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Wednesday, June 17, 2020

देह की मिटटी ठिठोली करती है




मंजूषा नेगी पांडे
जनम : 24 अगस्त
स्थान : कुल्लू , हिमाचल प्रदेश 
शिक्षा: हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय शिमला से राजनितिक शास्त्र में M .A 


मंजूषा नेगी पांडे की कविताओं में जीवन उस आंतरिक लय की तरह आता है जिसकी गूंज शब्दों से परे रहती है। फेसबुक की इस दुनिया में किसी दिन अचानक ही मंजूषा की ऐसी ही एक कविता से साक्षात्कार होता है। मात्र वही परिचय है मेरे लिए मंजूषा का। हालांकि जानने पर यह भी पता चलता है वे सतत कविताएं लिखती हैं। पत्र पत्रिकाओं में जिनके प्रकाशन का सिलसिला है। उनकी कविताएं संयुक्त काव्य संग्रह भी प्रकाशित है। यहां प्रस्तुत हैं मंजूषा नेगी पांडे की कुछ कविताएं।


विगौ 


नीली तहजीब

खुला आकाश
नीला परचम

जैसे उन्मुक्त स्वतंत्र
हो रहा सब निरंतर
यही अंतर

देह की मिटटी ठिठोली करती
बोली हरती
रचती नया अध्याय
जीवन के विपरीत

ये मन है उसका
शैशव की जड़ों में
यौवन का बीज

इस क्षणभंगुर काल  में
हर हाल में
है अभी समय बाकी
पन्ने बाकी

रहे बाकी एक रीत
लिखने की बस नीली तहजीब


दाना चुगने के लिए दिन ठीक है


रात आने से भरता है
सिर्फ अंधेरा
हर वस्तु ढक जाती है अंधेरे से

अंधेरे की वस्तु उजाले की वस्तु का दूसरा हिस्सा है
हर खोखली सतह के भीतर अंधेरे की परत जमा है

फिर भी दिन के फूलों को रात के आने से कोई फर्क नहीं पड़ता
उनकी खुशबू नहीं बदलती
बल्कि अमलतास की डालियां इत्र से नहा जाती हैं

अंधेरे के उस पार देखने पर तीन चिड़िया नजर आती हैं
जो मुट्ठी भर उजाले की आस में है
क्यों कि रात उनका पेट नहीं भरती
दाना चुगने के लिए दिन ठीक है

दिहाड़ीदार मजदूर ऊंघ रहा है कम्बल के अंदर
बाहर फावड़ा चलता रहता है उस पर बार बार
इकठ्ठा हुई मिटटी को वो फेंक नहीं पाता
बल्कि वो अंदर ही पर्वतनुमा ढेर का आकार ले रही है

हथेलियों की रेखाओं से एक छोटी सी रेखा गायब है
अँधेरे भरी रात ने उसे निगल लिया है
पहाड़ी के ऊँचे टीले पर बने घर से स्याही हटेगी
ढोएगा एक दिन को वो सबसे पहले
खिड़कियां खुलेगी

सिमटे हुए पर्दों के बीच कालिख बाकि बची रहेगी
रात छनेगी धीरे धीरे


हो सकता है


जाड़े के कड़कड़ाते हुए पत्ते
बसंत को भेद कर हरे हो सकते हैं

आसमानी बारिश में किसी के जलते हुए
आंसुओं की आग भी हो सकती है
एक अमीबा का आकार
समय के आकार से ज्यादा भिन्न नहीं है
किसी का बंधा हुआ संयम
एक हल्की ख़ामोशी से भी टूट सकता है

दरवाजे के बाहर साँसें न लेता हुआ
जीवन भी हो सकता है
ऊँचें पर्वतों की एक श्रृंखला
हवा से भी ढह सकती है
रेगिस्तान की रेत समंदर किनारे जाकर
अपनी पिपासा शांत कर सकती है

निराश प्रेमी अजंता की गुफाओं में
जाकर दम तोड़ सकते हैं
जिन घरों में लोग सुरक्षित हैं
वे गिरती दीवारें भी हो सकती हैं
एक भीख मांगता बच्चा
स्वयं ईश्वर भी हो सकता है

लहरों से निकल कर आते नीले घुड़सवार
तुम्हारे हिस्से का युद्ध लड़ सकते हैं

हो सकता है
सुबह के सूरज ने जिद्द पकड़ी हो
ना निकलने की ठानी हो



अरसा हो गया

एक अरसा हो गया
नंगे पावं चले
चारागाहों की मखमली घास को स्पर्श किये
समंदर की भीगती लहरों में रेत के निशां बनाते

अरसा हो गया
बरसाती सड़क पर मीलों दौड़ लगाये
हाथों से पहाड़ों से घिरी झील का ठंडा पानी छुए
देवदार के वृक्षों से छन कर आती धूप को हाथों से रोके

अरसा हो गया
गेहूं की बालियों भरे खेतों में कुचाले भरे
सौंधी महक के ढेर में धसते मिटटी के घर बनाये

अरसा हो गया
गढ़ों में रुकी बारिश में कागज की नाव चलाये
ढलती सांझ तक मित्रों के घर सुख दुःख सुनाये

एक अरसा हो गया जीवन जिये



तुम ही मेरे सूर्य होगे


रहने दो इन उजालों को आस पास
जाने कब नैनों के द्वार पर गहन अँधेरा छाये
शताब्दियों में सूर्य की चमक भी कुछ फीकी हो जाएगी

तब चांदनी भी कहां छिटकी होगी
बस एक मौन अमावस
मन और देह को नियंत्रित करेगी
समय दैत्याकार रूप लेकर कुचाले भरता हुआ आगे बढ़ेगा

भयावह दृश्य मुखरित हो उठेगा
तभी इन उजालों से स्नेहिल मुद्रा में एक हाथ मुझ तक पहुंचेगा
सिमटती किरणों के मध्य से
कितनी आकाश गंगाओं को लांघते हुए

तुम्हारे समीप लाएगा मुझे
दृश्य बदल जायेगा क्षण भर में
बादलों के बीच बना इंद्र धनुष अपनी छटा बिखेरता होगा

उस समय तुम ही
बस तुम ही मेरे सूर्य होगे



जीवन की


संभावनाएं
चुनी हुई यात्राएं

सीढ़ियां चाँद
मुट्ठी भर आसमां
रखे हुए सपनों के पंख

असंतोष के बादल
सुबह कितनी
कितनी शामें
व्यथाएं
पीड़ाएं

ऐसी कितनी कथाएं

Sunday, October 28, 2012

गुमशुदा



- अल्पना मिश्र
  09911378341


जो तेज नहीं था, वह स्मार्ट भी नहीं था।
स्मार्ट होना, आज के लोग होना था।
स्मार्ट लोग, और स्मार्ट होना चाहते थे।
इस तरह जो, जो था, उससे अलग हो जाने को बेचैन था।

शासकीय खौफ पैदा करती किसी भी भाषा के विरूद्ध ठेठ देशज आवाज की उपस्थिति से भरी भारतीय राजनीति का चेहरा बेशक लोकप्रिय होने की चालाकियों से भरा रहा है। लेकिन एक लम्बे समय तक आवाम में छायी रही उस लोकप्रियता को  याद करें तो देख सकते हैं कि उस दौरान औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़ी तथाकथित आधुनिकता उस देशज ठसक का कैरीकेचर बनाकर भी कुछ बिगाड़ पाने में नाकामयाब रही है।
अल्पना मिश्र की कहानियों के पात्रों का देखें तो ठेठ देशज चेहरे में वे भी तथाकथित आधुनिकता के तमाम षड्रयंत्रों का पर्दाफाश करना चाहते हैं। लेकिन उनकी कोशिशें भारतीय राजनीति में स्थापित हुई सिर्फ भाषायी ठसक वाली लोकप्रिय शैली से इतर सम्पूर्ण अर्थों में लोक की स्थापना का स्वर होना चाहती हैं। अल्पना के पहले कथा संग्रह ''भीतर का वक्त" को पढ़ते हुए उनकी कहानियों का एक भरपूर चित्र करछुल पर टंगी पृथ्वी के रूप में देखा जा सकता है। सामूहिक उल्लास की प्रतीकों भरी गुजिया या दूसरे देशज पकवानों वाली दुनिया जिस तरह से उनकी कहानियों का हिस्सा हो जाती है, वह विलक्षण प्रयोग कहा जा सकता है। यह चिहि्नत की जाने वाली बात है कि अल्पना, ऐसे ही देशज पात्रों के माध्यम से घटनाक्रमों से भरी एक सम्पूर्ण कहानी को भी काव्यात्मक अर्थों तक ले जाने की सामार्थ्य हासिल करती है। 
प्रस्तुत है अल्पना मिश्र की कहानी- गुमशुदा।

वि.गौ. 
''मम्मी, ओ मम्मी!"" भोलू ने दो तीन बार आवाज लगाई, लेकिन कोई असर दिखाई न दिया। तब वह चिल्लाया - '' मम्मिया---या---आ---आ---।""
उपेक्षा से उपजे आवाज के गुस्से का असर तत्काल हुआ। सॉंवले से गोल चेहरे वाली एक औरत बाहर आई। बिना बोले उसने झुंझलाया हुआ चेहरा भोलू की तरफ किया।
''वो तरफ।" भोलू चहक उठा।
औरत ने उधर, उस दिशा की तरफ देखने की बजाय भोलू की खबर ली -'' ठीक से बोलो। शहर में आने का क्या फायदा? अब से मम्मिया बोला तो चार झापड़ जड़ूंगी। डैडी से कहूंगी तो अपने सुधर जाएगा।"
चार झापड़ की बात पर भोलू ने ध्यान नहीं दिया, पर डैडी की बात पर वह संभल गया।
''मम्मी! ऐ मम्मी! तू बेकार है।"  भोलू ने संभलने के बावजूद अपना गुस्सा दिखया और पल भर में लोहे का गेट खोल कर गली के अंधेरे की तरफ खड़ा हो गया।
’बेकार’ शब्द उछल कर पत्थर की तरह औरत की छाती में लगा। औरत ने अपनी चोट दबा ली और बाहर की तरफ झपटी।
''इस समय बाहर मत जा बाबू। अंधेरा हो गया है।"
जिस तरफ औरत खड़ी थी, उधर कुछ उजाला था। मकान मालिक के बारामदे में जलते शून्य वॉट के बल्ब के उजाले का आखिरी हिस्सा गेट पर गिर रहा था। उनके दो कमरे पीछे की तरफ थे। लेकिन गेट एक ही था। इसलिए गेट का इस्तेमाल वे भी करते थे और बारामदे के शून्य वॉट के बल्ब का भी । मकान मालिक के घर में कोई नहीं रहता था। वे लोग कभी कभी  अपना घर देखने आते थे। 
भोलू की तरफ अंधेरा था।
''ये देखो कंचा!" भोलू ने किसी काली, गुदगुदी चीज को छूआ। कंचे जैसी दो ऑखें चमक रही थीं।
'' अरे बाप रे पाड़ा!" खुशी, हैरानी और आवेग में भोलू को झपट कर पकड़ी औरत के मुंह से निकला।
''देखा, शहर में पाड़ा होता है मम्मी!" भोलू ने पाड़ा यानी बछड़े के गले में हाथ डाल कर कहा।
''छूओ मत। चलो, चलो!" औरत ने भोलू को घर की तरफ खीचा। पाड़ा गंदा था। मिट्टी, घास और गोबर उस पर चिपका था और इनकी मिली जुली गंध उसके चारों तरफ लिपटी थी। गॉव में यह गंध बुरी नहीं लगती थी। शहर में आते ही बुरी लगने लगी थी। कहीं भोलू के कपड़ों में यह गंध चिपक न जाए, औरत को चिंता हुई। इसीलिए पाड़ा को देख कर हुई अपनी खुशी और हैरानी को उसने दबा लिया। इसीलिए भोलू को खीच कर उसने भीतर चलने को कहा।
''गाय भी होगी?"
''होगी ही, नहीं तो दूध कहॉ से आता।"
''सब कुछ होगा, बस दिखता नहीं है!"
औरत ने बछड़े पर हाथ फेर दिया, फिर कुछ उदास हो उठी। इस इतने बड़े महानगर में गाय गोरू है, गोबर भी होगा ही। बछड़ा है तभी तो दिखा। न देखने पर ऐसा लगता रहता है कि महानगर में बछड़ा नहीं होता। बछड़ा नहीं होगा तो उसकी गंध भी नहीं होगी।
इसतरह सब कुछ साफ सुथरा होने का आभास बना रहेगा।
साफ सुथरा करने से, साफ सुथरा होने का आभास ज्यादा बड़ा था।
इसी पर उसे अपना गॉव भी याद आया और यह भी कि बछड़ा, गाय और गोबर--- ये सब पिछड़ेपन की निशानी है। औरत अपने लिए पिछड़ापन नहीं चाहती थी। उसके पिछड़ेपन के कारण ही उसे दस साल तक, गॉव में सास ससुर की सेवा करते हुए गुलामों का कठोर जीवन जीना पड़ा था। लड़का, यही भोलू छ: साल का हो गया तो इसके पिता को ख्याल आया। इसके पिछड़ जाने का भय इतना भारी था कि वे भोलू को पढ़ाने शहर ले आए। पीछे पीछे सेवा सुश्रुसा के लिए वह भी आयी। आयी तो इस हिदायत के साथ कि कोई गॅवई बात न सिखाई जाए, बल्कि अब तक सीखी गॅवई हरकतों को झाड़ पोछ कर साफ कर दिया जाए। भाषा में सावधानी रखी जाए, जैसे कि दूध को मिल्क बोला जाए, पानी को वॉटर, पाठशाला को स्कूल, किताब को बुक---।
तभी तो लड़का अंग्रेजी के युद्ध में हारने से बच सकता है।
तभी तो लड़का पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन सकता है।
औरत ने इस पर काफी मेहनत की। वह भी नहीं चाहती थी कि उसकी तरह बच्चा गॅवई और पिछड़ा माना जाए। लेकिन कभी कभी यह सब धरा रह जाता। किसी आवेग वाले क्षण में, दुख या खुशी में, उसके मुंह से वही ठेठ बोली निकल जाती। तब वह कुछ शर्मिंदा हो उठती, जैसे कि अभी कुछ देर पहले 'अरे बाप रे पाड़ा!’ खुशी, हैरानी और आवेग में उसके मुंह से निकल पड़ा था। उसने गॅवार होने के कारण पति द्वारा गॉव में छोड़ दिए जाने का लम्बा कठोर दंड झेला था। इस दंड ने उसे सावधान किया था। भोलू के लिए वह कोई दंड नहीं चाहती थी, इसीलिए अगले पल संभल गयी।
''और इ गाय का बेबी रास्ते में यहीं रात भर बैइठा रहेगा मम्मी?"
''इ मत बोलो। और यह गाय का बेबी---।"
''अच्छा, अच्छा, इसको घर ले चलो मम्मी।"
लड़के ने मम्मी को बीच में ही टोक दिया।
''पता नहीं किसका है? खोजेंगे वो लोग।"
इतने में एक मोटर साइकिल आयी और बछड़े से टकराते टकराते बची। मोटरसाइकिल सवार ने गुस्से में बछड़े को देखा और आगे बढ़ गया।
गली जैसा रास्ता है तो क्या, चोबीसों घंटे गाड़ियों का आना जाना लगा रहता है। 'पें-पें, चें- चें’ सुनाई पड़ती रहती है। कोई कोई म्यूजिकल हार्न, कोई कोई ट्रक बस जैसा हार्न भी बजाता है। कई लड़कों ने शौक में अपनी मोटरसाइकिलों का सायलेंसर निकलवा दिया है। 'फट - फट’ की जोर की आवाज गरजती भड़कती लगती है। लड़के आनन्दित हो कर तेज चलाते हैं।
'तेज’ एक जीवन मूल्य था।
जो तेज नहीं था, वह स्मार्ट भी नहीं था।
स्मार्ट होना, आज के लोग होना था।
स्मार्ट लोग, और स्मार्ट होना चाहते थे।
इस तरह जो, जो था, उससे अलग हो जाने को बेचैन था।
''चलो, मंत्री की दुकान पर चलते हैं।"
चिंता के मारे औरत को दुकान के लिए 'शॅाप' बोलना याद न रहा। मंत्री की दुकान इस मोहल्ले की दुकान थी।
कृपया यहॉ 'मोहल्ले’ की जगह 'कॉलोनी’ पढ़ें।
कारण - मोहल्ला कहने से समुदाय का बोध होता था। कॉलोनी कहने से आधुनिक, स्मार्ट और अलग लगता था।
जैसे कि आदमी, आधुनिक हो कर अलग, अकेला और स्मार्ट हुआ था।
स्मार्ट का भावानुवाद करना हिंदीभाषा वालों के लिए मुश्किल था। वह एक साथ बहुत सारे भावों, तौर तरीकों, पैसा रूपया बनाने की कला से ले कर जीवन शैली आदि आदि का गुच्छ था।
भोलू की मम्मी इसी राह पर थीं। स्मार्ट बन जाना चाहती थीं, नहीं बन पा रही थीं। उन्हें बछड़े की चिंता थी। वे मंत्री की दुकान पर पॅहुच कर कहने लगीं - '' भाई जी, बछड़ा एकदम बीच सड़क में बैठा है। रात बिरात किसी गाड़ी से कुचल सकता है। उसको किनारे कर देते या पता करते कि कहॉ से आया है? खबर कर देते उसके घर या छोड़ आते मतलब छुड़वा देते किसी से।" यह कहते कहते उनका आत्मविश्वास ढीला पड़ गया। मंत्री की तरफ वे जिस तेजी से आयी थीं, वह जाती रही। आखिरी वाक्य तक आते आते उन्हें मंत्री पर विश्वास न रहा। मंत्री उनकी बात निश्चित तौर पर नहीं सुन रहा था।
वह उनकी तरफ देखता रह गया। फिर चिप्स का पैकेट निकाल कर देने लगा। क्या चाहिए होगा इस औरत को? लड़के के लिए चिप्स, चाकलेट---।
''बछड़ा---बछड़ा---।" हाथ से चिप्स लेना इंकार करते हुए औरत ने बिना विश्वास वाली आवाज में कहा।
''बछड़ा!"
फिर मंत्री अपनी हैरानी दबा कर बोला - ''बैठा है तो हट जायेगा।"
''बीच रास्ते में है भइया। अंधेरा है। टकरा जायेगा किसी गाड़ी से तो मर जायेगा।"
'मर गया तो हमें पाप लगेगा।’ इस वाक्य को कहने से अपने को रोक लिया औरत ने।
''अरे कुछ न मरेगा इतनी जल्दी।" दुकान से झांक कर मंत्री ने बछड़े को देखा।
''भइया तुम देख तो लेते। इसके पापा तो हैं नहीं अभी---।"
इसी बीच में एक औरत किसी ऐसे नाम की कंपनी का शैम्पू मॉगने लगी, जो मंत्री की समझ में न आया। उसने झल्ला कर कहा-
''ठीक है आप जाऔ। ये मैडमें भी---।"
मंत्री उसका नाम था, जो लड़का दुकान चलाता था। लेकिन असली मंत्री वह नहीं था। असली मंत्री होता तो खुद दुकान नहीं चलाता। बहुत सारी दुकानें चलवाता या सारी दुकानों के ऊपर एक ऐसी दुकान होती, जो मंत्री की होती। दुकान ऐसी वैसी न होती, मोहल्ले की तो हर्गिज नहीं। दुकान में ए.सी. जरूर होता। एक गद्देदार रौब गांठती कुर्सी होती। या शायद इससे कहीं ज्यादा, बहुत बहुत ज्यादा होता, इतना ज्यादा, जिसके बारे में औरत सोच नहीं सकती थी। नकली मंत्री की कल्पना शक्ति भी वहॉ तक नहीं पॅहुच पाती थी। मंत्री की कल्पना केवल ताकतवर मालिक की बन पाती थी। ऐसे में नकली मंत्री अपने नाम का स्पष्टीकरण करते हुए इतना भर कह पाता था कि 'मालिकों से हमारी क्या बरोबरी!’
''देख लेना जरूर। बेचारा मर न जाए।" जाते जाते औरत ने कहा।
'कल्लू गार्ड को बुलाता हूं।" नकली मंत्री ने कहा।
''मेरे घर में रखना।" भोलू ने कहा।
इस पर नकली मंत्री हॅस दिया।

यह सीधा सीधा कल्लूराम गार्ड का कसूर था कि एक साफ सुथरी कॉलोनी के अंदर, जिसमें मोहल्ले भर से चंदा करके गार्ड रखा गया था और सुबह सुबह एक मेहतर भी आता था, जो हर त्योहार पर सबसे बख्शीश मॉगता था, जो अभी तक रजिस्टर्ड कॉलोनी नहीं थी, इसलिए उसका कोई पदाधिकारी भी नहीं था। इसलिए यह सीधा सीधा गार्ड का जुर्म माना गया कि एक साफ सुथरी कॉलोनी के अंदर काला बछड़ा घुस कर रास्ते में बैठ गया था। गार्ड को पता नहीं था। वह हैरान रह गया। इस बात पर नहीं कि बछड़ा कैसे आया? बल्कि इस बात पर कि उसने बछड़े को आते कैसे नहीं देखा? कोई एक ऐसा पल था जिसमें उसे नींद की एक हल्की सी झपकी आ गयी थी और वह उस एक झपकी में अपने घर के पिछवाड़े चला गया था, जहॉ वह घर का पिछवाड़ा देख कर परेशान था। इस पिछवाड़े में सारे शहर की गंदगी समेटे बिना ढॅका नाला उपर चढ़ आया था। उसमें पॉलीथिनों के ढेर के ढेर फॅस जाने से उसका बहाव रूक गया था। जब नाला उफन कर बाहर आया तो पॉलीथिनों का इतना बड़ा ढेर बाहर उलट पड़ा था कि उसका एक टीला या कम ऊंचा पहाड़ बन जाता, जिसके ऊपर पेड़ पौधे नहीं होते, न चीड़, न चिनार, न देवदार, न शाल---कुछ भी नहीं। नीले, हरे, पीले, काले---रंगों वाले पॉलीथिन धोखे वाले पेड़ पौधे फूल बन जाते---।
लेकिन रह रह कर नाली का बदबूवाला भभका इतनी तेज उठता कि धोखेवाले पहाड़, धोखेवाले पेड़ पौधों, फूलों, काई और हरेपन से बदबू को दबा नहीं पाते। घरों के भीतर आदमी रोटी सेंकता तो लगता बदबू सेंक रहा है। रोटी खाता तो लगता बदबू खा रहा है। पानी पीता तो लगता बदबू पी रहा है। नहाने के लिए कैसे कैसे पानी जुगाड़ता और नहाता तो लगता बदबू नहा रहा है। इस तरह पानी न हुआ, बदबू हुआ। रोटी न हुई, बदबू हुई। कपड़ा न हुआ, बदबू का कपड़ा हुआ। घर न हुआ, बदबू का मकान हुआ।

न मिट्टी में सोंधी महक थी।
न गेहूं में सोंधी खुशबू।
इस तरह जीवन में नाक बंद करना बेमाने था।
    धोखे की दुनिया में घना अंधेरा था। लोग एक दूसरे को अंदाज से पहचानते थे। कभी कभी इस अंधेरे में अपने आप को पहचानना मुश्किल हो जाता। एक दिन घर पॅहुच कर कल्लूराम  गार्ड ने अपने तीनों बच्चों से, जो पॉलीथिन के टीले को झाड़ू की सींक से तोड़ रहे थे, पूछा-
''कल्लूराम गार्ड अब तक घर नहीं आया?"
बच्चों ने कल्लूराम गार्ड को न पहचान कर कहा - ''मालिकों ने रोक लिया होगा। कोई अपनी गाड़ी धुलवाने लगा होगा, कोई गैराज साफ करा रहा होगा।"
इस पर कललूराम गार्ड को तसल्ली हुयी। तब उसने मझले लड़के का नाम ले कर पूछा -''सूरजा कहॉ है?"
मझले लड़के ने एक काली पॉलीथिन सींक से निकाली और चिल्लाया -''सूरजा शहर भाग गया?"
''शहर!"" कल्लूराम गार्ड उदास हो गया।
''ये शहर नहीं है?" उसने बड़के से पूछा।
''पता नहीं।" बड़का सोच में पड़ गया और पॉलीथिन निकालना छोड़ कर वहीं खड़ा हो गया।
पॉलीथिनों से निकल कर बहुत सारे कीड़े मकोड़े छितरा गए थे।
''कीड़ों मकौड़ों पर से हटो।" कल्लू गार्ड ने बच्चों को डांटा।
बच्चों को हटा हटा कर कल्लू गार्ड कीड़ों को पहचानने में लग गया। उसे पॉलीथिन का काला भयानक पहाड़, काला भयानक अंधेरा लगा। इसी काले भयानक अंधेरे में से बछड़ा आगे से निकल गया होगा।
''धोखे की झपकी थी।" गार्ड ने सोचा।
वह धीरे धीरे आया और नकली मंत्री के साथ मिल कर बछड़े को खींच कर किनारे करने की कोशिश करने लगा। बछड़ा टस से मस न हुआ। बछड़ा अंगद का पॉव हो गया। नकली मंत्री ने बछड़े को गले से पकड़ कर खीचा, उसके आगे का पॉव खीचा। गार्ड ने उसके गर्दन खीचने में गर्दन खीचा, पॉव खीचने में पॉव खीचा।
''अरे, गर्दन खीचने से मर जायेगा। पैर अकड़ गया होगा।" औरत धीरे से चिल्लायी। जोर से चिल्लाती, तब भी दोनों गले से खीचते। बछड़े ने दोनों पॉव मोड़े हुए थे, इसलिए ठीक से खिच नहीं रहा था। ठीक से इसलिए भी नहीं खिच रहा था, क्योंकि नकली मंत्री अपनी जांगर बचा कर खीच रहा था। गार्ड अपना जांगर छिपा कर खीच रहा था। इसतरह खिचना खीचना रह गया। औरत का भय बेकार गया।
    औरत का पति मोटरसाइकिल से आया। उसने अपनी बजाज की बढ़िया स्कूटर बेच कर सस्ती मोटरसाइकिल खरीदी थी। मोटरसाइकिल से चलना ठीक लगता था। यही नया चलन था। स्कूटर से चलना, चलना नहीं रह गया था। साइकिल से चलना गरीबी का प्रदर्शन करते हुए चलना था। और उससे भी ज्यादा अमीर गाड़ियों से कुचल जाने के खतरे के साथ चलना भी था। ऐसा खतरा मोटरसाइकिल के साथ भी था, पर वह चलन में थी। इसके साथ का रिस्क भी चलन में था।
रिस्क, रिस्क में फर्क था।
आदमी, आदमी में फर्क था।
यही समय था।
औरत के पति की मोटरसाइकिल भी बछड़े से टकराते टकराते बची थी। उसने घ्ार के अंदर, बारामदे में मोटरसाइकिल चढ़ाते हुए एक हाथ उठा कर नकली मंत्री को दिखाया, जिसका मतलब था 'खीच कर हटा रहे हो, बहुत ठीक।’
नकली मंत्री जवाब में  मुस्कराया। गार्ड नहीं मुस्कराया।
''मैडम गॉव से आयी है।"  कोई बुदबुदाया।
जब औरत अपने पति की मोटरसाइकिल के पीछे पीछे चली तो शब्द का एक और पत्थर उछल कर उसकी छाती में लगा। उसने फिर अपनी चोट छिपा ली। फिर बछड़े को देखने की इच्छा जोर मारने लगी।
''मम्मी, गाय का बेबी भूखा होगा।" भोलू ने सोते समय कहा।
''सुनो जी, एक रोटी दे आउं?" औरत ने कहा।
''इतनी रात को दरवाजा खोलना ठीक नहीं होगा।" आदमी ने कहा।
''बस, अभी ही तो आयी। गेट में ताला भी लगा आउंगी।"
औरत ने झट से एक रोटी मोड़ी और फुर्ती से गेट से निकल कर बछड़े के मुॅह के पास रख आयी। गेट पर ताला बंद करके लौटी तो पति सोने चला गया था।
''लगता है बछड़ा रोटी नहीं खायेगा। बीमार लग रहा है।"
उसने सोते पति से कहा।
''बहुत हो गया बछड़ा, बछड़ा।" पति थका था। वह नींद से बाहर नहीं आ सकता था।

    सुबह बड़ी हलचल थी। छोटी मोटी भीड़ दिख रही थी। एक आदमी हर घर की घंटी बजा कर पैसे मॉग रहा था। उसके हाथ में एक कागज था, जिस पर वह पैसा देने वाले का नाम, मकान नम्बर लिख लेता। लोग श्रद्धानुसार रूपये, पैसे दे रहे थे। यह श्रद्धा पचास रूपये से नीचे नहीं होनी थी। यह उसने साफ साफ बता दिया था।कुछ लोग ना नुकर कर रहे थे। कुछ सीधे सीधे पैसे कम कराने पर अड़े थे।  किसी ने बछड़े पर सफेद गमछा उढ़ा दिया था। कुछ गेंदे के फूल पड़े थे। वहीं बछड़े के कुछ पास एक आदमी नंगे पॉव जल चढ़ा रहा था। एक दो औरतें अचानक प्रकट हो गयी थीं। वे स्टील की प्लेट में दो चार फूल, एक दो केला, अक्षत, रोली, हल्दी--- रखे थीं। एक ने आगे बढ़ कर बछड़े पर सिंदूर छिड़क दिया। दूसरी ने कहा -''जय बाबा भोले नाथ की। उनके सेवक नंदी बैल की जय!"
कहीं से सफेद कुर्ता पैजामा पहने एक नेतानुमा आदमी अवतरित हो गया। वह इधर उधर घूम रहा था। उसका मन भाषण देने देने को था। पर लोग थे कि समय का रोना रो कर निकल लेते थे। ऑफिस समय पर पॅहुचना था। स्कूल समय पर जाना था। भोलू और भोलू के डैडी भी अपने अपने काम पर निकल गए। बछड़े की वजह से इस पर असर नहीं लिया जा सकता था। तभी कहीं से नेता जी को ज्ञान का प्रकाश मिला कि अगर जनता के पास जाना चाहते हो तो टी वी पर जाओ। वहॉ से सब कुछ साफ और पास दिखता है। नेता जी ने तुरंत एक खबरिया चैनल को फोन कर के डांटा, धमकाया कि आ कर के बछड़े के साथ उनका फोटो ले और भाषण भी। चैनल वाले ने अपने किसी कर्मचारी को डांटा कि आज या तो बछड़ा और नेता जी की फोटो या तो तुम्हारी नौकरी ? कर्मचारी नौकरी का जाना अफोर्ड नहीं कर सकता था। उसे कैमरा चलाना नहीं आता था। फिर भी वह आया। उसके साथ जो आया, उसे रिकार्डिंग और रिपोर्टिंग नहीं आती थी। फिर भी वह आया। दोनों ने मिल कर चैनल को नेता प्रकोप से बचा लिया। असली पत्रकारों, रिपोर्टरों तक बात नहीं पॅहुची। वे सो रहे थे। ज्यादातर रात में चौबीस घंटों के लिए रिपोर्ट लगा कर गए थे। चौबीस घंटे खबर ढूढना बेमाने था। इसमें वे लोग कोई और काम कर लेते थे। कोई कोई पत्रकारिता, मीडिया जैसे विषय कहीं, किसी कॉलेज, संस्थान वगैरह में पढ़ा भी आते था। इससे एक पंथ दो काज वाली कहावत चरितार्थ होती थी।
    चैनल पर भाषण दे देने के बाद वे अखबार के पत्रकारों को फोन पर बताने लगे। यही बछड़े के अवतार की कथा। धीरे धीरे भीड़ बढ़ने लगी। गॉव से ट्र्क में भर भर कर लोग आने लगे और गदगद भाव से दूध, फल, फूल,पैसा पानी चढ़ाने लगे। जो आदमी सुबह सुबह घरों से रूपया मॉग कर कागज पर नोट कर रहा था, वह अब बछड़े के पास मुस्तैदी से डटा था। पैसे रूप्ाये ज्यादा होने पर उन्हें धीरे से बछड़े पर से हटाता और एक थैले में डालता जाता। कुछ पैसे रूपये तब भी बछड़े पर पड़े रहते। देखते देखते कॉलोनी में तिल रखने की जगह न रही। लोगों के लिए कहॉ स्कूल दफ्तर जाना मुश्किल लग रहा था, कहॉ लौटना असंभव सा लगने लगा। कॉलोनी के लोग अपनी गाड़ी मोटर दूर रोक कर पैदल रास्ता बनाते हुए घर तक पॅहुचने की कोशिश कर रहे थे।
''अरे भाई, जरा रास्ता। बस, यही दस कदम पर---।"
''ऐ भाई, जाने दो, सुबह के निकले हैं।"
''अरे, अरे, यही 83 नम्बर घर है, जरा हटना।"
भीड़ आस्था से ओतप्रोत थी। पंडे और पुजारी अलग अलग मंदिरों से आ रहे थे। बछड़े को प्रसाद चढ़वा कर अपने मंदिरों के आगे स्टॉल लगवा दिए थे। तमाम फूल माला बेचने से लेकर गुब्बारा, सिंदूर, चुनरी, धूप बत्ती, माचिस, प्लास्टिक के खिलौने, तीर धनुष, सर्फ, साबुन ---वगैरह बेचने वाले भीड़ को कुछ न कुछ खरिदवा डालने पर आमादा थे। मज़मा बदल गया था। कुछ देर पहले मुश्किल से टी वी चैनल को बुलाने वाला नेता खबरिया चैनलों से घिर गया था। चौबीस घंटे अब यही राष्ट्र की सबसे बड़ी खबर थी। कोई कोई अपने यहॉ डॉक्टर, पुजारी और वैज्ञानिक की बहस भी चला रहा था। इस चौबीस घंटे मानो दुनिया में कुछ भी न हुआ था।
    जिस औरत ने बछड़े पर सबसे पहले सिंदूर छिड़का था, वह बाल खोल कर अस्पष्ट सा बड़बड़ाते हुए झूम रही थी। लोग उसके पास भी कुछ न कुछ चढ़ा देते। भोलू की मम्मी लोहे के गेट के अंदर से यह देख कर हैरान थी। यह तो गॉव में देवता आने के जैसा दृ्श्य था। गॉव के इस दृश्य की असलियत भोलू की मॉ को पता थी। वह हैरान सी लोहे के गेट तक आती और ये सब देख कर लौट जाती। जब तक किसी तरह भोलू और उसके डैडी अंदर न पॅहुच गए, उसे चैन न हुआ।
जो जैसे जैसे अपने घर पॅहुचता, वह डर के मारे बाहर न आता।
    नेता नुमा आदमी किनारे खड़े हो कर केला खा रहा था, जब एक चैनल वाले ने उसकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। केला खत्म कर लेने तक चैनल वाले रूक नहीं सकते थे। वह केला मुंह में चबाते चबाते बोलने लगा-      '' उ---सके माथे पर त्रिफूल खा नि---शान---।" केला खाते खाते बोलने से ऐसा निकला। इसका अहसास तुरन्त नेतानुमा को हो गया। उसने वहीं, अपने बगल में केला फेंक दिया और गर्जना के स्वर में कहने लगा-    '' कलयुग में साक्षात नंदी बैल आये थे। देखिए जहॉ आ कर बैठे, उतनी धरती काली पड़ गयी है। यह देखिए---यह इधर---।" इसके बाद चैनल वाले और नेतानुमा दोनों अदृश्य हो गए।
जहॉ नेता ने केले का छिलका फेका था, वहीं एक रोटी भी पड़ी थी।
रोटी कड़ी हो चुकी थी। 
''सुबह जब ये लोग आए तो बछड़ा जिंदा था। था या नहीं?" भोलू की मम्मी को जिज्ञासा हुयी।
    रात आयी तो नेतानुमा भी आया। देर रात तक भीड़ छंट गयी। बछड़े की देह से उठती बदबू अधिक सघन हो गयी। धूप दीप उसे छिपाने में असफल होने लगे।
''अब और नहीं रखा जा सकता।" नेतानुमा ने कहा।
''झोंटा बॉध! सामान बॉध!" यह उसने बाल खोल कर झूमने वानी औरत से कहा।
बाल खोल कर झूमने वाली औरत लगातार झूमने से थक गयी थी। उसकी थुलथुल कॉपती देह पसीने से तर थी। वह दूध, पानी, गंगाजल, फूल और बेलपत्रों से पटी जमीन पर भहरा कर गिर गयी। आदमी, जो भारी भीड़ के बीच भी पैसे इकट्ठे करने की अपनी ड्यूटी पर तैनात था, उसने अपने साथी लड़कों और दूसरी औरत के साथ मिल कर, झटपट रूपये, पैसे, फल, फूल, बेलपत्र आदि  आदि अलगा कर थैलों में डाला और ला कर नेतानुमा के सामने रख दिया।
''गुड! चलो, गाड़ी में रखवाओ।"
नेतानुमा ने आदेश दिया। तभी उसका ध्यान ऑख बंद कर लेटी हुयी औरत की तरफ गया।
''साली। यहॉ भी नौटंकी। उठ, चल के दारू के ठेके पर बैठ, नहीं तो तेरी लड़की को बैठा दूंगा।" नेतानुमा ने अपने जूते से औरत की कमर पर कोंचा। औरत लड़की का नाम सुनते हड़बड़ा कर उठ गयी। उससे उठा नहीं जा रहा था। लेकिन उठना जरूरी था।
''मालिक, आज का पैसा दे दो।" औरत ने उठते उठते कहा।
''चल, वहीं मिलेगा सब।" कह कर नेतानुमा हॅसा।
उसकी गाड़ी चली गयी तो बाल खोल के झूमने वाली औरत ने वहॉ से कुछ सड़े गले, छंटनी में बेकार कर दिए गए फल उठाए और अपनी साड़ी के कोने में बॉध लिया।

    सुबह फिर हलचल थी। बछड़े से उठने वाली बदबू से लोग परेशान थे। कुछ लोगों ने नगर निगम को फोन करने की कोशिश किया था। भोलू के डैडी भी नगर निगम को फोन करते रहे। घंटी बजती थी, पर कोई उठाता नहीं था। स्कूल जाने के समय बच्चे अपने अपने बसों की तरफ नाक पर रूमाल रख कर गए। दफ्तर के वक्त लोग नाक दबा कर अपने अपने ठिकानों की तरफ गए। इतने में वही आदमी फिर दिखा, जो नेतानुमा के साथ आया था और देर रात तक पैसा बटोरने की अपनी ड्यूटी पर तैनात रहा था। उसके साथ दो आदमी और थे। उनके पास लम्बा डंडा और मोटी रस्सी थी। वे जब बछड़े की अकड़ी देह के पास पॅहुचे तो मक्खियॉ भरभरा कर उड़ीं, दो चार कौवे चौंक कर उड़े, दो एक कुत्ते भाग खड़े हुए, एक चील आकाच्च से तेजी से कुछ नीचे आती और सर्र से उपर चली जाती। ऐसे में उन दोनों ने बछड़े को उलट पलट कर रस्सी से बॉधा और डंडे में फॅसा कर उठा लिया। बछड़े पर पडा सफेद गमछा उन्होंने उसी डंडे पर टांग लिया। दोनों ने एक एक तरफ से डंडे को कंधे पर रखा और चल दिए। कुछ मुरझाए फूल इससे इधर उधर गिर कर छितरा गए।
''आप लोग नगर निगम से हैं?" किसी ने चलते चलते पूछ लिया।
''नहीं जी, हम तो कसाईबाड़ा से आए है।"
दोनों आगे बढ़ गए। भोलू की मम्मी लोहे के गेट के भीतर खड़ी सुन रही थीं। उनकी ऑखों में ऑसू आ गए। उन्होंने तुरन्त ऑसू इस तरह पोंछा कि कोई देख न ले।




Thursday, April 3, 2008

आकांक्षाएं


कहानी

० सोना शर्मा

कई वर्ष पूर्व, रमा जी से मेरी भेंट, डा0 राकेश गोयल के क्लीनिक पर हुई थी। अपनी बारी की प्रतीक्षा में, बेंच पर समीप बैठे हुए, उन्होंने बिना किसी विशेष भूमिका के, अपना संक्षिप्त परिचय दे डाला। अपनी आर्थिक स्थिति और जीवन संघर्ष के सम्बंध में भी संकेत देने में, उन्हें झिझक महसूस नहीं हुई। मैंने सहानुभूति प्रकट की और शीघ्र ही दो-एक ट्यूशन दिला देने का आश्वासन दे दिया।

रमा जी से दूसरी भेंट भी राह चलते ही हुई। तब उनके पति भी साथ थे। उन्होंने विद्याचरण से परिचय कराया। संभवत: इस बीच उनकी स्थिति कुछ संभल गई थी। तीन कमरों का मकान उन्होंने दौड़-धूप करके एलाट करा लिया था। चार पांच ट्यूशनें मिल गई थीं और एक प्राइवेट अंग्रेज़ी स्कूल में विद्याचरण की नौकरी लग जाने की भी बात, लगभग निशित हो चुकी थी। दोनों ने साग्रह किसी दिन घर आने के लिये आमन्त्रित किया।

अनुमानत: उनका प्रेम विवाह हुआ था। अनुमान का आधार था, विद्याचरण का उतरप्रदेशीय ब्राहमण तथा रमा जी का बंगालिन होना। रमा जी हिन्दी जानती थी तथा सही उच्चारण में बातचीत भी कर लेती थीं। दोनों में अच्छी निभ रही थीं। दोनों में जीवन से जूझने की शक्ति थी। और अच्छे दिनों की आमद का विशवास भी उनकी आँखों में झलकता था।

विद्याचरण को अंग्रेजी स्कूल में नौकरी मिल गई। किन्तु प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल वाले जिस कड़ाई के साथ विद्यार्थियों से रूपये वसूल करते हैं, उस अनुपात में अपने अध्यापकों को वेतन देने में विश्वास नहीं करते। कुल मिलाकर एक गैर सरकारी मज़दूर से भी कम वेतन, एक अध्यापक को मिल पाता है।

कुछ दिन तो इसी तरह निकल गये, मगर शीघ्र ही भविष्य की चिन्ता उन्हें परेशान करने लगी। कल को बच्चे होंगे तो क्या उनकी परवरिश होगी और क्या उनका अपना जीवन स्तर सुधर पायेगा!

काफी सोचने के बाद, उन्होंने एक नर्सरी स्कूल शुरू करने का निणर्य ले लिया। नई जगह की व्यवस्था आसान न थी। इसलिये तीन कमरों के इस मकान का ही, स्कूल के तौर पर उपयोग करना निश्चित हुआ। कमरे ठीक ठाक ही थे। पूरे मकान की पुताई हो गई। दरवाजे खिड़कियों पर नया पेंट। आंगन के झाड़ झंकार को साफ़ कर दिया गया। बरामदे के एक भाग को एनक्लोज़र-सा बनाकर,कार्यालय का रूप दे दिया गया। साइन बोर्ड तैयार होकर आ गया। कुछ बेंच डेस्क टाट अलमारी ब्लैक बोर्ड आदि बहुत कम दाम में एक कबाड़ी से मिल गये।

पढ़ाने के लिये रमा जी थी हीं। विद्याचरण के लिये भी अपने स्कूल से आकर एक दो पीरियड़ ले लेना संभव था। किन्तु कुछ ही दिनों के बाद जब तीस बतीस बच्चे आने लगे, तो एक अतिरिक्त अध्यापिका की कमी, बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी। इसी संदर्भ में रमा जी ने मुझ से किसी शरीफ और परिश्रमी लड़की का पता बताने के लिये कहा, मैंने हँसकर कहा, "शराफत या शरीफ होने का प्रमाणपत्र तो कोई राजपत्रित अधिकारी ही दे सकता है, एक अच्छी पढ़ी लिखी और मेहनती लड़की मेरी नज़र में है, उसे आप के पास भेज दूंगी।''

चेष्टा मेरे छोटे भाई के मित्र की बहन है। बी0ए0 करने के बाद उसके लिये लड़का खोजते खोजते वह एम0ए0 हो गई। तब तक भी कहीं बात पी न हुई तो उसके घर वालों ने उसे बी0एड में दाखिला करा दिया। बी0एड भी हो गया, किन्तु दुर्भाग्य! इतनी पढ़ी लिखी और नेक स्वभाव लड़की को अब तक न तो वर मिला था और न नौकरी ही! बेचारी दिन भर अपने कमरे में बन्द, न जाने क्या क्या सोचा करतीं। मैंने चेष्टा को रमा जी के पास भेज दिया। उसे नौकरी मिल गई और रमा जी की समस्या का समाधान भी हो गया।

इसी बीच, कुछ विशेष घट गया। चेष्टा मुझ से अकसर बचने का प्रयास करती है। विद्याचरण और रमा जी से दुआसलाम तक बन्द है। जबकि मैंने इन तीनों में से किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।

घटना या दुर्घटना के बाद सर्वप्रथम मैंने विद्याचरण से ही बात की। बड़ी बेचारगी के साथ उसने बताया, ""देखिये बहन जी, मैने तो पहले ही कुमारी चेष्टा से कह दिया था कि हमारा यह छोटा सा स्कूल व्यवसाय की दृष्टि से नहीं, अपितु जनसेवा के उद्धेश्य से खोला गया है। मुहल्ले के गरीब बच्चे पढ़ लिख कर चार पैसे कमाने योग्य हो जायें, यही हमारी कामना है। हमारी सभी बातें या स्कूल के सब नियम कुमारी चेष्टा ने सहर्ष स्वीकार कर लिये थे। मैं मानता हूं कि वह अच्छा पढ़ाती थी और बच्चे भी उससे काफी प्रसन्न थे किन्तु ---

"किन्तु क्या?''

"क्षमा कीजिये, मैं कुछ भी बताने में असमर्थ हूं।''

बहुत पूछने पर भी जब विद्याचरण ने कोई स्पषट कारण न बताया तो मैं रमा जी से मिली। वे भी टाल मटोल सा करती हुई चाय पानी की व्यवस्था में लगीं रही। किन्तु मैं जब देर तक बैठ ही रहा तो बोली, "बात यह है कि जब लोगों को नौकरी की जरूरत होती है, तब तो दूसरों के पांव तक पकड़ने को तैयार हो जाते हैं, मगर नौकरी मिलते ही इनका नखरा आकाश छूने लगता है। सच मानिये, हमने तो यह स्कूल चलाकर मुसीबत ही मोल ले ली। इसमें बचत तो क्या होनी थीं, उल्टे जेब से ही खर्च हो रहा है। यह ठीक है, हम शैक्षणिक योग्यता अनुसार उस लड़की को अधिक वेतन नहीं दे सके। देते भी कहां से? अपने ही बीसियों झंझट है। तब भी किसी तरह खींच ही रहे थे, मगर उसने तो सब किये कराये पर पानी फेर दिया।''""मगर, किया क्या उसने?''
""उसी से पूछिये न।''

मैं खीज गई थी। 'मारो गोली" कह कर भी मैं मामले को गोली न मार सकी और चेषठा को भुला भेजा। वह भी बड़ी कठिनाई से कुछ बताने के लिये सहमत हुई। जो कुछ उससे मालूम हुआ, वह लगभग इस प्रकार था।

अपने एम0ए0बी0एड तक के प्रमाणपत्र लेकर, चेषठा नौकरी के लिये साक्षात्कार मण्डल (पति पत्नी) के समक्ष उपस्थित हुई, तो चकित ही रह गई। दोनों सदस्यों ने एक घंटे तक व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक प्रशनों की झड़ी लगाये रखी। गाना, नाचना तबला हारमोनियम, चित्रकारी मे, वह कितनी दक्ष है, इसकी जानकारी भी ली गई। बच्चों को योग्य बनाने हेतु, इन सभी चीज़ों की ज़रूरत थी। चेष्टा प्रशनों के उतर देती जा रही थी और पसीने में भीगती जा रही थी। इतने प्रशन तो अब तक जो लड़के वाले उसे देखने आये, उन्होंने ने भी नहीं पूछे थे। पांच सौ रूपये वेतन सुनकर तो उसका चेहरा ही उतर गया, किन्तु विद्याचरण का आदर्शवादी भाषण सुनकर तथा 'चलो कुछ वक्त कटी ही होगी", सोचकर उसने नौकरी स्वीकार कर ली। वैसे रमा जी ने यह भी कह दिया कि कुछ बच्चे और बढ़ते ही वे वेतन बढ़ा देंगे।

स्कूल में पढ़ाना ही नहीं, और भी बहुत कुछ करना होता था। हर रोज़, समय से पूर्व, स्कूल पहुंच कर, घर को स्कूल में परवर्तित करने के लिये चपरासी का कार्य उसे स्वयं ही करना होता। विद्याचरण तो प्रात: सात बजे ही अपनी नौकरी पर चला जाता। रमा जी का स्वास्थ्य, वही आम औरतों की तरह, कभी कमर में दर्द तो कभी सिर में चर। छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाना कम और संभालना अधिक होता। किसी की नाक बह रही है तो किसी को पाखाने की हाजत है। एक दो बार चेद्गठा ने एक और अध्यापिका रख लेने का सुझाव भी दिया किन्तु 'देखेंगे" कह कर रमा जी ने कोई और ही प्रसंग छेड़ दिया।

एक दिन, बच्चों की छुट्टी हो चुकी थी। विद्याचरण अभी नहीं लौटा था। रमा जी कुछ देर पहले बच्चों से प्राप्त फीस, बैंक में जमा कराने चली गई थीं। तब मौसम साफ था। इसलिये वे छाता भी नहीं ले गईं। मगर मौसम बदलते देर ही कितनी लगती है। विद्याचरण तो लगभग पूरा ही भीग कर घर पहुंचा था। जाती हुई रमा जी यह घर -स्कूल, चेषठा के हवाले विद्याचरण के लौट आने तक के लिये कर गई थीं। उसको कंपकपाते देख चेष्टा ने स्टोव जलाकर चाय के लिये पानी रख दिया। जितनी देर में विद्याचरण ने कपड़े बदले, चाय तैयार थी।
""एक ही कप? अपने लिये नही बनाई?''
""आप तो जानते हैं, मैं बहुत कम चाय पीती हूं।''
""फिर भी।।।।'' चेष्टा सोच रही थी।।। रमा जी वर्षा थम जाने की राह देख रही होंगी। स्थानीय बस कोई उधर से, इस ओर आती नहीं और ऑटो के तीस रूपये वे खर्चेंगी नही---
"आप की अभी तक कहीं बातचीत ---'' विद्याचरण ने चाय का कप मेज़ पर रख कर कहा।
""जी ---?'' चेष्टा चौंकी।

"आपको देखकर बड़ा दुख होता है। पढ़ी लिखी हैं, हर तरह से ठीक हैं। तब भी।।।खैर मैं कोशिश करूंगा आप के लिये।''

चेष्टा जैसे जमीन में गड़ी जा रही थी।

"आपके लिये लड़कों की क्या कमी! ऐसा वर खोजकर दूंगा, जो लाखों में एक हो। बिल्कुल आप के योग्य--- आप तो कुछ बोल ही नहीं रही!''

चेष्टा ने तनिक सी दृष्टि उठाकर, विद्याचरण की ओर देखा।

"इस समय भी मेरी नज़र में एक बहुत अच्छा लड़का है। काफी बड़ा अफसर है। मुझे न नहीं करेगा। सुन्दर है, अच्छे घराने से भी है --- बोलिये?''

वह कुछ समीप आ गया था।

चेष्टा थर थर कांप रही थी।

"आपको शायद ठंड लग रही है। एक कप अपने लिये भी बना लेना चाहिये था। कहिये तो मैं बना दूं?''
"नहीं नहीं, मैं चाय नही पिउंगी।''
"खैर, तो क्या सोचा आपने?''
"किस बारे में?''
"वही लड़के के बारे में। जिस दिन कहें, चलकर दिखा दूं।''

"देखिये, आप को ये बातें मेरे पिता जी से करनी चाहिये।''

"उनसे तो हो ही जायेंगी, पहले आप तो हां करें।''

इस बीच विद्याचरण कितना आगे बढ़ आया था, चेषठा ने इस पर ध्यान ही न दिया था। किन्तु जब विद्याचरण ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, "बस आपके हां कहने की देर है।'' तो चेष्टा उछल सी पड़ी।

अब वह डर या सर्दी से नही, बल्कि क्रोध से कांप रही थी।
"आप शायद बुरा मान गई!'' विद्याचरण मुस्कराने की कोशिश कर रहा था।
इस बीच उसने पर्याप्त साहस बटोर लिया था। खूब तीखी जबान में बोली,""आपने शायद उन चीज़ों की सूची काफी लम्बी बना रखी है जो पांच सौ रूपये महीना में मुझसे वसूल करना चाहते हैं। आप क्या समझते है, मैं अनपढ़ गंवार बच्ची हूं, जो आप के हथकन्डों को नही समझ पाऊंगी। शर्म आनी चाहिये आप को, जो मन्दिर जैसे इस स्थान में भी इस तरह की आकाक्षांएं पाले हैं!''
बाहर से रमा जी के गीले चप्पलों की धप धप सुनाई दी, तो विद्याचरण ने तुरन्त तेवर बदल कर कहा, "मुझे नहीं मालूम था, मन्दिर जैसे इस पवित्र स्थान में भी, आप की विचारधारा इस प्रकार विकृत होगी। यह विद्या का मन्दिर है। यहां बच्चे पढ़ते हैं। बच्चे, जो समाज का आवश्यक अंग है। बच्चे जो देश का भविष्य हैं। कल से आप यहां आने का कष्ट न करें।''

मालूम नहीं, रमा जी ने 'बात" को कहां तक समझा, या विद्याचरण ने किस प्रकार उन्हें 'असली बात" समझाने का प्रयास किया।
126, ईश्वर विहार-2, लाडपुर,पो0 रायपुर, देहरादून-248008 दूरभाष - 0135-2788210


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(हिन्दी साहित्य में पिछले दो एक वर्षों से युवा रचनाकारों की एक सचेत पीढ़ी पूरी तरह से सक्रिय हुई है। जो विशेष तौर पर कहानी की शास्त्रियता को परम्परागत रुढियों से बाहर निकालने में प्रयासरत है। समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक विश्लेषणों से भरी उनकी कहानियां इस बात की ओर इंगित करती है।

वहीं दूसरी ओर बदलते श्रम संबंधों और अपने पांव पसार रही भ्रष्ट राजनैतिक, सामाजिक ढांचे की बुनावट में फैलती जा रही अप-संसकृति ने जल्द से जल्द पूरे वातावरण में छा जाने की प्रवृत्ति को भी जन्म दिया है। मात्र दो एक रचनाओं की शुरुआती पूंजी को ही उनके रचना संसार का स्वर देख लेने वाली आलोचना भी ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा कर रही है।

यहॉं प्रस्तुत सोना शर्मा की कहानी उनकी प्राकाशित प्रथम रचना है। उस पर टिप्पणी करते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि वे लगातार लिखती रहे और खूब-खूब पढ़े. ताकि जटिल होते जा रहे यथार्थ को समझने में अपने विकास की गति पकड़ सकें।)