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Sunday, March 27, 2016

अस्पताल के उस कमरे

एक छुअन की याद

योगेंद्र आहूजा 

पिछले कुछ बरसों में कर्इ बार ऐसा हुआ कि वीरेन जी को मिलने देखने अलग अलग अस्पतालों मेें जाना पड़ा, शीशों के पीछे दूर से ही देखकर वापस आना पड़ा । एक अस्पताल में उनके साथ, उनके बेड के करीब काउच पर दो रातें भी बितार्इं । फिर भी मुझे कभी यकीन नहीं हुआ कि वह शख्स किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त है या हो सकता है । इसलिये कि बीमारी के सबसे कठिन क्षणों में, उपचारों के बीच के अंतरालों, मुशिकल शल्यक्रियाओं के बीच की मोहलतों में या एक से दूसरे अस्पताल आते जाते उनसे जो बातें होती थीं उनमें दुनिया जहान के सारे विषय आते थे, लेकिन जिस पर कभी चर्चा नहीं होती थी, वह था - उनकी बीमारी । वे उसकी चर्चा सफार्इ से टाल देते थे या जरा सा कुछ कहतेे थे तो एक ऊबे हुए स्वर में, निर्वैयकितक भाव से ।  मसलन 'हां यार इधर से काट दिया है उन्होंने या गर्दन की पटटी को छूकर - 'कुछ नहीं, जरा सा रेडियेशन से जल गया है । शायद ही किसी ने उनका दर्द से विकृत चेहरा देखा हो, कराहना सुना हो । उनके तार तो हमेशा पूरी कायनात से जुड़े थे । बीमारी बस एक व्यतिक्रम थी, थोडी देर का व्यवधान या 'ब्लैक आउट का एक संक्षिप्त अंतराल जब  रोशनियों कुछ देर के लिये बुझती हैं, मगर फिर जल उठती हैं, पहले से भी उज्जवल और प्रकाशमान । उन्हें बहुत अधिक मिजाजपुर्सी या अतिरिक्त चिंता दर्शाना पसंद न थे । वे साहित्य की दुनिया और असल दुनिया, दोनों के एक एक रग रेशे की खबर रखते थे, बहसों और वार्तालापों और मनोविनोदों में पूरी चेतना के साथ मौजूद रहते थे । इसलिये, वे अब नहीं हैं, यह खबर अभी तक मुझे एक अफवाह  सरीखी लगती है । उस चलती फिरती रौनक या छलकते प्याले का बीमारी और मृत्यु से कोर्इ नाता जोड़ पाना मुझे असंभव जान पड़ता है ।
दिल्ली के कटवारिया सराय में स्थित राकलैंड अस्पताल में शुरुआती सर्दियों की वह रात धप से अचानक उतरी । केरल या मणिपुर से आयी नर्स बीच बीच में आती जाती थी । पास में रखे स्टैंड पर ग्लूकोज नली में टप टप टपकता था । नर्स नली में ही इंजेक्शन से दवाइयां उंडेलती थी जो ग्लूकोज के संग बहते हुए हाथ की उभरी हुर्इ शिराओं में चली जाती थीं । वीरेन जी इसे बहुत कौतूहल से देख रहे थे ।
'इसी दुनिया में के कवि के लिये जो कुछ था, बस यही दुनिया थी, भले ही यह उनके लिये छोटी पड़़ जाती थी । यह अधूरी थी, मनमुताबिक नहीं थी और रोज ब रोज भयावह होती जाती थी - मगर जो कुछ भी था वह यही । उन्हें जैसे सांस लेने को हवा काफी नहीं थी, सूरज, पक्षी, पौधे, पेड़़ और न जाने क्या क्या चीजें उन्हें हरदम पास बुलाती रहती थी । ( एक बार किसी चिडि़याघर से कोर्इ गैंडा भाग गया था और वे बरेली के मित्रों के साथ जीप में बहुत दूर उस जंगल में चले गये थे जहां उसका होना संभावित था । ) उन्हें लोगों से घिरे रहना, इर्द गिर्द मानवीय चेहरों की मौजूदगी पसंद थी और वे भी जैसे पूरे जुटते नहीं थे । मगर किसी दूसरी दुनिया में न उनका यकीन था, न कहीं और जाने की आकांक्षा । चालीस बरसों के लंबे साथ में, स्वाभाविक ही, अनेक बार प्रियजनों की मौतों की खबरें आयीं । ऐसे अवसरों पर मैंने उन्हें विचलित, शोकाकुल यहां तक कि अथाह शोक में डूबे हुए भी देखा( याद आता है कि गोरख पांडेय की मृत्यु की खबर आने पर वे किस कदर गमगीन हुए थे, और इसी तरह उत्तराखंड के पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या पर, अभिनेत्री सिमता पाटिल की मृत्यु पर )  - लेकिन मृत्यु को लेकर दार्शनिक चिंतन करते, फिलासफी में फिसलते कभी नहीं । वे हमेशा मौत के खिलाफ थे और मौत के फलसफों और मृत्योन्मुख  रचनाओं के उससे भी अधिक । सिर्फ स्थूल मृत्यु नहीं बलिक उसके जो भी संभव मायने हो सकते हैं मसलन ठहराव, गतिहीनता, खालीपन, खात्मा, मातम, सूनापन, पराजय, बिछोह, अलविदा । वह शख्स दर्द को भीतर भींचे, हाथों में एक डायरी थामे, आधे कटे चेहरे और रिसते घावों के साथ आखिरी पल तक जनांदोलनों में कवितायें पढ़ता यूं ही नजर नहीं आता था । बेशक वह फासीवाद के विरुद्ध अपनी मुटठी उठाना, प्रतिरोध के स्वरों में अपनी आवाज मिलाना चाहता था । बेशक वह कर्इ दशकों पहले, शुरुआती युवावस्था में अपने आप से किया वादा आखिरी सांस तक निभाना चाहता था - भाषा को रस्से की तरह थामे, दोस्तों केे रास्ते पर चलते जाने का । मगर यह मौत की घूरती आंखों से एक मुठभेड़ भी थी, उनकी निजी लड़ार्इ, जिसमें हर बार मौत को ही मुंह की खानी होती थी । इसलिये उस सर्वदा अपराजेय शख्स का इस दुनिया को अलविदा कह जाना मुझे घोर अतार्किक जान पड़ता है । उसे स्वीकार कर पाने के लिये मेरे पास कोर्इ तार्किक तसल्ली नहीं, न कोर्इ दार्शनिक दिलासा  । 

वे चार दशकों पहले के दिन थे । वे बरेली के उस कालेज में पढ़़ाते थे जहां मैं नैनीताल जिले के छोटे से कस्बे काशीपुर से आगे पढ़ने के लिये आया था । वे हिंदी विभाग में थे और मैं विज्ञान का विधार्थी था । ये दोनों विभाग एक दूसरे के लिये जैसे परग्रही थे, प्रकाश वर्षो की दूरी पर । लैबोरेटरी के सन्नाटे और सिर चकरा देने वाली गंधों के बीच उनके नाम का जिक्र कभी कभी चला आता था । कभी मैं भी मानविकी विभागों का एक खामोश चक्कर लगा आता था, यूं ही निरुददेश्य । उन दिनों एक ही कालेज में होने के बावजूद उनसे कभी भेंट नहीं हुर्इ । मैं उन्हें सिर्फ दूर दूर से देखा करता था । वे आपातकाल के सहमे हुए दिन थे । याद आता है कि कालेज के मेन हाल में कोर्इ साहित्यिक कार्यक्रम था । भीतर एक इंतजार करती, कसमसाती  हुर्इ भीड़ थी और मैं बाहर गलियारे में टहल रहा था । एक स्कूटर आकर रुकता है । वीरेन जी तेजी में हैं, मशहूर लेखक मटियानी जी के साथ भीतर जाते हुए ।  सीढि़यों पर उनके सैंडिल में कुछ उलझा, वे क्षणांश के लिये लड़खड़ाये । मैं पास ही खड़ा था, संकोच में सिमटा हुआ । मैं उस घड़ी आगे बढ़़कर उस हाथ को थामना चाहता था जिसे आगे चलकर असंख्य बार मुझे थामना था, भरोसा और दिलासे देने थे । लेकिन चूक गया, बस यूं ही खड़ा रहा । कर्इ सालों के बाद दोस्ती होने पर एक बार यह घटना उन्हें बतार्इ । हर 'टच अपने भीतर इतनी संभावनायें लिये होता है, उन्होंने कहा । हर छुअन कोर्इ दरवाजा खोल सकती है । क्या पता कि वह टच होते होते रह न जाता तो हमारी दोस्ती को इतने सालों का नुकसान न होता । 

उसके बाद न जाने कितने कुंओं की मुंडेरों पर साथ साथ बैठे, कितनी स़ड़कें नापीं । समुद्र तटों तक जाने वाली सड़कें, और धूल धक्कड़ से भरी और कबि्रस्तानों के करीब से गुजरने वाली उजाड़, सब प्रकार की । आलमगीरीगंज की सड़कों पर बेपनाह धूल हुआ करती थी और सिविल लाइंस की अभिव्यंजनावादी चित्रों सरीखी थीं, नीलवर्णी, नयनाभिराम । वह मेरे लिये एक अनखोजा, अनजाना, रोमांचक अनंत था । विचारधारा, मनुष्य, दुनिया, इंसान की जददोजहद, कवितायें और महान रचनायें और ख्ुाद अपना आप - जितना जानना संभव था, उसी दौरान, उनकी सोहबत मेें ही जाना । उसी दौरान विचार स्पष्ट और एनेलिसिस धारदार हुए । दुनिया और समाज की पोलें खुलीं, रहस्य उजागर हुए, मायने प्रकट हुए । वीरेन जी की सर्वाधिक प्रिय जगह सड़कें थीं और वे खुद को एक गरबीला सड़क छाप कहते थे । उनकी सड़क सीरीज की कवितायें इलाहाबाद की सड़कों के बारे में हैं लेकिन संभवत: सबसे अधिक वे बरेली की ही सड़कों पर दोहरायी गयीं । उन पर चलते हुए उन्होंने न जाने कितनी बार कहा होगा कि अपनी जमीन यही है, वे उसे छोड़कर कभी नहीं जाने वाले, या वहां से कहीं भी जाना वहीं वापस आने के लिये होगा । वहां की हर सड़क का मन में एक अलग संस्मरण है । 

बरेली कालेज के दिनों की दशकों पुरानी उस अनहुर्इ छुअन की याद से एक दूसरी छुअन की याद उभर आयी है । वे राकलैंड अस्पताल में थे । अगले दिन उनका एक आपरेशन होना था । उनका फोन आया । वे चाहते थे कि मैं वह रात अस्पताल के कमरे में उनके साथ बिताऊं । 'साथ में कुछ लेते आना यार, सुनाना यह भी कहा उन्होंने । कवि होने के नाते उनका ज्यादा राब्ता, स्वाभाविक रूप से, कविता की दुनिया से था । उनके लिये मुझे गल्प और गध के संवाददाता का रोल निभाना होता था । हमारे बीच का यह एक स्थायी मजाक था, एक नकली बहस ... मैं उन्हें छेडने के लिये कहता था कि रही होगी कभी कविता अग्रगामी विधा, लेकिन अब वह पिछड़ गयी है । इस वक्त का असल प्रातिनिधिक कृतित्व गध में लिखा जा रहा है, गध में ही मुमकिन है । कविता काल कवलित हो चुकी या कहानी के पीछे पीछे चलती है, लड़खड़ाती हुर्इ । 'क्षुधा के राज्य में पृथ्वी गधमय है बांग्ला कवि सुकांत का यह वाक्य हमारी बातचीत में आता था । वीरेन जी कहते थे कि यह वाक्य स्वयं अपने में एक कविता का अंश है, और मानवीय अभिव्यकित का सर्वश्रेेष्ठ रूप, कुछ भी कहो, कविता ही है, वही हर लफज की कीमत पहचानना सिखाती है, और, कि तुम लोग लफजों की कितनी बरबादी करते हो ।

दिल्ली के कटवारिया सराय में स्थित राकलैंड अस्पताल में शुरुआती सर्दियों की वह रात धप से अचानक उतरी । केरल या मणिपुर से आयी नर्स बीच बीच में आती जाती थी । पास में रखे स्टैंड पर ग्लूकोज नली में टप टप टपकता था । नर्स नली में ही इंजेक्शन से दवाइयां उंडेलती थी जो ग्लूकोज के संग बहते हुए हाथ की उभरी हुर्इ शिराओं में चली जाती थीं । वीरेन जी इसे बहुत कौतूहल से देख रहे थे । बाद में उन्होंने मुझसे एक सहज शरीर-वैज्ञानिक जिज्ञासा प्रकट की - अच्छा, इस नली में इंजेक्शन से थोड़ी शराब डाली जाये तो  ?

बिस्तर के करीब बेंच पर बैठकर मैंने धीमे धीमे ब्राजील के लेखक जोआओ गाउमरास रोजा की बहुप्रशंसित, बहुअनुवादित कहानी पढ़ी जिसका शीर्षक था  - नदी का तीसरा किनारा । वे कंबल ओढ़कर लेटे थे, ध्यानमग्न सुनते हुए ।  वह उन्हें बहुत भावसिक्त करने वाली कहानी लगी लेकिन हमारी छदम बहस के संदर्भ में  उन्होंने कहा कि उस कहानी के सारे मायने तो वाक्यों के बीच हैं । उस पर खुद कविता का एक भारी कर्ज है । रात्रि काफी बीतने पर, अस्पताल के सन्नाटे में मैंने उन्हें जो दूसरी कहानी सुनार्इ वह पोलेंड के लेखक फि्रजेश कारिंथी की थी । वे खुद एक डाक्टर थे और कहानी भी अस्पताल की पृष्ठभूमि पर थी । इतने वर्षो के बाद उस रात्रि को याद करते हुए मुझे यह कुछ अतिरिक्त रूप से मानीखेज लग रहा है । एक अस्पताल में एक डाक्टर लेखक की कहानी का पढ़ा जाना, अस्पताल की पृष्ठभूमि पर ।

एक आपरेशन के तुरंत बाद एक बहुत सम्मान्य सीनियर सर्जन के दो सहायक, जो जूनियर डाक्टर हैं, दस्ताने उतारने के बाद हाथ धो रहे हैं । प्रथम सहायक वयदा गुस्से में उबल रहा है । 'जहन्नुम में जायें । उसका चेहरा लाल हो रहा है । 'डांट सुनने को मैं ही एक रह गया हूं । मैं कोर्इ बच्चा नहीं हूं । वे दोनों उस सर्जन को कोस रहे हैं जिसने आपरेशन के दौरान उन्हें छोटी छोटी गलतियों पर कस कर लताड़ लगार्इ है, मरीज के सामने ही जो बेहोश नहीं था । 'उसका असिस्टेंट होने का गौरव मेरे लिये दो कौड़ी का है । अब मुझ पर चिल्लाया तो ...। इसी दौरान प्रोफेसर सर्जन अचानक कमरे में चले आये थे । उन्होंने उनका चिल्लाना सुन लिया है मगर अनजान बनकर वे कहते हैं -  अच्छा भाइयो, आज का काम खत्म हुआ । 

दोनों की जान में जान आती है । मुंह से खून के छींटे धोते हुए सर्जन दर्र्द से कराहता है । दोनों सहायक दौड़ते हैं । 'ओह यह मुझे चैन न लेने देगा । इसका इंतजाम करना ही होगा । वह कहता है । सहायक हक्के बक्के खड़े हैं। 

'मुंह बाये क्या खड़े हो ? जैसे तुम्हें मालूम ही नहीं कि मुझे हर्निया है । काम करते वक्त जब मैं दर्द के मारे दांत भींचता हूं और तुम छिप छिप कर हंसते हो तो तुम समझते हो कि मैं जानता नहीं ? 

वीरेन जी आंखें मेरे चेहरे पर टिकाये ध्यानमग्न सुन रहे हैं ।

आने वाले कुछ दिन छुटिटयों के हैं । सर्जन के मन में जैसे उसी क्षण विचार आया हो, वह तय करता है कि क्यों न तत्काल उसका आपरेशन कराकर छुटटी पायी जाये । उसकी स्फूर्ति का असर सहायकों पर भी होता है । वे सुझाव देते हैं कि फलाने सर्जन को बुलाया जाये । 'दिमाग ठिकाने है ? प्रोफेसर भयंकर चेहरा बनाकर कहता है । 'भला किसी अन्य प्रोफेसर की मजाल जो मेरे पेट में पंजा घुसेड़े ? आपरेशन थियेटर तैयार होता है । वही सहायक आपरेशन करेंगे । बस चिमटियां, औजार, रुर्इ पकड़ाने के लिये एक नर्स और रहेगी । चीरा लगाने के लिये स्थानीय रूप से सुन्न करना काफी है । इत्तफाक से वे सुबह नाश्ता गोल कर गये थेे इसलिये जुलाब देने की भी जरूरत नहीं । एक बड़ा सा शीशा लैंप के ऊपर तिरछा लटकाया जायेगा कि प्रोफेसर सारा तमाशा साफ साफ देखते रहेें । 

जीवन अगर स्पर्शो का जमा खाता है तो मेरी स्पर्श एलबम का अब तक का सबसे चमकीला स्पर्श वही है । अनगिनत बार उसकी याद आंखें गीली कर चुकी है ।
वीरेन जी उठकर बैठ जाना चाहते हैं । नर्स भागी हुर्इ आती है । वह टूटी फूटी हिंदी में कुछ कहती है और उन्हें फिर लेटने को बाध्य कर सिरहाना और नलियां ठीक करती है । उसके जाने के बाद वीरेन जी कहते हैं, चिटखनी लगा दो । 

इसके बाद कहानी में उस आपरेशन का विस्तार से विवरण है ।  दोनों जूनियर सहायक डरे सहमे हैं और प्रोफेेसर उन्हें हर बात पर डांटता है - रोशनी का फोकस, चीरे की पोजीशन और लंबार्इ, चिमटियां रखने की जगह ।  उनका चेहरा अपमान के मारे काला पड़ जाता है । आपरेशन चल रहा है और वह उन्हें गालियों से नवाज रहा है । 'कसार्इ, साले, नालायक । वे घबराये हुए, गलतियों पर गलतियां करते हैं । माथे पर पसीना झलमला रहा है । जख्म बहते जा रहे हैं, उनसे धागे निकल रहे हैं । 'धन्य हो, जनाब सर्जन । अब क्या करना होगा ? बता दूं तो बड़ा अच्छा हो, क्यों ? लेकिन अपनी प्रतिष्ठा की जिस सर्जन को इतनी चिंता हो, उसे पता होना चाहिये । मैं कौन हूं ? मैं तो इस वक्त असहाय मरीज हूं । अपनी मुकित का इंतजाम खुद ही करो । 

वीरेन जी के चेहरे से जाहिर है कि कहानी का एक एक लफज दिल को चीरता चल रहा है । एक कामिक कथा होने का भ्रम देने वाली यह कहानी जब अवाक कर देने वाले बेहद मानवीय और हृदयस्पर्शी अंत पर पहुंचती है, उनका चेहरा उत्तेजना से आरक्त है । उनकी आंखें चमकने लगी थीं । 'यह मुझे फोटो स्टेट चाहिये यार ।  यहां के सारे डाक्टरों और नर्सो को दूंगा । उन्होंने कहा । 

अस्पताल के उस कमरे में न कोर्इ बीमारी थी न अंत की दूर दूर तक कोर्इ आहट । वहां दवाइयों की गंध थी मगर हमारे लिये उस रात अस्पताल का वह कमरा जैसे 'बहारों का जवाब था । ओह काश मुझे अंदाजा होता कि . . .
कुछ देर में वीरेन जी सो गये । वे हल्की सर्दियों के दिन थे । पास के काउच पर लेटे मुझे भी न जाने कब नींद आ गयी । वह ऊषाकाल रहा होगा जब आप गहरी नींद में होते हुए भी जागृत होते हैं । मैंने महसूस किया गरमार्इ का एक सुखद घेरा पैरों की तरफ से उठता, मुझे ढ़कता हुआ । कोर्इ मुझे कंबल ओढ़ा रहा था । वह जो भी था, उसका नर्स होना तो नामुमकिन था क्यों कि रात को सोते वक्त कमरे का दरवाजा मैंने ही बंद किया था । नींद में ही अवचेतन ने हर हरकत, छोटी से छोटी चीज दर्ज की । किस तरह वीरेन जी ने मुझे कंबल ओढ़ाने के लिये अपने हाथ से वह सुर्इ सावधानी से अलग की होगी । ग्लूकोज वाला स्टैंड परे खिसकाया होगा । बिस्तर से उतर कर कुछ कदम चल कर मुझ तक आये होंगे ।

जीवन अगर स्पर्शो का जमा खाता है तो मेरी स्पर्श एलबम का अब तक का सबसे चमकीला स्पर्श वही है । अनगिनत बार उसकी याद आंखें गीली कर चुकी है ।  

Friday, June 5, 2009

रात किसी पुरातन समय का एक टुकड़ा है




कहानी: मर्सिया
लेखक: योगेन्द्र आहूजा
पाठ : विजय गौड
पाठ समय- 1 घंटा 17 मिनट

मैंने अन्यत्र लिखा था कि योगेन्द्र की कहानियां अपने पाठ में नाटकीय प्रभाव के साथ हैं। उनमें नैरेटर इस कदर छुपा बैठा होता है कि कहानियों को पढ़ते हुए सुने जाने का सुख प्राप्त किया जा सकता है। मर्सिया में तो उनकी यह विशिष्टता स्पष्ट परिलक्षित होती है। योगेन्द्र की कहानियों पर पहले भी लिखा जा चुका है। इसलिए अभी उन पर और बात करने की बजाय प्रस्तुत है उनकी कहानी मर्सिया का यह नाट्य पाठ। मर्सिया को अपने कुछ साथियों के साथ, उसके प्रकाशन के वक्त नाटक रूप में मंचित भी किया जा चुका है।

कथा पाठ में कई ज्ञात और अज्ञात कलाकारों के स्वरों का इस्तेमाल किया गया है। सभी का बहुत बहुत आभार। कुछ कलाकार जिनके बारे में सूचना है, उनमें से कुछ के नाम है - उस्ताद राशिद खान, पं जस राज महाराज, सुरमीत सिंह, पं भीमसेन जोशी ।



कहानी को यहां से डाउनलोड किया जा सकता है

Saturday, January 17, 2009

भाषा एक उत्तोलक है

"रात किसी पुरातन समय का एक टुकड़ा है, जिसे सन्नाटे ने थाम रखा है।" बहुआयामी काव्य-भाषा से गूंजता योगेन्द्र आहूजा का गद्य उनके कथा संग्रह "अंधेरे में हंसी", उनके रचना कौशल का ऐसा साक्ष्य है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि भाषा एक उत्तोलक है। अनुभव के संवेग से पैदा हुई उनकी कहानियों की भाषा सिर्फ अपने समय की शिनाख्त करने वाली है बल्कि कहा जा सकता है कि रचनाकार की जीवन दृष्टि को भी पाठ्क के सामने प्रस्तुत कर सकने में सक्षम है। भाषा रूपी इसी उत्तोलक से योगेन्द्र आहूजा ने अपनी उस पक्षधरता को भी साफ किया है जो पुनर्निमाण और खुलेपन की उस षड़यंतकारी कथा का पर्दा फाश करने वाली है जिसने मनुष्यता के बचाव में रचे गये तमाम ऐतिहासिक प्रयासों को वातावरण में शेष बचे रहे धुधंलके के साथ धूल के ढेर में दबा दिया है।
उत्तोलक की वह सभी किस्में जो अपने आलम्ब के कारण अलग पहचान बनाती है, योगेन्द्र आहूजा के आयास को ऊर्जा में या अनुभव की ऊर्जा को आयास में बदलकर कहानियों के रूप में सामने आयी हैं। नींबू निचोड़ने की मशीन भी उत्तोलक ही है। अनुभव के रसों से भरा नींबू और उसका तीखा स्वाद ही योगेन्द्र आहूजा की कथाओं का रस है- "वही जो भूतपूर्व सोवियत संघ के राष्ट्रपति थे, जिनके माथे पर जन्म से एक निशान है, जो अपने देश से ज्यादा अमरिका में लोकप्रिय थे, जो वोदका नहीं छूते, जिनकी शक्ल के गुड्डे पश्चिमी बाजारों में धड़ाधड़ बिकते थे, जो खुलेपन और पुनर्निमाण के प्रवक्ता थे, और आजकल कहां हैं, पता नहीं। गोर्बाचोव, हम मामूली लोगों की इस आम फ़हम कहानी में?"
दसवें विजय वर्मा कथा सम्मान से योगेन्द्र आहूजा को उनके कथा संग्रह अंधेरे में हंसी पर सम्मानित किया गया है।सम्मान समारोह आज दिनांक 17/1/2009 को मुम्बई में सम्पन्न हुआ सम्मान समारोह में अपनी रचना प्रक्रिया का खुलासा कथाकर योगेंद्र ने कुछ यूं किया-


वक्तव्य

योगेंद्र आहूजा

स्व. विजय वर्मा की स्मृति में स्थापित इस पुरस्कार के लिये मैं हेमंत फाउंडेशन के नियामकों संतो्ष जी और प्रमिला जी और अन्य सदस्यों और आप सबका आभार व्यक्त करना चाहता हूँ । मेरे लिये यह एक खास क्षण है और इसे बहुत दूर तक, शायद जीवन भर एक गहन स्मृति की तरह मेरे साथ रहना है। इस अवसर पर खुशी महसूस करना स्वाभाविक है, लेकिन इस समय जिन एहसासों के बीच हूँ, उन्हें बताने के लिये खु्शी शब्द बहुत नाकाफी है। ऐसे मौकों पर तमाम मिले जुले एहसासों की आँधी से, एक भावनात्मक तूफान से गुजरना होता है । मन कच्ची मिट्टी के घड़े जैसा होता है जिसमें लगता है कि इतना प्यार समेट पाना मुश्किल है - और दूसरी ओर बहुत सारे दरकिनार कर दिये गये सवाल और हमेशा साथ रहने वाले कुछ संशय, शंकायें और दुविधायें ऐसे क्षणों में एक साथ सिर उठाते हैं, समाधान माँगते हुए । मेरी अभी की मन:स्थिति में एक रंग संकोच और लज्जा का भी जरूर होगा। 72 वर्ष की उम्र में बोर्गेस ने, जो निस्संदेह बीसवीं सदी के सबसे बड़े साहित्यिक व्यक्तित्वों में से एक थे, कहा था कि वे अभी भी कवि बनने की कोशिश में लगे हैं । मैं भी अपने बारे में यही कह सकता या कहना चाहता हूँ कि लेखक बनने की को्शिश में लगा हूँ - अपनी रचनाओं को लेकर किसी आश्वस्ति या सुकून से बहुत दूर । संकोच की एक वजह तो यह है और दूसरी ---


मैं यहाँ आप सबके सामने जो मेरे आत्मीयजन, मित्र और पाठक हैं, एक कनफेशन करना चाहता हूँ। मैं सचमुच नहीं जानता लेखक होना क्या होता है, कोई कैसे लिखता है। मैं लेखक नहीं, सिर्फ एक स्टैनोग्राफर हूँ। एक मुंशी महज, या रिकार्डकीपर। लिखता नहीं, सिर्फ कुछ दर्ज कर लेता हूँ। जो थोड़ा बहुत लिखा है वह दरअसल किसी और ने लिखवाया है । शायद आपको लगे कि मैं ऐसा कहकर लिखने की प्रक्रिया को अतींद्र्रिय, रहस्यात्मक या जादुई बना रहा हूँ । शायद मैं किसी इलहाम या दूसरी दुनिया के संदे्शों की बात की रहा हूं। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है, मैं पूरी तरह इहलोक का वासी हूँ, अध्यात्म से अरुचि रखने वाला और अपने जीवन में रेशनेलिटी और तर्कबुद्धि से चलने वाला। लेकिन मेरा एक संवाद जरूर है अलग अलग वक्तों में हुए सार्वकालिक महान लेखकों, महाकवियों, विचारकों, मनीषियों से, जो मृत्योपरांत भी मेरे कानों में कभी कभी कुछ कह जाते हैं। मैं उनकी फुसफुसाहटें रिकार्ड कर लेता हूँ, उन्हें समकालीन संदर्भो से जोड़कर और एक आधुनिक शिल्प में तब्दील कर । मैं इतना ही श्रेय लेना चाहता हूँ कि वह संवाद बना रहे इसकी एक सचेत को्शिश मैंने लगातार की है, और हाँ शायद स्मृति को जागृत रखने की भी - बेशक रचनाओं की कमियों की जिम्मेदारी तो मेरी ही है। हमारे यहाँ कहा गया है कि गुरू कोई एक, केवल एक ही होना चाहिये। यशपाल जी ने कहीं लिखा था कि दत्तात्रेय ने अपने 20 या 22 गुरू बनाये थे और इसके लिये निंदा और परिहास का पात्र बने थे। यशपाल जी लिखते हैं, मैं नहीं जानता मैं कितनी निंदा का पात्र हूँ, क्यों कि मेरे गुरूओं की संख्या तो 20 से कहीं ज्यादा है। वे सैकड़ों तो हैं ही अगर हजारों नहीं, जिनमें न जाने कितनी भाषाओं और देशों के लेखक, कवि, विचारक, संत, दृ्ष्टा और दार्शनिक शामिल हैं । मैं इस संबंध में यशपाल जी का ही अनुकरण करना चाहता हूँ । मेरे भी तमाम गुरू हैं - अलग अलग वक्तों के तेजस्वी, विराट और मेधावी मस्तिष्क, जिनसे सीख पाया - कोई आस्था या गुरुमंत्र जैसी चीज नहीं, बल्कि उसके विपरीत, संदेह करना और सवाल करना, लेकिन संदेहवाद को भी कोई मूल्य न बनाना, संदेह पर भी संदेह करना । और अपनी भा्षा के वे अग्रज लेखक जिन्होंने खुद के उदाहरण से बताया कि जीवन में सृजन और कर्म का रिश्ता क्या होता है, रचनाकार के दायित्व और लिखित शब्द की गरिमा के क्या मानी होते हैं । उनमें से तमाम ऐसे हैं जिन्हें जीवन भर रो्शनियाँ नसीब नहीं हुई। हमारी भा्षा के सबसे बड़े आधुनिक कवि मुक्तिबोध के जीवन काल में उनकी कोई किताब प्रकाशित नहीं हुई और यह उनकी आखिर तक अधूरी तमन्ना रही कि उनके नाम का कोई बैंक खाता हो । मुक्तिबोध, शैलेश मटियानी और मानबहादुर सिंह ने जो जीवन जिया और जैसी मौतें पायीं, उसके ब्यौरे हमें स्तब्ध और निर्वाक करते हैं। ये सब मेरे गुरूओं में से हैं --- और जीवन में सौभाग्य की तरह आये वे सीनियर और समकालीन लेखक, जिन्होंने बेपनाह प्यार और भरोसा दिया और असंख्य बार यह दर्शा कर अचंभित किया कि एक व्यक्ति दूसरे के लिये कितनी बड़ी मदद हो सकता है, कितनी खुशी बाँट सकता है। मैं उनका आभार उस मदद और खुशी के लिये नहीं, इसलिये करना चाहता हूँ कि उन्होंने मुझे ऐसे विचारों से बचा लिया कि इस धरती पर मनु्ष्य एक बुराई । मैं इन सब चीजों, बातों को विस्मरण के हामी इस वक्त में एक जिद की तरह याद रखना चाहता हूँ, समझदारों के द्वारा पुराना और पिछड़ा समझा जाने की कीमत पर भी । कोई भी शख्स केवल एक शख्स नहीं होता, वह तमाम शख्स होता है, यहाँ तक कि वह पूरी मानव जाति होता है । इसी तरह कोई भी लेखक केवल एक लेखक नहीं होता, उसमें जीवित मृत, अपनी और दूसरी भाषाओं के, और अलग अलग देशों और वक्तों के तमाम लेखक और लोग शामिल होते हैं । एक अकेला लेखक होना नामुमकिन है । इसलिये यहाँ अकेले खड़ा होना मुझे संकोच और लज्जा से भर रहा है ।

आभारी हूँ लेकिन यह अवसर सिर्फ आभार व्यक्त करने का नहीं । इसे एक उत्सव की तरह मनाना इस मौके को गँवा देना, सिर्फ बरबाद करना होगा । उत्सव या जश्न का कोई कारण, कोई मौका नहीं । मुम्बई और उसके साथ पूरे देश को पिछले दिनों एक दु:स्वप्न से गुजरना पड़ा है। बीस बरस पहले जो आर्थिक प्रायोजना जोशो खरो्श से लागू की गयी थी, अब उसकी साँसें मंद पड़ रही हैं । जिन जीवनमूल्यों को नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन के एक लंबे दौर में हासिल किया गया, यह जैसे उनकी प्रति अभिव्यक्ति का वक्त है । विवेक के लुंज होने के तमाम संकेत है। अब जो कुछ भी "दूसरा" है, दुश्मन है - दूसरा धर्म, भाषा, इलाका, पहनावा, विचार यह प्रतिक्रियावाद के प्रसार का, उत्पीड़कों और मतांधों का स्पेस बढ़ते जाने का एक बेहद खतरनाक समय है ऐसे में इस मौके का सही इस्तेमाल लेखनकर्म की प्रकृति, प्रयोजन और उद्देद्गय पर, लेखक के कार्यभारों पर दुबारा विचार करने के लिये हो सकता है। कुछ सवाल होते हैं जिनके कोई अंतिम समाधान नहीं होते और उन पर बार बार सोचते रहना, यह रचनाकर्म का ही हिस्सा होता है । मसलन, कोई क्यों लिखता है और लिखने से क्या होता है । In the beginning was the word, इन शब्दों में बाइबिल बताती है कि सृ्ष्टि की शुरुआत शब्द यानी ध्वनि से हुई थी और इसी से मिलती जुलती बात आधुनिक विज्ञान कहता है कि यह सारी सत्ता, पूरी कायनात, जो कुछ भी अस्तित्वमान है, वह एक बिग बैंग, एक महाविस्फोट से अस्तित्व में आया । ध्वनियाँ और विस्फोट और वह अनंत खामोशी जिसमें धार्मिकों के अनुसार एक दिन सब कुछ विलीन हो जायेगा ईश्वर के सृजन सही, लेकिन मनुष्य का काम उनसे नहीं चलता । उसे कोरी आवाजों और धमाकों की नहीं, वाक्यों की जरूरत होती है जो जूतों, जहाजों, घड़ियों, सीढ़ियों, नक्शों और नावों इत्यादि की तरह मनु्ष्य को अपने लिये खुद बनाने होते हैं । अपने कमरे या कोने में धीरज के साथ कोरे कागज का सामना करता, किसी अज्ञात, रहस्यमय अंत:प्रेरणा की दस्तक सुनता, अपने भीतर एक उथल पुथल और धुकधुकी का पीछा करता लेखक भी सिर्फ यही तो करता है । वाक्य बनाता है, उसमें कौमा और विराम चिह्नों को इधर इधर करता हुआ, बिना जाने कि उनका क्या हश्र होगा, वे कहाँ तक जायेंगें । मगर उसकी आकांक्षायें और इरादे बहुत बड़े होते हैं - अपने वक्त की टूटफूट और त्वरित बदलावों को समझना, उनमें से किसी खास को रेखांकित करना, संदेहों का इजहार, कोई स्वीकारोक्ति, पुराने विचारों की पुनर्परीक्षा, केंद्रीयताओं का प्रश्नांकन - पूरे समाज, पूरे अर्थतंत्र और मनुष्य के मन का अपनी आंकाक्षाओं के अनुसार पुनर्निर्माण । चाहता है चीख और खामो्शी के बीच के सारे अर्थों को समेट ले । दुनिया उसकी आंकाक्षाओं के रास्ते पर नहीं चलती, और उसकी उसकी आकांक्षाओं को दुनिया के किसी कोने में, कहीं हाशिये पर ही थोड़ी सी जगह मिल पाती है। मुझे लगता है कि आने वाले वक्तों में वह थोड़ी सी जगह भी छिनने वाली है। शब्द की सत्ता पर खतरे बढ़ते जा रहे हैं, बाहरी और भीतरी दोनों तरह के । साहित्य की दुनिया में उत्सवधर्मिता, तात्कालिक उत्तेजना और एक धोखादेह किस्म के रोमांच का अधिकाधिक बढ़ते जाना, इसे मैं एक भीतरी खतरे के रूप में देखता हूँ, और बाहरी खतरा हमारे समय की तेज रफ्तार जितनी देर हम अपनी मेधा की पूरी शक्ति से अपने वक्त को समझने की को्शिश करते हैं, उतनी देर में वक्त बदल जाता है। हमारे वक्त में संक्रमण की, बदलाव की रफ्तार अभूतपूर्व है। हमारे रा्ष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में लगातार नयी सत्तायें उभर रही हैं और नये गठजोड़ बन रहे हैं। वे लगातार व्याख्या, निगरानी और संधान की माँग करते हैं और यह जोखिम बना रहता है कि इस को्शिश में जितना वक्त लगेगा, उतनी देर में वे कुछ और बदल चुके होंगे । इस तेज रफ्तार में लेखकों के लिये खतरा यह है कि आप थोड़ी देर को असावधान हुए और समाज के स्पंदनों, उसके अतीत और आगत की मीमांसा की आपकी सामर्थ्य चुकी। खतरा यह है कि खुद विचार करने में असमर्थ होकर लेखक बाजार की डिब्बाबंद और रेडीमेड चीजों की तरह तैयारशुदा विवेचनाओं से काम चलाने लगे । हमारे इस विचारशिथिल वक्त में बने बनाये आकर्षक विचारों की कोई कमी नहीं - इतिहास का अंत, विचार का अंत, परिवार, चेतना, स्मृति, आकांक्षाओंश और मानवीय संबंध यानी जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान था, सबका अंत - और लेखक की मृत्यु और सभ्यताओं का संघर्ष । हमारे चारों तरफ ऐसे विचारों और व्याख्याओं का एक घना जाल है जिसे पेशेवर बौद्धिकों और चालाक चिंतकों ने बुना है, वे प्रखर और प्रतिभाशाली हैं, इसमें क्या शक । वे कहते हैं कि पिछले दो तीन दशकों में कुछ ऐसे अप्रत्या्शित, सर्वव्यापी और मूलगामी परिवर्तन हुए हैं जिन्होंने सब कुछ बदल डाला है और इन परिवर्तनों को समझने के लिये पहले के संदर्भ, उपकरण और प्रत्यय अनुपयोगी हैं, मनुष्य ने अब तक जो भी ज्ञान विज्ञान अर्जित किया है, बेकार है, इन परिवर्तनों के आगे बेबस है । अब एक उत्तर आधुनिक, उत्तर औद्द्यौगिक, उत्तर समाजवादी, तकनीकी समाज सामने है । जो नयी विश्व व्यवस्था बन रही है, वही मुकददर है । वे विकसित टेक्नालाजी के सामने मनु्ष्य की दयनीयता का, उसकी निरुपायता का हलफनामा लिखते हैं और उसे एक महान सत्य की तरह पे्श करते है। वे बताते हैं कि इस वक्त जो समाज बन रहा है उसके केंद्र में मनुष्य नहीं होगा, न उसका जीवन । अब केंद्र में केवल सत्ता होगी और मनुष्य केवल पर्यावरण का हिस्सा होगा । यह शोर बीस बरसों से जारी है, हाँलाकि अब विश्वव्यापी मंदी में जरूर थोड़ा थमा है । लेकिन क्या मनुष्यता के इतिहास में सच कभी इतना निर्वैयक्तिक, इतना नि्शंक, इतना निरपेक्ष, इतना आसान रहा है ? नियंत्रणकारी ताकतें जो एक छद्म चेतना को गढ़ने के प्रयासों में हैं, अब हमारे चारों तरफ हैं । हमारी स्मृतियों और संवेदनाओं पर उनका चौतरफा हमला है । आकर्षक और सम्मानित नामों से साम्प्रदायिकता लोगों के स्नायुतंत्र के साथ इतिहास और सत्ता पर कब्जा करने के लिये सन्नद्ध है । शायद आने वाले वक्त में हमारा लगभग सर्वस्व दॉंव पर लगने वाला है - लोकतंत्र का अस्तित्व, मूलभूत नागरिक अधिकार, इजहार की आजादी सब कुछ । ऐसे वक्त में लेखक का काम, उसका धर्म, दायित्व --- जाहिर है, वह और भी मुश्किल होने वाला है । यह कहना कतई काफी नही कि लेखक की सच से एक अटूट प्रतिबद्धता होनी चाहिये - यह तो बुनियादी बात है ही । हमारे वक्त में जब सच, झूठ और सही गलत की पहचान भी साफ नहीं, लेखक की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी, ज्यादा मु्श्किल है । इस पहचान को साफ करने के लिये उसे सत्ता समर्थित व्याख्याओं के महीन, घने जाल को काटने की कोशिश भी करनी है । उसे हर सवाल पर एक साफ पोजी्शन लेनी है हवाई किस्म की उस गोल मोल, बेमानी मानवीयता से बचते हुए जो आततायियों के पक्ष में जाती है । समाज में पैदा होने वाली नयी उम्मीदों और नये जीवन मूल्यों की पहचान और रेखांकन यह भी उसका एक जरूरी काम है । और हाँ, उसे विस्मरण के प्रतिवाद की को्शिशों में भी शामिल रहना है ।

मैंने स्मृतियों की, स्मृति को जागृत रखने की बात कही थी । हमारी भा्षा के एक कवि असद जैदी की एक कविता में --- रेलवे स्टेशन पर पूड़ी साग खाते हुए उन्हें रूलाई छूटने लगती है याद आता है कि मुझे एक औरत ने जन्म दिया था, मैं यूँ ही किसी कुँए या बोतल में से निकल कर नहीं चला आया था । हम सब भी जो अपने को लेखक होने के गौरव से जोड़ना चाहते हैं, उल्कापात की तरह जमीन पर नहीं टपके, न किसी बोतल की संतान हैं । हम अपनी भा्षा और पड़ोस की भाषा उर्दू की उस रवायत से आये हैं जिसे असाधारण और विराट व्यक्तित्वों ने अपने प्राणों और खून से बनाया । प्रेमचंद, सज्जाद जहीर, मंटो, बेदी, इस्मत चुगताई, मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन, शम्शेर और अन्य तमाम, अपने वक्तों के सर्वाधिक जागृत, तेजस्वी और अग्रग्रामी व्यक्तित्व। शायद आप कहना चाहें, भला यह भी कोई कहने की बात है। लेकिन नहीं, अब यह सब कहना भी जरूरी हो गया है। हमारे वक्त में स्मृतियाँ मिटाने के तमाम सत्तापोषित उपक्रम जारी हैं जिनके बीच कुछ याद करना और रखना एक कठोर आत्मसंघर्ष के बाद मुमकिन हो पाता है । सागर जी की अद्वितीय फिल्म 'बाजार' जो हम सब ने बार बार देखी है का एक वाक्य है - करोगे याद तो हर बात याद आयेगी । लेकिन इस वक्त भुलाने की भी कीमत मिलने लगी है । साहित्य के एक हल्के में अतीत से पीछा छुड़ाने की कोशिशें हैं, जैसे वह कोई बोझ हो। वे भुला देना चाहते हैं अपनी भाषा के सरोकारों, तनावों, नैतिकता और प्रतिवादों की - और चाहते हैं कि साहित्य महज लफ्जों का खेल रह जाये। ऐसे में भूलने के विरूद्ध होना और याद दिलाते रहना इस वक्त लेखक का एक अतिरिक्त कार्य भार है । लिखने के तरीके, शिल्प, भाषा और बयान का अंदाज, यह सब तो हमेशा ही बदलेगा लेकिन उद्दे्श्य, सरोकार और चिंतायें फै्शन की तरह नहीं बदले जा सकते । निर्मल वर्मा की एक बात याद आती है जो उन्होंने एक निबंध में लिखी थी - वे शहर अभागे हैं जिनके अपने कोई खंडहर नहीं । उनमें रहना उतना ही भयानक अनुभव है जितना किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना जो अपनी स्मृति खो चुका है, जिसका कोई अतीत नहीं। इसी बात को आगे बढाते हुए --- वह भाषा कितनी अभागी होगी जिसमें पूर्वज लेखकों और उनके लिखे की, उनकी आंकाक्षाओं और जददोजहद की स्मृति विलुप्त हो जाय। रघुवीर सहाय ने तकरीबन तीन दशक पहले एक कविता "लोग भूल गये हैं" में चिंता व्यक्त की थी - जब अत्याचारी मुस्कराता है, लोग उसके अत्याचार भूल जाते हैं" । देवी प्रसाद मिश्र की कहानी "अन्य कहानियाँ और हैल्मे" के एक मार्मिक प्रसंग में नैरेटर अपमान सहने के बाद होम्योपैथी की दुकान में अपमान के भूलने की दवा लेने जाता है और बूढ़ा डाक्टर मना करते हुए कहता है कि अपमान को भूलने के साथ अन्याय की स्मृति भी जाती रहेगी । इस तरह न्याय पाने के प्रयत्न भी खत्म हो जायेंगे । लेखक के लिये जरूरी है याद दिलाते रहना कि भुलाना भूल ही नहीं, बहुत सारे मामलों में जुर्म, एक अक्षम्य जुर्म होता है । इसलिये कि जो भुला दिया जाता है वह अपने को पहले से भी जघन्य और नृशंस रूपों में दुहराता है। इस भूलने और भुलाने के विरूद्ध एक संघर्ष भी लगातार जारी हैश। मैं भी इसी संघर्ष में रहना चाहता हूँ, कुछ ऐसा लिख पाने की कोशिशों के रूप में जो एक साथ अपने वक्त का बयान भी हो और अपनी भाषा के श्रेष्ठतम की याद भी ।

मुम्बई आने पर और सागर जी की मौजूदगी में, थोड़ा सा फिल्मी होना माफ होना चाहिये । मुक्तिबोध जो मराठी भा्षी थे, लेकिन लिखा उन्होंने हमारी भाषा में, की कविता पंक्तियाँ हैं : दुनिया जैसी है उससे बेहतर चाहिये, इसे साफ करने के लिये एक मेहतर चाहिये । इन पंकितयों से याद आया एक दृश्य जो हाल की एक फिल्म 'मुन्ना भाई एम बी बी एस' का है, लेकिन लगता है चैप्लिन की किसी फिल्म का । एक मेहतर है, अस्पताल में सफाई करता, और जो उसकी मेहनत को बरबाद करते गुजर रहे हैं, उन पर चीखता चिल्लाता । नायक जाकर उसे गले लगा लेता है, जिसकी उसे न कोई उम्मीद थी न कोई तमन्ना । वह अवाक रह जाता है और उसके मुँह से यही निकल पाता है - चल हट, रुलायेगा क्या ? यह सम्मान ग्रहण करते हुए ऐसी ही कुछ फीलिंग्स मेरे मन में हैं । मैं इस वादे के साथ अपनी बात खत्म करता हूँ कि अपना काम जारी रखूँगा और कोशिश करूँगा कि और भी बेहतर तरीके से उसे कर सकूँ ।

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Monday, December 8, 2008

शहंशाही में है बालकनी नाम का ठेका

देहरादून की लेखक बिरादरी के, अपने शहर से बाहर, कुछ ही सामूहिक दोस्त हैं। कथाकर योगेन्द्र आहूजा उनमें से सबसे पहले याद किये जाने वालों में रहे हैं। बेशक योगेन्द्र कुछ ही वर्षों के लिए देहरादून आकर रहे पर सचमुच के देहरादूनिये हो गये। यह सच है कि पहल में प्रकाशित उनकी कहानी सिनेमा-सिनेमा को पढ़कर इस शहर केलिखने पढ़ने वाली बिरादरी के लोग उन्हें देहरादून में आने से पहले से ही जानने लगे थे। वे भी देहरादून को वैसे हीजानते रहे होंगे- उस वक्त भी, वरना सीधे टिप-टाप क्यों पहुंचते भला। ब्लाग में अवधेश जी की लघु कथाओं कोपढ़ने के बाद हमारे प्रिय मित्र ने अवधेश जी को याद किया है। उनका यह पत्र यहां प्रकाशित है। पत्र रोमन में था, उसे देवनागरी में हमारे द्वारा किया गया है।
अवधेश जी कविताएं कुछ समय पहले पोस्ट की गयीं थीं। पढने के लिए यहां जाएं

प्रिय विजय

बहुत समय के बाद अवधेश जी की रचनाएं देखने का अवसर मिला। इन्हें इतने समय के बाद दुबारा पढ़ कर शिद्दत से एहसास हुआ कि उनकी असमय मृत्यु हम सबके लिए कितनी बड़ी क्षति थी।

उनके साथ बिताये दिन फिर स्मृति में कौंध गये। शहंशाही में बालकनी नाम के ठेके पर उनके साथ बिताये पल विशेष रूप से याद आये। लगातार बरसात, तेज सर्दी, हवा में हल्की-सी धुंध और समकालीन कविता और कवियों के बारे में उनकी अनवरत और बेशुमार बातें।

वे दिन ना जाने कहां चले गये और अब कभी लौट कर नहीं आयेंगे।

आज इतने समय के बाद में उन दिनों को भावसिक्ता होकर याद कर रहा हूं। लेकिन क्या उन दिनों और पलों को मैंने पूरी तरह डूब कर और शिद्दत के साथ जिया था ? नहीं।

शायद यह इजराइल के कवि इमोस ओज का या पोलैण्ड की कवियत्री विस्सवा शिम्बोरस्का का कथन है कि चूंकि सब कुछ क्षणभंगुर है और एक दिन सब कुछ समाप्त हो जाने वाला है, हमें हर दिन का उत्सव मनाना चाहिए।

अवधेश जी को हिन्दी कविता में वह जगह और पहचान नहीं मिली जिसके वे हकदार थे, हालांकि विष्णु खरे जैसे विद्धान आलोचक उनकी कविताओं के प्रशंसक थे। उन्होंने जिप्सी लड़की पर एक समीक्षा भी लिखी थी जो उनकी किताब "आलोचना की पहली किताब" में संकलित है।

आभारी होऊंगा यदि उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताएं (फोटो के साथ हों तो और भी बेहतर है) भी ब्लोग पर उपलब्ध करा सकें। और हां उनके कुछ गीत भी, विशेषकर धुंए में शहर है या शहर में धुंआ

वे बहुत अच्छे पेंटर और स्क्रेचर भी थे। कृप्या उनकी कुछ पेंटिग और स्केच भी उपलब्ध करवायें। संभव हो तो नवीन कुमार नैथानी जी का उन पर लिखा संस्मरण भी।


आपका


योगेन्द्र आहूजा