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Sunday, October 9, 2011

हिन्दी कहानी का पाठक

कहानी
भटकुंइयाँ इनार का खजाना


कथादेश का सितम्बर अंक उस वक्त मेरे पास था जब कानपुर से इलाहाबाद जा रहा था। कहानी पढ़ लेने के बाद मैंने पत्रिका एक ओर रख दी और कहानी पर सोचने लगा। मेरे बगल में बैठे एक बुजुर्ग सज्जन ने पत्रिका उठायी- पन्ने दर पन्ने पलटते हुए इस कहानी पर आकर रुक गये और कहानी पढ़्ने लगे। शायद भाषा ही नहीं परिवेश ने भी उन्हें बांध लिया था, पूरी कहानी पढ़ गये। कहा कुछ नहीं लेकिन वे भी उसी मुद्रा में थे जैसी मुद्रा में मैं कहानी पढ़ने के बाद पहुंचा हुआ था- कहानी में दर्ज स्थितियों और उठते सवालों से टकराता हुआ। थोड़ी देर बाद पत्रिका एक युवा के हाथ में थी।वह नव युवक पुलिस इंस्पेक्टर की परिक्षा देकर लौट रहा था। शायद उसे खागा उतरना था। वह भी कई पन्नों को पलट्ने के बाद भटकुंइयाँ इनार का खजाना पर था और कहानी ठहर कर पढ़ रहा था। कहानी पढ़ने के बाद बहुत चुपके से उसने पूछा यह किताब ( पत्रिका) कहां मिलती है ?
वि. गौ.