी कविता यह काम करती भी है।  इस कविता के संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणी बहुत सारगर्भित है, ""इस कविता में भारतीय समाज-व्यवस्था के वर्तमान रूप का यथार्थ चित्र और उसके भावी विकास का संकेत है । भारत के गॉवों में सामंतों द्वारा खेतिहर मजदूरों -हरिजनों के क्रूरतम द्राोद्गाण और बर्बर दमन का जैसा प्रभावच्चाली चित्रण हरिजन गाथा में है ,वैसा इस बीच की किसी दूसरी कविता में नहीं है। नागार्जुन इस भयानक यथार्थ का त्रासद चित्रण करके चुप नहीं हो गए हैं । उन्होंने इस यथार्थ के परिवर्तन का संकेत भी दिया है । कविता में एक बच्चे के माध्यम से इतिहास प्रक्रिया व्यक्त हुई है।वह बच्चा इतिहास का बेटा है और भावी इतिहास का निर्माता है।""
   यह बात बिल्कुल सही है। इस कविता में समाज में दलितों की यातनामय स्थितियों का चित्रण मात्र नहीं है  बल्कि उससे मुक्ति का मार्ग भी यह कविता बताती है। इस दृष्टि से दलित विमर्श की अन्य कविताओं से हटकर है यह कविता। कवि जब अपने पात्रों से पुछवाता है- तोतला होगा कि साफ-साफ बोलेगा/जाने क्या होगा/बहादुर होगा कि बेमौत मरेगा। इन पंक्तियों में कवि उस ओर संकेत कर देता है कि मुक्ति चाहिए तो प्रतिरोध करना होगा तोतला बोलकर काम नहीं चलेगा अन्यथा बेमौत मारा जाएगा । उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है।  मुक्ति का एकमात्र रास्ता संघर्ष ही है किसी की सहानुभूति या कृपा नहीं।कोई अवतार मुक्ति नहीं दिला सकता है बल्कि सामूहिक और संगठित संघर्ष से ही मुक्ति संभव है।नागार्जुन मानते हैं - जुलुम मिटाएंगे धरती से /इसके साथी और संघाती /यह उन सबका लीडर होगा। लीडर भी कैसा होगा ? इस पर कवि बिल्कुल स्पद्गट है, जो लीडर होगा वह -सबके दु:ख में दु:खी रहेगा/सबके सुख में सुख मानेगा / समझ-बूझकर ही समता का / असली मुद्दा पहचानेगा। वह कर्म वचन का पा होगा । वह अपने स्वार्थपूर्ति के लिए लीडर नहीं बनेगा। वह वोट की राजनीति करने वाला नेता नहीं होगा। शोषण समाप्त करने के इसके अपने तरीके होंगे। किन्ही बने बनाए नियमों -सिद्धांतों से नहीं बॅधा होगा- इस कलुए की तदबीरों से /शोषण की बुनियाद हिलेगी । इस कविता से यह बात भी निकलकर आती है कि दलितों का उद्धार कोई बाहर से आया नेता नहीं करेगा बल्कि उन्हीं के बीच से नेतृत्व उभर कर आएगा-श्याम सलोना यह अछूत शिशु /हम सब का उद्धार करेगा। एक बात और यह अकेला नहीं होगा-  दलित माओं के /सब बच्चे अब बागी होंगे/अग्निपुत्र होंगे वे ,अंतिम /विप्लव में सहभागी होंगे।।।।।।।। होंगे इसके सौ-सहयोद्धा/लाख-लाख जन अनुचर होंगे।।।।। इस जैसे और भी होंगे- अभी जो भी शिशु / इस बस्ती में पैदा होंगे/सब के सब सूरमा बनेंगे/सब के सब ही द्रौदा होंगे।।।।।  इस रास्ते पर ही चलकर मुक्ति संभव है। यह मुक्ति संघर्ष वर्गीय और जातीय दोनों तरह का  होगा। इस संघर्ष में शत्रु केवल उच्च जाति का ही नहीं बल्कि उच्च वर्ग का भी है। यहॉ सवाल केवल सामाजिक नहीं आर्थिक भी है।ये दोनों लड़ाइयॉ साथ-साथ लड़नी होंगी। केवल जाति मुक्ति से शोषण से मुक्ति नहीं होगी । नागार्जुन साफ-साफ बताते हैं कि लड़ाई किस-किस के बीच होगी-बड़े-बड़े इन भूमिधरों को /यदि इसका कुछ पता चल गया /दीन-हीन छोटे लोगों को /समझो फिर दुर्भाग्य छल गया ।  इस लड़ाई में "जनबल धनबल सभी जुटेगा"। इसके लिए एक दल का होना उन्हें जरूरी लगता है- इसकी अपनी पार्टी होगी/इसका अपना ही दल होगा। " बलचनमा" उपन्यास के इस अंच्च के साथ इन पंक्तियों को पढ़ते हुए नागार्जुन की बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है- बाहरी लीडरों के भरोसे मत रहिए अपना नेता आप खुद बनिए । ।।।।।लीडर लोग तो आपकी कमाई का हलवा खाकर लेक्चर देने आते हैं और अपने दिमाग व पेट की बदहजमी मिटाते हैं ।।।।आप लोग सब कुछ पैदा करते हैं तो अपना लीडर भी अपने यहॉ पैदा कीजिए । जो आपका आदमी होगा वही आपकी तकलीफों को समझेगा ।।।आप अकेले नहीं हैं करोड़ों की तादाद है आपकी । आप जब उठ खड़े होंगे और एक कंठ हुंकार करेंगे तो जालिम जमींदारों का कलेजा दहकने लगेगा।वे हैं ही कितने दाल मंे नमक के बराबर । अपने बल पर नहीं सरकारी अफसरों के बल पर ही जुल्म करते हैं।
  आगे वे कहते हैं- हिंसा और अहिंसा दोनों /बहनें इसको प्यार करेंगी/ इसके आगे आपस में वे /कभी नहीं तकरार करेंगी। यहॉ नागार्जुन इस बात को बहस का विषय नहीं मानते कि संघर्ष हिंसक होगा कि अहिंसक बल्कि वे मानते हैं आंदोलन की आवश्यकता इसका निर्धारण करेगी। वक्त की जरूरत के अनुसार जनता अपना रास्ता स्वयं चुन लेती है।  इस तरह दलित मुक्ति का यह एकदम अलग तरीका है। यही सही तरीका भी है। इसी से दलित मुक्ति सच्चे अर्थों में संभव है। यही होगी संपूर्ण क्रांति । यहॉ यह सम्पूर्ण क्रान्ति ,जयप्रकाच्च नारायण वाली संपूर्ण क्रांति नहीं है।उससे नागार्जुन का मोहभंग हो गया था । अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं ,"" जयप्रकाच्च नारायण के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन के वर्ग-चरित्र को मैं अंध कांग्रेस विरोध के प्रभाव में रहने के कारण नहीं समझ पाया।"संपूर्ण क्रांति" की असलियत मैंने जेल में समझी । सीवान,छपरा और बक्सर की जेलों में "संपूर्ण क्रांति" के जो कार्यकर्त्ता थे,उनमें अस्सी प्रतिश्त जनसंघी और विद्यार्थी परि्षद वाले थे।सो्शलिस्ट पार्टी के कार्यकर्त्ता दाल में नमक के बराबर थे और भालोद के कार्यकर्त्ता दाल में तैरते हुए जीरे के बराबर ! औद्योगिक और खेत-मजदूर न के बराबर थे। हरिजन भी इक्के-दुक्के ही थे। यह सब देखकर मैं समझ गया कि यह आंदोलन किन लोगों का था ।""  इसके बाद से  उसे वे  झूठी  क्रांति कहने लगे थे क्योकि वे मानते थे कि संपूर्ण क्राति के लिए समाज के सभी दमित-शोषित वर्गों और जातियों का प्रतिनिधित्व होना जरूरी है। यह बात उन्हें जयप्रकाच्च नारायण की संपूर्ण क्रांति में नहीं दिखाई दी। संपूर्ण क्राति के लिए नागार्जुन वर्गीय एकता और जातीय एकता जरूरी मानते हैं इस कविता में पहले वे कहते हैं - खान-खोदने वाले सौ-सौ /मजदूरों के बीच पलेगा/युग की ऑचों में फौलादी /सॉचे सा वह वहीं ढलेगा। दूसरी जगह वे लिखते है- झरिया ,फरिया ,बोकारो /कहॉ रखोगे छोकरे को ? वहीं न ? जहॉ अपनी बिरादरी के /कुली-मजूर होंगे सौ-पचास ? जातीय एकता से ही वर्गीय एकता का विस्तार संभव है ,उक्त पंक्तियों से यही ध्वनि निकलती है।
  नव शिशुका सिर सूंघ रहा था /विह्वल होकर बार-बार वो। इन पंक्तियों में आने वाले नए समाज के संकेत दिए गए हैं जिसके बारे में सोच-सोचकर गुरू महाराज खुश हुए जा रहे हैं। वे आने वाले समाज की कल्पना करते हैं कि उस समाज में सारी धरती पर दलित-मजदूरों का राज होगा ।  इस समाज के नए नियम-कानून होंगे जिससे -च्चोद्गाण की बुनियाद हिलेगी ।  इसमें दलितों को न केवल राजनीतिक वर्चस्व  बल्कि सांस्कृतिक वर्चस्व का नायक भी बताया गया है- दिल ने कहा -अरे यह बालक /निम्न वर्ग का नायक होगा/नई ऋचाओं का निर्माता/नये वेद का गायक होगा।  ये पंक्तियॉ उस जरूरत की ओर भी संकेत करती हैं कि दलित मुक्ति के लिए कहीं न कहीं सांस्कृतिक परिवर्तन की भी आवश्यकता होगी। वर्णव्यवस्था का अंत करना होगा , तभी भारतीय समाज में ढॉचागत परिवर्तन आएगा। एक ऐसे ढॉचे का निर्माण होगा जिसमें प्रत्येक मनुष्य को मनु्ष्य समझा जाएगा हैवान नहीं । यह किसी से छुपा नहीं है कि दलितों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। इसलिए भरतमुनि ने इस वर्ग के लिए पॉचवे वेद की बात की । उक्त पंक्तियों को लिखते हुए नागार्जुन के मन में यह बात रही होगी। यहॉ कवि एक ऐसे नए वेद की रचना की बात करता है जो वर्णव्यवस्था जैसी अमानवीय एवं अवैज्ञानिक व्यवस्था को नकारता हो ,उसके स्थान पर समतावादी तथा भेदभाव रहित समाज की सृष्टि करता हो और मानव मात्र को एक इकाई मानता हो। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही दलित-मुक्ति को लेकर  दो धाराएं सक्रिय रही हैं  पहली धारा खुद को वर्ग-संघर्ष और वर्ग ईर्ष्यासे अलग रखती है। उनका उद्देश्य अपने समाज को सुधारना और पुनर्गठित करना रहा। वे सवर्ण हिंदुओं से दलितों का केवल सामाजिक-आर्थिक मतभेद मानते थे सांस्कृतिक नहीं। दूसरी धारा इसके विपरीत थी । नागार्जुन इस दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।वे मानते हैं कि सवर्णों की बहुजन समाज के प्रति कभी भी नियत साफ नहीं रही वे संस्कृति और कला में अपना वर्चस्व कभी नही छोड़ना चाहते । इसलिए नए वेद और नई ऋचाओं की सृ्ष्टि जरूरी है। यही मनता नागार्जंुन की प्रस्तुत कविता में व्यक्त हुई है।
    इस कविता में कथा सी रोचकता तथा भरपूर नाटकीयता है। मिथकों का कवि ने बहुत ही सुंदर प्रयोग किया है। गर्भावस्था में प्रभाव ग्र्रहण करने वाली अभिमन्यु की कथा , वारह अवतार द्वारा पृथ्वी के उद्धार की कथा तथा वासुदेव द्वारा कृद्गण को कंस के हाथों बचाने के लिए मथुरा ले जाने की कथा संबंधी मिथकों का प्रयोग करते हुए कविता के फलक को विस्तृत कर दिया गया है। एक दलित बालक को कृष्ण,अभिमन्यु तथा वाराह से जोड़कर कवि ने दलितों के प्रति अपने सम्मान को व्यक्त किया है। उनके प्रति रागात्मकता रखने वाला कवि ही ऐसा कर सकता है। उनकी रागात्मकता ही कही जाएगी कि वे सॉवले रंग के शिशु मुख की छटा को सलोनी और निराली देखते हैं।
  इसमें कोई दो राय नहीं कि "हरिजन गाथा" जातिवादी और सामंती बर्बरता के विरुद्ध उस कवि की उत्कट आकांक्षा का बखान है जो सदियों से शोषित-पीड़ित-वंचित जन को गौरवपूर्ण सुखी मानवीय जीवन जीते हुए देखने के लिए निरंतर बेचैन रहा है।(नंद किशोर नवल) पर कविता की एक पंक्ति  "ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।।।।" बार-बार हंट करती है  । यह पंक्ति घटना की भयावहता ,विकरालता और बेचैनी की तीव्रता को व्यक्त करने में तो सहायक है ,मगर  नागार्जुन के इतिहासबोध पर प्रश्न चिह्न भी लगाती है। इस पंक्ति से लगता है कि ना्गार्जुन दलितों की यातना-उत्पीड़न -बर्बबरता के पूरे इतिहास की ओर ऑखें बंद कर लेते  हैं। जबकि सत्यता तो यह है कि सवर्ण जातियॉ सदियों से दलितों का उत्पीड़न करते आ रहे हैं। बहुत पीछे भी न जाकर बिहार की ही बात करें तो सन् 1971ई के आसपास पूर्णिया में एक साथ 14 आदिवासियों को जिंदा आग में झोंक दिया गया। रूपसमुर-चंदवा कांड के नाम से उसे आज भी लोग जानते हैं। हम इतिहास की बात भले न करें हमें काव्य परम्परा के रूप में भी यह दिखाई देता है जब निराला लिखते हैं- श्रुति निगमागम शब्द शूद्र के सीसा कानों में भरते /मंत्रोचार किया तो उसका सर उतार सब दुख हरते । तब यह समझ में नहीं आता है कि नागार्जुन ऐसा क्यों कहते हैं -"ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।।।।" या फिर  प्रबल वर्ग ने निम्न वर्ग पर /पहले नहीं किया था ऐसा ।
    नागार्जुन के पूरे जीवन-वृत्त को जानते हुए उनकी नीयत पर बिल्कुल द्राक नहीं किया जा सकता है ,नि:संदेह वे दलितों के प्रखर पक्षधर  तथा ब्राह्मणवादी व्यवस्था के कटु आलोचक रहे लेकिन न जाने क्यों वे ब्राह्मणवादी प्रतीकों के प्रयोग से मुक्त नहीं हो पाए ? नागार्जुन ऐसे प्रतीकों को कविता में इस्तेमाल करते हैं जो द्विज संस्कृति की पहचान है। यह कविता दलितों पर हो रहे अत्याचार-उत्पीड़न का विरोध तो करती है पर ब्राह्मणवादी तदवीरों से परहेज नहीं करती ।   गुरूजी से हाथ दिखवाने वाला प्रकरण रोचक तो है पर हस्तरेखा देख कर भाग्य बताने का तरीका बहुत पुराना है जिसने लोगों में अंधविश्वास को बढ़ाया है। यह शोषण का भी तरीका रहा है। भाग्यफल द्विज संस्कृति का हिस्सा है। यह पूर्वजन्म से भी चीजों को जोड़ता है।यह वह औजार रहा है जिसके माध्यम से ब्राह्मणों ने दलितों को बहुत पहले से ठगा तथा यथास्थिति को कायम रखा । प्रस्तुत कविता में इस प्रतीक का जिस तरह से उपयोग किया गया है वह  कहीं न कहीं एक अंधविश्वास को मान्यता देना है। यह भूलना नहीं चाहिए कि यदि ब्राह्मणवादी व्यवस्था से लड़ना है तो उसके प्रतीकों ,कर्मकांडों , नियम-कानूनों को नकारे  बिना यह लड़ाई आगे नहीं बढ़ सकती है। जबकि नागार्जुन स्वयं यह बात मानते हैं कि निम्न वर्ग का नायक ,नई ऋचाओं का निर्माता तथा नए वेद का गायक होगा अर्थात पुराने वेदों को नहीं मानेगा । उन्हें अस्वीकार करेगा । यह कुछ उसी तरह से है जैसे निम्न जाति के लोग जातिवादी व्यवस्था की आलोचना और विरोध तो करते हैं पर  ब्राह्मणवादी व्यवस्था के उन कर्मकांडों को अपनाते हैं जो इस जातिवादी व्यवस्था के मूल में हैं । यहॉ तक कि वे जातीय पदसोपान क्रम से भी मुक्त नहीं हो पाते हैं। अपने से छोटी कही जाने वाले जातियों के साथ वे वही व्यवहार करते हैं जो उनसे उच्च जातियॉ उनके साथ । आज बहुत सारे दलित आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद ब्राह्मणवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। कहना होगा कि वे ब्राह्मण बनने की चाह में इसकी और अधिक गिरफ्त में आ गए हैं। वे उन सारे कर्मकांडों को अपनाने लगे हैं जो द्विज संस्कृति के परिचायक हैं।इनको यह भ्रम है कि ऐसा करने से वे सवर्णों की जमात में शामिल हो जाएंगे। वे भूल जाते हैं कि  जाति का आधार कर्म नहीं जन्म को माना गया है जिससे मुक्ति जाति विहीन समाज के बनने से ही मिल सकती है। मेरी समझ से सच्चे अर्थों में दलित मुक्ति तभी संभव है जब दलितों की लड़ाई सवर्णो से नहीं बल्कि सवर्णवादी मानसिकता से हो।क्या भविष्य के संकेत देने के लिए नागार्जुन किसी और प्रतीक का प्रयोग नहीं कर सकते थे? जैसा कि इसी कविता में आगे " दिल ने कहा " पंक्ति के द्वारा किया भी गया है। यह प्र्श्न बार-बार कचोटता है।
   कविता का शिल्प बहुत मजबूत है। कविता मुक्त छंद में होते हुए भी लयविहीन नहीं है। एक सतत प्रवाह कविता में है। मनुपुत्रों शब्द का भी कवि ने बहुत सुंदर प्रयोग किया है दो जगह यहशब्द आया है और दोनों स्थानों पर अलग-अलग अर्थों को व्यंजित करता है जहॉ पहले मनुपुत्रों का आशय मनु्ष्य के पुत्रों से है तो दूसरे का मनुवादी सोच के सवर्णों से । पहले अभागे हैं तो दूसरे सौभाग्य्शाली । यहॉ व्यंग्य भी है। कविता की भा्षा सहज संप्रेद्गाणीय है।कविता में चाक्षुष बिंब बहुत सुंदर हैं। पूरे-पूरे चित्र ऑखों के सामने उतर आते हैं,उदाहरण के लिए संत गरीबदास का यह बिंब- बकरी वाली गंगा-जमनी दाड़ी थी /लटक रहा था गले से / अंगूठानुमा जरा -सा टुकड़ा तुलसी काठ का /कद था नाटा ,सूरत थी सॉवली /कपार पर ,बाई तरफ घोडे के खुर का/निशान था /चेहरा था गोल-मटोल ,ऑखें थी घुशी /बदन कठमस्त था ।।।।।
  यहॉ एक बात और कहना चाहुंगा- दलित साहित्यकार, दलित साहित्य का उद्देश्य दलित्व की मुक्ति ,शूद्रत्व से मुक्ति ,ऊॅच-नीच के पदानुक्रम से मुक्ति ,शोषण से मुक्ति और समतावादी समाज की सृ्ष्टि और स्थापना मानते हैं। हम पाते हैं कि "हरिजन गाथा" कविता इन सभी उद्देश्यों से युक्त  है। कुछ सीमाओं को छोड़ दे तो यह इस बात का खंडन करती है कि दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकता है या दलित साहित्य दलितों का दलितों के बारे में लिखा साहित्य है। वैसे भी  ऐसा कहना उन सभी रचनाकारों को दलित मुक्ति आंदोलन से दूर कर देता है जो खुद को डिकास्ट करके इस आंदोलन में शामिल होना चाहते हैं। यह आंदोलन की मजबूती की दृष्टि से सही समझ नहीं कही जा सकती है। यह कविता दलितों के प्रति सवर्णों के व्यवहार पर चोट करने या प्रश्न उठाने तक सीमित नहीं है बल्कि उसको बदलने की दि्शा भी बताती है। जबकि इससे पूर्व की दलित चेतना की कविताओं में हम पाते हैं कि उनमें वर्णव्यवस्था ,अश्यपृ्श्यता या दलितों की दयनीय स्थिति पर केवल प्र्श्न खड़े किए गए हैं । ये चाहे हीरा डोम या स्वामी अछूतानंद की कविताएं रही हों या किसी और की । इस प्रकार यह कविता एक कदम आगे की कविता है। इसमें वर्गीय और जातीय संघर्ष एक साथ चलाने  की बात की गई है। एक ओर वे जहॉ मजदूरों की एक जुटता की बात करते हैं तो दूसरी ओर जाति विरादरी की । यह कविता एक बड़े समुदाय को चेतना युक्त करके अपने स्वाभिमान और अधिकारों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। भूमिहीन मजदूरों के भीतर एक ताकत पैदा करती है। एक स्वाभिमान जगाती है। नया जोश देती है। दुर्गति ,हीनता और परमुखापेक्षिता से बचाती है। नई ऊर्जा का संचार करती है। पाठक के हृदय को परदुखकातर और संवेदन्शील बनाती है। इस कविता में कवि की आकांक्षा है कि दलित उठ खड़े होंगे और अपने साथ हो रहे अत्याचार-उत्पीड़न का संगठित होकर विरोध करेंगे । अंतत: समता का मुद्दा समझते हुए एक समतावादी व शोषण विहीन समाज की स्थापना करेंगे । इसके लिए मौजूदा पीढ़ी को अपनी तैयारी करनी होंगी । बूद्धू , खदेरन ,सुखिया ,संत गरीबदास आदि को अपना-अपना योगदान देना होगा। "अंतिम विप्लव" अपने समय पर होगा लेकिन उसकी तैयारी अभी से करनी होगी। ऐसे में दलित चेतना की कविताओं में इस कविता का जिक्र न होना थोड़ा खलता है। जबकि इसमें दलित जीवन की पीड़ा सिद्दत से व्यक्त हुई है। यह दूसरी बात है कि यह भोगी हुई पीड़ा नहीं है।
  अंत में प्रसंगानुकूल एक बात और जोड़ना चाहुंगा कि इस बात पर विचार होना चाहिए कि क्या दलित साहित्य वही होगा जो दलितों द्वारा लिखा गया हो जैसा कि अनेक दलित चिंतकों द्वारा कहा जाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि श्रेष्ट साहित्य के लिए केवल जीवनानुभव का होना ही पर्याप्त नहीं है साहित्य के लिए वि्श्वदृ्ष्टि का होना भी जरूरी है।जब तक हम स्थितियों का द्वंद्वात्मक तरीके से विश्लेषण नहीं करेंगे तो हम भावुकता के शिकार हो जाएंगे। कोरी भावुकता किसी रचना को कालजयी नहीं बना सकती है। हॉ यह अवश्य स्वीकार किया जा सकता है कि एक दलित साहित्यकार जिसके पास जीवनानुभव के साथ-साथ गहरी वि्श्वदृ्ष्टि भी है तो दलित जीवन के बारे में लिखा गया उसका साहित्य गैर-दलित साहित्यकार के द्वारा लिखे गए साहित्य की अपेक्षा अधिक प्रमाणिक होगा।

इस कविता पर एक अन्य टिप्पणी यहां भी पढ़ी जा सकती है ।- वि.गौ.










 

Thursday, July 26, 2012

सारी भागमभाग को धता बताती कविताएं

 &a   - महेश चंद्र पुनेठा 
 punetha.mahesh@gmail.com
   


जनपदीय चेतना और लोकधर्मी काव्य प्रवृतितयों के लिए इधर की हिंदी कविता में जिन युवा कवियों का नाम लिया जाता है उनमें आत्मारंजन का नाम उल्लेखनीय हैं। उनकी कविताओं की सबसे बड़ी खासियत है कि उनके यहाँ हिमाचल का पूरा जन-जीवन अपने भूगोल-इतिहास और संस्कृति के साथ उपसिथत होता है। प्रकृति अपनी विविध छटाओं के साथ दिखती है। वहाँ का श्रमशील जन जो पूरी मुस्तैदी के साथ सभ्यता-विकास के तमाम रास्ते अपनी देहों पर उठाए हुए है तथा समाज की अर्थव्यवस्था को 'डंगा की तरह ढहने नहीं देता है] उनकी कविताओं का नायक है। वे स्थानीयता को समकालीन समय की जटिलताओं के बीच रखकर देखते हैं। कवि की अनुभूति और संवेदना का साधारण ,वंचित और उपेक्षित से गहरा रिश्ता है। समाज का हर उपेक्षित और हाशिए में पड़ा उनकी कविता के केंद्र में आता है। वह किसान-मजदूर हो या फिर स्त्री व बच्चा। जो शुचिता के ऊँचे चबूतरे पर विराजमान नहीं है और जिसके पास न देव संस्कृति से जुड़े होने का गौरव है] न महान ग्रंथों में दर्ज मुग्धकारी इतिहास और जो न कोई महान धर्माचारी या महानायक हैं उनकी कविताओं में गौरव प्राप्त करता है। उनकी कविता इस बात की गवाही देती है कि है---- कि जो पूजा नहीं जाता‍/ नहीं होता इतिहास के गौरवमयी पन्नों में दर्ज वह भी अच्छा हो सकता है। वे लोक की रग-रग से वाकिफ हैं उसकी जीवन-गंध उनकी कविताओं में बसी है। वे पनिहारनों और घसियारनों से बतियाये हैं तथा उनके सुख-दुख के मर्म को समझते हैं। उनके सद्य प्रकाशित पहले कविता संग्रह पगडंडियाँ गवाह हैं की कविताएं इस बात की प्रमाण हैं।
    प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में लोकगीतों की गूँज भी है और समूची मानवीय हलचल में डोलते-लहराते लोकवृक्ष की लय भी। यह कवि दूर महानगर में बैठा स्मृतियों के आधार पर अपने अंचल पर या छूटी चीजों पर कविता नहीं लिख रहा बलिक लहराते मकई के खेतों के छोर पर खड़ा सामने पसरे खेतों को देख कविता रच रहा है अर्थात अपनी जमीन पर रच-बस कर। वह पहले कसकती तान की गूँज को अपने भीतर महसूस करता है फिर अपनी कविता में उतारता है। खोती जा रही सामूहिकता की जीवन-संस्कृति के बारे में पूछता है- कहाँ है वह गाँव भर से जुटे बुआरों का दल

 कहाँ है वह बाजों-गाजों के साथ चलती गुड़ार्इ का शोर.....युवक-युवतियों के टोलों के बीच
.....किसी का काम न छूटने पाएबारी-बारी सबके खेतों में उतरता सारा गाँव। आज कहाँ रह गयी यह चिंता। व्यकितवाद हावी हो गया है। धन के बढ़ते प्रभाव ने एक आदमी को दूसरे आदमी की जरूरत को ही समाप्त कर दिया है। भार्इ-बिरादर या पड़ोसी की अहमियत को कम कर दिया है। जिसके पास धन है उसे रिश्तों बोझ लगने लगे हैं।  आज सिथति यह हो गयी है- खेतों में अपने-अपने जूझ रहे सब खामोशपड़ोसी को नीचा दिखातेखींच तान में लीनजीवन की आपाधापी में जाने कहाँ खो गयासंगीत के उत्सव का संगीत। जीवन का बदलना स्वाभाविक और जरूरी  है पर उसके चलते जीवन के मानवीय-मूल्यों और सकारात्मक तत्वों  का समाप्त होना अवश्य चिंता का विषय है। वही चिंता यत्र-तत्र इन कविताओं में आती है। बोलो जुलिफया रे कविता में कवि के लिए जुलिफया मात्र एक गायन शैली नहीं है जो बुआरा प्रथा में सामूहिक गुड़ार्इ के अवसर पर लोक वाधों की सुरताल के साथ गाया जाता है बलिक- मिटटी की कठोरता में उर्वरता औरजड़ता में जीवन फूँकतेकठोर जिस्म के भीतर उमड़तेझरने का नाम है जुलिफयाचू रहे पसीने का खारापन लिएकहीं रूह से टपकता प्रेमरागऐसे अनन्य लोकगीत तुम। कवि प्रश्न करता है- कैसे और किसने कियाश्रम के गौरव को अपदस्थक्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोशअपराजेय सामूहिक श्रम की। यह कविता पीड़ा है अपराजेय सामूहिक श्रम और श्रम के गौरव के अपदस्थ होने की एक लोकगायन शैली के लुप्त हो जाने की नहीं।
   रंजन बदलते वर्तमान के आलोक में अपने लोक को देखते हैंं। वे पुनरुत्थानवादी या भावुकता भरा विलाप करने वाले कवि नहीं हैं। उनके लिए लोक की स्मृतियाँ या दृश्य सजावटी सामान की तरह नहीं हैं जैसा कि महानगरों में रहने वाले अभिजात्य लोगों के लिए होता है। वे लोक को भोक्ता की नजर से चित्रित करते हैं। पहाड़ के कठिन जीवन के संघर्षों और कष्टों को कभी नहीं भूलते हैं। जैसे उनके यहाँ बर्फवारी के सौंदर्य का जिक्र आता है तो उससे स्थानीय जनों को होने वाली परेशानी का भी....जाड़ा कृतार्थ कर जाता शिखरों कोपेड़ भी सहार लेते बर्फ लेकिन घास -मौत से जूझती हर बारकि जीने की शर्त है धूपदिनों हफतों कभी महीनों तकतरसती धूप कोओढे़ हुए छीजत-सी आशा और विश्वासमर-मर कर जीती है घास। इस कविता में घास आम-पहाड़ी की प्रतीक है जो बर्फवारी के कष्टों के बोझ को झेलता है। यहाँ एक है जो बर्फ से लड़ता है और दूसरा जो बर्फ से खेलता है। लड़ने वाला वह है जो बर्फ के आसपास या बीच रहता है और खेलने वाला जो दूर देश से बर्फवारी का आनंद लेने आता है-दौड़ आते दूर-दूर सेपर्यटकों के टोलेभर-भर गर्म कपड़े गर्म सामानदिन-भर पहाड़ों के पेड़ों का सौंदर्यकैद करते आयातित कैमरों मेंमोटे दस्ताने चढ़े हाथ मजे से खेलते बर्फ। एक ओर बर्फ पर चलने की मजबूरी ढोताआदमी है तो दूसरी ओर छकता हुआ बर्फ का विलास । बर्फ पर चलता हुआ आदमी कविता में कवि इन दोनों की चाल की भिन्नता को पकड़ता है। साथ ही सुनता है बर्फ में चलने के लिए मजबूर आदमी के बच्चों से लेकर मवेशियों तक के कट-कटाते दाँतों की आवाज ,बर्फानी हवाओं की सिहरन उससे भी अधिक पिछले वर्ष बर्फ में मिली लाशों की डरावनी स्मृतियों की सिहरन। जिनके लिए बर्फ आश्चर्य नहीं बलिक आफत है जिसके चलते वह बर्फ को सराहता नहीं कोसता है। कवि आम और खास के बीच के अंतर को अच्छी तरह जानता है।टहलते हुए आदमी और काम पर जाते या लौटते आदमी के अंतर को अच्छी तरह पहचानता हैं। दो अलग-अलग वर्गों की दुनिया के दृश्यों को आमने-सामने रखते हुए कवि उनके बीच के अंतर को बखूबी उभार देता है। अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 
   भागते हाँफते समय के बीचाेंबीच सारी भागमभाग को धता बताते हुए आत्मारंजन तमाम व्यस्तताओं को खूँटी पर टाँग कविता लिखने बैठते हैं तो पूरी तन्मयता और पूरी तल्लीनता  से अपने जन और जनपद के सौंदर्य को नर्इ ऊँचाइयाँ प्रदान करते हैं और विद्रूपताओं को दाल के कंकड़ों की भाँति छाँट देते हैं। कुछ उसी तरह जैसे प्रस्तुत संग्रह की पहली कविता में कंकड़ छाँटती स्त्री। एक स्त्री की अन्न को निष्कंकर होने की गरिमा भरी अनुभूति और इस कवि की अपने जन के हर्ष-विषाद को स्वर देने की अनुभूति में बहुत अधिक समानता है। तभी तो कवि दाल में से कंकड़ छाँटती औरत के हाथ को इस रूप में देख पाता है-एक स्त्री का हाथ है यहजीवन के समूचे स्वाद में सेकंकड़ बीनता हुआ। वास्तव में एक स्त्री दाल से ही कंकड़ नहीं बीनती बलिक जीवन में आने वाले तमाम कंकड़ों को बीनकर जीवन को स्वादिष्ट बनाती है। पर दुखद है कि हमारे जीवन में इतनी महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली स्त्री का जीवन हाँडी के जीवन से बहुत अलग नहीं है। कितनी समानता है इन दोनों में -तान देती है जो खुद को लपटों परऔर जलने कोबदल देती है पकने में। स्त्री खुद तमाम कष्ट सहन करते हुए अपने परिजनों के लिए सुख का संसार रचती है। उसका श्रम, महक ,स्वाद.....हाँडी की तरह है उसका जीवन जो खुद जलकर दूसरों को स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराती है। कवि प्रश्न करता है-सच-सच बताना क्या रिष्ता है तुम्हारा इस हाँडी से माँजती हो इसे रोजचमकाती हो गुनगुनाते हुएऔर छोड़ देती हो उसका एक हिस्साजलने की जागीर साखामोशी से। इस कविता में कब हाँडी स्त्री में बदल जाती है पता ही नहीं चलता है। स्त्री की सदियों की खामोशी और भरे मन की बेचैन कर देने वाली अभिव्यकित यहाँ दिखती है। यह आत्मारंजन का कवि-कौशल कहा जाएगा कि उन्होंने हमारे समाज में स्त्री की सिथति को बताने के लिए बहुत सटीक प्रतीक का प्रयोग किया है।
  इधर युवा कवियों की एक बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि स्त्री को लेकर उनमें गहरी संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। वे उसके दु:ख-दर्द को शिददत से महसूस करते हैं। स्त्री के प्रति उनका रवैया पुरुषवादी नहीं है। वे उसकी बराबरी के पक्षधर हैं। उसके योगदान को मुक्तकंठ से स्वीकार करते हैं तथा उसके प्रति कृतज्ञता-भाव से भरे हैं। उन्हें औरत की आँच नंगे बदन में नहीं ,उसके प्रेम-स्नेह-ममता में महसूस होती है-जो पत्थर ,मिटटी ,सिमेंट को सेंकती हैबनाती है उन्हें एक घर। वे जानते हैं स्त्री-पूजने से जड़ हो जाएगीकैद होने पर तोड़ देगी दम। उसे तो चाहिए बस अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की स्वतंत्रता और मानव की गरिमा। खुलकर हँसने की आजादी ताकि उसे हँसते हुए यह अपराधबोध न हो कि-ऐसे हँसना नहीं चाहिए था उसेवह एक लड़की है। आत्मारंजन अपनी कविताओं में औरत की इस विडंबना पर सटीक चोट करते हैं और उसकी पारदर्शी हँसी जो सुबह की ताजा धूप सीहवाओं में छिटकी है ,से हमारा परिचय कराते हैं। इतना  सुंदर बिंब वही कवि रच सकता है जो स्त्री का सम्मान करता हो और सुविधा,लाभ या मनोरंजन केअर्थों से दूर हो । उसे ही एक स्त्री का होना एक सुखद उपसिथति लग सकती है।
    कुछ ऐसा ही सम्मान कवि  का श्रमसंलग्न लोगों के प्रति भी दिखार्इ देता है। वे श्रम से जुड़ी कि्रयाओं को एकदम अलग तरीके और उनके वास्तविक रूप में देखते हैं। उनकी तह में जाकर समझते हैं। उनमें गहरी अंतदर्ृषिट के दर्शन होते हैं। हममें से अनेक कवियों ने किसान-मजदूरों को श्रम करते हुए थक जाने पर सुस्ताने के लिए पृथ्वी पर लेटे हुए देखा होगा पर किसी ने उनकी तरह नहीं देखा। उन्हें पृथ्वी पर लेटना पृथ्वी को भेंटना लगता है। यह भेंटना पृथ्वी और उसके पुत्रों के बीच रिश्ते की आत्मीयता और प्रगाढ़ता को बताता है। वास्तव में धरती के लाडले बेटे का पृथ्वी पर लेटने का अंदाज ही उसे भेटने जैसा हो सकता है। पृथ्वी से उसका संबंध उसी तरह का हो सकता है जैसा एक बेटे का अपनी माँ की गोद से। यहाँ कवि ने श्रम करते हुए थकी हुर्इ देह का पृथ्वी में लेटने का जो चित्रण किया है वह अदभुत है। ऐसी अलट नींद से किसे ना र्इष्र्या हो उठे। इस नींद में कहीं ना कहीं श्रम का आनंद छुपा हुआ है। इस तरह पृथ्वी में लेटना वास्तव में-जिंदा देह के साथजिंदा पृथ्वी पर लेटना है। कवि इसमें जिस तरह का सुख देखता है वह उसकी शारीरिक श्रम के प्रति अगाध आस्था केा बताता है।एक कवि और मजदूर-किसान ही इस सुख का अनुभव कर सकता है। पृथ्वी से थोड़ा ऊपर जीने वाले इस सुख को नहीं अनुभव कर सकते और न वे  मिटटी की महकधरती का स्वाद जान सकते हैं । एक कवि ही आलीशान गददों वाली चारपाइयों में सोने के सुख को इस तरह अंगूठा दिखा सकता है। इस कविता को पढ़ते हुए कबीर याद हो आते हैं-मिटटी से बेहतर कौन जानता हैकि कौन हो सका है मिटटी का विजेतारौंदने वाला बिल्कुल नहींजीतने के लिएगर्भ में उतरना पड़ता है पृथ्वी केगैंती की नोक,हल की फालया जल की बूँद की मानिंदछेड़ना पड़ता हैपृथ्वी की रगों में जीवन रागकि यहाँ जीतना और जोतना पर्यायवाची हैंकि जीतने की शर्तरौंदना नहीं रोपना हैअनंत-अनंत संभावनाओं कीअनन्य उर्वरताबनाए और बचाए रखना। यहाँ कविता मिटटी की महत्ता को भी बताती है और सृजन की भी। सही अथोर्ं में जीतना दूसरे को रौंदना नहीं है बलिक रोपना है अर्थात जीत ध्वंस करने में नहीं बलिक सृजन करने में है। इस कविता को पढ़ते हुए किसी भी शारीरिक श्रम करने वाले का मन एक अतिरिक्त गरिमा से भर उठेगा। उसे अपना काम दुनिया का सबसे बड़ा काम लगने लगेगा। यह संग्रह की बेहतरीन कविताओं में से एक है। कवि ने मिटटी में मिलाने तथा धूल चटाने जैसे मुहावरों की बहुत तर्कसंगत व्याख्या की है। निशिचत रूप से ये  मुहावरे विजेताओं के दंभ की उपज और पृथ्वी की अवमानना  हैं। उस आदमी की अवमानना है जो धूल-मिटटी में लेटा-लौटा रहता है। पृथ्वी और उसके बेटों से प्रेम करने वाला कवि ही उसके निहिताथोर्ं को इस तरह से पकड़ सकता है। खुद को  जमीन से जुड़ा कहने वाला  कवि भी न जाने कितनी बार इन मुहावरों का प्रयोग करता है। कुछ उसी तरह से जैसे स्त्री का सम्मान करने वाला भी जाने-अनजाने गुस्से में  माँ-बहन  की गाली दे देता है।
 इसी तेवर की एक अन्य कविता है पत्थर चिनार्इ करने वाले। कविता को पढ़ते हुए बचपन के वे दिन याद हो आते हैं जब मिस्त्री को दीवार चिनते हुए देखते थे तो देर तक डिबिया की तरह पत्थर काटते-छाँटते-बैठाते  हुए उसे देखते ही रहते थे। बहुत आनंद आता था। उस बात का बहुत हू-ब-हू चित्रण इन पंकितयों में मिलता है-कि डिबिया की तरहबैठने चाहिए पत्थरखुद बोलता है पत्थरकहाँ है उसकी जगहबस सुननी पड़ती है उसकी आवाजखूब समझता है वहपत्थर की जुबानपत्थर की भाषा में बतिया रहा हैसुन रहा गुन रहा बुन रहाएक-एक पत्थर। इस कविता में एक ओर श्रम का सौंदर्य है  तो दूसरी ओर सृजन का सौंदर्य। यह महत्वपूर्ण बात है कि कवि कला को श्रम से अलग नहीं मानता है -आदिम कला है यहसदियों से संचित। बरसों से सधी हुर्इपहुँच रही है एक-एक पत्थर के पासर्इंट नहीं है यहसुविधाजनक साँचों में ढलकर निकली। इस कविता में स्थापत्य कला की बारीकियाँ उतर आयी हैं। यह कविता कवि की इन शिल्पकारों से निकटता को बताती है। उनकी एक-एक गतिविधि पर कवि की बारीक नजर है। कवि कितनी गहरार्इ से जुड़ा है चिनार्इ करने वालों से ये पंकितयां उसकी साक्ष्य हैं- पत्थर चुनता है वहपत्थर बुनता हैपत्थर गोड़ता हैतोड़ता है पत्थरपत्थर कमाता है पत्थर खाता हैपत्थर की रूलता पड़ताधूल मिटटी से नहाता हैपत्थर के हैं उसके हाथपत्थर का जिस्मबस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थरपत्थरों के बीच गुनगुनाताएक पत्थर को सौंपता अपनी रूह। यहाँ उसकी कला ही नहीं बलिक उसका संघर्ष और संवेदनशीलता (भीतर-बाहर) भी कविता में व्यंजित होती है। पत्थरों के बीच रहने वाला खुद पत्थर नहीं है। उसकी रूह नहीं है पत्थर। यही उसकी सबसे बड़ी खासियत है जिसके चलते वह कविता की विषयवस्तु बना। कवि की यह पारखी नजर ही कही जाएगी जो लगभग उपयुक्त विकल्प पर ही टिकती है। यहाँ बस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थर कहकर कवि बिना कहे यह बात कह देता है कि श्रम से दूर रहने वाले लोग किस तरह आज पत्थरहोते जा रहे हैं।
  उनकी कविताओं की बनावट उतनी सरल नहीं है जितनी दिखती है। समाज में फैले बेढंगेपन और कठोरता के बीच से वे मजबूत कविता बुन लेते हैं। उनकी कविताओं में कब सजीव चीजें निर्जीव चीजों के भीतर और कब निर्जीव सजीव के भीतर प्रवेश कर जाती हैं पता ही नहीं चलता है। ये उनकी कविता की बहुत बड़ी खासियत है। रंजन की कलम में जादू है वह सामान्य काम को भी कला की ऊँचार्इ प्रदान कर देती है। समाज के बेकार कहलाने वाले उपेक्षित अंग को केंद्र में रखकर वे जिंदा कविता बनाते हैं,कुछ उसी तरह जैसे यह शिल्पी-बेकार हो चुके के भीतर खोजता रचता उसके होने के सबसे बड़े अर्थबेकार हो चुके के भीतर खोजता रचतापृथ्वी के प्राणपृथ्वी को चिनने की कला है यहटूटी-बिखरी पृथ्वी कोजोड़ने-सहेजने की कलारचने,जोड़ने,जिलाने कासौंदर्य और सुख! किसी कला की सार्थकता भी इसी में है। कविता पर भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। ये वही मिस्त्री हैं जो तीखी ढलान की जानलेवा साजिशों के खिलाफ मजबूत डंगा का निर्माण करते हैं।
  युवा कवि आत्मारंजन के कविता संसार में श्रम करने वालों से भरा-पूरा है। खुदार्इ-चिनार्इ करने वालों के बाद रंग पुतार्इ करने वालेउनकी कविता में दिखार्इ देते हैं। इनकी जीवन-प्राथमिकता,जीवन सिथतियाँ ,विडंबनाएं ,हुनर की बारीकियाँ आदि इस कविता में चित्रित हुर्इ हैं-रंगों से खेलते रहते हैं वे अपने पूरे कला-कौशल के साथपर कोर्इ नहीं मानता इन्हें कलाकारवे जीते हैं पुश्त दर पुश्त अनामहालांकि कम नहीं है इनकी भी रंगों की समझ.....कितना सधा है उनका हाथदो रंगों को मिलाती लतरमजाल है जरा भी भटके सूत से। इससे पता चलता है कि कवि हुनरमंद को ही नहीं बलिक उसके हुनर को भी जानता है। कैसी विडंबना है जिनके हाथों में जीवित हो उठते ब्रश और लकदक हो उठते हैं रंग , उनके हिस्से हमेशा बदरंग ही आते हैं। इसे कवि तमाम रंगों की साजिश मानता है। कितनी बड़ी बात है कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद श्रम करने वाले ये लोग -करते हँसी-ठठा ,बतियातेदूर देहात का कोर्इ लोक-गीत गुनगुनातेरंग पुतार्इ कर रहे हैं वेकहाँ समझ सकता कोर्इखाया-अघाया कला समीक्षकउनके रंगों का मर्मकि छत की कठिन उल्टान मेंशामिल है उनकी पिराती पीठ का रंग। इस तरह रंजन अभिजात्य रूचि के कला समीक्षकों को चुनौती देते हैं। कवि यह कहते हुए कि-चटकीले रंगों में फूटती ये चमकएशियन पेंट के किसी महँगे फामर्ूले की नहींइनके माथे के पसीने पर पड़तीदोपहर की धूप की है। किसी ब्रांड की चमक से ऊपर श्रम की चमक को रखते हैं। वे बताते हैं कि एशियन पेंट लगाने से जो चमक दिखार्इ देती है वह तब तक नहीं होती जब तक श्रम का पसीने का रंग उसमें नहीं मिलता। बाजार की जो चमक-दमक है उसके पीछे भी श्रम की ही ताकत है- हमारी रोजमर्रा की दृश्यावलियों कोखूबसूरत बनाया है इनके रंगों ने। कवि जानता है पृथ्वी की सीलन यदि किसी से कम होती है तो इन्हीं श्रमजीवियों से-इन हाथों के पास हैंतमाम सीलन को पोंछने हरने का हुनर। खुरदुरे हाथ ही चमकीली और पत्थर-जिस्म ही कोमल दुनिया का निर्माण करते हैं।दुनिया को सीलन मुक्त करते हैं।  श्रम करने वालों के प्रति ऐसी अगाथ श्रद्धा इधर के बहुत कम युवा कवियों में दिखार्इ देती है। शारीरिक श्रम को कला का दर्जा वही कवि दे सकता है जो जीवन में उसकी अहमियत को समझता है। नागरबोध के मध्यवर्गीय कवि इतनी गहरार्इ तक नहीं उतर सकते हैं। रंजन कदमों की ताकत को स्थापित करने वाले कवि हैं-पगडंडियाँ गवाह हैंकुदालियों ,गैंतियोंखुदार्इ मशीनों ने नहींकदमों ने ही बनाए हैंरास्ते। यह बहुत बड़ा सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है। भले कितनी ही मशीनें बना ली जाएं पर आदमी की अहमियत समाप्त नहीं होगी।
 आत्मरंजन की छोटी कविताएं अधिक मारक और बेधक हैं। सीधे मर्म पर चोट करती हैं। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने समय की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। वह एक सुर्इ सी चुभा देते हैं जो देर तक अपनी चुभन का अहसास कराती रहती है। हादसे ,तमीज , देवदोष , रास्ते ,शकितपूजा,घर से दूर , आधुनिक घर आदि इसी तरह की कविताएं हैं। इन कविताओं में वे अपने समय और समाज की छोटी-छोटी सच्चाइयों को सूक्ष्मता से रेखांकित करते हैं। अंधविश्वासों-रूढि़यों पर तीखा व्यंग्य करते है। हर छोटी-बड़ी बात पर उनकी सूक्ष्म दृषिट रहती है। यह यथार्थ है कि हम अपनी लकीर को बड़ा करने के लिए दूसरे की लकीर को मिटाने के प्रयास में लगे हैं- लगातार-लगातारतलाश रहे हैं हमदूसरों की कमियाँकि हो सकेंताकतवर। हमारी राजनीति इसकी सबसे अधिक शिकार है।  आधुनिक घर कविता के माध्यम से कवि आधुनिक सभ्यता में सिकुड़ती संवेदना पर करारा व्यंग्य करता है-आधुनिक घरों के पास नहीं हैं छज्जेकि लावारिस कोर्इ फुटपाथी बच्चाबचा सके अपना भीगता सर नहीं बची है इतनी जगहकि कोर्इ गौरैया जोड़ सके तिनकेसहेज परों की आँचबसा सके अपना घर संसार। वास्तव में नहीं बची है इतनी भर जगह जिसमें किसी गरीब-बंचित-उपेक्षित के लिए कोर्इ स्थान हो। यह संकट बाहर की अपेक्षा भीतरी-जगह का अधिक है। दुनिया छोटी होती जा रही हैंं जिसमें मानवीय मूल्यों और भावनाओं के लिए स्थान सिकुड़ता जा रहा है। यह कविता उन लोगों की आँख खोलती है जो यह कहते नहीं थकते हैं कि समाज में यदि किसी भी वर्ग के हिस्से समृद्धि आती है तो उसका लाभ अंतत: समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यकित तक पहुँचता है। जबकि वास्तविकता यह है कि एक वर्ग विशेष की सम्पन्नता दूसरे वर्ग के सिर की छत भी छीन लेती है।
    आत्मारंजन पेशे से शिक्षक हैं। ऐसे में भला बच्चे उनकी दृषिट से ओझल कैसे रह सकते हैं। प्रस्तुत संग्रह में बच्चों को लेकर कुछ बहुत सुंदर और प्यारी कविताएं हैं। बच्चों की सहजवृतित और बाल लीलाएं यहाँ बेहतरीन ढंग से चित्रित हुर्इ हैं। उन्हें बच्चों की जरूरत का पता भी है और उनके बचपन छिनने की चिंता भी। वे मानते हैं कि अभिभावकों की महत्वाकांक्षाएं बच्चों पर बहुत बड़ा बोझ हैंं। हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनका लाडला पढ़ने-लिखने में सबसे अब्बल रहे। हर विषय में अच्छे अंक लाए और रहे टाप। खेलकूद में समय बरबाद ना करे। इस बोझ तले बच्चों का बचपन कैसे रौंदा जा रहा है ? उसकी रचनात्मकता को कैसे सुखाया जा रहा है? कैसे उसकी कल्पनाशीलता के पंख कतरे जा रहे हंैं? इसे आत्मारंजन बहुत अच्छी तरह व्यक्त करते हैं। कैसी बिडंबना है कि  आज का अभिभावक अपने बच्चे से तो बहुत कुछ चाहता है पर नर्इ सदी में टहलते हुए इसके पास उसके लिए समय नहीं है। वह अपनी ही दुनिया में  मग्न है। यहाँ तक कि घुमाने ले गए बच्चे से बात करने का भी उसके पास समय नहीं है चिपकाए हुए है कान में मोबाइल। बच्चों को लेकर कवि की चिंता जायज है-यह खुशी की नहीं ,ंिचंता की बात है दोस्तकि उम्र से पहले बड़े हो रहे हैं बच्चे। यह हर संवेदनशील व्यकित की चिंता है। ऐसे में कुछ तसल्ली देता है बच्चों का मौसम,विष ,तनाव और चिंता को धता बताकर खेलना- खेलते हैं बच्चेतब भीजब खेलने लायक नहीं होता है मौसम.....जब दुरस्त नहीं होता शरीर का तापमान.....तब भी जब वक्त नहीं होता खेलने का.....तब भी जब सर पर होती हैं परीक्षाएं (खेलते हैं बच्चे-एक) बच्चों का इस तरह खेलना कहीं ना कहीं बचपन को छीनने की साजिश का प्रतिकार है। लाख कोशिश कर ले जमाना बच्चों से उनका खेलना नहीं छीन सकता है। इस कविता में कवि साफ-साफ बच्चों के पक्ष में खड़ा दिखार्इ देता है विशेषरूप से उन बच्चों के ,जिनसे उनका बचपन भी खुद आँख मिचौली खेलता है- खेलते हैं बच्चेवे भी ,जिनके पास नहीं होते खिलौने....बड़ों की दुनिया का खुरदरापनअंकित है जिनकी नन्हीं हथेलियों में। बचपन के पक्ष में खड़ा कवि ही यह कह सकता है-वे लगते हैं बहुत अच्छेजब उनके बच्चा होने के खिलाफबड़ों की तमाम साजिशों कीखिल्ली उड़ाते हुएखेलते हुए बच्चे! आत्मारंजन इन कविताओं में न केवल बच्चों का पक्ष लेते हैं बलिक बलिक बच्चों की मासूमियत , खरेपन ,निष्कलुषता और निर्दोषता को रेखांकित कर बड़ों की हृदयहीनता और खुरदुरेपन पर भी गहरी चोट करते हैं-जैसे होते हैं बच्चेबड़े कहाँ होते हैं वैसे। बिल्कुल सही कहते हैं- दरअसल हमारा बड़ा हो जाना बच्चा होने के खिलाफएक समझौता हैबाहर बढ़तेंअंदर बौना होते जाने कोदृढ़ता से अनदेखा करजो जितनी कुशलता से इसे ढोता हैदुनिया में उतना ही सफल होता है। ये पंकितयाँ  बच्चों की निर्मलता और खरेपन को ही नहीं बताती बलिक बड़ों की दुनिया से खत्म होते मानवीय मूल्यों की गाथा को भी कहती हैं। कवि इस दुनिया की सुंदरता के लिए हम सब से बच्चों सी निर्मलता एवं निष्कपटता की कामना करता है। कवि  आडंबरी दुनिया से प्रश्न करता है यदि बच्चे भगवान के रूप होते हैं तो फिर बदहाल क्यों हैं? कवि की चाहत है कि- बहुत जरूरी है कि कुछ ऐसा करेंकि बना रहे यहअंगुलियों का स्नेहिल स्पर्शऔर जड़ होती सदी परयह नन्हीं सिनग्ध पकड़कि इतनी ही नर्म उष्मबची रहे यह पृथ्वी। कवि बच्चों की जरूरत को कितनी शिददत से महसूस करता है इसका पता इन पंकितयों से चलता है- उनके खेलने के लिए स्कूल प्रांगण तो क्याछोटी पड़ती हैपूरी की पूरी पृथ्वी । बाल हृदय की गहराइयों को जानने वाला कवि ही ऐसा कह सकता है।
 जो नहीं है खेल कविता खेलों में घुस आए छल-छदम का प्रतिरोध और खेल भावना को बचाने की अपील करती है। यह सच है आज खेल, खेल न रहकर युद्ध में तब्दील हो गए हैं। यह दुखद है। वास्तव में जो नहीं है खेल वहीं बचे हैं खेल। कवि कि्रकेट ,हाकी ,फुटबाल ,टेनिस जैसे लोकप्रिय खेलों के बरक्स गली-मुहल्लों में खेले जाने वाले गिल्ली-डंडा ,पिटठू ,लुका-छुपी ,चोर-सिपाही जैसे खेलों को रखकर कहता है-ओलमिपयाड ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों कीकिसी भी किताब में नहीं है इनका जिक्रखेल वालों के लिए नहीं है येकिसी भी श्रेणी के खेल। यह कविता सोचने को प्रेरित करती है कि आखिर क्यों गल्ली-मुहल्लों के ये खेल जो सदियों से खेले जा रहे हैं खेल की श्रेणी में शामिल नहीं हो पाए? इस तरह खेलों के साथ जुड़ी राजनीति और बाजार के गणित की ओर यह कविता पाठकों का ध्यान खींचती हैं। यह कविता बताती है कि हम जिन्हें खालिस खेल समझते हैं दरअसल वे मात्र खेल नहीं हैं उनके पीछे बहुत कुछ ढका-छुपा है। इस बाजार समय में खेलों को निर्दोष तरीके से नहीं देखा जा सकता है। जब चमक विज्ञापन और व्याख्या परलगार्इ जा रहीसारी की सारी ऊर्जा और मेधा खेल भला उससे कैसे बच सकते हैं। गनीमत है कि बाजार की चमक की चकाचौंध जिन स्थानों तक अभी नहीं पहँुच पायी है वहीं बचे हैं विशु़द्ध खेल जिनका उददेश्य पूरी तरह मनोरंजन की प्रापित है। वहीं बचपन भी बचा है और स्वाभाविकता भी। अन्यथा तो चारों ओर स्मार्ट लोग ही दिखार्इ देते हैं जो अपनी ही दुनिया में खोए हुए हैं जिन्हें धूल और पसीने से गहरी एलर्जी है। जिन्हें बड़ी साजिशों की कोर्इ खबर नहीं है । उन पर कृत्रिम रूप-रंग-गंध का जादू छाया हुआ है । यह जादू चलाने में ओलमिपक ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों की खास भूमिका है। इन स्मार्ट लोगों की दुनिया में-कहीं दबता जा रहा है घरकिताबें नहीं नजर आती हैं कहीं भी , न लाइब्रेरी। इस तरह आत्मारंजन अपनी कविताओं में अपने समय को दर्ज करने की सफल कोशिश करते हैं। कवि की कसौटी मानी जाती है कि वह अपने समय और समाज की गति को पकड़ने में कितना सफल रहा है। इस दृषिट से इस संग्रह की कविताएं हमें संतुष्ट करती हैंं। बाजार समय को कवि पूरी कुशलता से पकड़ता एवं चित्रित करता है। अपने समय की गहरी पहचान इन कविताओं में दिखार्इ देती है। इन कुछ पंकितयों में ही बाजार-समय का चेहरा झलक उठता है-सब कुछ आकर्षक-मोहकनयनाभिरामकैसी मोहक रसीली जुबानसत्कार भरे संबोधन......कहीं भी हो सकता है वह मोहक छलियाबाजार से लेकर घर तक......हमारे समय का सबसे बड़ा जादूगर है वह......किसी भी रूप में हो सकता हैवह बहुरूपियाहमारे आचार-व्यवहार में घुसता........जहाँ लटका है तराजूतोल में ठगे जाने कीसबसे अधिक संभावना भी रहती है वहीं। ......विश्वास बहेलिए की आड़ की तरह किया जा रहा हो इस्तेमाल।........रिश्तों की भीड़ का एकाकीपन.....चुपिपयों का चीत्कार। लेकिन  एक प्रतिबद्ध कवि की खासियत होती है कि समय चाहे कितना ही बुरा और कठिन हो वह निराश-हताश नहीं होता है। वह अपनी कविताओं में एक खूबसूरत दुनिया की सृषिट करना नहीं छोड़ता। मनुष्य को उसकी ताकत का अहसास करता है। आत्मरंजन भी यही काम करते हैं। एक ओर जब बाजार अपनी चमक-दमक से हर कम चमकीली चीज को हाशिए में धकेल रहा है वे हाशिए में उपेक्षित पड़ी चीजों को कविता के केंद्र में लाकर सबका ध्यान आकृष्ट कर रहे हंै और अहसास करा रहे हंै कि उनके बिना आधी-अधूरी और हवार्इ है यह दुनिया। खास के समानांतर आम को खड़ा कर एक नर्इ दुनिया की सृषिट कर रहे हंै। उनके लिए पुराना डिब्बा भी बेकार नहीं होता है रोप दिया जाय उसमें एक फूल का पौंधा फिर जी उठता है पुराना वह। वे र्इश्वर को मानव का रचा बता कर मानव की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं और कहते हैं-तुम्हारी ऊँगली थामे ही तय होता हैघने से घने अंधेरे काअथाह सफर। वे अपील करते हैं-उदास मत हो मेरे दोस्तबहेलियों की कुटिल कालिमा के खिलाफ यूँ ही झिलमिलाते रहो यूँ ही टिमटिमाते कि बची रहे बनी रहेबहती रहे यह सृषिट अविरत अविरल।     
     कुल मिलाकर समीक्ष्य संग्रह की कविताएं जीवन के लिए संघर्ष करती सांसों और राहत की भीख माँगती कातर आँखों में जीवन रस की मिठास घोलती और उम्मीद की किरण जगाती हैं। जीवन की आपाधापी में खोती कोमल संवेदनाओं को बचाने और श्रम के गौरव को स्थापित करने की कोशिश करती हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि कवि  की दृषिट में सबसे जरूरी है मानवीय होना। कोर्इ कितना ही बड़ा हो यदि मानवीय नहीं है तो उसकी कोर्इ अहमियत नहीं है। कवि की यह दृषिट लोकधर्मी कविता के भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती है। 

पगडंडियाँ गवाह हैं( कविता संग्रह% आत्मरंजन
प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन सी- यू जी एफ-  शालीमार गार्डन एक्सटेंशन- गाजियाबाद-201005
मूल्य- दो सौ रुपए।

Tuesday, October 4, 2011

पहाड़ की जख्मी देह पर नर्म हरे फाहे



  महेश चंद्र पुनेठा 
                                                                                          
 युवा कवि सुरे्श सेन नि्शांत के कविता संग्रह " वे जो लकड़हारे नहीं हैं' को पढ़ते हुए मुझे लोकधर्मी  कवि केशव तिवारी की " मेरा गॉव' कविता की ये पंक्तियॉ बार-बार याद आती रही - मेरा गॉव मेरी वल्दियत / जिसके बिना ला पहचान हो जाऊंगा मैं /मित्र कहते हैं /पॉच सितारा होटल में भी / झलक जाता है मेरा देशीपन / मुझे लगता है झलकना नहीं/ साफ दिखना चाहिए / जब मैं धनहे खेत से आ रहा हूं /तो मुझे दूर से ही गमकना चाहिए। कवि की  जिस पहचान तथा दूर से गमकने की बात केशव तिवारी अपनी इन पंक्तियों में करते हैं वो सुरे्श सेन नि्शांत की कविताओं में साफ-साफ दिखाई देती हैं।  नि्शांत की कविताओं का कथ्य हो या भाषा उससे गुजरते ही उनका पहाड़ीपन गमकने लगता है । उनकी कविता पहाड़ की पूरी पहचान के साथ हमारे सामने आती है। पहाड़ का रूप-रंग -रस-गंध उनके इंद्रियबोध में उतर आता है। अपनी धरती और अपने लोग उनमें बोलने लगते हैं। एक आम पहाड़ी के दु:ख-दाह ,ताप-त्रास व मुसीबतें-मजबूरियॉ  उनकी कविता की अंतर्वस्तु बनती हैं। पहाड़ की प्रकृति और पहाड़ का समाज जीवंत हो उठता है।वहॉ के लोगों की निर्दोष आस्थाएं और मासूम विश्वास कविता में स्थान पाते हैं। देखिए ये पंक्तियॉ- चुपचाप गुजरो / इस वृक्ष के पास से / प्रार्थना में रत है यहॉ एक औरत / उसे विश्वास है / इस वृक्ष में बसते हैं देवता/और वे सुन रहे हैं उसकी आवाज । पहाड़ की हरी-भरी देह भी और पहाड़ की जख्मी देह भी इन कविताओं में देखी जा सकती है। सुरेश की कविता उन पथरीले पहाड़ो की कविता है जहॉ उगती है ढेर सारी मुसीबतें -ही -मुसीबतें/ जहॉ दीमक लगे जर्जर पुलों को / ईश्वर के सहारे लॉघना पड़ता है हर रोज / जहॉ जरा-सा बीमार होने का मतलब है / जिंदगी के दरवाजे पर / मौत की दस्तक ।

Saturday, August 13, 2011

सतह के नीचे' की हलचल

   - महेश चंद्र पुनेठा   09411707470
  कविता आसपास के जीवन की जिंदा रची तस्वीर है। जीवन में भावों की यथासिथति को जो तोड़े वह जीवंत कविता है। कविता एक जीवन-साधना है। निरंतर साधना से ही कवित्व अर्जित किया जा सकता है।कवि का परिवेश और उसका अध्यवसाय उसके कवि व्यकितत्व का विकास करता है। इसे पूरी तन्मयता और सावधानी से करना होता है। इसके लिए किसान-सा धैर्य और विश्वास जरूरी होता है। यह बात सही है जिस प्रकार अपने परिवेश और मिटटी को समझे बिना सफल खेती नहीं हो सकती उसी प्रकार अपनी परपंरा के जीवन तत्वों की पहचान , अपनी धरती ,अपने लोग , अपने परिवेश व जातीयता से जुड़ाव और अपने युग के अंतर्विरोधों को समझे बिना एक बड़ी रचना संभव नहीं है।.एक बड़ा कवि अपनी काव्य संवेदना में  जीवन,प्रकृति और विशाल संसार की समग्रता तथा प्रचुरता को आत्मसात करते हुए अपनी ऐतिहासिक परिसिथतियों के साथ जातीयता  तथा परंपरा का गहरा बोध व उसे विकसित करने की इच्छा रखता है। उसमें  भाषा को विकास के छोर तक ले जाने की बेचैनी और विश्वदृषिट तथा संकल्प की दृढ़ता होती है।यथार्थ को गहरार्इ तक पकड़ने के लिए सामान्य जन की भाषा को अपनाना होता है।  भाषा कि्रयाशील मनुष्य से सीखनी पड़ती है। उसकी संगत करनी पड़ती है। उसे बोलते व व्यवहार करते हुए देखना होता है। इस साधना के लिए पूरा जीवन समर्पित करना पड़ता है। कवि को त्रिआयामी संघर्ष करना होता है -पहला , वर्ग चेतन समाज में अपने वर्ग शत्रु से। दूसरा, समाज में व्याप्त विसंगतियों ,विडंबनाओं और तीखे अंतर्विरोधों से । तीसरा , अपने अंदर के अंतर्विरोधों से । पाँचों इंदि्रयों से अनुभव  ग्रहण करने पड़ते हैं जिसके लिए उसके भीतर एक भूख  होनी चाहिए। एक कवि को यह सब करना पड़ता है। अगर वह अपने समय की नब्ज को समझना चाहता है तो इंदि्रयों को खुला और चौकन्ना छोड़े । चेतना को सदा बुद्धि संगत बनाए । संवेदना का सदा पुनर्गठन करे । अनुभवों का बड़ा संसार ही रच लेना काफी नहीं है -बलिक हर अनुभव को एहसास बना के उसके कण को फोड़ पाना यह भी कवि को करना होता है।बहुत दमदार एहसास पाने को आदमी के करीब आना जरूरी है। ऐसा आदमी जो कि्रयाशील है। कवि को हर समय बड़े अनुशासन में जीना पड़ता है। जीना चाहिए। जीवन में और रचना कर्म करते समय। सृजन कर्म न तो बंधन समझ कर न थोपी हुर्इ शर्त समझ कर करना चाहिए।
  कवि जो कुछ भी मनुष्य जाति को देता है वह पूरी तरह बोधगम्य हो। रमणीय भी हो। वह हमारी इंदि्रयों को असर दे सके। वह हमें उददीप्त कर सके। वह प्रतिफल प्रीतिकर लगे। यह सब हमारे मन को उदवेलित करके भी हमें मन के संतुलन बनाए रखने में मदद करे। हम आतंरिक शांति का अनुभव करें। एक बार को लगे कि हम अपनी सीमाओं से ऊपर उठ रहे हैं। यानी हम ने मनुष्यता की उच्चभाव भूमि पा ली है। हमारी चेतना को उन्नत और विकसित करे। कवि को चाहिए वह अपनी संवेदना को सघनतर बनाकर उसका पुनर्गठन करे। तभी वस्तुगत सिथतियों का यथार्थपरक चित्रण हो पाएगा। एक कवि को पहले अयस्क उत्खनित करना पड़ता है । फिर जीवन की धधकती भटटी में उसे तपाना पड़ता है। यह प्रकि्रया खनिज को पकाने से भी ज्यादा लंबी और कठिन है। कष्टदायक भी। कवि को मनुष्य रूप में भी बहुत कुछ खो देना पड़ता है। यह ऐसा तप है जिसकी कोर्इ समय सीमा नहीं है। कवि का सारा खनिजदल प्रत्यक्ष ज्ञान से ही अर्जित नहीं होता । उस ज्ञान का तीन-चौथार्इ ज्ञान उसे परोक्ष अनुभव से भी अर्जित होता हर्ै यानी सुनकर ,पढ़कर ,जानकर ,समझ कर। अपने इतिहास और अपनी प्राचीन संस्कृति से। उस ज्ञान के बिना प्रत्यक्ष ज्ञान अधूरा और अधकचरा है। कवि को अपनी इंदि्रया सजग रखने -बहुत ही सहज ,सकि्रय तथा निसर्गोन्मुखी जीवन जीना ही बेहतर है।  
     कविता और कवि कर्म के संदर्भ में उक्त बातें कविवर विजेंद्र की सध प्रकाशित डायरी  सतह से नीचे ' को पढ़ने के बाद सार रूप में निकलती हैं। ये बातें केवल किसी उपदेश या दर्शन के रूप में नहीं कही गर्इ हैं बलिक विजेंद्र जी ने स्वयं अपने जीवन में इन्हें पोषित किया है। अपने कवि को बचाए रखने के लिए वे खुद से और समाज से निरंतर संघर्ष करते रहे हैं जो आज भी जारी है। उनकी डायरी के पन्नों में इस बात को देखा-समझा जा सकता है। यहाँ कविता ,कवि कर्म ,सौंदर्यशास्त्र ,काव्य भाषा , कवि की तैयारी तथा उसके सामाजिक दायित्व आदि के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। कवि के रूझान ,रूचियों ,चिंताओं और आस्वाद का पता चलता है। उनका व्यकितत्व सामने आता है। कवि की प्रतिबद्धता एवं सरोकारों का पता चलता है। भाषा को लेकर डायरी में बहुत सारी बातें कही गर्इ हैं। यहाँ भाषा के संकट , भाषा के गठन , भाषा के सीखने ,काव्य भाषा की ताकत को लेकर महत्वपूर्ण बातें आर्इ हैं। उनकी निगाह में भाषा मनुष्य जाति की सबसे अच्छी और सबसे ऊँची रचनात्मक उपलबिध है। यह हमारे सांस्कृतिक उन्नयन में सदा सहायक है। लेकिन हम अपनी भाषा से कितना प्यार करते हैं-यह कहने से नहीं वरन उसे रचने ,समृद्ध करने से -बलिक उसे हर वक्त जीवन देने से व्यक्त करना चाहिए । भाषा का उपयोग हम सिर्फ परस्पर संवाद को ही नहीं करते बलिक उससे हम यथासिथति की जड़ता भी तोड़ते हैं। लेकिन यह जड़ता हम निर्जीव भाषा से नहीं तोड़ सकते। इसके लिए बहुत जीवंत ,वेगवान और रचनाशील भाषा चाहिए । ऐसी भाषा संघर्ष धर्मिता से आती है। .....श्रमिक ,खेतीहर ,मजदूर ,छोटे किसान , कारीगर ,मिस्त्री ,लुहार ,बुनकर ,बढ़र्इ मोची ,पत्थर तोड़ा और रात-दिन शहर की सफार्इ में लगे इंसान ही इसके रचियता है। .....श्रमवान लोगों की भाषा में तेज और तप दोनों घुले-मिले रहते हैं।
 भाषा पर अपने विचार व्यक्त करते हुए वे आगे कहते हैं कि इस तरह के कवि भी होते हैं जो जनता के हितों को झुठलाने के लिए दिग्भ्रम फैलाते रहते हैं । वह यथार्थ को एक चमकदार भाषा और शब्दों के खेल से ढक देते हैं। उसे विकृत करते हैं। ......भाषा का इस्तेमाल कवि वैसे ही करता है जैसे किसान अपने बीजों को उर्वर धरती में बोकर इंतजार करता है। दरअसल सबसे कठिन काम है आम आदमी की भाषा में जीवन के औदात्य और उसकी संशिलष्टता को बड़ी सहजता से कविता में रच पाना। .....जो लेखक -वे चाहे किसी भाषा के हों जीवन और प्रकृति से दूर रहते हैं -वे एक अनुदित भाषा लिखने के अभ्यासी बन जाते हैं। भाषा के प्रति विजेंद्र जी का यह दृषिटकोण सबसे अलग और विशिष्ट है। यह व्यावहारिक ,वैज्ञानिक एवं जनपक्षीय दृषिटकोण है।साथ ही कवि को लोक से जोड़ने वाला है। इससे रचना में ताजगी और जीवंतता का संचार होता है।  वे अपनी कविताओं में जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वह उनके द्वारा लोक के संपर्क से खुद अर्जित भाषा है ,जिसमें उनकी अपनी लय और भंगिमा है। जो भाषा के प्रति उनके इस दृषिटकोण को प्रमाणिक साबित करती है। 
   डायरी, किसी कवि की रचना प्रकि्रया को जानने का सबसे उपयुक्त माध्यम है । कोर्इ रचना जो पाठक तक पहुचती है वह उससे पहले किन-किन पड़ावों से होकर गुजरती है ?इसका पता चलता है। वस्तु के अंतर्वस्तु बनने की पूरी प्रकि्रया की जानकारी मिलती है। मुकितबोध कला के जिन तीन क्षणों की बात करते हैं उन तीन क्षणों का पता चलता है। रचना से कम रोचक नहीं होती है उसकी रचना प्रकि्रया और उससे गुजरना । इससे रचना की तैयारी ,उसकी पूर्व पीठिका ,रचनाकार की बेचैनी और उसके आत्मसंघर्ष का पता चलता है। एक रचना को पूरी तरह समझने के लिए यह जरूरी भी है। कविता की रचना-प्रकि्रया ही नहीं कवि बनने की प्रकि्रया का भी पता चलता है। कवि संवेदना के रचे जाने के  स्तरों का भी पता चलता है। प्रस्तुत कृति कवि विजेंद्र के संदर्भ में इन सारी बातों को जानने का अवसर प्रदान करती है। पाठक को पता चलता है कि  विेजेंद्र जी ने निरंतर साधना से अपने कवित्व को अर्जित किया है। वे हमारे समय के विलक्षण चिंतक हैं । तथ्यों की गहरार्इ में जाकर अपने पूरे तर्कों के साथ उन्हें विश्लेषित करते हैं। जीवन के प्रति रागात्मकता के साथ-साथ विचार के प्रति सजगता एवं सतर्कता ने उनके कवि को जिंदा रखा है। माक्र्सवाद में उनकी आस्था आज भी दृढ़ बनी हुर्इ है। इस विचारधारा के प्रति वे कहीं भी सशंकित नहीं दिखते हैं।जबकि उनके तमाम साथी विचारधारा से दूर जा चुके हैं । कुछ यदि जुड़े भी हैं तो केवल नाममात्र के लिए।  माक्र्सवाद में गहरी आस्था के बावजूद  वे मानते हैं- केवल विचारधारा से चिपक कर -उसका ढोल पीटकर ही कुछ नहीं हो सकता । उसके लिए बेहतर आचरण ,उच्च सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजगता और सहज मानवीय गुण भी चाहिए । वामपंथी युवक -चाहे वे राजनीति में हों या साहित्य में -ज्यादातर आचरण से हमें अपनी तरफ आकर्षित नहीं करते । उन्होंने विरासत में बड़े जीवन मूल्यों को हासिल न कर शार्टकट तिकड़मों पर ज्यादा ध्यान दिया है। ......दरअसल कोर्इ भी विचारधारा जीवन के बड़े संकल्प का रचनामूलक अनुशासन है। दूसरे ,प्रतिबद्ध शब्द का अर्थ साहित्य में  बधना' नहीं वरन किसी दर्शन से संबद्ध होना है। उससे लगाव-जुड़ाव होना है। .....प्रतिबद्धता एक दिशा ही तो है। जहाँ दिशा नहीं वहाँ अराजकता होती है। या फिर हताशा।.....हम अनेक विचारों या विचारधाराओं में किसी एक को चुनते हैं। जो हम चुनते हैं जरूरी नहीं कि दूसरों को वह स्वीकार्य हो -तो फिर सच्ची विचारधारा कौनसी है?इसके लिए वाद-विवाद जरूरी है। यह एक वैचारिक संघर्ष है जो बराबर चलता  रहना चाहिए जब तक हम किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष पर नहीं पहुचें। 
   प्रस्तुत कृति में यत्र-तत्र वैचारिक सूत्र फैले हैं जो पाठक को समृद्ध करते हैं। बीच-बीच में कविताएं भी हैं यह डायरी लेखन का विजेंद्र जी का अपना निराला अंदाज है। बीच-बीच में कविताओं का आना गध की एकरसता को भंग करने में  सफल रहा है वैसे डायरी इतनी रोचक है कि कहीं भी एकरसता का भान कम ही होता है। एक कथा सी रोचकता इसमें निहित है। हाँ ,इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि जिसने उनका समग्र साहित्य पढ़ा हो उसे यहाँ कुछ बातों का दुहराव लगेगा। मुझे लगता है यह दोहराव स्वाभाविक भी है क्योंकि विजेंद्र जी कविता ,कवि-कर्म तथा एक मनुष्य के लिए जिन बातों को जरूरी मानते हैं उन्हें वे बार-बार उलिलखित करते हैं। उनके प्रति उनका विशेष आग्रह रहता है। उनके लिए लेखन रचनाकार कहलाने मात्र का माध्यम नहीं है बलिक मनुष्यता को बचाए रखने का औजार है।
  विजेंद्र जी डायरी के गध को अपने लिए कविता का अनिवार्य 'वर्कशाप जैसा मानता है। एक तरह का रियाज। कविता रचे जाने के बाद जो बेचैनी बच जाती है उसकी रचनात्मक अभिव्यकित।  कवि को जो कुछ स्पंदित करता रहा वह सभी है इस डायरी में है ।
   इस कृति में  प्रकृति के विविध रंग विखरे हैंं। वे प्रकृति की बारीक से बारीक कि्रयाओं को भी अपनी कविताओं की तरह यहाँ भी दर्ज करते हैं । पाँचों इंदि्रयों से प्रकृति का रसास्वादन करते हैं।प्रकृति के रूप ,रंग ,गंध , स्वाद को कवि ने नजदीक से अनुभव कर व्यक्त किया है। राजस्थान के घना और भरतपुर अंचल की प्रकृति इस डायरी में भरपूर आयी है। फाग उमड़ने ,सूर्योदय जैसे दृश्यों का चित्रण बहुत सुदंर तरीके से हुआ है। वे डायरी में एक जगह लिखते भी हैं - मैं अपने यहाँ की धरती से गहरा परिचय कराने की गरज से यहाँ खड़ा हू। इस डायरी में आए प्रकृति के सूक्ष्म चित्रों और उसकी विस्तृत परिचय से समझा जा सकता है कि विजेंद्र जी को प्रकृति से कितनी रागात्मकता है। वह अपने आसपास की एक-एक वनस्पति , जीव-जंतु ,फूल-फल आदि की जैसी जानकारी रखते हैं वैसी जानकारी केवल किसान ही रख सकता है। कभी-कभी उनकी जानकारी चमत्कृत करती है कि एक कलम चलाने तक सीमित व जीवनभर अध्यापकी करने वाले व्यकित को इतनी गहरी जानकारी! किसी किसान से कम नहीं है यह । उनकी यह विशेषता नए और मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि वाले हम जैसे कवि-रचनाकारों को सीखने को प्रेरित करती है।  न केवल प्रकृति बलिक अपने आसपास श्रम करने वालों की गतिविधियों को भी वे बहुत बारीकी से चित्रित करते हैं। उनके आसपास के  अनेक चरित्र यहाँ आए हैं जिनका जीवंत चित्रण हुआ है। लगता है जैसे किसी कविता की पंकित पढ़ रहे हाें। उन्होंने ,अपनी आँखों से देखे हैं अपने आसपास के फूल ,पेड़ ,लताएं , घास ,मिटटी , लोगों की कि्रयाएं ,उनकी आकृतियाँ ,कीचड़-गडढे ,नहर , भरा हुआ पानी , फूलते कासों की लंबी-लंबी कतारें .....और छोटी सी लोहे की सिल्ली से बनती पतली सरिया । सूघी है यहा के फूलों की खुशबू ,मछुआरों के बदन से आती मछरियांद ' और किसान ,हलवाहों ,पत्थरतोड़ाओं और लावों के जिस्म से आती पसीने की  खटियाद'। गढि़या लुहार , खलासी , गैंगमैन , मिस्त्री ,मोची ,डाकिया जैसे अनेकों छोटे-मोटे श्रम करने वालाें को वे भूलते नहीं हैं। इनका केवल नामोल्लेख ही नहीं बलिक उनके जीवन की कि्रयाओं , भावनाओं ,संवेगों ,संघर्षों का भी वर्णन किया है। यह इस बात का प्रतीक है कि वे इन लोगों को कितनी सम्मान की नजर से देखते हैं तथा जीवन में उनके महत्व को कितनी शिददत से महसूस करते हैं। इससे पता चलता है कि विजेंद्र जी अपने जन और जमीन से कितनी गहरार्इ से जुड़े हैं। यही अपेक्षा वे दूसरे कवियों से भी किया करते हैं । नए रचनाकारों को लिखे पत्रों में वे हमेशा उनको अपने जन और समाज को पहचानने की सीख देते रहते हैं। विजेंद्र जी अपने आसपास को जानने के लिए सचेत रूप से प्रयास करते हैं। कविता की तरह रूपक और बिंबों का प्रयोग यहाँ दिखार्इ देता है। वैचारिक सूत्र हर जगह हैं। इस डायरी से विजेंद्र की कवि विजेंद्र में बदलने की पूरी प्रकि्रया का पता चलता है। पता चलता है उन्होंने इसके लिए कितनी सचेत तैयारी की है।
   विजेंद्र जी , मजदूर-किसानों के सामने अपने काम को छोटा मानते हैं । उनके काम को अधिक मान देते हैं। हमेशा उनसे सीखने का प्रयास करते हैं। किसान के भीतर एक विश्वास तथा धैर्य होता है तूफान , वर्षा ,आँधी ,सूखा ,बाढ़ ,शीत और अन्य व्याधियाँ सहते हुए भी खेती करना नहीं छोड़ता हैं । उनकी कविताओं में श्रम करने वालों के प्रति जो सम्मान और प्रेम हमें दिखार्इ देता है वह यहाँ और अधिक खुलकर सामने आता है। एक सच्चा कवि ही गरीबी ,भूख ,उत्पीड़न , शोषण को देख इतना संवेदनशील हो सकता है। अपने अभिजात्यपन को लेकर उनके मन में जो अपराधबोध है , वे मनोभाव भी इस डायरी में दर्ज हुए हैं। कवि की बेचैनी-तड़फ-अंतर्मन की पीड़ा डायरी में शुरू से अंत तक महसूस की जा सकती  है । यही है जिसने उन्हें एक बड़ा कवि बनाया है। उनकी पीड़ा-बेचैनी को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरल नहीं है एक कवि होना ।कवि के मन को समझने के लिए यह डायरी महत्वपूर्ण है।
   इसमें कवि की आत्मस्वीकृतियाँ भी हैं और पति-पत्नी के बीच का प्रेम भी । लगभग आधी सदी के वैवाहिक जीवन के बाद भी पति-पत्नी के बीच जो प्रेम यहाँ दिखार्इ देता है वह मनमोह लेने वाला है और दुर्लभ है।इस डायरी में विजेंद्र जी के केवल कवि रूप के ही नहीं बलिक एक पिता ,एक पति ,एक अध्यापक  रूप के दर्शन भी होते हैं। इन सारे दायित्वों को विजेंद्र पूरी र्इमानदारी से निभाते हैें। अत: एक रचनाकार के रूप में ही नहीं बलिक एक इंसान के रूप में भी उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।   
    कविवर विजेंद्र रूढि़यों को तोड़ने वाले कवि हैं । यहाँ भी विधा के रूप में उन्होंने यह रूढि़ तोड़ी है परम्परागत रूप में उनकी यह रचना डायरी नहीं लगती है। उनकी डायरी में नितांत निजी स्तर पर घटित घटनाओं और तत्संबंधी बौद्धिक-भावनात्मक प्रतिकि्रयाओं का लेखा-जोखा मात्र नहीं है। यह बोझिल रोजनामचा नहीं है। यह जीवन और जगत के प्रति अनुराग पैदा करने तथा जीवन में भावों की यथासिथति को तोड़ने वाली कृति है, जिसमें कविताएं भी हैं संस्मरण भी ,यात्रा वृतांत भी ,पत्र भी ,आलेख भी और टिप्पणिया भी। कुछ पृष्ठ  तो  साहित्य और समाज पर टिप्पणियों सा आस्वाद प्रदान करते हैं। कहीं-कहीं उन्होंने विभिन्न साहितियकों द्वारा उनके नाम लिखे गए पत्रों को भी शामिल किया है। उनकी डायरी में जीवन-सार जगह-जगह उदघाटित होता है। जीवन-वर्णन ही नहीं जीवन-निष्कर्ष भी हमको मिलते हैं जो पाठक को एक नया आलोक प्रदान करते हैं। जीवन-वर्णन के दौरान विजेंद्र जी कब अचानक बाहर से भीतर चले जाते हैं पता ही नहीं चलता है। उनकी भीतर-बाहर की यह यात्रा निरंतर चलती रहती है। इसके चलते कभी-कभी डायरी की क्रमबद्धता भी बाधित होती है।ऐसा ही कविता संबंधी बातों पर भी होता है। जीवन-प्रसंगों की बातें करते-करते अचानक कविता और कवि कर्म पर बातें शुरू हो जाती है।  प्रकृति के प्रतीकों से कविता की गहरी से गहरी बातों को समझा देते हैं। इससे लगता है कि उनके लिए कविता जीवन से और कवि-कर्म जीवन-कर्म से अलग नहीं हैं । दोनों एक-दूसरे में गुँथे हैं। इसलिए तो वे कवि को उसके व्यकित से अलग करके नहीं देख पाते ।
       डायरी में उन्होंने अपने दोस्तों से मुलाकात के विवरण भी दिए हैं । इस दृषिट से दिल्ली की डायरी' बहुत रोचक है। दिल्ली के तमाम रचनाकारों तथा साहित्य के माहौल के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। साहित्य के लोग एक दूसरे से कैसी र्इष्र्या और द्वेष रखते हैं इसका भी खुलासा होता  है। यह डायरी साहित्य की राजनीति का चिटठा खोलती है। इस रूप में विजेंद्र जी के पूरे कालखंड को जानने का अच्छा अवसर उपलब्ध कराती है। त्रिलोचन , शमशेर , विष्णु चंद्र शर्मा ,रामकुमार कृषक ,नामवर सिंह ,केदारनाथ सिंह ,भगवत रावत , जीवन सिंह ,रमाकांत शर्मा ,नरेश सक्सेना ,विश्वंभर नाथ उपाध्याय ,वाचस्पति मोहन श्रोत्रिय , नंद भारद्वाज , नंद चतुर्वेदी , अशोक वाजपेयी ,कर्ण सिंह चौहान ,मैनेजर पांडेय , रमेश उपाध्याय , अरूण कमल ,सुधीश पचौरी ,उदय प्रकाश , एकांत श्रीवास्तव सहित तामम आलोचकों और कवियों के बारे में लेखक की बेबाक राय पता चलती है। यहाँ उनकी बेवाक टिप्पणियाँ विशेष रूप से प्रभावित करती हैं।जिसके बारे में जो लगा उसे उन्होंने बिल्कुल साफ-साफ लिखा है। उसमें यह नहीं देखा कि वह उनके कितने करीब या दूर है। इस बात की परवाह नहीं कि कौन इस बात से खुश होगा और कौन नाराज। ऐसा साहस बहुत कम लोगों में दिखार्इ देता है। इसी साफगोर्इ के चलते वे आज अलग-थलग हैं। उनके इस स्वभाव ने उनके अनेक दुश्मन खड़े किए हैं। इस डायरी को पढ़े जाने के बाद बहुत सारे और  लोग उनसे नाराज हो जाएंगे। पर उन्हें इस बात की कोर्इ परवाह नहीं है । उन्हें तो केवल सच्चे लोग चाहिए। वे कहते हैं - जो जीवन और रचना को समर्पित हैं -सरल-सहज जन चाहे कितने ही सामान्य क्यों न हों -मैं उनके लिए नतमस्तक हू।  एक ऐसे दौर में जबकि साहितियक जगत में सहिष्णुता छीजती जा रही है। व्यकितगत आलोचना तो छोडि़ए रचना की सीमाओं की ओर संकेत मात्र भी किसी को सहन नहीं होता है। युवा से युवा रचनाकार तक अपनी आलोचना सुनने को तैयार न हों। थोड़ी सी बात पर भड़क उठते हों तब  विजेंद्र जी का इस तरह अपने समकालीनों को लेकर बेवाक और दो टूक राय व्यक्त करना साहित्य के प्रति विश्वास बढ़ाता है। उनकी यह डायरी उनके साहस  के लिए विशेष रूप से जानी जाएगी। यहाँ तक कि उन्होंने खुद को भी नहीं छोड़ा है। यह बहुत बड़ी बात है। बहुत कम होते हैं जो अपनी निर्मम आलोचना कर पाते हों।इसे एक कवि की र्इमानदारी ही कहा जा सकता है कि कवि इतनी निर्ममता से अपने आप को कटघरे में खड़ा कर देता हैै। अपनी स्वयं की आलोचना इस डायरी को एक अतिरिक्त गरिमा प्रदान करती है। युग समाज ,व्यकित तथा साहित्य के प्रति लेखक की गहरी प्रगतिशील निष्ठा और आकांक्षा को सूचित करती है।  इससे उनके लिखे की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। 
   यहाँ प्रकाशकों की बेर्इमानी और उनके साथ शिखरस्थ साहित्यकारों का गठजोड़ भी सामने आया है। बड़े-बड़े कहे जाने वाले प्रकाशक कितने कूढ़मगज और मूर्ख हैं पता चलता है- प्रकाशक की निगाह में एक अच्छा लेखक वह है जिसकी किताब एक मुश्त खरीदी जाए ,जो खरीद करवा सके ,वह उसे सबसे बड़ा लेखक .....उसका कूड़ा भी छापने को बड़े-बड़े प्रकाशक तैयार हो जाते हैं। विजेंद्र जी की यह बात बिल्कुल सही है। बड़े-बड़े प्रकाशनों की पुस्तक सूची उठाकर देख लीजिए उसमें आपको ऐसे-ऐसे नाम मिल जाएंगे जिनके बारे में एक लेखक के रूप में आपने कभी सुना भी नहीं होगा। उनकी पहचान एक लेखक की बजाय बड़े मंत्री या अधिकारी के रूप में अधिक होती है। साहित्य की जिस दुनिया को हम साफ-सुथरी दुनिया मानते आए हैं वहाँ भी कितनी गंदगी व्याप्त है इसमें देखा जा सकता है-  साहित्य के हालात से मन क्षुब्ध रहा। इधर बड़े-बड़े अफसरों ने साहित्य पर एकाधिकार जमाने के प्रयत्न किए हैं। धन की ताकत से वे अनेक लेखकों को पथभ्रष्ट कर रहे हैं।.....साहित्य अब कोर्इ पवित्र चीज नहीं रह गर्इ है। साहित्य में कामयाबी के लिए शार्टकट अपनाए जा रहे हैं। तिकड़में और जोड़-तोड़ हमारी आचार संहिता का हिस्सा बन गया है। नैतिक आचरण की बात पर लोग हसते हैं।.....साहित्य का हाल बुरा है । उस पर भी भ्रष्ट राजनीति और पूजीवाद की विकृतियाँ हावी है। ''   एक बात और यहाँ केवल कवि की रचना-प्रकि्रया ही नहीं बलिक किसी रचना के छपने की स्वीकृति तथा संपादक की सकारात्मक टिप्पणी से पैदा हुर्इ खुशी भी है। रचना का बनना , स्वीकृत होना ,छपना तथा पाठकों की प्रतिकि्रया पाना एक रचनाकार को कितना सुख प्रदान करती है ,इस भाव को यहाँ महसूस किया जा सकता है। यहाँ पता चलता है कि यह सुख केवल नए रचनाकार को ही नहीं बलिक वरिष्ठों को भी समान रूप से प्रफुलिलत करता है। सृजन का आनंद नि:संदेह अदभुत होता है। 
    यह कृति कविता और इंसान के रिश्तों को बताती ही नहीं बलिक मजबूत भी करती है तथा एक सच्चे इंसान की पहचान भी उजागर करती है।समाज में गिरते मूल्यों की चर्चा भी यहाँ मिलती है। कवि का संकल्प भी यहा व्यक्त हुआ है। यह कृति एक नए कवि के लिए जरूरी मार्गनिर्देशिका जैसी है । कुल मिलाकर इस डायरी में सीखने-समझने और अपने संवेदनात्मक ज्ञान के विवेक सम्मत पुनर्गठन के लिए बहुत कुछ है। ब्लर्ब में लिखी यह बात सही है , किसी भी रचनाकार या सामान्य पाठक को यह डायरी रूचिकर लगेगी। एक बार प्रारंभ करने के बाद शायद व इसे उपन्यास की तरह पढ़ना चाहेगा।''इसमें कोर्इ दो राय नहीं डायरी बाँधने वाली है। जैसा कि विजेंद्र जी स्वयं कहते हैं यह डायरी त्रिविध संवाद है। अपने से ,अपने समय से तथा अपने सुधी पाठकों से। इसमें कोर्इ संदेह नहीं ।  जहाँ तक डायरी के लिखने का कारण है उसके बारे में बताते हुए वे लिखते हैं, गध हमें जूझने का यकीन देता है। बिना जूझे न जीवन है और न कददावर रचना। डायरी उसी सिलसिले में शुरू की।बाद में वह मेरी कविता की पूरक .....एक बेहतरीन रुहानी  दोस्त ।'' कविवर विजेंद्र 1968 से अटूट रूप से डायरी लिख रहे हैं । अभी तक दो हजार से अधिक पृष्ठों में फैली उनकी डायरी में से कुछ पृष्ठ तीन पुस्तकों के रूप में आ चुकी हैं। पहली  कवि की अंतर्यात्रा  दूसरी ' धरती के अदृश्य दृश्य ' तथा तीसरी  सतह से नीचे'। आशा की जानी चाहिए कि आगे यह सिलसिला जारी रहेगा ।

सतह के नीचे ( डायरी) : विजेंद्र । प्रकाशक - वाड.मय प्रकाशन इ-776/7 लालकोठी योजना ,जयपुर-15
 मूल्य- तीन सौ रुपए