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Monday, October 24, 2011

लोक जीवन और आधुनिकता



आलोचक जीवन सिंह जी के साक्षात्कार को पढ़ते हुए आधुनिकता और लोक जीवन पर उभरी असहमति को दर्ज करते हुए यह आलेख प्रस्तुत है।
- विजय गौड़

आधुनिकता को यदि बहुत थोड़े शब्दों में कहना हो तो कहा जा सकता है कि नित नये की ओर अग्रसर होती दुनिया का चित्र। पर ''नित नये"" कहने से आधुनिकता वह वृहद अर्थ, जो समाज, संस्कृति, साहित्य और इसके साथ-साथ जीवन के कार्यव्यापार के विभिन्न क्षेत्रों में दखल देते हुए नयी दुनिया की तसवीर गढ़ रहा है, स्पष्ट नहीं होता। यहां आधुनिकता का वह अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता जो एक दौर की आधुनिकता को परवर्ती समय में पुरातन की ओर धकेलने वाला है। नैतिकता, आदर्श और मूल्यों की बदलती दुनिया में आधुनिकता एक ऐसी सत्त प्रक्रिया है जिसमें रुढ़ियों और परम्पराओं से मुक्ति के द्वार खुलते हैं और तर्क एवं ज्ञान की स्थापना का मार्ग प्रस्शत होता है। निषेध और स्वीकार के द्वंद्व से भरा ऐसा मार्ग जो जरुरी नहीं कि आज की आधुनिकता पर भविष्य में प्रश्नचिहन न खड़ा करे। दरअसल, इस आधार पर कहा जा सकता है कि आधुनिकता अपने अन्तर्निहित अर्थों में प्रासंगिकता के भी करीब अर्थ ध्वनित करने लगता है। पृथ्वी को ब्रहमाण्ड का केन्द्र ( टालेमी का मॉडल) मानने वाली आधुनिकता को सैकड़ों सालों बाद, सूर्य ब्रहमाण्ड का केन्द्र है, जैसे विचारों ने आधुनिक नहीं रहने दिया। कोपरनिकस की विज्ञान की समझ ने टालेमी के विचार को, जो सर्वमान्य रुप से स्वीकार्य था, मौत का खतरा उठाकर भी, पुरातन ओर अवैज्ञानिक साबित कर दिया। ज्ञान विज्ञान की नयी से नयी खोजों ने आधुनिकता को नूतनता का वह आवरण पहनाया है जिसे समय-काल, के हिसाब से विचार, वस्तुस्थिति और यथार्थ की पुन:संरचना में प्रासंगिकता की कसौटी पर कसा जाने लगा।

तर्क और बुद्धि की सत्ता का उदय ऐसी ही आधुनिकता के साथ दिखायी देता है। वैज्ञानिक आधार पर घ्ाटनाओं के कार्य-कारण संबंध को ढूंढने की कोशिश ने अंध-विश्वास और रुढ़ियों पर प्रहार करते हुए आधुनिक दुनिया की तस्वीर गढ़नी शुरु की। ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि तार्किक परिणितियों के आधार पर घ्ाटनाओं के विश्लेषण करने के पद्धति पर, गैर-वैज्ञानिक समझ का प्रतिरोध करने वाली इस आधुनिकता को अप्रसांगिक मानने की कोई हठीली कोशिश भी आधुनिकता का नया रुप नहीं गढ़ सकती है। आधुनिकता के बरक्स उत्तर-आधुनिकता की गैर वैज्ञानिक अवधारणा के अपने उदय के साथ, अस्त होते जाने का इतिहास, इसका साक्ष्य है।

औद्योगिकरण की बयार के साथ योरोप में शुरु हुआ पुनर्जागरण वर्तमान दुनिया की आधुनिकता का वह आरम्भिक बिन्दु है जिसने मध्ययुग के अंधकारमय सामंती ढांचे को चुनौति दी। राजशाही की निरंकुशता के खिलाफ जन-प्रतिनिधित्व की शासन प्रणाली के महत्व पर बल दिया। मैगनाकार्टा का आंदोलन, जो सामंतशाही की पुच्च्तैनी व्यवस्था के खिलाफ मताधिकार के द्वारा नयी जनतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत चाहता रहा, आगे के समय तक भी आधुनिकता की उन आरम्भिक कोशिशों का महत्वपूर्ण पड़ाव बना रहा। अमेरिकी और फ्रांसिसी क्रांन्ति के साथ उसके  स्थापना की महत्वपूर्ण स्थितियां वे निर्णायक मोड़ है जिसने काफी हद तक आधुनिक दुनिया के एक स्पष्ट चेहरे को आकार दिया। इससे पूर्व औद्योगिकरण की शुरुआती मुहिम के साथ राष्ट्र-राज्यों के उदय की प्रक्रिया ने व्यापारिक गतिविधियों की एक ऐसी आधुनिकता को जन्म देना शुरु कर दिया था जो वस्तु विनिमय की पुरातन प्रणाली को स्थानान्तरित कर चुकी थी। श्रम के बदलते स्वरुप ने सामाजिक संबंधों के बदलाव की जो शुरुआत की, साहित्य की काव्यात्मक भाषा उसे पूरी तरह अटा पानो में संभव न रही। गद्य साहित्य का उदय हुआ। भाषा सत्त बहती, आम बोलचाल की लयात्मकता में, गद्याात्मक होती चली गयी। कहानी, संस्मरण, यात्रा वृतांत, रेखा चित्र, निबंध और उपन्यासों का नया युग आरम्भ हुआ। साहित्य इतिहास के तमाम अंधेरे कोनो से टकराने लगा। नयी दुनिया की खोज में निकले अन्वेषकों, मेगस्थनीज, हवेनसांग, फाहयान, के यात्रा वृतांत उस शुरुआती कोशिशों के दस्तावेज हैं।

साहित्य में आधुनिकता की यह शुरुआत सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया को स्वर देने में ज्यादा लचीलेपन के साथ दिखायी देने लगी। बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों की जटिलता ने स्वच्छंदतावाद को जन्म दिया जो अपने विकास के क्रम में यथार्थवाद की ओर अग्रसर होने लगा। राष्ट्रीय भाषाओं का विकास आरम्भ हुआ। मानवीय  संवेदना को वैचारिक मूल्यों ने परिपोषित करना शुरु किया। धार्मिक साहित्य और राजे रजवाड़ों की स्तुतिगान से भरे पुरातन साहित्य की बजाय आम मनुष्य के दुख-दर्दो को स्वर मिला।

समकालीन दुनिया की सर्वग्रासी बाजारु प्रवृत्ति, जो धार्मिक अंध विश्वास और नैतिक पतन की कोशिशों के साथ है उसे ही आधुनिक मानना और उसके प्रतिपक्ष में रहते हुए, जो कि जरूरी है, आधुनिकता के वास्तविक अर्थों से मुंह मोड़ लेना स्वंय को एक ढकोसले के साथ खड़ा कर लेना है। आधुनिकता की स्पष्ट पहचान किए बगैर गैर आधुनिक होते जाते इस दौर में बाजारु प्रवृत्ति का निषेध कतई  संभव नहीं। स्वस्थ प्रतियोगिता का भ्रम जाल रचता आज का बाजार विविधता की उस जन तांत्रिक प्रक्रिया के भी खिलाफ है जो एक सीमित अर्थ में ही आधुनिक कहा जा सकता है। स्वस्थ जनतंत्र के बिना स्वस्थ आधुनिकता का भी कोई स्पष्ट स्वरूप्ा नहीं उभर सकता। बाजार की गुलामी करता विज्ञान भी आज अपने पूरी तरह से आधुनिक होने की अर्थ-ध्वनि के साथ दिखाई नहीं दे रहा है।   

सामाजिक विकास का हर अगला चरण अपनी कुछ विशेषताओं के साथ होता है। इस अगले चरण की वस्तुगत स्थितियों के तहत ही आधुनिकता की परिभाषा भी अपना स्वरूप ग्रहण करती चली जाती है। बहुधा आधुनिकता के इस सोपान को समकालीन कह दिया जा रहा होता है। समकालीन और आधुनिकता का यह साम्य इसीलिए एक दूसरे को आपस में पर्याय बना देता है। समकालीनता, आधुनिकता और प्रासंगिकता ये तीन ऐसे शब्द हैं जिनके बीच किसी स्पष्ट विभाजक रेखा को खींच पाना इसीलिए संभव नहीं। अवधारणाओं की जटिलता के ऐसे निर्णायक बिन्दू पर बिना किसी ठोस विश्लेषण के अर्थ विभेद नहीं किया जा सकता। आधुनिकता के नाम पर सामाजिक और सांस्कृतिक पतन के आदर्शों से भरी व्यवस्था के चरित्र की पहचान बिना प्रासंगिकता के संभव नहीं। मौलिकता, साहस और बेबाकीपन के आधुनिक मुहावरों को तर्क का आधार बनाकर बहुत सस्ते में आधुनिक होने की यौनिक वर्जनाओं से भरी अभिव्यक्तियों को इसीलिए आधुनिक नहीं कहा जा सकता। संघ्ार्ष के बुनियादी स्वरूप को कुचलने को आमादा और सामाजिक विकास की हर जरुरी कार्रवाई को भटकाने का काम करती ऐसी समझदारी आधुनिकता का निषेध है।
आधुनिकता का सवाल लोक की जिस परिभाषा को वास्तविक अर्थों में व्याख्यायित करता है उसे स्थानिकता के साथ देख सकते हैं। स्थानिकता को छिन्न भिन्न करती कोई भी कार्रवाई आधुनिक कैसे कही जा सकती है। स्थानिकता का सवाल राष्ट्रीयता का सवाल है और राष्ट्रीयता का प्रश्न उसी आधुनिकता का प्रश्न है जो पुनर्जागरण से होती हुई अमेरिका, फ्रांस की क्रान्तियों के रास्ते आगे बढ़ती हुई पेरिस कम्यून की गलियों में भटकने के बाद रूस को सोवियत संघ्ा और चीन को आधुनिक चीन तक ले जाती है। लोक की अवधारणा में भी स्थानिकता समायी होती है। इसलिए लोक की अवधारणा को आधुनिकता से अलग करके परिभाषित करना ही पुरातनपंथी मान्यताओं का पिछलग्गू हो जाना है। पुरातनपंथी मान्यताऐं अस्मिता के किसी भी संघ्ार्ष को गैर जरूरी मानने के साथ होती होती हैं। भारतीय चिन्तन में आज दलित धारा की उपस्थिति और स्त्रि अस्मिता के प्रश्नों से उसे इसीलिए परहेज होता है। अस्मिता के संघ्ार्ष के मूल में भी राष्ट्रीय पहचान की तीव्रतम इच्छाऐं ही महत्वपूर्ण होती हैं। राष्ट्रीयता की मांग ही सामंती ढांचे को ध्वस्त करने की प्रगतिशील चेतना की संवाहक होती है लेकिन अपने चरम पर स्थायित्व के दोष से उसे मुक्त नहीं कहा जा सकता। यहीं पर आकर उसके गैर प्रगतिशील मूल्यों का पक्षधर हो जाना जैसा होने लगता है। क्षेत्रियता और दूसरे  ऐसे ही गैर प्रगतिशील  मूल्यों की गिरफ्त बढ़ने लग सकती है और आधुनिकता को ठीक से पहचाने बगैर वह सिर्फ लोक लोक की रट लगाने लगती है। स्थानिकता का नितांतपन उस सीमा के पार जाते हुए ही सार्वभौमिक हो सकता है जब वह बहुत आधुनिक होने के साथ हो। भौगोलिक, भाषायी और सांस्कृतिक विशिष्टता से हिलौर लेते समाज को सिर्फ कथ्य की विशिष्टता के लिहाज से विषय बनाती रचनाओं में दक्षिणपंथी भ्र्रामकता से ग्रसित होने की प्रवृत्ति होती है। ठहराव और दुहराव उसकी जड़वत प्रकृति के तौर पर होते हैं। स्पष्ट है कि उनसे पार जाने की कोशिशों से ही यथार्थ का उन्मूलन और वैश्विक जन समाज की चिन्ताओं का दायरा आकार लेता है। भूगोल और संस्कृति के बार-बार के दुहराव स्थानिकता को बचाए रखते हुए लोक के सर्जन में कतई सहायक नहीं हो सकते। दृश्यावलियों की समरूपता और सांस्कृतिक परिघ्ाटनाओं का एकांगी वर्णन कलावाद के करीब जाना ही है। जब प्रकृति अपने रूपाकार में गतिशील है तो उसके प्रस्तुति की दृश्यावलियां कैसे स्थिर हो सकती हैं ? साक्ष्यों के तौर पर स्थानिकता को प्रकट करती ऐसी दृश्यावलियां जिस मानसिकता से उपतजी हैं उसमें यथार्थ के हुबहू प्रस्तुतिकरण की चाह, जो संदेहों के परे हो, कारण होती है। यथार्थ के उन्मूलन में उनका योगदान इतना जड़वत होता है कि किसी नयी संभावना को खोजा नहीं जा सकता। निपट एकांतिक हो जाने वाली उनकी अनुभूति विशिष्टताबोध से भरी होने लगती है। छायावदी युगीन चेतना की कमजोरी इस सीमा के अतिक्रमण न कर पाने में ही रही है। संसाधनों के सार्थक उपयोग की बजाय प्रकृति से किसी भी तरह की छेड़-छाड़ यहां निषेध हो जाती है और विध्वंश की आततायी कार्रवाइयों के विरोध में नॉस्टेलजिक हो जाने की भावनात्मक अनुभूतियां विद्यमान होने लगती हैं। स्वस्थ मनुष्य और अवसाद में घिरे व्यक्ति के बीच के फर्क से समझा जा सकता है। अवसाद में घिरे व्यक्ति को कतिपय एक बार देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह अस्वस्थ है और उसकी अस्वस्थता का क्षेत्रफल सामाजिक उदासीनता के घेरे तक विस्तार ले सकता है। जो किसी भी निर्णायक संघर्ष तक प्रेरित करने की बजाय स्थितियों से नकार के रूपग में विकसित होता जाता है। तटस्थता की मुख-मुद्रा में भी वह निषेध के तत्वों का ही सर्जक हो सकता है।