Showing posts with label सुरेश उनियाल. Show all posts
Showing posts with label सुरेश उनियाल. Show all posts

Monday, March 6, 2023

जंग खाई हुई आत्मा

सुभाष पंत जी की कहानी 'सिंगिंग बेल' विचार प्रधान साहित्य चिंतन और सहज भाषा- दृष्टि के माध्यम से साहित्य को गढ़ने के प्रक्रिया में उपजी हुई कहानी है । कहानी के कुछ अंशो में गद्य की लयात्मकता कविता का आभास देती है। कहानी की मुख्य पात्र मारिया डिसूजा वर्तमान में रहते हुए भी अतीत से जुड़ी रहती है ,तथा अतीत अदृश्य रूप से उसके वर्तमान में प्रवाहित होता रहता है । उसके सामने बहुत सी चुनौतियां हैं । उसका निजी अतीत है । और अचानक अपरिचित और होस्टाइल हो गया संसार है । उसका अतीत घने गहरे प्रेम की, अतृप्त की और पूर्णता की लालसा की कहानी है । आकर्षण की स्थितियां बीत चुकी हैं। उसकी जिंदगी में समय एवं समाज ऐतिहासिक रूप से क्रमवार नहीं आता । एक ओर निरा वर्तमान , और दूसरी ओर परिवेश के प्रति आक्रांत एवं भय -दृष्टि , निराशा, भविष्य के प्रति उदासीनता जैसी परिस्थितियों में उसका जीवन बीत रहा है। लेखक ने कुछ सजीव विंबो के माध्यम से मारिया कि मनस्थिति का चित्रण किया है। 'गहरी नम धुंध,, 'कोहरा बेआवाज शीशे पर नमी की तरह फैलता हुआ'। उसके होटल हिल क्वीन की दीवारें 'जंग खाई हुई आत्मा' की तरह हो गई थी। ' सब कुछ बेआब उदासी में डूबा हुआ' ।दीवार घड़ी की 'खामोशी' उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। वक्त का अंदाज तो उसे मस्जिद की अजान,गुरद्वारे की अरदास, मन्दिर के घंटो औऱ गिरजाघर की प्रार्थना से भी लग जाता , लेकिन यह घड़ी डेबिड लाया था। इसकी आवाज की बात ही कुछ और थी। डेविड, मारिया डिसूजा की जिंदगी का 'एंकर 'था। डेविड उसे बहुत साल पहले अकेला छोड़ कर चला गया। लाल फिरन में डेविड की यादें छुपी थी। चर्च ने उससे रियायत मांगी थी कि वह इस फिरन को ना पहना करें । इसे देखकर लोगों का ध्यान प्रार्थना से हट जाता है। उसे लाल फिरन पहने देखकर 'बर्फ में आग' लग जाती है। उसने ये रियायत चर्च को दे दी। डेविड कहता था सबसे खूबसूरत 'तेरी काली आंखें मारिया, जिसके पास जुबान है, वो हर वक़्त बोलती है'। वह ये जानती थी फिर भी बार बार सुनना चाहती थी ।और फिर एक दिन डेविड उसे छोड़ गया। सिंगिंग बेल और हिलक्वीन होटल की विरासतके साथ। हिल क्वीन की शाख पर बट्टा कैसे लगने देती वो। हिलक्वीन उसके और डेविड के 'साझे श्रम का संगीत ' जो था । वह उस संगीत को मरने नहीं देना चाहती। 'शहर अब वैसा नहीं रहा ,जैसा वह उसे जानती थी हवाएं बदल गई। आदमी और उसका व्यवहार बदल गया। अच्छे भले आदमी हाशिए में फिसल गए। हत्या और बलात्कार लोगों को उद्वेलित नहीं करते । ऐसे समाचार शौर्य गाथाओं की तरह पढ़े जाते हैं।' इस माहौल में शराब माफिया नसीब सिंह उससे हिलक्वीन छीनना चाहता है । उसे हर तरह मजबूर करना चाहता है कि वह हिल क्वीन उसके हाथों बेच दे ।तरह तरह के दवाब डालता है। इस षड्यंत्र में सारा शहर नसीब सिंह के साथ हैं क्योंकि सब उससे डरते है । यहां तक कि चर्च का पादरी भी मारिया को होटल बेचने के लिए कहता है ।जब वह पादरी से मदद के मांगती है तो वह कहता है , 'हमारे हाथ में बाइबल है बंदूक नहीं'। धर्म की मजबूरी नंगी होकर सामने आ जाती है। वह मायूस हो जाती है ।उसे जो भी मिलता है , चाहे वह चर्च की कैंडल बेंचने वाला हो, या और कोई, सब उसे होटल बेचने की सलाह देते हैं ।सत्ता और शासन का प्रतीक कॉन्स्टेबल जो नसीब सिंह की असलियत भी जानता है और इतिहास भी , वह भी अपनी मजबूरी बताते हुए मारिया को होटल बेचने की सलाह देता है।यहां तक कि इस साज़िश में खुद उसका बेटा भी शामिल है। जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, चाहे वह धर्म का हो या सत्ता ,का या इन दोनों के गठबंधन का, तब मारिया में एक नई शक्ति का जागरण होता है और वह दृढ़ता के साथ हिल्कवीन न बेचने का निश्चय लेती है। यह दृढ़ता उसमें कहां से आती है यह सोचने का विषय है। जब दुश्मन से लड़ते-लड़ते और भागते भागते हमारी पीठ दीवाल से लग जाती है, तो हमारे पास सिवाय लड़ने के और कोई विकल्प नहीं बचता और यही विकल्प शून्यता हमारी ताकत होती है। और इस शक्ति का स्रोत स्वयं हमारे अंदर होता है। बस उसे एक ट्रिगर की जरूरत होती है।

सुभाष पंत जी की इस कहानी की अंतर्धारा में कई पहलू है।इसमें एक नितांत अकेली स्त्री के समाज के साथ संघर्ष की कहानी है, तो दूसरी तरफ उसके एकाकीपन का व्यक्तिगत आयाम, जो उसके विगत के रूमानी जिंदगी की यादों से परिपूर्ण है। उसके पति की यादें उन दोनों की साझा आशाएं और आकांक्षाओं का प्रतीक हिलक्वीन होटल जिसकी हिफाजत उसके वर्तमान का मकसद बन जाता है।ये होटल उसकी अस्मिता का प्रतीक है. उसे हर कीमत पर बचाने की कोशिश में उसे माफ़िया और चर्च से लेकर अपने बेटे तक से टक्कर लेनी है। इसके लिए जो ताकत दरकार है, वो कहीँ और से नही , उसे अपने अंदर से , अपने वजूद से उत्खनित करनी है। अन्य सारे विकल्पों को 'रूल आउट ' करने के बाद उसे एहसास होता है की उस शक्ति का मूल तो उसके स्व: में ही निहित है। सिंगिंग बेल का बजना उसके इस इलहाम का प्रतीक ही नही है, बल्कि आने वाले कठिन संघर्ष और जद्दोजहद का आगाज़ भी है।

इस कहानी का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू समाज के उन लोगों के सच को उजागर करता है जिनकी रीढ की हड्डी अपना अस्तित्व खो चुकी है। उनके अंदर की अच्छाई और अंतरात्मा की आवाज का उद्बोधन अपना दम तोड़ चुका है। सच्चाई जानते हुए भी , अपने भय और निष्क्रियता के कारण , वे आक्रान्ता के पक्ष में खड़े दिखाई देतें है। कहानी में आम आदमी, समाज के विभिन्न वर्ग, धर्म और सत्ता के प्रतिनिधि सबका एक्सपोज़र अपने अपने ढंग से वर्णित है। ऐसे लोग सामाजिक विघटन और मूल्यों के छरण के उतने ही जिम्मेदार हैं जितने की नसीब सिंह जैसे लोग। ये सारे के सारे घटक मिलकर एक मूल्यविहीन विघटित सामाजिक राजनीतिक परिवेश का परिदृश्य हैं , जो हमारी समकालीन सच्चाई भी है। इस दृष्टि से पंत जी की ये कहानी, बिना sermonise किये, हमे अपने वर्तमान का आइना दिखाती हुई सी लगती है।
"An injustice anywhere is a threat to Justice everywhere."

चन्द्र नाथ मिश्र


Wednesday, March 1, 2023

रचने में ही रचा जाता हूँ

समानांतर कहानी आंदोलन से लेखन में लगातार सक्रिय कथाकार सुभाष पंत ने फरवरी 2023 में अपनी उम्र के 84वें वर्ष को पार कर 85वें वर्ष में प्रवेश करते हुए अपने पाठकों और शुभचितकों को इस सुखद अहसास की सूचना को सार्वजनिक किया कि उन्होनें अपने नये उपन्यास “एक रात का फैसला” पूरा कर लिया है. निश्चित ही पाठक उपन्यास का 2023 में बेसब्री से इंतजार करेंगे.

लम्बे समय से रचनारत अपने ऐसे महत्वपूर्ण रचनाकर के सम्पूर्ण रचना संसार से गुजरने की कोशिश करते हुए यह ब्लाग मार्च माह की सारी पोस्टो को उनसे सम्बंधित रखते हुए किसी पत्रिका के एक विशेषांक की सी स्थितियाँ बनाना चाह रहा है. कोशिश रहेगी कि उनके प्रिय पाठक और सहयोगी रचनाकारो तक पहुंचा जाये. उम्मीद है वे अपने अपने तरह से अपना सहयोग अवश्य देना चाहेंगे. सुभाष पंत जी के नये उपन्यास का एक अंश भी पाठक अवश्य पढ़ पाएंगे.


मार्च माह के इस आयोजन की घोषणा के साथ हम यह भी अवगत कराना चाहते हैं कि इस पूरे वर्ष और आगे भी हम 80 की उम्र को पार कर चुके अपने उन मह्त्वपूर्ण रचनाकारो पर केंद्रित करने का प्र्यास करेंगे जो रचनाकर्म में लगातार सक्रिय हैं. यह खुलासा करने में हमें संकोच नहीं कि प्राथमिकता के तौर हम देहरादून के रचनाकार गुरूदीप खुराना
, मदन शर्मा और जीतेंद्र शर्मा, डा. शोभाराम शर्मा आदि के रचनाकर्म पर केंद्रित रहना चाहेंगे.  पाठकों से हमारा अनुरोध है, वे हमें अन्य शहरो में रहने वाले ऐसे रचनाकारो तक पहुंचा जाए. उम्मीद हैके बारे में अवश्य अवगत कराएंगे ताकि हम उन तक पहुंच सके.

आइये भागीदार होते हैं कवि शमशेर की कविता पुस्तक के शीर्षक से शुरु हो रही इस यात्रा के.  

विगौ


सुबह का भूला सुभाष पंत

सुरेश उनियाल



बात 1972 के जुलाई महीने की थी। उन दिनों कुछ घटनाएं लगभग साथ-साथ घटीं। अवधेश की कहानी सारिका के नवलेखन अंक में छपी तो यह हम सभी के लिए गर्व का विषय था। मैंने डीएवी कालेज में हिंदी साहित्य में एम.ए. में एड्मिशन ले लिया था। इसके कई कारणों में से एक तो यह था कि अवधेश और मनमोहन दोनों ही कालेज में पढ़ रहे थे, वरना मैं तो चार साल पहले ही गणित से एम.एससी. कर चुका था और उसके बाद से एक लंबी बेरोजगारी झेल रहा था। बेरोजगारी की वक्तकटी भी एक कारण था और एक तीसरा कारण भी था कि डीएवी कालेज की लाइब्रेरी में कहानी संग्रहों, उपन्यासों और आलोचना की किताबों का अच्छा संग्रह था और उन तक पहुंच बनाने के लिए कालेज में एड्मिशन लेना जरूरी था। एक दिन अवधेश ने अपनी क्लास के एक सुभाष पंत से परिचय कराया जो कई साल पहले गणित में ही एम.एससी. कर चुका था, अब एफ.आर.आई. (वन अनुसंधान संस्थान) में वैज्ञानिक के रूप में काम कर रहा था और सबसे बड़ी बात यह कि उसकी एक कहानी सारिका में प्रकाशन के लिए स्वीकृत थी। हमारे लिए यह तीसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थी। मेरे और मनमोहन व अवधेश के अलावा नवीन नौटियाल भी डीएवी कालेज में पढ़ा रहा था। बहुत देर तक हम चारों साथ रहे। सुभाष को हम लोगों ने शाम को डिलाइट में आने के लिए आमंत्रित भी कर लिया। आग्रह था कि अपनी वह कहानी और संभव हो तो कुछ और कहानियां भी ले आए।

डिलाइट हमारे बैठने का अड्डा था। देहरादून के घंटाघर के बगलवाले न्यू मार्किट की इस चाय की इस दुकान में शहर के लगभग वे सभी लोग इकट्ठा होते थे जो खुद को बुद्धिजीवी मानते थे। इनमें लेखकों के अलावा कुछ पढ़ाकू किस्म के लोग भी होते थे, राजनीतिक लोग भी होते थे लेकिन वे हमारी मेज पर कम ही आते थे। कभी कोई दिलचस्प चर्चा छिड़ जाती तो अपनी जगह पर बैठे-बैठे उनकी और से भी टिप्पणी आ जाती। शाम को डिलाइट में हमारी मंडली जमी। मैं, मनमोहन, अवधेश, देशबंधु और नवीन आदि कुछ मित्र रोज शाम को वहां जमा हुआ ही करते थे। इस सूची में उस दिन सुभाष पंत का नाम और जुड़ गया। उस शाम हमने सुभाष से तीन कहानियां सुनीं। पहली तो वही थी, ‘गाय का दूध’ जो जल्द ही सारिका में छपने जा रही थी। सुभाष के पास इस कहानी की स्वीकृति के लिए कमलेश्वर का हाथ से लिखा पत्र भी था जिसे हमारे आग्रह पर उसने दिखाया भी था। वह हम सब को बहुत ज्यादा प्रभावित करने के लिए काफी था। यह आदिवासी इलाके की पृष्ठभूमि पर लिखी गई थी। उस इलाके में कोई गाय नहीं है और एक अफसर के नवजात बच्चे के लिए गाय के दूध की सख्त जरूरत है। उसका एक चपरासी उससे बच्चे के लिए रोज दूध का इंतजाम करने का वादा करता है और लाता रहता है। तबादला होकर जब वह जाने लगता है तो चपरासी को इनाम तो देता ही है लेकिन उससे कहता है कि वह उस गाय को देखना चाहता है। गाय होती तो वह दिखाता। अफसर के सामने वह अपनी बीवी को ले आता है और कहता है कि साहब यह रही मेरी जोरू और आपके बेटे की गाय। कमलेश्वर के समांतर कहानी के पैमाने पर यह पूरी तरह से खरी उतरती थी। ओ हेनरी की शैली में होनेवाला कहानी का अंत सबको चौंकाता था।

दो कहानियां और सुनाई सुभाष ने और वे दोनों ‘गाय का दूध’ से बेहतर लग रही थीं लेकिन पता चला कि उनमें से एक सारिका को भेजी गई थी, लेकिन वह कमलेश्वर के उसी हस्तलेख में लिखे पत्र के साथ वापस आ गई। वह सारिका के मिजाज की कहानी नहीं थी। वे कहानी सारिका के समांतर दौर के थीम की नहीं थी जिनमें आम आदमी किसी तरह अपने को बचाए रखने के लिए एक जगह खड़ा हाथ-पैर पटकता था, बल्कि वह तो हालात बदलने के लिए संघर्ष के लिए प्रवृत्त करने वाली कहानी थी। वे सीधी बात करने वाली कहानियां थीं। वे मजेदार नहीं, तकलीफदेह कहानियां थीं। इसके बाद हुआ यह कि सुभाष ने इस दूसरी तरह की कहानियों को लिखना छोड़ दिया और कमलेश्वर की समानांतर के किस्म की कहानियां लिखने लगा। आज सोचता हूं कि अगर सुभाष की वह कहानी सारिका में न छपी होती तो आज वह एक दूसरी तरह का लेखक होता।

ये सब हालांकि सुभाष की शुरुआती कहानियां थीं, लेकिन खासी मेच्योर थीं। सुभाष की कहानियां किस्सागोई का अंदाज लिए होती हैं लेकिन साथ ही चुस्त जुमले और भीतर गहरे में एक व्यंग्य भी इनमें होता था। सुभाष के पास एक गजब की कल्पना शक्ति थी और पूरी तरह दिमाग से निकले चरित्रों की छोटी से छोटी डिटेल सुभाष इस तरह बुनता हुआ चलता था कि काल्पनिक होते हुए भी वे यथार्थ की दुनिया से उठाए गए पात्र लगते थे। सुभाष ने कहानी कहने का अपना जो तरीका लेखन की शुरुआत में खोज लिया था, उस पर आज भी अमल कर रहा है। उन सारी मार्मिक स्थितियों में जहां आम तौर पर लेखक पाठक को भावनाओं में डुबाने की कोशिश करते हैं, वहां सुभाष बहुत ही तटस्थता के साथ छोटी से छोटी डिटेल के साथ कहानी को बुनते हुए कमाल का असर पैदा कर देता है। कहीं-कहीं आपको ये डिटेल्स कुछ ज्यादा उबाऊ लग सकती हैं लेकिन कहानी का प्रवाह आपको कहानी के साथ बनाए रखने के लिए बाध्य भी किए रहता है। उनके सहज से लगते वाक्यों में एक तीखा व्यंग्य तो होता ही है, जबरदस्त पठनीयता भी होती है। हम सब पर सुभाष पंत की रचनात्मकता का रौब पड़ चुका था।

इसके बाद से सुभाष देहरादून की साहित्यिक गतिविधियों का एक जरूरी हिस्सा बन गया था।

करीब एक साल बाद मैं देहरादून छोड़कर दिल्ली आ गया था लेकिन देहरादून की नागरिकता मैंने कभी छोड़ी नहीं। साल की गर्मियों में एक-डेढ़ महीना तो मेरा देहरादून में ही बीतता था। इसके अलावा जब भी कोई महत्वपूर्ण गतिविधि वहां होती, मैं पहुंच ही जाता था।

समानांतर कहानी का दौर था और कमलेश्वर की निकटता के कारण सुभाष को देहरादून में कमलेश्वर का ध्वज वाहक बनना ही था। लेकिन समानांतर को लेकर मेरे मन में कुछ सवाल थे। इन सवालों को लेकर सुभाष से काफी बहसें भी हुईं लेकिन इन मतभेदों का हमारे आपसी रिश्तों पर कभी कोई असर नहीं पड़ा। बल्कि सुभाष ने मुझे समानांतर के राजगीर सम्मेलन में आने का निमंत्रण भी दे दिया ताकि ज्यादा करीब से इस सब को देख सकूं। मैं गया भी। कमलेश्वर से वहां पहली मुलाकात हुई।

उन दिनों मैं दिल्ली में नेशनल बुक ट्रस्ट में काम कर रहा था। एक दिन सुभाष का पत्र मिला कि सारिका में सब-एडिटर की जगह निकली है और कमलेश्वर चाहते हैं कि मैं उसके लिए एप्लाई करूं। यह मुझे बाद में पता चला कि दरअसल कमलेश्वर सुभाष को सारिका में लेना चाहते थे लेकिन सुभाष देहरादून छोड़ने की स्थिति में नहीं था और उसने अपने बदले मेरी सिफारिश की थी। कमलेश्वर मुझसे मिलना चाहते थे और राजगीर का निमंत्रण मुझे उसी सिलसिले में दिया गया था। लेकिन राजगीर में न तो कमलेश्वर ने और न ही सुभाष ने इस बारे में मुझसे कोई बात की थी।

उन दिनों सुभाष ने एक उपन्यास लिखना शुरू किया था। कालेज जीवन पर आधारित था और नाम था: ‘महाविद्यालय, एक गांव’। उसके कुछ अंश देहरादून में सुने भी गए थे। माहौल हम लोगों का परिचित था। कुछ आइडिया मैंने भी दिए। मेरे सारिका में जाने तक सुभाष उस उपन्यास को लेकर खासा उत्साहित था। उसके कुछ अंश मैं सारिका के लिए ले भी गया था। वे छपे तो उनकी खासी तारीफ भी हुई। लेकिन जब मैं छुट्टियों में देहरादून गया तो पता चला कि उपन्यास जितना लिखा गया था, उसके बाद आगे बढ़ाया ही नहीं गया। सुभाष को उसमें कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। मेरे खयाल से यह एक बेहतर उपन्यास की भ्रूण-हत्या थी।

सारिका दिल्ली आई तो मैं भी मुंबई से दिल्ली आ गया और नियमित तौर पर देहरादून जाने का सिलसिला शुरू हो गया। छोटे शहर का एक फायदा यह होता है कि आदमी हर तरह की गतिविधियों से जुड़ सकता है। देहरादून में थिएटर का सिलसिला शुरू हुआ तो सुभाष उसका एक अहम हिस्सा था। बंसी कौल ने थिएटर वर्कशाप की और सबसे पहले मोहन राकेश का नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ खेला गया। सुभाष ने तो नहीं लेकिन उनकी पत्नी हेम ने उस नाटक में अभिनय भी किया था।

क्षमा चाहूंगा, हेमजी के बारे में लिखना तो मैं भूल ही गया था। मेरे खयाल से सुभाष जो कुछ भी हैं उसकी सबसे बड़ी वजह हेम का उनकी पत्नी होना है। सुभाष जैसे अपने प्रति लापरवाह आदमी को सही तरीके से मैनेज करना उन्हीं के बस की बात थी। हम लोग जब उनके घर जाते तो ऐसा लगता ही नहीं था कि हम अपने घर पर नहीं हैं। लंबी-लंबी साहित्यिक गप्प-गोष्ठियों के बीच सही अंतराल पर बिना मांगे चाय आ जाती थी। और ऐसा भी नहीं कि वह रसोई में ही लगी हों, हमारे बीच बैठकर बहसों में भी पूरी हिस्सेदारी होती थी। होता यह था कि कई बार सुभाष की किसी कहानी को हम संकोच वश ज्यादा उधेड़ते नहीं थे लेकिन वह बड़ी बेरहमी से उसकी खाल खींचकर रख देतीं। उनकी उस खुशमिजाजी को देखते हुए कोई बता नहीं सकता था कि वह हाइपरटेंशन की मरीज हैं। आज भी उनके इस मिजाज में कोई परिवर्तन नजर नहीं आता।

बात नाटकों की हो रही थी। सुभाष देहरादून के पहले थिएटर ग्रुप ‘वातायन’ के संरक्षकों में से थे। उसी दौर में उन्होंने एक नाटक भी लिखा था, ‘चिड़िया की आंख’। देहरादून में उसके काफी शो भी हुए। एक नाटक सुभाष पंत के निर्देशन में भी हुआ था। नाटकों की सफलता को देखते हुए जल्द ही शहर में कई थिएटर ग्रुप पैदा हो गए। यह देखकर सुभाष ने धीरे-धीरे थिएटर से किनारा कर लिया। इस दौरान सुभाष कहानियां भी लिखते रहे। उनके दो कहानी संग्रह ‘तपती हुई जमीन’ और ‘चीफ के बाप की मौत’ प्रकाशित हो चुके थे। और मजे की बात यह रही कि एक उपन्यास भी सुभाष ने शुरू किया। नाम था, ‘सुबह का भूला’। उपन्यास के मामले में सुभाष का इतिहास देखते हुए मुझे तो कम से कम उम्मीद नहीं थी कि वह उपन्यास भी पूरा हो सकेगा। लेकिन सुबह का भूला घर लौट आया था। सुभाष ने सचमुच यह उपन्यास पूरा कर लिया। यह मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था।

फिर सुभाष ने एक तीसरा उपन्यास शुरू किया, ‘पहाड़ चोर’। इस बात को करीब तीस साल हो गए होंगे। सुभाष ने करीब पचास पेज लिख लिए थे। तय हुआ था कि सुनने के लिए मसूरी चला जाए। मैं और नवीन नैथानी सुभाष के साथ एक सुबह मसूरी पहुंच गए। कैमल्सबैक रोड के सुनसान रास्ते के थोड़ा ऊपर बांज के एक पेड़ के नीचे बैठकर हमने वह उपन्यास सुनना शुरू किया। तय था कि आधा सुनने के बाद जीत रेस्तरां जाकर चाय पीएंगे और फिर आकर बाकी सुनेंगे। लेकिन जब पढ़ा जाना शुरू हुआ तो बीच में से उठने का मन ही नहीं हुआ।

इस बार सुभाष ने विषय उठाया था चूना पत्थर खदानों के उस जंजाल का जो न सिर्फ पहाड़ों का पर्यावरण खराब कर रहा था बल्कि उस क्षेत्र में रहनेवाले लोगों की जिंदगी के लिए खतरा भी बन गया था। देहरादून के सहस्रधारा क्षेत्र के जिस गांव झंडू खाल को सुभाष ने इस उपन्यास के केंद्र में लिया था वह एक वास्तविक गांव था जो इन खदानों की भेंट चढ़ गया था। कई बरस पहले उस गांव का अस्तित्व खत्म हो गया था। चमड़े का काम करने वाले उस गांव के चरित्रों के लिए सुभाष ने जरूर कल्पना का सहारा लिया, लेकिन देहरादून के आसपास के किसी भी पहाड़ी गांव का समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र इससे भिन्न नहीं होता।

विषय अच्छा था। अच्छे से ज्यादा महत्वपूर्ण था। पर्यावरण की दृष्टि से ही नहीं, इनसानी आबादी के साथ किए जाने वाले छल को लेकर भी सुभाष अपने इस उपन्यास में सवाल उठाता नजर आ रहा था। इसलिए मैं नहीं चाहता था कि ऐसा विषय किसी भी स्थिति में एक बार फिर सुभाष की लापरवाही का शिकार बने। शायद कोई नहीं चाहेगा।

अगली बार देहरादून पहुंचा तो जाहिर है कि सुभाष से मुलाकात में पहला सवाल उस उपन्यास को लेकर ही था और उम्मीद के मुताबिक वह वहीं का वहीं था। वही करीब पचास पेज। काफी लानत-मलामत के बाद इस शर्त पर सुभाष को बख्शा गया कि अगली मुलाकात तक उस पर जरूर कुछ न कुछ काम हो चुका होगा। एक सकारात्मक बात यह थी कि हर बार सुभाष ने उस उपन्यास को आगे बढ़ाने की उम्मीद जरूर जताई। यह सिलसिला करीब दस साल चला। उपन्यास एक बार अटका तो अटका ही रहा। बल्कि इन सालों में वह पचास पेज भी सिलसिलेवार नहीं रह गए थे। बीच के कुछ पेज कहीं खो गए थे।

फिर सुभाष रिटायर हो गया। खाली समय में सुभाष का लेखक एक बार फिर पूरे जोश के साथ सक्रिय हो उठा। इस दौरान सुभाष ने खबर दी कि उपन्यास के खोए हुए पेज मिल गए हैं और सुभाष ने उस पर आगे काम शुरू कर दिया है। उन्हीं दिनों एक अच्छी बात यह भी हुई कि सुभाष ने कंप्यूटर ले लिया और अब वह उपन्यास उसमें था। हर बार उसमें कुछ पेज जुड़े देखकर अच्छा लगता था। एक अच्छी बात यह थी कि बीच में एक लंबा अरसा गुजर जाने के बाद भी उपन्यास की रवानी में कोई फर्क नहीं आया।

पहाड़ चोर’ में सुभाष कहानी कहते हैं एक गांव झंडू खाल की। हरिजनों के इस गांव को चूना पत्थर माफिया के कारण एक दिन नक्शे पर ही से गायब हो जाना पड़ा था। कागजों पर से ही नहीं, वास्तव में भी। यह आज़ादी के फौरन बाद के उस दौर की कहानी है जब गांवों के भोले लोग राम राज्य के सपने देख रहे थे, जब वह समझ रहे थे कि सुराज के रूप में उनके लिए किसी स्वर्ग के द्वार खुल जाएंगे। और ऐसे में उनके लिए द्वार खुलते हैं उस नरक के जो उनके जीने के हर साधन को एक-एक करके उनसे छीनता चला जाता है।

यहां हर पात्र की अपनी कहानी है, उनके सपनों की कहानी है। उनके छोटे-छोटे सुखों और उसके पीछे छिपे पहाड़ से दुखों की कहानी है। कहानी उस दिन शुरू होती है जिस दिन जीपों का एक काफिला इस गांव में आकर रुकता है। सामने वह पहाड़ था जो उनके लिए सोने की खान साबित होने जा रहा था। वहां तक अपनी मशीनों को ले जाने और वहां से पत्थर को लाने वाले गट्टुओं के लिए रास्ते की जरूरत थी और वह रास्ता इसी गांव वालों के खेतों में से बनाया जाना था। पत्थर निकालने के लिए मजदूरों की फौज भी तो इसी गांव से मिलनी थी। गांव में दो दल बन जाते हैं। कुछ को कंपनी उनकी समृद्धि का रास्ता लगती है तो कुछ उसे अपने खेतों को हड़पने वाली राक्षसी क¢ रूप में देख रहे हैं।

कंपनी के पास पैसे की ताकत है और गांव वालों को देने के लिए सपनों का खजाना। और गांव के ऊपर का पहाड़ ट्रकों में भरकर जाने लगता है। इसके साथ ही उनकी एक-एक चीज छिनकर जाने लगती है। पहले उनके हाथ से जंगल जाता है जहां से वे अपने पशुओं के लिए चारा, चूल्हे में जलाने के लिए लकड़ी, सब कुछ लाते थे। फिर पानी छिनता है। जो धारा बारहों महीने चौबीस घंटे मीठे पानी का स्रोत बना होता था, अचानक सूख जाता है। गांव में त्राहि मच जाती है। वे कंपनी के साथ असहयोग करते हैं। अपने गाड़ियों को रोकने लगते हैं। और देखते हैं कि कुछ दिन काम रुकने पर फिर से धारे में पानी वापस आ गया है। लेकिन जब कंपनी के कुछ अफसर गांव में पानी की लाइन लाने के वादा करके गांववालों से अपना आंदोलन वापस लेने के लिए तैयार करने की कोशिश करते हैं तो एक बार फिर गांव दो गुटों में बंट जाता है और अंततः काम फिर से शुरू हो जाता है।

बरसात गांव के लिए एक और आपदा बनकर आती है। जो जंगल बारिश के पानी को अपने में समेटकर धारों के रूप में पूरे साल में धीरे-धीरे वापस करते थे, वे तो रहे नहीं। पत्थर और मिट्टी के ढूह पानी को रोकना तो दूर, उसके साथ पूरे जोर के साथ गांव पर टूट पड़ते हैं। पहले गांव के कुछ घर की इस संकट से दो-चार होते हैं, लेकिन साल दर साल संकट बढ़ता जाता है और एक दिन गांव को ही लील जाता है।

पहाड़ चोर’ सुभाष की बाकी रचनाओं से हर लिहाज से अलग था। विषय के लिहाज से भी और ट्रीटमेंट के लिहाज से भी। पहाड़ के जंगलों के विवरण हालांकि सुभाष ने कल्पना से ही तैयार किए थे विभिन्न मौसमों में होनेवाले वानस्पतिक परिवर्तनों को जिस बारीकी के साथ चित्रित किया गया था, वह अद्भुत है। इसके लिए सुभाष को अपने एफ.आर.आई. के अनुभवों का आभारी होना चाहिए।

मैं उपन्यास को पैनड्राइव पर अपने साथ ले आया। एक एक्सपर्टाइज तो मेरा था, सबिंग का। उसे प्रेस में भेजने लायक बनाया। राजपाल एंड संस ने इसे छापा। समीक्षाओं के लिए प्रकाशक के पास कोई कापी नहीं थी। इससे पहले कि समीक्षाओं का कोई सिलसिला शुरू किया जाता, उपन्यास का पहला संस्करण बिक गया। दूसरा संस्करण छापने के लिए अब प्रकाशक तैयार नहीं हैं। एक बेहतरीन उपन्यास इस तरह से एक स्वार्थी प्रकाशक की निर्ममता का शिकार होकर अचर्चित ही रह गया। वैसे मैं यह दावे से कह सकता हूं कि अगर प्रकाशक ने उसकी सही ढंग से मार्किटिंग की होती और समीक्षा के लिए किताबें देने में उदारता दिखाता तो उसके एक-दो नहीं बल्कि कई संस्करण अब तक छप और बिक चुके होते।

इस बीच सुभाष के दो कहानी संग्रह ‘मुन्नीबाई की प्रार्थना’ और ‘जिन्न और अन्य कहानियां’ प्रकाशित हो गए थे। इन्हें नए संग्रह तो नहीं कह सकते क्योंकि कुछ नई कहानियों के साथ-साथ कुछ पुरानी कहानियां भी इसमें डाल दी गई थीं।

उन्होंने अपनी कहानियों के लिए एक ऐसा केंद्रीय थीम चुना जो कभी पुराना नहीं पड़ सकता। जो आज भी उतना ही मोजूं है जितना बीस, तीस या चालीस साल पहले था। यह विषय था आज़ादी से मोहभंग का; उनके पात्र उस उम्र के हैं जिसमें उन्होंने आज़ादी से पहले के वक्त को भी देखा है और आज़ादी के बाद के वक्त को भी। देखा ही नहीं जिया भी है। कुछ सपने उन्होंने पाले थे आज़ादी को लेकर और आज वे इन सपनों को टूटता महसूस कर रहे है। सपनों को हम टूटते हुए देखते हैं। ‘मुन्नीबाई की प्रार्थना’ की बात करें तो चाहे ये सपने शीर्षक कहानी की मुन्नीबाई के हों या ‘म्यान से निकली तलवार’ के ‘मैं’ के, ‘दूसरी आज़ादी’ के कोल्टे की हो या ‘खिलौना’ के नेकराम उर्फ निक्का बादशाह के। इन सब कहानियों में वह आज़ादी के बाद के उसी मोहभंग की बात करते हैं जो एक जमाने पहले हिंदी कहानियों का विषय हुआ करता था। और आज के लेखक इसे लगभग भूल ही चुके हैं। लेकिन उस दौर में और आज के दौर में एक बड़ा फर्क यह आ गया है कि इन पचास सालों में हमारे मूल्य बहुत बदल गए हैं। जिन बातों को लेकर पचास साल पहले हम चौंकते थे वे आज हमें सामान्य लगती हैं। ‘खिलौना’ कहानी के नेकराम के निक्का बादशाह बनने की प्रक्रिया में हम इस परिवर्तन की क्रमिकता को देख सकते हैं।

जिन्न और अन्य कहानियां की शीर्षक कहानी अलादीन के चिराग के जिन्न की कहानी को एक नए परिप्रेक्ष्य में पेश करती है। गरीब मछुआरे सदाशिव के जाल में एक बोतल फंस जाती है जिसे खोलते ही उसका जिन्न बाहर आ जाता है। जिन्न उसका हर काम करने के लिए तैयार है लेकिन उसकी एक शर्त है, जब उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाएं तो उसे तीन दिन के भीतर इस बोतल को बेचना होगा। अगर न बेचा तो उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो जाएगी और वह घोर विपत्ति में फंस जाएगा। इस बोतल को बेचने के लिए भी एक शर्त है कि वह बोतल की खूबियों को ग्राहक के सामने नहीं दिखाएगा। एक शर्त यह भी थी कि जितने दाम पर ग्राहक उससे यह बोतल खरीदेगा, अपनी इच्छा पूरी होने के बाद तीन दिन के भीतर उससे कम दाम पर दूसरे ग्राहक को बेच देगा। यह शर्त उसके लिए एक ऐसी दौड़ की शुरुआत कर देती है जिसके लिए उसकी अपनी ज़िंदगी नरक के समान हो जाती है उसे बाकी ज़िंदगी भर भागते रहना पड़ता है। पाने और पाते रहने की इच्छा उसका वह छोटा सा सुख भी छीन लेती है जो अभाव में उसे गरीब को मिल रहा था, छोटी-छोटी खुशियों से खुश होने का सुख।

सुभाष पंत ने शुरुआत तो समांतर कहानी आंदोलन के साथ की थी। समांतर कहानी उस दौर की जरूरत थी या नहीं, इस पर बहस हो सकती है लेकिन आज स्थितियां उस दौर से ज्यादा भयावह हैं और आज का आम आदमी सत्तर के दशक के उस आम आदमी के मुकाबले कहीं ज्यादा तकलीफों से गुजर रहा है। सत्ता के अपराधीकरण, धर्म के रानीतिकीकरण और बाज़ार के वैश्वीकरण के बाद ये तीनों ताकतें आज कहीं अधिक विकराल रूप में सामने हैं। इन्होंने मिलकर उसके बहुत से हक एक-एक करके उससे छीन लिए हैं। काम की जगहों पर आज काम की शर्तें उसके लिए मुश्किल बनती जा रही हैं। बाज़ार में उसे जिस तरह मुनाफाखोरी की ताकत के आगे पिसने के लिए छोड़ दिया गया है, उसने उसका जीना और भी मुहाल कर दिया है। धर्म के नाम पर, आतंकवाद के नाम पर मारे जाने के लिए सबसे आसान शिकार उसे ही बना दिया गया है।

देखा जाए तो सुभाष पंत की कहानियां किसी आंदोलन की मोहताज नहीं थीं। उन्होंने अपनी कहानियों के लिए एक ऐसा केंद्रीय थीम चुना जो कभी पुराना नहीं पड़ सकता। जो आज भी उतना ही मोजूं है जितना बीस, तीस या चालीस साल पहले था। यह विषय था नेहरूवाद से मोहभंग का; उनके पात्र उस उम्र के हैं जिसमें उन्होंने आज़ादी से पहले के वक्त को भी देखा है और आज़ादी के बाद के वक्त को भी। देखा ही नहीं जिया भी है। कुछ सपने उन्होंने पाले थे आज़ादी को लेकर और आज वे इन सपनों को टूटता महसूस कर रहे है।

पहाड़ चोर’ के पूरा हो जाने से उत्साहित सुभाष ने एक उपन्यास और शुरू किया। आडवाणी की रथयात्रा और बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की खबरों से आम आदमी के मनोविज्ञान और व्यवहार में जिस तरह के बदलाव आए हैं, लोगों के बीच के आपसी रिश्ते जिस तरह से बदले हैं, उसी की एक पड़ताल इस उपन्यास में आए थे। यह शुरुआत से आगे नहीं बढ़ सका। 

इसके बाद सुभाष ने एक और उपन्यास शुरू किया, महानगरों की मॉल संस्कृति पर। एक आदमी एक मॉल में जाता है और वहां कहीं खो जाता है। विषय हालांकि लंबी कहानी का था लेकिन सुभाष का मन इस पर उपन्यास लिखते का बन गया। यह भी कहीं दस-बीस पन्नों में अटका पड़ा है।

उपन्यासों का इस तरह से गर्भपात लगता है सुभाष का अंदाज ही बन गया है। लेकिन 84 साल की उम्र पूरी कर लेने के बाद भी उनकी कहानियां लगातार आ रही हैं। संवेदना की गोष्ठियां भी देहरादून में निरंतर हो रही हैं और सुभाष की उपस्थिति उनमें नियमित रूप से बनी रहती है। वहां वह कुछ न कुछ सुनाते हैं और सुनाने में वही उत्साह होता है जो जवानी के दिनों में होता था। कहानियां पर साथियों की आलोचनाओं को आज भी वह गंभीरता से लेते हैं और उनकी शंकाओं का दूर करने की पूरी कोशिश करते हैं।

एक अच्छी बात यह है कि उम्र के 84 पड़ाव पार कर लेने के बाद भी उनकी कलम अभी निरंतर चल रही है। उनकी हाल की कुछ कहानियों में मुझे उस तरह के तेवर लौटते नजर आए हैं जो सारिका में कहानी छपने से पहले की कहानियों के थे। मैं तो इसे एक सकारात्मक बदलाव मानता हूं।

Sureshuniyal4@gmail.com


Sunday, February 20, 2011

यह कल्पनालोक नहीं

सृजन के संकट की कहानियां


लंबे समय बाद सुरेश उनियाल का नया कहानी संग्रह आया है। संग्रह में 'क्या सोचने लगे आदित्य सहगल" सहित कुल 13 कहानियां तथा 15 छोटी कहानियां हैं। ये कहानियां सुरेश उनियाल की कथायात्रा में एक नए मोड़ से परिचित कराती हैं। इनमें सुरेश की मूल प्रवृत्ति फैंटेसी ने बोध-कथा के साथ मिलकर एक नई शक्ल अख्तियार की है।
पिछले संग्रहों - विशेषकर 'यह कल्पनालोक नहीं" - में कल्पनाशीलता ठोस तार्किकता की जमीन पर खड़ी होकर विज्ञान कथाओं की शक्ल में सामने आई है। यहां यह कल्पनाशीलता मनुष्य के अस्तित्व और मानवीयता की पड़ताल करती दिखाई पड़ती है। संग्रह की शीर्षक कहानी  "क्या सोचने लगे आदित्य सहगल" इस बात को पुष्ट करती है। आदित्य सहगल कल्पनाशील बुद्धिजीवी है जो दिल के ऊपर दिमाग को तरजीह देता है। एक रोज वह इस प्रद्गन से दो-चार होता है कि यदि मनुष्यों के मस्तिष्क की रेटिंग की जाए तो कैसा रहे।
''अगर एक व्यक्ति से एक मिनट की मुलाकात हो तो पांच अरब ब्यक्तियों से एक-एक बार मिलने में ही नौ हज़ार पांच सौ तेरह वर्ष लग जाएंगे।" इस तरह के गणित से गुजरते हुए आदित्य सहगल अंतत: इस नतीजे पर पहुंचता है कि ''यह रेटिंग अगर जरूरी है तो दिमाग की जगह अपनत्व की डिग्री की रेटिंग होनी चाहिए।" यह कहानी किसी प्रचलित रूप में कहीं से भी कहानी नहीं लगती। एक शांत जिरह, खुद से उलझते कुछ सवालों को सुलझाने का सिलसिला और एक सहज बातचीत।।। जैसे आप किसी टी हाउस में कुछ बहस कर रहे हैं और फिर एक खूबसूरत फैसले पर पहुंचते हैं कि ''अगर दिमाग का काम दिल को धड़काना न होता तो दिमाग को निकलवा फेंकना ही बेहतर होता।"
सृजनशील व्यक्तित्व कभी न कभी रचनात्मकता के संकट से टकराते जरूर हैं। फेलिनी की फिल्म "एट एंड हाफ" तो सृजनात्मकता के संकट से टकराने की संभवत: श्रेष्ठतम प्रस्तुति है। सुरेश उनियाल के इस कहानी संग्रह की बहुत सी कहानियां इस प्रद्गन से टकराती दिखलाई पड़ती हैं। "कहानी की खोज में लेखक" और ''भागे हुए नायक से एक संवाद" ऐसी ही कहानियां हैं। कहानी से उसका नायक गायब हो जाता है। वह लेखक से जिरह करता है कि ''जिस तरह से मैं बोलता हूं, उस तरह से तू लिख।"" लेखक नहीं मानता, कहानी पूरी नहीं होती। फेंटेसी सुरेश की कहानियों का मूलतव है और अपने से पूर्व तथा बाद की तमाम पीढ़ियों के लेखको से अलग वह अभी तक  फेंटैसी को साथ लिये चल रहे हैं। उनसे पहले और उनके बाद की पीढ़ियों ने फेंटेसी का थोड़ा-बहुत इस्तेमाल किया और छोड़ दिया। सुरेश फेंटेसी के विभिन्न स्वरूपों से प्रयोग करने में नहीं हिचकते। यह वैसा ही है जैसे कोई कलाकार किसी खास माध्यम की विभिन्न संरचनाओं में ताउम्र डूबा रहता है। लेकिन सुरेश संरचनावादी भी नहीं हैं। कलावादी तो खैर कहीं से भी नहीं हैं।
वे बहुत साधारण तरीके से कहानी कहते हैं। लगभग बतकही के अंदाज में। भाषा की जादूगरी से भरसक बचने की कोशिश करते हुए और संवादों की नाटकीयता को एकदम खारिज करते हुए।
इस सादेपन में एक तरफ तो वह 'खोह" जैसा असाधारण दार्शनिक आख्यान रच सके हैं और दूसरी तरफ 'उसके हाथ की रेखाएं" जैसा अद्भुत बोर्खेज़ियन गल्प साध सके हैं। इन दो कहानियां पर खास तौर से बात की जानी चाहिए।
'खोह" मूलत: एक फेंटैसी है जो किसी खोह के रास्ते गुम हो चुके पिता की तलाद्गा में निकले पुत्र के यात्रा वृतांत की शक्ल में कही गई है। जॉन हिल्टन की 'लॉस्ट होराइज़न" और हेनरी राइडर हैगार्ड की 'शी" जैसी अति स्मरणीय रचनाओं की याद दिलाती 'खोह" ठेठ भारतीय संदर्भों में कही गई जीवन और मृत्यु के शाश्वत द्वंद्व की कथा है। पिता जिस स्थान पर है, वहां पुत्र एक लामा के सहयोग से मार्ग खोजकर पहुंचता है और विस्मित होता है कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है। स्वर्ग मरने के बाद नहीं मिलता बल्कि वह जैविक क्षरण को रोकने की विशुद्ध पर्यावरणीय युक्ति है जहां शरीर की मरती और पैदा होती कोशिकाओं का संतुलन बना हुआ है। वहां भोग है किंतु जन्म नहीं है। जन्म नहीं है इसलिए पर्यावरण को बिगाड़ने का उपक्रम भी नहीं है।
'' यहां जनसंख्या न घटती है और न बढ़ती है। यहां न मौत होती है और न जन्म। यहां जो लोग हैं, हमेशा से वहीं थे और हमेशा वही रहेंगे। कभी कभी सदियों में हम-तुम जैसे एक-दो लोग आते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता।"
'रोज वही-वही लोग, वही-वही शक्लें, वही-वही जगहें, एक जैसी दिनचर्या, मुझे तो कल्पना से ही ऊब होने लगी थी।"
'ऊब क्यों होगी? यही तो जिंदगी है। यहां हम जिंदगी को पूरी तरह से जीते है। इसी सुख की कल्पना तो तुम लोग अपने लोक में करते हो।"
मेरे मुंह से निकल गया, 'नहीं, यह जिंदगी नहीं, मौत है।"
"उसके हाथ की रेखाएं" एक अलग दुनिया में ले जाती हैं। यहां एक ऐसे पात्र से साक्षात्कार होता है जो लोगों के हाथ की रेखाएं गायब कर देता है। यह काफ्काई  खोज नहीं है बल्कि एक सहज प्रेक्षण है कि कहानी का नायक एक रोज पाता है कि उसके हाथ की एक रेखा गायब हो गई है। फिर दफ्तर के चपरासी की मदद से एक ऐसे आदमी के पास पहुंचता है जो हाथ की रेखाएं ठीक किया करता है।
अकसर साहित्यिक बातचीत में एक बात का जिक्र बड़े अफसोस के साथ किया जाता है कि हिंदी में कोई बोर्खेज़ जैसा लेखक नहीं है। बोर्खेज़ तो सदियों के अंतराल में कभी कहीं हो जाते हैं लेकिन उनकी कहानियों का जो प्रभाव है, इस तरह का प्रभाव देखना हो तो यह कहानी जरूर पढ़नी चाहिए।
'किताब" को विज्ञान कथाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है। मुझे याद है कि मैंने जब 'यह कल्पनालोक नहीं" पढ़ा था तो मुझे यह बात खटकी थी कि संग्रह में सिर्फ तीन ही विज्ञान कथाएं थीं। इस संग्रह में मात्र एक है। शायद किसी लेखक से यह पूछना उचित नहीं होगा कि अमुक किस्म की रचना क्यों नहीं की और अमुक किस्म की रचना ही क्यों की!
हालांकि इस संग्रह की काफी कहानियों में विज्ञान कथाओं के दोनों तव - कल्पनाशीलता और घ्ानघ्ाोर तार्किकता - पूरी तरह से मौजूद हैं, अब यह अलग बात है कि लेखक ने इन दोनों चीजों से कुछ दूसरी तरह की कहानियां रची हैं।
कुछ कहानियां जीवन के बहुत साधारण अनुभवों को लेकर भी लिखी गई हैं। 'बिल्ली का बच्चा", 'बड़े बाबू", 'सॉरी अंकल" और 'चेन" ऐसी ही कहानियां हैं। 'बड़े बाबू" और 'चेन" दांम्पत्य जीवन की कश-म-कश से निकली कहानियां हैं। 'इनसान का ज़हर" एक आधुनिक बोधकथा के रूप में पढ़ी जा सकती है जहां नदी में स्नान करते साधु द्वारा डूबते बिच्छू को बचाने की दंद्गाभरी कथा को बिच्छू के दृष्टिकोण से दुबारा कहा गया है।
'एक नए किस्से का जन्म" पहाड़ के परिवेद्गा पर बनते और टूटते किस्सों के भीतर छिपी विडंबना का मिथकीय बयान है।
इसके अतिरिक्त इस संग्रह में 15 छोटी कहानियां हैं, जिन पर अलग से चर्चा की आवद्गयकता नहीं है। हां, 'विश्व की अंतिम लघुकथा" लिख सकने का साहस हम जैसे पाठकों को एक साथ विस्मित, आनंदित और आतंकित कर देता है। सृष्टि के आरंभ पर दुनिया की प्राचीनतम भाषाओं से लेकर आधुनिक विचारकों ने कुछ न कुछ लिखा है। सृष्टि के अंत का दृद्गय एक वैज्ञानिक संभावना बनकर सुदूर भविष्य की अनिश्चितता में डालकर हम आश्वस्त हो जाते हैं। उस अंत पर कलम उठाने को एक बड़ा लेखकीय दुस्साहस की कहा जाएगा। सुरेश उनियाल के यहां यह साहस हैं।

                                                            
 
                                                                                                          - नवीन कुमार नैथानी
क्या सोचने लगे ।।।
प्रकाशक : भावना प्रका्शन, दिल्ली-91
मूल्य : 200 रुपए
पृष्ठ संख्या : 144

Thursday, June 17, 2010

जिक्र जिसका होना ही चाहिए

क्या सोचने लगे  कथाकार सुरेश उनियाल का हाल ही में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण कहानी संग्रह हैं। पिछले दिनों इसी संग्रह से एक कहानी किताब का जिक्र यहां किया गया था, जिस पर इस ब्लाग के पाठकों की प्रतिक्रिया जो टिप्पणी और  फ़ोन द्वारा मिली उसमें कहानी को पढ़्ने की इच्छा ज्यादातर ने जाहिर की। पाठकों की इच्छाओं का सम्मान करते हुए कहानी प्रस्तुत की जा रही है। 
 
किताब

गलती मुझसे ही हो गई थी, यह स्वीकार करने में मुझे कोई गुरेज नहीं है। इनसान हूं और इनसान होता ही गलती का पुतला है।
किताब की खोज मेरी गलती नहीं थी। गलती यह थी कि अपनी खोज के पूरी होने से पहले ही मैंने इसके बारे में अपने दोस्त अनंतपाणि को बता दिया था। अनंतपाणि ठहरा व्यावसायिक बुद्धि। वह तो मेरी इस खोज में अपने लिए रुपए की खान देख रहा था।
मैंने उसे बताने की भरसक कोशिश की कि अभी किताब की खोज शुरुआती अवस्था में है। इसे पूरा होने में समय लगेगा। मैं अभी किताब के भीतर जाने का रास्ता ही बना सका हूं, बाहर निकलने का नहीं। इस बात की संभावना तो जरूर थी कि भीतर गया आदमी अपने लिए रास्ता बना सकता था और सुरक्षित बाहर आ सकता था लेकिन इस सबकी प्रोग्रामिंग मैं अभी कर नहीं पाया था। मेरे हाथ में तो इतना था कि मैं किसी आदमी को किताब के अंदर भेज सकूं और अंदर की किताब की दुनिया में उसे छोड़ दूं।
यह सब कुछ वैसा ही था जैसे महाभारत में अभिमन्यु वाले किस्से में होता है कि उसे चक्रव्यूह में जाने का रास्ता तो पता था लेकिन बाहर आने का तरीका पता नहीं था। यहां फर्क इतना है कि अंदर गए आदमी को जान का कोई खतरा नहीं था। कम से कम किसी बाहरी हमले का उसे डर नहीं था, कमजोर दिल का कोई आदमी वहां के थ्रिल को बर्दाश्त न कर सके और दिल के दौरे से मर जाए, यह बात अलग है।
मेरा डर था भी यही। मैं चाहता था कि मैं किताब की खोज पूरी कर लूं। आदमी किस तरह किताब के भीतर जाए, वहां किस तरह किताब का पूरा मजा ले और फिर किस तरह किताब से बाहर निकले, इसकी मैं पूरी प्रोग्रामिंग तैयार कर लेना चाहता था।
मैं ऐसी व्यवस्था रखना चाहता था कि कोई व्यक्ति अगर पूरी किताब से गुजरे बिना, किसी वजह से बीच में ही बाहर आना चाहे तो उसे बाहर निकाला जा सके। इस सबकी प्रोग्रामिंग मैं अभी तक नहीं कर पाया था।
माफी चाहूंगा, मैं अपनी धुन में यह सब कहे जा रहा हूं, बिना इस बात का खयाल किए कि आप मेरी बात समझ भी पा रहे हैं या नहीं। और आप समझेंगे भी कैसे। आप कैसे जानेंगे कि मैं किस किताब की बात कर रहा हूं। इक्कीसवीं सदी के इन आखिरी सालों में किताब का जिक्र ही आपको बेवकूफी लग रहा होगा।
    आपका सोचना गलत नहीं है। किताब जैसी चीज तो कोई सौ बरस पहले हुआ करती थी। वह कंप्यूटर क्रांति से पहले की चीज थी। कंप्यूटर क्रांति ने धीरे धीरे किताब को प्रचलन से बाहर कर दिया था। जो कुछ पहले किताबों में उपलब्ध था, वह अब कंप्यूटर की हार्ड डिस्क, सीडीज़ और डीवीडीज़ पर आ गया था। इंटरनेट पर भी हर घड़ी यह आपके लिए उपलब्ध था। पहले होता यह था कि किसी किताब की जरूरत है तो किताबों की दूकानों या लाइब्रेरियों की खाक छानते फिरो। कंप्यूटर और फिर इंटरनेट के आने के बाद दुनिया की कोई भी किताब आपके मॉनीटर के परदे पर आ सकती थी। जरूरी किताब है तो वह आपकी हार्ड डिस्क पर होगी ही वरना उसकी सीडी या फ्लॉपी आपके पास होगी। न हो तो इंटरनेट पर आप आसानी से उसकी तलाद्गा कर सकते थे। या फिर अपने किसी दोस्त से, जिसके पास वह किताब उपलब्ध हो, ई-मेल से मंगवाकर अपने सिस्टम में ले सकते थे।
    जाहिर है, किताब के रूप में किताब की उपयोगिता खत्म हो गई थी। दुनिया का सारा ज्ञान आपके कंप्यूटर के की-बोर्ड पर उंगलियां चलाने मात्र से, आपके मॉनीटर पर आ सकता था।
    इतना ही नहीं, दुनिया का सारा साहित्य वीडियो बुक्स के रूप में भी आ गया था। एनिमेशन की तकनीक इक्कीसवीं सदी के शुरू के दस-बीस सालों में ही इतनी विकसित और इतनी सस्ती हो गई थी कि उसके बाद का साहित्य शब्दों के बजाय वीडियो छवियों के द्वारा तैयार किया जाने लगा था। यानी सीधे विजुअल में ही बनने लगा था। धीरे-धीरे पुराना सारा साहित्य भी इसी तरह वीडियो बुक्स में आ गया था।
    इसमें कोई शक नहीं कि शब्दों में लिखे साहित्य की तुलना में दृश्यों में तैयार किया गया वीडियो साहित्य लोगों के लिए ज्यादा ग्राह्य था। उन्हें शब्दों के आधार पर कल्पना करने के बजाय सीधे दृश्य रूप देखने को मिल रहे थे।
    शाब्दिक पुस्तक से दृ्श्य पुस्तक की ओर ले जाने की यह प्रक्रिया बहुत सहज थी। फिल्म और टेलीविजन ने बहुत पहले से ही घटनाओं को दृश्य रूप में देखने की आदत लोगों में डाल दी थी ।
    जब किताब थी, तब लोगों को पढ़ने आदत ज्यादा नहीं थी। ज्यादातर काम हाथ से ही करने पड़ते थे। मशीनें भी धीमी रफ्तार की होती थीं इसलिए आदमी के पास किताबें पढ़ने की फुरसत ही कम होती थी। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आधे तक आते-आते ज्यादातर काम रोबो और कंप्यूटरों के हवाले कर दिए। तब इनसान के पास फुरसत ही फुरसत हो गई।
    इस फुरसत में वह मनोरंजन के लिए वीडियो पुस्तकों और वीडियो खेलों में व्यस्त हो गया।
    लेकिन वीडियो पुस्तकें एक सीमा तक ही आदमी को बहला सकती थीं। आखिर इस सबमें आदमी की अपनी भूमिका क्या है? वह दर्शक ही तो है न। अपने सामने चीजों को घटते देखता है। उसमें कोई हिस्सेदारी नहीं कर सकता।
    वीडियो गेम में जरूर हिस्सेदारी होती थी। एक तरफ आदमी खुद होता था और दूसरी तरफ कंप्यूटर होता था। और खेल की बिसात होती थी। लेकिन यहां दित यह थी कि खेल की शुरुआत में कंप्यूटर भले ही बाजी मार ले जाता, लेकिन धीरे-धीरे आदमी की समझ में कंप्यूटर की चालें आने लगतीं और वह कंप्यूटर को मात देने लगता। यानी यहां भी आदमी बोर होने लगा। उसे कुछ नया चाहिए।
    इसे मैंने चुनौती के रूप में लिया और तय किया कि मैं कोई ऐसी चीज खोज निकालूंगा जो आदमी की इस बोरियत को दूर करे। अब मेरे सामने संकट यह था कि इस काम में समय पता नहीं कितना लगे। और तब तक मैं कुछ और कर नहीं सकूंगा। इस दौरान मेरी रोजी-रोटी का क्या होगा और जो खर्चा इस खोज पर होगा वह कहां से आएगा?
    इस संकट से मुझे उबारने के लिए मेरा व्यवसाई दोस्त अनंतपाणि आगे आया। उसने मुझे आश्वासन दिया कि जब तक मेरी यह खोज पूरी नहीं होती, तब तक के मेरे पूरे खर्चे वह उठएगा। द्गार्त सिर्फ यह होगी कि मेरी इस खोज पर उसका कॉपीराइट मेरे बराबर का ही होगा। इससे जो भी कमाई होगी, उसके आधे-आधे के हिस्सेदार हम दोनों होंगे। इस आशय का एक इकरारनामा भी हम दोनों ने तैयार कर लिया था। इसकी एक-एक प्रति हम दोनों के वकीलों के पास सुरक्षित रख दी गई। और मैं बेफिक्र होकर अपने काम पर जुट गया।
    सबसे पहला सवाल यह था कि खोज के लिए किस दि्शा में काम किया जाए। वीडियो खेलों और वीडियो पुस्तकों से लोग उब गए थे। तो अब ऐसा क्या हो जो इससे आगे की चीज हो?
    अचानक मेरे दिमाग में कौंधा कि क्यों न इन दोनों को मिला दिया जाए। वीडियो पुस्तक हो लेकिन आदमी सिर्फ उसका दर्शक या निर्माता न हो बल्कि वह स्वयं भी उसका एक पात्र हो। वह अपने सामने घटनाओं को सिर्फ घटता ही हुआ न देखे बल्कि वह खुद भी उन घटनाओं के बीच में हो। यह किसी नाटक या फिल्म में अभिनय करने जैसा भी न हो क्योंकि वहां तो सब कुछ तयशुदा होता है और तयशुदा चीजों में थ्रिल नहीं होता। बल्कि वह तो कहीं ज्यादा उबाऊ होता है।
    तो फिर यह सब कैसे किया जाए! आदमी उन स्थितियों के बीच में हो लेकिन फिर भी न हो। आदमी को लगे कि वह घटनाओं के बीच हिस्सेदारी कर रहा है लेकिन वह वास्तव में वैसा कुछ भी न कर रहा हो। जो कुछ हो, वह उसके महसूस करने के स्तर पर हो। और यह महसूस करना ऐसा भी हो कि आदमी को कहीं से यह न लगे कि वह वास्तव में उन स्थितियों के बीच में नहीं है। क्योंकि ऐसा लगते ही सारा थ्रिल, सारा मजा खत्म हो जाएगा।
    यानी मामला पूरी तरह मानसिक होना चाहिए।
    इस तरह का मानसिक वातावरण रचना मेरे लिए ज्यादा मुश्किल काम नहीं था। टेलीपेथी का सिद्धांत तब तक आम हो चुका था। जब आदमी कुछ सोचता है तो उसके दिमाग से एक खास तरह की विद्युतचुंबकीय तरंगें निकलती हैं। हर आदमी के दिमाग में इस तरह की विद्युतचुंबकीय तरंगों का रिसीवर भी होता है। जब कभी रिसीवर की फ्रीक्वेंसी आने वाली विद्युतचुंबकीय तरंगों की फ्रीक्वेंसी के बराबर हो जाती है तो रिसीवर उन विचारों को पूरी तरह पढ़ लेता है।
    अब मेरा काम आसान हो गया था। मेरे काम का पहला हिस्सा यह था कि मैं एक ऐसी प्रोग्रामिंग तैयार करूं जिससे किसी व्यक्ति के दिमाग के रिसीवर की फ्रीक्वेंसी पता की जा सके। दूसरे हिस्से में उसी फ्रीक्वेंसी पर विद्युतचुंबकीय तरंगें उस व्यक्ति की तरफ छोड़नी होंगी जिनसे उसके रिसीवर को उस पूरे वातावरण की अनुभूति हो सके जिसमें उसे ले जाना चाहता हूं।
    इसके बाद का काम ज्यादा जटिल था। उस आदमी के खास तरह की स्थितियों के बीच पहुंच जाने पर उसके अपने दिमाग से भी प्रतिक्रिया के रूप में कुछ विद्युतचुंबकीय तरंगें निकलेंगी जिन्हें अपने कंप्यूटरीकृत रिसीवर पर लेकर मैं यह पता लगा सकूं कि वह क्या करना चाहता है।
    मैं समझ रहा हूं, इस तरह के तकनीकी ब्योरों से आप जरूर ऊब रहे होंगे। सीधे शब्दों में मैं इतना बता सकता हूं कि यह सपने या स्मृति या हेलुसिने्शन से आगे की अवस्था होती है। यहां पर इनसान पूरी तरह जागते हुए थी काल्पनिक दुनिया में विचर रहा होता है।
    अपनी खोज में मैं यहां तक ही पहुंच पाया था। ऐसा प्रोग्राम मैं तैयार कर सकता था कि आदमी को किसी कहानी की शुरुआत में भेज दूं। पूरी कहानी की प्रोग्रामिंग भी कर सकता था लेकिन कहानी की इन स्थितियों में वह आदमी क्या कर रहा है, यह जानने का जरिया और अगर वह भटक गया है तो उसे बाहर निकालने का तरीका मैं अभी खोज नहीं पाया था।
    यहां तक पहुंचने में ही मुझे करीब एक साल लग गया था। हर महीने मैं अपनी प्रगति की रिपोर्ट अनंतपाणि को भेजता रहता था। इसके बावजूद काम में होती जा रही देरी का उलाहता देते हुए वह गाहे-बगाहे मुझे फोन करता रहता।
    आदत से वह बहुत उतावला था। यों भी उसका पैसा लग रहा था और वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी मेरा काम पूरा हो और वह पैसा गई गुना बढ़कर उसके पास लौटकर आ सके। हो सकता है उसका डर यह भी हो कि मैं काम पूरा हो जाने के बाद कहीं उसे अंगूठा ही न दिखा दूं। वह हमेशा मुझे उस कांट्रेक्ट की याद भी परोक्ष रूप से दिलाता रहता।
    अपनी इस खोज का नाम मैंने 'किताब" रखा था। यह तो मैं आपको शुरू में ही बता चुका हूं। इसके दो हिस्से थे, एक में कंट्रोल रूम था और दूसरा एक बंद केबिन, जिसमें वह आदमी बैठता था जो किताब में जाना चाहता था। यों तो इस काम के लिए उसकी सीट की काफी थी लेकिन बाहर की बाधाएं उसकी एकाग्रता में खलल न डाल सकें इसलिए केबिन की जरूरत थी।
    एक दिन मैंने अनंतपाणि को बुलाकर यह सब दिखाया और उसे बताया कि अपनी खोज का महत्वपूर्ण हिस्सा मैं पूरा कर चुका हूं, थोड़ा-सा काम बाकी रह गया है।
    मैंने जो कुछ उसे दिखाया उससे वह चमत्कृत था। मैंने उसे बताया कि इतना मैंने कर लिया है कि किसी को भी किताब के अंदर भेज सकूं। प्रयोग के तौर पर मैंने उसे 'भेड़िया आया" वाली कहानी का प्रोग्राम सेट करके किताब के अंदर भेज दिया।
    वह बाहर आया तो खु्श था। कहने लगा, 'मैंने कहानी को ही बदल दिया है। तीसरी बार जब भेड़ चुगाने वाले ने 'भेड़िया आया--- भेड़िया आया" की पुकार लगाई तो कोई उसके पास नहीं गया। लेकिन मैं एक झाड़ी के पास छिपकर बैठ गया। जैसे ही भेड़िया आया, मैंने अपनी बंदूक से उसे मार गिराया और वह लड़का बच गया।
    इस प्रयोग के बाद मैंने अंदाजा लगा लिया था कि किताब के अंदर जाने वाले ज्यादातर लोग मूल कहानी का तो सत्यानाश ही करेंगे। कम ही लोग ऐसे होंगे जो कहानी को कोई रचनात्मक मोड़ दे पाएं।
    लेकिन इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। किताब के अंदर मौजूद आदमी कहानी का कुछ भी करता रहे, मूल कहानी का मेरा प्रोग्राम कंप्यूटर की मेमोरी में ज्यों का त्यों सुरक्षित रहता।
    मेरा खयाल था कि यह सब देख लेने और किताब के भीतर से गुजर चुकने के बाद अनंतपाणि को यकीन हो जाएगा कि मेरी खोज सही दि्शा में जा रही है और जल्द ही अपनी खोज पूरी करके मैं इसका व्यावसायिक इस्तेमाल करने के लिए उसे दे दूंगा।
    लेकिन उस पर इसका दूसरा ही असर हुआ। उसे लगा कि खोज का असली काम तो पूरा हो चुका है। क्यों न इसका व्यावसायिक इस्तेमाल शुरू कर दिया जाए।
    मैंने उसे समझाने की को्शिश की कि अभी हमने शुरुआती सफलता ही हासिल की है। एक तरह से हमारी खोज का पहला चरण ही पूरा हुआ है। दूसरे और तीसरे चरण के काम अभी बाकी हैं। उन्हें पूरा किए बिना खतरा हो सकता है। और दूसरे यह भी कि उनके बिना न तो इस खोज का पेटेंट हमारे नाम हो सकेगा और न व्यावसायिक लाइसेंसिंग विभाग इसे व्यावसायिक रूप से इस्तेमाल करने का लाइसेंस ही देगा।
    लेकिन अनंतपाणि ने यह कहकर मेरा मुंह बन्द कर दिया कि मेरा काम सिर्फ खोज के तकनीकी पक्ष तक सीमित है। व्यावसायिक पक्ष वह खुद देख लेगा। उसने मुझे एक तरह से हिदायत देते हुए कहा कि इस खोज की तकनीकी तफसील मैं उसे मेल कर दूं। आगे का काम वह देख लेगा।
    मैंने एक बार फिर उसे जल्दबाजी के खतरों से आगाह करने की कोशिश की तो अनंतपाणि ने यह शक जाहिर किया कि कहीं मेरी नीयत में खोट तो नहीं आ गया है। उसने चेतावनी दी कि उसके जैसे चतुर व्यवसायी के सामने किसी तरह की चाल चलने की मैं कोशिश भी न करूं वरना मेरे शरीर के कपड़े तक बिक जाएंगे। क्योंकि ऐसा करने पर वह मेरे खिलाफ अनुबंध तोड़ने का मामला बना देगा और जितने पैसे उसने मुझे इस खोज के सिलसिले में दिए हैं, उन्हें ब्याज और हरजाने समेत वसूल कर लेगा।
    जाहिर है, मैं उसकी इस धमकी से घबरा गया। मैं फौरन इस खोज की तकनीकी तफसील तैयार करने में लग गया। पूरी रात जागकर मैंने वह तफसील तैयार की। कोशिश यही थी कि इस खोज के अधूरेपन की तरफ किसी का ध्यान न जाए। जहां जरूरी था, ग्राफ और डायग्राम भी बनाए। सुबह तक मेरा प्रेजेंटे्शन तैयार हो गया था। एक बार पूरे ध्यान से मैंने प्रेजेंटे्शन को देखा। एक-दो जगह कुछ सुधार किए और जब तसल्ली हो गई कि इसमें किसी तरह की कोई कोर-कसर नहीं छूटी, तब मैंने यह पूरा प्रेजेंटे्शन अनंतपाणि को मेल कर दिया।
    थोड़ी ही देर बाद अनंतपाणि का धन्यवाद भी मेल से मुझे मिल गया। उसने मेरे प्रेजेंटे्शन की बहुत तारीफ की और पिछले दिन के अपने व्यवहार के लिए माफी भी मांगी। उसने उम्मीद जाहिर की कि मैंने उसकी बात का बुरा नहीं माना होगा और इस बात को लेकर हमारी दोस्ती या अनुबंध में किसी तरह की दरार नहीं आएगी।
    मैं इस तरह के संदेष की उम्मीद कर रहा था। मैं जानता था कि अनंतपाणि बहुत ही व्यावहारिक किस्म का आदमी है। उसकी यह दिखावटी विनम्रता उसकी इसी व्यावहारिकता की वजह से थी। वरना वह अव्वल दर्जे का धूर्त है। जहां उसे चार पैसे मिलने की उम्मीद होती है, वहां तो वह विनम्रता का पुतला है लेकिन जहां जरा नुकसान होता दिखने लगे, फौरन सांप की तरह फन फैलाकर फुफकारने लगता है। लेकिन यह सब समझने के बावजूद मैं उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता था।
    मुझे पूरा भरोसा था कि दो या तीन दिन के भीतर ही वह किताब का पेटेंट करा लेगा और इसके व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए लाइसेंस भी ले लेगा। और हुआ भी ऐसा ही। उसने मुझे यह भी बताया कि लाइसेंस उसने मेरे ही नाम से लिया है, अपना नाम तो मेरे पार्टनर के तौर पर ही डाला है। यह सब उसने क्यों किया यह तब तो मेरी समझ में नहीं आया और जब समझ में आया तब तक काफी देर हो गई थी।
    अपनी इस सफलता की जानकारी देने जब वह मेरे पास आया, तब एक बार मन हुआ कि फिर से उसे इसके खतरों से आगाह कर दूं लेकिन उसकी नाराजगी के डर से इतना ही कहा कि इसका व्यावसायिक प्ाक्ष वही देखे, मैं फिलहाल किताब के दूसरे और तीसरे चरण पर अपना काम जारी रखना चाहूंगा।
    इसके लिए वह राजी हो गया। लेकिन उसकी दो शर्तें थीं। एक तो यह कि किताब को ऑपरेट करने का काम मैं उसके किसी आदमी को सिखा दूं और दूसरे यह कि उसके खयाल से तो 'प्रोजेक्ट किताब" का काम पूरा हो चुका है, इसलिए वह इस पर और पैसा खर्च करने के जिए तैयार नहीं है। अगर मैं चाहूं तो किताब से होने वाली आय के अपने हिस्से में से इस पर पैसे लगा सकता हूं। इतना अश्वासन उसने जरूर दिया कि किताब की खोज के दूसरे और तीसरे चरण पूरे हो जाने के बाद, अगर उसे लगा कि किताब में इन्हें जोड़ने का कोई फायदा हो सकता है तो इसके ऐवज में इस मद में हुए मेरे खर्चे की वह पूरी भरपाई कर देगा।
    मैंने उससे कहा कि इसका भी अनुबंध कर लेते हैं तो उसने कहा कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी में बहुत कुछ ऐतबार से भी होता है।
    चूंकि मैं इस अधूरी किताब के खतरों से परिचित था इसलिए मैंने अनंतपाणि के आदमी को कुछ छोटी-मोटी बाल कथाओं के प्रोग्राम ही बनाकर दिए : जैसे कछुए और खरगो्श की दौड़ की कहानी, बंदर और मगरमच्छ की दोस्ती की कहानी, चालाक खरगोद्गा और घमंडी शोर की कहानी, भेड़िया आया वगैरह वगैरह। ये सब छोटी-छोटी कहानियां थीं और इनमें किताब के भीतर गए व्यक्ति द्वारा ज्यादा छेड़-छाड़ की गुंजाइश भी नहीं थी क्योंकि ये कहनियां इसी रूप में बचपन से सबके दिमागों में बैठी हुई हैं।

इस किताब को ऑपरेट करने का काम सीखने के लिए अनंतपाणि ने जिस नौजवान को भेजा था वह बहुत उत्साही लग रहा था। उसका नाम अभिषेक था। हालांकि मैं उसे उतना ही बताना चाहता था जितना किताब के संचालन के लिए जरूरी था लेकिन वह इसके अलावा भी बहुत कुछ जानना चाहता था। मैं उसके उत्साह को खत्म नहीं करना चाहता था इसलिए उसने जो कुछ पूछा मैं बताता चला गया।
जब अभिषेक कहानियों की प्रोग्रामिंग के तरीके पूछने लगा तब मैंने उसे बताया फिलहाल वह उन्हीं कहानियों को ऑपरेट करे जिनकी प्रोग्रामिंग उसे दी गई है। जरूरत के मुताबिक मैं उसे और कहानियों की प्रोग्रामिंग देता रहूंगा।
   
अनंतपाणि की किताब अच्छी चल निकली। यह मैंने उसे समझा ही दिया था कि किताब का ज्यादा प्रचार प्रसार न करे क्योंकि इसकी फिलहाल हमारे पास एक ही प्रति है। अधिक प्रतियां तैयार करने का खतरा अभी नहीं लिया जा सकता। जल्दी ही इसके मॉडल में सुधार करने पड़ेंगे। इस बीच इस मॉडल को कुछ सीमित ग्राहकों को ही उपलब्ध कराया जाए। यह भी देख लिया जाए कि लोगों को यह किताब कितनी पसन्द आती है।
    बात अनंतपाणि की समझ में फौरन आ गई। मामला जहां पैसों का हो वहां अनंतपणि की समझ काफी तेज हो जाती है।
    उसने अपने कुछ अमीर दोस्तों के माध्यम से किताब की जबानी पब्लिसिटी की। वह जनता था कि अगर उसने इंटरनेट या टेलिविजन चैनलों के जरिए किया और किताब क्लिक कर गई तो मुद्गिकल हो जाएगी।
    चूंकि जिन कहानियों की प्रोग्रामिंग मैंने की थी, वे सभी छोटी-छोटी कहानियां थीं इसलिए किताब का हर पाठक दस मिनट से आधे घंटे के भीतर ही किताब के अंदर रह पाता था। शुरू में किताब की दस-बारह द्गिाफ्ट रोज लग जाती थी। फिर शिफ्टें धीरे-घीरे बढ़ने लगीं।
    अभिषेक के बाद तीन और लड़्कों को किताब के ऑपरेटर के रूप में ट्रेनिंग दी गई। छह-छह घंटों की शिफ्ट में किताब 'पढ़ी"    जाती रही। जाहिर है, अनंतपाणि का और उसके साथ ही मेरा भी मुनाफा बढ़ता जा रहा था।
    किताब के इस ज्यादा इस्तेमाल से मेरे मन में डर पैदा हो रहा था कि कहीं उसके सिस्टम में कोई गड़बड़ी पैदा न हो जाए। लेकिन जब हर हफ्ते एक मोटी रकम मेरे बैंक खाते में आने लगी तो मैंने अनंतपाणि को रोकने या सचेत करने की कोशिश भी नहीं की। खुद को यह कहकर समझा लिया कि अगर मैंने ऐसी को्शिश की भी तो वह कहां मानने वाला है।
    मैंने इतना जरूर किया कि किताब के अगले चरण के काम में जी जान से जुट गया।
    इस बीच अनंतपाणि के कई संदे्ष वीडियोफोन और मेल पर मुझे मिले कि मैं कुछ और कहानियों की प्रोग्रामिंग करके उसे भेजूं क्यॊंकि जितनी कहानियों की प्रोग्रामिंग मैंने उसे दी थी, वे सब बच्चों की कहानियां थीं और उनमें ऐसा कुछ नहीं था जो उन्हें बार-बार देखा जाए। अनंतपाणि चाहता था कि मैं ऐसी कहानियों की प्रोग्रामिंग करके दूं, जो एडवेंचरस हों, कुछ सैक्स वैक्स हो, कुछ हिंसा, मारधाड़ हो।
    मैं जानता था कि वह ऐसा ही कुछ चाहेगा। मैंने उससे साफ कह दिया कि जब तक दूसरे और तीसरे चरण का काम पूरा नहीं हो जाता, तब तक मैं उसे ऐसी किसी कहानी की प्रोग्रामिंग नहीं दूंगा।
जब कई दिनों तक मैं उसकी इस मांग को पूरा करने से इनकार करता रहा तो एक दिन वह मेरे घर पर ही आ धमका।
    मैंने उसे बताया कि दूसरे और तीसरे चरण का काम काफी हद तक पूरा हो गया है। जल्दी ही किताब का नया संस्करण तैयार करके मैं व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए उसे दे दूंगा। तब जिस तरह की कहानी वह चाहेगा, उसकी प्रोग्रामिंग उसे मिल जाएगी।
    उसने मेरे साथ ज्यादा बहस नहीं की। मेरा खयाल था, मेरी बात उसकी समझ में आ गई है और वह मुझसे सहमत है। लेकिन उसे समझने में पहली बार मैंने गलती की।
    इसका पता मुझे उस दिन चला जिस दिन मैंने किताब के दूसरे और तीसरे चरण का काम पूरा कर लिया था। यही बताने के लिए मैंने उसके वीडियाफोन पर संपर्क किया। मैंने उसे बताया कि अब मैं किताब का नया संस्करण भी जल्दी ही तैयार कर दूंगा और फिर हम बड़े पैमाने पर इसका उपयोग कर पाएंगे।
    जवाब में उसन मुझे बधाई दी और कहा कि मैं फौरन उसके पास पहुंच जाऊं।
    उसकी आवाज काफी थकी हुई लग रही थी। उसमें वह उत्साह नहीं था जो आम तौर पर किताब के मामले में किसी सफलता की खबर मिलने पर होता था। मैंने उससे कहा कि थोड़ा सा काम बाकी रह गया है। और फिर मैं थक भी गया हूं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अगले दिन सुबह मिल लें।
    लेकिन वह अगले दिन सुबह तक इंतजार करने के लिए तैयार नहीं था। वह कह रहा था कि सारा काम छोड़ कर मैं फौरन उसके पास पहुंच जाऊं। यह इमरजेंसी है।
    उसकी आवाज में धबराहट थी। मैंने उससे जानना चाहा कि अचानक ऐसी कौन सी इमरजेंसी आ गई है लेकिन वह एक ही बात दोहराए जा रहा था कि यह सब वह मुझे वहां पहुंचने के बाद ही बताएगा। बस मैं वक्त बरबाद किए बिना फौरन उसके पास पहुंच जाऊं।
    मैंने महसूस किया कि उसकी आवाज की घबराहट लगातार बढ़ती जा रही थी। तब पहली बार मुझे खटका हुआ कि कहीं किताब के साथ तो कोई गड़बड़ी नहीं हो गई है?
   
और सचमुच ऐसा ही था। जब मैं वहां पहुंचा तो अनंतपाणि और अभिषेक के चेहरे लटके हुए थे।
    मुझे देखते ही अनंतपाणि मेरी तरफ लपका। उसने मुझे बताया कि एक आदमी किताब के अंदर पिछले चौबीस घंटे से है।
    चौबीस घंटे से वह किताब के अंदर क्या कर रहा है? मैंने जितनी भी कहानियों की प्रोग्रामिंग उन्हें दी थी, किसी में भी इतना समय लगने की गुंजाइश नहीं थी। मैंने अभिषेक से पूछा कि किताब में किस कहानी की प्रोग्रामिंग में उसे भेजा गया है।
    अभिषेक का चेहरा अभी तक लटका हुआ था। मेरे मुंह से अपना नाम सुनकर उसने चेहरा उठाकर मेरी तरफ देखा। कुछ कहने की कोशिश में मुंह भी खोला। लेकिन वह इस कदर घबराया हुआ था कि उसके मुंह से द्गाब्द तक नहीं निकल रहे थे। कुछ अस्पष्ट से स्वर उसके मुंह से निकले। वह अनंतपाणि की तरफ इशारा कर रहा था। काफी को्शिश के बाद मैं इतना ही समझ पाया कि वह एक ही वाक्यांश लगातार दोहरा रहा था : इन्होंने ही कहा था--- इन्होंने ही कहा था---
    अनंतपाणि बहुत गुस्से से उसकी तरफ देख रहा था। मैंने अनंतपाणि से जानना चाहा कि अभिषेक क्या कह रहा है?
    अनंतपाणि ने बताया कि जो व्यक्ति अंदर है, वह शहर के प्रशासक का बेटा है। उसे मेरी कहानियां पसंद नहीं आ रही थीं। वह कुछ थ्रिलर चाहता था। उसी के दबाव में आकर अनंतपाणि ने एक बार मुझसे भी ऐसी ही कुछ कहानियों की प्रोग्रामिंग करने के लिए कहा था। जब मैंने टका-सा जवाब दे दिया तो उसने अभिषेक से ऐसा करने के लिए कहा। अभिषेक काफी तेज दिमाग का लड़का था। गुरुमंत्र वह मुझसे ले ही चुका था। लिहाजा उसने एक थ्रिलर कहानी की प्रोग्रामिंग तैयार कर ली।
    प्रोग्रामिंग तैयार कर लेने के बाद उसका इसरार था कि वह प्रोग्रामिंग एक बार मुझे जरूर दिखा दी जाए। लेकिन अनंतपाणि का मानना था कि मैं जरूर इस बात पर ऐतराज करूंगा और कोई न कोई अड़ंगा लगा दूंगा।
    वह सही सोच रहा था।
    लेकिन उसकी एक दित यह भी थी कि द्गाहर के प्रद्गाासक का बेटा उसे लगातार धमका रहा था कि अगर उसे किताब में कोई थ्रिलर न मिला तो वह किताब का लाइसेंस कैंसिल करवा देगा। अनंतपाणि यह भी जानता था कि उसकी धमकी कोरी नहीं थी। वह ऐसा कर भी सकता था। वह प्रशासक का लाडला बेटा था और प्रशासक उसकी किसी बात को टाल नहीं सकता था।
    वह रोज पूछता कि किसी थ्रिलर की प्रोग्रमिंग तैयार हुई या नहीं। जब उसे पता चलता कि अभी उस पर काम चल रहा है तो वह काम जल्दी पूरा करने की ताकीद देता और फिर अपनी धमकी दोहरा देता।
    जैसे ही उसे पता चला कि प्रोग्रामिंग पूरी हो गई है, वह फौरन आ धमका। किताब के अंदर भेजने से पहले अभिषेक ने उसे समझाना भी चाहा था कि वह कहानी में ज्यादा उलझने की कोशिश न करे और जितनी जल्दी हो सके, बाहर आ जाए। लेकिन वह उस थ्रिलर की कल्पना में इस कदर उलझा हुआ था कि उसने किसी की कोई बात नहीं सुनी।
    किताब का पाठक कहानी में कहां पहुंच गया है, यह जानने का जरिया तो था। एक मॉनीटर पर वह सारी छवियां उभर आती थीं जहां से कहानी का पाठक गुजर रहा होता। लेकिन उस समय किताब का मॉनीटर बिल्कुल काला था। उस पर कोई चित्र नहीं था।
    मैंने अनंतपाणि से पूछा कि स्क्रीन ब्लैंक क्यों है तो उसने बताया कि कहानी में कुछ अपराधी नायक का अपहरण कर लेते हैं और उसे एक अंधेरे कमरे में बन्द कर देते हैं। जब से वह अंधेरे कमरे में गया है तभी से स्क्रीन ब्लैंक है।
    ऐसी स्थिति में मेरी किताब के नए संस्करण में तो व्यवस्था थी। मैं ऐसे मानसिक सुझाव उसे भेज सकता था कि वह वही सब करता जो मैं चाहता। लेकिन किताब के इस पुराने संस्करण में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी।
    फिर भी कुछ न कुछ तो किया ही जाना चाहिए। अभी तो प्रशासक को पता नहीं है कि उसका बेटा कहां है एक-दो दिन तो वह बिना बताए भी घर से गायब होता रहता था। लेकिन तीन-चार दिन बाद तो वह उसकी खोज-खबर शुरू करेगा ही। ऐसे में यह जानना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा कि बेटा दरअसल कहां गायब हुआ है।
    यहां अनंतपाणि ने मुझे यह भी आगाह कर दिया कि उसकी जिम्मेदारी कम और मेरी ज्यादा बनती है। किताब में आने वाली किसी भी तकनीकी खामी के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। यह पूरा धंधा मेरा ही है। अनंतपाणि तो इसमें सिर्फ पैसा लगा रहा है।
    उसकी इस बात के जवाब में मैंने यह कहने ही कोशिश की कि किताब को इस रूप में इस्तेमाल करने की सहमति तो मैंने कभी नहीं दी थी और उसने जो कुछ किया, मेरी इच्छा के विरुद्ध ही किया। यह बात मैं एक दोस्त से शिकायती लहजे में कह रहा था लेकिन जवाब एक चतुर व्यवसायी की तरफ से आया।
    अनंतपाणि कह रहा था कि यह सब जबानी बातें हैं। इनका कोई प्रमाण नहीं है जबकि उसके पास प्रमाण के तौर पर हमारे बीच हुआ वह शुरुआती इकरारनामा है जिसके अनुसार किताब के इस धंधे में उसकी भूमिका सिर्फ पैसे लगाने वाले की है, उसकी पूरी तकनीकी जिम्मेदरी मेरी है। और फिर लाइसेंस भी तो मेरे ही नाम से था।
    मै उसके जाल में पूरी तरह फंस गया था। मैं समझ गया था कि प्रशासक के बेटे के गायब होने की पूरी जिम्मेदारी वह मेरे सिर पर डालकर खुद किनारा कर लेगा। और एक तरह से यह भी तय हो गया कि अब जो कुछ करना है, मुझे ही करना है।

किताब के दूसरे और तीसरे चरण का पूरा ब्लूप्रिंट मेरे दिमाग में साफ था। मैं ऑपरेटर की कुर्सी पर बैठकर की बोर्ड पर झुक गया। मेरी कोशिश यह थी कि किसी तरह किताब के दूसरे और तीसरे चरण के अपने काम का इस्तेमाल इस किताब में कर सकूं।
    लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था इसमें होती तो यह सब हो पाता। कई घंटे तक मैं कीबोर्ड से जूझता रहा लेकिन सब बेकार। मैं किसी भी तरह से भीतर फंसे् प्रशासक के बेटे तक नहीं पहुंच पा रहा था। जब तक वह भीतर से कोशिश नहीं करेगा, तब तक किताब का दरवाजा नहीं खुल सकता। किताब को ऑफ करके दरवाजे को खोलने की को्शिश भी मैं नहीं कर सकता था क्योंकि ऐसा होने पर मानसिक आघात से उसकी मौत भी हो सकती थी।
    कुछ हताशा और कुछ गुस्से में आकर मैं कीबोर्ड की कुंजियों को अनाप-द्गानाप दबाने लगा। अचानक मैंने देखा कि मॉनीटर का स्क्रीन काले से सफेद हो गया है। लेकिन अब भी उस पर किसी तरह की छवि नहीं थी।
    तभी मैंने देखा, अभिषेक उछला और किताब के दरवाजे की तरफ लपका। दरवाजा खुला हुआ था।
    मैंने राहत की सांस ली और दरवाजे की तरफ देखने लगा। मुझे भरोसा था कि किसी भी क्षण अभिषेक प्रशासक के बेटे को हाथ पकड़कर बाहर लाता हुआ दिखाई देगा। ज्यादा से ज्यादा क्या हो सकता है, वह अंदर बेहोश पड़ा हो। मरने की कोई आशंका नहीं थी।
    अभिषेक बाहर आया तो उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। उसने बताया कि प्रशासक का बेटा वहां नहीं है।
    ऐसा कैसे हो सकता है?
    मैं लपक कर किताब के भीतर गया।
    ऐसा कैसे हो सकता है?
किताब की पूरी तकनीक आदमी के दिमाग से ताल्लुक रखती है। उसके भीतर बैठकर आदमी कुछ करता नहीं है। उसके सारे अनुभव मानसिक होते हैं। शारीरिक रूप से तो वह एक सोए हुए व्यक्ति और एक लाश के बीच की स्थिति में होता है।
    ऐसा कैसे हो सकता है?
    प्रशासक का बेटा ऐसे कैसे गायब हो सकता है? उसके साथ ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता था कि वह किसी मानसिक आघात से मर जाता लेकिन इसकी भी संभावना नगण्य थी। लेकिन उसके शरीर को तो किताब के अंदर होना चाहिए था।
    ऐसा कैसे हो सकता है?
    मेरे दिमाग में लौट-लौटकर एक ही सवाल आ रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है?
    मैंने अभिषेक से प्रोग्रामिंग दिखाने के लिए कहा। प्रोग्रामिंग के एक-एक स्टेप को अच्छी तरह जांचा-परखा। उसमें कुछ गड़बड़ियां जरूर थीं लेकिन ऐसा कुछ नहीं था जिसकी वजह से इनसान का द्गारीर ही गायब हो जाए।
    लेकिन ऐसा हुआ है। अब मेरे पास एक ही रास्ता बचा था कि मैं खुद किताब के भीतर जाऊं। प्रोग्रामिंग यही हो। अभिषेक से मैंने कहा कि इस पूरी प्रक्रिया को वह सेव करे। हार्ड डिस्क की केपेसिटी कई मिलियन जीबी की थी इसलिए जगह की कोई समस्या नहीं थी।
   
किताब के भीतर का अनुभव जितना मैंने सोचा था, उससे कहीं ज्यादा रोमांचक था। किताब के भीतर अपनी कुर्सी पर बैठने के बाद मैंने अपने दिमाग को खुला छोड़ दिया। मैं नहीं चाहता था कि मैं अपने दिमाग को अपनी तरफ से कुछ सुझाव दूं। क्योंकि ऐसा होने पर मैं उस रास्ते पर न जा पाता जिस प्रशासक का बेटा गया होगा।
    जल्दी ही मैं कुर्सी के बजाय एक कार की ड्राइविंग सीट पर बैठा था। कार एक खूबसूरत वादी में से गुजर रही थी। लेकिन मेरा दिमाग वादी की खूबसूरती का मजा लेने के बजाय अपने मकसद में उलझा था। आगे दुद्गमनों का एक गुप्त अड्डा था। एक कसीनो की आड़ में वह गुप्त अड्डा चल रहा था।
    कसीनो की एक डांसर को मैंने पटा रखा था। वह उस दिन मुझे उस गुप्त अड्डे के भीतर जाने का रास्ता बताने वाली थी।
    जब मैं कसीनो के भीतर पहुंचा तो वह नाच रही थी। नाच पूरा होने के बाद उसने मुझे इशारा किया। मैं स्टेज के पीछे बने उस कमरे में गया, जहां डांसर अपने कपड़े बदलती थी। मैं कमरे में घुसा तो वहां कोई नहीं था। अचानक दरवाजा धकेलते तीन-चार आदमी अंदर घुसे और उन्होंने मुझे दबोच कर मेरे हाथ-पांव रस्सियों से बांध लिए। मैंने देखा, उनके पीछे वही डांसर खड़ी थी। उसने मुझे धोखा देकर फंसा दिया था।
    वे लोग मुझे एक कॉरीडोर में से घसीटते हुए ले गए। वहां से वे एक कमरे में घुसे। कमरे में एक अलमारी रखी थी। मैंने देखा उस अलमारी के उपर टाइम मशीन लिखा था। मैं समझ गया था कि ये लोग मुझे टाइम मशीन के जरिए किसी दूसरे वक्त में भेज रहे हैं ताकि मैं उनके वक्त में लौट कर फिर कभी उन्हें तंग न कर सकूं।
    टाइम मशीन का दरवाजा बंद होते ही अंधेरे ने मुझे घेर लिया। अचानक मैंने अपने आपको बहुत हल्का महसूस किया।
    और मैंने यह भी महसूस किया कि मैं किताब के मानसिक संवेग से मुक्त था। मुझे याद आ गया कि मैं प्रशासक के बेटे की तलाश में किताब के भीतर आया था।
    फिर धीरे-धीरे अंधेरा दूर होने लगा। मैंने देखा कि मैं एक पहाड़ी जगह पर हूं। कुछ-कुछ वैसी ही जगह जैसी कसीनो के आसपास थी। लेकिन वहां कसीनो नहीं था। कसीनो कहानी में था। लेकिन यह जगह कहानी में नहीं थी। फिर मैं यहां कैसे? मुझे तो किताब के भीतर होना चाहिए था।
    तभी एक विचित्र बात हुई। मुझे अनंतपाणि और अभिषेक की आवाजें सुनाई देने लगीं।
    दोनों परेशान थे कि प्रशासक के बेटे की तरह मैं भी गायब हो गया हूं। मैंने आवाज देकर उन्हें अपनी मौजूदगी का एहसास कराना चाहा लेकिन शायद मेरी आवाज उन तक पहुंच ही नहीं रही थी। क्योंकि वे आपस में ही बात करते रहे, मेरी किसी बात का जवाब वे नहीं दे रहे थे।
    आपस में काफी विचार-विमर्ष करने के बाद उन दोनों ने यह तय किया कि किताब को ही डिसमेंटल कर दिया जाए। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
    मैं उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश करना चाहता था लेकिन मेरे पास बात उन तक पहुंचाने का कोई जरिया ही नहीं था।               
    इसके बाद कुछ खटपट की आवाजें सुनाई दीं और फिर सब कुछ शांत हो गया।
    अब मेरा ध्यान अपनी स्थिति की ओर गया।
    जहां मैं था, उसके थोड़ा नीचे से एक सड़क गुजर रही थी। उस पर से इक्का-दुक्का गाड़ियां भी गुजर रही थीं। मैंने देखा ये सभी बहुत पुराने जमाने की गाड़ियां थीं। कुछ-कुछ वैसी जैसी सौ साल पहले होती थीं।
    तो कहीं मैं बीसवीं सदी में तो नहीं पहुंच गया हूं?
    ऐसा कैसे हो सकता है?
    किताब की खयाली टाइम मशीन मुझे यथार्थ में सौ साल पीछे कैसे धकेल सकती है?
    और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि अब मैं यहां उस प्रशासक के बेटे को कैसे तलाश करूंगा? और अगर वह मिल भी गया तो उसे कैसे आगे के वक्त में ले जा पाऊंगा?
    और क्या मुझे भी हमेशा के लिए यहीं रहना पड़ेगा?
    क्या आप मेरी कोई मदद कर सकते हैं?