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Sunday, May 22, 2011

बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा लेखक होना बेहतर है.

सूरज प्रकाश हमारे मित्र हैं और देहरादूनिये भी। फेसबुक में लगा उनका नोट्स जो एक बेहतरीन संस्मरण है, फेस बुक पर उनके मित्रों से इतर इस ब्लाग के लेखक भी पढ़ सके- उनकी इजाजत के बिना ही साभार यहां लगाने की गुस्ताखी कर दे रहा हूं। 
वि.गौ. 


विजय
नेट पर आयी मेरी रचना पर तुम्‍हारा, तुम्‍हारे ब्‍लाग का और मेरे शहर का पूरा हक है। इजाज़त की बात ही नहीं है। ये मेरा अतिरिक्‍त सम्‍मान हुआ ना।
कल शरदजी का जनमदिन था। इसीलिए ये रचना डाली थी।
कल से ही शरदजी की बेटी नेहा ने indradhanushpatrika.com शुरू की है। उसका लिंक दोगे तो हमें अतिरिक्‍त सुख मिलेगा।
कथाकार
 बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा लेखक होना बेहतर है.
आदमी के पास अगर दो विकल्प हों कि वह या तो बड़ा अफसर बन जाये और खूब मज़े करे या फिर छोटा मोटा लेखक बन कर अपने मन की बात कहने की आज़ादी अपने पास रखे तो भई, बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा सा लेखक होना ज्यादा मायने रखता है. हो सकता है आपकी अफसरी आपको बहुत सारे फायदे देने की स्थिति में हो तो भी एक बात याद रखनी चाहिये कि एक न एक दिन अफसर को रिटायर होना होता है. इसका मतलब यही हुआ न कि अफसरी से मिलने वाले सारे फायदे एक झटके में बंद हो जायेंगे, जबकि लेखक कभी रिटायर नहीं होता. एक बार आप लेखक हो गये तो आप हमेशा लेखक ही होते हैं. अपने मन के राजा. आपको लिखने से कोई रिटायर नहीं कर सकता.
लेखक के पक्ष में एक और बात जाती है कि उसके नाम के आगे कभी स्वर्गीय नहीं लिखा जाता. हम कभी नहीं कहते कि हम स्वर्गीय कबीर के दोहे पढ़ रहे हैं या स्वर्गीय प्रेमचंद बहुत बड़े लेखक थे. लेखक सदा जीवित रहता है, भावी पीढियों की स्मृति में, मौखिक और लिखित विरासत में और वो लेखक ही होता है जो आने वाली पीढियों को अपने वक्त की सच्चाइयों के बारे में बताता है.
तो भाई मेरे, जब लेखक के हक के लिए, लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए और लेखक के सम्मान के लिए आपको पक्ष लेना हो तो आपको ऐसी अफसरी पर लात मार देनी चाहिये जो आपको ऐसा करने से रोके. आखिरकार लेखक ही तो है जो अपने वक्त को सबसे ज्यादा ईमानदारी के साथ महसूस करके कलमबद्ध करता है और कम से कम अपनी अपनी अभिव्यक्ति के मामले में झूठ नहीं बोलता.
ये और ऐसी कई बातें थीं तो शरद जोशी ने मुझसे उस वक्‍त कही थीं जब सचमुच मेरे सामने एक बहुत बड़ा संकट आ गया था कि मुझे तय करना था कि मुझे एक ईमानदार लेखक की अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के पक्ष में खड़ा होना है या अपनी अफसरी बचाने के लिए अपने आकाओं के सामने घुटने टेकने हैं.
एक बहुत बड़ा हादसा हो गया था. शरद जी का भरी सभा में अपमान हो गया था. बेशक सारे एपिसोड में सीधे सीधे मुझे दोषी करार दिया जा सकता था और दोष दिया भी गया था लेकिन एक के बाद एक सारी घटनाएं इस तरह होती चली गयीं मानों सब घटनाओं का सूत्र संचालक कोई और हो और सब कुछ सुनियोजित तरीके से कर रहा हो. मैं हतप्रभ था और समझ नहीं पा रहा था कि ऐसा कैसे हो गया और क्यों हो गया. बेशक शरद जी का अपमान हुआ था लेकिन मेरी भी नौकरी पर बन आयी थी.
हादसे के अगले दिन सुबह सुबह शरद जी के गोरेगांव स्थित घर जा कर जब मैं इस पूरे प्रकरण के लिए उनसे माफी मांगने आया था तो मैंने उनके सामने अपनी स्थिति स्पष्ट की थी और सिलसिलेवार पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया था तो बेहद व्यथित होने के बावजूद शरद जी ने मेरी पूरी बात सुनी थी, मेरे कंधे पर हाथ रखा था और पूरे हादसे को रफा दफा करते हुए नेहा से चाय लाने के लिए कहा था..
तब उन्होंने वे सारी बातें मुझसे कहीं थीं जो मैंने इस आलेख के शुरू में कही हैं.
ये शरद जी की प्यांर भरी हौसला अफजाई का ही नतीजा था कि मैंने भी तय कर लिया था कि जो होता है होने दो, मैं अपने दफ्तर में वही बयान दूंगा जो शरद जी के पक्ष में हो, बेशक मेरी नौकरी पर आंच आती है तो आये..
जिस वक्त की ये घटना है उस वक्त तक मैंने लिखना शुरू भी नहीं किया था और लगभग 34 बरस का होने के बावजूद मेरी दो चार लघुकथाओं के अलावा मेरी कोई भी रचना कहीं भी प्रकाशित नहीं हुई थी. छटपटाहट थी लेकिन लिखना शुरू नहीं हो पाया था.. शरद जी से मैं इससे पहले भी एक दो बार मिल चुका था जब वे एक्सप्रेस समूह की हिन्दी पत्रिका के संपादक के रूप में काम कर रहे थे. तब भी उन्होंने मुझे कुछ न कुछ लिखते रहने के लिए प्रेरित किया था लेकिन मैं नहीं लिख पाया तो नहीं ही लिख पाया.
जिस घटना का मैं जिक्र कर रहा हूं, उस वक्त की है जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और वे देश भर में घूम घूम कर आम जनता की समस्या्ओं का परिचय पा रहे थे. इसी बात को ले कर शरद जी ने अपनी अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना पानी की समस्या को ले कर लिखी थी कि किस तरह से राजीव गांधी आम जनता से पानी को ले कर संवाद करते हैं.. मैंने मुंबई में चकल्लस के कार्यक्रम में ये रचना सुनी थी और बहुत प्रभावित हुआ था. उस दिन के चकल्लस में जितनी भी रचनाएं सुनायी गयी थीं, सबसे ज्या्दा वाहवाही शरद जी ने अपनी इस रचना के कारण लूटी थी.
चकल्लस के शायद दस दिन बाद की बात होगी. हमारे संस्थान में एक राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम होना था जिसके आयोजन की सारी जिम्मेवारी मेरी थी. कार्यक्रम बहुत बड़ा था और इससे जुड़े बीसियों काम थे जो मुझे ही करने थे. तभी मुझसे कहा गया कि इसी आयोजन में एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया जाये और कुछ कवियों का रचना पाठ कराया जाये. मैंने अपनी समझ और अपने सम्पर्कों का सहारा लेते हुए शरद जी, शैल चतुर्वेदी, सुभाष काबरा, आस करण अटल और एक और कवि को रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया था. शरद जी और शैल चतुर्वेदी जी को आमंत्रित करने मैं खुद उनके घर गया था. सब कुछ तय हो गया था.
मैं अपने आयोजन की तैयारियों में बुरी तरह से व्यस्त था. कार्यक्रम में मंच पर रिज़र्व बैंक के गवर्नर, उप गवर्नर, अन्य वरिष्ठ अधिकारी गण उपस्थित रहने वाले थे और सभागार में कई बैंकों के अध्यक्ष और दूसरे वरिष्ठ अधिकारी मौजूद होते.
कार्यक्रम के‍ दिन सुबह सुबह ही मुझे विभागाध्यक्ष ने बुलाया और पूछा कि कार्यक्रम में कौन कौन से कवि आ रहे हैं. मैं इस बारे में उन्हें पहले ही बता चुका था, एक बार फिर सूची दोहरा दी. तभी उन्होंने जो कुछ कहा, मेरे तो होश ही उड़ गये.
विभागाध्यक्ष महोदय ने बताया कि पिछली शाम ऑफिस बंद होने के बाद कार्यपालक निदेशक महोदय ने उन्हें बुलाया था और बुलाये जाने वाले कवियों के बारे में पूछा था. जब उन्हें बताया गया कि शरद जी भी आ रहे हैं तो कार्यपालक निदेशक ने स्पष्ट शब्दों में ये आदेश दिया कि देखें कहीं शरद जी अपनी पानी वाली रचना न सुना दें. सरकारी मंच का मामला है और कार्यक्रम में रिज़र्व बैंक सहित पूरा बैंकिंग क्षेत्र मौजूद होगा, इसलिए वे किसी भी किस्म का रिस्क ‍ नहीं लेना चाहेंगे.
विभागाध्यक्ष महोदय अब चाहते थे कि मैं शरद जी को फोन करके कहूं कि वे बेशक आयें लेकिन पानी वाली रचना न पढ़ें. मेरे सामने एक बहुत बड़ा संकट आ खड़ा हुआ था. मैं जानता था कि जो काम मुझसे करने के लिए कहा जा रहा है. वह मैं कर ही नहीं सकता. शरद जी जैसे स्वाभिमानी व्यंग्यकार से ये कहना कि वे हमारे मंच से अलां रचना न पढ़ कर फलां रचना पढ़ें, मेरे लिए संभव ही नहीं था. मैं घंटे भर तक ऊभ चूभ होता रहा कि करूं तो क्या करूं. मुझे फिर केबिन में बुलवाया गया और पूछा गया कि क्या मैंने शरद जी तक संदेश पहुंचा दिया है. मैं टाल गया कि अभी मेरी बात नहीं हो पायी है. उनका नम्बर नहीं मिल रहा है.
उन दिनों हमारे विभाग में डाइरेक्ट टैलिफोन नहीं था और आपरेटर के जरिये नम्बर मांग कर किसी से बात करना बहुत धैर्य की मांग करता था. मैंने उस वक्त तो किसी तरह टाला लेकिन कुछ न कुछ करना ही था मुझे.
मेरी डेस्क पर आयोजन की व्यवस्था से जुड़े कई काम अधूरे पड़े थे जो अगले दो तीन घंटे में पूरे करने थे. अब ऊपर से ये नयी जिम्मेवारी कि शरद जी से कहा जाये कि वे हमारे कार्यक्रम में पानी वाली रचना न सुनायें. सच तो ये था कि शरद जी से बिना बात किये भी मैं जानता था कि वे हमारे कार्यक्रम में पानी वाली रचना ही सुनायेंगे.
चूंकि उन्हें आमंत्रित मैंने ही किया था, ये काम भी मुझे ही करना था. उनसे साफ साफ कहना तो मेरे लिए असंभव ही था लेकिन बिना असली बात बताये उन्हें आने से मना तो किया ही जा सकता था. तभी मैंने तय कर लिया कि क्या करना है. मैंने शरद जी के घर का फोन नम्बर मांगा ताकि उनसे कह सकूं कि बेशक कवि सम्मेललन तो हो रहा है‍ लेकिन हम आपको चाह कर भी नहीं सुन पायेंगे.
यहां मेरे लिए हादसे की पहली किस्त‍ इंतज़ार कर रही थी. बताया गया कि शरद जी दिल्ली गये हुए हैं और कि उनकी फ्लाइट लगभग डेढ़ बजे आयेगी और कि वे एयरपोर्ट से सीधे ही रिज़र्व बैंक के कार्यक्रम में जायेंगे. हो गयी मुसीबत. इसका मतलब मेरे पास शरद जी को कार्यक्रम में आने से रोकने का कोई रास्ता नहीं. वे सीधे कार्यक्रम के समय पर आयेंगे और सीधे आयोजन स्थल पर पहुंचेंगे तो उनसे क्या कहा जायेगा और कैसे कहा जायेगा, ये मेरी समझ से परे था.
मैंने अपने विभागाध्यक्ष को पूरी स्थिति से अवगत करा दिया और ये भी बता दिया कि मैं जो करना चाहता था, अब नहीं कर पाऊंगा. कर ही नहीं पाऊंगा.
मैं अभी कार्यक्रम की तैयारियों में फंसा ही हुआ था कि कई बार पूछा गया कि शरद जी का क्या हुआ. मैं क्या जवाब देता. मुख्य कार्यक्रम साढ़े तीन बजे शुरू होना था और मुझे दो बजे बताया गया कि कैसे भी करके किसी बाहरी एजेंसी के माध्यम से कवि सम्मेालन की आडियो रिकार्डिंग करायी जाये.
हमारे संस्थान की एक बहुत अच्छी परम्प‍रा थी कि आपका पोर्टफो‍लियो है तो सारे काम आपको खुद ही करने होंगे. कोई भी मदद के लिए आगे नहीं आयेगा और न ही किसी को आपकी मदद के लिए कहा ही जायेगा. मरता क्या न करता, मैं एक दुकान से दूसरी दुकान में रिकार्डिंग की व्य वस्था कराने के लिए भागा भागा फिरा. अब तो इतने बरस बाद याद भी नहीं‍ कि इंतज़ाम हो भी पाया था या नहीं.
मुख्य कार्यक्रम शुरू हुआ. आधा निपट भी गया और बुलाये गये पांचों कवियों में से एक भी कवि का पता नहीं. कहीं सब के सब तो दिल्ली से नहीं आ रहे.. मैं परेशान हाल कभी लिफ्ट के पास तो कभी सभागृह के दरवाजे पर. कुल 5 लिफ्टें और कम्बख्त कोई भी ऊपर नहीं आ रही. मेरी हालत खराब. कार्यक्रम किसी भी पल खत्म हो सकता था और कवि सम्मेलन शुरू करना ही होता. एक भी कवि नहीं हमारे पास.
तभी एक लिफ्ट का दरवाजा खुला और एक कवि नज़र आये. मैं उन्हें फटाफट भीतर ले गया और उनसे फुसफुसाकर कहा कि अभी कोई भी नहीं आया है. बाकियों के आने तक आप मंच संभालिये. संचालन हमारे विभागाध्यक्ष महोदय कर रहे थे. उन्हों ने ज्यों ही इकलौते कवि को देखा, उनके नाम की घोषणा की दी और कवि सम्मेलन शुरू. अब मैं फिर लिफ्टों के दरवाजों के पास खड़ा बेचैनी से हाथ मलते सोच रहा था कि अब मैं किसी भी अनहोनी को नहीं रोक सकता. किसी भी तरह से नहीं.
एक लिफ्ट का दरवाजा खुला. चार मूर्तियां नज़र आयीं. शैल जी, शरद जी, सुभाष काबरा जी और एक अन्‍य कवि. मेरी सांस में सांस तो आयी लेकिन अब मैं शरद जी से क्या कहूं और कैसे कहूं. किसी तरह उन्हें भीतर तक लिवा ले गया. अब जो होना है, हो कर रहेगा. शरद जी ने कुर्सी पर बैठते ही कहा, सूरज भाई एक गिलास पानी तो पिलवाओ. मैं लपका एक गिलास पानी के लिए. आसपास कोई चपरासी या टी बाय नज़र नहीं आया. मैं लाउंज तक भागा ताकि खुद ही पानी ला सकूं. जब तक मैं एक गिलास पानी ले कर आया, शरद जी के नाम की घोषणा हो चुकी थी. पानी पीया उन्हों ने और मंच की तरफ चले.
तय था वे पानी वाली रचना सुनायेंगे. मेरी हालत खराब. इतनी सरस रचना सुनायी जा रही है और सभागृह में एकदम सन्नाटा. सिर्फ शरद जी की ओजपूर्ण आवाज़ सुनायी दे रही है.
गवर्नर महोदय ने उप गवर्नर महोदय की तरफ कनखियों से देखा. उप गवर्नर महोदय ने इसी निगाह से कार्यपालक निदेशक महोदय को देखा और कार्यपालक निदेशक महोदय ने अपनी तरफ से इस निगाह में योगदान देते हुए हमारे विभागाध्यक्ष को घूरा और आंखों ही आंखों में इशारा किया कि ये रचना पाठ बंद कराया जाये. हमारे विभागाध्यक्ष महोदय की निगाह निश्चित ही मुझ पर टिकनी थी और मेरे आगे कोई नहीं था. मैंने कंधे उचकाये – मैं कुछ नहीं कर सकता. मंच पर तो आप ही खड़े हैं..
एक बार फिर तेज़ निगाहों का आदान प्रदान हुआ और एक तरह से विभागाध्‍यक्ष को डांटा गया कि वे ये रचना पाठ बंद करायें. नहीं तो.. नहीं तो.. मैं आगे कल्पना नहीं कर पाया कि इस नहीं तो के कितने आयाम हैं. विभागाध्यक्ष डरते डरते शरद जी के पास जा कर खड़े हो गये लेकिन कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पाये. यहां ये बताना प्रासंगिक होगा कि विभागाध्यक्ष खुद व्यंग्य कवि थे और दिल्ली में बरसों से कवि सम्मेलनों का सफल संचालन करते रहे थे. एक और कड़ी निगाह विभागाध्यक्ष की तरफ और उन्होंने धीरे से शरद जी से कहा कि आप कोई और रचना पढ़ लें, इसे न पढ़ें.
यही होना था. शरद जी हक्के बक्के. समझ नहीं पाये, क्या कहा जा रहा है उनसे.. फिर उन्होंने काग़ज़ समेटे और माइक पर ही कहा - ये तो आपको पहले बताना चाहिये था कि मुझे कौन सी रचना पढ़नी है और कौन सी नहीं, मैं पहले तय करता कि मुझे आना है या नहीं. मैं यही रचना पढूंगा या फिर कुछ नहीं पढूंगा.. बोलिये क्या कहते हैं...
एक लम्बा सन्नाटा. . . किसी के पास कोई शब्द नहीं.. कोई उपाय नहीं.. बिना शब्दों के ही सारा कारोबार हो रहा था.. अब शरद जी मंच से नीचे उतरे और सीधे सभागृह के बाहर..
अनहोनी हो चुकी थी.. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था.. हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी जो कभी टाइम्स में पत्रकार रह चुके थे और कभी बंबई में शरद जी के साथ धोबी तलाव इलाके में एक लॉज में रह चुके थे, शरद जी को मनाने उनके पीछे लपके.
शरद जी बुरी तरह से आहत हो गये थे.. ये बताने का वक्त नहीं था कि ये सब क्यूं कर हुआ और इस स्थिति को कैसे भी करके टाला ही नहीं जा सका.
अगले दिन अखबारों में ये खबर थी. ऑफिस में मुझसे स्प्ष्टी करण मांगा गया और मेरे लिए आने वाले दिन बहुत मुश्किल भरे रहे.. लेकिन शरद जी से‍ मिलने के बाद मेरी हिम्मत बढ़ी थी और मैं किसी भी अनचाही स्थिति के लिए अपने आपको तैयार कर चुका था.. शरद जी से उस मुलाकात के बाद ही मुझमें लिखने की हिम्मत आयी थी. अब मुझे लिखते हुए बीस बरस होने को आये.. शरद जी के वे शब्दे आज भी हर बार कलम थामते हुए मेरे सामने सबसे पहले होते हैं‍ कि बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा सा लेखक होना ज्यादा मायने रखता है.
मैं बेशक अपने संस्थान में मझोले कद का अफसर हूं लेकिन अपना परिचय छोटे मोटे लेखक के रूप में देना ही पसंद करता हूं. मुझे पता है,. जब तक चाहूं सक्रिय रह सकता हूं.. लेखन से रिटायरमेंट नहीं होता ना....
सूरज प्रकाश

Monday, March 31, 2008

सांस सांस में बसा देहरादून


बहुत पुराना किस्सा है। एक बुजुर्ग शख्स अपने बंगले के हरे भरे लॉन में शाम के वक्त चहल कदमी कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि गेट पर उनका कोई प्रिय मेहमान खड़ा है। उसे देखते ही उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने अपनी छड़ी वहीं नरम घास में धंसा दी और गेट खोलने के लिए लपके। मेहमान को ले कर वे बंगले के भीतर चले गये। छड़ी रात भर के लिए वहीं धंसी रह गयी।
अगले दिन सुबह उन्हें अपनी छड़ी की याद आयी तो वे लॉन में गये तो देखते क्या हैं कि छड़ी पर छोटे छोटे अंकुए फूट आये हैं।
तो ये होती है किसी जगह की उर्वरा शक्ति कि छड़ी में भी रात भर में अंकुए फूट आते हैं।
ये किस्सा है देहरादून का। इस शहर के बारे में कहा जाता है कि वहां आदमी की बात तो छोड़िये, छड़ी भी ठूंठ नहीं सकती और रात भर की नमी में हरिया जाती है।
लेकिन किस्से तो किस्से ही होते हैं। न जाने कितने लोगों द्वारा सुने सुनाये जाने के बाद भेस, रूप, आकार और चोला बदल कर हमारे सामने आते हैं। हुआ होगा कभी किसी की छड़ी के साथ कि पूरे बरसात के मौसम में वहीं लॉन पर रह गयी होगी और ताज़ी टहनी की बनी होने के कारण हरिया गयी होगी, लेकिन किस्से को तो भाई लोग ले लड़े। इस बात को शहर की उर्वरा शक्ति से जोड़ दिया।
आदमी की बात और होती है। उसे छ़ड़ी की तरह हरे भरे लॉन की सिर्फ नरम, पोली और खाद भरी मिट्टी ही तो नहीं मिलती। हर तरह के दंद फंद करने पड़ते हैं अपने आपको ठूंठ होने से बचाये रखने के लिए। हर तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं अपने भीतर की संवेदना नाम के तंतुओं को सूखने से बचाने के लिए। फिर भी गारंटी नहीं रहती कि आदमी ढंग से आदमी भी रह पायेगा या जीवन भर काठ सा जीवन बिताने को होगा अभिशप्त।

अब किस्मत कहिये या कुछ और, यह बांशिदा भी उसी देहरादून का है। यह बात अलग है कि इस बदें का बचपन लॉन की हरित हो आयी छड़ी की तरह नहीं, बल्कि झाड़ झंखाड़ वाली उबड़ खाबड़ तपती ज़मीन पर लगभग नंगे पैरों चलते बीता है। कितना ठूंठ रहा और कितना अंकुरित हो कर कुछ कर पाया उस मिट्टी की उर्वरा शक्ति से कुछ हासिल करके, यह तो मेरे यार दोस्त और पाठक ही जानते होंगे लेकिन एक बात ज़रूर जानता हूं जो कुछ हासिल कर पाया उसके लिए कितनी बार टूटा, हारा, गिरा, उठा और बार बार गिर गिर कर उठा, इसकी कोई गिनती नहीं। लगभग तेरह चौदह बरस में सातवीं कक्षा में पहली तुकबंदी करने के बाद ढंग से लिख पाना शुरू करने में मुझे सच में नानी याद आ गयी। बीस बरस से भी ज्यादा का वक्त लग गया मुझे अपनी पहली कहानी को छपी देखने के लिए। लोग जिस उम्र तक आते आते अपना बेहतीन लिख चुके होते हैं, तब मैं दस्तक दे रहा था। बेशक देहरादून पहली बार बाइस बरस की उम्र में 1974 में और हमेशा के लिए दूसरी बार 1978 में छूट गया था और बाद में वहां सिर्फ मेहमानों की तरह ही जाना होता रहा, और अब तो पांच बरस से वहां जा ही नहीं पाया हूं ( 11 दिसम्‍बर 2007 को जाना तय था, टिकट भी बुक था, लेकिन 10 दिसम्‍बर 2007 को दिल्‍ली में हुए भीषण सड़क हादसे ने मेरी पूरी जिंदगी की दिशा ही बदल डाली, अब तक जख्‍म सहला रहा हूं) लेकिन पहली मुकम्मल कही जा सकने वाली कहानी 1987 में पैंतीस बरस की उम्र में ही लिखी गयी। लेकिन इस बीच, अगर अज्ञेय की कविता से पंक्ति उधार लेते हुए कहूं तो कितनी नावों में कितनी बार डूबते उतराने के बाद ही, कई कई नगरों, महानगरों में दसियों नौकरियों में हाथ आजमाने के और दुनिया भर के अच्छे बुरे अनुभव बटोरने के बाद ही यह कहानी कागज पर उतर पायी थी।
फिलहाल उस सब के विस्तार में न जा कर मैं अपनी बात देहरादून और देहरादून में भी अपनी मौहल्ले तक ही सीमित रखूंगा और कोशिश करूंगा बताने की कि कितना तो बनाया उस मौहल्ले ने मुझे और कितना बनने से रोका बार बार मुझे।

हमारा घर मच्छी बाज़ार में था। एक लम्बी सी गलीनुमा सड़क थी जो शहर के केन्‍द्र घंटाघर से फूटने वाले शहर के उस समय के एक मात्र मुख्य बाज़ार पलटन बाज़ार से आगे चल कर मोती बाज़ार की तरफ जाने वाली सड़क से शुरू होती थी और आगे चल कर पुराने कनाट प्लेस के पीछे पीछे से बिंदाल नदी की तरफ निकल जाती थी। मोती बाज़ार नाम तो बाद में मिला था उस सड़क को, पहले वह कबाड़ी बाज़ार के नाम से जानी जाती थी। कारण यह था कि वहां सड़क के सिरे पर ही कुछ सरदार कबाड़ियों की दुकानें थीं। ये लोग कबाड़ी का अपनी पुश्तैनी धंधा तो करते ही थे, एक और गैर कानूनी काम करते थे। देहरादून में मिलीटरी के बहुत सारे केन्‍द्र हैं। आइएमए, आरआइएमसी और देहरादून कैंट में बने मिलीटरी के दूसरे ढेरों दस्ते। तो इन्हीं दस्तों से मिलीटरी का बहुत सा नया सामान चोरी छुपे बिकने के लिए उन दुकानों में आया करता था। पाउडर दूध के पैकेट, राशन का दूसरा सामान, फौज के काम आने वाली चीजें और सबसे खास, कई फौजी अपनी नयी यूनिफार्म वहां बेचने के लिए चोरी छुपे आते थे और बदले में पुरानी यूनिफार्म खरीद कर ले जाते थे। तय है उन्हें नयी नकोर यूनिफार्म के ज्यादा पैसे मिल जाते होंगे और पुरानी और किसी और फौजी द्वारा इस्तेमाल की गयी पोशाक के लिए उन्हें कम पैसे देने पड़ते होंगे। मच्छी बाज़ार में ही रहते हुए हमारे सामने 1964 की ओर 1971 की लड़ाइयां हुई थीं। लड़ाई में जो कुछ भी हुआ हो, उस पर न जा कर हम बच्चे उन दिनों ये सोच सोच कर हैरान परेशान होते थे कि जो सैनिक अपनी यूनिफार्म तक कुछ पैसों के लिए बाज़ार में बेच आते हैं, वे सीमा पर जा कर देश के लिए कैसे लड़ते होंगे। एक सवाल और भी हमें परेशान करता था कि जो आदमी अपनी ड्रेस तक बेच सकता है, वह देश की गुप्त जानकारियां दुश्मन को बेचने से अपने आपको कैसे रोकता होगा। (यहां इसी सन्दर्भ में मुझे एक और बात याद आ रही है। मैं अपने बड़े भाई के पास 1993 में गोरखपुर गया हुआ था। ड्राइंगरूम में ही बैठा था कि दरवाजा खुला और एक भव्य सी दिखने वाली लगभग पैंतीस बरस की एक महिला भीतर आयी, मुझे देखा, एक पल के लिए ठिठकी और फ्रिज में छः अंडे रख गयी। तब तक भाभी भी उनकी आहट सुन कर रसोई से आ गयी थीं। दोनों बातों में मशगूल हो गयीं। थोड़ी देर बाद जब वह महिला गयी तो मैंने पूछा कि आपको अंडे सप्लाई करने वाली महिला तो भई, कहीं से भी अंडे वाली नहीं लगती। खास तौर पर जिस तरह से उसने फ्रिज खोल कर अंडे रखे और आप उससे बात कर रही थीं। जो कुछ भाभी ने बताया, उसने मेरे सिर का ढक्कन ही उड़ा दिया था और आज तक वह ढक्कन वापिस मेरे सिर पर नहीं आया है।
भाभी ने बताया कि ये लेडी अंडे बेचने वाली नहीं, बल्कि सामने के फ्लैट में रहने वाले फ्लाइट कमांडर की वाइफ है। उन्हें कैंटीन से हर हफ्ते राशन में ढेर सारी चीजें मिलती हैं। वैन घर पर आ कर सारा सामान दे जाती है। वे लोग अंडे नहीं खाते, इसलिए हमसे तय कर रखा है, हमें बाज़ार से कम दाम पर बेच जाते हैं। और कुछ भी हमें चाहिये हो, मीट, चीज़ या कुछ और तो हमें ही देते हैं। इस बात को सुन कर मुझे बचपन के वे फौजी याद आ गये थे जो गली गली छुपते छुपाते अपनी यूनिफार्म बेचने के लिए कबाड़ी बाज़ार आते थे। वे लोग गरीब रहे होंगे। कुछ तो मज़बूरियां रही होंगी, लेकिन एक फ्लाइट कमांडर की बला की खूबसूरत बीवी द्वारा (निश्चित रूप से अपने पति की सहमति से) अपने पड़ोसियों को हर हफ्ते पांच सात रुपये के लिए अंडे सिर्फ इसलिए बेचना कि वे खुद अंडे नहीं खाते, लेकिन क्यूंकि मुफ्त में मिलते हैं, इसलिए लेना भी ज़रूरी समझते हैं, मैं किसी तरह से हजम नहीं कर पाया था। उस दिन वे अंडे खाना तो दूर, उसके बाद 1993 के बाद से मैं आज तक अंडे नहीं खा पाया हूं। एक वक्त था जब ऑमलेट की खुशबू मुझे दुनिया की सबसे अच्छी खुशबू लगती थी और ऑमलेट मेरे लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन डिश हुआ करती थी। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि जो अधिकारी चार छः रुपये के अंडों के लिए अपना दीन ईमान बेच सकता है, उसके ज़मीर की कीमत क्या होगी।) मैं एक बार फिर कबाड़ियों चक्कर में भटक गया। हां तो मैं अपने मच्छी बाज़ार की लोकेशन बता रहा था। बाद में मच्छी बाजार का नाम भी बदल कर अन्सारी मार्ग कर दिया गया था। हमारे घर का पता था 2, अन्सारी मार्ग। मच्छी बाज़ार के दोनों तरफ ढेरों गलियां थीं जिनमें से निकल कर आप कहीं के कहीं जा पहुंचते थे। आस पास कई मौहल्ले थे, डांडीपुर मौहल्ला, लूनिया मौहल्ला, चक्कू मोहल्ला। सारी गरीब लोगों की बेतरतीबी से उगी छोटी छोटी बस्तियां। बिना किसी प्लान या नक्शे के बना दिये गये एक डेढ़ कमरे के घर, जिन पर जिसकी मर्जी आयी, दूसरी मंजिल भी चढ़ा दी गयी थी। कच्ची पक्की गलियां, सडांध मारती गंदी नालियां, हमेशा सूखे या फिर लगातार बहते सरकारी नल। गलियों के पक्के बनने, उनमें नालियां बिछवाने या किसी तरह से एक खम्बा लगवा कर उस पर बल्ब टांग कर गली में रौशनी का सिलसिला शुरू करना इस बात पर निर्भर करता था कि किसी भी चुनाव के समय गली मौहल्ले वाले सारे वोटों के बदले किसी उम्मीदवार से क्या क्या हथिया सकते हैं। (ये बात अलग होती कि ये सब करने और वोटरों के लिए गाड़ियां भिजवाने के बदले उस उम्मीदवार को वादे के अनुसार साठ सत्तर वोटों के बजाये पांच सात वोट भी न मिलते। उस पर तुर्रा यह भी कि अफसोस करने सब पहुंच जाते कि हमने तो भई आप ही को वोट दिया था।)
हमारे घर में लाइट नहीं थी। पड़ोस से तार खींच कर एक बल्ब जलता था। ऐसे ही एक चुनाव में हम गली वाले भी अपनी गली रौशन करवाने मे सफल हो गये थे। चूंकि गली का पहला मोड़ हमारे घर से ही शुरू होता था, इसलिए गली को दोनों तरफ रौशन करने के लिए जो खम्बा लगाया गया था, वह हमारी दीवार पर ही था। इससे गली मे रौशनी तो हुई ही थी, हम लोगों को भी बहुत सुभीता हो गया था। हम भाई बहनों की पढ़ाई इसी बल्ब की बदौलत हुई थी। ये बात अलग है कि हम पहले गली के अंधेरे में जो छोटी मोटी बदमाशियां कर पाते थे, अब इस रौशनी के चलते बंद हो गयी थीं।
इस गली की बात ही निराली थी। हमारे घर के बाहरी सिरे पर पदम सिंह नाम के एक सरदार की दुकान थी जहां चाकू छुरियां तेज करने का काम होता था। कई बार खेती के दूसरे साजो सामान भी धार लगवाने के लिए लाये जाते। ये दुकान एक तरह से हमारे मौहल्ले का सूचना केन्‍द्र थी। यहां पर नवभारत टाइम्स आता था जिसे कोई भी पढ़ सकता था। बीसियों निट्ठले और हमारे जैसे छोकरे बारी बारी से वहां बिछी इकलौती बेंच पर बैठ कर दुनिया जहान की खबरों से वाकिफ होते। जब नवभारत टाइम्स में पाठकों के पत्रों में मेरा पहला पत्र छपा था तो पदमसिंह के बेटे ने मुझे घर से बुला कर ये खबर दी थी और उस दिन दुकान पर आने वाले सभी ग्राहकों और अखबार पढ़ने आने वालों को भी यह पत्र खास तौर पर पढ़वाया गया था। दुकान के पीछे ही गली में पहला घर हमारा ही था। वैसे नवभारत टाइम्स सामने ही चाय वाले मदन के पास भी आता था लेकिन उसकी दुकान में अखबार पढ़ने के लिए चाय मंगवाना ज़रूरी होता जो हम हर बार एफोर्ड नहीं कर पाते थे।
तो उसी पदम सिंह की दुकान के पीछे हमारा घर था। हम छः भाई बहन, माता पिता, दादा या दादी (अगर दादा हमारे पास देहरादून में होते थे तो दादी फरीदाबाद में चाचा लोगों के पास और अगर दादी हमारे पास होतीं तो दादा अपना झोला उठाये फरीदाबाद गये होते), चाचा और बूआ रहते थे।
न केवल हमारा घर उस गली में पहला था बल्कि हम कई मामलों में अपनी गली में दूसरों से आगे थे। वैसे भी उस गली में कूंजड़े, सब्जी वाले, गली गली आवाज मार कर रद्दी सामान खरीदने वाले जैसे लोग ही थे और उनसे हमारा कोई मुकाबला नहीं था सिवाय इसके कि हम एक साथ अलग अलग कारणों से वहां रहने को मजबूर थे। ये सारे के सारे घर पाकिस्तान या अफगानिस्तान से आये शरणार्थियों को दो दो रुपये के मामूली किराये पर अलाट किये गये थे और बाद में उन्हीं किरायेदारों को बेच दिये गये थे। हमारा वाला घर हमारी नानी के भाई का था और जिसे हमारे नाना ने अपने नाम पर खरीद लिया था। अब हम अपने नाना के किरायेदार थे। बेशक पूरे मौहल्ले से हमारा कोई मेल नहीं था फिर भी न तो उनका हमारे बिना गुज़ारा था और न ही हम पास पड़ोस के बिना रह सकते थे। न केवल हमारा घर गली में सबसे पहले था बल्कि हम कई मायनों में अपने मुहल्ले के सभी लोगों और घरों से आगे थे। सिर्फ मेरे पिता, चाचा और बूआ ही सरकारी दफतरों में जाते थे और इस तरह बाहर की और पढ़ी लिखी दुनिया से हमारा साबका सबसे पहले पड़ता था। उन दिनों जितनी भी आधुनिक चीजें बाज़ार में आतीं, सबसे पहले उनका आगमन हमारे ही घर पर होता। प्रेशर कूकर, गैस का चूल्हा, अलार्म घड़ी और रेडियो वगैरह सबसे पहले हम ही ने खरीदे। बाद में ये चीजें धीरे धीरे हर घर में आतीं। हमारी देखा देखी आलू बेचने वाले गणेशे की बीवी ने अलार्म घड़ी खरीदी। इसके बाद से उनके घर के सारे काम अलार्म घड़ी के हिसाब से होने लगे। घर के सारे जन किसी काम के लिए अलार्म लगा कर घड़ी के चारों तरफ बैठ जाते और अलार्म बजने का इंतजार करते। अलार्म बजने पर ही काम शुरू करते। वे हर काम अलार्म लगा कर करते। चाय का अलार्म, सब्जी बनाने का अलार्म, खाना खाने या बनाने का अलार्म।
उस मुहल्ले में हमें दोस्त चुनने की आज़ादी नहीं थी। स्कूल वाले यार दोस्त तो वहीं स्कूल तक ही सीमित रहते, या बाद में कम ही मिल पाते, गुज़ारा हमें अपनी गली में उपलब्ध बच्चों से करना होता। गली में हर उम्र के बच्चे थे और खूब थे। हमारी उम्र के नंदू, गामा, बिल्ला, अट्टू, तो थोड़े बड़े लड़कों में प्रवेश, सुक्खा, मोणा वगैरह थे लेकिन एक बात थी कि हर दौर में अमूमन सभी बड़े लड़के गंदी आदतों में लिप्त थे। पता नहीं कैसे होता था कि चौदह पन्‍द्रह साल के होते न होते नयी उम्र के लड़के भी उनकी संगत में बिगड़ना शुरू कर देते। बड़े लड़के छोटे लड़कों की नेकर में हाथ डालना या उन्हें हस्त मैथुन करने या कराने के लिए उकसाना अपना हक समझते। शुरुआत इसी से होती। बाद में अंधेरे कोनों में अलग अलग कामों की दीक्षा दी जाती। आगरा से छपने वाले साप्ताहिक अखबारों, कोकशास्त्र और मस्तराम की गंदी किताबों का सिलसिला चलता और सोलह सत्रह तक पहुंचते पहुंचते सारे के सारे लड़के इन कामों में प्रवीण हो चुके होते। ये लड़के आस पास के दस मौहल्लों की लड़कियों को गंदी निगाह से ही देखते और उनके साथ सोने के मंसूबे बांधते रहते लेकिन गलत आदतों में पड़े रहने के कारण बुरी तरह से हीन भावना से ग्रस्त होते। वे बेशक अपनी चहेती लड़कियों का पीछा करते रोज़ उनके कॉलेज तक जाते या शोहदों की तरह गली के मोड़ पर खड़े हो कर गंदे फिकरे कसते, लेकिन वही लड़की अगर उनसे बात भी कर ले तो उनकी पैंट गीली हो जाती। मेरी गली का बचपन भी इन्हीं सारी पीढ़ियों के बीच बड़ा होता रहा था। कोई भी अपवाद नहीं था। बचने का तरीका भी नहीं था।
ये तो हुई गली के भीतर की बात, गली के बाहर यानी मच्छी बाज़ार का नज़ारा तो और भी विचित्र था। अगर मोती बाज़ार से स्टेशन वाली सड़क पर जाओ तो मुश्किल से पांच सौ गज की दूरी पर पुलिस थाना था और अगर मच्छी बाजार वाली ही सड़क पर आगे बिंदाल की तरफ निकल जाओ तो हमारे घर से सिर्फ तीन सौ गज की दूरी पर देसी शराब का ठेका था। यही ठेका हमारे पूरे इलाके के चरित्र निर्माण में अहम भूमिका निभाता था। ठेका वैसे तो पूरे शहर का केन्‍द्र था, लेकिन आस पास के कई मौहल्लों की लोकेशन इसी ठेके से बतायी जाती। हमें कई बार बताते हुए भी शरम आती कि हम शराब के ठेके के पास ही रहते हैं। उसके आस पास थे सट्टा, जूआ, कच्ची शराब, दूसरे नशे, गंदी और नंगी गालियां, चाकू बाजी, हर तरह की हरमजदगियां। ये बाय प्राडक्ट थे शराब के ठेके के। शरीफ लड़कियां शर्म के मारे सिर झुकाये वहां से गुज़रतीं। हमारी गली के सामने मदन की चाय की दुकान के साथ एक गंदे से कमरे में अमीरू नाम का बदमाश रहता था। चूंकि उसका अपना कमरा वहां पर था इसलिए वह खुद को इस पूरे इलाके का बादशाह मानता था और धड़ल्ले से कच्ची और नकली दारू के, सट्टे और दूसरे किस्म के नशे के कारोबार करता था। चूंकि ठेके में सिर्फ शराब ही मिलती थी और ठेका खुला होने पर ही मिलती थी, अमीरू का धंधा हर वक्त की शराब और सट्टे के कारण खूब चलता था। वैसे तो हर इलाके के अपने गुंडे थे लेकिन अमीरू का हक मारने दूसरे इलाकों के दादा कई बार आ जाते। एक ऐसा ही दादा था ठाकर। शानदार कपड़े पहने और तिल्लेदार चप्पल पहने वह अपनी एम्बेसेडर में आता। उसके आते ही पूरे मोहल्ले में हंगामा मच जाता। उसके लिए सड़क पर ही एक कुर्सी डाल दी जाती और वह सारे स्थानीय गुर्गों से सट्टे का अपना हिसाब किताब मांगता। शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो कि उसके आने पर मारपीट, गाली गलौज न होती हो और छुटभइये किस्म गुंडे छिपने के लिए हमारी गली में न आते हों। वह अपनी चप्पल निकाल का स्थानीय गुंडों को पीटता और वे चुपचाप पिटते रहते। कई बार चाकू भी चल जाते और कई बार कइयों को पुलिस भी पकड़ कर ले जाती। एक आध दिन शांति रहती और फिर से सारे धंधे शुरू हो जाते। कई बार फकीरू नाम का एक और लम्बा सा गुंडा आ जाता तो ये सारे सीन दुहराये जाते। अमीरू और फकीरू में बिल्कुल नहीं पटती थी, दोनों में खूब झगड़े होते लेकिन दोनों ही ठाकर से खौफ खाते। ज्यादातर झगड़े सट्टे की रकम और दूसरे लेनदेनों को ले कर होते लेकिन किसी को भी पता नहीं था कि कभी कभार हमारी शरारतों के कारण भी उनमें आपस में गलतफहमियां पैदा होती थीं।

दरअसल मामला ये था कि पदम सिंह की दुकान की हमारी गली वाली दीवार में इन्हीं लोगों ने ईंटों में छोटे छोटे छेद कर दिये थे और सट्टा खेलने वाले हमारी गली के अंधेरे में खड़े हो कर और कई बार दिन दहाड़े भी अपने सट्टे का नम्बर एक कागज पर लिख कर अपनी दुअन्नी या चवन्नी उस कागज में लपेट कर इन्हीं छेदों में छुपा जाते और बाद में अमीरू या उसके गुर्गे पैसे और पर्ची ले जाते। हम छुप कर देखते रहते और जैसे ही मौका लगा, कागज और पैसे ले का चम्पत हो जाते। कागज कहीं फेंक देते और पैसों से ऐश करते। हम ये काम हमेशा बहुत डरते डरते करते और किसी को भी राज़दार न बनाते। हो सकता है बाकी लड़के भी यही करते रहे हों और हमें या किसी और को हवा तक न लगी हो।
तय है कि जब मच्छी बाजार है तो मीट, मच्छी, मुर्गे, सूअर और दूसरी तरह के मांस की दूकानें भी बहुत थीं। कुछ छोटे होटल भी थे जो बिरयानी, मछली या मीट के साथ गैर कानूनी तरीके से शराब भी बेचते थे। इन शराबियों में आये दिन झगड़े होते। कुछ ज्यादा बहादुर शराबी सुबह तक नालियों में पड़े नज़र आते।
उन्हीं दिनों ऋषिकेश में आइपीसीएल का बहुत बड़ा कारखाना रूस के सहयोग से बन रहा था। वहां से हफते में एक बार बस शॉपिंग के लिए देहरादून आती तो ढेर सारी मोटी मोटी रूसी महिलाएं स्कर्ट पहले सूअर का मांस खरीदने आतीं। हम उन्हें बहुत हैरानी से खरीदारी करते देखते क्योंकि हमारे बाजार के दुकानदारों को हिन्दी भी ढंग से बोलनी नहीं आती थी और रूसी महिलाओं के साथ उनके लेनदेन कैसे होते होंगे, ये हम सोचते रहते थे। किसी भी तरह के विदेशियों को देखने का ये हमारा पहला मौका था।
मच्छी और मांस बेचने वाले ज्यादातर खटीक और मुसलमान थे। ये लोग आसपास छोटे छोटे दड़बों में रहते थे। इन दड़बों के आगे टाट का परदा लटकता रहता। हम हैरान होते कि इन छोटे छोटे कमरों में इनके बीवी बच्चों का कितना दम घुटता होगा क्योंकि कभी भी किसी ने उनके परिवार के किसी सदस्य को बाहर निकलते कभी नहीं देखा था। ये लोग बेहद गंदे रहते, आपस में लड़ते झगड़ते और मारपीट करते रहते। अक्सर लौंडेबाजी के चक्कर में हमारे ही मौहल्ले के लड़कों की फिराक में रहते। उन्हें दूध जलेबी या इसी तरह की किसी चीज का लालच दे कर अंधेरे कोनों में ले जाने की कोशिश करते या फिर अगर दांव लग जाये तो नाइट शो में फिल्म दिखाने की दावत देते। ऐसे लड़कों पर वे खूब खर्च करने के लिए तैयार रहते लेकिन हमारी गली के सारे के सारे लड़के उनके इस दांव से वाकिफ थे और दूध जलेबी तो आराम से खा लेते या कई बार पिक्चर के टिकट ले कर हॉल तक उनके साथ पहुंच भी जाते लेकिन ऐन वक्त पर किसी लड़के को अपना चाचा नजर आ जाता तो किसी को तेजी से प्रेशर लग जाता और वह फूट निकलता। इन मामलों में हमसे सीनियर लड़का प्रवेश हमारा उस्ताद था। वह ऐसे लोगों को चूना लगाने और फिर ऐन वक्त पर निकल भागने की नई नई तरकीबें हमें बताता रहता था। प्रवेश ने तो उनके पैसों से खरीदी टिकट बाहर आ कर बेच डाली थी और गफूर नाम का कसाई हॉल के अंदर उसकी राह देखता बैठा रहा था। कुछ दिन तो गफूर उसे गालियां देता फिर किसी और लड़के को पटाने की कोशिश करता।
उन्हीं दिनों एक पागल औरत नंगी घूमा करती थी सड़कों पर। किसी ने खाने को कुछ दे दिया तो ठीक वरना मस्त रहती थी। कुछ ही दिनों बाद हमने देखा था कि वह पगली पेट से है। सबने उड़ा दी थी कि ये सब गफूर मियां की दूध जलेबी की मेहरबानी है।
तो ऐसे माहौल में मैंने अपने बचपन के पूरे तेरह बरस बिताये। लगभग पहली कक्षा से लेकर बीए करने तक। साठ के आस पास से तिहत्तर तक का वक्त हमने उन्हीं गलियों, उन्हीं संगी साथियों और उन्हीं कुटिलताओं के बीच गुज़ारा। ऐसा नहीं था कि वहां सब कुछ गलत या खराब ही था। कुछ बेहतर भी था और कुछ बेहतर लोग भी थे जो आगे निकलने, ऊपर उठने की जद्दोजहद में दिन गुजार रहे थे। सबसे बड़ी तकलीफ थी कि किसी के भी पास न तो साधन थे और न ही कोई राह ही सुझाने वाला था। जो था, जैसा था, जितना था, उसी में गुजर बसर करनी थी और कच्चे पक्के ही सही, सपने देखने थे। न कल का सुख भोग पाये थे न आज के हिस्से में सुख था और न ही आने वाले दिन ही किसी तरह की उम्मीद जगाते थे। किसी तरह हाई स्कूल भर कर लो, टाइपिंग क्लास ज्वाइन करो और किसी सरकारी महकमें से चिपक जाओ। इससे ऊँचे सपने देखना किसके बूते में था। कोई भी तो नहीं था जो बताता कि ज्यादा पढ़ा लिखा भी जा सकता है। खुद हमारे घर में हमारे साथ रहने वाले चाचा हमें लगातार पीट पीट कर हमें ढंग का आदमी बनाने की पूरी कोशिश में लगे रहते। हम स्कूल से आये ही होते और गली में किसी चल रहे कंचों का खेल देख रहे होते या कहीं और झुंड बना कर खड़े ही हुए होते कि हमारे चाचा ऑफिस से जल्दी आ कर हमारी ऐसी तैसी करने लग जाते। बिना वजह पिटाई करना वे अपना हक समझते थे। न हम कुछ पढ़ने लायक बन पाये और न ही किसी खेल में ही कुछ करके दिखा पाये। दब्बू के दब्बू बने रह गये।
जहां तक उस माहौल में पढ़ने लिखने का सवाल था, हमारे सामने तीन तरह के, बल्कि वार तरह के रास्ते खुलते थे। हमारी गली के आसपास कई दुकानें थीं जहां फिल्मी पत्रिकाएं और दूसरी किताबें 10 पैसे रोज पर किराये पर मिलती थीं। वहां से हम हर तरह की फिल्मी पत्रिकाएं किराये पर ला कर पढ़ते। गुलशन नंदा, वेद प्रकाश काम्बोज, कर्नल रंजीत और कुछ भी नहीं छूटता था वहां हमारी निगाहों से। उन्हीं दिनों एक आदर्शवादी सरदारजी ने वहीं कबाड़ी बाजार में एक आदर्शवादी वाचनालय खोला और अपने घर की सारी अच्छी अच्छी किताबें वहां ला कर रखीं ताकि लोगों का चरित्र निर्माण हो सके। तब मैं ग्यारहवीं में था। तय हुआ तीस रुपये महीने पर मैं स्कूल से आकर दो तीन घंटे वहां बैठ कर उस लाइब्रेरी का काम देखूं।
भला इस तरह की किताबों से कोई लाइब्रेरी चलती है। मजबूरन उन्हें भी फिल्मी पत्रिकाओं का और चालू किताबों का सहारा लेना पड़ा। वहां तो खूब पढ़ने को मिलतीं हर तरह की किताबें। दिन में तीन तीन किताबें चट कर जाते। ये पुस्तकालय छः महीने में ही दम तोड़ गया। वे बेचारे कब तक जेब से डाल कर किताबें और पत्रिकाएं खरीदते। जबकि मासिक ग्राहक दस भी नहीं बन पाये थे।
स्कूल की लाइब्रेरी में भी हमारे लाइब्रेरियन मंगलाप्रसाद पंत हमें चरित्र निर्माण की ही किताबें पढ़ने के लिए देते। जबकि अपने मोहल्ले की चांडाल चौकड़ी में हम मस्तराम की किताबों और अंगड़ाई तथा आज़ाद लोक जैसी पत्रिकाओं का सामूहिक पाठ कर रहे थे। एक और सोर्स था हमारे पढ़ने का। मैं और मुझसे बड़े भाई महेश स्कूल के पीछे ही बने सार्वजनिक पुस्तकालय में नियमिन रूप से जाते थे और वहां पर चंदामामा, राजा भैय्या, पराग जैसी पत्रिकाओं के आने का बेसब्री से इंतजार करते। हमारी कोशिश होती कि हम सबसे पहले जा कर पत्रिका अपने नाम पर जारी करवायें। वहां जा कर किताबें पढ़ने की हम कभी सोच ही नहीं पाये।
तो इस तरह के जीवन के एकदम विपरीत ध्रुवों वाले माहौल से और बचपन से गुज़रते हुए यह बंदा निकला। कोई दिशा नहीं थी हमारे सामने ओर न कोई दिशा बताने वाला ही था कि ये राह चुनो तो आगे चल कर कुछ कर पाओगे।
तो जो बना वहीं से निकल कर बना और जो नहीं बना, वह भी उसी जगह की वजह से न बना.
आमीन
सूरज प्रकाश
मूल कार्य
· अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992
· हादसों के बीच - उपन्यास 1998
· देस बिराना - उपन्यास 2002
· छूटे हुए घर - कहानी संग्रह 2002
· ज़रा संभल के चलो -व्यंग्य संग्रह - 2002
अंग्रेजी से अनुवाद
· जॉर्ज आर्वेल का उपन्यास एनिमल फार्म
· गैब्रियल गार्सिया मार्खेज के उपन्यास Chronicle of a death foretold का अनुवाद
· ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद
· चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद
· मिलेना (जीवनी) का अनुवाद 2004
· चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद
· इनके अलावा कई विश्व प्रसिद्ध कहानियों के अनुवाद प्रकाशित
गुजराती से अनुवाद
· प्रकाशनो पडछायो (दिनकर जोशी का उपन्यास
· व्यंग्यकार विनोद भट की तीन पुस्तकों का अनुवाद
· गुजराती के महान शिक्षा शास्‍त्री गिजू भाई बधेका की दो पुस्तकों दिवा स्वप्न और मां बाप से का तथा दो सौ बाल कहानियों का अनुवाद
संपादन
· बंबई 1 (बंबई पर आधारित कहानियों का संग्रह)
· कथा लंदन (यूके में लिखी जा रही हिन्दी कहानियों का संग्रह )
· कथा दशक (कथा यूके से सम्मानित 10 रचनाकारों की कहानियों का संग्रह)
सम्मान
· गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान
· महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान
अन्य
· कहानियां विभिन्न संग्रहों में प्रकाशित
· कहानियों के दूसरी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित
· कहानियों का रेडियो पर प्रसारण और
· कहानियों का दूरदर्शन पर प्रदर्शन
कार्यालय में
· पिछले 32 बरस से हिन्दी और अनुवाद से निकट का नाता
· कई राष्ट्रीय स्तर के आयोजन किये
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