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Wednesday, May 22, 2019

सांसारिक चमत्कार की खोज के लिए



तमाम हरकतों से भरी दुनिया में आम जन मानस की दैनिक गतिविधियों का अनदेखा रह जाना एक सामान्‍य-सी बात है। खूबसूरत इमारतों, विभिन्‍न आकरों की बेहतरीन दिखने वाली गाडि़यों, सौन्‍दर्य के निखार में चार चांद लगा देने वाले प्रसाधनों के विज्ञापनी दौर में ऐसा हो जाना कोई अनोखी बात नहीं। फिर ऐसा भी क्‍या विशेष है उन दैनिक गतिविधियों में जिन्‍हें देखा जाना जरूरी ही है ॽ स्‍वाभाविक है ऐसे सवालों के उत्‍तर उतने सीधे सरल तरह से नहीं दिये जा सकते कि 'विकास' की अंधी दौड़ में झल्‍लाती दुनिया को संतुष्‍ट किया जा सके।      

ब्रश और रंगों के कलाकार बिभूति दास के चित्रों से गुजरने के बाद लेकिन कहना असंभव है कि ऐसे सवालों के जवाब दिये ही नहीं जा सकते। 5 अप्रैल 2019 से 11 अप्रैल 2019 तक ऑल इण्डिया फाइन आर्टस एवं क्राफ्ट सोसाइटी, नई दिल्‍ली में आयोजित बिभूति दास के चित्रों की एकल प्रदर्शनी में ऐसे कितने ही चित्र थे जिनमें दैनिक जीवन की गतिविधियां दर्ज होती हुई थी। दिल्‍ली की सड़कों पर मौजूद तेज रफ्तार के बरक्‍स आईफा के हॉल के माहौल की खामोशी का रंग जूतों को चमकाते मोची की मुस्‍कान पर उभार लेता था। ग्राहक का इंतजार करती गन्‍ना पैर कर रस निकालने वाले कामगार की आंखों में एक आश्‍वस्ति का भाव खामोशी के उस चिंतन के प्रति चेताता था जिसमें चित्रों की भव्‍यता उनके विन्‍यास में नहीं बल्कि उस दृष्टि में मौजूद थी जो उपेक्षित रह जा रहे दैनिंदिन को दर्ज करने पर आमादा है। मीठे नारियल पानी की इच्‍छा जगाता पेड़ पर चढ़कर नारियल तोड़ता कामगार, ढोलक बेचने वाला ढोलकी, अपनी नन्‍हीं बेटी को समुद्र के विस्‍तार से परिचित कराता पिता जलरंगों के माध्‍यम से बने उन चित्रों में दर्ज थे। वस्‍तुएं गहरे रंगों में रंगी होने के बावजूद मानवीय भावों की उजास में हर परिस्थिति से निपट लेने की दृढ़ता इस बात के लिए आश्‍वस्‍त करती हुई थी कि दैनिक जीवन की गतिविधियों का यूं चित्रों में ढल जाना अनायास नहीं, एक सायास प्रयास ही रहा होगा। बिभूति दास की यह पहली ही प्रदर्शनी इन उम्‍मीदों से भर कह जा सकती है भविष्‍य में गहरे रंगों वाले मानवीय चेहरे भी उत्‍साह की लकीरों से दमकते हुए दिखने लगेगें।        
 
विजय गौड़

Saturday, December 22, 2018

हिंदी जापानी साहित्य संवाद


हिंदी की महत्वपूर्ण कथाकार अल्पना मिश्र की 15 दिनों की  जापान की साहित्यिक यात्रा, भारत और जापान के साहित्यिक-, सांस्कृतिक सम्बन्ध की दिशा में एक बड़ा कदम है । हिंदी साहित्य के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब कोई हिंदी का लेखक  वैश्विक स्तर पर सीधा संवाद कर रहा था।  यह दोनों देशों के बीच एक ऐसा बहु आयामी संवाद था जिसे न सिर्फ लंबे वक्त तक याद रखा जाएगा, बल्कि यह दुनिया के इतिहास में   दर्ज की गई परिघटना है। इस दौरान दुनिया के मशहूर लेखकों  में शुमार हिरोमी इटो के साथ अल्पना मिश्र का  विचारोत्तेजक ढाई घंटे का सीधा संवाद दोनों देशों के लिए एक उपलब्धि बना, जो सहेज कर रखने योग्य है।

इस दौरान अल्पना मिश्र के जीवन और लेखन के विभिन्न पहलुओं पर एक वृत्तचित्र भी दिखाया गया।
 
जापान के चार मुख्य शहरों में आयोजित विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रम अल्पना मिश्र के लेखन और जीवन पर फोकस किया गया था। इस कार्यक्रम श्रृंखला की शुरुआत 22 नवंबर को इबाराकी में ओटेमोन विश्वविद्यालय के साथ वहाँ के कल्चरल सेंटर में हुई। यहां अल्पना मिश्र ने लम्बा व्याख्यान दिया, जिसमें भारतीय संस्कृति और स्त्रियों की स्थिति पर टिप्पणी के साथ अपनी लेखकीय यात्रा के बारे में भी उन बातों का उल्लेख किया जो उनके लेखक बनने में सहायक रहीं, जिसमें दुनिया के विभिन्न भाषाओं की उन पुस्तकों का भी जिक्र आया जिसने उनके जीवन पर प्रभाव छोड़ा था। व्याख्यान के बाद उपस्थित जापान के बौद्धिकों के साथ भारत जापान के साहित्यिक सांस्कृतिक परिवेश से संबंधित खुला संवाद हुआ । 25 नवंबर की सुबह ओसाका विश्वविद्यालय, ओसाका में जापानी छात्रों के साथ संवाद का सिलसिला जारी रहा । यह एक सुखद बात थी कि जापानी छात्रों में भारत के सांस्कृतिक परिवेश को समझने की जिज्ञासा तीव्र नजर आई । भारत जापान के रिश्ते की मजबूती के लिए साहित्य और संस्कृति को एक सेतु बनाना चाहते हैं । यहाँ उनकी बातों का जापानी में अनुवाद प्रोफेसर ताकाहाशी ने किया। दुनिया की सबसे तेज पूर्ण विकसित व्यस्त और इनोवेटिव शहर टोक्यो में, टोक्यो विश्वविद्यालय के प्रांगण में 28 नवंबर को अल्पना मिश्र के कथा साहित्य के बहाने भारत और हिंदी के मन मिजाज को समझने की  उत्कटता अभिभूत करने वाली थी। अल्पना मिश्र के व्याख्यान के बाद जापान के दो प्रखर आलोचकों कोजी तोको और नाकामुरा काजुए ने अल्पना मिश्र के कथा साहित्य की गहन समीक्षा की।



राजकमल से प्रकाशित उनके उपन्यास 'अस्थि फूल' की रचना प्रक्रिया और उसके सामाजिक राजनैतिक पहलुओं पर विस्तार से बात हुई। 01 दिसम्बर को जापान के खूबसूरत शहर कुमामोटो में जापान की विश्व प्रसिद्ध लेखक हिरोमी ईटो से अल्पना मिश्र का सीधा संवाद हुआ। हिरोमी इटो ने संवाद के क्रम में अल्पना मिश्र से उनकी रचनाओं और भारत में औरतों के हालात के संबंध में  तीखे  सवाल किए जिनका उन्हें माकूल जवाब भी मिला ।वह प्रसन्न और  संतुष्ट भी हुई। दोनों लेखकों ने अपनी अपनी रचनाओं के अंशों का पाठ भी किया । अल्पना मिश्र के साहित्य का जापानी में किये गए अनुवाद की बुकलेट श्रोताओं के बीच सभी शहरों में वितरित की गई। यात्रा के दौरान कई प्रमुख हस्तियों ने कथाकार अल्पना मिश्र  से संवादों - साक्षात्कारओं के मार्फत उनके लेखन और हिंदी कथा साहित्य के परिवेश को जानने समझने की कोशिश की, जिनमें जापान में हिंदी विद्वान प्रोफेसर मिजोकामी, प्रोफेसर नाम्बा, प्रोफेसर कोमात्सु, श्री याजीरो तनाका, डॉ चिहिरो कोइसो, श्री रीहो ईशाका, श्री हाईदकी इशीदा के साथ साथ अनेक जापानी मीडिया के लोग, प्रोफेसर, फॉरेन ऑफिसर्स, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, रसियन,चीनी, जर्मन भाषा के विशेषज्ञ और बौद्धिक शामिल थे।


चंद्रभूषण तिवारी




Wednesday, April 25, 2018

वह इतना सुलभ नहीं

सुनता हूं सैन्नी अशेष मनाली में रहते हैं। अफसोस कि मेरी कभी उनसे मुलाकात नहीं हुर्इ। कितनी ही बार रोहतांग के पार मेरा जाना हुआ, अशेष को खोजा, पर वे न जाने किन कंदराओं में छुपे बैठे रहे। अपने कवि मित्र अजेय से भी उनका पता ठिकाना जानना चाहा, पर वे मुस्कराते ही रहे और एक रहस्य बुनते रहे। दरअसल सैन्नीे अशेष को मैं उनके लिखे से जानने लगा था। वर्षों पहले ‘समयांतर’ में उनको पढ़ा था। दिलचस्पक यात्रा वृतांत था वह, अभी इतना ही याद है उसमें विकासनगर, देहरादून का कोई ऐसा संदर्भ आया था कि लेखक मानो विकासनगर, देहरादून में रहता हो। देहरादून के नजदीक पहाड़ों पर घुमक्कड़ी करने वाला ऐसा कोई दिलचस्पव व्यक्ति रहता हो जो लिखता भी मस्त हो, आखिर खुद होकर उससे सम्पमर्क करने को मैं उतावला क्यों न होता। समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट जी को फोन करके दिलचस्पस यात्रा वृतांत के लेखक का फोन नम्बर मांगा और फोन घड़घड़ा दिया। बस वही फोन की क्षणिक मुलाकात रही। जिसने आज तक मिलने की प्यास को जगाया हुआ है। बस फेसबुक में ही उन्हें मिल पाना होता है। यूं भी उस वक्त जब मैंने दारचा होकर जंसकर के चक्कर लगाने वाला होता था, उस दौरान सैन्नी अशेष ऐसे सुलभ भी तो नहीं थे। यकीन नहीं तो अजेय से पूछ लिया जाए। पर अजेय शायद इस पर भी कोई टिप्पणी आज भी न करे, हां मुस्करा तो देंगे ही।

अभी पढ़े सैन्नी अशेष की एक दिलचस्प रिपोर्ट उनके ही इस अंदाज के साथ - इस पोस्ट को सब पचा ही लें, ऐसा किसी पर मेरा प्रेशर न माना जाए। मेरी सह-अनुभूति उन लोगों से है जिन्हें आती तो है पर भीतर जाकर न्यूटन के सिद्धांत को अंगूठा दिखाकर विचित्र ग्रेविटेशन में स्थगित हो जाती है और तो भी पैसे देने पड़ जाते हैं।


उस दबंग लड़की को देखकर मैं ठिठक गया.
वह नवविवाहिता लग रही थी. मेरे ही पहाड़ की थी, मगर उसकी सजधज मनाली में आने वाली हनीमूनिया 'मुनिया' जैसी थी। वह किसी से लड़ रही थी.
मनाली के मॉल पर आसपास तीन सुलभ शौचालय मिलाकर पांचेक टॉयलेट हैं। आपको अगर आ ही जाए और टरकाए न बने तो किसी भी एक में दो मिनट में पहुँच कर हाजत को रफ़ादफ़ा कर सकते हैं। घंटा भर वहां ध्यान भी करते रहें तो बाहर से कोई दस्तक नहीं देगा। मनाली में शौच-शिविर का अपना परमानन्द है। मॉल से सटे होटलों और रेस्तराओं की कतारों में तो टॉयलटों की भरमार ही है, क्योंकि अधिकाँश भारतीय परिवार यहां खाने-पीने और निकालने ही आते हैं। दिन में एक बार तो मर्यादा पुरुषोत्तमों को भी निबटना ही होता है सोने का हिरण या सोने की लंका का रावण मार कर!

"मैं उस चीज़ के पैसे क्यों दूं, जो मैंने की ही नहीं?" वह सरेआम चिल्ला रही थी।

यही सुनकर मैं ठिठका था और उस पर कुर्बान हो गया था।

किसी सार्वजनिक, मगर ख़ूबसूरत शौचालय के बाहर आजतक मैंने इतना खुशबूदार सवाल किसी पुरुष के मुंह से तो दूर, किसी हिज़हाइनेस हिज़ड़े तक के मुंह से निकलता नहीं सुना था.

सुलभिया जवान घबरा गया था, क्योंकि सामने टहलते पूरी दुनिया के सैलानी मेरे पीछे ठिठकने लगे थे. मॉल यों भी मनाली का अंतर्राष्ट्रीय विचरण-स्थल है.

सुलभ-जवान ने झिझकते-शर्माते हुए कहा :
"मैम, मुझे क्या पता आपने क्या किया? हम तो पांच रुपए ही लेते हैं."

लड़की गरजी :
"तुम लोग पहले हमें तोल लिया करो और वापसी में फिर तोल लिया करो कि हमने भीतर जाकर क्या किया?"

मैंने मौके का फ़ायदा उठाकर लड़के से कहा :
"मुझसे तो तुम कुछ भी नहीं लेते?"
"आप मर्द हैं। मर्दों के लिए यूरिनल की अलग जगह है."

अब लड़की चिल्लाई :
"हमारे लिए अलग-अलग जगह क्यों नहीं है?"
"यह आप सरकार से पूछो।"

अचानक भीतर से एक युवक बाहर आया और उस लड़की से धीरे से बोला :
"क्यों तमाशा बना रही हो? चलो."

वह शायद उसका नवविवाहित था।

सुलभ युवक मुझसे बोला :
"एक ने पेशाब किया होगा, एक ने पॉटी ... दोनों में से किसी ने पैसे नहीं दिए।"

तो भी लड़की की बात अपनी जगह बिलकुल सही थी.
मनाली में सुलभिये पर्यटक स्त्रियों से अक्सर दस रुपए लेते भी देखे जाते हैं। 
वह भी दो मिनट आने-जाने के !

वह भी तब, जब मनाली में अधिकाँश स्त्री-पुरुष सैलानी एक जैसे नज़र आते हैं। अर्धनारीश्वर या अर्धनरेश्वरी !

क्या शौच मीटर नहीं लगाए जा सकते?
ज़्यादा करने या ज़्यादा बैठने वालों से ज़्यादा फीस लेकर कम समय में कम निकासी करने वालों को राहत दी जा सकती है।

उस ह(ग)नीमूनिया मुनिया का धन्यवाद्।


Sunday, November 12, 2017

साहित्य और प्रर्यावरण के अन्तर संबंध


पर्यावरण चेतना और सृजन के सरोकार जैसे सवालों पर विचार-विमर्श करते हुए कोलकाता की सुपरिचित संस्था साहित्यिकी ने भारतीय भाषा परिषद में 11 नवंबर 2017 को एक राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया। परिसंवाद में भागीदारी करते हुए जहां एक ओर हिंदी कविताओं में विषय की प्रासंगिकता को तलाशते हुए जहां डा. आयु सिंह ने हिंदी कविता में विभिन्न समय अंतरालों पर लिखी गई अनेक कवियों की कविताओं को उद्धृत करते हुए अपनी बात रखी वहीं ठेठ जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल ने जन समाज की भागीदारी की चिंताओं को सामने रखा। दूसरी ओर पर्यावरणविद, वैज्ञानिक एवं साहित्य की दुनिया के बीच अपने विषय के साथ आवाजाही करने वाले यादवेन्द्र ने अपने निजी अनुभवों को अनुभूतियों के हवाले से पर्यावरण के वैश्विक परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए न सिर्फ पर्यावरण को अपितु पूरे समाज को पूंजी की आक्रामकता से ध्वस्त करने वाली ताकतों की शिनाख्त करने का प्रयास किया।
कार्यक्रम के आरंभ में 'साहित्यिकी' संस्था, कोलकाता की सचिव गीता दूबे ने संस्था की गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण देते हुए अतिथियों का स्वागत किया। तत्पश्चात वाणी मुरारका ने‌ मरुधर मृदुल की कविता 'पेड़, मैं और हम सब' का पाठ किया।  'साहित्य और पर्यावरण' पर अपनी बात रखते हुए डा. इतु सिंह ने कहा कि प्रकृति प्रेम हमारा स्वभाव और प्रकृति पूजा हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। उन्होंने जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय‌ आदि की कविताओं  के हवाले से प्रकृति के प्रति उनके लगाव और चिंता को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि बाद में भवानी प्रसाद मिश्र आदि ने प्रकृति प्रेम की ही नहीं प्रकृति रक्षण की भी बात की। हेमंत कुकरेती, केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल, कुंवर नारायण,  उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, वीरेंद्र डंगवाल, मनीषा झा, राज्यवर्द्धन, निर्मला पुतुल की कविताओं में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा बेहतरीन ढंग से उठाया गया है।
पूर्व बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पर्यावरणविद सिद्धार्थ अग्रवाल ने कहा कि पर्यावरण और स्थानीय भाषा दोनों के साथ असमान व्यवहार होता है। प्रकृति का अनियमित शोषण हो रहा है। नदियों का लगातार दोहन हुआ है। जागरूकता के अभाव में पानी बर्बाद होता है। आज के समय में हम विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन देख रहे हैं। केन बेतवा परियोजना के कारण बहुत बड़ी संख्या में पेड़ डूबने वाले हैं। उन्होंने अपना दर्द साझा करते हुए कहा कि आज के समय में पर्यावरण के लिए काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है।
"पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासतें" विषय पर दृश्य चित्रों‌ के माध्यम से अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए यादवेन्द्र ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की कीमत हमने ऋतुओं के असमान्य परिवर्तन के रूप में चुकायी है। गंगोत्री ग्लेशियर लगातार पीछे की ओर खिसकता जा रहा है। पांच छः सालों के बाद केदारनाथ मंदिर में चढ़ाया जानेवाला ब्रह्मकमल खिलना बंद हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन के लक्षणों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा  कि अगर दुनिया ने अपने चाल और व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया तो चीजें ऐसी बदल जाएंगी कि दोबारा उस ओर लौटना संभव नहीं हो पाएगा। राष्ट्रीय धरोहरों पर  निरंतर बढ़ते जा रहे खतरों की चिंताएं भी उनके व्याख्यान का विषय रहीं।
अध्यक्षीय भाषण में किरण सिपानी ने कहा कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों की वजह से हमारा अस्तित्व खतरे में है। अभी भी लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता का अभाव है। हम अदालती आदेशों से डरते हुए भी सरकारी प्रयासों के प्रति उदासीनता बरतते हैं। आवश्यकता है अपनी उपभोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की। प्लास्टिक पर रोक लगाने की बजाय उनका उत्पादन बंद होना ‌चाहिए।

परिचर्चा में पूनम पाठक,  विनय जायसवाल, वाणी मुरारका आदि ने हिस्सा लिया। शोध छात्र, प्राध्यापक, साहित्यकार, पत्रकार, युवा पर्यावरण कार्यकर्ता एवं विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर चिंता जाहिर करने‌वाले लोगों की एक  बड़ी संख्या ने कार्यक्रम में हिस्सेदारी की।
कार्यक्रम का कुशल  संचालन रेवा जाजोदिया और धन्यवाद ज्ञापन विद्या भंडारी ने किया।

एक साहित्यिक संस्था का जनसमाज को प्रभावित करने वाले विषय में दखल करने की यह पहल निसंदेह सराहनीय है।

Wednesday, May 18, 2016

व्‍यक्तिगत पहल की सामूहिक गतिविधियां




7-8 मई 2016 को कुशीनगर में जोगिया जनूबी पट्टी में संपन्‍न हुआ लोक उत्‍सव इस बात की बानगी है कि लोक नाट्य, लोकगीत, जनगीत और समाज, साहित्‍य, संस्‍कृति के साथ साथ अभिव्‍यक्ति की आजादी की बातें कैसे गांव वालों की बतकही का हिस्‍सा बनायी जा सकती है। आनंद स्‍वरूपा वर्मा, रविभूषण, मदनमोहन सरीखे हिन्‍दी के बुद्धिजीवि, आलोचक, रचनाकारों के साथ साथ देश भर के भिन्‍न भिन्‍न भागेां से आये लोक कलाकारों का सामूहिक जमावड़ा दो दिनों तक वहां लोक को समझने ओर समृद्ध करने की उस औपचारिक कार्यवाही का हिस्‍सेदार रहा जो पिछले नौ वर्षों से जोगिया जनूबी पट्टी की हलचल बना हुआ है। कुशीनगर का यह लोक उत्‍सव जनभागीदारी की एक सहज और स्‍वाभाविक गतिविधि के रूप में जाना जाने लगा है। इस बार का कार्यक्रम हिन्‍दी के जन कवि विद्रोही जी को समर्पित था, और उस मूल विचार के अनुकूल था जिसका लक्ष्‍य मानवता के दुश्‍मनों को पहचानने और उनसे टकराने के लिए जनसमूहों के बीच व्‍यापक एकता के सूत्र बनाते रहने में यकीन रखने वाला होता है।
कुशीनगर में हर वर्ष आयोजित होने वाला यह लोक उत्‍सव पूर्वांचल की उस हवा का का एक कतरा कहा जा सकता है, जिसका लगातार बहाव पिछले कुछ वर्षों से इस भूगोल में मौजूद है। हिन्‍दी भाषा का विशाल क्षेत्र, जिसे अक्‍सर हिन्‍दी पट्टी कह दिया जाता है, पश्चिम में राजस्‍थान से लेकर पूरब में बिहार, झारखण्‍ड तक एवं उत्‍तर में उत्‍तर-पश्चिम हिमालय क्षेत्र के राज्‍य हिमाचल और उत्‍तराखण्‍ड से लेकर मध्‍यभारत तक फैला हुआ है। विविध सांस्‍कृतिक विशिष्टिताओं वाले जनसमाजों के बावजूद इस पूरे भू भाग में संयुक्‍त रूप से होने वाली किसी भी सांस्‍कृतिक गतिविधि की कोई बड़ी गूंज सुनायी नहीं देती है। इसे सांस्‍कृतिक शून्‍यता तो इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्‍योंकि हिन्‍दी की रचनात्‍मक दुनिया का जो कुछ भी है वह ज्‍यादतर इन जगहों से ही आता है। तो भी एक प्रकार से यहां  के माहौल सांस्‍कृतिक जड़ता की व्‍याप्ति तो दिखायी देता ही है। कारणों को खोजे राजनैतिक, सामाजिक आंदोलन का आभाव मूल वजह के रूप में दिखता है। जिसकी वजह से रचनात्‍मक लोगों के बीच भी एकजुटता बनने का कोई रास्‍ता बनता हुआ नहीं दिखता है।

लेकिन यह उल्‍लेखनीय है कि पिछले पच्‍चीस तीस सालों में पूर्वांचल यह भूभाग बीच बीच में कुछ ऐसी गतिविधियां का हिस्‍सा रहा जिनका उद्देश्‍य चारों ओर फैली हुई सांस्‍कृतिक जड़ता को तोड़ना रहा। एक समय में गोरखपुर एवं उसके आस पास के क्षेत्रों में पैदा हुआ जनचेतना का आंदोलन जो राहुल फाउण्‍डेशन की शक्‍ल लेता हुआ बाद में लखनऊ तक विस्‍तार किया। लगभग उसी दौर के आस पास आजमगढ़ के जोकहरा गांव में स्‍थापित हुआ श्री रामानान्‍द सरस्‍वती पुस्‍तकालय। लगभग पिछले दस वर्षों से जारी प्रतिरोध का सिनेमा कार्यक्रम जो अन्‍य नगरों तक विस्‍तार लेता हुआ है।  
जनचेतना एवं राहुल फाउण्‍डेशन और प्रतिरोध का सिनेमा जैसे कायर्क्रमों का चरित्र जहां आरम्‍भ से सांग‍ठनिक गतिविधियों का हिस्‍सा रहा, वहीं कुशीनगर का लोक उत्‍सव और जोकहरा गांव का श्री रामानन्‍द सरस्‍वती पुस्‍तकालय अपनी अपनी में हिन्‍दी के दो लेखकों की स्‍वतंत्र-स्‍वतंत्र परिकलपानायें कही जा सकती हैं। गांव के हालातों पर अपने पैनी निगाह रखने वाले हिन्‍दी के महत्‍वपूर्ण कथाकार सुभाष चंद्र कुशवाह ने अपने गृहगांव जोगिया जबूनी पट्टी में लोकरंग उत्‍सव की शुरूआत की तो कथाकार विभूति नारायण राय ने अपने पैतृक गांव जोकहरा के विकास को अपनी सामाजिक जिम्‍मेदारी मानते हुए पुस्‍तकालय की नींव रखी। विकास नारायण राय सरीखे प्रखर रचनाकारों का भी रचनात्‍मक सहयोग पुस्‍तकालय को मिलता रहा।

दिलचस्‍प है कि दो दिनों के लोक उत्‍सव का रंग पूरे गांव में साल भर तक बनी रहने वाली उस अमिट छाप के रूप में मौजूद रहता है जो प्रत्‍यक्ष तौर पर रंगों में उभरती आकृति होती हैं, लेकिन अप्रत्‍यक्ष तौर पर जिसके अक्‍श गांव के नौनिहालों के बचपन को एक बेहतर नागरिक बनाने वाले प्रभावों में दर्ज होते जा रहे हैं। ठीक इसी तर्ज पर पर 1993 में आजमगढ़ के जोकहरा गांव में की गयी पुस्‍तक संस्‍कृति के विकास की पहल आज ऐसे पुस्‍तकालय के रूप में है जिसके कामों का दायरा महिला हिंसा और जाति हिंसा सवालों के प्रति नागरिक चेतना के विकास में गांव भर के लोगों से रोज का संवाद होना भी हुआ है।  पुस्‍तकालय अपनी एक ऐसी बिल्डिंग के साथ खड़ा है जिसमें हिन्‍दी की तमाम लघु पत्रिकाओं के अनुपलब्‍ध अंक सुरक्षित रखे हैं। लघु पत्रिकाओं का ऐसा संग्रह मेरे जानकारी में तो देश के किसी अन्‍य पुस्‍तकालय में नहीं है। इस लिहाज से देखें तो शोधार्थियों के लिए यह एक महतवपूर्ण पुस्‍तकालय है जहां तथ्‍य की उपलब्‍धता संपादित होकर प्राकाशित हो चुकी पुस्‍तकों की बजाय समय काल की जीवन्‍त बहसों के रूप में है। हंस, कथादेश, सारिका ही नहीं, पहल, कल्‍पना, पूर्वग्रह, कहानी, कहानीकार, अणिमा आदि बहुत सी विलुप्‍त हो चुकी पत्रिकाएं भी यहां सुरक्षित ही नहीं है, अपितु जिनकी व्‍यवस्‍था के लिए नियमितता का तंत्र मौजूद है। पुस्‍तकालय की सेवाओं को प्राप्‍त करने के लिए आने जाने वाले अध्‍येताओं और अतिथियों की आवास और भोजन सुविधा को भी यहां अपने सीमित साधनों में निपटा लिया जाता है।
व्‍यक्तिगत प्रयासों से शुरू होने वाली ये दोनों ही गतिविधियां लगातार सामूहिकता की ओर बढ़ती हुई हैं जिनके असर में आयोजन स्‍थलों के आस पास का भूगोल आंदोलित होता हुआ है और सामाजिक माहौल को परिमार्जित, परिष्‍कृत करता हुआ है।

Monday, May 7, 2012

कहानी-पाठ और परिचर्चा

२८ अप्रैल २०१२  को इलाहबाद शहर में प्रसिद्ध  कहानीकार  अल्पना मिश्र का  कहानी-पाठ तथा उनके तीसरे नवीनतम कहानी-संग्रह  "कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी " पर परिचर्चा का आयोजन किया गया . यह आयोजन जन संस्कृति मंच तथा हिंदी विभाग ,इलाहबाद  विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में विभाग के सभागार में संपन्न हुआ  . परिचर्चा का प्रारंभ जन संस्कृति मंच के सचिव व आलोचक  प्रणय कृष्ण के  स्वागत -व्यक्तव्य से हुआ . उन्होंने कहानीकार अल्पना मिश्र का परिचय दिया  और  उन पर लिखित हिंदी के मुख्य कथाकारों  कृष्णा सोबती, चित्र मुद्गल और ज्ञानरंजन के विचार पढ़ कर सुनाये . इस प्रकार अल्पना मिश्र के कहानियों के वृहत्तर परिदृश्य का परिचय उपस्थित विद्वान्  श्रोताओं को दिया . अपने आत्म-व्यक्तव्य में अल्पना मिश्र ने आज के समय और समस्याओं की ओर संकेत करते हुए कहा, " जीवन पहले भी इकहरा नहीं था , पर आज  जटिलताए बढ़ी हैं  . आज के समय में दो तरह की सामानांतर दुनिया  है, एक तरफ  चमकती हुई दुनिया है , भौतिकता की प्रतिस्पर्धा है जो की पैदा की गयी है , स्वाभाविक नहीं है . दूसरी तरफ अन्धकार की दुनिया है जिसमें शोषण , दमन, विस्थापन ,गरीबी ,जन-असंतोष और जनांदोलनों का उभार है . एक लेखक की जिम्मेदारी है कि वह इन दोनों के बीच के परदे को खींच कर असल दुनिया सामने लाये . वह सच सामने लाये जो दरअसल बेदखल तो कर दिया गया है पर अपनी अनुपस्थिति में भी उपस्थित है . मेरा लेखन इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है ." आत्म-व्यक्तव्य के बाद उन्होंने नए संग्रह की पहली कहानी 'गैर हाज़िर में हाज़िर' का पाठ किया . परिचर्चा का प्रारंभ करते हुए  अनीता गोपेश ने अल्पना मिश्र को स्पष्ट सरोकारों का कहानीकार बताया . उन्होंने कहा ."अल्पना जी की कहानियां बहुत तेजी से ऊपर से गिरता हुआ प्रपात नहीं है जिसके छींटे आपको भिगों दें, बाढ़ में उफनती नदी नहीं है जो आपको बहा ले जाए बल्कि एक ऐसी शांत नदी है जो अपने सतत प्रवाह में चलती है आपको आह्वान करती हुई की आओ मेरे साथ चलो और समय की गति को पकड़ो , देखो दोनों कूलों पर क्या घटित हो रहा है . अल्पना जी की कहानियों में स्त्री-विमर्श की जगह सशक्तिकरण है. परिचर्चा  के क्रम में आलोचकीय वक्तव्य देते हुए  प्रणय कृष्ण ने तीनों संग्रहों को क्रमानुसार नहीं बल्कि समानांतर देखने की बात कही . उन्होंने कहा ,'ये तीनों संग्रह २१ वीं शताब्दी के हैं और इसलिए २० वीं शताब्दी में  जो कुछ हुआ और नया कुछ जो इस शताब्दी में होना है उन दोनों के जंक्शन पर लिखी हुई ये कहानियां हैं .' उन्होंने कहानियों के शिल्प के बारे में बताते हुए कहा कि 'जो लोग आतंरिक विवशता से लिखना शुरू करते हैं वो शिल्प से आक्रांत नहीं होते और जो ऐसा नहीं करते उनकी चिंता शिल्प पे ही टिकी रहती है . चित्रा मुद्गल इसिलए इनकी कहानियों के बारे में लिखती हैं कि ये शिल्पाक्रांत नहीं हैं.'  परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कहानीकार शेखर जोशी ने अल्पना मिश्र की पूर्व की लिखी कहानियों के साथ इस संग्रह की सभी कहानियों पर क्रमशः अपनी बात रखी . अपने व्यक्तव्य में उन्होंने कहानीकार के साधारण जीवन के असाधारण और सूक्ष्म पर्यवेक्षण की प्रशंसा की और बल  देते हुए  कहा कि अल्पना की कहानियां जमीन से जुडी हुई कहानियां हैं . कार्यक्रम का कुशलता पूर्वक सञ्चालन डॉ सूर्यनारायण ने किया तथा  डॉ लालसा यादव ने धन्यवाद ज्ञापित किया . कार्यक्रम में  राम जी राय,  राधेश्याम अग्रवाल , हरिश्चंद्र पाण्डेय ,  विवेक निराला ,संतोष कुमार चतुर्वेदी  , विवेक कुमार तिवारी , पद्मजा ,  चन्द्रकला जोशी , नीलम शंकर , विभागाध्यक्ष डॉ मीरा दीक्षित  तथा हिंदी विभाग के सभी प्राध्यापक एवं छात्र उपस्थित थे . 
- सुशील कृष्णेत                                                                                                          
                                                                                            

Wednesday, March 14, 2012

देहरादून की साहित्यिक हलचल

''सौरी"" की ''चढ़ाई"" चढ़ते हुए एक समय बस्ती से देहरादून पहुंची अल्पना मिश्र अब दिल्ली निवासी हैं। देहरादून की साहित्यिक बिरादरी में उन्हें हमेशा अपने बीच ही महसूस किया जाता है। हाल ही में संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेले के दौरान देहरादून के दो रचनाकारों की पुस्तकें सामने आयी हैं। युवा रचनाकार अल्पना मिश्र की कहानियों की किताब कब्र भी कैद औ" जंजीरें भी एवं वरिष्ठ रचनाकार गुरुदीप खुराना की किताब  एक सपने की भूमिका । अपने इन साथी रचनाकारों की पुस्तकों के लोकापार्ण के वक्त पुस्तक मेले में मेरी उपस्थिति एक संयोग रही, जिसे अपनी उपलब्धि के खाते में डालते हुए पुस्तकों के लोकार्पण की तस्वीरें आप सब के साथ सांझा कर रहा हूं।  दोनों रचनाकरों को बधाई। 





Sunday, February 19, 2012

स्थानिकता की तस्वीर भू-भाग की विविधता में संभव होती है



                     
सीमित ज्यामीतिय आरेखन की निर्मिति से खड़ी होती बहुमंजिला इमारतें और भव्यता एवं ध्यान आकर्षण के लिए उन पर पुते प्रभावकारी रंगों के संयोजन, बेतरतीब ढंग से यातायात व्यवस्था को बिगाड़ती स्थितियों को जारी रखते हुए, उचित संचालन के नाम पर, निर्मित पथों के चौड़ीकरण के अभियानों का फूहड़पन, एक ओर आम मेहनतकश आवाम के सर्वथा सुलभ फुटपाथिया बाजार को उजाड़ने की गतिविधियां और दूसरी ओर रोजगार के नाम पर चंद सेवा क्षेत्रों के अवसरों वाली गतिविधियों का नाम देश, राज्य या राजधानी नहीं होना चाहिए था। लेकिन विकास की सांख्यिकी के पैमाने को सीमित कर देने वाली समझदारी ने देश भर के भीतर व्यवस्था के नाम पर ऐसी अव्यवस्था को जन्म दिया है कि विकसित और अविकसित क्षेत्रों का अन्तर कम होने की बजाय लगातार बढ़ता गया है। गरीबी, भुखमरी और हत्या, आत्महत्याओं की बहुत आम हुई खबरों ने सामाजिक असंवेदनशीलता को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।   
दस वर्ष पूरे कर चुके उत्तराखण्ड राज्य की अस्थाई राजधानी देहरादून के संदर्भ से ही बात की जाये तो बदलते स्वरूप को इससे बाहर नहीं देखा जा सकता। बल्कि विकास के नाम पर उत्तराखण्ड राज्य के ही दूसरे शहरों के साथ साथ, प्राकृतिक खूबसूरती से भरे, पर्वतीय भूभागों के भीतर जारी अराजक गतिविधियों में भी राज्य नाम की इकाई संदेह पैदा कर देने वाली साबित हुई है। वैसे भी कला शून्य लेकिन दक्ष कुशल होते जाते इस दौर में स्वभाविक विविधिता को ध्वस्त करते हुए संस्कृतिक समरूपता की जिद्दी धुन की गूंज वैश्विक स्तर पर पूंजीगत विस्तार का स्वर हुआ है। अलहदा भाषा, अलहदा विचार, अलहदा खान-पान के खिलाफ वैश्विक पूंजी का मुनाफे की संस्कृति से भरे आदर्शों वाला अभियान हर स्तर पर चालू है। बर्बर हमलों तक के रूप में भी। उसके प्रभाव की व्यापकता को बहुत पिछड़ी सामाजिक आर्थिक स्थितियों में भी देखा जा सकता है। बल्कि कुशल व्यवाहरिकता के अभाव में ऐसी स्थितियों में तो उसकी स्वभाविक फूहड़ता ज्यादा स्पष्ट दिखने लगती है। बहुधा उसकी गिरफ्त ऐसी गिरह डालने वाली होती है कि जन आकांक्षओं के सवाल पर शुरू हुई गतिविधियां भी सवालों के घेरे में आने को मजबूर हो जाती हैं। जन आंदोलनों के अंदर घुसपैठ करने और फिर उसे अपनी तरह से हांकते हुए जन आंदोलनों पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देने में इस मुनाफा संस्कृति ने हारते हारते हुए भी जीत के लाभ तक पहुंच जाने की कला में कुशलता हांसिल की हुई है। उत्तराखण्ड में ही नहीं बल्कि उसी के साथ-साथ गठित हुए झारखण्ड और छतीसगढ़ में भी राज्य निर्माण के बाद विस्तार लेती गयी व्यवस्था ने एक समय में राज्य की मांग के लिए मर मिटने वाली जनता तक को इसीलिए निराश किया है। ऐसे में दूसरे प्रांतों के भीतर जारी राज्य आंदोलनों के संघर्ष की गाथायें कैसे भिन्न हो ?, यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण है। बिना इस तरह के सवाल उठाये छोटे छोटे राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया का एकतरफा समर्थन जनता के दुख दर्दो से निजात की कथा का कोई चरण पूरा करता हुआ नहीं माना जा सकता।
यह सच है कि सांस्कृतिक पहचान एवं विकास के वास्तविक मॉडल की अनुपस्थितियों ने विभिन्न प्रांतों के भीतर संघर्षरत जनता को राज्य के सवाल पर एकजुट होने को मजबूर किया हुआ है। और व्यवस्था के मौजूदा ढांचे में एक छोटी प्रशासनिक इकाई वाला राज्य, बेशक चोर जेब जैसा ही,  जनता को सड़को पर उतरने को मजबूर करता हुआ है। बहुत व्यवस्थित एवं जन आकांक्षओं को सर्वोपरी मानते हुए नीतियों का निर्धारण करती किसी मुमल व्यवस्था की तात्कालिक अनुपस्थिति में यह सवाल उठाते हुए कि क्या सचमुच जनता के सपनों को साकार करने में राज्य कामयाब रहे है ?, छोटे राज्यों की मांग को ठुकराया नहीं जा सकता या उनका विरोध करना कतई तर्कपूर्ण नहीं। लेकिन इसके साथ साथ उन खतरों को जो जनता के सपनों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ते, नजरअंदाज करना ठीक नहीं। तीन नव निर्मित राज्यों उत्तराखण्ड, झारखण्ड और छतीसगढ़ के आंदोलनों का इतिहास गवाह है कि बेहतर राजनैतिक विकल्प की अनुपस्थिति में चालू राजनीति के बेरोजगार नेताओं ने जो अफरा तफरी मचायी उसके प्रतिफल राज्य निर्माण के बाद स्थापित होती गयी उनकी सत्ता के रूप में सामने हैं। स्थापित राजनीति का बेहद फूहड़पन वाला विकास-मॉडल सिर्फ मुनाफे की संस्कृति की स्थापना करने में ही सहायक हुआ है। अपने व्यक्तिगत हितों के लिए आंदोलनों में सक्रिय रहते भूमाफिया और दलालों के बोलबाले ने स्थानिकता को निरीह और लाचार बनने के लिए मजबूर किया है। शासकीय गतिविधियों में हस्तक्षेप की ताकत रखने वाले अपने आकाओं के इशारों पर आंदोलन में घुसपैठ करके वे आज सत्ता पर कब्जा जमाये हैं। मासूम जनता के सपनों को आकार देने के नाम पर षड़यंत कर वे आंदोलनों का हिस्सा हुए और अराजक तरह का माहौल रचने में कामयबी हासिल कर सके हैं। देख सकते हैं कि सबसे पहले उनकी निगाहें अपनी पूंजी को जल्द से जल्द और बिना किसी अतिरिक्त निवेश या मेहनत के, अधिक से अधिक बटोरने की रही और इसके लिए भौगोलिक विशिष्टताओं से भरे भू भागों पर कब्जे करने की उनकी कोशिश बहुत दबी छुपी न रहने पर भी स्थानीय भू मालिकों के समझ न आने वाली ही हुई हैं। रूपयों के बदले जमीन के मोल भाव में स्थानीय जन इस कदर ठगे गये हैं कि न सिर्फ स्वंय लाचार हुए बल्कि माहौल में अराजकता और लम्पटई की कितनी ही स्थितियों को जमने और फलीभूत होने का अवसर बना है। खेती योग्य भूमि को प्रोपर्टी के दलालों की निगाहों ने जिस तरह से तहस नहस किया वह शायद ही तीनों में से किसी भी एक राज्य में छुपा हुआ न हो। 
भाषायी आधार पर गठित आंध्र प्रदेश में भी आज अलग राज्य की मांग का सवाल सामने है। आदिलाबाद, निजामाबाद, करीमनगर, वारंगल, खममम, नलगोडा, हैदराबाद, मेढक, रंगारेड्डी, महबूबनगर को मिलाकर तेलांगाना राज्य का सपना विकास की दौड़ में पिछड़ गयी जनता के सपनों में है। जनता के इस सपने के आकार लेते ही 1956 के बाद का इतिहास भी उलट जाने वाला है। तेलंगाना राज्य इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि 1956 से पहले तक मद्रास पे्रसीडेंसी का हिस्सा रहे आंध्र प्रदेश के दूसरे भू-भाग रायलसीमा और तटिय आंध्रा की तुलना में पिछड़े रहे इस क्षेत्र के विकास की चिन्तायें राज्य आंदोलन का मूल हैं। भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के साथ हैदराबाद को मिलाकर आंध्र प्रदेश के इतिहास का एक नया अध्याय 1956 में शुरू हुआ था। 1956 से पहले तक हैदराबाद के निजाम के द्वारा शासित भू-भाग भारत में विलय की स्थिति के साथ हैदराबाद राज्य के रूप्ा मे रहा। 1953 में ही निजाम के हुकूमती क्षेत्र को हैदराबाद राज्य के गठन के समय ही भाषायी आधार पर बांट दिया गया था। मराठी भाषी क्षेत्र को बम्बई राज्य और कन्नड़ भाषी क्षेत्र को मैसूर राज्य में विलय कर शेष बचे तेलुगू क्षेत्र को हैदराबाद राज्य का दर्जा दे दिया गया था। हैदराबदी राज्य का वह तेलुगू भाषी क्षेत्र ही मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग कर निर्मित हुए आंध्रा राज्य में विलय कर विशाल भाषायी राज्य आंध्र प्रदेश अस्तीत्व में आया। इस तरह से समांती हुकूमत में संस्कारित एवं पिछड़ी अर्थव्यवस्था के जन समाज और औपनिवेशिक हुकूमत के भीतर आधुनिकता की हवाओं में संस्कारित जन मानस के यौगिक को एक धरातल पर लाने के लिए जिस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए थी, पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर उसके होने की कोई संभावना होने का प्रश्न नहीं हो सकता था। तात्कालिक लाभ के लिए बेचैन रहने वाली अर्थ व्यवसथा में असंतुलन को पाटने की बजाय उसके बढ़ाते जाने के बीज थे और उनका फलीभूत होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। फलस्वरूप निजामी हुकूमत का तेलंगाना क्षेत्र न तो जन सुविधाओं के स्तर पर और न ही रोजी रोजगार के स्तर पर तटिय आंध्र और रायलसीमा के क्षेत्रों के करीब आ सका। असंतोष के कारण ऐसी ही स्थितियों का सार रहे और 1969 में तेलंगाना राज्य की मांग का सवाल उठ खड़ा हुआ। यूं चालीस के दशक में ही भू सुधारों के तेलांगना आंदोलन का एक चरण अविभाजित कम्यूनिस्ट पार्टी के एजेंडे के साथ शुरू हुआ था। निजाम की हुकूमत के खिलाफ कामरेड वासुपुन्यया के नेतृत्व में यह एक ऐतिहासिक शुरूआत थी जिसका सपना भूमिहीनों को भूमि आबंटित करने का था।
मेढक संभावति तेलंगाना राज्य का एक जिला है, बिल्कुल वही स्थितियां जो उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान 1994 के आस पास देहरादून में दिखायी देने लगी थी, आज मेढक में साफ हैं। मेढक के बहुत छोटे और विकास की दौड़ में अभी गिनती में कहीं भी दिखायी न देते इलाके शंकरपल्ली के हवाले से कहूं तो आस पास के उजाड़ पड़े इलाके में बीच बीच में गड़े सीमेंट के अनंत खम्भे बताते हैं कि जमीनों पर पूरी तरह से कब्जा कर दलाल भूमाफियाओं का वर्ग राज्य निर्माण की प्रक्रिया के एक चरण को पूरा कर चुका है। बड़े मॉल, आम जन के लिए प्रतिबंधित पार्क, मल्टीपलेक्स, खेती को निकृष्ट कर्म और दलाली को स्थापित करने वाली मानसिकता का तर्क बहुत स्पष्ट है कि बंजर जमीनों का वे सदुपयोग करना चाहते हैं और राज्य के आय का स्रोत होना चाहते हैं। साथ ही सौन्दर्य के नये मानक भी वे इसी तरह गढ़ने को उतावले हैं। लेकिन राज्य जिसकी जरूरत रहा, उस जनमानस के लिए इस तरह का विकास कैसे लाभकारी हो सकता है, यह प्रश्न उन्हें बेहुदा लग सकता है।     
यूं यह सवाल महत्वपूर्ण हो सकता है कि किसी जगह की सुन्दरता का मानक क्या हो सकता है ? वहां रह रहे लोगों के आचार-विचार का अनुपात स्थान विशेष की सुन्दरता में क्या कोई कारक है, या उसका कोई लेना देना नहीं। मानव निर्मितयों के रूप में पार्क, सड़क, भवन, खुदरा(खुरदरा) कहलाने के बावजूद मुलायम और चुंधियाते बाजार के साथ स्थानिकता के संयोजन के कौन से तत्वों को सुंदरता के पैमाने के साथ देखा जाना चाहिए ? किसी महानगरीय सुविधाओं सी समतुल्य स्थितियों में स्थानिकता को बचाने की बात करना क्या पिछड़ा कहलाते हुए असुंदर के पक्ष में हो जाने जैसा है ? आभावों के घटाटोप के बीच सुन्दर कहने के लिए भूभाग विशेष के किसी महानगर से संबंधों में विचरण करते बहुमंजिलेपन के बदलाव ही क्या सुंदरता के सांख्यिकी पैमाने हो सकते हैं ? अस्मिता का मामला भूगोल विशेष से स्थानीय जनता के जुड़ाव का मसला है और स्थान विशेष की खूबसूरती से भी है। स्थानिकता अपनी तस्वीर भू-भाग की विविधता में देख रही होती है और जरूरत के साथ-साथ ही वक्त-वक्त पर आवश्यक हस्तक्षेप कर उसे अपने तरह से तराश रही होती है। मुनाफे के अफरा-तफरी बदलाव में वह ठगी सी रह जाती है। स्पष्ट है कि ऊंचे- ऊंचे पहाड़, हरे हरे बुग्याल, बर्फानी हवाओं का खिलंदड़पन और बहुत शान्त माहौल के बीच नदीयों, पक्षीयों के गीतों से भरे सुरीले स्वर उत्तराखण्ड की अस्मिता के केन्द्र बिन्दू रहे। लेकिन जमीनों पर तेजी से कब्जा करने के बाद जिस तरह के बदलाव एकाएक हुए हैं वे राज्य के लिए संघर्षरत रही जनता को ठगने वाले रहे। मेढक के शंकरपल्ली इलाके की सुंदरता को गहरी ठेस पहुंचाने की कोशिशों को इसीलिए चिहि्नत किये जाने की जरूरत है वरना तय है कि भविष्य में छोटा राज्य बना लेने के बाद भी व्यवस्था के झुकाव को स्थानिकता के पक्ष में खड़ा नहीं पाया जा सकता।

 -विजय गौड़