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Sunday, August 20, 2023

नवीन कुमार नैथानी को दिनांक 19.08.2023 को इलाहाबाद में चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ प्रदान किये जाने के अवसर पर कथाकार योगेंद्र आहूजा का वक्तव्य



हिंदी के अनूठे, अपनी तरह के अकेले और हम सबके प्रिय कथाकार, नवीन कुमार नैथानी को चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के अवसर पर उन्हें बहुत-बहुत बधाई । नवीन जी साहित्य के शक्ति-केन्द्रों या ग्लैमरस मंचों से दूर, बल्कि उनसे बेनियाज़ और बेपरवाह ... ‘अपनी ही धुन में मगन’ ... ‘उत्तराखंड’ में अपने गाँव भोगपुर और फिर डाक-पत्थर, तलवाड़ी और देहरादून जैसी जगहों पर रहते हुए, अपनी मौलिक, अन्तर्दर्शी निगाह से देश-दुनिया के लगातार बदलते हालात और हलचलों का मुतालया करते हुए, लगातार कहानियां लिखते रहे हैं । ‘सौरी’ नाम की एक विस्मयकारी जगह है, जो स्मृतियों-लोकाख्यानों-किंवदंतियों-जनश्रुतियों से बनी या उनमें फैली है, जहाँ किस्से और इतिहास आपस में उलझते रहते हैं - वे वहीं के बाशिंदे हैं । यह ‘सौरी’ जो उनकी कहानियों में बार-बार आती है - सिर्फ एक किस्सा या कोई ख्याली, अपार्थिव, या लापता या लुप्त जगह नहीं, उसका एक भूगोल भी है । वह उनकी ‘मनस-सृष्टि’ है, लेकिन वे स्वयं इसी ‘सौरी’ की उपज हैं । मैंने उन्हें ‘अपनी ही धुन में मगन’ कहा है लेकिन इससे यह न समझें कि वे दुनिया से गाफिल, गोशानशीनी के आदी, अपने-आप में बंद कोई ‘स्व-केन्द्रित’ या ‘आत्म-मुखी’ शख्स हैं, नहीं, वे तो जिंदगी से भरपूर एक आत्मीय, दोस्त-नवाज़ शख्स हैं और दोस्तों की महफ़िलों में सबसे ऊंचे ठहाके उन्हीं के होते हैं । वे अपनी किसी प्राइवेट दुनिया में नहीं, इसी संसार में रहते हैं अपनी बेचैनियोँ, चाहतों और सपनों - और ‘लिखने’ को लेकर अपनी अटूट प्रतिबद्धता के साथ । नियमित अंतराल से उनकी कहानियां पाठकों के सामने आती रही हैं जिनमें वे पहाड़ और पहाड़ी जीवन की छवियों के ज़रिये अपने समय को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश करते रहे हैं । उनकी कहानियों का लोकेल या परिवेश अधिकतर पहाड़ होता है - लेकिन उनके पाठक जानते हैं कि वह सिर्फ ‘लोकेल’ होता है, उनकी हदबंदी नहीं । पहाड़ उनकी कहानियों की बाहरी ‘हद’ है - लेकिन इस हद के भीतर उनकी कहानियां ‘बे-हद’ हैं । कहानियों की ‘अर्थ-व्यंजना’, या कहें, उनका ‘सत्य’ या ‘सार-तत्व’, वह इस हद में नहीं समाता । वह तो उसे तोड़ते हुए, अतिक्रमित करते हुए जिंदगी के किन्हीं बुनियादी, आधारभूत आशयों या मायनों की ओर चला जाता या चला जाना चाहता है । ‘पुल’, ‘चढ़ाई’, ‘पारस’, ‘चाँद-पत्थर’, ‘चोर-घटड़ा’, ‘हतवाक्’ और ‘लैंड-स्लाइड’ जैसी कितनी ही कहानियां इस बात की गवाह हैं । उनका एक संग्रह ‘सौरी की कहानियां’ प्रकाशित है और दूसरा जल्दी ही प्रकाशित होना संभावित है ।


नवीन जी के बारे में यह सब वह है जो आप शायद पहले से जानते हैं । मैं इसमें जोड़ सकता हूँ कि वे लेखक होने के साथ एक ‘विज्ञानविद’, विज्ञान के व्याख्याकार हैं । वे फिज़िक्स पढ़ाते हैं और साथ ही उस उत्तेजक, रोमांचक, विस्मयकारी ज्ञान-अनुशासन के भी बेहतरीन जानकार हैं – जिसे ‘विज्ञान का दर्शन” या “Philosophy of Science”  कहा जाता है । आधुनिक भौतिकी और खगोलविज्ञान ने हमें प्रकृति के बारे में, परमाणु के भीतर के उप-परमाणविक कणों से लेकर अनगिनत आकाशगंगाओं और सितारों और समूचे यूनिवर्स की संरचना और विस्तार, स्पेस, टाइम, ग्रेविटी, एनर्जी, पार्टिकल्स और एंटी-पार्टिकल्स, सितारों के जन्म और मृत्यु और ब्लैक-होल्स आदि के बारे में बेशुमार और हैरतअंगेज़ जानकारियाँ दी हैं । यूनिवर्स के बारे में इतनी नयी जानकारियाँ जो दरअसल जानकारियों का एक नया यूनिवर्स है । इन सबके बारे में इनकी समझ और जानकारियाँ बेजोड़ हैं, जिनसे मैं बीच-बीच में लाभान्वित होता रहता हूँ । अगर आपके मन में भी ऐसे सवाल आते हैं कि ... मसलन, सितारे कैसे वजूद में आते हैं और किस तरह सिकुड़ते हुए आखिर में एक बहुत बड़े धमाके के साथ ब्लैक-होल में तब्दील हो जाते हैं – या दिक् और काल में मरोड़ें कैसे पड़ती हैं, ‘बिग-बैंग’ क्या है, ‘फोटोन’ क्या है, ‘क्वार्क’ क्या है और ‘गॉड पार्टिकल’ क्या है – अगर ये जिज्ञासाएं आपकी भी हैं – तो आप इनका मोबाइल नंबर ले सकते हैं । इसके अलावा ... वे विश्व-साहित्य के, इस सदी और पिछली सदी और उससे पिछली सदी के क्लासिक लेखकों और कृतियों के भी एक अनन्य जानकार हैं । वे चेखव, पुश्किन, दोस्तोयेव्स्की, टॉलस्टॉय, हेमिंग्वे, मार्खेज, बोर्गेस, आइन्स्टीन, मैक्स प्लैंक, स्टीफेन हाकिंग, और प्रो. यशपाल जैसे उस्ताद लेखकों, वैज्ञानिकों और विज्ञान-चिंतकों की संगत में रहते हैं । लेकिन क्या इतने में इनका परिचय पूरा हो जाता है ?

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इस मौके पर मेरी इच्छा वह कुछ कहने की है जो आप नहीं जानते, शायद नवीन जी खुद भी नहीं जानते । और अगर जानते हैं तो यह तो नहीं ही जानते कि उनके बारे में यह मैं भी जानता हूँ पिछले तीन-चार दशकों से मुझे उनकी दोस्ती का फख्र हासिल है, इसलिए मैं कुछ पर्सनल हो रहा हूँ – लेकिन जो कहना चाहता हूँ वह मित्रता निभाने के लिए नहीं । मैं कहना चाहता हूँ कि इनकी कहानियां – एक खास तरह की उदास करुणा लिए इनकी कहानियाँ - विषयवस्तु और कहन और गठन के स्तरों पर अजीम हैं – लेकिन यह शख्स खुद अपनी कहानियों और किताबों से कहीं अजीमतर है । नवीन जी मेरे लिए सिर्फ कहानियों के या एक किताब के लेखक नहीं हैं । मेरे लिए वे खुद एक किताब हैं, एक चलती-फिरती किताब । मैं बीच-बीच में इस किताब के पन्ने खोलकर पढ़ा करता हूँ । इसका अर्थ यह न समझें कि वे कोई बंद किताब हैं, नहीं - वे तो मेरे ही नहीं, सबके लिए और हर वक्त एक खुली किताब हैं । कैसी किताब ... इसके जवाब में प्रिय कवि नवारुण भट्टाचार्य की एक कविता का सहारा लेकर कहना चाहूँगा - एक कीमती हार्ड-बाउंड किताब नहीं, जो शेल्फ के ऊपरी खाने में धूल और कीड़ों के संग रखी रहती है और कभी भूले-भटके खोली जाती है । वे एक ‘पेपरबैक’ किताब हैं जो मित्रों के बीच बांटकर पढ़ी जाती है और उसके पन्ने खुल-खुल जाते हैं । मैं समझता हूँ कि कोई भी लेखक, अगर दोनों में से एक ही चुनना संभव हो तो, वही किताब होना चाहेगा । लेकिन एक खुली किताब में भी किसी एक समय जो पन्ना खुला होता है, उसके अलावा पढ़ने के लिए कुछ पन्ने पलटने होते हैं । मैं चुपके-चुपके उन्हें पलट लेता हूँ । इस किताब को पूरी तरह, अंत तक पढ़ सका हूँ, यह नहीं कह सकता । कोई भी कैसे कह सकता है ? जीवन नाम की किताब को पढ़ने के लिए भी तो एक पूरा जीवन चाहिए होता है ।

यह किताब किस बारे में है ? यह है लिखित शब्द की प्रकृति और गरिमा - और उनसे हमारे यानी लेखक के रिश्ते के, लेखकीय आचार-संहिता और नैतिकता के, साहित्य के कुछ आधारभूत मूल्यों के बारे में । ये नए सवाल नहीं हैं, लेकिन आज लेखकों के लिए नए सिरे से जिन्दा हो गए हैं । यह सोशल मीडिया का वक्त है जिसमें, हमारी बौद्धिक-साहित्यिक दुनिया में, एक छोर पर ‘सर्वानुमति’ है और दूसरे पर trolling और सर्वनिषेधवाद । एक छोर पर सब कुछ की वाह-वाह, दूसरे पर सब कुछ पर कालिख पोतने की कोशिश । एक ओर बेशुमार लोकप्रियता, फॉलोअर्स, फैन्स, लाइक्स और तालियाँ और दूसरी ओर उतनी ही मात्रा में हिंसा, नफरत, एरोगेन्स और रक्तपात नवीन जी ऐसे माहौल में अपने को सप्रयत्न सस्ती तारीफों या तालियों के ज़हर से, ज़रूरत से ज्यादा दृश्यवान होने से बचाते हैं । वे अपना अकेलापन और एकांत बचाते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि वे मानते हैं कि ‘लिखना’ एक निजी कर्म है या सन्नाटे में की जाने वाली कोई निजी कार्रवाई है, नहीं, वे जानते और मानते हैं कि लिखना एक साथ निजी और सामाजिक होता है वह सिर्फ अपने से नहीं, अपने से परे जाकरअन्य’ से संवाद है – एक साथ ‘अन्य’ से और ‘अपने’ से संवाद है नवीन जी इस बात को बखूबी जानते हैं - लेकिन यह जानने और हर मंच पर चमकने-दमकने या हर जगह दृष्टिगोचर होने में जो फर्क है, वह उसे भी जानते हैं ।

नवीन जी एक चुप्पा लेखक हैं और उनके पाठक भी उन्हीं की तरह चुप्पा हैं । ये चुपके-चुपके लिखते हैं और चुपके-चुपके ही पढ़े जाते हैं । उनके पाठकों, प्रशंसकों का एक तवील दायरा है, फिर भी उनकी कहानियों के बारे में एक चुप्पी बरकरार रही है । इसे मैं कोई साजिश नहीं कहना चाहूँगा - लेकिन एक ट्रेजेडी या दुर्भाग्य ज़रूर कहूँगा । दुर्भाग्य नवीन जी का नहीं, हमारी भाषा का, हिंदी आलोचना का । हमारी भाषा में प्रचलित आलोचना - हमेशा नहीं लेकिन अधिकतर -  ऐसी है जो कृति की कथ्यगत विशिष्टता या मौलिक बुनावट की अवहेलना कर, किन्हीं तयशुदा मानदंडों या धारणाओं को यांत्रिक तरीके से रचनाओं पर लागू करना चाहती है । जो उन मानदंडों पर पर खरी न उतरें उन्हें वह छोड़ देती है । वह रचना की अनन्यता को नकार कर, उनसे कुछ छीनकर, कुछ असंगत जोड़कर, उनमें जो कुछ कोमल, सुन्दर या त्रासद-दर्दीला हो, उसकी उपेक्षा कर उन्हें किन्हीं वांछित अर्थों की दिशा में धकेलना चाहती है । बहुत सी ‘आलोचना’ ऐसी भी है जो आलोचना कम, लेखकों को ‘निर्देशित’ करने या नकेल कसने की कोशिश अधिक होती है । शायद इसीलिए चेखव और रिल्के जैसे लेखक-कवि आलोचना को संदेह से देखते थे । ... बहरहाल, यह कोई नयी बात नहीं है । अनेक लेखक हैं जिनके बारे में जानबूझकर या अनजाने ऐसी चुप्पी बरती गयी है, बरती जाती है । लेकिन फिर वे लेखक क्या करते हैं ? वे आग, खीझ और गुस्से से भरकर – या फिर एक स्थायी उदासी के हवाले होकर - दुनिया से एक दुश्मनी का, अदावत का रिश्ता बना लेते हैं । वे दुनिया के खिलाफ एक चार्ज-शीट जेब में रखकर चलते हैं, जो हर रोज और लम्बी हो जाती है । वे अमर्ष से भर जाते हैं या उदास, अनमने या कटु और कटखने हो जाते हैं । इसके बर-अक्स नवीन जी क्या करते हैं ? ... वे तो खुद उस चुप्पी में शामिल हो जाते हैं, उस चुप्पी से ही पोषण लेने लगते हैं । वे इससे असम्पृक्त, अप्रभावित, अविचलित रहकर चुपचाप अपने कामों को अंजाम देते रहते हैं - पहले की ही तरह अपने मौलिक, उर्जावान तरीके से । एक ऐसे शख्स के रूप में, जो रचनात्मकता के सार और उसके चिरस्थायी तत्वों को जान चुका है, वे जानते हैं कि बेशक आलोचना, एक सुचिंतित, विवेकवान आलोचना ज़रूरी होती है, वह लेखक को ताकत और लिखित को एक शनाख्त देती है - लेकिन जैसे ... एक छलपूर्ण चुप्पी होती है, वैसे ही छलपूर्ण तारीफें भी होती हैं । सहज और विनीत दिखने वाली लेकिन बिना समझ या सौन्दर्यबोध के, लेखक को छलने वाली सस्ती तारीफें । ऐसी तारीफें, उनका अतिरेक लेखक को नष्ट करता है - उपेक्षा से भी अधिक । ग़ालिब ने एक शेर में अपने बारे में कहा है कि वे वह पौधा हैं जो ज़हर के पानी में, उसी से पोषण लेकर उगता है । “हूँ मैं वह सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे”  यह उनकी सुपरिचित लाइन है । लेकिन यह मुझे कहीं अधूरी जान पड़ती है । असाधारण और चमत्कारी तो यह होगा कि पौधा ‘ज़हराब’ से पोषण ले, लेकिन खुद एक ज़हरीला या जानलेवा पौधा न बने । उसके ज़हर का एक कतरा भी अपने भीतर न आने दे । ऐसा कोई पौधा प्रकृति में होता है या नहीं, मैं नहीं जानता । लेकिन इंसानों में ज़रूर होता है ।

एक कहानी लिखने और छपने के बाद, मुझे यह याद नहीं कि नवीन जी उस पर अलग से कुछ कहते हुए या कोई दावा करते दिखे हों । वे मानते हैं कि लेखक को जो कहना है वह उसे रचना में ही कहना चाहिए । अगर रचना वह नहीं कह पा रही तो लेखक के अलग से कहने का क्या अर्थ है ? इस समय जबकि आत्मप्रचार, आत्म-अभिनंदन या कहें, अपना ‘भोंपू आप बजाना’ एक आम चलन है – नवीन जी अपनी इसी आचार-संहिता पर टिके रहते हुए - पाठकों के, अपने चुप्पा पाठकों के विवेक पर भरोसा करते हैं । वे जानते हैं कि एक सशक्त रचना को ऐसी बैसाखियों की ज़रूरत नहीं - और अगर अल्पप्राण है तो उसे ऐसी तरकीबों से दीर्घजीवी बनाने की कोई भी कोशिश फिजूल होगी ।

जर्मन कवि रिल्के ने एक सदी पहले एक युवा कवि फ्रांज जेवियर काप्पुस को एक पत्र में यह लिखा था - अपने भीतर जाइए और उस कारण को, उस आवेग को ढूंढिए जो आपको लिखने पर विवश कर रहा है - और यह भी – एक रचनात्मक कलाकार को सब कुछ अपने अन्दर ही प्राप्त होना चाहिए यानी उस प्रकृति में जिसे उसने अपना जीवनसाथी बना लिया है । मुझे लगता है कि इस सूत्र को नवीन जी ने अपनी नसों में उतार लिया है एक लेखक को अगर भीतर से कुछ प्राप्त नहीं होता तो बाहर से कुछ प्राप्त हो तो उसका मूल्य ही क्या है ? और वह भीतर से ही कला की विशाल सम्पदा का एक छोटा सा हिस्सा, या उसकी झलक ही पा लेता है तो ... बाहर से कुछ प्राप्त होता है या नहीं, इसका महत्त्व ही क्या है ? नवीन जी की कहानियां मुझे उसी अंदरूनी इलाके, उसी अंतर्तम से, भीतरी अनिवार्यता से जन्मी लगती हैं । यह ‘कलावाद’ या ‘अभिजनवाद’ या सामाजिक जिम्मेदारी से विमुख होकर कला के एकांत रास्ते का वरण नहीं है, न ही यह किसी ऐसे दर्शन की शरण में जाना है जिसके अनुसार संसार असार है या बाहर की दुनिया ‘मिथ्या’ या ‘माया’ है, और ‘सत्य’ तो हमारे भीतर पहले ही मौजूद है । इसके उलट, यही तो सृजनकर्म का प्राथमिक, बुनियादी नियम है । जो कुछ ‘बाहर’ है, ‘अन्य’ है, लिखे जाने से पहले उसे लेखक का आभ्यंतर, उसके ही ‘आत्म’ का अंश बनना होता है । एक मायने में लेखक किसी ‘अन्य’ के नहीं, अपने ही दर्द, अपनी ही व्यथा, वेदना या तड़प के बारे में लिखता है - इसलिए कि एक सच्चे लेखक के लिए कोई ‘अन्य’ नहीं होता, हो नहीं सकता । अपने और दुनिया के बीच की दीवार गिराकर, ‘अन्यत्व’ को मिटाकर, यानी ‘अन्य’ के दर्द को अपना बनाकर, उसे अपनी त्वचा पर अपने ही दर्द की तरह महसूस कर ही कुछ ऐसा लिखा जा सकता है, जिसका सचमुच मूल्य हो । ये तमाम ख्याल मुझे नवीन जी की कहानियां पढ़ते हुए ही आते हैं । लेकिन कहानियों की सविस्तार विवेचना से मैं अपने को रोकना चाहता हूँ ।      

हममें से अनेक आज यह देखकर हताश होते हैं कि दुनिया अधिकाधिक खून और कीचड़ में लिथडती जा रही है । इस खून और कीचड़ के छींटे शब्दों की दुनिया में भी आते हैं, क्योकि शब्दों की दुनिया भी इसी दुनिया में स्थित है, इसके बाहर नहीं । ऐसे पल अक्सर आते हैं जब इस दुनिया में और शब्दों की दुनिया में आस्था टूटने लगती है । यकीन डूबता सा लगता है । ऐसे पलों में मैं जिन चंद लोगों की ओर देखता हूँ, उनमें नवीन जी खास हैं । इन्हें देखकर महसूस करता हूँ कि नहीं, सब कुछ नष्ट नहीं हुआ और इतनी आसानी से नष्ट नहीं होगा   I feel that I can still have my faith in written word or ‘language’ or literature इसके लिए इन्हें कभी शुक्रिया नहीं कहा, लेकिन आज आप सबकी मौजूदगी में कहना चाहता हूँ ।

मैं नवीन जी के साथ पुरस्कार के संस्थापकों, आयोजकों को भी बधाई देना चाहूँगा । आप सबका आभार कि आपने मेरी इन बातों को ध्यान से सुना ।




Saturday, April 18, 2009

हजारों दुख की बात होगी अगर औरतें मर्दों की तरह लिखने लगें

सामान्य भौतिक परिस्थितियां- एक ही काम को करते रहने की उक्ताहट, दुनिया जहान के कलह-झगड़े, ऐसी ही तमाम कठिनाईयां, जो कहीं कहीं भीतर ही भीतर किसी को भी छीज रही होती हैं औरशरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी समाप्त कर रही होती हैं, जीवन में उत्साह और विश्वास की अनुकूल स्थितियों के विरुद्ध गहरे संत्रास और निराशा को जन्म देती हैं। स्त्री जीवन की ऐसी तमाम कठिनाईयों को और ज्यादा बढ़ाती हुई और उन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल बनाती हुई संसार की उपेक्षाओं का दंश अल्पना मिश्र की रचनाओं की मूल कथा रहा है।
नफरत, विक्षोभ, निराशा, कड़ुवाहट जैसे भावों को एकल रूप में प्रस्तुत कर, रचनात्मक ऊर्जा व्यय करने की बजाय अल्पना ने ऐसे सभी भावों को गहन संवेदनाओं में गूंथ कर ऐसा कोलाज तैयार किया है जिसमें आत्म समर्पण की हद तक भरा त्याग और विरोध की विद्रोहात्मक मन:स्थितियों की पर्तों में उलझी हुई ढेरों स्थितियां जब काव्यात्मक सी लगती उनकी कहानियों की भाषा में प्रकट होती है तो गहरे अर्थों से भरी होती हैं। कई बार कहानी के तय मानदण्डों में कैद समझ की सीमायें उन अर्थों तक पहुंचने में चूकने लगती है जिसके लिए वे रची गयीं हैं। कहा जा सकता है कि उनकी कहानियों में छुपे उस अन्तर्निहित कथ्य, जो इनकी बुनावट में जटिल हो गया सा लगता है, को पकड़ने के लिए पाठक को एकाग्रचित होकर उन्हें पढना लाजिमी हो जाता है। विशुद्ध पितृसत्तात्मक समाज के घने कुहरे के बीच वो सब कुछ कह जाना जो स्त्रियों की व्यथा को सहानुभूति की तरह नहीं बल्कि आत्मसम्मान के साथ रख पाये और उस पर नफरत और घ्रणा के भावों की छाया भी पड़े, कहने के लिए जिस ईमानदारी और प्रतिभा की जरुरत होनी चाहिए, अल्पना की कहानियां उसकी गवाह हैं।
अल्पना की कहानियों में स्त्रीपन का लैंगिक प्रभाव ज्यादा स्पष्ट होकर उभरा है। कलछुल पर टंगी पृथ्वी की कल्पना और जीवन के संदर्भों में उसकी अभिव्यक्ति किसी पुरुष मानसिकता के लिए संभव है क्या ? शायद नहीं। ऐसे बिम्ब ओर प्रतिकों को रचते हुए शायद उसे भी चूल्हे चौके में उलझी उसी स्त्री का सहारा लेना पड़ेगा जिसके श्रम को अभी तक प्रभावी मर्दाना मानसिकता ने निरर्थक और बिना मूल्यों का माना है। यहां स्त्री और कथा साहित्य पर वर्जीनिया वुल्फ़ के विचारों का सहारा लेकर कहा जा सकता है कि यह हजारों दुख की बात होगी अगर औरतें मर्दों की तरह लिखने लगें, या मर्दों की तरह रहने लगें, क्योंकि संसार की विशालता और विविधता को देखते हुए अगर दो लिंग भी नाकाफी हैं तो फिर केवल एक लिंग से कैसे काम चलेगा ? क्या शिक्षा का यह कर्तव्य नहीं होता कि समानताएं पैदा करने की बजाय विभिन्नताओं को पैदा करे और मजबूत बनाए? स्त्री के जीवन में छाये अंधकार जो उसके श्रम की निरर्थकता के कारण हैं, आखिर कैसे उसे अपने इतिहास से टकराने और समाजसे जुड़ने में मद्द करेगें। क्या एक स्त्री के जीवन का इतिहास उसके आये दिन की गतिविधियों से अलग हो सकता है ? क्या कोई स्त्री यह बता सकती है कि वो यादगार हल्वा, जिसका स्वाद आपकी जीभ पर आज भी टिका है, उसने किस दिन बनाया था। बर्तनों की वो चमक जिसे देखकर तुम भ्रमित हुए थे कि शायद कलई किये जा चुके हैं, किस दिन साफ किये गये। इतमिनान के क्षणों में भी एक मर्द की शान को चार चांद लगाते वस्त्रो पर की गयी इस्तरी कीतारीख को याद रख जा सकता है क्या ? अपने स्त्रीपन के किन दिनों में दूसरों द्वारा अपवित्र मान लिये जाने पर ही नहीं उस स्थिति में लगातार काम पर खटने की मजबूरी से पैदा होती उक्ताहट वाला दिन कौन सा रहा होगा ? ऐसी ही गतिविधियों में लगी स्त्री के जीवन में यह गतिविधियां क्या इतिहास का हिस्सा हुई हैं कभी ? एक स्त्री के पास ऐसे किसी भी दिन को याद कर लेने की फुर्सत नहीं और ही उसे याद करने की जरुरत। शायद किसी भी मर्द मानसिकता केपास ऐसे कामों में कला या सृजनात्मकता को खोज लेने की दृष्टिसंभव नहीं। इसे तो कोई स्त्री मस्तिष्क ही संभव कर सकता है। अल्पना की कहानियों में स्त्री लैंगिकता का यह पक्ष खूबसूरत ढंग से उभरता दिखायी देता है।

भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा अल्पना मिश्र को आज वर्ष 2008 का हिन्दी का युवा लेखक सम्मान प्रदान किया गया। तीन अन्य युवाओं को भी अन्य भाषाओं के लिए पुरस्कृत किया गया। निर्मला पुतुल को संथाली भाषा के लिए,एस. श्रीराम को तमिल और मधुमित बावा को पंजाबी भाषा के लिए।
वरिष्ठ साहित्यकार और पहल के संपादक ज्ञानरंजन को हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान देने के लिए वर्ष 2008 के साधना सम्मान से सम्मानित किया गया। ज्ञानरंजन के अलावा तमिल साहित्य के लिए वेरामुत्थु, उड़िया साहित्य के लिए रामचंद्र बेहरा और पंजाबी साहित्य के लिए डा. महेन्द्र कौर गिल को भी सम्मानित किया गया।
उंडिया के चर्चित कवि रमाकान्त रथ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे।
सम्मान समारोह के अवसर पर दिए गया अल्पना मिश्र का वक्तव्य प्रस्तुत है-


मेरे साहित्य में मेरा समय और समाज

- अल्पना मिश्र

सबसे पहले मैं भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता को और इस पुरस्कार के निर्णायक मंडल को धन्यवाद देती हूं कि उन्होंने मुझे इस पुरस्कार के योग्य समझा। वह भी ऐसे समय में, जब साहित्य का परिदृश्य पुरस्कारों के बाजार जैसा दिखाई पड़ रहा है। जिस तरह की होड़ मची है, जोड़ तोड़ के जो किस्से सुनने में आ रहे हैं और स्वार्थों की टकराहट में साहित्यिक आपाधापी और घमासान का जो दृश्य आये दिन दिख रहा है, वह हमारे आज के असहनीय और हिंसक होते समाज का ही प्रतिबिम्ब है। ऐसे में यदि कुछ लोग व संस्थाएं, निष्ठा और ईमानदारी बचाए हुए काम कर रही हैं तो इस आशा और विश्वास को बल मिलता है कि सही के पक्षधर लोग, विवेक और न्याय बचे हुए हैं। यह भी कि आज जो लिखा जा रहा है, उसे पढ़ा और परखा भी जा रहा है।
आप सबने यह सम्मान देकर मेरे सिर पर जिम्मेदारी की जो दुधारी तलवार टांग दी है, उसका अहसास भी मुझे हो रहा है। मेरी जितनी समझ है, उसके मुताबिक मेरी पूरी कोशिश होती है कि अपने समय और समाज को ईमानदारी, निर्भयता और गंभीरता से अपने लेखन में व्यक्त कर सकूं और अपने जीवन में भी सामाजिक सरोकारों के प्रति अधिक सक्रिय हो सकूं, क्योंकि जितना जरूरी है जिम्मेदारी का अहसास, उतना ही जरूरी है उसके निर्वहन का साहस। और लेखक के लिए अभिव्यक्ति के साहस से बड़ा कोई अस्त्र नहीं।
जब मैं इस लेख को लिखने बैठी तो मेरे मन में बार बार यह आ रहा था कि पहले प्रेशर कुकर धोकर आलू उबाल लेती, तब लिखने बैठती तो अच्छा रहता। लेकिन आलू उबाल लेने के बाद लगातार दूसरे काम उससे जुड़ते चले जाते और लिखना, कई बार की तरह इस बार भी स्थगित हो जाता।
मैं जानती हूं कि इस छोटी सी गैरजरूरी लगने वाली बात से जो मैंने अपने लेख की शुरूआत की है तो यह बौद्धिक वर्ग को बहुत अटपटा लग सकता है। लेकिन सच यही है। यह छोटी सी बात यह बताती है कि स्त्री के दिमाग को किस हद तक अनुकूलित किया गया है। पढ़ने, लिखने, विवेक और समझ के साथ स्त्री को पहले अपने आप से लड़ना पड़ता है, अपने ही दिमाग के उस अनुकूलन से, जिसे भारतीय स्त्री की लुभावनी छवि के भीतर चौबीसों घंटे के अथक परिश्रम में बॉध दिया गया है और जिसमें जरा सी कमी रह जाने पर स्त्री अपने ही भीतर की ग्लानि से त्रस्त हो जाए। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि खाना बनाना एक अनावश्यक काम है। साफ सुथरा भोजन पकाना और संतुलित भोजन खाना सबके लिए जरूरी है, पर यह किसी एक की अनवरत जिम्मेदारी नहीं है। यह सबकी सहभागी जिम्मेदारी है। समय ऐसा है कि यहॉ घर बाहर कहीं भी, किसी भी समय एक बच्ची से लेकर बूढ़ी स्त्री तक को बेइज्जत किया जा सकता है, फिर उसके बनाए भोजन का अपमान करना कितना आसान होगा! घर के भीतर वैसे भी नियंत्रण के तरीके बाहर से कम हिंसक नहीं हैं। तमाम राजनैतिक, सामाजिक उथल पुथल के बावजूद यह आज भी हो रहा है। यहॉ लेनिन का वाक्य याद आ रहा है कि - "महिलाओं को मुक्त करने के सारे कानूनों के बावजूद वह एक घरेलू गुलाम बनी हुई है, क्योंकि घर का छोटा छोटा काम उसे दबाता है, मूर्ख बनाता है और बेइज्जत करता है। उसे रसोई और नर्सरी से बॉधता है और वह अपने श्रम को ---छोटे छोटे, दिमाग खराब करने वाले, बेतुके और दबाने वाली घरेलू चाकरी पर बर्बाद करती है।"
इसलिए इस पर विचार करना जरूरी लगता है कि स्त्री के लिए लेखन सबसे आखिरी में क्यों आ पाता है और आलू उबालने की चिंता सबसे पहले? आलू उबालना भूल जाने से होने वाली गड़बड़ियों की चिंता भी सबसे पहले? ऐसा क्यों?
क्या लिखना छूट जाने से गड़बड़ नहीं होगी?
हम, जो कुछ कहना, बताना चाहते हैं।
हम, जो दुनिया बदलने का स्वप्न देखते हैं।
हम, जो न्यायपरक दुनिया की बात करते हैं।
व्यवहारिक रूप में हमारा ही ये काम प्राथमिकता में क्यों नहीं आ पाता?
सोचना यह भी है कि घर के ये सारे काम, जो परम्परागत रूप से स्त्री के हिस्से माने जाते हैं, उन पर स्त्री का वास्तविक अधिकार कितना है? यह शुरू से रहा है कि ये घरेलू काम भी, जैसे ही अर्थिक लाभ के साथ जुड़ते हैं, उन पर पुरूषों का एकाधिकार हो जाता है। स्त्री बाहर कर दी जाती है। जिस सिलाई, कढ़ाई, भोजन पकाने, कपड़े धोने आदि काम को स्त्री का काम माना गया और जिसमें उसके श्रम और दिमाग को लगातार झोंका गया, वे स्त्री के लिए लाभ का सा्रेत, आर्थिक आजादी के आधार नहीं बन पाए। लेडीज टेलर, हलवाई, लांड्री आदि पर बाहर, पुरूषों का कब्जा रहा। यह कैसी विरोधाभासी स्थिति है कि जो पुरूष अपने कपड़े अपनी पत्नी से धुलवाता है, वही बाहर आजीविका के नाम पर दूसरों के कपड़े बिना किसी संकोच के धोने को तैयार है! इस सामंती सोच के विध्वंस के बिना ही आज की बदली परिस्थितियों ने और मुश्किलें खड़ी की हैं, जिनका विध्वंसकारी प्रभाव स्त्री और समाज के कमजोर तबके पर सबसे ज्यादा पड़ा है।
यहॉ एंगेल्स को याद किया जा सकता है कि "उद्यमों में समूचे महिला समुदाय का प्रवेश महिला मुक्ति की पहली बुनियाद है।"
आज की स्थिति यह है कि मुक्त बाजार तंत्र ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। इस मुक्त बाजार से उपजे सामाजिक, आर्थिक दबाव की मार सबसे अधिक स्त्रियों और समाज के इसी कमजोर तबके पर पड़ी है। कुछ वर्ष पहले तक तीसरी दुनिया की स्त्रियॉ इस बड़े बाजार को श्रम शक्ति के रूप में उपलब्ध नहीं थीं। वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में शामिल जरूर थीं, पर न तो उन्हें किसान के रूप में मान्यता प्राप्त हुई और न ही घरेलू उत्पाद के उद्यम को बढ़ावा मिला, बल्कि उल्टा हुआ, बाजार तंत्र ने छोटे घरेलू उत्पाद्य के उद्यम और उनकी संभावनाएं समाप्त कीं। उसने स्त्रियों के श्रम की सही कीमत दिए बिना, उन्हें सस्ता श्रम की आसान उपलब्धता में बदल जाने की परिस्थितियॉ सृजित कीं। बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा तैयार की गयी फैक्ट्रियों में मजदूरी कर रही स्त्रियों को न तो ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार है और न ही स्वास्थ्य, सुरक्षा व अन्य जरूरी सुविधाएं हासिल हैं। इस तरह के असंगठित श्रम में वे अपने हक की लड़ाई भी नहीं लड़ पातीं। यही हाल मजदूरों का भी है। इसके साथ पारिवारिक तनावों और सामाजिक उत्पीड़न का शिकार होना भी स्त्री के साथ जुड़ जाता है और पुरूषों के साथ जुड़ती है कुंठा, जिसकी मार अंतत: स्त्री को ही झेलनी होती है।
अब चूंकि परिवार के भीतर पुरानी परिस्थितियॉ बनी हुई हैं और बाहर का परिदृश्य बदल गया है। ऐसे में जिन कुछ स्त्रियों ने शिक्षा, आर्थिक स्वालम्बन से कुछ जगह बनाई है, या कह लें कि थोडा समृद्ध और ताकतवर दिखाई पड़ती हैं, वहॉ भी सिर्फ दिखने वाला भ्रमात्मक सच है। उनकी स्थिति इतनी विकट है कि वे पहले से कहीं ज्यादा अकेली हुई हैं और वर्गीय अलगाव की शिकार भी। इन स्थितियों ने उनके लड़ने की ताकत कम की है। उनकी व्यापक एकता, जो बन सकती थी, उसे कमजोर किया है। बाजार ने ऐसी स्त्रियों के लिए जो आर्थिक आजादी के क्षेत्र खोले हैं, वे भी सेवाक्षेत्र ही हैं। चाहे वह एयर होस्टेस हों, बी पी ओ कर्मचारी, दुकानों पर सेल्स का काम या किसी कम्पनी के प्रबन्धन में सहयोग सम्बंधी रोजगार। यह सभी किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी को अपनी सेवाएं देना ही है और सेवाक्षेत्र इतना टिकाउ नहीं है। क्योंकि आजादी तो उत्पादन पर निर्भर है। जब सेवा क्षेत्र टिकाउ नहीं है, तो यह दिखने वाली आर्थिक स्वतंत्रता टिकाउ कैसे हो सकती है?
साम्रज्यवाद ने मुक्त बाजार के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों पर एकतरफा कब्जा किया है। उसकी नीयत साफ नहीं है और उसका उद्देश्य संसाधनों पर कब्जा जमाना और अपना मुनाफा है, तीसरी दुनिया के देशों में गरीबी और बेरोजगारी दूर करना नहीं। ऐसा पहले भी रहा है, पर तब औपनिवेशिक व्यवस्था साफ दिखाई पड़ती थी। दूसरे का शासन दिखता था। उसे स्थानीय आदमी समझ पाता था, पर आज वह दिखता हुआ नहीं है। वह बहुत व्यापक और छिपे हुए रूप में है। इस बड़े बाजार ने रोजगार की संभावनाओं के नाम पर सेवाक्षेत्रों का विस्तार किया है। उत्पादन न होने की स्थिति मे ये सेवा क्षेत्र समाप्त हो जायेंगे। आज इसी आधार पर दुनिया की बड़ी मंडी में लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं। उसमें स्त्री भी बेरोजगार हुई है।
कुल मिला कर उत्पादन में हिस्सेदारी के बिना मुकम्मल आर्थिक स्वतंत्रता हासिल नहीं की जा सकती।
आज जरूर अमेरिका द्वारा बनाए गए पूंजी के साम्राज्य में आर्थिक मंदी का दौर आया है, पर इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि पूंजीवाद चरमरा गया है। अभी हाल में सम्पन्न हुआ योरोपीय देशों का जी 20 सम्मेलन तो ऑख खोलने वाला है। इस सम्मेलन का ब्रिटिश नागरिकों द्वारा विरोध किया गया। अमेरिका के प्रति नागरिकों का प्रत्यक्ष विरोध और जनता व शासक वर्ग के बीच का फासला खुल कर दिखाई पड़ा। परंतु साम्राज्यवादी ताकतों ने लगभग पूरे विश्व में आजमाई जा रही दमन की राजनीति के सहारे जनता के इस छोटे से विरोध की आवाज दबा दी। इस सम्मेलन में जो उपाय खोजे गए, उन पर गौर करें। जी 20 सम्मेलन में भाग लेने वाले देश इस आर्थिक मंदी से निपटने के लिए सम्मिलित रूप से अरबों, खरबों का धन लगायेंगे। प्रश्न यह है कि यह धन किसका है? बाहर विरोध करती जनता का! जनता की पूंजी कारपोरेट सेक्टर को सौंप देना कैसा उपाय है? अमेरिका तो ऐसे संकट में पहले ही जनता के खून पसीने की कमाई टैक्सों के रूप में लगा चुका है। और जरा अपने देश को देखिए - किस प्रेम के चलते भारत इस सबके बीच अंतरराष्ट्रीय बैंकों यानी आई एम एफ, विश्व बैंक और ऐशियाई विकास बैंक के नाम पर बीस अरब डालर यानी लगभग एक लाख करोड़ रूपए दे आता है? यह दान का पैसा किसका है? और भारत के प्रधानमंत्री को बिना किसी सार्वजनिक सम्मति, सूचना या जानकारी दिए बगैर ऐसा निर्णय करने का अधिकार कैसे है?
अमेरिकी राजनीति के शिकार, विकास के भ्रम में परेशानहाल तीसरी दुनिया के देच्चों पर भी आप नजर डाल सकते हैं।
आज प्रतिरोध की शक्ति की जितनी ज्यादा जरूरत है, उतना ही आम आदमी जीवन की जटिलताओं में उलझ कर इस सोच से निष्क्रिय होने लगा है। जन आन्दोलनों की गति धीमी हुई है। बाजार की चकाचौंध, प्रभुत्व और कठिन जीवन की थकान, उलझाव, समयाभाव व शो्षण की बारीक होती चालों ने भ्रमात्मक प्रगति के नाम पर बेहतर दुनिया के स्वप्न की धार कम कर दिया है। इस भयावह समय को अभ्यास की सुप्तावस्था में ही सहन किया जा सकता है।
स्वप्न और आकांक्षा का गुम जाना खतरनाक स्थितियों की ओर संकेत करते हैं। इसे ही पाश ''सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना---" कहते हैं। यह व्यवस्था आम जन के लिए किस हद तक निष्ठुर और अमानवीय है। इसी के बीच स्त्री भी है, जिसकी पुरानी परिस्थितियॉ तो हैं ही, आज की परिस्थितियों ने रहा सहा भी उससे छीना है। औद्योगिक विकास ने उसका समाज उससे छीन कर उसे अकेला और अलगावग्रस्त बनाया है। यह अलग बात है कि इस जूझने में कौन कितना बचा रह जाता है?
आलू उबालने की चिंता से लेकर, आलू के बाजार चिप्स आदि आदि से होते हुए जी 20 सम्मेलन तक का जो पूरा परिदृच्च्य है, उसी के बीच से स्त्री जीवन के सामाजिक सरोकारों को भी देखा जाना चाहिए। पूरे समाज पर बात किये बिना अकेले स्त्री जीवन पर बात नहीं की जा सकती। उसकी समस्याओं को आज के समय के भीतर, बाजार, व्यवस्था, राजनीति या जीवन के किसी भी पहलू से काट कर नहीं समझा जा सकता।
कई गुना जिम्मेदारी के बोझ से दबी स्त्री फिर भी च्चिक्षा और आर्थिक स्वालम्बन के लिए जद्दोजहद करती हुई मुक्ति के बारे में सोचने का साहस करती है। परिवार में दिन रात होने वाली छोटी छोटी बातें, घटनाएं, स्त्री जीवन को नियंत्रित करने के हथकंडे उसे कितना असामान्य और दिमागी तौर पर किस तरह विक्षिप्त बनाते हैं। इसे देखने , समझने की कोशिश भी जरूरी है। प्राय: उच्च शिक्षित परिवारों तक में स्त्री को निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं मिली है। यहॉ तक कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी उसके हिस्से नहीं है। यह सच कितनी स्त्रियॉ खुल का स्वीकार करने का साहस कर सकती हैं कि आज भी परिवार के भीतर तर्क, बहस करने पर सिर काट लिए जाने की धमकीभरी परम्परा हमारी भारतीय संस्कृति के रूप में गर्व के साथ उपस्थित है। उपर से यह समय, जो स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखलता को बढ़ावा देता है। घुमा फिरा कर स्त्री को उसी राह ले जाता है, जिससे मुक्त होने की सारी को्शिश है। स्वतंत्रता की समझ के लिए विवेक बुद्धि की जरूरत है, उच्छृंखल हो जाने की नहीं।
यह दु:खद घटना आपको बताना चाहती हूं कि अपनी 'मिड डे मील" कहानी पूरी करने के बाद यह खबर मुझे मिली कि उत्तर प्रदे्श में किसी गॉव के ग्राम प्रधान ने स्कूल के हेड मास्टर की गला दबा कर हत्या इसलिए कर दी कि वह स्कूल में 'मिड डे मील" के पैसों के लिए विद्यार्थियों की उपस्थिति सौ प्रतिशत दिखाने को तैयार नहीं था और शायद पैसों की बंदरबाट के लिए भी नहीं। इस जिद की कीमत उसकी जान हो सकती है। सरकारी अस्पतालों का हाल दयनीय है और चमकते हुए प्राइवेट अस्पताल आम आदमी की जेब के बाहर की चीज हैं। जीवन की अत्यंत आवश्यक सामूहिक आवश्यकताओं के प्रति हमारी सरकारों का रवैया ऐसा ही है। हर सार्वजनिक आवश्यकताओं की चीजों का प्राइवेटाइजेशन। यह निजीकरण की व्यवस्था यद्धपि विकल्प के रूप् में है, पर यह इतनी आक्रामक है और प्राय: विकल्प की बजाय सिर्फ और सिर्फ वही बची रहती है, जिसकी चपेट में आम आदमी पैसों से लुट कर बेकार सिद्ध किया जाता है।
यही हाल शिक्षा जगत का है। व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर जो कुछ आम आदमी के हित में था,उसे उपलब्ध था, वह उससे छीन कर निजी हाथों में सौंप दिया गया है। सरकारी कॉलेजों में टीचर्स ट्रेनिंग कोर्स खोलने की बजाय निजी संस्थानों को ये कोर्स बॉटे गए हैं और अब ये इतने मॅहगे हैं कि आम आदमी की पॅहुच से बाहर हो चुके हैं। लड़कियों के लिए ये एक महत्वपूर्ण कोर्स हुआ करते थे, खर्च की दृष्टि से भी और आर्थिक संबल चुनने की दृष्टि से भी। उनका बड़ा नुकसान हुआ है। नुकसान छात्रों का भी हुआ है। जीविका के माध्यम की एक बड़ी तैयारी को पैसों के खेल में बदल दिया गया है। अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रम तो वैसे भी बड़े मॅहगे हैं।
एक तरफ सांस्कृतिक संकट के हाहाकार के बावजूद तमाम सांस्कृतिक अवधारणाएं चूर हुई हैं और सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवाद ने तीव्र उभार पाया है। आर्थिक उदारीकरण की नीति के साथ पूंजी के वर्चस्व का विकराल स्वरूप और विकास का भ्रमात्मक दृश्य सामने है। इस दिखने वाले आर्थिक विकास के पीछे बेरोजगारी, भुखमरी, अन्याय, अत्याचार, जल, जंगल, जमीन से बेदखली, सार्वजनिक हितों की अनदेखी और सार्वजनिक उपयोग के निजीकरण पर बल, आतंकी गतिविधियों से लेकर प्रगति के प्रतीकों के लिए भयावह विस्थापन तक भयानक तरीके से उपलब्ध हुआ है।
पूंजीवादी वर्चस्व से नियंत्रित इस समय ने जीवन को उपर से भ्रमात्मक और भीतर अधिक जटिल, अधिक मुच्च्किल बनाया है। हिंसा का आनंदीकरण इसी समय की देन है। दूसरी तरफ इस समय ने इतिहास, परम्परा, मूल्यों और अस्मिता का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए भी विवश किया है। इस पुनर्मूल्यांकन की जरूरत ने साहित्य का परिदृ्श्य भी बदला है। वह पहले से अधिक मुखर हुआ है। उसकी तकनीक भी पहले से बदली है। आज के कथा साहित्य ने तो कविता की तकनीक के प्रयोग के साथ साथ गद्य के लगभग सभी रूपों को समाहित कर लिया है। समय के इस निरन्तर फिसलते भ्रमात्मक यथार्थ को पकड़ने की कोशिश कर रहे आज के साहित्य को पुराने औजारों से नहीं मापा जा सकता।
साम्राज्यवादी ताकतों का असली चेहरा और पूंजीवाद के प्रबलतम दु्ष्परिणाम के निशान बहुत साफ आम आदमी की जिंदगी में दिखाई पड़ते हैं। इस तरह सारी चकाचौंध के पीछे के ये सच, जिन्हें बेदखल मान लिया जाता है, उपस्थित होते हैं और इन्हें देखने, समझने और दिखाने की बेहद जरूरत है। आज के समय में सबसे बड़ी बेदखल कर दी गयी चीज इंसानियत है।
मेरे दौर के साहित्य में इसी समय और समाज को रचनाकारों ने अलग अलग तरह से पकड़ने की कोशिश की है। एक जिम्मेदार लेखक समाज, व्यवस्था, राजनीति, धर्म, विश्व की गतिविधियों आदि आदि कारक तत्वों को नजरअंदाज करके कैसे लिख सकता है? अब यह जो समय और समाज है, वह मेरे साहित्य में कितना अभिव्यक्त हो पाया है, इसका मूल्यांकन पाठक ही बेहतर कर सकता है, फिर भी मैने यहॉ कोशिश की है कि अपने लेखन में प्रकट किए गए अपने मंतव्य को आपके सामने स्प्ष्ट कर सकूं।
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Saturday, January 17, 2009

भाषा एक उत्तोलक है

"रात किसी पुरातन समय का एक टुकड़ा है, जिसे सन्नाटे ने थाम रखा है।" बहुआयामी काव्य-भाषा से गूंजता योगेन्द्र आहूजा का गद्य उनके कथा संग्रह "अंधेरे में हंसी", उनके रचना कौशल का ऐसा साक्ष्य है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि भाषा एक उत्तोलक है। अनुभव के संवेग से पैदा हुई उनकी कहानियों की भाषा सिर्फ अपने समय की शिनाख्त करने वाली है बल्कि कहा जा सकता है कि रचनाकार की जीवन दृष्टि को भी पाठ्क के सामने प्रस्तुत कर सकने में सक्षम है। भाषा रूपी इसी उत्तोलक से योगेन्द्र आहूजा ने अपनी उस पक्षधरता को भी साफ किया है जो पुनर्निमाण और खुलेपन की उस षड़यंतकारी कथा का पर्दा फाश करने वाली है जिसने मनुष्यता के बचाव में रचे गये तमाम ऐतिहासिक प्रयासों को वातावरण में शेष बचे रहे धुधंलके के साथ धूल के ढेर में दबा दिया है।
उत्तोलक की वह सभी किस्में जो अपने आलम्ब के कारण अलग पहचान बनाती है, योगेन्द्र आहूजा के आयास को ऊर्जा में या अनुभव की ऊर्जा को आयास में बदलकर कहानियों के रूप में सामने आयी हैं। नींबू निचोड़ने की मशीन भी उत्तोलक ही है। अनुभव के रसों से भरा नींबू और उसका तीखा स्वाद ही योगेन्द्र आहूजा की कथाओं का रस है- "वही जो भूतपूर्व सोवियत संघ के राष्ट्रपति थे, जिनके माथे पर जन्म से एक निशान है, जो अपने देश से ज्यादा अमरिका में लोकप्रिय थे, जो वोदका नहीं छूते, जिनकी शक्ल के गुड्डे पश्चिमी बाजारों में धड़ाधड़ बिकते थे, जो खुलेपन और पुनर्निमाण के प्रवक्ता थे, और आजकल कहां हैं, पता नहीं। गोर्बाचोव, हम मामूली लोगों की इस आम फ़हम कहानी में?"
दसवें विजय वर्मा कथा सम्मान से योगेन्द्र आहूजा को उनके कथा संग्रह अंधेरे में हंसी पर सम्मानित किया गया है।सम्मान समारोह आज दिनांक 17/1/2009 को मुम्बई में सम्पन्न हुआ सम्मान समारोह में अपनी रचना प्रक्रिया का खुलासा कथाकर योगेंद्र ने कुछ यूं किया-


वक्तव्य

योगेंद्र आहूजा

स्व. विजय वर्मा की स्मृति में स्थापित इस पुरस्कार के लिये मैं हेमंत फाउंडेशन के नियामकों संतो्ष जी और प्रमिला जी और अन्य सदस्यों और आप सबका आभार व्यक्त करना चाहता हूँ । मेरे लिये यह एक खास क्षण है और इसे बहुत दूर तक, शायद जीवन भर एक गहन स्मृति की तरह मेरे साथ रहना है। इस अवसर पर खुशी महसूस करना स्वाभाविक है, लेकिन इस समय जिन एहसासों के बीच हूँ, उन्हें बताने के लिये खु्शी शब्द बहुत नाकाफी है। ऐसे मौकों पर तमाम मिले जुले एहसासों की आँधी से, एक भावनात्मक तूफान से गुजरना होता है । मन कच्ची मिट्टी के घड़े जैसा होता है जिसमें लगता है कि इतना प्यार समेट पाना मुश्किल है - और दूसरी ओर बहुत सारे दरकिनार कर दिये गये सवाल और हमेशा साथ रहने वाले कुछ संशय, शंकायें और दुविधायें ऐसे क्षणों में एक साथ सिर उठाते हैं, समाधान माँगते हुए । मेरी अभी की मन:स्थिति में एक रंग संकोच और लज्जा का भी जरूर होगा। 72 वर्ष की उम्र में बोर्गेस ने, जो निस्संदेह बीसवीं सदी के सबसे बड़े साहित्यिक व्यक्तित्वों में से एक थे, कहा था कि वे अभी भी कवि बनने की कोशिश में लगे हैं । मैं भी अपने बारे में यही कह सकता या कहना चाहता हूँ कि लेखक बनने की को्शिश में लगा हूँ - अपनी रचनाओं को लेकर किसी आश्वस्ति या सुकून से बहुत दूर । संकोच की एक वजह तो यह है और दूसरी ---


मैं यहाँ आप सबके सामने जो मेरे आत्मीयजन, मित्र और पाठक हैं, एक कनफेशन करना चाहता हूँ। मैं सचमुच नहीं जानता लेखक होना क्या होता है, कोई कैसे लिखता है। मैं लेखक नहीं, सिर्फ एक स्टैनोग्राफर हूँ। एक मुंशी महज, या रिकार्डकीपर। लिखता नहीं, सिर्फ कुछ दर्ज कर लेता हूँ। जो थोड़ा बहुत लिखा है वह दरअसल किसी और ने लिखवाया है । शायद आपको लगे कि मैं ऐसा कहकर लिखने की प्रक्रिया को अतींद्र्रिय, रहस्यात्मक या जादुई बना रहा हूँ । शायद मैं किसी इलहाम या दूसरी दुनिया के संदे्शों की बात की रहा हूं। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है, मैं पूरी तरह इहलोक का वासी हूँ, अध्यात्म से अरुचि रखने वाला और अपने जीवन में रेशनेलिटी और तर्कबुद्धि से चलने वाला। लेकिन मेरा एक संवाद जरूर है अलग अलग वक्तों में हुए सार्वकालिक महान लेखकों, महाकवियों, विचारकों, मनीषियों से, जो मृत्योपरांत भी मेरे कानों में कभी कभी कुछ कह जाते हैं। मैं उनकी फुसफुसाहटें रिकार्ड कर लेता हूँ, उन्हें समकालीन संदर्भो से जोड़कर और एक आधुनिक शिल्प में तब्दील कर । मैं इतना ही श्रेय लेना चाहता हूँ कि वह संवाद बना रहे इसकी एक सचेत को्शिश मैंने लगातार की है, और हाँ शायद स्मृति को जागृत रखने की भी - बेशक रचनाओं की कमियों की जिम्मेदारी तो मेरी ही है। हमारे यहाँ कहा गया है कि गुरू कोई एक, केवल एक ही होना चाहिये। यशपाल जी ने कहीं लिखा था कि दत्तात्रेय ने अपने 20 या 22 गुरू बनाये थे और इसके लिये निंदा और परिहास का पात्र बने थे। यशपाल जी लिखते हैं, मैं नहीं जानता मैं कितनी निंदा का पात्र हूँ, क्यों कि मेरे गुरूओं की संख्या तो 20 से कहीं ज्यादा है। वे सैकड़ों तो हैं ही अगर हजारों नहीं, जिनमें न जाने कितनी भाषाओं और देशों के लेखक, कवि, विचारक, संत, दृ्ष्टा और दार्शनिक शामिल हैं । मैं इस संबंध में यशपाल जी का ही अनुकरण करना चाहता हूँ । मेरे भी तमाम गुरू हैं - अलग अलग वक्तों के तेजस्वी, विराट और मेधावी मस्तिष्क, जिनसे सीख पाया - कोई आस्था या गुरुमंत्र जैसी चीज नहीं, बल्कि उसके विपरीत, संदेह करना और सवाल करना, लेकिन संदेहवाद को भी कोई मूल्य न बनाना, संदेह पर भी संदेह करना । और अपनी भा्षा के वे अग्रज लेखक जिन्होंने खुद के उदाहरण से बताया कि जीवन में सृजन और कर्म का रिश्ता क्या होता है, रचनाकार के दायित्व और लिखित शब्द की गरिमा के क्या मानी होते हैं । उनमें से तमाम ऐसे हैं जिन्हें जीवन भर रो्शनियाँ नसीब नहीं हुई। हमारी भा्षा के सबसे बड़े आधुनिक कवि मुक्तिबोध के जीवन काल में उनकी कोई किताब प्रकाशित नहीं हुई और यह उनकी आखिर तक अधूरी तमन्ना रही कि उनके नाम का कोई बैंक खाता हो । मुक्तिबोध, शैलेश मटियानी और मानबहादुर सिंह ने जो जीवन जिया और जैसी मौतें पायीं, उसके ब्यौरे हमें स्तब्ध और निर्वाक करते हैं। ये सब मेरे गुरूओं में से हैं --- और जीवन में सौभाग्य की तरह आये वे सीनियर और समकालीन लेखक, जिन्होंने बेपनाह प्यार और भरोसा दिया और असंख्य बार यह दर्शा कर अचंभित किया कि एक व्यक्ति दूसरे के लिये कितनी बड़ी मदद हो सकता है, कितनी खुशी बाँट सकता है। मैं उनका आभार उस मदद और खुशी के लिये नहीं, इसलिये करना चाहता हूँ कि उन्होंने मुझे ऐसे विचारों से बचा लिया कि इस धरती पर मनु्ष्य एक बुराई । मैं इन सब चीजों, बातों को विस्मरण के हामी इस वक्त में एक जिद की तरह याद रखना चाहता हूँ, समझदारों के द्वारा पुराना और पिछड़ा समझा जाने की कीमत पर भी । कोई भी शख्स केवल एक शख्स नहीं होता, वह तमाम शख्स होता है, यहाँ तक कि वह पूरी मानव जाति होता है । इसी तरह कोई भी लेखक केवल एक लेखक नहीं होता, उसमें जीवित मृत, अपनी और दूसरी भाषाओं के, और अलग अलग देशों और वक्तों के तमाम लेखक और लोग शामिल होते हैं । एक अकेला लेखक होना नामुमकिन है । इसलिये यहाँ अकेले खड़ा होना मुझे संकोच और लज्जा से भर रहा है ।

आभारी हूँ लेकिन यह अवसर सिर्फ आभार व्यक्त करने का नहीं । इसे एक उत्सव की तरह मनाना इस मौके को गँवा देना, सिर्फ बरबाद करना होगा । उत्सव या जश्न का कोई कारण, कोई मौका नहीं । मुम्बई और उसके साथ पूरे देश को पिछले दिनों एक दु:स्वप्न से गुजरना पड़ा है। बीस बरस पहले जो आर्थिक प्रायोजना जोशो खरो्श से लागू की गयी थी, अब उसकी साँसें मंद पड़ रही हैं । जिन जीवनमूल्यों को नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन के एक लंबे दौर में हासिल किया गया, यह जैसे उनकी प्रति अभिव्यक्ति का वक्त है । विवेक के लुंज होने के तमाम संकेत है। अब जो कुछ भी "दूसरा" है, दुश्मन है - दूसरा धर्म, भाषा, इलाका, पहनावा, विचार यह प्रतिक्रियावाद के प्रसार का, उत्पीड़कों और मतांधों का स्पेस बढ़ते जाने का एक बेहद खतरनाक समय है ऐसे में इस मौके का सही इस्तेमाल लेखनकर्म की प्रकृति, प्रयोजन और उद्देद्गय पर, लेखक के कार्यभारों पर दुबारा विचार करने के लिये हो सकता है। कुछ सवाल होते हैं जिनके कोई अंतिम समाधान नहीं होते और उन पर बार बार सोचते रहना, यह रचनाकर्म का ही हिस्सा होता है । मसलन, कोई क्यों लिखता है और लिखने से क्या होता है । In the beginning was the word, इन शब्दों में बाइबिल बताती है कि सृ्ष्टि की शुरुआत शब्द यानी ध्वनि से हुई थी और इसी से मिलती जुलती बात आधुनिक विज्ञान कहता है कि यह सारी सत्ता, पूरी कायनात, जो कुछ भी अस्तित्वमान है, वह एक बिग बैंग, एक महाविस्फोट से अस्तित्व में आया । ध्वनियाँ और विस्फोट और वह अनंत खामोशी जिसमें धार्मिकों के अनुसार एक दिन सब कुछ विलीन हो जायेगा ईश्वर के सृजन सही, लेकिन मनुष्य का काम उनसे नहीं चलता । उसे कोरी आवाजों और धमाकों की नहीं, वाक्यों की जरूरत होती है जो जूतों, जहाजों, घड़ियों, सीढ़ियों, नक्शों और नावों इत्यादि की तरह मनु्ष्य को अपने लिये खुद बनाने होते हैं । अपने कमरे या कोने में धीरज के साथ कोरे कागज का सामना करता, किसी अज्ञात, रहस्यमय अंत:प्रेरणा की दस्तक सुनता, अपने भीतर एक उथल पुथल और धुकधुकी का पीछा करता लेखक भी सिर्फ यही तो करता है । वाक्य बनाता है, उसमें कौमा और विराम चिह्नों को इधर इधर करता हुआ, बिना जाने कि उनका क्या हश्र होगा, वे कहाँ तक जायेंगें । मगर उसकी आकांक्षायें और इरादे बहुत बड़े होते हैं - अपने वक्त की टूटफूट और त्वरित बदलावों को समझना, उनमें से किसी खास को रेखांकित करना, संदेहों का इजहार, कोई स्वीकारोक्ति, पुराने विचारों की पुनर्परीक्षा, केंद्रीयताओं का प्रश्नांकन - पूरे समाज, पूरे अर्थतंत्र और मनुष्य के मन का अपनी आंकाक्षाओं के अनुसार पुनर्निर्माण । चाहता है चीख और खामो्शी के बीच के सारे अर्थों को समेट ले । दुनिया उसकी आंकाक्षाओं के रास्ते पर नहीं चलती, और उसकी उसकी आकांक्षाओं को दुनिया के किसी कोने में, कहीं हाशिये पर ही थोड़ी सी जगह मिल पाती है। मुझे लगता है कि आने वाले वक्तों में वह थोड़ी सी जगह भी छिनने वाली है। शब्द की सत्ता पर खतरे बढ़ते जा रहे हैं, बाहरी और भीतरी दोनों तरह के । साहित्य की दुनिया में उत्सवधर्मिता, तात्कालिक उत्तेजना और एक धोखादेह किस्म के रोमांच का अधिकाधिक बढ़ते जाना, इसे मैं एक भीतरी खतरे के रूप में देखता हूँ, और बाहरी खतरा हमारे समय की तेज रफ्तार जितनी देर हम अपनी मेधा की पूरी शक्ति से अपने वक्त को समझने की को्शिश करते हैं, उतनी देर में वक्त बदल जाता है। हमारे वक्त में संक्रमण की, बदलाव की रफ्तार अभूतपूर्व है। हमारे रा्ष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में लगातार नयी सत्तायें उभर रही हैं और नये गठजोड़ बन रहे हैं। वे लगातार व्याख्या, निगरानी और संधान की माँग करते हैं और यह जोखिम बना रहता है कि इस को्शिश में जितना वक्त लगेगा, उतनी देर में वे कुछ और बदल चुके होंगे । इस तेज रफ्तार में लेखकों के लिये खतरा यह है कि आप थोड़ी देर को असावधान हुए और समाज के स्पंदनों, उसके अतीत और आगत की मीमांसा की आपकी सामर्थ्य चुकी। खतरा यह है कि खुद विचार करने में असमर्थ होकर लेखक बाजार की डिब्बाबंद और रेडीमेड चीजों की तरह तैयारशुदा विवेचनाओं से काम चलाने लगे । हमारे इस विचारशिथिल वक्त में बने बनाये आकर्षक विचारों की कोई कमी नहीं - इतिहास का अंत, विचार का अंत, परिवार, चेतना, स्मृति, आकांक्षाओंश और मानवीय संबंध यानी जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान था, सबका अंत - और लेखक की मृत्यु और सभ्यताओं का संघर्ष । हमारे चारों तरफ ऐसे विचारों और व्याख्याओं का एक घना जाल है जिसे पेशेवर बौद्धिकों और चालाक चिंतकों ने बुना है, वे प्रखर और प्रतिभाशाली हैं, इसमें क्या शक । वे कहते हैं कि पिछले दो तीन दशकों में कुछ ऐसे अप्रत्या्शित, सर्वव्यापी और मूलगामी परिवर्तन हुए हैं जिन्होंने सब कुछ बदल डाला है और इन परिवर्तनों को समझने के लिये पहले के संदर्भ, उपकरण और प्रत्यय अनुपयोगी हैं, मनुष्य ने अब तक जो भी ज्ञान विज्ञान अर्जित किया है, बेकार है, इन परिवर्तनों के आगे बेबस है । अब एक उत्तर आधुनिक, उत्तर औद्द्यौगिक, उत्तर समाजवादी, तकनीकी समाज सामने है । जो नयी विश्व व्यवस्था बन रही है, वही मुकददर है । वे विकसित टेक्नालाजी के सामने मनु्ष्य की दयनीयता का, उसकी निरुपायता का हलफनामा लिखते हैं और उसे एक महान सत्य की तरह पे्श करते है। वे बताते हैं कि इस वक्त जो समाज बन रहा है उसके केंद्र में मनुष्य नहीं होगा, न उसका जीवन । अब केंद्र में केवल सत्ता होगी और मनुष्य केवल पर्यावरण का हिस्सा होगा । यह शोर बीस बरसों से जारी है, हाँलाकि अब विश्वव्यापी मंदी में जरूर थोड़ा थमा है । लेकिन क्या मनुष्यता के इतिहास में सच कभी इतना निर्वैयक्तिक, इतना नि्शंक, इतना निरपेक्ष, इतना आसान रहा है ? नियंत्रणकारी ताकतें जो एक छद्म चेतना को गढ़ने के प्रयासों में हैं, अब हमारे चारों तरफ हैं । हमारी स्मृतियों और संवेदनाओं पर उनका चौतरफा हमला है । आकर्षक और सम्मानित नामों से साम्प्रदायिकता लोगों के स्नायुतंत्र के साथ इतिहास और सत्ता पर कब्जा करने के लिये सन्नद्ध है । शायद आने वाले वक्त में हमारा लगभग सर्वस्व दॉंव पर लगने वाला है - लोकतंत्र का अस्तित्व, मूलभूत नागरिक अधिकार, इजहार की आजादी सब कुछ । ऐसे वक्त में लेखक का काम, उसका धर्म, दायित्व --- जाहिर है, वह और भी मुश्किल होने वाला है । यह कहना कतई काफी नही कि लेखक की सच से एक अटूट प्रतिबद्धता होनी चाहिये - यह तो बुनियादी बात है ही । हमारे वक्त में जब सच, झूठ और सही गलत की पहचान भी साफ नहीं, लेखक की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी, ज्यादा मु्श्किल है । इस पहचान को साफ करने के लिये उसे सत्ता समर्थित व्याख्याओं के महीन, घने जाल को काटने की कोशिश भी करनी है । उसे हर सवाल पर एक साफ पोजी्शन लेनी है हवाई किस्म की उस गोल मोल, बेमानी मानवीयता से बचते हुए जो आततायियों के पक्ष में जाती है । समाज में पैदा होने वाली नयी उम्मीदों और नये जीवन मूल्यों की पहचान और रेखांकन यह भी उसका एक जरूरी काम है । और हाँ, उसे विस्मरण के प्रतिवाद की को्शिशों में भी शामिल रहना है ।

मैंने स्मृतियों की, स्मृति को जागृत रखने की बात कही थी । हमारी भा्षा के एक कवि असद जैदी की एक कविता में --- रेलवे स्टेशन पर पूड़ी साग खाते हुए उन्हें रूलाई छूटने लगती है याद आता है कि मुझे एक औरत ने जन्म दिया था, मैं यूँ ही किसी कुँए या बोतल में से निकल कर नहीं चला आया था । हम सब भी जो अपने को लेखक होने के गौरव से जोड़ना चाहते हैं, उल्कापात की तरह जमीन पर नहीं टपके, न किसी बोतल की संतान हैं । हम अपनी भा्षा और पड़ोस की भाषा उर्दू की उस रवायत से आये हैं जिसे असाधारण और विराट व्यक्तित्वों ने अपने प्राणों और खून से बनाया । प्रेमचंद, सज्जाद जहीर, मंटो, बेदी, इस्मत चुगताई, मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन, शम्शेर और अन्य तमाम, अपने वक्तों के सर्वाधिक जागृत, तेजस्वी और अग्रग्रामी व्यक्तित्व। शायद आप कहना चाहें, भला यह भी कोई कहने की बात है। लेकिन नहीं, अब यह सब कहना भी जरूरी हो गया है। हमारे वक्त में स्मृतियाँ मिटाने के तमाम सत्तापोषित उपक्रम जारी हैं जिनके बीच कुछ याद करना और रखना एक कठोर आत्मसंघर्ष के बाद मुमकिन हो पाता है । सागर जी की अद्वितीय फिल्म 'बाजार' जो हम सब ने बार बार देखी है का एक वाक्य है - करोगे याद तो हर बात याद आयेगी । लेकिन इस वक्त भुलाने की भी कीमत मिलने लगी है । साहित्य के एक हल्के में अतीत से पीछा छुड़ाने की कोशिशें हैं, जैसे वह कोई बोझ हो। वे भुला देना चाहते हैं अपनी भाषा के सरोकारों, तनावों, नैतिकता और प्रतिवादों की - और चाहते हैं कि साहित्य महज लफ्जों का खेल रह जाये। ऐसे में भूलने के विरूद्ध होना और याद दिलाते रहना इस वक्त लेखक का एक अतिरिक्त कार्य भार है । लिखने के तरीके, शिल्प, भाषा और बयान का अंदाज, यह सब तो हमेशा ही बदलेगा लेकिन उद्दे्श्य, सरोकार और चिंतायें फै्शन की तरह नहीं बदले जा सकते । निर्मल वर्मा की एक बात याद आती है जो उन्होंने एक निबंध में लिखी थी - वे शहर अभागे हैं जिनके अपने कोई खंडहर नहीं । उनमें रहना उतना ही भयानक अनुभव है जितना किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना जो अपनी स्मृति खो चुका है, जिसका कोई अतीत नहीं। इसी बात को आगे बढाते हुए --- वह भाषा कितनी अभागी होगी जिसमें पूर्वज लेखकों और उनके लिखे की, उनकी आंकाक्षाओं और जददोजहद की स्मृति विलुप्त हो जाय। रघुवीर सहाय ने तकरीबन तीन दशक पहले एक कविता "लोग भूल गये हैं" में चिंता व्यक्त की थी - जब अत्याचारी मुस्कराता है, लोग उसके अत्याचार भूल जाते हैं" । देवी प्रसाद मिश्र की कहानी "अन्य कहानियाँ और हैल्मे" के एक मार्मिक प्रसंग में नैरेटर अपमान सहने के बाद होम्योपैथी की दुकान में अपमान के भूलने की दवा लेने जाता है और बूढ़ा डाक्टर मना करते हुए कहता है कि अपमान को भूलने के साथ अन्याय की स्मृति भी जाती रहेगी । इस तरह न्याय पाने के प्रयत्न भी खत्म हो जायेंगे । लेखक के लिये जरूरी है याद दिलाते रहना कि भुलाना भूल ही नहीं, बहुत सारे मामलों में जुर्म, एक अक्षम्य जुर्म होता है । इसलिये कि जो भुला दिया जाता है वह अपने को पहले से भी जघन्य और नृशंस रूपों में दुहराता है। इस भूलने और भुलाने के विरूद्ध एक संघर्ष भी लगातार जारी हैश। मैं भी इसी संघर्ष में रहना चाहता हूँ, कुछ ऐसा लिख पाने की कोशिशों के रूप में जो एक साथ अपने वक्त का बयान भी हो और अपनी भाषा के श्रेष्ठतम की याद भी ।

मुम्बई आने पर और सागर जी की मौजूदगी में, थोड़ा सा फिल्मी होना माफ होना चाहिये । मुक्तिबोध जो मराठी भा्षी थे, लेकिन लिखा उन्होंने हमारी भाषा में, की कविता पंक्तियाँ हैं : दुनिया जैसी है उससे बेहतर चाहिये, इसे साफ करने के लिये एक मेहतर चाहिये । इन पंकितयों से याद आया एक दृश्य जो हाल की एक फिल्म 'मुन्ना भाई एम बी बी एस' का है, लेकिन लगता है चैप्लिन की किसी फिल्म का । एक मेहतर है, अस्पताल में सफाई करता, और जो उसकी मेहनत को बरबाद करते गुजर रहे हैं, उन पर चीखता चिल्लाता । नायक जाकर उसे गले लगा लेता है, जिसकी उसे न कोई उम्मीद थी न कोई तमन्ना । वह अवाक रह जाता है और उसके मुँह से यही निकल पाता है - चल हट, रुलायेगा क्या ? यह सम्मान ग्रहण करते हुए ऐसी ही कुछ फीलिंग्स मेरे मन में हैं । मैं इस वादे के साथ अपनी बात खत्म करता हूँ कि अपना काम जारी रखूँगा और कोशिश करूँगा कि और भी बेहतर तरीके से उसे कर सकूँ ।

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Friday, November 14, 2008

जारी रहे पहल (सम्मान)

पहल बंद होने के कगार पर है- यह खबर है। कई ब्लागों में छपी सूचनाएं, जनसत्ता में कवि अशोक वाजपेयी का कॉलम और गाहे बगाहे सुनी जा रही खबरें चिन्तित करने वाली हैं। इसीलिए उन पर यकीन भी नहीं होता। यकीन करना भी नहीं चाहते। पहल आज हिन्दी की एक ऐसी केन्द्रीय पत्रिका है जिसे जनपक्षधर साहित्य का स्कूल भी कहा जा सकता है। उसमें छपे की विश्वसनीयता है। पहल से धुर असहमति रखने वाले भी इससे अलग राय नहींरख पाते हैं। आज पत्रिकाएं तो बहुत निकल रही हैं पर पहल की जो भूमिका है उसको स्थानापन करने की सार्म्थय अभी तो किसी में नहीं है। पहल ने जन पक्षधरता के सवाल को जिस तरह से प्राथमिकता पर रखा है उससे इस हल्लातारु दौर में भी अन्य पत्र-पत्रिकाओं पर एक लगाम लगती रही है। प्रतिबद्धता की इस मुहिम के जारी रहने की खबर फिर कैसे हिन्दी के पाठकों की चिन्ता का विषय होगी। पहल-90 जो ताजा-ताजा छपा है, में प्रकाशित यतीन्द्र मिश्र के आलेख "ठुमरी के नैहर में बनारस की मैना " के अंत में छपी टिप्पणी "--- धारावाहिक आगे भी जारी रहेगा ।" हमारे इस यकीन को पक्का करता है कि पहल का प्रकाशन सतत जारी रहेगा और उसे रहना भी चाहिए।

इस उम्मीद को कायम रखते हुए ही पहल सम्मान 2000 के सम्मानित कथाकार
विद्यासागर नौटियाल जी द्वारा सम्मान के वक्त प्रस्तुत उनका आत्मकथ्य, प्रकाशित किया जा रहा है। वरिष्ठ कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने 29 सितम्बर 2008 को 76वें वर्ष में प्रवेश किया है। वारणसी से निकलने वाली पत्रिका आर्यकल्प ने उन पर विशेषांक निकाला है। हम भी अपने प्रिय ऊर्जावान और बुजुर्ग-युवा कथाकार को शुभकानाएं देते हैं। इस अवसर पर उनकी अन्य रचनाएं भी सिल-सिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। यह उसकी पहली कड़ी है।

दसवें ' पहल " सम्मान के अवसर पर 4 जून, 2000 को देहरादून के टाउन हॉल में विद्यासागर नौटियाल द्वारा दिया गया वक्तव्य

सभागार में उपस्थित सम्बन्धियों मित्रों, परिचितों, साहित्यप्रेमियों , रचनाधर्मियों और साथियों से घिरा होने पर मेरी नज़रें एक मेहतरानी की सूरत तलाशने लगी हैं । यह सुनि्श्चित हो चुका है कि इस वक्त वह हमारे बीच नहीं । भारत की आज़ादी के कुछ समय बाद केन्द्र और प्रान्त की सरकारों से सीधी टर लेते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को भूमिगत हो जाना पड़ा था । हमारा शिकार करने को घूम रहे मुस्तैद पुलिसकर्मियों की सतर्क निगाहों से बचते हुए इस शहर की एक छोटी-सी झोंपड़ी के अन्दर बारी-बारी से कभी दूसरे, कभी तीसरे दिन पहुँचकर हम एक या दो साथी बहुत बेताबी से उस मेहतरानी का उस घर के अन्दर लौटने का इन्तज़ार करने लगते थे । अपने आँचल के नीचे एक थाली को छुपाती हुई वह घर के अंदर पाँव धरती तो हमारे चेहरे खिल उठते । उसकी थाली में विभिन्न घरों से, जहाँ-जहाँ वह काम करती होगी,माँग-माँग कर लाई गई इस शहर की जूठन होती । अपने भूखे बच्चों को खिलाने से पहले वह उस थाली के मिश्रित पदार्थ हमें परोस देती थी । गुरदयालसिंह बताते हैं कि गुरूद्वारे में अमृत छकने के बाद सिख कोई अन्य पदार्थ ग्रहण नहीं करता । भूमिगत ज़िन्दगी में उस अमृत का पान करने के बाद मैने आजीवन अपने को उस वर्ग के साथ एकाकार करके रखने की चेष्ठा की । दुनिया का कोई प्रलोभन मुझे विचलित नहीं कर पाया । पूँजीवादी समाज के कुल पदार्थ बेस्वाद लगते रहे । सोच रहा हूँ कि इस मौके पर कहीं से वह मेहतरानी माँ, हमारी वह कामरेड भी इस सभागार में आ लगती तो उसके आल्हाद के तापमान को माप करने लायक कोई यंत्र क्या वैज्ञानिक ईजाद कर पाते ?
राजगुरू कुल में जन्मे पिता नारायणदा नौटियाल वन विभाग के अधिकारी थे । मेरा बचपन रियासत टिहरी-गढ़वाल के उन भयानक,घनघोर जंगलों में बीता जहाँ शायद अब अकेले जाने का मैं साहस न कर सकूँ । यद्यपि उन वनों का अधिकांश माफिया की हव्श के शिकार हो चुके है। । उस ज़माने में उस वन-प्रदे्श में रहते हुए मुझे इस बात की जानकारी नहीं रहती थी कि रोग-बीमारियों का उपचार करने के लिए रीछ के कलेजे के अलावा किसी अन्य चीज़ का भी औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । उसे हम रिखतिता कहते थे । ज्वर-बुखार से लेकर चोट वगैरह लगने या छाती-पेट-बदन आदि में दर्द उठने,कैसा भी दर्द उठने,की दवा मेरी जानकारी में रिखतिता होती थी । हमारे ज्ञान में दवा का अर्थ रिखतिता होता था । अपने बचपन में मैने कितनी मात्रा रिखतिता की हज़म की इसका कोई हिसाब नहीं दिया जा सकता । रीछ की एक विशेषता यह होती है कि गोली लगने पर,घायल होने पर वह रूकता नहीं,आगे बढ़ता जाता है । रास्ते में मिलने वाले वृक्षों और झाड़ी-गाछ से पो दंदोड़ कर वह अपने घावों को भरता जाता है और बढ़ता जाता है। रिखतिते की अचूक शक्ति की सहायता से अपने बचपन के कुल रोगों से लड़ते रहने के कारण मेरे अन्दर रीछ का वही स्वभाव भर गया । जीवन और साहित्य में हमलों से विचलित हुए बगैर मैं अपने लक्ष्य की ओर लगातार अग्रसर रहा ।

मामा बिशु भट्ट साबली गाँव के बेहद गरीब आदमी थे। एक बार हमसे भेंट करने शिमला पहाड़ियों के मिलान पर टिहरी-गढ़वाल रियासत के सीमावर्ती क्षेत्र बंगाण पट्टी के कसेडी रेंज मुख्यालय पर आए । उनको कुछ रोज़गार की ज़रूरत थी । पिता ने बड़े पाजूधार में जमा लकड़ी के स्लीपरों को छोटे पाजूधार तक ढुलान करने का काम सौंप दिया । पिता के लम्बे दौरे पर जाते ही मेरी माँ ने मुझे भी उस काम में जोत दिया इस सख्त व गोपनीय हिदायत के साथ कि इस बारे में किसी भी तरह पिता को पता नहीं लगना चाहिए । मामा के अलावा स्लीपरों के उन चट्टों के ढुलान की जुम्मेदारी मेरे कमज़ोर कंधों पर भी आ पड़ी । किसी अन्य बालक के साथ मैं भी बारह फुट्टे स्लीपरों के ढुलान में जुट गया । लम्बे दौरे के बाद पिता के घर लौटने से पहले ही ढुलान का काम पूरा कर लिया गया था । मजूरी के भगतान के वक्त मामा को लगा कि शायद हिसाब में कुछ गड़बड़ी हो गई है । पहाड़ी लोग दिन के वक्त सिर्फ भात खाते हैं । भात चौके के अन्दर खाया जाता था । बच्चों का वहाँ प्रवेश वर्जित होता । मामा पिता के एकदम पास,चौके के अन्दर बैठे थे । माँ ने धीमे स्वर में मामा की मजूरी का प्रसंग छेड़ दिया । पिता ने अदा की गई मजूरी को सही बताया । बेहद दबी जुबान में मामा ने भी कुछ निवेदन किया । पिता ने खाते-खाते वहीं चौके के अंदर क्रोधावेश में उलटे हाथ से उन्हें एक धौल मार दी । उस घटनाक को मैं आजीवन बिसार नहीं पाया । उसके स्मरण से मुझे अपनी जड़ों का खय़ाल आ जाता है और मैं अपनी औकात पर पहुँच जाता हूँ । जीवन में अनेक ऐसे मुकाम आए जब अंतिम निर्णय लेने से पूर्व मैने नौ बरस के उस विद्यासागर की याद की जो पाजूधार के वन में ऊँची-नीची राहों पर बारह फुट्टे स्लीपरों का ढुलान कर रहा था कि उसके दरिद्र मामा को दो पैसे ज़्यादा मिल सकें ।

पहाड़ दरअसल वैसा नहीं है जैसा वह दो घड़ियों के अपने जीवन को पहाड़ पर बिताने वाले सैलानियों को दिखाई देता है । पूर्णमासी का, शरद का चाँद घने जंगल में अपनी रोशनी डालता है तो उसकी झलक मात्र से जीवन धन्य लगता है । सूरज,नदियाँ, घाटियाँ और इन पहाड़ों में बसने वाले लोग । ये सब शक्ति देते हैं । उच्च शिखरों पर बुग्यालों की रंगीन कालीन के ऊपर बैठ कर एक क्षण के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन जीवन को सार्थक करते लगते हैं । लेकिन इन पहाड़ों में मानव जीवन विकट है । याद रखा जाना चाहिए कि इस हिमालय में पांडव भी गलने आए थे । कुछ लोग, मात्र कुछ लोग, इसे सुगम बनाने के लिए अपने को कुर्बान कर रहे हैं । मैं इस विकट पहाड़ में रम-बस गया । इसे छोड़ कर कहीं भाग जाने की बात नहीं सोची । अपनी रचनाओं में मैं इस पहाड़ की सीमाओं के अन्दर घिरा रहा । टिहरी से बाहर नहीं निकला । निकलूँगा भी नहीं ।
वन अधिकारी के घर जन्म लिया । जब तक छोटा रहा पिता व परिवार के साथ दूरियाँ तय करनेके लिए मुझे बोझा ढोनेवाले बेगारियों की पीठ पर ढोए जा रहे माल-असबाब के ऊपर धर दिया जाता । तब बेगार के ऊपर, उनकी पीठ पर बैठकर मैं यात्राएँ करता रहा । अब वे भारवाहक मुझे अपने सर के ऊपर बैठे मालूम होते हैं । पीठ पर ढोने के बजाय सर पर ढोना बहुत कठिन होता है । उनके उस भार को अपने सर से उतार नहीं पाता । जिन्होंने एक-दो दिन कभी मुझे अपनी पीठ पर ढोया वे आजीवन मेरे सर पर सवार मालूम हो गए लगते हैं । उनके उस जीवन की व्यथा का बयान करने की कोशिश करता रहता हूँ ।
अपने को अपने समाज का ऋणी मानते हुए उससे उऋण होने की छटपटाहट में लिखता हूँ । साहित्य मेरे लिए मौज-मस्ती का साधन नहीं, कहीं ऊपर पहुँचने-चढ़ने की कोई अस्थायी सीढ़ी नहीं, ज़िन्दगी की एक ज़रूरत है । लेखन के काम को मैं एक फ़र्ज के तौर पर अंजाम देता हूँ । किसी भी प्रकार की हड़बड़ी के बगैर लिखता हूँ और किसी की सिफारिश पर नहीं लिखता । जो मन में आए वह लिखता हूँ । सिर्फ वही लिखता हूँ ।
कोई भी मनुष्य नितान्त अकेला नहीं जी सकता । किसी एक व्यक्ति की उपलब्धियाँ पूरे समाज की उपलब्धियाँ होती हैं । बचपन से उसके निर्माण में असंख्य लोगों का
योगदान रहता है । इस दुनिया का हर कार्य अनगिनत लोगों के सामूहिक श्रम का प्रतिफल होता है । 'सूरज सबका है" में मैने इस तथ्य को, समाज की सामूहिकता के प्रश्न को भी, रेखांकित करने का प्रयास किया है । 'भीम अकेला " में भी यह बात और खुल कर सामने आती है जहाँ एक पीढ़ी के बजाय, हमारे इतिहास में विचरण करते हुए अनेक लोग समान रूप से कार्यरत दिखाई देते हैं ।
अपनी कहानियों में मैं मामूली लोगों पर होनेवाले सामंती अत्याचार के विरोध में अपने को खड़ा पाता हूँ । जहाँ मेरे पात्र कोई प्रतिरोध नहीं कर पाते, मेरी मंशा रहती है कि उस स्थिति को देखकर पाठक के मन में प्रतिरोध की भावना जागृत हो । अक्सर वे अत्याचार हमारी सामाजिक व्यवस्था की उपज के रूप में दिखाई देते हैं । तब मात्र सत्तासीन कुछ व्यक्तियों को बदलने के बजाय पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना पाठक को एकमात्र विकल्प प्रतीत होने लगे ऐसी मेरी कोशिश रहती है । ' खच्चर फगणू नहीं होते " तथा ' उमर कैद " जैसी अनेक कहानियों में मैने यही प्रयास किया है । सामाजिक व्यवस्था का बदलाव अकेले व्यक्तियों के द्वारा, चाहे वे कितने ही महाबली हों, किया जाना संभव नहीं । ' फट जा पंचधार " में अपनी सदिच्छा और कोशिशों के बावजूद सवर्णों के कसे हुए जाल में फँसा हुआ वीरसिंह पराजित हो जाता है और रक्खी सड़क पर आ जाती है । यह अकेले वीरसिंह की नहीं, उस समाज में जी रहे कुल नौजवानों की पराजय है । ' भैंस का कट्या " में गबलू व उसके माता-पिता की मज़बूरियाँ पाठक के दिमाग में स्पष्ट हो उठती हैं, जब एक जानवर गज्जू के प्रति उनके दृष्टिकोणों के अन्तर गायब हो जाते हैं और वे सब उसकी मौत पर एक समान पीड़ा का अनुभव करने लगते हैं ।
अपना लेखन कार्य करते वक्त मुझे लगता है इस कार्य को मैं अकेले नहीं कर रहा हूँ, मेरे कुल पात्र मेरे साथ हैं जो अपनी कहानी मुझसे लिखवा रहे हैं और यह एक मिली-जुली प्रक्रिया है। अनेक पात्रों को मैं वर्षों तक अपने अन्दर जीता आया हूँ । अपनी अब तक की रचनाओं के लेखन से मेरे अन्दर एक आत्मविश्वास पैदा हुआ । भविष्य में मैं नए विषयों पर लिखना चाहता हूँ । सन् 1930 में टिहरी रियासत के बागी किसानों की ऐतिहासिक तिलाड़ी कांड में अमर भूमिका पर अब लिखना शुरू किया है जिसका एक अंश ' वसुधा " ने ' यमुना के बागी बेटे " शीर्षक से प्रकाशित किया ।
सभागार में उपस्थित मित्रों तथा भारत के कोन-कोने से देहरादून तक पहुँचने वाले साहित्यकारों के अहसान से मुझे शेष जीवन में शक्ति मिलती रहेगी

विद्यासागर नौटियाल
nautiyalvs@yahoo.com