Showing posts with label युगवाणी. Show all posts
Showing posts with label युगवाणी. Show all posts

Wednesday, October 10, 2018

घटनाओं के समुच्चय में

हमें कोई गुमान नहीं कि हमने क्या लिखा आज तक। कोई संताप नहीं कि क्या पढ़वाने को मजबूर करती हैं आलोचना। पत्रिकाएं। यह भी हमने नहीं कहा कि सब वैसा ही लिखें जैसा हमें भाता है। पर हम लिखते हैं। लिखना हमारी मजबूरी है। न लिखें तो क्यां करें उन अला-बलाओं का जिनसे अकेले पार पाना संभव नहीं। लिखते हैं कि दूसरे भी पढ़ें । सोचें, और एक से अनेक हो उठे आवाज जालिमों के खिलाफ। हमारा लिखना तब तक एकालाप ही हो सकता है जब तक पढ़ने वाला (ले) उससे सहमत नहीं। यह किसी का वक्तव्य नहीं पर राजेश सकलानी की कहानी ‘जनरल वार्ड’ तो अपने पाठ से ऐसा ही ध्वनित करने लगती है। पारंपरिक पद्धति की कहानी आलोचना की रोशनी में ‘जनरल वार्ड’ को पढ़ा जाएगा तो कहा ही जा सकता है, यह तो कहानी नहीं, कुछ-कुछ कवितानुमा गद्य के रूप में लिखा गया एकालाप-सा है। कहानी में तो घटना होनी चाहिए, पर इसमें तो कुछ घटता ही नहीं। कथित रूप से घटना के न होने को झुठलाती इस कहानी की विशेषता है कि इसे कहानी मानने की जा रही जिदद पर ध्याकन देने वाली निगाह भी इसे हिंदी की कहानी मानने को तो संभवत: तैयार न हो, और उस दायरे में यह आरोप भी मड़ा जाने लगे कि यह तो किसी अन्य भाषा की अनुदित कहानी है, तो उस पर हैरत नहीं करनी चाहिए। क्यों कि शब्द विहीन संगीत की लयकारी के से शिल्प में लिखी गयी यह ऐसी रचना/कहानी है जो पाठक को उसके निजी अनुभवों के संसार में ले जाने मजबूर करते हुए अनेक कथाओं का समुच्चय उसके सामने रख देती है। खास तौर पर तब, जब पाठक कहानी को पूरा पढ़ लेने के बाद दुबारा उसके शीर्षक की ओर ध्यान देता है। लेकिन यहां इस कहानी को शिल्प की वजह से याद नहीं किया जा रहा। क्योंकि कहानी का वह जो शिल्प है] वह भी शिल्प जैसा दिखता कहां है। वह तो कथ्य की स्वाभाविकता में स्वयं उपस्थित हो जा रहा है। 

दिलचस्पप है कि इस कहानी को पढ़ने का सुयोग हिंदी कहानियों की स्थापित पत्रिकाओं की बजाय एक सीमित भूगोल के बीच दखलअंदाजी करती एक नामलूम सी पत्रिका ‘युगवाणी’ ने संभव बनाया है। हिंदी की विस्तृत दुनिया में भी इस बात का पता नहीं चल पाता है कि युगवाणी सरीखी पत्रिकाओं में क्या लिखा गया और क्या छपा। यह कहने में संकोच नहीं कि ऐसी अभिनव रचनाओं को लाने में ‘युगवाणी’ जैसी नामालूम सी पत्रिकाओं की भूमिका ही अग्रणी दिखाई देती रही है, क्योंंकि न तो उनके संपादक को इस बात का कोई गुमान रहता है कि वे कोई बहुत महत्वपूर्ण रचना छाप रहे हैं और न उसके लेखक ही ऐसे मुगालते के शिकार होते हैं। 

‘युगवाणी’ का अक्टूबर 2018 का अंक इस कहानी के साथ-साथ उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के इतिहास का पन्ना बनते शेखर पाठक के आलेख से भी महत्वपूर्ण और संजोये रखने वाला है। 
कहानी ‘युगवाणी’ से साभार यहां प्रस्तुत है। 

यदि पढ़ने का मन न हो तो कहानी को सुना भी जा सकता है। या पढ़ते पढ़ते सुनिये। https://www.youtube.com/watch?v=h2jQs-MAHHU&feature=youtu.be
वि.गौ.

जनरल वार्ड 

राजेश सकलानी

जब तक मैं हूँ मेरे सामान में वजन है। उसमें अलगअलग दिशाओं की ओर बिखरते ख़याल हैंअनगिनत संकेत हैं। लगभग कूट भाषा है। यह रहस्यमयी दुनिया नहीं है। बस दुनिया की करोड़ बातों में अनेक गुम्फित बातें हैं। ये हल्के धागों की तरह है। किसी को वे बेहद उलझी हुई और निरर्थक डोरें लग सकती हैं। मुझे तो ये बिल्कुल साफ़पवित्र और पारदर्शी लगती हैं। कुछ पदवाक्य और कहीं अधूरे वाक्य कागजों पर फैले हुए हैं। ये ही मेरा कुल सामान है। 

मेरे बाद यह कुल सामान एक छोटे से गट्ठर में बाँध दिया जायेगा। एकदम फेंका भी नहीं जायेगा। शायद किसी टांड पर फेंक दिया जाय या घर के गैर जरूरी सामानों के साथ अलमारी के किसी खाने में ठूस दिया जाय। जब भी किसी के हाथ जायेगा दिमाग ये उलझन पैदा करेगा। बारबार दुविधा होगी। इसे कहाँ फेंका जाय या जला दिया जाय। देखने की कोशिश में वक़्त खराब होगा।

इन्हें बाद में देखा ही नहीं जाय। यही मैं चाहूँगा क्योंकि इनका पाठ एक तरफ़ीय हो जायेगा। इनका जबावदेह हाजिर नहीं हो पायेगा। मैं यह दावा नहीं कर सकता कि ये खुद में एक जबाब है। ये अप्रकाशित हैं क्योंकि ये मुकम्मल नहीं हो पाये होंगे। यदि गलती से मुकम्मिल भी हो तो उन्हें मेरा आखिरी स्पर्श नहीं मिलेगा। शायद मैं कुछ तब्दील हो गया होऊँ। किसी भी सूरत में ये दुनिया के सन्दर्भ में अन्तिम पाठ नहीं होंगे। जितने अपमान मेरे ऊपर लादे गये वे सब झूठे थे यह बात अन्तिम है और कभी खत्म न होने वाले हमले अर्थहीन हैं। यह पक्का है। यह शहादत का कोई नमूना नहीं है। यह एक आम बात है। जो हमलों के शिकार होते हैं वे नजर भी नहीं आते। यह एक सच्चाई है जिसे बदलने की इच्छा रखने वाला मैं कोई अकेला और अनूठा सिपाही नहीं हूँ। कोई अख़बार मार खाये लोगों की पड़ताल नहीं करता। वे कहाँ चले जाते हैं और कैसे गुम हो जाते हैंइसका कोई ब्यौरा नहीं मिलता। वे बहुमत में है लेकिन उनकी तस्वीर और बयान साझा नहीं किये जाते। 

यह तय है कि ये लोग खूब जिन्दा रहते हैं। ये अनजाने में भी जिन्दा रहते हैं और जिन्दा रहने का मूल्य अदा करते हैं। यह बुनियादी अर्थवता की लौ बचाये रखने का पवित्र उघम है। ये लोग गेंहूँ’ की डाल में सुर्ख अन्न के दाने की तरह चमकदार होकर ही दम लेते हैं।

मैं अस्पताल के जनरल वार्ड के ठीक बीच में कहीं पड़ा हूँ। मैं कुछ देखता नहीं हूँ। मुझे शब्द और वाक्य साफ नहीं सुनाई देते हैं। बस कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ मष्तिष्क के आकाश में बजती हैं। शायद इनमें मेज खिसकाने की या चादर झाड़ने की आवाजें भी हैं। शायद नर्स ने वाइल के ऊपरी हिस्से का काँच खट से तोड़ दिया है। दवा इंजेक्शन में भरी जाने वाली है। कुछ व्यग्र और चिन्ताकुल खुसपुसाहटें हैं। मैं नहीं हूँ या शायद पूरा नहीं हूँ। मैं थोड़ा सा जिन्दा हूँ। मेरे हाथपाँवगर्दनछातीपेट जैसे कहीं दूर होंगे।

मैं होऊँ या नहीं होऊँ यह जैसे मेरे बस में छोड़ दिया गया है। यह तीखा सा दर्द पता नहीं कहाँ पर है। पहली बार में अपने जिस्म के भीतर को जान पा रहा हूँ। यही मैं हूँ जहाँ विस्फोटक दर्द उठ रहा है।

मुझे याद नहीं आ रहा है कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान। जोर लगा कर भी याद नहीं कर पा रहा हूँ कि वे कौन लोग थे जो भीड़ बना कर मुझ पर टूट पड़े थे। वे लाठियाँ थी जिन्हें सिर्फ हमला करना था। मैं सिर्फ एक जानवर था। मुझे अपने जिस्म पर कम प्यार नहीं है। मैं सारे लोगों के जिस्मों को भी प्यार करता हूँ। बचपन में मैंने लोगों को सुन्दर और असुन्दर लोगों में बाँट लिया था। मैं आकर्षक चेहरों की तलाश किया करता था। बाकी लोगों को अपने दिमाग से हटा लेता था। जल्दी ही मैंने अपनी गलती को जान लिया। हर चेहरा अपने में बेमिसाल है और उसकी अपनी एक अलग कहानी है। उसकी देह का एक राज्य है। उसके पास असंख्य भावनाएँ पल प्रतिपल गति करती हैंजो लोग इस गतिशीलता में थक जाते हैं वे शराब पी लेते हैं या नींद में जाने की कोशिश करते हैं।

मेरे हाथपाँवगर्दनसिरपेट क्या आखिरी तौर पर नष्ट कर दिये गये हैं। मेरी तमाम हड्डियाँ क्या चकना चूर हो गई हैंइस समय मैं सिर्फ तीखा दर्द हूँ और अजीब सी झनझनाहट में हूँ। हर अंग की जगह एक सच्ची अनुभूति ने ले ली है। कोई भी जना अपने भीतर के बारे में कुछ नहीं जानता है। इस वक्त मैं जानता हूँ।

मैंने अपने भीतर की पूरी यात्रा कर ली है। कभी मैं एक ओर बहता हूँकभी दूसरी ओर पानी की तरह चल पड़ता हूँ। मैं कुछ हवा और कुछ पानी की तरह मिलाजुला हूँ। बाहर लोग यही कहते होंगे कि ये मर गया है या मरने वाला है। वे घोषणा किये जाने की बेचैनी से प्रतीक्षा करते होंगे। मैं बताना चाहता हूँ कि मैं परेशान नहीं हूँ। यह पक्का है कि दुनिया में किसी को भी दूसरे के शरीर को गलत इरादे से छूने की इज़ाजत नहीं है। हर आदमी एक देवता की तरह पवित्र है और हर औरत का अपना राज्य है। आप उसमें दख़ल दे कर पाप नहीं कर सकते। वह राज्य हिन्दू या मुसलमान कतई नहीं है जैसे कि पहाड़समुद्रनदियाँखेतजंगलपशु आदि सभी स्वतंत्र होते हैं। वह समूह में भी स्वतंत्र किस्म की स्वायत्तता पाते हैं।

जिन्होंने मेरे साथ बुरा सुलूक कियामेरी भावनाओं को चीथड़ों की तरह बिखरा दियाउनको तो मैं भीतर ही भीतर बहुत चाहता था। उनको मैं आज भी रोकना चाहता हूँ। हमारे पास सबसे कीमती चीज समय है। ये घंटेदिनसप्ताहमहीने और साल बहुत बड़ी पूंजी हैं। इन्हें हमेशा किसी वस्तु को बनाने में ही खर्च करो। हम बढ़ई की तरह सुन्दर कुर्सियाँ और मेजें बना सकते हैं। हम कुम्हार की तरह लुभावने घटे और सुराहियाँ बना सकते हैं। इतने तरह के फल और अन्न के दाने उपजा सकते हैं। कुछ भी बनाने की प्रक्रिया में प्राण की लौ प्रज्ज्वलित रहती है।

अपने महान दर्द के जरिये शरीर के भीतरी अंगों की यात्रा के दौरान मुझे कुछ शान्त और सुकून भरी छोटीछोटी जगहों का पता चलता है। यह शायद रिसते खून से भीगी आँतों के पासशायद यकृत या हृदय के आसपास हो सकती हैं। लोग कितने मूर्ख बनाये जा रहे हैं। उनके दिमागों को कुछ शैतानों ने प्रदूषित कर दिया है। कुछ जहरीले रसायन बातोंबातों में भीतर डाल दिये गये हैं। वे अब भली और बुरी चीजों में ठीक में फ़र्क नहीं कर पा रहे हैं। हत्याओं के समर्थन में नारे लगाते हैं और मासूम लोगों की मौत पर खुशियों का इजहार करते हैं। कहते हैं ये हमारी किताबों में लिखा है। या तो वे किताबें वाहियात हैं या उनके वाहियात मायने बनाने की साजिश की जा रही है।

मेरा सोचना खत्म नहीं हुआ है। यह चकित करने वाली बात है। मैं सिर्फ एक थोड़ी सी बची हुई स्मृति हूँ। यह सारगर्भित स्मृति एक सूत्र की तरह जीबित रह गई है। यह हमेशा कहीं न कहीं गति करती रहेगी। 

मैं एक बूढ़ी के गीत की लयात्मकता में अपनी लहर के साथ आसानी में घुलमिल जाता हूँ। शायद वह बूढ़ी न हो। वह गीत अपने में एक पहाड़ हैएक जंगलएक गीत। वह गीत और गायिका और आसपास  की सारी चीजें एक साथ प्रकाशमान हो जाती हैं। एक ओर भीड़ का खौफनाक शोर है जो लाठी डंडों को लेकर मुझ पर टूट पड़े थे। वे बेतहाशा मुझ पर वार करते हैं। मैं बचने की भरसक कोशिश करता हूँ। तब तक दनादन मुझ पर चोटें जारी रहती हैं। अंत में मैं अपने हाथ पावों को बचाने की कोशिश छोड़ देता हूँ। हर पल एक कड़े और घातक प्रहार की प्रतीक्षा करता हूँ। एक तीखा दर्द उठेगा और सभी दर्दों का अंत हो जायेगा। मुझे बड़ा आश्चर्य है कि मैं भयभीत नहीं हूँ।

मेरे एक दोस्त कई दशकों से पहाड़ों में गाँवगाँव घूम रहे हैं। वे लोकगीतों का संग्रहण करते हैं। थोड़ीथोड़ी आबादियाँ और बहुत सारी प्रकृति उनकी जिन्दगी है। गुजर गये अनाम लोगों की पीड़ाओं और उल्लास को जंगलों से और नदियों से ढूंढ लाते हैं। बहुत सारे बीते अनुभव यहाँवहाँ दबे हुए हैं। वे ढूंढ लाने में कभी कामयाब हो जाते हैं। यह ढूंढना अपने आप में एक विराट अनुभव है। एक अनजान औरत का गायन उन्होंने अपने मोबाइल फोन में रिकॉर्ड कर लिया। वह औरत अब खो चुकी है। गायन का वह पल भी आसमान से गायब हो गया है। वह गीत अपनी करूण ध्वनि के साथ मेरे दोस्त की स्मृति में है और उसकी अनुकृति उस मोबाइल की स्मृति में है। गायिका की आवाज हमारी आदि कालीन माँ की आवाज है। उसमें पीड़ा और लगाव कंपकपाता है। ट्टहे रामाहे परभूचैत का महीना जिकुड़ी में लगता है। कुछ ऐसा बयान उनमें है। यह कितना सुघड़ और पूर्ण संगीत है। जंगल और दिल के सूनेपन को एक मीठी पीड़ा में रचता हुआ।

कुछ पलों के लिए मैं कहीं परम अति सुन्दर जगह में विचरने लग गया था। मेरी सच्चाई तो यह जनरल वार्ड है। यहाँ बेवजह हिंसा के मारे हुए लोग इकट्ठा हैं। यौन हिंसा की मारी बच्चियाँ और बच्चे हैं। तमाम औरतें हैं और आदमी है। उन्हें पता नहीं है कि उनके कोमल जिस्मों को क्यों इतनी पीड़ा दी गई है। उनके सभी अंगों को तोड़फोड़ दिया गया है। ये सभी बेहद नाराज़ हैं और किसी से बात नहीं करना चाहते क्योंकि इन्हें किसी पर भरोसा करने की इच्छा नहीं है। ये देश और जाति की सीमाओं को बिल्कुल नहीं मानते हैं। इन्होंने पृथ्वी से बहुत दूर जा कर ठीक से जान लिया है। इनके जनरल वार्ड के कोई पास भी नहीं फटक सकता। यह बेवजह मारे पीटे हुए लोगों का वार्ड है। पता नहीं क्यों खानेपीनेपहिननेपूजा करने या नहीं करने के कारण लोगों को मारा जा रहा है। हमारे शरीर को कैसे भी कोई छू सकता हैयहाँ देवता सरीखी दैदीप्यमान छोटी बच्चियाँ रोती रहती हैं।