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Wednesday, August 30, 2023

पानी का खेल

कवि की इस बात- "केदारनाथ सबसे सबसे पहले पानी का शिकार हुआ", को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि यह एक बहस तलब मुद्दा हो सकता है। लेकिन पानी किसी को नहीं देखता यह पूर्णतया सच है। बल्कि प्रकृति है ही इतनी उदात कि वह खुद को भी नहीं देखती। कवि और वैज्ञानिक, प्रकृति के उन्हीं रहस्यों के अन्वेषक हैं, लेकिन अठारहवें संग्रह की गगनभेदी घोषणा एक मंदिर में सिमटी हुई नजर आती। क्या सचमुच पानी ऐसे ही किसी बिंब पर ठहर कर अपना रास्ता बनाता है? यह विचारणीय प्रश्न है। पुस्तक का कवर पेज भीतर की सामग्री का प्रतीक ही होता है। इसे एक कवि से ज्यादा और कौन जान-समझ सकता है। उम्मीद है कवर पेज भीतर बैठी कविताएं सचमुच के पानी की बात करें जो न मंदिर देखता हो और न मस्जिद, या अन्य किसी धर्म के प्रतीक ही। अभी तो यही कहते बन रहा कविताओं का चेहरा केदारनाथ से ढका है।

पानी प्रकृति द्वारा प्रदत्त जीवनदायी धरोहर है। इसके कुछ रूपों को हिंदी के महत्वपूर्ण कवि राजेश सकलानी की कविताओं में भी देख सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनके संग्रह पानी है तो फूटेगा से आज कुछ कविताएं शेयर करने का मन है। यदि कहेंगे तो तरह से प्रकट होते इस पानी की आवाज को भी प्रस्तुत करना चाहूंगा। ताकि आप भी आश्वस्त हो सकें और मैं भी दोहरा सकूं सुनता हूं पानी गिरने की आवाज।

विगौ


पानी का खेल

पानी है तो मचलेगा                                          

हाथ छुड़ा कर भागेगा

हँसते-हँसते थक जायेगा

रो जायेगा

सो जायेगा

जागेगा तो उछलेगा

पानी है तो फूटेगा।

 

जब हम पत्थर हुए

जब हम पत्थर हुए

अपने आकार और रूप लिए,

इकट्ठा हो कर खुश हुए।

इतने करीब हुए कि जुड़कर

प्रदेश हुए

उछलते-कूदते कोमल हुए

और धारदार हुए

हजार साल का स्वप्न हुए

जब हम पहाड़ हुए

आसमान की सारी हवाओं ने

अपना लिया

बादलों ने गले से लगा लिया

इतने किस्म के बीज़ चिड़ियाएँ ले कर आईं

सजते धजते हरे हो गए

जब हम संविधान हुए

न्याय की महापंचायत ने

फूल बरसाये

जगे गीत भीतर इतने सारे

नदियाँ फूट कर निकलीं

और हमारे पाँव भीग गए

जब हम मनुष्य हुए

पिफर किन्हीं समयों में भटके हुए।

कठिनाईयों से झगड़ कर

तब हम मनुष्य हुए।

 

 

पहाड़ों का स्वभाव

जो रचते नहीं है वे रुकते नहीं है

इसलिये गौरव, उलार व ललक विहीन

हम ऐसे आये जैसे पहाड़ों के बजाय

कहीं और से आये हुए हो

वे पथरीले हैं लेकिन कठिन नहीं है

और वे हमारे छोड़कर चले आने से भौंचक है

वे शरण देते हैं लेकिन बुरे दिनों की याद दिला कर

शर्मिन्दा नहीं करते

जब दिल करे तब चले आओ

उन्हें कृतज्ञता ज्ञापित करने की ज़रूरत नहीं है

तुम्हें कभी जरूरत पड़ेगी तो वे आत्मीयता से

स्वागत करते मिलेंगे

पहाड़ों के सामान्य नियम है

समझो कि वे सिर्फ तुम्हारे लिये हैं

उन्हें समूचे रूप में ही अपनाया जा सकता है

वे विक्रय के लिए नहीं है

उन्हें जंगलों और नदियों से अलग कर

नहीं देखा जा सकता

उफँचाई पर जा कर दुनिया पर नजर डालने

का हक़ खुद ब खुद मिल जाता है

यहाँ आओ और मौसमों के साथ

धीमे-धीमे बदलते जाते रहो

और ज़ज्ब होते रहो

पाओ ऐसी बानी जो भीड़ को

बदल देती हो समुदाय में

नदियों को समुद्र में।

 

ये धूप की लौ हमारी है

ये धूप की लौ हमारी है

और बारिशें भी

इन्होंने बनाया है हमें

इन्होंने सताया है हमें

इन्होंने जिलाया है हमें

इन्होंने मिलाया है हमें

पूरब से पश्चिम तक मैदानों में

उत्तर से दक्षिण तक मैदानों में

खूब तपाया है हमें

हरे-भरे पेड़ों की छाया ने

बाँह पकड़ कर सुलाया है हमें

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिन पर पानी की बूँद पड़ी

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिनकी काया यहाँ जली

तू भी इन्हीं हवाओं में

मैं भी इन्हीं हवाओं में

जो तेरे जी का मकसद है

वो मेरे जी का मकसद है

ये धूप की लौ हमारी है

और बारिशें भी

ये तेरा भी धरम है

ये मेरा भी धरम है।

         

सोने की गेंद

पांडव खेलें कौरव खेलें

सोने की गेंद से मिलजुल खेलें

नभ खेले झिलमिल परबत पर

उछल मचल जलधारें खेलें

चिड़िया के पंखों से खेले हवाएँ

डाल-डाल पर डालें खेलें

चाँदी की हँसिया नदिया जैसी

भेड़ों के संग बाला खेले

तीखे पाथर मृदल भये अकुलाए

बादल किलक पुलक कर खेले

हिन्दू खेले मुस्लिम खेले

धूप की किरणें मुख पर खेलें।

(गढ़वली लोकगीत की एक पंक्ति से प्रेरित)

 


अनुगूँजें

पत्थरों पर प्यार आता है

हाँ पत्थरो पर प्यार आता है

चलो पुश्ते बनाते हैं

चलो पुश्ते बनाते हैं

चलो खेत बनाते हैं

चलो खेत बनाते हैं

चलो कूल बनाते हैं

चलो कूल बनाते हैं

चलो कोदा उगाते हैं

चलो कोदा उगाते हैं

स्वप्न और सृजन से भरे हैं पहाड़

स्वप्न और सृजन से भरे हैं पहाड़

बारिशों और जंगलों ने रचे हैं पहाड़

बारिशों और जंगलों ने रचे हैं पहाड़

श्रम और कोशिशों के पहाड़

श्रम और कोशिशों के पहाड़

हमारे पिताओं और माँओं के पहाड़

हमारे पिताओं और माँओं के पहाड़

कैसे बासती है घुघूति

घुर्र घुर्र बासती है घुघूति।

 

 

 

मेरे लोगों

ऐ राहे हक़ के शहीदों

ऐ मेरे वतन के लोगों

कोई गोली चलाए क्यों

कोई मारा जाए क्यों

इन ज़मीनों में ज़ज़्ब हैं कई वादे

रोटी पानी पे मुलाक़ातें भूल जाएं क्यों

कोई इधर के उधर रह गये

फक़त इसलिए पराये क्यों

यूँ न जायेगी यादों की डोर

गैर के मंसूवों से टूट जाये क्यों

झील सी गहराई आवामों में हैं

अरे पागल, घबराये क्यों।

 

ओ पाकिस्तान

तुम जो चीज़ें छोड़ गए

हैं अब तलक दूर-दूर तक मैदानों में ज्यों कि त्यों

उन्हें भुला देने के किसी इरादे की निगाह में नहीं

ये साझा धूप की आँच के निशान है

बीती मुलाकातों की सरसराहटें

कोशिकाओं के द्रव में मनुष्यता की आहटें

ये छोड़ी हुई साँसों के मानसून में घुल जाने

और पिफर लौटने वाली बरसातें हैं

हमारे हँसने, रोने में अक्सर आतीं हैं

इतिहास से बाहर ललक उठने को

अपनी आवाज़ पर गौर करें

लफ्जों के बीच ये अपने मायने बचा लेती हैं

भले से देखें तो ये

कुछ पल खुशहाल करती हैं।

 

 

थोड़ा सा

मैं बहुत थोड़ा हूँ

थोड़ी सी मिट्टी

थोड़ा सा दरख़्त

थोड़ सा मौसम

थोड़ी सी रोटियाँ हूँ

जो रसदार साग के बिना भी

खुश रहती हैं

मैं थोड़ी सी जगह हूँ

जितने तक मेरी टांगे अट जाती है

मैं थोड़ा सा नमक हूँ

जो पतेले भर दाल को

जा़यके दार बना सकता है

मैं थोड़ी सी आग हूँ

जो लगातार लग कर

भगोने भर भात को सिझा सकती है

मैं थोड़ी सी शुभकामना हूँ

जिसे उम्मीद है पूरी दुनिया में

अमन आ सकता है

मैं थोड़ा सा घोड़ा हूँ

जिसकी पीठ पर बच्चे

सकपकाये नहीं रहते और मैं

हुक्के के पानी की तरह गुड़गुड़ करता हूँ

मैं थोड़ी सी आवाज़ हूँ

जो धौंस जमाने वालों की

ज़ुबान को घबड़ा देती है

मैं थोड़ा सा पागल हूँ

इतना पागल होना तो

हर ज़ने को चलता है।

 

 

मैं भी इन्हीं हवाओं में

ये धूप की लौ हमारी है

और ये बारिशें भी

इन्होंने बनाया है हमें

इन्होंने सताया है हमें

इन्होंने जिलाया है हमें

इन्होंने मिलाया है हमें

पूरव से पश्चिम तक मैदानों में

उत्तर से दक्षिण तक मैदानों में

खूब तपाया है हमें

हरे भरे पत्तों की छाया ने

बाँह पकड़ कर सुलाया है हमें

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिन पर पानी की बूँद पड़ी

ये सारे बन्दे अपने हैं

जिनकी काया यहाँ जली

तू भी इन्हीं हवाओं में

मैं भी इन्हीं हवाओं में                                                                        

जिस राह पे तेरी मंजिल है

उस राह पे मेरी मंजिल है

ये धूप की लौ हमारी है

और ये बारिशें भी

ये तेरा भी धरम है

ये मेरा भी धरम है।

 

  

ये छटाएँ सुन्दर है                                          

हर जना अनिवार्य रूप से सुन्दर है

और अपने रूप से बहक गया है

कुछ कम पलों के लिए सुन्दर है

कि निगाहों में आने से रह गया है

उसे खुद भी पता नहीं चलता

उधाड़ते चलो रास्ते में इन चीज़ों को

जो उसे दबा देती है

उसकी आवाज़ की उफपरी झिल्ली को

हल्के नाखून से पलट दो

देखते रह जाओ पनीर जैसी बनावट को

जो गुलाब के रस से भीगा हुआ है

और खरगोश की तरह धड़कता है

उसकी पहचान की छटाएँ सुन्दर है

और वे सारे पर्दों को हटाकर भी सुन्दर है

उसकी आँते और पफेपफड़ें भी सुन्दर है

हिन्दू या मुसलमान के चेहरे को बांई ओर से देखो

नाक को परछाई दांई ओर हिलती हुई सुन्दर है।


Thursday, March 16, 2023

संघर्ष ही सर्जना है

 राजेश सकलानी


साहित्य लेखन एक पूर्णकालिक व्यवसाय है। एक राजनैतिक कर्म है। हम सभी लोग बचपन में अपने आस पास की जिंदगी में समाजिक पीड़ाएं देख चुके होते हैं और गैरबराबरी से उपजे नतीजों से परिचित हो जाते हैं। साहित्य लेखन के पीछे इसलिए एक व्यवस्था की तलाश अनिवार्यत होती है जहाँ कोई शोषक तकलीफें न पैदा कर सके। इस आयोजन को  प्रकृति और सामाजिक सांस्कृतिक वैविध्य से निसंदेह ताकत  मिलती है। भविष्य के समाज के लिए इसे सुरक्षित करना हमारी बुनियादी प्रतिज्ञाओं में शामिल होता है। इस संदर्भ में हम अपने समय के महत्वपूर्ण कथा लेखक सुभाष पंत के रचनाकर्म को  गर्व और संतोष से देखते है। उनके कथा पात्र हमारे समाज के सामान्य नागरिक है, वे प्रायः निम्र वर्ग से आते है । जीवनयापन करने की मुश्किलों में पंत जी उनके संघर्षों में हमेशा शामिल रहते है। पिछले पांच दशको में प्रकाशित उनके दस कथा संग्रहों और दो  उपन्यासो ( तीसरा उपन्यास शीघ्र प्रकाशय है) के दौरान  जनता के प्रति उनकी निष्ठा में कभी विचलन नही आया है। 

सामान्यतः कथाएं उन चरित्रों के माध्यम से अपनी धारणाएं व्यक्त करती है, जिससे कोई विलक्षणता होती है या उनमें कौतुक पैदा करने वाली घटनाएं होती हैं। लेकिन पंत जी की कहानियों मे पात्र और घटनाएं सामान्य स्तर पर बनी रहती है और लेखक इनमें निहित सुख दुख , यंत्रणा, शोषण और दारिद्र्य के पीछे आधारित व्यवस्था को सूक्ष्मता में पहचान लेते हैं।


सामाजिक व्यवस्था के प्रोटोटाइप की सर्जना करना पंत जी के कथाशिल्प की विशेषता है। उनकी कला किसीभी स्तर पर सामाजिक यथार्थ में विलग नहीं होती। और सामान्य भारतीय नागरिक की व्यथा से अलग वे 'अपने वर्ग हित की कला में नहीं उलझते। अनेको अन्तर्विरोधों से गुजरते हुए वे सामाजिक व्यवहारिक विचलनों को सूक्ष्मता से लक्षित करते हुए वे रचनात्मक तरीके से लोकतान्त्रीक मूल्यों को प्रतिष्ठित करते हैं। 


वे मूलतः समकाल के व्याख्याकार हैं। यह उनकी राजनैतिक प्रतिवद्धता है कि वे हर हाल में गरीब और विवश नागरिक से सन्नध रहे हैं।  अपने पचास साल के  रचनाकाल में उन्होंने कभी अवकाश नहीं लिया। शहरी निम्नवर्गीय जीवन की कथा उनका आवास रहा है। पंत जी की भाषा इसका प्रमाण है कि वे जब लिख नही रही होते है तो उस समय  भी  उनकी जन निष्ठा सक्रिय रहती है।जीवन मूल्यों के तहत उनके लगाव में व्यतिक्रम नहीं है। कभी कभी जिम्मेदारी के परिसर में शौकिया यात्रा करना उनके लेखन का स्वभाव नहीं है। सामाजिक जीवन में ना‌गरिको की बुरी जीवन स्थितियों को अनदेखा करना या उनका सामान्यकरण करने की क्रूरता उनको स्वीकार्य नहीं है।


गाय का दूध 'कहानी से अपने लेखन की शुरुआत में ही उन्होंने पाठको  लेखकों और आलोचको का ध्यान आकृष्ट किया और उनकी दर्जनों कहानियां याद में बनी रहती हैं। देश भर में उनको चाहने वाले पाठक है जिनसे उन्होंने रचनात्मक रिश्ता बनाया है। यह मामूली उपलब्धि नही है। कथाकार और  संपादक (पहल) ज्ञानरंजन ने उन्हें अपना प्रिय लेखक बताया है और माना है कि आलोचकों ने उन पर पर्याप्त ध्यान नही दिया है। प्रसंगवश पंत जी का सुलेख बेहतरीन है। कागजों के पुलिन्दो में उनके द्वारा लिखित पृष्ठ चित्रकला की तरह आकर्षक दिखाई देता है। इस संदर्भ में कथाकार योगेन्द्र आहूजा का सुलेख भी दर्शनीय है। कला अभिरुचि,  शांतचित और धैर्य संभवत इस विशेषता की पृष्ठभूमि है।


'इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प  दौड़  ' ,कथा संग्रह अभी हाल में काव्यान्श प्रकाशन, ऋषिकेश से प्रकाशित हुआ है जिसमें चौदह बेहतरीन कहानियां शामिल है। लेखक की उम्र इस वक्त चौरासी वर्ष है अभी अभी उन्होंने अपना तीसरा उपन्यास पूरा किया है। 


इस संग्रह में "मक्का के पौधे ' कहानी सघन कथ्य,  खूबसूरत भाषा और निम्नवर्गीय जीवन स्थितियों के बीच  उन्नत संवेदनाओं के प्रकटीकरण के लिए याद रखी जाएगी। कथानक की विश्वसनीयता, पात्रों और परिवेश का यथार्थवादी चित्रण ,सटीक संवादों और उच्चतर मानवीय मूल्यों की स्थापना के संदर्भ में लेखक का कौशल हमारे समाज के लिए बड़ी उपलब्धी है। लेखक की खूबसूरत भाषा की पीछे गहन माननीय संवेदनाएं, अग्रगामी विचार‌शीलता, संघर्षशील जनता से सम्पृक्ति और मानवीय दृढ़ता मुख्य कारण है।


इस कथानक में लालता और सुगनी का जवान बेटा जो ट्रक ड्राइवर है एक शादी शुदा औरत को घर ले कर आ जाता है। यह दंपति को मंजूर नहीं है। दो औरतो के अन्तर्द्धत बहुत सघनता से व्यक्त हुए हैं।


"चित्रलिखित सी दिलकश, शीशे में उतरती तस्वीर सी , सुगनी को वह फूटी आंख नहीं सुहाई। हुंह, शहराती नखरे हैं । कहते हैं। औरत के माने तो बस एक सीधा-सच्चा गांव है। ये लच्छन उसे नहीं दिया रिझा सकते। धौखेबाज, भ्रष्ट, पतुरिया"


अपनी वर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण करना लेखन का  सबसे बडा संघर्ष है, मध्यवर्गीय चेतना बार बार  प्रतिगामिता की ओर ठेलती है। इसलिए समाज की अस्मितावादी शक्तियों ने हमें फासीवाद के दरवाजे पर पहुंचा दिया है। इस दौर में छद्म बुद्धिजीवियों के नकाब हटते गए हैं। बाहरी तौर पर जो प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढे थे, उनके चेहरों पर संतोष और सुख का भाव उनकी राजनीति बयान कर देता है। 

सुभाष पंत हर हालात में अपनी मेहनतकश जनता के हमदर्द है। उनकी कहानियां  समाज के नागरिकों को परख करने का सलीका देती हैं। हर तरह का लेखन वास्तव में राजनीति का ही हिस्सा होता है। पंत जी का साहित्य अस्मितावादी राजानीति, भेदभाव और शोषण का प्रतिकार है। वे सच्ची सामाजिक आजादी को परिभाषित करता है।

Wednesday, July 10, 2019

यह काटता नहीं है

युगवाणी एक लोकप्रिय व्‍यवसायिक पत्रिका है। लिहाजा ‘स्वप्‍नदर्शी’ समय और ‘दहशतगर्द’ स्थितियों की एकसाथ प्रस्‍तुति उसमें प्रकाशित होना पेशेवर ईमानदारी के दायरे में ही कही जाएगी। ‘स्वप्‍नदर्शी’ समय जिनकी प्राथमिकता हो वे किसी भी स्‍टॉल से युगवाणी खरीद कर पढ़ सकते हैं।
युगवाणी के जुलाई 2019 के अंक में प्रकाशित राजेश सकलानी के कॉलम ‘अपनी दुनिया’ का एक हिस्‍सा यहां प्रस्‍तुत है।   


वो फुर्तीला और चौकन्ना है। उसकी ओर देखो तो डर लगता है। एक सिहरन उठती है और शरीर बचाव के लिए तैयार होने लगता है। एक सुरक्षात्मक प्रतिहिंसा जायज हो जाती है।
ऐसा अक्सर होता है कि हम आत्मीयता की तलाश में अचानक एक खूंखार नजर आने वाले कुत्ते के सामने पड़ जाते हैं। आप तुरन्त अस्थिर हो जाते हैं और दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं। मनःस्थिति घबराहट में चली जाती है। न आगे कदम बढ़ता है और न पीछे। तभी मेजबान मुस्कराते हुए प्रकट होते हैं, आपकी खराब हालत की परवाह न करते हुए सिर्फ एक वाक्य कहते हैं, ‘’यह काटता नहीं है।‘’
यह तो कोई बात न हुई। इतनी बुरी हालत और अनियंत्रित रक्तचाप पैदा करने की जिम्मेदारी तो आखिर उन्हीं की बनती है। जिन्हें किसी से भी सद्भावना और प्रेम न हो वे हमेशा दूसरों को धमकाने के लिये डरावना कुत्ता पाल सकते हैं और उस पशु पर अपने नियंत्रण को ताकत का हथियार बना सकते हैं। पशु का क्या भरोसा। देखते न देखते वह हमला कर काट भी सकता है। अपने मालिक को वपफादारी का सबूत दे सकता है।
कोई समूह या संगठन ऐसी विचारधारा का प्रसार कर सकते हैं जिससे उनकी धाक नागरिकों को बेचैन करती हो। हमेशा एक अनिश्चितता में डाले रहती हो। फिर वे ताकत और अधिकार के भाव से यह कहते हों कि यह काटता नहीं है। लेकिन वह एक दिन काट लेता हो और फिर वे धमका कर कहें जी हाँ, जो हमारे रास्ते नहीं चलता ये उसे काट लेता है।
कुछ तो कुत्तों को काटने के लिये तैयार करते हैं पर कहते जाते हैं कि यह काटता नहीं है। यह प्रवृत्ति संस्थागत भी होती है। लोगबाग ऐसे संगठन बना लेते हैं। अपने सदस्यों को समझा-बुझा देते हैं। काल्पनिक दुश्मनों की तस्वीरें दिखला देते हैं। सामाजिक व्यवस्था के भीतर अपना दबदबा बना लेते हैं। ऐसे संगठनों की गीली जीभ हवा में धमकती है। पैने और नुकीले दांत चमकते रहते हैं। यदि आप उनके समर्थक नहीं हैं तो बस डरते रहिये और उनका रौब स्वीकार कर लीजिये। वे वाचाल होते हैं और कुतर्कशास्त्र में महापण्डित होते हैं। वे इतिहास, भूगोल, राजनीति और समाजशास्त्र को अपनी मनमानी से बदल देते हैं। वे लोकतंत्र की आजादी का मजा लेते हैं और लोकतांत्रिक भावना का कचूमर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। जाहिर है वैज्ञानिक पद्धति के तर्क में वे हमेशा कमजोर पड़ते हैं और तुरन्त धर्म और परम्परा के खोल में घुस जाते हैं। फिर जमकर कोलाहल मचाते हैं। परम्परायें निरन्तर प्रवाहमान होती हैं और ऐतिहासिक चरणों में नया रूप लेती हैं। वे अपनी निरर्थक होती कोशिकाओं को छोड़ देती हैं और जीवन की नई धारा को ओढ़ लेती हैं। जो तत्व सामाजिक सहृदयतापूर्ण और मानवीय होते हैं वे बाराबर बने रहते हैं। लेकिन संकीर्ण और अलोकतांत्रिक राजनैतिक संगठन परम्परा को जड़ बना डालते हैं। जो उनकी ताकत से असहमत होता है तो भौंकने की आवाज आने लगती है। वे संविधान और देश के कानूनों से परे जा कर अपनी सेनाएँ बनाने की हास्यासपद और समाजविरोधी हरकत करते हैं। सामाजिक मंचों पर यही कहते हैं कि यह काटता नहीं है।

Wednesday, October 10, 2018

घटनाओं के समुच्चय में

हमें कोई गुमान नहीं कि हमने क्या लिखा आज तक। कोई संताप नहीं कि क्या पढ़वाने को मजबूर करती हैं आलोचना। पत्रिकाएं। यह भी हमने नहीं कहा कि सब वैसा ही लिखें जैसा हमें भाता है। पर हम लिखते हैं। लिखना हमारी मजबूरी है। न लिखें तो क्यां करें उन अला-बलाओं का जिनसे अकेले पार पाना संभव नहीं। लिखते हैं कि दूसरे भी पढ़ें । सोचें, और एक से अनेक हो उठे आवाज जालिमों के खिलाफ। हमारा लिखना तब तक एकालाप ही हो सकता है जब तक पढ़ने वाला (ले) उससे सहमत नहीं। यह किसी का वक्तव्य नहीं पर राजेश सकलानी की कहानी ‘जनरल वार्ड’ तो अपने पाठ से ऐसा ही ध्वनित करने लगती है। पारंपरिक पद्धति की कहानी आलोचना की रोशनी में ‘जनरल वार्ड’ को पढ़ा जाएगा तो कहा ही जा सकता है, यह तो कहानी नहीं, कुछ-कुछ कवितानुमा गद्य के रूप में लिखा गया एकालाप-सा है। कहानी में तो घटना होनी चाहिए, पर इसमें तो कुछ घटता ही नहीं। कथित रूप से घटना के न होने को झुठलाती इस कहानी की विशेषता है कि इसे कहानी मानने की जा रही जिदद पर ध्याकन देने वाली निगाह भी इसे हिंदी की कहानी मानने को तो संभवत: तैयार न हो, और उस दायरे में यह आरोप भी मड़ा जाने लगे कि यह तो किसी अन्य भाषा की अनुदित कहानी है, तो उस पर हैरत नहीं करनी चाहिए। क्यों कि शब्द विहीन संगीत की लयकारी के से शिल्प में लिखी गयी यह ऐसी रचना/कहानी है जो पाठक को उसके निजी अनुभवों के संसार में ले जाने मजबूर करते हुए अनेक कथाओं का समुच्चय उसके सामने रख देती है। खास तौर पर तब, जब पाठक कहानी को पूरा पढ़ लेने के बाद दुबारा उसके शीर्षक की ओर ध्यान देता है। लेकिन यहां इस कहानी को शिल्प की वजह से याद नहीं किया जा रहा। क्योंकि कहानी का वह जो शिल्प है] वह भी शिल्प जैसा दिखता कहां है। वह तो कथ्य की स्वाभाविकता में स्वयं उपस्थित हो जा रहा है। 

दिलचस्पप है कि इस कहानी को पढ़ने का सुयोग हिंदी कहानियों की स्थापित पत्रिकाओं की बजाय एक सीमित भूगोल के बीच दखलअंदाजी करती एक नामलूम सी पत्रिका ‘युगवाणी’ ने संभव बनाया है। हिंदी की विस्तृत दुनिया में भी इस बात का पता नहीं चल पाता है कि युगवाणी सरीखी पत्रिकाओं में क्या लिखा गया और क्या छपा। यह कहने में संकोच नहीं कि ऐसी अभिनव रचनाओं को लाने में ‘युगवाणी’ जैसी नामालूम सी पत्रिकाओं की भूमिका ही अग्रणी दिखाई देती रही है, क्योंंकि न तो उनके संपादक को इस बात का कोई गुमान रहता है कि वे कोई बहुत महत्वपूर्ण रचना छाप रहे हैं और न उसके लेखक ही ऐसे मुगालते के शिकार होते हैं। 

‘युगवाणी’ का अक्टूबर 2018 का अंक इस कहानी के साथ-साथ उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के इतिहास का पन्ना बनते शेखर पाठक के आलेख से भी महत्वपूर्ण और संजोये रखने वाला है। 
कहानी ‘युगवाणी’ से साभार यहां प्रस्तुत है। 

यदि पढ़ने का मन न हो तो कहानी को सुना भी जा सकता है। या पढ़ते पढ़ते सुनिये। https://www.youtube.com/watch?v=h2jQs-MAHHU&feature=youtu.be
वि.गौ.

जनरल वार्ड 

राजेश सकलानी

जब तक मैं हूँ मेरे सामान में वजन है। उसमें अलगअलग दिशाओं की ओर बिखरते ख़याल हैंअनगिनत संकेत हैं। लगभग कूट भाषा है। यह रहस्यमयी दुनिया नहीं है। बस दुनिया की करोड़ बातों में अनेक गुम्फित बातें हैं। ये हल्के धागों की तरह है। किसी को वे बेहद उलझी हुई और निरर्थक डोरें लग सकती हैं। मुझे तो ये बिल्कुल साफ़पवित्र और पारदर्शी लगती हैं। कुछ पदवाक्य और कहीं अधूरे वाक्य कागजों पर फैले हुए हैं। ये ही मेरा कुल सामान है। 

मेरे बाद यह कुल सामान एक छोटे से गट्ठर में बाँध दिया जायेगा। एकदम फेंका भी नहीं जायेगा। शायद किसी टांड पर फेंक दिया जाय या घर के गैर जरूरी सामानों के साथ अलमारी के किसी खाने में ठूस दिया जाय। जब भी किसी के हाथ जायेगा दिमाग ये उलझन पैदा करेगा। बारबार दुविधा होगी। इसे कहाँ फेंका जाय या जला दिया जाय। देखने की कोशिश में वक़्त खराब होगा।

इन्हें बाद में देखा ही नहीं जाय। यही मैं चाहूँगा क्योंकि इनका पाठ एक तरफ़ीय हो जायेगा। इनका जबावदेह हाजिर नहीं हो पायेगा। मैं यह दावा नहीं कर सकता कि ये खुद में एक जबाब है। ये अप्रकाशित हैं क्योंकि ये मुकम्मल नहीं हो पाये होंगे। यदि गलती से मुकम्मिल भी हो तो उन्हें मेरा आखिरी स्पर्श नहीं मिलेगा। शायद मैं कुछ तब्दील हो गया होऊँ। किसी भी सूरत में ये दुनिया के सन्दर्भ में अन्तिम पाठ नहीं होंगे। जितने अपमान मेरे ऊपर लादे गये वे सब झूठे थे यह बात अन्तिम है और कभी खत्म न होने वाले हमले अर्थहीन हैं। यह पक्का है। यह शहादत का कोई नमूना नहीं है। यह एक आम बात है। जो हमलों के शिकार होते हैं वे नजर भी नहीं आते। यह एक सच्चाई है जिसे बदलने की इच्छा रखने वाला मैं कोई अकेला और अनूठा सिपाही नहीं हूँ। कोई अख़बार मार खाये लोगों की पड़ताल नहीं करता। वे कहाँ चले जाते हैं और कैसे गुम हो जाते हैंइसका कोई ब्यौरा नहीं मिलता। वे बहुमत में है लेकिन उनकी तस्वीर और बयान साझा नहीं किये जाते। 

यह तय है कि ये लोग खूब जिन्दा रहते हैं। ये अनजाने में भी जिन्दा रहते हैं और जिन्दा रहने का मूल्य अदा करते हैं। यह बुनियादी अर्थवता की लौ बचाये रखने का पवित्र उघम है। ये लोग गेंहूँ’ की डाल में सुर्ख अन्न के दाने की तरह चमकदार होकर ही दम लेते हैं।

मैं अस्पताल के जनरल वार्ड के ठीक बीच में कहीं पड़ा हूँ। मैं कुछ देखता नहीं हूँ। मुझे शब्द और वाक्य साफ नहीं सुनाई देते हैं। बस कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ मष्तिष्क के आकाश में बजती हैं। शायद इनमें मेज खिसकाने की या चादर झाड़ने की आवाजें भी हैं। शायद नर्स ने वाइल के ऊपरी हिस्से का काँच खट से तोड़ दिया है। दवा इंजेक्शन में भरी जाने वाली है। कुछ व्यग्र और चिन्ताकुल खुसपुसाहटें हैं। मैं नहीं हूँ या शायद पूरा नहीं हूँ। मैं थोड़ा सा जिन्दा हूँ। मेरे हाथपाँवगर्दनछातीपेट जैसे कहीं दूर होंगे।

मैं होऊँ या नहीं होऊँ यह जैसे मेरे बस में छोड़ दिया गया है। यह तीखा सा दर्द पता नहीं कहाँ पर है। पहली बार में अपने जिस्म के भीतर को जान पा रहा हूँ। यही मैं हूँ जहाँ विस्फोटक दर्द उठ रहा है।

मुझे याद नहीं आ रहा है कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान। जोर लगा कर भी याद नहीं कर पा रहा हूँ कि वे कौन लोग थे जो भीड़ बना कर मुझ पर टूट पड़े थे। वे लाठियाँ थी जिन्हें सिर्फ हमला करना था। मैं सिर्फ एक जानवर था। मुझे अपने जिस्म पर कम प्यार नहीं है। मैं सारे लोगों के जिस्मों को भी प्यार करता हूँ। बचपन में मैंने लोगों को सुन्दर और असुन्दर लोगों में बाँट लिया था। मैं आकर्षक चेहरों की तलाश किया करता था। बाकी लोगों को अपने दिमाग से हटा लेता था। जल्दी ही मैंने अपनी गलती को जान लिया। हर चेहरा अपने में बेमिसाल है और उसकी अपनी एक अलग कहानी है। उसकी देह का एक राज्य है। उसके पास असंख्य भावनाएँ पल प्रतिपल गति करती हैंजो लोग इस गतिशीलता में थक जाते हैं वे शराब पी लेते हैं या नींद में जाने की कोशिश करते हैं।

मेरे हाथपाँवगर्दनसिरपेट क्या आखिरी तौर पर नष्ट कर दिये गये हैं। मेरी तमाम हड्डियाँ क्या चकना चूर हो गई हैंइस समय मैं सिर्फ तीखा दर्द हूँ और अजीब सी झनझनाहट में हूँ। हर अंग की जगह एक सच्ची अनुभूति ने ले ली है। कोई भी जना अपने भीतर के बारे में कुछ नहीं जानता है। इस वक्त मैं जानता हूँ।

मैंने अपने भीतर की पूरी यात्रा कर ली है। कभी मैं एक ओर बहता हूँकभी दूसरी ओर पानी की तरह चल पड़ता हूँ। मैं कुछ हवा और कुछ पानी की तरह मिलाजुला हूँ। बाहर लोग यही कहते होंगे कि ये मर गया है या मरने वाला है। वे घोषणा किये जाने की बेचैनी से प्रतीक्षा करते होंगे। मैं बताना चाहता हूँ कि मैं परेशान नहीं हूँ। यह पक्का है कि दुनिया में किसी को भी दूसरे के शरीर को गलत इरादे से छूने की इज़ाजत नहीं है। हर आदमी एक देवता की तरह पवित्र है और हर औरत का अपना राज्य है। आप उसमें दख़ल दे कर पाप नहीं कर सकते। वह राज्य हिन्दू या मुसलमान कतई नहीं है जैसे कि पहाड़समुद्रनदियाँखेतजंगलपशु आदि सभी स्वतंत्र होते हैं। वह समूह में भी स्वतंत्र किस्म की स्वायत्तता पाते हैं।

जिन्होंने मेरे साथ बुरा सुलूक कियामेरी भावनाओं को चीथड़ों की तरह बिखरा दियाउनको तो मैं भीतर ही भीतर बहुत चाहता था। उनको मैं आज भी रोकना चाहता हूँ। हमारे पास सबसे कीमती चीज समय है। ये घंटेदिनसप्ताहमहीने और साल बहुत बड़ी पूंजी हैं। इन्हें हमेशा किसी वस्तु को बनाने में ही खर्च करो। हम बढ़ई की तरह सुन्दर कुर्सियाँ और मेजें बना सकते हैं। हम कुम्हार की तरह लुभावने घटे और सुराहियाँ बना सकते हैं। इतने तरह के फल और अन्न के दाने उपजा सकते हैं। कुछ भी बनाने की प्रक्रिया में प्राण की लौ प्रज्ज्वलित रहती है।

अपने महान दर्द के जरिये शरीर के भीतरी अंगों की यात्रा के दौरान मुझे कुछ शान्त और सुकून भरी छोटीछोटी जगहों का पता चलता है। यह शायद रिसते खून से भीगी आँतों के पासशायद यकृत या हृदय के आसपास हो सकती हैं। लोग कितने मूर्ख बनाये जा रहे हैं। उनके दिमागों को कुछ शैतानों ने प्रदूषित कर दिया है। कुछ जहरीले रसायन बातोंबातों में भीतर डाल दिये गये हैं। वे अब भली और बुरी चीजों में ठीक में फ़र्क नहीं कर पा रहे हैं। हत्याओं के समर्थन में नारे लगाते हैं और मासूम लोगों की मौत पर खुशियों का इजहार करते हैं। कहते हैं ये हमारी किताबों में लिखा है। या तो वे किताबें वाहियात हैं या उनके वाहियात मायने बनाने की साजिश की जा रही है।

मेरा सोचना खत्म नहीं हुआ है। यह चकित करने वाली बात है। मैं सिर्फ एक थोड़ी सी बची हुई स्मृति हूँ। यह सारगर्भित स्मृति एक सूत्र की तरह जीबित रह गई है। यह हमेशा कहीं न कहीं गति करती रहेगी। 

मैं एक बूढ़ी के गीत की लयात्मकता में अपनी लहर के साथ आसानी में घुलमिल जाता हूँ। शायद वह बूढ़ी न हो। वह गीत अपने में एक पहाड़ हैएक जंगलएक गीत। वह गीत और गायिका और आसपास  की सारी चीजें एक साथ प्रकाशमान हो जाती हैं। एक ओर भीड़ का खौफनाक शोर है जो लाठी डंडों को लेकर मुझ पर टूट पड़े थे। वे बेतहाशा मुझ पर वार करते हैं। मैं बचने की भरसक कोशिश करता हूँ। तब तक दनादन मुझ पर चोटें जारी रहती हैं। अंत में मैं अपने हाथ पावों को बचाने की कोशिश छोड़ देता हूँ। हर पल एक कड़े और घातक प्रहार की प्रतीक्षा करता हूँ। एक तीखा दर्द उठेगा और सभी दर्दों का अंत हो जायेगा। मुझे बड़ा आश्चर्य है कि मैं भयभीत नहीं हूँ।

मेरे एक दोस्त कई दशकों से पहाड़ों में गाँवगाँव घूम रहे हैं। वे लोकगीतों का संग्रहण करते हैं। थोड़ीथोड़ी आबादियाँ और बहुत सारी प्रकृति उनकी जिन्दगी है। गुजर गये अनाम लोगों की पीड़ाओं और उल्लास को जंगलों से और नदियों से ढूंढ लाते हैं। बहुत सारे बीते अनुभव यहाँवहाँ दबे हुए हैं। वे ढूंढ लाने में कभी कामयाब हो जाते हैं। यह ढूंढना अपने आप में एक विराट अनुभव है। एक अनजान औरत का गायन उन्होंने अपने मोबाइल फोन में रिकॉर्ड कर लिया। वह औरत अब खो चुकी है। गायन का वह पल भी आसमान से गायब हो गया है। वह गीत अपनी करूण ध्वनि के साथ मेरे दोस्त की स्मृति में है और उसकी अनुकृति उस मोबाइल की स्मृति में है। गायिका की आवाज हमारी आदि कालीन माँ की आवाज है। उसमें पीड़ा और लगाव कंपकपाता है। ट्टहे रामाहे परभूचैत का महीना जिकुड़ी में लगता है। कुछ ऐसा बयान उनमें है। यह कितना सुघड़ और पूर्ण संगीत है। जंगल और दिल के सूनेपन को एक मीठी पीड़ा में रचता हुआ।

कुछ पलों के लिए मैं कहीं परम अति सुन्दर जगह में विचरने लग गया था। मेरी सच्चाई तो यह जनरल वार्ड है। यहाँ बेवजह हिंसा के मारे हुए लोग इकट्ठा हैं। यौन हिंसा की मारी बच्चियाँ और बच्चे हैं। तमाम औरतें हैं और आदमी है। उन्हें पता नहीं है कि उनके कोमल जिस्मों को क्यों इतनी पीड़ा दी गई है। उनके सभी अंगों को तोड़फोड़ दिया गया है। ये सभी बेहद नाराज़ हैं और किसी से बात नहीं करना चाहते क्योंकि इन्हें किसी पर भरोसा करने की इच्छा नहीं है। ये देश और जाति की सीमाओं को बिल्कुल नहीं मानते हैं। इन्होंने पृथ्वी से बहुत दूर जा कर ठीक से जान लिया है। इनके जनरल वार्ड के कोई पास भी नहीं फटक सकता। यह बेवजह मारे पीटे हुए लोगों का वार्ड है। पता नहीं क्यों खानेपीनेपहिननेपूजा करने या नहीं करने के कारण लोगों को मारा जा रहा है। हमारे शरीर को कैसे भी कोई छू सकता हैयहाँ देवता सरीखी दैदीप्यमान छोटी बच्चियाँ रोती रहती हैं।