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Friday, March 25, 2011

चंडूखाने की

हमारे देहरादून में, खास तौर पर रायपुर गांव की ओर एक मुहावरा है - चंडूखाने की। यह चंडूखाने की हर उस बात के लिए कहा जा सकता है, जिस बात का कोई ओर छोर नहीं होता, वह सच भी हो सकती है और नहीं भी। पर उसकी प्रस्तुत सच की तरह ही होती है। एक और बात- वैसे तो "चंडूखाने की" यह विशेषण जब किसी कही गयी बात को मिल रहा होता है तो उसका मतलब बहुत साफ साफ होता है कि बात में दम है। चंडूखाने की मतलब कोई ऎसी बात जो किसी बीती घटना के बारे में भी हो सकती है। पर ज्यादतर इसका संबध भविष्यवाणी के तौर पर होता है या फिर ऎसा जानिये कि इतिहास में घटी किसी घटना का वो संस्करण जिसे प्रस्तुत करने की जरूरत ही इसलिए पड़ रही है कि वह निकट भविष्य का कोई गहरा राज खोल सकती है।  मैं कई बार सोचता रहा कि यह मुहावरा देहरादून और खासतौर पर रायपुर गांव के निवासियों की जुबा में इतना आम क्यों है, जबकि आस पास भी कोई चंडू खाना मेरी जानकारी में तो नहीं  ही है।
जहां तक जानकारी है चंडूखाना नशाखोरी की एक ऎसी जगह होती है जहां गुड़्गुड़ाते नशे को पाइप के जरिये वैसे ही पिया जाता है जैसे हुक्के को। पर हुक्के में सिर्फ़ एक पाइप होता है लेकिन चंडूखाने में कई पाइप बाहर को निकले होते हैं, ( यानी एक बड़ा हुक्का) जिसे एक साथ गुड़्गुड़ाते हुए हल्के हल्के चढ़्ते नशे की स्थिति में बातों का सिलसिला जारी रहता है।  हुक्का इतिहास की सी चीज हुआ जा रहा है। हुक्के का जिक्र मैं यहां इसलिए नहीं कर रहा कि मुझे चंडूखाने की हांकनी है कि बहुत सी पुरानी चीजें, जिनकी उपस्थिति समाज के सांस्क्रतिक मिजाज का हिस्सा होती थी, बहुत तेजी से गायब हो रही है और इस तरह से उनकों अपदस्थ करते हुए जो कुछ आ रहा है वह भी एक संस्क्रति को जन्म दे रहा है। मैं तो सचमुच बताना ही चाह रहा हूं कि सामूहिकता की प्रतीक हर जरूरी चीज के गायब कर दिये जाने की एक ऎसी मुहिम चारॊं ओर है कि यह समझना मुश्किल हो जाता है कि गायब हो गई चीज क्या सचमुच अप्रसांगिक हो गई थी या कुछ ओर ही बात है।
चलिए छोड़िये---यह बताइये कि दुनिया के तेल कुओं पर किये जा रहे कब्जे की बात करें या क्रिकेट वर्ल्ड कप के बारे में बतियायें ?
वैसे खबर है कि गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टीवल में जफ़र पनाही का जिक्र हो रहा है। जफ़र पनाही तो ईरानी है, फ़िर उनके नाम के साथ लीबिया, लीबिया क्यों सुना जा रहा है। वे तो बम भी नहीं बनाते, फ़िल्म बनाते हैं- जरूर कोई चंडू खाने की उड़ा रहा है कि जफ़र पनाही, माजिदी, बामन गोबाडी और बहुत से ऎसे लोग हैं इस दुनिया में, जिन्हें जोर जबरद्स्ती किये जा रहे आक्रमणों के  प्रतिरोध का प्रतीक माना जा सकता है और दुनिया उनसे ताकत हासिल करती है। आप ही बताइए क्या इक्के दुक्के ऎसे लोगों की कार्रवाई से कुछ होता हवाता है भला। अब गोरखपुर में बेशक यह छठा फ़िल्म समारोह हो, उससे कुछ हुआ ?  चंडूखाने की उड़ाने वाले तो उड़ाते रहते हैं जी कि प्रतिरोध की कोई बड़ी मुहिम बहुत छोटी छोटी गतिविधियों की सिलसिलेवार उपस्थिति से भी जन्म लेती है।


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