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Sunday, March 27, 2016

अस्पताल के उस कमरे

एक छुअन की याद

योगेंद्र आहूजा 

पिछले कुछ बरसों में कर्इ बार ऐसा हुआ कि वीरेन जी को मिलने देखने अलग अलग अस्पतालों मेें जाना पड़ा, शीशों के पीछे दूर से ही देखकर वापस आना पड़ा । एक अस्पताल में उनके साथ, उनके बेड के करीब काउच पर दो रातें भी बितार्इं । फिर भी मुझे कभी यकीन नहीं हुआ कि वह शख्स किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त है या हो सकता है । इसलिये कि बीमारी के सबसे कठिन क्षणों में, उपचारों के बीच के अंतरालों, मुशिकल शल्यक्रियाओं के बीच की मोहलतों में या एक से दूसरे अस्पताल आते जाते उनसे जो बातें होती थीं उनमें दुनिया जहान के सारे विषय आते थे, लेकिन जिस पर कभी चर्चा नहीं होती थी, वह था - उनकी बीमारी । वे उसकी चर्चा सफार्इ से टाल देते थे या जरा सा कुछ कहतेे थे तो एक ऊबे हुए स्वर में, निर्वैयकितक भाव से ।  मसलन 'हां यार इधर से काट दिया है उन्होंने या गर्दन की पटटी को छूकर - 'कुछ नहीं, जरा सा रेडियेशन से जल गया है । शायद ही किसी ने उनका दर्द से विकृत चेहरा देखा हो, कराहना सुना हो । उनके तार तो हमेशा पूरी कायनात से जुड़े थे । बीमारी बस एक व्यतिक्रम थी, थोडी देर का व्यवधान या 'ब्लैक आउट का एक संक्षिप्त अंतराल जब  रोशनियों कुछ देर के लिये बुझती हैं, मगर फिर जल उठती हैं, पहले से भी उज्जवल और प्रकाशमान । उन्हें बहुत अधिक मिजाजपुर्सी या अतिरिक्त चिंता दर्शाना पसंद न थे । वे साहित्य की दुनिया और असल दुनिया, दोनों के एक एक रग रेशे की खबर रखते थे, बहसों और वार्तालापों और मनोविनोदों में पूरी चेतना के साथ मौजूद रहते थे । इसलिये, वे अब नहीं हैं, यह खबर अभी तक मुझे एक अफवाह  सरीखी लगती है । उस चलती फिरती रौनक या छलकते प्याले का बीमारी और मृत्यु से कोर्इ नाता जोड़ पाना मुझे असंभव जान पड़ता है ।
दिल्ली के कटवारिया सराय में स्थित राकलैंड अस्पताल में शुरुआती सर्दियों की वह रात धप से अचानक उतरी । केरल या मणिपुर से आयी नर्स बीच बीच में आती जाती थी । पास में रखे स्टैंड पर ग्लूकोज नली में टप टप टपकता था । नर्स नली में ही इंजेक्शन से दवाइयां उंडेलती थी जो ग्लूकोज के संग बहते हुए हाथ की उभरी हुर्इ शिराओं में चली जाती थीं । वीरेन जी इसे बहुत कौतूहल से देख रहे थे ।
'इसी दुनिया में के कवि के लिये जो कुछ था, बस यही दुनिया थी, भले ही यह उनके लिये छोटी पड़़ जाती थी । यह अधूरी थी, मनमुताबिक नहीं थी और रोज ब रोज भयावह होती जाती थी - मगर जो कुछ भी था वह यही । उन्हें जैसे सांस लेने को हवा काफी नहीं थी, सूरज, पक्षी, पौधे, पेड़़ और न जाने क्या क्या चीजें उन्हें हरदम पास बुलाती रहती थी । ( एक बार किसी चिडि़याघर से कोर्इ गैंडा भाग गया था और वे बरेली के मित्रों के साथ जीप में बहुत दूर उस जंगल में चले गये थे जहां उसका होना संभावित था । ) उन्हें लोगों से घिरे रहना, इर्द गिर्द मानवीय चेहरों की मौजूदगी पसंद थी और वे भी जैसे पूरे जुटते नहीं थे । मगर किसी दूसरी दुनिया में न उनका यकीन था, न कहीं और जाने की आकांक्षा । चालीस बरसों के लंबे साथ में, स्वाभाविक ही, अनेक बार प्रियजनों की मौतों की खबरें आयीं । ऐसे अवसरों पर मैंने उन्हें विचलित, शोकाकुल यहां तक कि अथाह शोक में डूबे हुए भी देखा( याद आता है कि गोरख पांडेय की मृत्यु की खबर आने पर वे किस कदर गमगीन हुए थे, और इसी तरह उत्तराखंड के पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या पर, अभिनेत्री सिमता पाटिल की मृत्यु पर )  - लेकिन मृत्यु को लेकर दार्शनिक चिंतन करते, फिलासफी में फिसलते कभी नहीं । वे हमेशा मौत के खिलाफ थे और मौत के फलसफों और मृत्योन्मुख  रचनाओं के उससे भी अधिक । सिर्फ स्थूल मृत्यु नहीं बलिक उसके जो भी संभव मायने हो सकते हैं मसलन ठहराव, गतिहीनता, खालीपन, खात्मा, मातम, सूनापन, पराजय, बिछोह, अलविदा । वह शख्स दर्द को भीतर भींचे, हाथों में एक डायरी थामे, आधे कटे चेहरे और रिसते घावों के साथ आखिरी पल तक जनांदोलनों में कवितायें पढ़ता यूं ही नजर नहीं आता था । बेशक वह फासीवाद के विरुद्ध अपनी मुटठी उठाना, प्रतिरोध के स्वरों में अपनी आवाज मिलाना चाहता था । बेशक वह कर्इ दशकों पहले, शुरुआती युवावस्था में अपने आप से किया वादा आखिरी सांस तक निभाना चाहता था - भाषा को रस्से की तरह थामे, दोस्तों केे रास्ते पर चलते जाने का । मगर यह मौत की घूरती आंखों से एक मुठभेड़ भी थी, उनकी निजी लड़ार्इ, जिसमें हर बार मौत को ही मुंह की खानी होती थी । इसलिये उस सर्वदा अपराजेय शख्स का इस दुनिया को अलविदा कह जाना मुझे घोर अतार्किक जान पड़ता है । उसे स्वीकार कर पाने के लिये मेरे पास कोर्इ तार्किक तसल्ली नहीं, न कोर्इ दार्शनिक दिलासा  । 

वे चार दशकों पहले के दिन थे । वे बरेली के उस कालेज में पढ़़ाते थे जहां मैं नैनीताल जिले के छोटे से कस्बे काशीपुर से आगे पढ़ने के लिये आया था । वे हिंदी विभाग में थे और मैं विज्ञान का विधार्थी था । ये दोनों विभाग एक दूसरे के लिये जैसे परग्रही थे, प्रकाश वर्षो की दूरी पर । लैबोरेटरी के सन्नाटे और सिर चकरा देने वाली गंधों के बीच उनके नाम का जिक्र कभी कभी चला आता था । कभी मैं भी मानविकी विभागों का एक खामोश चक्कर लगा आता था, यूं ही निरुददेश्य । उन दिनों एक ही कालेज में होने के बावजूद उनसे कभी भेंट नहीं हुर्इ । मैं उन्हें सिर्फ दूर दूर से देखा करता था । वे आपातकाल के सहमे हुए दिन थे । याद आता है कि कालेज के मेन हाल में कोर्इ साहित्यिक कार्यक्रम था । भीतर एक इंतजार करती, कसमसाती  हुर्इ भीड़ थी और मैं बाहर गलियारे में टहल रहा था । एक स्कूटर आकर रुकता है । वीरेन जी तेजी में हैं, मशहूर लेखक मटियानी जी के साथ भीतर जाते हुए ।  सीढि़यों पर उनके सैंडिल में कुछ उलझा, वे क्षणांश के लिये लड़खड़ाये । मैं पास ही खड़ा था, संकोच में सिमटा हुआ । मैं उस घड़ी आगे बढ़़कर उस हाथ को थामना चाहता था जिसे आगे चलकर असंख्य बार मुझे थामना था, भरोसा और दिलासे देने थे । लेकिन चूक गया, बस यूं ही खड़ा रहा । कर्इ सालों के बाद दोस्ती होने पर एक बार यह घटना उन्हें बतार्इ । हर 'टच अपने भीतर इतनी संभावनायें लिये होता है, उन्होंने कहा । हर छुअन कोर्इ दरवाजा खोल सकती है । क्या पता कि वह टच होते होते रह न जाता तो हमारी दोस्ती को इतने सालों का नुकसान न होता । 

उसके बाद न जाने कितने कुंओं की मुंडेरों पर साथ साथ बैठे, कितनी स़ड़कें नापीं । समुद्र तटों तक जाने वाली सड़कें, और धूल धक्कड़ से भरी और कबि्रस्तानों के करीब से गुजरने वाली उजाड़, सब प्रकार की । आलमगीरीगंज की सड़कों पर बेपनाह धूल हुआ करती थी और सिविल लाइंस की अभिव्यंजनावादी चित्रों सरीखी थीं, नीलवर्णी, नयनाभिराम । वह मेरे लिये एक अनखोजा, अनजाना, रोमांचक अनंत था । विचारधारा, मनुष्य, दुनिया, इंसान की जददोजहद, कवितायें और महान रचनायें और ख्ुाद अपना आप - जितना जानना संभव था, उसी दौरान, उनकी सोहबत मेें ही जाना । उसी दौरान विचार स्पष्ट और एनेलिसिस धारदार हुए । दुनिया और समाज की पोलें खुलीं, रहस्य उजागर हुए, मायने प्रकट हुए । वीरेन जी की सर्वाधिक प्रिय जगह सड़कें थीं और वे खुद को एक गरबीला सड़क छाप कहते थे । उनकी सड़क सीरीज की कवितायें इलाहाबाद की सड़कों के बारे में हैं लेकिन संभवत: सबसे अधिक वे बरेली की ही सड़कों पर दोहरायी गयीं । उन पर चलते हुए उन्होंने न जाने कितनी बार कहा होगा कि अपनी जमीन यही है, वे उसे छोड़कर कभी नहीं जाने वाले, या वहां से कहीं भी जाना वहीं वापस आने के लिये होगा । वहां की हर सड़क का मन में एक अलग संस्मरण है । 

बरेली कालेज के दिनों की दशकों पुरानी उस अनहुर्इ छुअन की याद से एक दूसरी छुअन की याद उभर आयी है । वे राकलैंड अस्पताल में थे । अगले दिन उनका एक आपरेशन होना था । उनका फोन आया । वे चाहते थे कि मैं वह रात अस्पताल के कमरे में उनके साथ बिताऊं । 'साथ में कुछ लेते आना यार, सुनाना यह भी कहा उन्होंने । कवि होने के नाते उनका ज्यादा राब्ता, स्वाभाविक रूप से, कविता की दुनिया से था । उनके लिये मुझे गल्प और गध के संवाददाता का रोल निभाना होता था । हमारे बीच का यह एक स्थायी मजाक था, एक नकली बहस ... मैं उन्हें छेडने के लिये कहता था कि रही होगी कभी कविता अग्रगामी विधा, लेकिन अब वह पिछड़ गयी है । इस वक्त का असल प्रातिनिधिक कृतित्व गध में लिखा जा रहा है, गध में ही मुमकिन है । कविता काल कवलित हो चुकी या कहानी के पीछे पीछे चलती है, लड़खड़ाती हुर्इ । 'क्षुधा के राज्य में पृथ्वी गधमय है बांग्ला कवि सुकांत का यह वाक्य हमारी बातचीत में आता था । वीरेन जी कहते थे कि यह वाक्य स्वयं अपने में एक कविता का अंश है, और मानवीय अभिव्यकित का सर्वश्रेेष्ठ रूप, कुछ भी कहो, कविता ही है, वही हर लफज की कीमत पहचानना सिखाती है, और, कि तुम लोग लफजों की कितनी बरबादी करते हो ।

दिल्ली के कटवारिया सराय में स्थित राकलैंड अस्पताल में शुरुआती सर्दियों की वह रात धप से अचानक उतरी । केरल या मणिपुर से आयी नर्स बीच बीच में आती जाती थी । पास में रखे स्टैंड पर ग्लूकोज नली में टप टप टपकता था । नर्स नली में ही इंजेक्शन से दवाइयां उंडेलती थी जो ग्लूकोज के संग बहते हुए हाथ की उभरी हुर्इ शिराओं में चली जाती थीं । वीरेन जी इसे बहुत कौतूहल से देख रहे थे । बाद में उन्होंने मुझसे एक सहज शरीर-वैज्ञानिक जिज्ञासा प्रकट की - अच्छा, इस नली में इंजेक्शन से थोड़ी शराब डाली जाये तो  ?

बिस्तर के करीब बेंच पर बैठकर मैंने धीमे धीमे ब्राजील के लेखक जोआओ गाउमरास रोजा की बहुप्रशंसित, बहुअनुवादित कहानी पढ़ी जिसका शीर्षक था  - नदी का तीसरा किनारा । वे कंबल ओढ़कर लेटे थे, ध्यानमग्न सुनते हुए ।  वह उन्हें बहुत भावसिक्त करने वाली कहानी लगी लेकिन हमारी छदम बहस के संदर्भ में  उन्होंने कहा कि उस कहानी के सारे मायने तो वाक्यों के बीच हैं । उस पर खुद कविता का एक भारी कर्ज है । रात्रि काफी बीतने पर, अस्पताल के सन्नाटे में मैंने उन्हें जो दूसरी कहानी सुनार्इ वह पोलेंड के लेखक फि्रजेश कारिंथी की थी । वे खुद एक डाक्टर थे और कहानी भी अस्पताल की पृष्ठभूमि पर थी । इतने वर्षो के बाद उस रात्रि को याद करते हुए मुझे यह कुछ अतिरिक्त रूप से मानीखेज लग रहा है । एक अस्पताल में एक डाक्टर लेखक की कहानी का पढ़ा जाना, अस्पताल की पृष्ठभूमि पर ।

एक आपरेशन के तुरंत बाद एक बहुत सम्मान्य सीनियर सर्जन के दो सहायक, जो जूनियर डाक्टर हैं, दस्ताने उतारने के बाद हाथ धो रहे हैं । प्रथम सहायक वयदा गुस्से में उबल रहा है । 'जहन्नुम में जायें । उसका चेहरा लाल हो रहा है । 'डांट सुनने को मैं ही एक रह गया हूं । मैं कोर्इ बच्चा नहीं हूं । वे दोनों उस सर्जन को कोस रहे हैं जिसने आपरेशन के दौरान उन्हें छोटी छोटी गलतियों पर कस कर लताड़ लगार्इ है, मरीज के सामने ही जो बेहोश नहीं था । 'उसका असिस्टेंट होने का गौरव मेरे लिये दो कौड़ी का है । अब मुझ पर चिल्लाया तो ...। इसी दौरान प्रोफेसर सर्जन अचानक कमरे में चले आये थे । उन्होंने उनका चिल्लाना सुन लिया है मगर अनजान बनकर वे कहते हैं -  अच्छा भाइयो, आज का काम खत्म हुआ । 

दोनों की जान में जान आती है । मुंह से खून के छींटे धोते हुए सर्जन दर्र्द से कराहता है । दोनों सहायक दौड़ते हैं । 'ओह यह मुझे चैन न लेने देगा । इसका इंतजाम करना ही होगा । वह कहता है । सहायक हक्के बक्के खड़े हैं। 

'मुंह बाये क्या खड़े हो ? जैसे तुम्हें मालूम ही नहीं कि मुझे हर्निया है । काम करते वक्त जब मैं दर्द के मारे दांत भींचता हूं और तुम छिप छिप कर हंसते हो तो तुम समझते हो कि मैं जानता नहीं ? 

वीरेन जी आंखें मेरे चेहरे पर टिकाये ध्यानमग्न सुन रहे हैं ।

आने वाले कुछ दिन छुटिटयों के हैं । सर्जन के मन में जैसे उसी क्षण विचार आया हो, वह तय करता है कि क्यों न तत्काल उसका आपरेशन कराकर छुटटी पायी जाये । उसकी स्फूर्ति का असर सहायकों पर भी होता है । वे सुझाव देते हैं कि फलाने सर्जन को बुलाया जाये । 'दिमाग ठिकाने है ? प्रोफेसर भयंकर चेहरा बनाकर कहता है । 'भला किसी अन्य प्रोफेसर की मजाल जो मेरे पेट में पंजा घुसेड़े ? आपरेशन थियेटर तैयार होता है । वही सहायक आपरेशन करेंगे । बस चिमटियां, औजार, रुर्इ पकड़ाने के लिये एक नर्स और रहेगी । चीरा लगाने के लिये स्थानीय रूप से सुन्न करना काफी है । इत्तफाक से वे सुबह नाश्ता गोल कर गये थेे इसलिये जुलाब देने की भी जरूरत नहीं । एक बड़ा सा शीशा लैंप के ऊपर तिरछा लटकाया जायेगा कि प्रोफेसर सारा तमाशा साफ साफ देखते रहेें । 

जीवन अगर स्पर्शो का जमा खाता है तो मेरी स्पर्श एलबम का अब तक का सबसे चमकीला स्पर्श वही है । अनगिनत बार उसकी याद आंखें गीली कर चुकी है ।
वीरेन जी उठकर बैठ जाना चाहते हैं । नर्स भागी हुर्इ आती है । वह टूटी फूटी हिंदी में कुछ कहती है और उन्हें फिर लेटने को बाध्य कर सिरहाना और नलियां ठीक करती है । उसके जाने के बाद वीरेन जी कहते हैं, चिटखनी लगा दो । 

इसके बाद कहानी में उस आपरेशन का विस्तार से विवरण है ।  दोनों जूनियर सहायक डरे सहमे हैं और प्रोफेेसर उन्हें हर बात पर डांटता है - रोशनी का फोकस, चीरे की पोजीशन और लंबार्इ, चिमटियां रखने की जगह ।  उनका चेहरा अपमान के मारे काला पड़ जाता है । आपरेशन चल रहा है और वह उन्हें गालियों से नवाज रहा है । 'कसार्इ, साले, नालायक । वे घबराये हुए, गलतियों पर गलतियां करते हैं । माथे पर पसीना झलमला रहा है । जख्म बहते जा रहे हैं, उनसे धागे निकल रहे हैं । 'धन्य हो, जनाब सर्जन । अब क्या करना होगा ? बता दूं तो बड़ा अच्छा हो, क्यों ? लेकिन अपनी प्रतिष्ठा की जिस सर्जन को इतनी चिंता हो, उसे पता होना चाहिये । मैं कौन हूं ? मैं तो इस वक्त असहाय मरीज हूं । अपनी मुकित का इंतजाम खुद ही करो । 

वीरेन जी के चेहरे से जाहिर है कि कहानी का एक एक लफज दिल को चीरता चल रहा है । एक कामिक कथा होने का भ्रम देने वाली यह कहानी जब अवाक कर देने वाले बेहद मानवीय और हृदयस्पर्शी अंत पर पहुंचती है, उनका चेहरा उत्तेजना से आरक्त है । उनकी आंखें चमकने लगी थीं । 'यह मुझे फोटो स्टेट चाहिये यार ।  यहां के सारे डाक्टरों और नर्सो को दूंगा । उन्होंने कहा । 

अस्पताल के उस कमरे में न कोर्इ बीमारी थी न अंत की दूर दूर तक कोर्इ आहट । वहां दवाइयों की गंध थी मगर हमारे लिये उस रात अस्पताल का वह कमरा जैसे 'बहारों का जवाब था । ओह काश मुझे अंदाजा होता कि . . .
कुछ देर में वीरेन जी सो गये । वे हल्की सर्दियों के दिन थे । पास के काउच पर लेटे मुझे भी न जाने कब नींद आ गयी । वह ऊषाकाल रहा होगा जब आप गहरी नींद में होते हुए भी जागृत होते हैं । मैंने महसूस किया गरमार्इ का एक सुखद घेरा पैरों की तरफ से उठता, मुझे ढ़कता हुआ । कोर्इ मुझे कंबल ओढ़ा रहा था । वह जो भी था, उसका नर्स होना तो नामुमकिन था क्यों कि रात को सोते वक्त कमरे का दरवाजा मैंने ही बंद किया था । नींद में ही अवचेतन ने हर हरकत, छोटी से छोटी चीज दर्ज की । किस तरह वीरेन जी ने मुझे कंबल ओढ़ाने के लिये अपने हाथ से वह सुर्इ सावधानी से अलग की होगी । ग्लूकोज वाला स्टैंड परे खिसकाया होगा । बिस्तर से उतर कर कुछ कदम चल कर मुझ तक आये होंगे ।

जीवन अगर स्पर्शो का जमा खाता है तो मेरी स्पर्श एलबम का अब तक का सबसे चमकीला स्पर्श वही है । अनगिनत बार उसकी याद आंखें गीली कर चुकी है ।  

Saturday, May 31, 2008

एक विषय दो पाठ


(ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी गयी हैं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।)

तोप शब्द से हमारी स्मृति में कुछ आजादी से पहले की यादें भी जुड़ी हैं। वह विनाश का उपकरण तो है ही लेकिन सत्ता के अहंकार और निरंकुशता का प्रतीक भी है। "क्या तू अपने को तोप समझता है ?" इस तरह के वाक्य हमारी बातचीत में भी आते हैं। वीरेन डंगवाल तोप का मखौल उड़ाते हुए बताते हैं कि तोप कितनी भी बड़ी हो कभी न कभी उसका मुंह बन्द होना ही होता है। जनता उसको अपने संघ्ार्ष से अर्थहीन कर देती है।असद जैदी पुश्तैनी तोप के बारे में कहते हैं कि हमारा दारिद्रय कितना विभूतिमय है। यह संभवत: जड़ परम्पराओं को सहेज कर रखने की प्रवृति के विरोध हैं। इनके पीछे गतिशीलता नहीं है। इसीलिए विरोधियों को भी इस पर हंसी आ जाती है। यह तोप है जो कभी भी समाज के काम नहीं आ सकती।

तोप
वीरेन डंगवाल


कम्पनी बाग के मुहाने पर
धर रखी गयी है यह सन 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल, विरासत में मिले
कम्पानी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार.

सुबह-शाम कम्पानी बाग में आते हैं बहुत सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने जमाने में

अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियां ही अक्सर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
खास कर गौरैयें

वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उसका मुंह बन्द


पुश्तैनी तोप
असद जैदी

आज कभी हमारे यहां आकर देखिये हमारा
दारिद्रय कितना विभूतिमय है

एक मध्ययुगीन तोप है रखी हुई
जिसे काम में लाना बड़ा मुश्किल है
हमारी इस मिल्कियत का
पीतल हो गया है हरा, लोहा पड़ चुका है काला

घंटा भर लगता है गोला ठूंसने में
आधा पलीता लगाने में
इतना ही पोजीशन पर लाने में

फिर विपक्षियों पर दागने के लिए
इससे खराब और विश्वसनीय जनाब
हथियार भी कोई नहीं
इसे देखते ही आने लगती है
हमारे दुश्मनों को हंसी

इसे सलामी में दागना भी
मुनासिब नहीं है
आखिर मेहमान को दरवाजे पर
कितनी देर तक खड़ा रखा जा सकता है।

Tuesday, May 27, 2008

एक विषय दो पाठ

(ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी गयी हैं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।)

नागार्जुन साधारण के अभियान के कवि हैं। वे बड़ी सहजता से सौन्दर्य और व्यवहार की हमारी बनावटी और जन विरोधी समझ को तहस नहस कर डालते हैं। इतना ही नहीं वे पाठक को नए सौन्दर्य आलोक से परिचय कराते हैं। वो सच्ची समझ और आनन्द से भर उठता है। क्योंकि अपनी दुनिया को फिर से अन्वेषित कर पाने के लिए ज़रुरी नैतिक तार्किकता और विश्वास उनकी रचनाओं में बिना किसी बौद्धिक पाखंड के उपलब्ध हो जाता है। "पैने दांतों वाली" रचना में मादा सूअर मादरे हिन्द की बेटी है। हम जानते हैं कि सूअर, उससे जुड़े लोग और परिवेश को हिकारत से ही देखा जाता है। यह कविता बड़ी आसानी से इस दृष्टिकोण को तोड़-फोड़ देती है। मादा सूअर के बारह थन, जैसा कि सामाजिक उर्वरता को केन्द्र में लाकर रख देते हैं। भाषा ओर शिल्प साधने की अखरने वाली कोशिश नागार्जुन की कविता में ढूंढनी मुश्किल है। कविता का बीज कथा की ऊष्मा में ही स्फुटित होता है। 'मादरे हिन्द की बेटी' मुहावरा देशकाल को विस्तृत और सघन करता है।

वीरेन डंगवाल की रचना में बारिश में घुलकर सूअर अंग्रेज का बच्चा जैसा हो जाता है। हमारे बीच बातचीत में अंग्रेज शब्द व्यक्तित्व की शान ओ शौकत के लिए भी किया जाता है। सौन्दर्यबोध की हमारी इस जड़ता को इस पद में ध्वस्त होते देखना भी सुकून देता वाला है। हमारे जीवन की बुनावट आने वाली पंक्तियों में लगाव और कौतुक के साथ व्यक्त होती है। इसमें गाय, कुत्ता,घोडा भी शामिल हैं। चाय-पकौड़े वाले या बीड़ी माचिस वाले भी हैं। डीजल मिला हुआ कीचड़ भी अपने जीवन का हिस्सा है। बारिश में सभी जमकर भीगते हैं। सूअर के साथ हमारे हृदय में ठंडक सीझ कर पहुंचती है ओर आनन्द से भर देती है।

पैने दांतों वाली
नागार्जुन

धूप में पसर कर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर---

जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली!

लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिजाज ठीक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुंहे छौनो की रग-रग में
मचल रही है आखिर मां की ही तो जान!

जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पसर कर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है!
पैने दांतों वाली---

सूअर का बच्चा
वीरेन डंगवाल

बारिश जमकर हुई, धुल गया सूअर का बच्चा
धुल-पुंछकर अंग्रेज बन गया सूअर का बच्चा
चित्रलिखी हकबकी गाय, झेलती रही बौछारें
फिर भी कूल्हों पर गोबर की झांई छपी हुई है
कुत्ता तो घुस गया अधबने उस मकान के भीतर
जिसमें पड़ना फर्श, पलस्तर होना सब बाकी है।

चीनी मिल के आगे डीजल मिले हुए कीचड़ में
रपट गया है लिये-दिये इक्का गर्दन पर घोड़ा
लिथड़ा पड़ा चलाता टांगें आंखों में भर आंसू
दौड़े लगे मदद को, मिस्त्री-रिक्शे-तांगेवाले।

राजमार्ग है यह, ट्रैफिक चलता चौबीसों घंटे
थोड़ी सी बाधा से बेहद बवाल होता है।

लगभग बन्द हुआ पानी पर टपक रहे हैं खोखे
परेशान हैं खास तौर पर चाय-पकौड़े वाले,
या बीड़ी माचिस वाले।
पोलीथिन से ढांप कटोरी लौट रही घर रज्जो
अम्मा के आने से पहले चूल्हा तो धौंका ले
रखे छौंक तरकारी।

पहले दृश्य दीखते हैं इतने अलबेले
आंख ने पहले-पहले अपनी उजास देखी है
ठंडक पहुंची सीझ हृदय में अदभुद मोद भरा है
इससे इतनी अकड़ भरा है सूअर का बच्चा।