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Tuesday, November 29, 2022

मेले ठेले में दर्शक की एकाग्रता सिर्फ मंच पर घटित होते दृृृश्‍य पर रहती है

विजय गौड 


जब झूठ की कोई भी बात लिख देना सोशल मीडिया में हलचल मचा देने वाला हो रहा हो, ऐसे में इतिहास की उस धारा को सामने लेकर आना, दुनिया को खुशहाल बनाने के लिए जिसकी बेचैनी बेशक कभी संदेह के दायरे में न रही हो लेकिन शासन-प्रशासन एवं अधिकारिक संस्‍थायें जिसका जिक्र करने तक से कन्‍नी काटती हो, जब उस इतिहास को सामने लाने का उद्यम सामने दिखे तो उसका उल्लेख होना ही चाहिए। इतिहास की ऐसी घटना का जिक्र करने वाली संस्‍था बेशक क्षेत्रिय अस्मिता को संतुष्ट करने वाली कोई भी संस्था हो चाहे। वर्तमान का घटनाक्रम ही तो भविष्य में इतिहास है। नाट्य संस्‍था वातायन के साथ मिलकर गढ़वाल महासभा, देहरादून जब नागेन्द्र सकलानी और मोलाराम भरदारी की शहादत और तिलाड़ी के नर संहार को  कौथिग 2022 के विषय के रूप में प्रस्तुत करें तो वह साधारण बात नहीं थी। इतिहास की एक क्रांतिधर्मा घटना को अपने कार्यक्रम का हिस्‍सा  बनाते  हुए गढ़वाल महासभा, देहरादून ने निश्चित ही भविष्‍य के उस सवाल को भी ताक पर रखा होगा कि बडे बजट के ऐसे कौथिग कार्यक्रम का आयोजन करने में मुश्किल आ सकती है। खाता -पीते मध्‍यवर्गीय पहाडी समाज के सहयोगियों से तो धन फिर भी जुटाया जा सकता है, क्‍योंकि संस्‍कृति के प्रति पिलपिले आग्रह में उस मानसिकता में डूबे व्‍यक्ति की मासूमियत तो डोली नाचे चाहे बिगुल बजे, उसकी अ‍स्मिता को तुष्ट करती ही रहती है, इस बात से उसे खास फर्क नहीं पडता कि घटना का मर्म क्‍या था, लेकिन राजनीति की धारा से बह कर आते धन का पतनाला जरूर पतला हो सकता है। 

गढ़वाल महासभा, देहरादून की स्‍थापना का इतिहास, रोजी-रोटी की तलाश में गढवाल छोडकर शहरों में आ बसने वाले उन गढवालियों की एकजुटता के साथ शक्‍ल लेता है, शहरों के छल छद्म से निपटने के लिए जिन्‍हें उस वक्‍त सांस्‍कृतिक और भोगोलिक पहचान के साथ एकजुट होना हौंसला देता था। अपनी स्थापना के दौर में बेशक ऐसा जरूरी रहा हो लेकिन आज जब देहरादून गढ़वाल वासियों की तादाद से भरा है तो उसकी उपस्थिति एकजुटता की सांस्‍कृतिक आवाज तक सीमित नहीं रह सकती, यह बिल्‍कुल तय बात है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसी संस्‍थाओं की राजनीति '' मुख्‍यधारा'' की राजनीति के साथ गलबहियां करने में परहेज नहीं करती। बल्कि, बहुत बचते-बचाते हुए भी शासन-प्रशासन की मद्द पा जाने की कामना उन्‍हें ऐसे रास्‍तों को चुनने का ''नैतिक'' आधार भी दे रही होती है। 

बावजूद इसके कौथिग-2022 के समाप्ति वाले दिन (कौथिग 2022 11 से 20 नवम्‍बर 2022) को कौथिग के मंच पर जो नजारा था, वह उस प्रवृत्ति से भिन्न था और नागेंद्र सकलानी और मोलाराम भरदारी की शहादत की कथा को आधार बनाकर रची गई डॉक्टर सुनील कैंथोला की कृति ''मुखजात्रा'' नाटक का मंचन हुआ। नाटक का निर्देशन राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यायाल से शिक्षित रंगकर्मी  सुवर्ण रावत ने किया। वातयान द्वारा आयोजित नाट्यशाला में तैयार किये गये इस नाटक में अभिनय करने वाले सभी कालाकार बधाई के पात्र हैं जिन्‍होंने न सिर्फ अपनी अभिनय क्षमता बल्कि दफन कर दी जा रही इतिहास गाथाओं को साकार करने के लिए उत्‍तराखण्‍ड के एक सीमित क्षेत्र ही सुनायी देने वाली रंवाई  भाषा को भी मंच पर उतारने की सफल कोशिश की। मेरी जानकारी में यह पहला ही अवसर होगा जब हिंदी नाटक के मंच पर रंवाई का इतना खूबसूरत प्रयोग किया गया हो। कलाकार जिस वक्‍त अपने अपने तरह से सुरीली रंवाई बोल रहे थे, बेशक उसको हूबहू अर्थों में समझना इतना आसान नहीं था, लेकिन तिलाड़ी नरसंहार की वह घटना, जिसे रंवाई का ढंडक के नाम से जाना गया ; टिहरी राजशाही के अमानवीय फरमानों  की मुखालफत से उपजा विद्रोह, सुंदर ढंग से बयां हो रही थी। मेले-ठेले के बीच इतिहास की बात करना, वह भी इस गंभीरता से, कोई सामान्य बात नहीं। न सिर्फ भाषाई उपस्थिति के लिए, बल्कि चाट पकोडों के स्‍वाद के लिए मेले में पहुंंचे खाते पीते मध्‍यवर्ग और मस्‍ती के लिए एक स्‍टाल से दूसरे स्‍टाल पर पहुंचते युवाओं से संवाद का माहौल बना देना कोई सरल बात नहीं, निर्देशक सुवर्ण रावत की कल्पना और उसका मंचीय प्रयोग एक यादगार क्षण है।  

1947 में भारत तो आजाद हुआ लेकिन टिहरी की जनता को तो राजशाही के शिकंजे से आजादी उस वक्‍त भी नहीं मिली। प्रजामंडल का आंदोलन, कम्युनिस्टों का आंदोलन टिहरी की जनता की उस आजादी का ही आंदोलन था जिसने राजशाही के उस क्रूर चेहरे को एक बार फिर सामने रख दिया जो 1930 में तिलाडी के ढंडकियों के नरसंंहार से गंदलाये अपने चेहरे के साथ था। 84 दिन जेल में रखने के बाद श्री देव सुमन की हत्या कर दी जाती है और हत्या का बदला लेने की इच्छाएं रखते हुए टिहरी राजसत्‍ता का खात्‍मा कर उसे भारत में विलय कर देने की आकांक्षा के साथ नागेंद्र सकलानी के नेतृत्व में जब टिहरी का जनसैलाब फिर से ढंडक रूप धरने लगता है तो हत्‍यारी सत्‍ता नागेंद्र सकलानी और माेलूू भरदारी की हत्‍या कर देने से नहीं चूकती। लेकिन अपने नेताओं की शहादत की मुखजात्रा के साथ परचम लहराती जनता को रोकना उसके लिए संभव नहीं रहता और टिहरी पर तिरंगा फहरने लगता है।  यह ऐसा मंचन था जो मेले की रोल-धौल के बीच भी अपनी बात कहने में सक्षम था। 

इसी नाटक का एक दूसरा पाठ 26 एवं 27 नवंबर देहरादून नगर निगम के टाउन हॉल में हुए प्रदर्शित हुआ। इसे दूसरा पाठ कहने के पीछे आशय स्‍पष्‍ट है; कौथिग में प्रदर्शित नाटक यहां अपने संपादित रूप में था। संपादित रूप नाट्य संस्‍था वातायन उसकी अहम भूमिका की बानगी बन रहा था जिससे डॉक्टर सुनील कैंथोला की कृति ''मुखजात्रा'' मंचित होने वाले हिंदी नाटकों की सूचि का विस्‍तार कर रही थी। यही कारण है कि कोथिग में हुए मंचन


और 26 एवं 27 दिसंबर देहरादून नगर निगम के टाउन हॉल में हुए को एक ही तरह से विश्‍लेषित नहीं किया जा सकता। टाऊन हाल में प्रदर्शित नाटक संपादन की स्थितियों के बावजूद उस झोल में ही लटकता रहा जहां तिलाडी काण्‍ड का समय और टिहरी रियासत के भारत में विलय संबंधी आंदोलन के समय को अलग अलग पहचानना मुश्किल था। कौथिग में किये गये प्रदर्शन के दौरान यह झोल इस कारण से नजरअंदाज किये जाने वाली बात हो सकती है कि मेले ठेले में दर्शक की एकाग्रता सिर्फ घटित होते दृृृश्‍य पर रहती है। ऐसे में बहुत तार्किक हुए बगैर भी छुपा दिये जा रहे इतिहास को सामने लाना स्‍तुत्‍य ही है। लेकिन एक नाटक जब साहित्‍य के मानदण्‍डों पर अपने को प्रस्‍तुत किये जाने के साथ हो तो एक नाटकीय स्‍वरूप की विशिष्‍टता में भी कथा का तार्किक संयोजन बना रहे तो निर्देशक और लेखक के मंतव्‍य ज्‍यादा प्रभावी ढंग से दर्शक तक पहुंच सक‍ते हैं। यानी टिहरी राजशाही का अमानवीय चेहरा कथा की अतार्किकता में बेदाग भले न दिखाई दे, उस पर लगे दागों को देखना दर्शक के लिए संभव नहीं हो पाता। यह सवाल इसलिए भी महत्‍वपूर्ण है, क्‍योंकि नाट्य लेखक स्‍वयंं भी एक पात्र की तरह नाटक में मौजूद हैं। यदि ये मंचन ''मुखजात्रा'' की स्‍क्रिप्‍ट को फाइनल रूप में पहुंचाने में कोई भूमिका निभाते हैं, हालांकि नाटक तो पहले से प्रकाशित है लेकिन लेखक स्‍वयं जानते होंगे कि नाटक सिर्फ पढने की विधा नहीं है बल्कि मंचन के बाद ही वह अपने असली रूप को पाता है, तो निश्‍चित ही इसे सिर्फ चूक नहीं माना जा सकता। यह चूक तो उस मूल अवधारणा के ही विरूद्ध है जिसके लिए नागेन्‍द्र सकलानी की शहादत को और तिलाडी कांड के नर संहार को याद रखा जाना जरूरी है। टाऊन हाल के प्रदर्शन में इस बात को भी छूट नहीं दी जा सकती कि मंच पर घास काटती महिलाओं क‍े दृृृश्य में पहाडी झलक दिखने के बावजूद यह पहचानना मुश्किल है कि वे महिलायें ब्रिटिश गढवाल का नहीं टिहरी का चेहरा है। इस बारीक फर्क को रखने की जरूरत इसलिए भी है कि रंवाई के ढंडकियों की कथा कहते कलाकारों से निर्देशक ने रवांई को जीवंत कर दिया था। समूह नृत्‍य को रंवाई का रंग देते लेखक महावीर रवालटा स्‍वयं मंच में थे। उत्‍तराखण्‍ड के पहाड के अन्‍य हिस्‍सों में भी होने वाले ऐसे ही समूह नृत्‍यों से अलग यहां कलाकारों के वे बोलते बदन थे जिसमें रंवाई के मानुष की झलक दिखती थी। भाषायी स्‍तर पर सचेत रहकर रंवाई भाषा को मंच पर लाने वाले निर्देशक से यह उम्‍मीद तो बंधती है कि रियासती टिहरी की भाषायी लटक और ब्रिटिश गढवाल की भाषयी लटक के फर्क को भी बनाये। भड्डू देवी का अभिनय कमाल का था लेकिन उनकी  भाषायी लटक टिहरी के बजाय चमोली की महिला की झलक दे रही थी।        


टाऊन हॉल के मंचन पर और भी बातें ध्‍यान खींचती हैं जिन पर चर्चा हो तो उम्‍मीद कर सकते हैं कि एक बेहतरीन नाटक से हिंदी नाटकों  का संसार जरूर समृृद्ध होगा। 

Saturday, March 12, 2016

उसका नाम कन्हैया है

संस्समरण

सुनील कैंथोला

बकरोला जी श्याम को कुत्ता घुमाते हैं, कोई सात बरस पहले एक मलाईदार विभाग से सेवानिवृत हुए हैं, यहीं वसंत विहार एन्क्लेव में बंगला है, ऐशो आराम की कमी नहीं. बकरोला जी का कुत्ता उनसे जायदा हट्टा-कट्टा है. एक तो उम्र में कम है और दूसरा कुत्ता शराब नहीं पीता. जब वे घूमते हुए कुत्ते के मलत्याग हेतु कोई उपयुक्त स्थान ढूँढने की फिराक में होते हैं तो लगता ऐसा है कि मानो उनका कुत्ता उन्हें घुमा रहा हो.

बकरोला जी की एक खासियत है कि बात कहीं से भी शुरू हो उसका अंत I.A.S. व्यवस्था को फटकारने और यदि दो-चार पेग अन्दर हों तो माँ-बहन की गालियों पर समाप्त होती है. ये बकरोला जी की I.A.S. से व्यक्तिगत खुन्नस है. इसकी तह में जायेंगे तो आक्रोश शायद इस बात का है कि वे I.A.S. बनने से वंचित कैसे रह गए.
बकरोला जी अच्छे आदमी हैं. इलाके में सत्संग के आयोजन में हमेशा आगे रहते हैं. क्रिकेट में जब भारत पाकिस्तान से जीतता है तो अपनी जेब से आतिशबाजी का आयोजन करवाते हैं. पंद्रह अगस्त हो या छब्बीस जनवरी, बकरोला जी सोसाइटी के पार्क में होने वाले झंडारोहण कार्यक्रम का अहम् हिस्सा होते हैं. वे कड़क स्वाभाव के हैं. झंडारोहण के पश्चात् मिष्ठान वितरण के दौरान बगल की मलिन बस्ती का कोई बच्चा यदि दोबारा लड्डू मांग ले तो उसके कान गर्म करने में देर नहीं लगाते. बकरोला जी सेवानिवृत होने के बाद भी आजादी की रक्षा में संलग्न हैं. देश की आज़ादी को लेकर बकरोला जी बहुत भावुक हैं. यही वो आज़ादी है जिसने उनको वसंत विहार एन्क्लेव के इस बंगले में विराजमान किया अन्यथा सूखी तन्खवाह में भला ऐसा कहाँ संभव था. जब तक उनकी कलम में ताकत रही बकरोला जी ने उसे पूरी निष्ठा से आज़ादी की रक्षार्थ समर्पित किया. ये बात अब सार्वजनिक हो ही जानी चाहिए कि जब से उन्होंने उस नासपीटे कन्हैया को आज़ादी के नारे लगाते देखा उसी क्षण से बकरोला जी के भीतर एक हाहाकारी किस्म की उथल पुथल शुरू हो गयी है. अब कोई माने या न माने इसका श्रेय उस कमबख्त कन्हैया को ही जायेगा जिसने उन्हें अपनी आज़ादी से प्राप्त होने वाले फलों के प्रति जागृत किया और उस पर पड़ने दुष्प्रभावों के प्रति उन्हें सतर्क किया . बकरोला जी को अपनी आजादी की चिंता है. अब वे सीरियल कम और इंडिया टीवी जायदा देखने लगे हैं.

बकरोला जी उस सामाजिक परिवेश से आते हैं जिसमे महिलाएं अपने बड़े बुजुर्गों का नाम अपनी जुबान पर लाना पाप समझती हैं. मसलन यदि किसी महिला के ससुर का नाम इतवारी लाल हुआ तो वह इतवारी लाल जैसे पवित्र शब्द को अपनी जुबान पर लाना तो दूर इतवार के दिन को इतवार न बोल कर कुछ और बोलना शुरू कर देगी जैसे कि तातबार! इसी प्रथा का कुछ हैंगओवर बकरोला जी पर भी है. बकरोला जी आजकल बहुत हिंसक हो रहे हैं. पर अपने तरकश में भरी चुनिदा गालियों से लैस होने के उपरांत भी वे कन्हैया को गाली देने में इसलिये असमर्थ हैं क्योंकि उसका नाम कन्हैया जो है!



Friday, February 19, 2016

खाकी निक्कर

सुनील कैंथोला
 
खुर्शीद, मास्टर का दूसरे नंबर का बेटा है. बड़ा वहीद और छोटा मुस्तकीम. मुस्तकीम से पहले एक लड़की है, जिसका नाम मुझे याद नहीं. ये सारे बच्चे चोराहे के उसी खोके में पैदा हुए जिसके एक हिस्से में मास्टर अपनी नाई की दुकान चलाता था. मास्टर अब नहीं है, उसकी मौत उस ज़माने में हुई जब दारू के नाम पर टिंचरी दवाई की दुकानों में खुलेआम बिका करी थी. मास्टर के अनेक किस्से हैं जैसे कि वो आँखों की कोई दवा मुफ्त बांटा करता था. या कि उसका खोका बेरोजगारों को छुपकर बीडी पीने की निशुल्क आड़ प्रदान किया करता था. पर छोड़ो, ये किस्सा मास्टर के बारे में नहीं बल्कि खुर्शीद और उसकी खाकी निक्कर के बारे में है.

मास्टर जैसा भी रहा हो, पर उसने अपने बच्चों को स्कूल जाने और पढने से रोका नहीं. ये अलग बात है कि वो जायदा पढ़े नहीं, पर थोडा बहुत विद्यार्थी जीवन सभी बच्चों के  हिस्से आया.  स्कूली दिनों में हिन्दू-सिख बच्चों की संगत में रहते हुए खुर्शीद को अपना नाम अटपटा लगने लगा. फिर किशोरावस्था में कदम रखते हुए जब उसने कैंची और उस्तरा संभाला  तब उसने खुर्शीद के खुरदुरेपन को दूर करने की ठान ली. उन्ही दिनों वो मेरे संपर्क में आया था. तब मास्टर सेमी रिटायरमेंट मोड में था और दुकान अब वहीद और खुर्शीद चलाने लगे थे. छोटा  मुस्तकीम अभी भी स्कूल जा रहा था और उनकी बहिन छोटी उम्र में ब्याही जा चुकी थी. जब से खुर्शीद दुकान में बैठने लगा तब से वहां उसके हम उम्र हमेशा ही भिनभिनाते रहते थे.  जाहिर है कि उसके दोस्त शत -प्रतिशत हिन्दू और सिख परिवारों से थे. दिलचस्प बात ये है कि उसका कोई भी दोस्त उसे खुर्शीद के नाम से नहीं बुलाता था. सब उसे अज्जु कहते थे. पूछने पर उसने बताया कि अज्जु नाम उसी ने रखा है क्योंकि खुर्शीद बड़ा अटपटा और खुरदरा सा है. अज्जु हंसमुख और हाजिर जवाब था. दुकान पर अब वेटिंग लिस्ट भी लगने लगी थी. लोग नंबर लगा कर बगल की चाय की दुकानों में बैठ जाते और उनकी बारी  आने पर अज्जु उन्हें बुला लेता. कभी कोई शेव के लिए जल्दी मचाता तो अज्जु बोल देता ‘अभी तो टाइम लगेगा भाई जी, जल्दी है तो बनी बनाई ले लो’.

धीरे धीरे अज्जु और उसकी मित्र मण्डली की गतिविधियाँ  मुहल्ले की गलियों से बाहर बड़े मैदानों तक होने लगी. वे क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने मातावाला बाग़ जाने लगे. अपने दोस्तों की ही तरह अज्जु सब कुछ करना चाहता था. दुकान पर अब ब्रूसली का पोस्टर लग चूका था. अज्जु को कराटे भी सीखनी थी और बॉडी बिल्डिंग में भी हाथ अजमाना था. चूंकि दूकान देर रात तक चलती थी इसलिये अज्जु अब सुबह मातावाला बाग जाने लगा. निरंतर पसरते देहरादून में अब मातावाला बाग ही ऐसी जगह बची थी जहाँ अलग अलग मुहल्लों की कई टीमे एक साथ क्रिकेट खेल सकती थी. लोग जोगिंग कर सकते थे, शादियों के सीजन से पहले ब्रास बैंड वाले प्रैक्टिस कर सकते थे. अखाडा चलता था, शाखा लगती थी. मातावाला बाग का यह  मजमा पौ फटने से पहले ही शुरू हो जाता था. अज्जु और उसकी टोली को यह सब भाने लगा और मातावाला बाग उनके रूटीन का हिस्सा बनने लगा.
मातावाला बाग में पिछले कोई दो एक बरस से शाखा लगने लगी थी जिसमें अधिकांशतः जनसंघ के ज़माने के बुजुर्ग और युवावस्था खर्च कर चुके वरिष्ठ कार्यकर्ता ही शिरकत करते थे. रंगरूटों का अच्छा अभाव था. उस समय तक हालाँकि इंटों की एक किश्त अयोध्या भेजी जा चुकी थी पर रामभक्तों की जमात से संघी उत्पादन की प्रक्रिया कमोबेश धीमी ही थी. अज्जु और उसके साथियों की टोली के लिये शाखा की प्रक्रिया कोतुहल का विषय होती और वे दूर से खड़े होकर उनके कर्मकांड को देखते. इसी फेर में शाखा संचालक की नज़र इस टोली पर पड़ गयी और मेल-मिलाप बढ़ने लगा. अज्जु, अब अज्जु जी बनने की दिशा में बढ़ने लगे. इसी दौर में अज्जु ने अपनी टेंशन मुझ से साझा की.  हुआ यूँ कि अपनी पूरी मण्डली के साथ अज्जु मियां ने भी शाखा में भाग लेना शुरू कर दिया. सुबह की नींद सब से प्यारी होती है. जिसने अल सुबह बिस्तर का मोह छोड़ दिया उसने समझो पहली लड़ाई तो जीत ही ली. पर हर कोई कहाँ उठ पता है. इसलिये शाखा के सयाने नये रंगरूटों के घर घर जा कर उन्हें उठाते है ‘पांडे जी उठ जाईये, शाखा का समय हो चूका है’. अज्जु को शाखा का ऐसा नशा लगा कि उसकी नींद ही गायब हो गयी. अपनी टोली के अन्य साथियों को उठाने की साथ साथ वह शाखा संचालक के दरवाज़े पर भी पहुँच जाता. पहले एक-दो दिन तो झंडा-डंडा भी उसी ने ढोया. पर  इसी बीच बात खुल गयी कि अज्जु उस बिरादरी का नहीं है जिसके लिये ये आयोजन होता है. अज्जु को किनारे कर के उसकी टोली से बात की गयी की भईया इसे मत लाओ. पर टोली कहाँ मानती और किसी की भी समझ में ये नहीं आया की अज्जु को लाने से मना क्यों किया जा रहा है. एक तरफ नए रंगरूटों को खोने का डर तो दूसरी तरफ अज्जु को भीतर लाने की समस्या,  कुछ दिन इसी तरह बीत गए और अज्जु शाखा में हिस्सा लेता रहा.

फिर शाखा संचालक की तरफ से निर्णय सुनाया गया कि जो भी शाखा में नियमित होना चाहता है उसे शाखा की ड्रेस पहन  कर आना पड़ेगा. विशेष रूप से खाकी निक्कर तो सिलवानी ही पड़ेगी. अज्जु की टोली के सभी सदस्यों ने सहमती दे दी और उनके परिवार ने भी हाँ बोल दिया. इस बीच अज्जु ने होमवर्क किया तो पता चला की कम से कम सत्तर रूपये का खर्चा है. कुछ पैसे उसने जोड़ लिये थे और बाकि का जुगाड़ कर रहा था. इसी सिलसिले में अज्जु ने मुझ से ये बात साझा की थी. चूंकि मैं शेव और कटिंग अज्जु से ही करवाता था तो वह मुझे टटोलना चाह रहा था कि क्या में कुछ पैसे एडवांस में दे पाऊंगा जो की बाद में एडजस्ट हो जायेंगे. क्या गज़ब का उत्साह था अज्जु में, इतने दिनों में उसे  नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ पूरी कंठस्थ हो गयी थी. टोली अब भी साथ जाती थी पर अज्जु  शाखा में भाग न लेकर आस-पास उछल –कूद करता और सभी साथ-साथ वापस आ जाते. मैंने उसे कितने पैसे दिए ये याद नहीं, पर दिए जरूर थे. अज्जु का मिशन  ‘खाकी निक्कर’ कायम था. निक्कर सिलवाने को दी जा चुकी थी. जब कोतुहलवश पुछा तो उस ने मुझे यही बताया था.

अब हुआ यूं कि निक्कर की डिलीवरी होने से पहले बाबरी मस्जिद दहा दी गयी और आर. एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. इस घटना के दो-चार दिन बाद मैं शेव करवाने अज्जु की दुकान पर गया तो पाया की वह बहुत उत्तेजित है. कारण पूछने पर उस ने बताया कि उसकी निक्कर कल मिल गयी थी. इसलिए वो आज सुबह उसे पहन कर महेंद्र जी के घर गया था जगाने के लिये. उसने आवाज लगाई तो महेंद्र जी ने डांट कर भगा दिया की कोई शाखा वाखा नहीं लगेगी. जाओ यहाँ से, हल्ला मत करो. फिर मैं मातावाला बाग चला गया. वहां शाखा के सभी लोग आये थे पर मेरे सिवाय निक्कर किसी ने भी नहीं पहनी थी. वहां उन लोगों ने मुझे फिर पकड़ लिया ओर धमकाया कि ये निक्कर मत पहन वर्ना पुलिस पकड़ लेगी. अज्जु का मेरे से एक ही सवाल था कि 'भाई जी इतने मुश्किल से पैसे जमा कर के निक्कर सिलवाई है, मेरी निक्कर है, बताओ मैं इसे क्यों नहीं पहन सकता'.

बरस, 1992 से 2016 के बीच कितना समय बीत गया है पर अज्जु का सवाल मेरे जेहन में कभी कभार उठता ही   रहता है.  वहीद और छोटा मुस्तकीम अभी भी भंडारी बाग के चोराहे पर उसी खोके से अपनी दुकान चला रहे हैं जहाँ वे पैदा हुए थे. अज्जु उनसे अलग हो चूका है.  उसे आखरी बार अनुराग नर्सरी के तिराहे पर एक तिरपाल  के नीचे हजामत बनाते देखा था. वो मुझे खुर्शीद लगा, उसमें अज्जु जैसा कुछ भी नहीं था.

Sunday, May 8, 2011

पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है


मानव जीवन और पशु जीवन के बीच के आपसी रिश्तों के असंगत व्यवहार वाली पर्यावरणीय मानसिकता को जन्म दिया है। जंगलों और उसके आस-पास निवास करने वाले ग्रामीणों के लिए जंगल और पशु उनके आर्थिक आधार हैं, इस बात को ऐसे स्थानों पर रह रहे ग्राम वासी वर्षों से जानते हैं। लेकिन पर्यावरण की एकांगी समझ ने न सिर्फ मानवीय जीवन को ही दूभर बनाया हुआ है बल्कि जंगली पशुओं के प्रति एक झूठे प्रेम का ढकोसला रचा हुआ है। जंगलों के आस-पास निवास कर रहे ग्रामीणों का किस तरह से ऐसी ही मानसिकता से बने कानून के दायरे का शिकार होना पड़ जाता है इसका ताजा उदाहरण उत्तराखण्ड के रिखणीखाल इलाके में घटी हाल की घटना है। कानूनी दायरे ने मामले को इस कदर पेचीदा बना दिया है कि उत्तराखण्ड के विभिन्न इलाकों में पुलिस प्रशासन के खिलाफ आवाजें हर ओर सुनायी दे रही है। धरने प्रदर्शनों के लिए मजबूर जनता गिरफ्तार किये गये ग्रामीणों की रिहाई के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर हो रही है। विस्तृत सूचना के लिए विभिन्न पत्रों की रिपोर्ट की तस्वीरें यहां दी जा रही है। पर्यावरणीय मामले की पड़ताल करता डॉ सुनिल कैंथोला का आलेख एक सचेत नागरिक की चिन्ताओं के साथ है।
डा. सुनील कैंथोला








‘‘लामा जी उवाच’’
 ‘पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है।’ 
लामा जी अभी सिर्फ ढाई साल के हैं और रंग-बिरंगे चित्रों से भरपूर अपनी किताब से बारहखड़ी सीखने के खेल में जुटे रहते हैं। ये किताब लामाजी को दुनियां भर का ज्ञान बटोरने का अवसर प्रदान करेंगी, परन्तु यदि वे इस किताबी ज्ञान का ही सच मान लेंगे और अपने सामान्य ज्ञान को नजर अंदाज करेंगे, तो यह उनके लिए घातक भी हो सकता है। जैसे किताबें कहेंगी कि भोजन चक्र के अनुसार बाघ का भोजन वनों के शाकाहारी प्राणी हैं, तो यह लामाजी व उनकी किताबों के लिए एक क्रूर मजाक ही होगा। क्योंकि उत्तराखंड में बाघ बच्चे भी खाता है और उनकी माताओं को भी। ऐसा बहुत पहले से होता आ रहा है। तार्किक आधार पर यह भी कह सकते हैं कि ऐसा तो उस समय से होता आ रहा है, जब जंगलों में बाघ के प्राकृतिक आहार की कोई कमी न थी और भोजन चक्र में बाघ के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हुआ करता था। ’’मैन ईटर आॅफ रुद्रप्रयाग’’ में जब जिम कार्बेट उस बाघ का किस्सा लगाते हैं, जो तीर्थयात्रियों से भरी एक झोपड़ी के भीतरी कक्ष से एक स्थानीय महिला को उठाकर ले जाता है, तो क्या यह ये इंगित नहीं करता कि उत्तराखंड के बाघों के भोजन चक्र का हिस्सा यहां की महिलाएं बन चुकी थी।
वन्यजीव शास्त्री संभवतः इसे हंसी में उड़ा दें, किन्तु वन्यजीव शास्त्र अभी इतना परिपक्व भी नहीं हुआ है। फिर इसे साबित करने के लिए मात्र वन्यजीव शास्त्रियों के पुस्तकालयों और शोधपत्रों को खंगालने मात्र से ही समस्या का समाधान नहीं होने जा रहा है। निश्चित रूप से वन्यजीव शास्त्र को इस विवाद में शामिल किए जाने की आवश्यकता है, किंतु समग्र रूप में यह सवाल राजनैतिक है।

मैं अपना तर्क इस स्थापना ;हाइपोथीसीस से शुरू करता हूं कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ के भोजन चक्र में स्थानीय महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। इसके पक्ष में मुझे आंकड़े प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं लगती, क्योंकि यह सर्वविदित है कि बाघ लगातार हमारे बच्चों और महिलाओं को दबा रहा है। ऐसा तब से है, जब वनों में उसके लिए प्रचुर आहार मौजूद था। ऐसा कहा जा सकता है कि बूढ़ा अथवा घायल बाघ ही नरमांस का भक्षण करता है। तब भी बात वहीं की वहीं रहती है, क्योंकि हर बाघ यदि घायल न भी हो तो बूढ़ा तो होगा ही अर्थात् बाघ जब बच्चा होता है, तो मां का दूध पीता है, जवानी में हिरन वगैरह खाता है और बुढ़ापे में हमारे बच्चों और महिलाओं को अपना निवाला बनाता है। ऐसा संभवतः इसलिए भी हो कि विकट पहाड़ में हिरन का शिकार मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक श्रमपूर्ण हो, अन्यथा न लिया जाए तो मैदानी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ द्वारा हिरन के आखेट में कुल ऊर्जा ;कैलोरी व्यय पर तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी कोई बुरी बात न होगी।
बहरहाल! मैं पुनः बाघ के भोजन चक्र में शामिल हो चुके अपने पहाड़ों के बच्चों तथा महिलाओं के प्रश्न पर आता हूं। समाचार पत्रों में नरभक्षी बाघों के आंतक की घटनाएं लगातार छपती आ रही हैं। इन्हें नरभक्षी ;मैन ईटर कहना भी उचित न होगा, क्योंकि उत्तराखंड के बाघ नर का भक्षण नहीं करते। वे अपने भोजन चक्र को लेकर बहुत ही चूजी हैं। उन्हें सिर्फ महिलाएं और बच्चे ही चाहिए। चंूकि पहाड़ के अर्थतन्त्र की रीढ़ कहे जाने वाली महिला और भविष्य कहे जाने वाले बच्चे राजनैतिक रूप से हाशिए पर हैं। अतः देश में बाघ के  संरक्षण के नाम पर उनका बाघों का भोजन बन जाना कोई बड़ा सवाल पैदा नहीं करता।
इन्हीं क्षेत्रों में हमारे भाई लोग भी तो शाम को झूमते हुए निकलते हैं। कभी ज्यादा हो जाए, तो कहीं थोड़ा बहुत आराम भी कर लेते हैं। रसोई में खाना बनाती महिला के सामने से उसके बच्चे को उठा ले जाने के तो अनेक किस्से मिल जाएंगे, पर ऐसा नहीं सुना कि रास्ते में टुन्न पड़े अपने किसी भाई पर बाघ ने हमला कर दिया हो। शायद बाघ उसे सूंघ कर या उस पर कुछ कर के चला जाए, पर उसे हानि नहीं पहुंचाएगा। इससे कुछ लोग यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बाघ संभवतः शराब विरोधी आन्दोलन के सदस्य होते हों।
किन्तु इस विषय पर चर्चा करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। यहां तो मैं मात्र अपने महान देश के विकास और संरक्षण के लिए अर्पित अपने समुदाय की बात निम्न बिन्दुओं के आधार पर रखने का प्रयास कर रहा हूं। 

1. उपलब्ध आंकड़े और ज्ञात इतिहास यह इंगित करते हैं कि महिलाएं और बच्चे बाघ के भोजन चक्र का हिस्सा बन सकते हैं।

2. अपना उत्तराखंड बन जाने के बाद भी हमारे सैकड़ों बच्चे और महिलाएं बाघ का शिकार बनी हैं। किसी गांव में आक्रोशित जनता द्वारा पिंजड़े में कैद बाघ को जलाया जाना निश्चित रूप से गैर कानूनी है, पर महानगरों में बैठे पर्यावरण प्रेमियों के बच्चे और महिलाएं बाघ के आतंक से महफूज हैं और पर्यावरण प्रेमी, पहाड़ की महिलाओं और बच्चों की त्रासदी से अनजान हैं।

3. बाघ नरभक्षी नहीं अपितु महिला एवं बालभक्षी होता है। कम से कम उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में तो यह तथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि नरभक्षी बाघ होते ही नहीं हैं। हमारे यहां वे भी पाए जाते हैं, किन्तु मनुष्य के रूप में। ये संख्या में कम हैं, पर दबंग हैं। इन पर अभी हाल ही में कुलानन्द घनसाला ने ’मनखी बाघ’ के नाम से एक नाटक भी खेला था। ये कई रूपों में और व्यवसाय में मिल जाएंगे। ये अभी हाल ही में बड़ी तेजी से फले-फूले हैं। इन पर उंगली उठाना अपने को ‘विनायक सेन’ बनाना है। इनकी कचहरी में बाघों का आंतक कोई मुद्दा नहीं है। इसीलिए उत्तराखण्ड की महिलाओं और बच्चों का बाघ से मुक्ति का फिलहाल कोई रास्ता नहीं है।

4. ऐसा नहीं कि बाघों को संरक्षण की आवश्यकता नहीं। वे उत्तराखण्ड की जैव विविधता का अभिन्न अंग हैं, किन्तु इनको बचाने की प्रक्रिया में कहीं तो कोई खोट है। इस बारे में सूचना के अधिकार का उपयोग करके बहुत कुछ सामने लाया जा सकता है कि कहीं सर्कस के बाद तो यहां नहीं छोड़े या नरभक्षी की समस्या को सरकारी विशेषज्ञ किस स्तर पर देखते हैं। शायद कभी कोई सिरफिरा सवाल पूछने की हिम्मत करे वरना ज्यादातर संस्थाएं तो पर्यावरण संरक्षण में ही जुटी हैं, क्योंकि फिलहाल पैसा उसी के लिए आ रहा है।

5. टाईगर बचाने के लिए टास्क फोर्स बन सकता है, तो हमारे बच्चे बचाने के लिए क्यों नहीं? यहां तात्पर्य वन कर्मियों को तोप तमंचे से लैस करने का नहीं, अपितु नरभक्षी होने के कारणों पर विशेषज्ञ समिति के गठन से है।

5. इस लेख के माध्यम से मैं उत्तराखण्ड पुलिस का हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहता हूं, जिन्होंने धामधार गांव की श्रीमती बिल्ला देवी को तब तक गिरफ्तार नहीं किया, जब तक वे जंगल से घास काट कर नहीं लाई और अपने पशुओं के चारे का इंतजाम कर सकी। श्रीमती बिल्ला देवी भी बाघ को जलाने की आरोपी हैं। भाईसाब, ऐसी दरियादिली और मानवता तो अपने देवभूमि उत्तराखण्ड की पुलिस में ही हो सकती है। उत्तर प्रदेश की बात होती, तो आसपास के 5-7 गांव के लोग गिरफ्तार कर लिए जाते और वो सब कबूल भी कर लेते कि ’ हां साब बाघ हमने जलाया है’। ये हुआ अपना प्रदेश बनाने का फायदा।

रीजनल रिपोर्टर से..

Tuesday, February 23, 2010

भाड़े का विज्ञान और विशेषज्ञ

यूं तो सम्पूर्ण ऊर्जा के दोहन को लेकर अनेक योजनाएं बनायी जा रही है पर उत्तराखण्ड के पहाड़ों में विशेष रूप से 400 से ज्यादा छोटी-बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं पर काम चल रहा है। जाहिर है स्थानीय जनता के विस्थापन से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक के मुद्दे प्रमुख रूप से उभर कर आ रहे हैं। ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में जनता के पास कुल भूमि का मात्र 7 प्रतिशत भूमि पर मालिकाना हक है, बाकी सब भूमि रिजर्व फॉरेस्ट व अन्य सरकारी खातों में बंद है। जल-विद्युत परियोजनाओं के निर्माण की अंधी दौड़ में यह तथ्य छुपाया जा रहा है कि जिस हिसाब से पर्वतों की जनता यहां की भूमि पर मालिकाना हक खो रही है उस हिसाब से बहुत जल्दी उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों की नदी घाटियों में बांध ही बांध और शिखरों में वन्यजीव अभ्यारण्य होंगे। यह भी उदघाटित होना चाहिए कि बांधों के निर्माण हेतु जारी दिखावटी प्रक्रिया, जिसके तहत पर्यावरणीय समीक्षा से लेकर विस्थापन और मुआवजों के मामलें निपटाये जाते हैं, कैसे उन विशेषज्ञों की रिपोर्टों के आधार पर तैयार हो जाते है जिनके अपने हित जल-विद्युत कम्पनियों के साथ बंधें होते हैं। पिछले दिनों जोशीमठ शहर के ठीक नीचे बनाये जा रही एक सुरंग में यकायक 600 लीटर प्रति सैकेण्ड की गति से जल रिसाव होने से निर्माण कार्य ठप है। अब जोशीमठ के निवासी भयभीत हैं कि कहीं उनके जल स्रोत सूख न जाए या कहीं जोशीमठ भूमि धसाव की जकड़ में न आ जाए। यह चिंताएं अकारण नहीं है। जोशीमठ के ठीक सामने के उस चाई गांव का मामला अभी कोई ज्यादा पुराना नहीं हुआ है जो एक ऐसी ही परियोजना के कारण इतिहास के गर्त में समा गया। चाई नाम के उस छोटे-से गांव के ठीक नीचे से जे पी कम्पनी की सुरंग निकाली गयी थी। परियोजना को पूर्ण रूप से सुरक्षित होने का प्रमाण-पत्र भी विशेषज्ञों द्वारा जारी किये जाने के बावजूद दो वर्ष पूर्व चाई गांव भूमि धसाव का शिकार हो चुका है, लेकिन अफसोस कि उन विशेषज्ञ रिपोर्टो पर आज तक कोई सवाल नहीं।
ऐसे ही सवालों के साथ प्रस्तुत है डॉ. सुनील कैंथोला का यह आलेख:

सुनील कैंथोला

हिंदुकुश हिमालय का एक बड़ा हिस्सा आतंकवाद और राजनैतिक अस्थिरता से ग्रस्त है। आतंक के इस खूनी खेल में भाड़े के सैनिकों की प्रमुख भूमिका है, जो लोकतंत्र और अमन-चैन को अपने पेशे के प्रतिकूल समझते हैं। दूसरी तरफ, हिमालय के ऐसे क्षेत्र जहां अमन है, लोकतंत्र है, वहां भाड़े के विशेषज्ञों का आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भाड़े के आतंकवादियों की ही तरह इनका दीन मात्र पैसा है और इसके एवज में ये लोकतंत्र का गला घोंटने से परहेज नहीं करते। इनके आतंक में पिसती स्थानीय जनता की स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ जैसी होकर रह गई है। अब भारत सरकार का कोई बोर्ड हो, विशेषज्ञों की मोटी तकनीकी रिपोर्ट हो और इसके बावजूद भी आप तकरार करने की हिमाकत करें, तो या तो आप कतई सिरफिरे हैं या निश्चित तौर पर माओवादी हो सकते हैं। जिसके नापाक इरादों पर पानी फेरने के लिए भारत सरकार चौबीसों घंटे चौकन्नी व लामबंद है।

इन दिनों उत्तराखंड मुआवजे की धनराशि से खरीदी गई गाड़ियों, उन पर लगे भारत सरकार के बोर्ड और उसमें विराजमान ताजी हजामत वाले, कृत्रिम इत्र-फुलेल की दुर्गंध छोड़ते भाड़े के विशेषज्ञों और उनके काणे विज्ञान की कलाबाजियों से पूरी तरह सम्मोहित है। मदारी, बहरूपिए, चालबाज, जेबकतरे आदि जब बड़े स्तर पर हाथ मारने में कामयाब हो जाते हैं, तो अंग्रेजी में उन्हें कलाकार का दर्जा देते हुए कॉन आर्टिस्ट कहा जाता है। उत्तराखंड में बड़े कॉन आर्टिस्टों की क्षमता संपन्न कंपनियों द्वारा कथित विशेषज्ञों को भाड़े पर उठाकर जो मायाजाल बुना जा रहा है, वह शेयर बाजार में भले ही उफान पैदा कर दे, स्थानीय आजीविका और अस्तित्व पर तो वह अंतिम कील ठोक ही देगा। इस भ्रम का शीघ्र अति शीघ्र पर्दाफ़ाश करना संविधान की आत्मा और लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई का हिस्सा बनता जा रहा है।

जब किसी के नाम के आगे विशेषज्ञ शब्द जुड़ जाए और ऊपर भारत सरकार का बोर्ड हो तो किसी की क्या मजाल कि उसकी विशेषज्ञता को चुनौती दे सके। फिर मामला जब ऐसा हो कि विशेषज्ञ की जरूरत पहले से तैयार रिपोर्ट के अंत में सिर्फ हस्ताक्षर भर करने के लिए हो, तो लाला किसी भी अंजे-गंजे को विशेषज्ञ के स्थान पर खड़ा कर देगा। जैसे वर्ष 2003 में विख्यात पर्वतारोही हरीश कपाड़िया जल्दबाजी में ग्लेशियोलॉजी पढ़ने वाले एक लौंडे को विशेषज्ञ बनाकर विश्व धरोहर नंदादेवी कोर जोन में ले गए, तो पूरी सरकार उनकी आवभगत में जुटी रही। सामाजिक-आर्थिक स्तर पर विशेषज्ञता का बंटाधार तो डा।राबर्ट चैंबर्स अपने पी।आर।ए। और आर।आर।ए।के कथित विज्ञान द्वारा पहले ही कर चुके थे। आप दो हफ्ते के 70-72 घंटे के प्रशिक्षण द्वारा डॉक्टर, इंजीनियर या फॉरेस्टर नहीं बन सकते परंतु इतने ही समय में कोई भी लप्पू झन्ना न केवल समाजशास्त्री बन सकता है बल्कि अपने तूफानी दौरे के दौरान होटल-ढ़ाबों में हुई बातचीत के बल पर नीतिगत अनुशंसा करने के स्तर तक भी पहुंच जाता है। बहुत संभव है कि डा.चैंबसरा की यह मंशा न रही हो पर उनके पी.आर.ए.शास्त्र ने लालाओं के "उत्तराखंड कब्जाओ" एजेंडा को बल ही प्रदान किया है। बांध संबंधी विषयों पर जनता के साथ बैठकों की संचालन विधि, चांदी के कटोरों की भेंट और जन सुनवाइयों की हलवा-पूरी की कवायद उस दौर से बिल्कुल अलग नहीं, जब नकली मोती और आईना देकर अंग्रेज आदिवासियों की जमीनें हड़पा करते थे। इतना जरूर है कि तब नेतृत्व दलाल नहीं अपितु भोला था। पी।आर।ए।ने हमारे माननीय प्रशासकों के दृष्टिकोंण को ठीक उसी सांचे में ढालने में भूमिका निभाई हो, जो साम्राज्यवाद के विस्तार के दौर में क्षेत्रीय प्रशासकों का होता था। आज का प्रशासक उससे भी ज्यादा क्षमता संपन्न है, वह अपने पी।आर।ए। द्वारा लोकतंत्र के बाकी बचे स्तंभों को चलाता है।

उत्तराखंड निर्माण के उपरांत जिस धंधे के दिन पलटे उसमें विशेषकर डी.पी.आर.(डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) बनाने के व्यवसाय से जुड़ा पेशा शामिल है। इसमें भू-वैज्ञानिक, कथित समाजशास्त्री, पर्यावरणीय प्रभाव की रिपोर्ट बनाने वाले किसी भी पृष्ठभूमि के कंसल्टेंट अथवा भाड़े के विशेषज्ञ शामिल होते हैं, जो लालाओं की कंपनी के दिशा निर्देशानुसार रिपोर्ट बनाते हैं। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जरूरत इनके कथित ज्ञान की नहीं सिर्फ हस्ताक्षरों की होती है, कोई मना कर भी दे, तो बाजार में इनकी कमी नहीं।

उत्तराखंड निर्माण से पूर्व डी।पी।आर।का धंधा अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर हुआ करता था, जिस पर देहरादून के मुट्ठी भर भू-वैज्ञानिकों की इजारेदारी थी, जो बेरोजगार भू-वैज्ञनिकों को अल्प समय के लिए भाड़े पर रखकर सीमित मुनाफे में अपनी आजीविका चलाते थे। राज्य निर्माण के उपरांत उत्तराखंड के जल स्रोतों के दोहन के अभियान में आई तेजी ने इनके भी दिन फेर दिए, जो कि निश्चित रूप से बुरी बात नहीं है। मुद्दा रिपोर्टों की और भू-विज्ञान की वैज्ञानिक विश्वसनीयता का है। भू-विज्ञान स्वयं में आधारभूत (फंडामेंटल) विज्ञान न होकर विभिन्न आधारभूत विज्ञानों व एप्लाइड साइंस का अद्भुत सम्मिश्रण है। इसकी नितांत आवश्यकता भी है। तभी तो 1767 में सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1836 में कोल कमेटी का गठन किया, जो कालांतर में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया बनी। साम्राज्यवाद को अपने विस्तार के लिए जिन विभागों की आवश्यकता थी, उनमें भूगोल और भू-विज्ञान प्रमुख थे। पिछली दो शताब्दियों में भू-विज्ञान ने भले ही चहुमुंखी प्रगति कर भी ली हो परंतु वह आधारभूत विज्ञान की तरह दो और दो चार कह पाने की स्थिति में नहीं पहुंचा है। जैसे कि चांई का मामला। अब जे।पी।के सीमेंट से बनी जे।पी।हाईड्रो पावर की टनल यदि रिक्टर 8 के पैमाने के भूकंप को झेल जाएगी, तो इसका श्रेय सीमेंट, सरिया और रेत को सही अनुपात में मिलाने को जाएगा पर ग्राम चांई जो ध्वस्त हुआ तो उस भू-विज्ञान को कौन शूली चढ़ाएगा, जिसके आधार पर उक्त योजना को स्वीकृति प्रदान की गई? जाहिर है कि यह जनता के पैसे पर भू-वैज्ञानिकों के अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार को आयोजित करने का अच्छा बहाना हो सकता है। जिसमें विभिन्न प्रकार के कयास लगाए जाएंगे पर चांई के साथ हुए विश्वासघात पर चर्चा नहीं होगी क्योंकि यह भू-विज्ञान का विषय जो नहीं है।

चांई एक छोटा गांव है, जो भाड़े के विशेषज्ञों की बलि चढ़ गया। अब जोशीमठ के अस्तित्व पर तलवार लटक गई है, जो बदरीनाथ जी का शीतकालीन आवास और संभवत: लाखों परिवारों की आजीविका का स्रोत है। जिसके ऊपर अरबों रुपयों के शीतकालीन क्रीड़ा की इंवेस्टमेंट भी हैं। इधर, एन.टी.पी.सी.का एफ.पी.ओ.शेयर बाजार में उतरा रहा है। उधर, जोशीमठ के ठीक नीचे कहीं जल रिसाव से सुरंग का कार्य बंद हो गया। अब बाजार से पैसा उठाना परियोजना की गुणवत्ता से महत्वपूर्ण हो गया है। मामला फिर विशेषज्ञों के पाले में है, जो भाड़े पर हैं। जिनका विज्ञान अंत में मात्र कयासों पर आधारित है। कल यदि जोशीमठ के अस्तित्व को कुछ होता है, तो जनता संभवत: ये कैसे हुआ होगा इस विषय पर भूगर्भ शास्त्रियों की थ्योरियां न सुनना चाहेगी बल्कि आज अपने अस्तित्व की गारंटी लेना पसंद करेगी।

ऊर्जा निश्चित रूप से देश की आवश्यकता है। हैरत की बात है कि ओ.एन.जी.सी.के भूगर्भशास्त्री दशकों भारत में तेल खोजते रहे पर मिला खुलेपन के उपरांत रिलायंस घराने को। जिसकी बंदरबांट का झगड़ा इस देश का सबसे चर्चित अदालती केस है। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में कहें, तो यहां पर्यावरणवादियों और जल ऊर्जा कंपनियों ने अपने-अपने इलाके कब्जा लिए हैं। बांध के मामले में पर्यावरणवादी भी चुप्पी साध लेते हैं। इस दोहरी मार का एक उदाहरण जोशीमठ-मलारी के बीच स्थित ग्राम लाता है, जहां भारत के वन्य जीव संस्थान के विशेषज्ञों ने अपने कथित अध्ययनों के आधार पर जनता पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए पर उसी ग्राम की तलहटी पर बन रहे बांध के पर्यावरणीय प्रभाव पर ये विशेषज्ञ मौन हैं। इन बांधों की डी।पी।आर।में इस क्षेत्र का कोई जैव विविधीय महत्व नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं कि इन परियोजनाओं की पर्यावरणीय समीक्षा भी इन्हीं विशेषज्ञों अथवा इनके चेलों ने तैयार की हों। विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पर्यावरण व जैव विविधता का रोना रोने वाले ये विशेषज्ञ आज मौन क्यों हैं? इस पर चर्चा करना व्यर्थ है। ऊर्जा की आवश्यकता और जैव विविधता संरक्षण, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे हैं, जबकि स्थानीय जनता का अस्तित्व, स्थानीय मुद्दा। उत्तराखंड की राजनीति यदि ठेकेदारी पर आश्रित न होती, तो संभवत: भाड़े के विशेषज्ञों द्वारा रचे गए इस मारक चक्रव्यूह से जनता को सुरक्षित बाहर निकाल लाती।


Sunday, January 10, 2010

तू दिखयांदी जनि जुन्याली

उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के संघर्ष में सांस्कृतिक कर्मियों की भूमिका और भागीदारी को सुनिश्चित करने की जो कोशिशें दृष्टि देहरादून ने की उनके फलस्वरूप ही उत्तराखण्ड सांस्कृतिक मोर्चे के गठन की प्रक्रिया आगे बढ़ी थी लेकिन जिन कारणों से वह पहल अपने शुरूआती दौर में ही बिखरने लगी थी, उस पर कभी विस्तार से चर्चा करने का मन है। अभी प्रस्तुत है भाई सुनील कैंथोला का विश्लेषण जिसमें राज्य निर्माण के बाद देहरादून में मेले ठेलों की संस्कृति के रूप में फैलते गए प्रदूषण को पकड़ने की कोशिश की गई है। 
सुनील समाजिक सांस्कृतिक उद्यमी हैं, वर्तमान में Mountain Sheperds से जुड़े हैं।






सुनील कैंथोला

टोपियों के थोक विक्रेता

‘‘पहाड़ी आदमी को दो चीज की रक्षा करनी चाहिए - अपनी टोपी और अपने नाम की। टोपी की रक्षा वही कर सकेगा जिसके पास टोपी के नीचे सिर है और नाम की रक्षा वह, जिसके दिल में आग है।’’ ऐसा मेरा दागिस्तानके लेखक रसूल हमजातोब कहते हैं। चूंकि इस लेख में टोपियों के कारोबार पर टिप्पणी करने का प्रयास किया  गया है। अतः रसूल का जिक्र करना मैने उचित समझा। जहां तक इसे लिखने की प्रेरणा है तो राजभवनों की एय्याशियों से सम्बन्धित ताजा सुर्खियां इसका मुख्य कारण है। दिलचस्प बात यह है कि इन खबरों में नया कुछ भी नहीं। ऐसा तो इस लोकतंत्र में आजादी के बाद से ही चल रहा है। वो जब यहां राज करते थे तो उनकी पसंद के चर्चे हर एक की जुबां पर थे। वो जब लखनऊ में थे या फिर दिल्ली में, तब भी उन्होंने ऐसी ही लीलाएं रचाई होंगी। राज भवनों के बाहर संतरी बन्दूकें लेकर खड़े रहे होंगे,
दरअसल उत्तराखण्ड निर्माण के उपरांत प्रदेश में एक विशेष कल्चरल ब्यूरोकेसी का जन्म हुआ, जिसके प्रथम सचिव संस्कृतिकर्म को टेंडर और परियोजना प्रस्तावों के अंतर्गत स्थापित करना चाहते थे। उनके ही सदप्रयासों से तम्बू लगाने वालों और वैरायटी शो दिखाने वालों का धन्धा चमकने लगा। सचिव का प्रसाद उन्हीं को मिलता था, जो सहलाना जानते थे। चूंकि चारण/भाटों की जमात इस कार्य में सिद्ध थी अतः उन्हे भी प्रसाद मिला और कालांतर में प्रसाद वितरण की ऐजेंसियां भी मिल गई। प्रदेश में यत्र/तत्र मेले ही मेले लगने लगे। मूल मुद्दे हवा हो गए और बांदों  गीत (बांकी गोरी के रुप और उनकी मोहक अदा से भरे) पूरे पहाड़ में गूंजने लगे।
और इसी तरह देश की आजादी के 6 दशक गुजर गए। इस घटना को मैं इसी परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश कर रहा हूं। आजादी के बाद इस प्रजाति के नेतृत्व ने भी देश चलाया और इसे कहां ले गए, इस बारे में विचार तो किया ही जाना चाहिए। यदि ये उत्तर प्रदेश को ढंग से चलाते तो भला हमें पृथक पर्वतीय प्रदेश के लिए क्यों संघर्ष करना पड़ता। इससे पहले कि ये छोटा सा पर्वतीय राज्य अपने छोटे-छोटे सपने पूरे करने की दिशा में बढ़ता, इन्हें हमारे ऊपर थोप दिया गया और जैसे कि होना ही था देखते ही देखते हमारे बुग्यालों के फूलों को राज महलों तक पहुंचाने का तंत्र खड़ा हो गया। यहां मैं पुनः अपनी बात को दोहराना चाहूंगा कि यह कोई बड़ी बात नहीं थी। जिसने जिन्दगी भर यही किया हो और जो सिर्फ इसी चीज में पारंगत हो, वह उम्र के इस दौर में भला आपके हिसाब से काम कैसे करेगा? बहरहाल! इस पृष्ठभूमि के साथ, इन्हें फिलहाल यहीं छोड़ते हैं और लेख के मुख्य शीर्षक पर आते हैं।
मेरी तरह शायद कुछ और लोग भी मानते होंगे कि मात्र राज आश्रय पर चलने वाले संस्कृतकर्म की अंतिम परिणिति चारण और भाटों के रूप में ही होती है। चारण/भाटों की मूल प्रतिबद्धता राजतंत्र से होती है और संस्कृतिकर्मियों की अपनी जड़ों  से। जब तक सत्ता के केन्द्र, महलों के रूप में संचालित होंगे तब तक चारणों की रोजी-रोटी चलेती रहेगी या इसे यूं भी कह सकते हैं कि तब तक जनपक्षीय राजनीति और संस्कृतिकर्मी इन महलों को ध्वस्त करने में जुटे रहेंगे। इस जटिल समाज/नृवंशास्त्रीय गणित में संस्कृतिकर्मियों और चारण/भाटों का परस्पर आंकड़ा हमेशा 36 का ही रहेगा। यहां एक बात और है कि चारण/भाटों का चोला हमेशा संस्कृतिकर्मियों का ही होता है और इनकी असली पहचान के अवसर यदा-कदा ही आते हैं। ऐसा ही एक दुर्लभ अवसर उत्तराखण्डी कवि और गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के नौछमी गीत के प्रचारित होने के उपरांत आया था। तब टोपियों के थोक विक्रेता अपना आपा खो बैठे थे।
दरअसल उत्तराखण्ड निर्माण के उपरांत प्रदेश में एक विशेष कल्चरल ब्यूरोकेसी का जन्म हुआ, जिसके प्रथम सचिव संस्कृतिकर्म को टेंडर और परियोजना प्रस्तावों के अंतर्गत स्थापित करना चाहते थे। उनके ही सदप्रयासों से तम्बू लगाने वालों और वैरायटी शो दिखाने वालों का धन्धा चमकने लगा। सचिव का प्रसाद उन्हीं को मिलता था, जो सहलाना जानते थे। चूंकि चारण/भाटों की जमात इस कार्य में सिद्ध थी अतः उन्हे भी प्रसाद मिला और कालांतर में प्रसाद वितरण की ऐजेंसियां भी मिल गई। प्रदेश में यत्र/तत्र मेले ही मेले लगने लगे। मूल मुद्दे हवा हो गए और बांदों (बांकी गोरी के मोहक अदा से भरे) गीत पूरे पहाड़ में गूंजने लगे।
ऐसा माहौल बना कि जैसे सब पा लिया गया है। यह चारणों के प्रमोशन का काल था। कलम हो या जुबां, सब पर सत्ता के प्रसाद का अंकुश था। ऐसे में सत्ता के गलियारों में चरम आनन्द के सुमन पनपे और सरकार के साहित्य एवं कला मंचों में जाकर खिले। यह लम्बी फेरहिस्त है। जब यह सब हो रहा था, तब टोपियों के विक्रेता अपनी प्रसाद एजेंसी के विस्तार के गठजोड़ में लीन थे। पिछले दस बरसों में यहां अजब तमाशे हुए। कोई साहित्यकार नेता जी को प्रदेश का पिता बनाने पर तुला है तो कोई खिचड़ी खाऊ ठेकेदार बिरादरी का झंडाबरदार है। कहीं बायोग्राफी लिखी जा रही है तो कोई इनके जीवन पर वृत्तचित्र बना रहा है। कुटिल केन्द्रीय राजनीति का अहसास तो उत्तराखंड को अपने जन्म के समय से ही हो गया था। जब उसके नामकरण से लेकर राजधानी तक के निर्णयों से उसे अलग रखा गया। जब देहरादून के परेड ग्राउण्ड में 9 नवम्बर 2000 को उसके वैधानिक जन्म की पार्टी में शामिल होने के अगले ही दिन उ.प्र.के मुख्यमंत्री ने मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों में से एक अनन्त कुमार सिंह पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने से मना कर दिया। तब धर्म से बड़ी जात हो गई थी।
ऐसे समय में, ऐसा नहीं कि भाई लोग जानते न थे। सभी, सब कुछ जानते समझते थे। पर मंचों का मोह, महलों से घनिष्ठता का नशा और विशेषकर प्रसाद वितरण व टोपी पहनाने के विशेषाधिकार ने उन्हें न नर, न नारी की श्रेणी में खड़ा कर दिया और जिसके लिए यह पदवी गढ़ी गई थी, वह अपनी कथित जनसेवा में आकण्ठ डूबा रहा। उसने इस हेतु विशेष ओ.एस.डी. भी नियुक्त कर डाले। जब नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत ने इस आधुनिक मुहम्मद शाह रंगीले की सतत् मधु चंद्रिका का पर्दाफाश किया तो गजब हो गया। कानूनी और गैर कानूनी शब्द जनता के लिए गढ़े गए हैं, सत्ता उनसे ऊपर है। वह सेंसर बोर्ड से लेकर मसूरी जैसे छोटे शहर तक अपनी धौंस जमा सकती है। उसने ऐसा ही किया। इस अभियान में वे सब भी शामिल हो गए, जो नरेन्द्र सिंह नेगी के रचनात्मक युग के खात्मे का बरसों से इन्तजार कर रहे थे। उनके पास इसके लिए खिसियाहट भरे अपने तर्क थे। परन्तु इसके मूल में उस विराट मधुचन्द्रिका में खलल पड़ने का आक्रोश था, जो जन संघर्षो से उपजे इस राज्य के शीर्ष में मनाई जा रही थी।
नौछमी नारायण का एक दूसरा पहलू भी है कि आखिर एक गीत में इतनी ताकत कि भोगतंत्र चरमरा उठे और यह भी कि यदि आरंभ से ही ऐसे गीतों की परंपरा होती तो संभवतः आज राज्य की दशा और दिशा कुछ और ही होती। इसी से जुड़ा एक और सवाल कि उत्तराखण्ड आन्दोलन में संस्कृतिकर्मियों की सशक्त भूमिका के उपरांत भी ऐसा क्यों न हो पाया? राज्य स्थापना के उपरांत इस सन्दर्भ में संस्कृतिकर्मियों के बीच यह चर्चा भी हुई थी कि अब राज्य के लाभार्थी बनें या इसके दिशासूचक का जिम्मा लें। जो लाभार्थी बनना चाहते थे, उनमे एका रहा और बाकी गैर रचनात्मक बहसों का शिकार हो गए। यहीं से टोपियों का धन्धा चल निकला। ये सब भी अपने ही लोग हैं, कोई पराये नहीं। सच कहूं तो ये बेईमान भी नहीं। सत्ता का मायाजाल अच्छों-अच्छों को सम्मोहित कर देता है, ये उसी का शिकार हुए। परन्तु इतिहास बड़ा ही निरपेक्ष और निर्मम है। इतिहास के गर्भ में यह सवाल इनके लिए सदैव जीवित रहेगा कि जब एक गीत इस लोकतंत्र के छद्म आवरण को गिरा रहा था, तब आपके टोपी-टोपी के खेल और प्रेमचंद के शतंरज के खिलाड़ियों में कितनी समानता/भिन्नता थी। मुझे लगता है यहां पाश की निम्न पंक्तियों को रखना कोई अभद्रता न होगी
‘‘सबसे खतरनाक वो दिशा होती है
जिसमे आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए’’
अब पाश़ के बाद और कहने को यूं बचा ही क्या है, पर अभी हाल ही में केन्द्रीय गृह मंत्री द्वारा भारत में माओवाद को नेस्तनाबूद करने के लिए साठ हजार सैनिक/अर्धसैनिक बलों की तैनाती सम्बन्धी बयानों से मुझे झुरझुरी आने लगती है। कहीं ऐसा भी पढ़ा था कि आंध्र प्रदेश के राजभवन की रंगरेलियों का भांडा तब फूटा, जब माल सप्लाई के एवज में खनन का पट्टा दिए जाने का वादा रंगीले नवाब पूरा न कर पाये। क्या ये खनन पट्टे उन्ही  क्षेत्रों में आवंटित होने थे जहां माओवादियों को नेस्तनाबूद करने की मुहिम शुरू की जा रही है? न जाने कितने रंगीलों ने, कितने सप्लाईयरों को, न जाने किस की कीमत पर, जाने क्या-क्या देने का वादा कर रखा हो! नारायण-नरायण!!