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Monday, November 28, 2016

तुम्हें कुत्तों का भौंकना सुनाई नहीं दिया ?

पाँच सौ और हज़ार रु की नोटबंदी पर जमकर घमासान हो रहा है और अब लोहिया ,मधु लिमये और ज्योतिर्मय बसु का ज़माना रहा नहीं कि संसद में भारतीय राजनय के गंभीर विमर्श में इतिहास रचने वाले सारगर्भित वक्तव्य दिए जायें , हो हल्ला कर के सदन का स्थगन करने में सत्ता और विरोधी पक्ष दोनों का हित सधता है। जनता की परेशानियों की रिपोर्ट सामने आती है तो देशभक्ति का सवाल उठा कर कभी महाराणा प्रताप तो कभी भगत सिंह का का नाम आगे कर दिया जाता है। इन ख़बरों के बीच जम्मू के सांभा इलाके से जो वाक्य सामने आया है वह किसी मुहम्मद हारुन नाम के बकरवाल युवक का है जिसका नौ साल का बेटा उसके कन्धों पर गाँव जंगल में तीस किलोमीटर तक घिसटते घिसटते दम तोड़ देता है क्योंकि बस और डॉक्टर को देने के लिए उसकी जेब में छोटे नोट नहीं थे - ध्यान रहे कि उन्तीस हज़ार रु उसकी जेब में थे पर पाँच सौ और हज़ार रु के नोट थे।सरकारी अस्पताल पहुँच कर जब उसने बेटे को निचे उतार तो उसकी साँस थम चुकी थी। अब जैसा कि तमाम मामलों में होता है इसकी उसकी रिपोर्ट मँगवाई जा रही है ताकि ज़िम्मेदारी बाँधी जा सके। यह घटना मुझे मेक्सिको क्रांति के अनूठे चितेरे जुआन रुल्फ़ो की बेहद चर्चित कहानी "क्या तुम्हें कुत्तों का भौंकना सुनाई नहीं दिया?" (मूल स्पेनिश में इसका शीर्षक "No oyes ladrar los perros" है जिसको अंग्रेज़ी अनुवाद में "You Don't Hear the Dogs Barking" लिखा गया है )की याद दिलाती है। बीमार बेटे को सिर पर टोकरी में उठाये उठाये कथा नायक पहाड़ी से रात भर चल कर जब शहर के अस्पताल पहुँचता है तो बदहवासी और जल्दी पहुँचने की धुन में न उसको शहर के कुत्तों का भौंकना सुनाई देता है न बेटे का लुंज पुंज होकर टोकरी में लुढ़क जाना - टोकरी सिर से उतार कर जब वह नीचे टिकाता है तब असलियत मालूम होती है। मेक्सिको के क्रांति के उथल पुथल और अराजक माहौल और सत्तर साल के आज़ाद और सबसे तेज़ तरक्की करने वाले देश भारत के बीच इतनी समानता अचरज और चिंता में डाल देती है। यहाँ मित्र पाठकों के लिए जुआन रुल्फ़ो का परिचय और उपर्युक्त कहानी प्रस्तुत है : प्रस्तुति: यादवेन्द्र

लैटिन अमेरिका के प्रतिष्ठित और सर्वमान्य लेखकों में शुमार किये जाने वाले जुआन रुल्फो 1917 में मेक्सिको में एक जमींदार परिवार में जन्मे पर उनके माँ पिता बचपन में ही गुजर गए - पिता की लुटेरों(या क्रांतिकारियों ने?) ने गोली मार कर हत्या कर दी और चार वर्ष बाद माँ भी बीमारी से चल बसीं।दादा दादी ने उनकी परवरिश की जिनकी खानदानी जमीन मेक्सिको क्रांति के दौरान उनके हाथ से छिन गयी। अनाथालय और चर्च के खैराती स्कूल में पढ़े कभी सेना में भरती हुए तो कभी वकालत में दाखिल लिया पर इनका मन ऐसे किसी काम में नहीं लगा।साहित्य के प्रति उनकी रूचि धीरे धीरे मुखर होती गयी और उन्होंने एक साहित्यिक पत्रिका शुरू की हाँलाकि सेल्समैन की नौकरी करते हुए अपने देश के सुदूर इलाकों में घूमने का मौका खूब मिला।मेक्सिको क्रांति की उथल पुथल ने उनके जीवन पर ही नहीं बल्कि उनके लेखन पर बहुत गहरा असर डाला था।रुल्फो ने खुद अपने बचपन के बारे में लिखा है कि घनघोर अराजकता और मारकाट के दौर में मेरा बचपन घर के अन्दर घुस कर किताबें पढ़ते रहने में बीता -- घर से बाहर कदम निकालना खतरे से खाली नहीं था,जाने कब कौन गोली मार दे। संगठित तौर पर लिखने का मौका उन्हें 1952 - 54 के बीच एक फेलोशिप के दौरान मिला जब उन्होंने अपनी दोनों किताबें लिखीं। जोर्गे लुइस बोर्खेस के साथ रुल्फो को बीसवीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण लेखकों में गिना जाता है पर दिलचस्प बात यह है कि रुल्फो की सिर्फ दो किताबें प्रकाशित हैं--एक उपन्यास और दूसरा एक कहानी संकलन।अंग्रेजी में उनका कहानी संकलन"द बर्निंग प्लेन एंड अदर स्टोरीज"शीर्षक से प्रकाशित।मेक्सिको और स्पेन की सरकारों ने उन्हें साहित्य के सर्वोच्च सम्मान प्रदान किये। अंग्रजी में अनूदित उनकी दो कहानियां बेहद चर्चित हैं "टेल देम नॉट टु किल मी" और "यू डू नॉट हियर द डॉग्स बार्किंग".(यहाँ उनकी यही कहानी प्रस्तुत है). जादुई यथार्थवाद का जो सम्मोहन गेब्रियल गार्सिया मार्केज के साथ पूरी दुनिया को अपने घेरे में लेता गया कहते हैं उसकी शुरुआत रुल्फो ने अपने इकलौते और सिर्फ सवा सौ पृष्ठों के उपन्यास से की थी।हहे बोर्खेस हों,मार्केज हों या ओक्तोवियो पाज़ हों सब एक स्वर से रुल्फो को इसका श्रेय देते भी हैं।स्लेट मैगजीन मार्केज को उधृत करती है कि 1961 में जब मैं मेक्सिको सिटी गया तो पहली बार जुआन रुल्फो का नाम सुना और जब उनका उपन्यास मेरे हाथ लगा तो एक रात में मैंने दो दो बार उसको पढ़ डाला ...उसके बाद भी कई बार उसको पढता रहा और इतनी बार पढ़ लेने के बाद मुझे वह किताब पूरी तरह से कंठस्त हो गयी ...आप आगे से कहें या पीछे से मैं उसके शब्दशः सुना सकता था ...इस किताब की गहराई ने भविष्य में मुझे मेरे उपन्यासों को लिखने की प्रेरणा दी। मार्केज रुल्फो के बारे में यह भी कहते हैं कि वे अन्य क्लैसिक लेखकों से इस मायने में एकदम भिन्न थे कि उनकी किताब तो खूब खूब पढ़ी गयी पर उनपर चर्चा और बहसें बहुत कम की गयीं। रुल्फो ने अपने बारे में खुद भी बहुत कम लिखा है।उनका अपने बारे में मत था कि वे कोई प्रोफेशनल लेखक नहीं है बल्कि जब किसी बात नें उन्हें उद्वेलित किया तब उसको लिख डाला।रुल्फो के जीवनीकार लुइस लील का कहना है कि"पेड्रो पारमो" के बाद भी उन्होंने कुछ अन्य उपन्यास भी लिखे पर पहले उपन्यास के तब लगभग अचर्चित रह जाने के कारण संकोचवश उन्हें प्रकाशित नहीं करवाया और फाड़ कर फेंक दिया। उनका 1955 में प्रकाशित उपन्यास "पेड्रो पारमो" एक ऐसे इंसान की कहानी है जो हाल में दिवंगत हुई अपनी माँ के अतीत के बारे में जानने के लिए उनके गाँव जाता है और इस लगभग उजाड़ गाँव में उसको अपने पिता के बारे में दिलचस्प बातें सुनने को मिलती हैं।खूब चहल पहल वाले समय और अब लगभग उजड़ चुके गाँव के दृश्यों के बीच और अनेक स्त्रियों को भोग चुके दबंग पिता और अब विधवा होकर गाँव लौटी बचपन की अपनी प्रेमिका के असंतुलित बर्ताव से खिन्न और हताश पिता की छवियों के बीच आधा आधा बँटी हुई यह कृति लैटिन अमेरिका के जादुई यथार्थवाद का प्रेरक ग्रन्थ मानी जाती है।शुरू के चार वर्षों में इस किताब की महज दो हजार प्रतियाँ बिकीं पर बाद में इसको लैटिन अमेरिकी साहित्य की महत्वपूर्ण कृति माना गया और दुनिया की तीस से अधिक भाषाओँ में उसके अनुवाद लाखों की संख्या में बिके। उनके नाम से स्थापित फाउंडेशन में उनके हजारों फोटोग्राफ संरक्षित रखे गए हैं। "जुआन रुल्फोज मेक्सिको" शीर्षक से उनके श्वेत श्याम छायाचित्रों का संकलन प्रकाशित है जिसमें मेक्सिको के शीर्ष लेखकों ने उनके बारे में लिखा है और उनका मानना है कि ये फोटो किस्से नहीं कहते बल्कि विचार प्रस्तुत करते हैं। क्रांति के बाद के ग्रामीण मेक्सिको की ये तस्वीरें उनके लेखन के समकक्ष महत्वपूर्ण मानी गयी हैं। उनकी अनेक कहानियों और इकलौते उपन्यास पर एक से ज्यादा बार भिन्न भिन्न निर्देशकों ने लोकप्रिय फ़िल्में बनायीं हैं।

जुआन रुल्फो (मैक्सिको)
  
"अरे इग्नेसियो, तुम जगे हुए  हो न? बताओ क्या तुम्हें  कहीं से कोई  आवाज सुनायी दे रही है ... या कोई रोशनी दिखायी दे रही है?"

"नहीं,कहीं कुछ नहीं दिखायी दे रहा."
"पर लगता है जैसे हम शहर के कहीं आस पास ही हैं."
"लग तो मुझे भी ऐसा ही रहा है ... पर सुनायी तो कुछ नहीं दे रहा."
"अपने आस पास ढंग से आँखें खोल कर देखो."
"मुझे कुछ भी नहीं  दिखायी दे रहा है."
बेचारा इग्नेसियो.
इंसानों  की लम्बी काली परछाईं  ऊपर नीचे हरकत करती हुई दिखायी दे रही थी ... नदी के किनारे चट्टानों  पर फिसलती हुई – कभी विशाल आकार धारण कर लेती तो कभी सिमट  जाती.
यह अकेली परछाईं  थी – हवा में लहराती हुई.
चन्द्रमा धरती के सिर के ऊपर मचलता हुआ प्रकट  हुआ और रोशनी का छिड़काव करने लगा. 
"हमें  जल्द से जल्द उस शहर तक पहुँचना  है इग्नेसियो. तुम्हारे कान खुले हुए हैं ... आस पास निगाह दौड़ाओ और सुनो कि कुत्तों  का भौंकना सुनायी पड़ रहा है ? उसी से हमें  पता चलेगा कि तोनाया शहर पास आ गया है. हमें अपने गाँव से चले हुए  तो कई  घंटे हो चुके  हैं ."
"आपकी  बात दुरुस्त है... पर मुझे तो कहीं  कुछ दिखायी नहीं  दे रहा."
"मैं  तो अब बुरी तरह थक चुका हूँ ."
"आप ऐसा करो... मुझे सिर से नीचे उतार दो."
बूढ़ा आदमी पीछे चलते हुये एक दीवार तक पहुँचा और उस से टिक कर सिर की टोकरी को ऊपर ऊपर ही इस ढंग  से संतुलित करने लगा जिस से उसको धरती पर नीचे न उतारना पड़े. उसकी टाँगें  थकान से कांप  रही थीं  पर नीचे बैठने का उसका कोई इरादा नहीं था  क्योंकि एक बार बैठ  जाने पर बेटे  का उतना  बोझ लेकर दुबारा  उठा  पाना  उसके अकेले के बस का नहीं था.घंटों  पहले जब वह बेटे  को गाँव से लेकर चला था तब भी कई लोगों  ने बेटे  को टोकरी में  लाद कर उसके सिर तक उठाने में मदद की थी. इतनी देर से वह उसको अपने सिर पर लादे वैसे ही चलता आ रहा है.
"अब तुम्हारी तबीयत कैसी लग रही है बेटे ?"
"बहुत खराब ."
वे आपस में  बहुत कम बातचीत कर रहे थे ... बोलते भी तो एक दो शब्द. चलते हुए ज्यादातर समय वह सोता ही रहा – बीच बीच में उसका बदन बिल्कुल बरफ जैसा ठंडा पड़  जाता – तब वह बुरी तरह काँपने लगता. इस तरह की कँपकपी को वह तुरत भाँप जाता क्योंकि उसके  सिर पर लदा हुआ  टोकरा  हिलने डगमगाने लगता – उसको गिरने से बचाने के लिये बूढ़े को  अपने पंजे धरती पर गहराई  से अन्दर घुसाने पड़ते . दौरा पड़ते ही उसका बेटा अपनी बाँहें उसकी गर्दन के चारों  ओर कस कर लपेट  लेता – कई कई बार तो वह झटके के कारण  गिरते गिरते बचा. 
उसने अपने दाँत  किटकिटाये पर इस हिफाजत के साथ कि जीभ कटने से बची रहे ... बेटे से उसने पूछा:
"क्या तकलीफ बहुत हो रही है?"
"हो तो रही है" ... बेटे ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
पहले उसने कहा था कि "मुझे आप सिर से नीचे उतार दीजिये ...आप पैदल शहर की ओर बढ़िये ,मैं धीरे धीरे आपके पीछे पीछे चल कर कल तक अपने आप आपके पास पहुँच जाऊँगा ... हो सकता है और ज्यादा समय लगे ,पर आ ही जाऊँगा धीरे धीरे" ... उसने यह बात रास्ते में कम से कम पचास बार दुहराई होगी ... पर अब उसकी हिम्मत टूट रही थी।
सिर के ऊपर चाँद चमक रहा था ... और इस अँधेरे समय में वो चाँद उनकी आँखें ज्यादा आलोकित कर रहा था ... उनकी लम्बी होती जाती छाया धरती पर पड़ती उसकी रोशनी को बीच बीच से खंडित कर रही थी।
"मुझे पता नहीं चल रहा है हम जा कहाँ रहे हैं" ... उसने कहा।
इसके बाद चुप्पी छाई रही,बूढ़े ने कोई जवाब नहीं दिया। 
वह चाँदनी में नहाया हुआ उकडूँ होकर बैठा था पर चेहरा रक्तविहीन  और हल्दी जैसा पीला    
---उसके शरीर से प्रतिबिंबित होकर आ रहा प्रकाश भी मरियल .
"मैंने जो बोला तुमने सुना इग्नेसियो ?मुझे लग रहा है कि तुम्हारी तबियत ज्यादा ही ख़राब है" ...
दूसरी तरफ से कोई आवाज नहीं आई।
बूढ़ा जैसे तैसे भी हिम्मत बाँधे आगे बढ़ता रहा -- उसने कन्धों को थोड़ा झुकाने और फिर शरीर को सीधा करने का यत्न किया।

"यहाँ तो कोई सड़क भी नहीं दिखाई दे रही है ... लोगों ने कहा था कि इस पहाड़ी को पार करते ही तोनाया शहर आ जाएगा ...हमने पहाड़ी पार कर ली पर दूर दूर तक शहर का कहीं कोई नामो निशान नहीं ...कहीं से कोई शोर शराबा भी नहीं उठ रहा जिस से पता लगे कि हम आबादी के आस पास हैं ...तुम्हें तो ऊपर से सब दिखाई दे रहा होगा ...बताओ कहीं कुछ हलचल दिखाई दे रही है?"
"मुझे सिर से नीचे उतार दो ...पापा।"
"तुम्हारी तबियत ज्यादा ख़राब लग रही है?"
"हाँ सो तो है" ....
"देखो,चाहे जो हो जाये मैं तुम्हें तोनाया पहुँचा कर ही दम लूँगा ...वहाँ तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई तो  मिलेगा  ...लोगों ने बताया था कि डाक्टर है वहाँ, उसके पास तुम्हें दिखाने ले चलूँगा ...जब इतनी दूर से तुम्हें अपने सिर पर ढो कर लाया हूँ तो यहाँ ऐसे खुले आसमान के नीचे छोड़ कर चला कैसे जाऊँ....मैं तुम्हें मरने कैसे दे सकता हूँ?" 
बूढे की लड़खड़ाहट बढ़ गयी थी ..उसके कदम डगमगाए पर जल्दी ही वह संभल गया।
"मैं जब तक तुम्हें तोनाया पहुंचा नहीं देता दम नहीं लूँगा।"
"मुझे नीचे उतार दो" ....
बेटे की आवाज मुलायम होती गयी, लगा जैसे फुसफुसा रहा हो ....
"मुझे थोड़ा आराम करने दो पापा " .... 
"वहीँ बैठे बैठे सो जाओ बेटे ...मैंने तुम्हें कस के पकड़ा हुआ है।" 
आकाश बिलकुल साफ़ था और चंद्रमा पूरे निखार पर था ...उसका रंग धीरे धीरे नीला पड़ता जा रहा था।बूढ़े का चेहरा पसीने से लथपथ हो चुका था और चाँदनी उस गीलेपन पर जैसे चिपक सी गयी हो।सिर पर बोझ होने और बेटे की बाँहें गर्दन से लिपटी होने की वजह से वह सिर्फ नाक की सीध में सामने देख सकता था सो सिर के ऊपर दमक रहा चन्द्रमा उसकी निगाहों से बाहर था। 
"मैं तुम्हारे लिए जो कुछ भी कर रहा हूँ तुम्हारे वास्ते नहीं कर रहा हूँ ...तुम्हारी गुज़र चुकी माँ की खातिर कर रहा हूँ ...तुम आखिर उसी के बेटे हो ...यदि मैंने तुम्हें ऐसे ही छोड़ दिया तो वह मुझे कभी माफ़ नहीं करेगी ..उसकी ख़ुशी के लिए मुझे ये सबकुछ करना है ...जब मैंने उस बुरी और दयनीय हालत में बीच सड़क पर तुम्हें पड़े हुए देखा तो मुझे एकदम से एहसास हुआ कि तुम्हारा इलाज करवा कर चंगा कर देना मेरा दायित्व बनता है ...इतनी दूर से तुम्हारा वजन उठा कर मैं ले आया इसके लिए शक्ति भी उसी ने मुझे दी, तुमने नहीं ...वजह सीधी सी है कि जीवन भर तुमने मुझे कष्ट और जलालत के सिवा क्या दिया ..भरपूर संताप....और जितना हो सकता था उतना अपमान ..." इतना बोलते बोलते वह पसीने से तर बतर हो गया पर धीरे धीरे बहती हुई हवा ने पसीना सुखा दिया --- पर हवा के मद्धम पड़ते ही पसीना फिर से आने लगा।
"मेरी कमर चाहे टूट जाये पर मैं तुम्हें तोनाया तक पहुँचा कर ही दम लूँगा -- तुम्हारे बदन पर जो जख्म हैं उनको ठीक करा कर ही मुझे चैन मिलेगा ... हाँलाकि मुझे पक्के तौर पर मालूम है कि ठीक होते ही तुम अपनी पुरानी शैतानी राह पर लौट जाओगे ...पर मेरे लिए तुम्हारे इस बर्ताव के ज्यादा मायने नहीं क्योंकि तुम मेरी निगाहों से दूर रहोगे,बस मुझे तुम्हारी खुराफातों और कारस्तानियों का पता न चले ... ईश्वर करे ऐसा ही हो ...मैं मानता हूँ कि तुम्हारा मेरा बाप बेटे का कोई रिश्ता है ही नहीं ...मुझे अपने लहू के उस कतरे पर शर्म आती है जो तुम्हारे बदन की बनावट में शामिल है ... यदि मेरा वश चले तो मैं तुम्हारे गुर्दे के अंदर बह रहे अपने लहू को शाप दे दूँ कि उसमें कीड़े पड़ जाएँ  .जिस दिन मुझे पता चला कि तुम राह चलते लोगों को लूटते हो ,डाका डालते हो और क़त्ल करते हो ...वो भी निर्दोष राहगीरों का क़त्ल ...उस दिन से मेरे मन में तुम्हारे लिए ऐसी नफ़रत पैदा हो गयी ...मेरी बात पर यकीन न आ रहा हो तो मेरे दोस्त ट्रैन्किलिनो से दरियाफ्त कर सकते हो ...उसी ने तुम्हारा बप्तिस्मा किया था ...तुम्हारा नाम भी उसी का रखा हुआ है ...अफ़सोस की बात कि तुम्हारे ही कारण उसको बहुत सारी जलालत भी भुगतनी पड़ी।जब तुम्हारी कारस्तानियों के बारे में यह सब मुझे पता चला तो मैंने फ़ौरन निश्चय किया कि अब से तुम्हें मैं अपना बेटा नहीं मानूँगा..अब देखो,कहीं कुछ दिखाई पड़ रहा है? ...या फिर कोई आवाज सुनाई पड़ रही है?...जो भी देख सुन पाओगे तुम्हीं कर पाओगे,मैं तो ऐसे ही बहरा बना हुआ मानुष हूँ।"
"मुझे कहीं कुछ नहीं दिखाई दे रहा है।"
"तुम्हारी किस्मत ही फूटी हुई है ...मैं क्या कर सकता हूँ।"
"मुझे बहुत तेज प्यास लगी है।"
"जरा ठहरो ...लगता है हम शहर के करीब तक पहुँच गए हैं ...हमारी बदकिस्मती है कि हमें यहाँ तक आते आते रात हो गयी ...लोगों ने अपने अपने घरों की रोशनी बुझा दी है ...पर रोशनी न भी दिखाई दे तो कुत्तों का भौंकना तो सुनाई पड़  ही जायेगा ...कान लगा कर सुनो,कहीं से कुछ आहट आ रही है?"
"प्यास से मैं मरा जा रहा हूँ ...कहीं से भी मुझे पानी लाकर दो।" 
"मेरे पास पानी है कहाँ...आस पास दिखाई भी नहीं पड़ रहा है ...चारों और पत्थर ही पत्थर ...पर एक बात कान खोल कर सुन लो ...यदि मुझे पानी दिखाई दे भी जाता है तो मैं पानी पीने के लिए तुम्हें नीचे उतारने वाला नहीं ...दूर दूर तक जहाँ कोई परिंदा न दिखाई दे वहाँ तुम्हें दुबारा मेरे सिर के ऊपर चढाने में कौन मदद कौन करने आएगा भला...मेरे बस का अकेले तुम्हें जमीन से उठा कर सिर पर रख लेना नहीं है।"
"लगता है तुरत पानी नहीं मिला तो मेरी जान ही निकल जाएगी ...चलते चलते मैं थक भी बहुत गया हूँ।"  
"तुम्हारी बातें सुन के मुझे तुम्हारे जन्म का समय याद आ रहा है ...जन्म लेते ही तुम्हें जोर की प्यास लगी थी और भूख भी ...खा पी कर तुम गहरी नींद सो गए थे ...तुम्हारी माँ की छाती में जितना दूध था तुम इसकी एक एक बूंद चूस गए फिर भी तुम्हारी राक्षसी भूख प्यास ख़तम नहीं हुई ...फिर माँ ने तुम्हें पानी पिलाया पर तुम इस से भी संतुष्ट नहीं हुए ...बचपन में तुम बेहद शरारती और उद्दंड थे ,पर बचपन की शरारत देख के मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि बाद में तुम्हारे कारण हमें ऐसे दुर्दिन देखने पड़ेंगे ...मैंने जो सोचा भी नहीं था आखिर हुआ वही।तुम्हारी माँ हमेशा यही दुआ करती रही कि तुम खूब बलवान हट्टे कट्टे बाँके जवान बनो ...जीवन भर उसकी यही आस लगी रही कि बड़े होकर तुम उसकी परवरिश करोगे...दरअसल तुम्हारे सिवा उसके पास और था भी कौन ? दूसरा बेटा तो सिर्फ उसकी जान लेने आया था -- इधर उसने जन्म लिया उधर तुम्हारी माँ चल बसी ... धरती पर पाँव रखते ही उसने माँ की जान ले ली ...गनीमत है तुम्हारी यह दुर्गति देखने को वो जीवित नहीं रही वर्ना उसको तो दुबारा शर्म से मरन पड़ता ... बेचारी दुखियारी ।"
अचानक बूढ़े को एहसास हुआ कि उसके सिर के ऊपर रखी टोकरी में बैठा हुआ इंसान हिल डुल नहीं रहा है ,अपने गठरी जैसे शरीर को कभी इधर तो कभी उधर खिसका कर संतुलन बनाने की कोशिश भी नहीं कर रहा है ...और उसके सिर से पसीना ऐसे चू रहा है जैसे कातर रुलाई से मोटे मोटे आँसू गिर रहे हों।
"इग्नेसियो ...इग्नेसियो ...तुम रो रहे हो?...माँ की इतनी याद आ रही है?...पर अपने दिल पर हाथ रख के पूछो तुमने अपनी पूरी जिंदगी में कभी उसके लिए कुछ किया?...हमें तो तुमने सिर्फ दुःख, शर्म  और अपमान ही दिए ... अब देखो जिनके साथ मिलकर तुमने यह सब किया उन्होंने बदले में तुम्हें क्या दिया -- सिर्फ घाव न?दिन रात तुम्हारे लिए कसमें खाने वाले दोस्तों का भी क्या हस्र हुआ ...वे सब के सब भी आपसी लड़ाई झगड़ों में मारे गए ...पर उनके लिए रोने वाला कोई नहीं था ...वे कहा भी करते थे कि हमारे पीछे स्यापा करने वाला कोई नहीं है ...पर तुम्हारे अपने लोग तो थे इग्नेसियो -- तुमने अपने लोगों को अपने कुकर्मों से संताप के सिवा क्या दिया?"

शहर आ गया था ...घरों की छत पर चाँदनी बिखरी हुई थी ...पर जब आखिरी बार उसने अपनी कमर सीधी करने की कोशिश की तो बूढ़े को ऐसा लगा कि वो अपने बेटे के बोझ तले दबकर वहीँ मर जायेगा।शहर में घुसते ही जो पहला मकान मिला बूढ़ा उसके पास थोडा ठहर कर सुस्ताने को हुआ --- उसने सिर की टोकरी नीचे उतारने की कोशिश की तो उसको एकदम से महसूस हुआ जैसे शरीर का कोई अंग अचानक कट कर दूर जा गिरा हो ।
अपनी गर्दन पर कस कर लिपटी हुई हथेलियाँ उसने बड़ी मुश्किल से ढीली कीं ...कान के ऊपर से बेटे की हथेली हटते ही उसको अपने चारों और कुत्तों का भौंकना सुनाई पड़ना शुरू हो गया।
"ताज्जुब है,इतने सारे कुत्ते चारों ओर भौंक रहे हैं  पर तुम्हें इनका भौंकना सुनाई नहीं पड़ा इग्नेसियो?...समय रहते शहर तक पहुँच जाने और डाक्टर को दिखा देने के भरोसे को जिन्दा रखने में भी तुमने मेरी मदद नहीं की...मरते हुए भी तुम अपनी हरकतों से बाज नहीं ही आये...जीते जी तो तुमने मेरे साथ दगा किया ही, मरते हुए भी मुझे नहीं बख्शा ....

Friday, November 4, 2016

कौन नहीं चाहेगा कि निर्मोही सूचनाएं उसे नामवरी बनाती रहें



गनीमत है कि महत्वाकांक्षा में डूबा मेरा भीतर सत्‍तामुखापेक्षी, स्‍त्री विरोधी, दलित विरोधी एवं साम्‍प्रदायिकता का पक्षधर मान लिए जाने से अभी तक बचा रह पाया है। वैसे उम्‍मीद है आगे भी शायद मैं बचा ले जाउुं,  महत्‍वाकांक्षा से अति महत्वाकांक्षा की फिसलन को मेरी आंखें अभी ठीक से देख पा रही है। हालांकि आंखों की रोशनी को बचाए रखने में उन आयोजकों का ही अहम रोल है जिन्‍हें कभी मुझे भी मंच पर बुला लेने की नहीं सूझी या जिनके देखने की सीमा, तय दायरे में ही बनी रही। उन आलोचकों का भी अहम रोल है जिन्‍होंने अपनी नाम गिनाउुं आलोचनाओं में मेरा जिक्र करने की जहमत नहीं उठाई। उन घोषित संगठनवादियों की भी अहम भूमिका है जिन्‍होंने अपने गिरोह में मुझे शामिल देखने से पहले ही दूरी बनाये रखी। उन आत्मीय मित्रों का भी आभारी हूं अतिमहत्‍वाकांक्षा के नशे में जिन्‍हें खुद मुझ जैसे अति निकट के व्‍यक्तियों के नाम लेने में कभी कोई लाभ नहीं दिखा। लाभ हानि के गणित के साथ वे सिर्फ अवसरों को उपलब्‍ध करा सकने वाले सम्‍पर्कां को ही भुनाने की जुगत बैठाते रहे। काश अगर इनमें से कोई भी स्थिति बनी होती तो अतिमहत्‍वाकांक्षा की फिसलन में मेरे पाँव भी रिपट तो गये ही होते। आभारी हूं मैं उन आयोजकों का भी, आकस्मिक तरह से जिनके आमंत्रण पर मैं उपस्थिति हो तो गया पर जो अपने आयोजन के खर्चे के स्रोत को विवाद के दायरे में आने से बचा गये। उन समीक्षकों का, मेरे लिखे का जिक्र कर देने पर भी जिन्‍होंने अपने को किसी गिरोह में दिखने से बचाए रखा। उन आत्मीय मित्रों का भी जिनके साथ मैं भी जीवन का ककहरा सीखता रहा पर जो अपनी दुनिया में रमते हुए कहीं जिक्र करना जैसा भी हुआ तो भुलाए रहे और देवतव को प्राप्‍त हो ये लोगों के जिक्र के साथ ही अपनी हैसियत के लिए सचेत रहे। वरना कौन नहीं चाहेगा कि निर्मोही सूचनाएं उसे नामवरी बनाती रहें। कौन नहीं चाहेगा कि अरबों खरबों की जनसंख्‍या वाली इस धरती पर चार, छै, दस उसके भी ऐसे भी प्रशंसक हो कि जिन्‍हें उसके अहंकार में भी विनम्रता दिखे और उसकी डुगडुगी पीटते हुए उसकी आलोचना करने वालों तक पर वे पिल पड़ें। मेरे भीतर की महत्‍वाकांक्षा भी फिसलकर अति महत्‍वाकांक्षा की खाई में गिर जाने वाली तो हो ही सकती थी। यह तो स्‍पष्‍ट ही है कि मेरे भीतर भी महत्‍वाकांक्षा की एक कोठरी तो है ही जिसमें बैठकर मुझे भी यह देखने का मन तो होता ही है कि लोग मुझे जाने, मेरे लिखे को पढ़े, मेरे लिखे पर बात हो जे एन यू की औपचारिक गाष्ठियों से लेकर धारचूला या गंगोलीहाट के जंगलों तक में चलने वाली अनौपचारिक गोष्ठियों में, और उनका जिक्र भी हो मीडिया में। मेरे भीतर भी महत्‍वाकांक्षा का स्रोत वैसे ही मौजूद है जैसे उन दूसरों के भीतर, जो एक दो और तीन एवं अनंत की गिनतियों तक पुरस्‍कार प्राप्‍त करते हैं।     

क्‍या ही अच्‍छा हो कि किसी सांस्‍कृतिक एकजुटता की शुरूआत वस्‍तुनिष्‍ठता के साथ तय कार्यभार से हो। तय हो कि किस किस तरह के आयोजन को साम्‍प्रदायिक, फासीवादी, स्‍त्रीविारेध, दलित विरोधी, सत्‍तामुखापेक्षी माना जाए। ताकि समय समय के हिसाब से व्‍याख्‍यायित करना न हो। कौन सा पुरस्‍कार ग्रहण किया जाए और किसका विरोध हो। वरना यह मुश्किल होगा कि कब कौन उदय प्रकाश बन जाए या बना दिया जाए, कब कौन कृष्‍ण मोहन घोषित कर दिया जाए या हो जाए, कब कौन नरेश सक्‍सेना हो जाए या बना दिया जाए। चुन कर टारगेट करने और चुन कर कुतर्क का सहारा लेकर कहीं भी शामिल हो जाने की प्रवृत्ति वस्‍तुनिष्‍ठता के दायरे में लक्षित हो तो चुनी हुई चुप्पियों का साम्राज्‍य ध्‍वस्‍त किया जा सकता है और समाज को जनतांत्रिक बनाने के कार्यभार को आगे बढ़ाया जा सकता है।