Showing posts with label फ़िल्म समीक्षा. Show all posts
Showing posts with label फ़िल्म समीक्षा. Show all posts

Tuesday, May 26, 2020

अगर धीमे बोलना है तो व्हिस्पर की सीमा क्या होनी चाहिये


 इरफान खान को गए तकरीबन 1 महीने बीत चुके हैं। इरफान खान की 53 वर्ष की उम्र में कोलोन संक्रमण से 29 अप्रैल 2020 को मृत्यु हो गई ।
गार्जियन के पीटर ब्रेड ने इरफान खान के बारे में लिखा है
'a distinguished characteristic star in Hindi and English language movies whose hardworking career was an enormously valuable bridge between South Asia and Hollywood cinema'.
इरफान खान ने 30 से ज्यादा फिल्मों में काम किया उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत टीवी सीरियल चंद्रकांता , भारत एक खोज , बनेगी अपनी बात जैसे सीरियल से की ।उन्होंने ने हासिल, सलाम बॉम्बे (1988), मकबूल (2004), वारियर, रोग् जैसी फिल्मों में काम किया। हासिल फिल्म के लिए उन्हें फिल्म फेयर में सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार भी मिला। 30 वर्ष के अरसे में उन्हें नेशनल फिल्म अवार्ड ,एशियन फिल्म अवार्ड, 4 फिल्म फेयर अवार्ड तथा एशियन फिल्म अवार्ड मिले। 2011 मे उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
सलाम बॉम्बे उन्होंने 1988 में की इसके बाद उन्हें कई वर्षों का कड़ा संघर्ष करना पड़ा। वास्तव में यह समय उनके करियर का सबसे कठिन समय था उनके जवानी के फॉर्मेटिव ईयर्स इस संघर्ष के दौरान जाया हो गए ,वरना शायद उनका योगदान फिल्मों में कहीं ज्यादा होता।
2003 में हासिल और 2004 में मकबूल से उन्हें ब्रेक मिला ।नेम सेक (2006), लाइफ इन ए मेट्रो (2007 )और पान सिंह तोमर (2011) उनकी बेहतरीन फिल्मों में थी। लंच बॉक्स (2013 ),पीकू (2011), तलवार (2015 )की सफलता ने उन्हें फिल्म जगत की ऊंचाइयों पर पहुंचाया। कुछ हॉलीवुड की फिल्मों में उन्होंने सपोर्टिंग एक्टर का रोल भी सफलतापूर्वक किया ।इनमें अमेजिंग स्पाइडर मैन (2012), लाइफ ऑफ पाई (2012), स्लमडॉग मिलेनियर (2008 )आदि शामिल है। उनकी सबसे ज्यादा बॉक्स ऑफिस पर कमाई करने वाली फिल्म हिंदी मीडियम 2017 में रिलीज़ हुई, जिसमें उन्हें बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। उनकी अंतिम फिल्म अंग्रेजी मीडियम थी जो कि हिंदी मीडियम का सीक्वल थे।


चंद्रनाथ मिश्रा

चंद्रनाथ मिश्रा


यूं तो इरफान खान की हर फिल्म की अपनी विशेषता है लेकिन "मकबूल" और "पान सिंह तोमर", जिनमें इरफान ऊर्जा से भरे दिखते हैं उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
पान सिंह तोमर फिल्म के निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ने एक इंटरव्यू के दौरान इरफान को याद करते हुए कहा है कि आज की तारीख तक, इरफान खान से बड़ा एक्टर हिंदुस्तान में कोई नहीं हुआ ।
तिग्मांशु धूलिया द्वारा निर्देशित इस फिल्म में ,तिग्मांशु का बैंडिट क्वीन में कास्टिंग डायरेक्टर होने का अनुभव ,चंबल के बीहड़ों की परिस्थितियों को समझने में बहुत सहायक रहा होगा। यह सूबेदार पान सिंह तोमर की बॉयोपिक है। वे एक फौजी एथलीट है। जिन्होंने 7 बार स्टेपल चेस बाधा दौड़ में राष्ट्रीय चैंपियनशिप जीती थी ।1952 के एशियाई खेलों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। नौकरी खत्म कर जब वह घर आए तो परिवार के लोगों द्वारा जमीन के विवाद को लेकर उन्हें और उनके परिवार को सताया और दबाया गया । परिणाम स्वरूप एक दिन वह बागी बनने पर मजबूर हो गए । वे बाद मे पुलिस मुठभेड़ में मारे गए।
इस बायोपिक में इरफान खान ने पान सिंह का किरदार निभाया है।एक फौजी से बागी बनने के संक्रमण की पीड़ा का निरूपण जिस खूबी से इरफान ने किया है वह उनके अंदर के महान अभिनेता की झलक दिखाती है ।हथियार उठाने से पहले उनका अपने आप से संघर्ष और एक बार निर्णय लेने के बाद उनके दृढ़ता का प्रदर्शन अद्भुत है। फौज के अनुशासन का इस्तेमाल करते हुए अपने साथियों को फौजी तौर तरीके से पुलिस के साथ संघर्ष करने के लिए तैयार करना उन्होंने अत्यंत स्वाभाविक ढंग से अभिनीत किया है । यह संक्रमण कहीं आकस्मिक नहीं लगता। बीहड़ के खुरदुरी जिंदगी के बीच अपनी पत्नी से उनका संबंध और उनके प्रेम की कोमलता उनके अंदर छिपे हुए संवेदनशील मनुष्य का परिचय देती है ।पूरी फिल्म में उनका understated अभिनय कमाल का प्रभाव छोड़ता है। कम से कम डायलॉग से अधिक से अधिक संप्रेषण की उनकी क्षमता को उजागर करता है ।डाकू की भूमिका में भी उनका फौजी व्यक्तित्व अपनी धार नहीं छोड़ता। उनके फौजी व्यक्तित्व के मूल लक्षणों की निरंतरता पूरी फिल्म में बरकरार है।अपने किरदार में वह इस तरह घुले मिले हैं कि कई जगह उनके डायलॉग स्वगत भाषण जैसे लगते हैं ।जैसे अपने अंदर पैवस्त पानसिंह तोमर के उदगारों को शब्द दे रहें हों। सूबेदार पान सिंह तोमर जैसे भी रहे हो लेकिन हम जब भी उनके बारे में सोचेंगे या बात करेंगे तो इरफान खान का चेहरा ही हमारे सामने होगा शायद एक अभिनेता की यही सबसे बड़ी सफलता है।

मकबूल विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित वार्ड की मैकबेथ से प्रभावित फिल्म है । लेकिन इसमें घटित घटनाएं तथा उनके सीक्वेंस मौलिक नाटक से भिन्न तथा भारतीय परिपेक्ष में गढ़े गए हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि तुलनात्मक रूप से मैकबेथ को डाउनसाइज करके इस फिल्म को बनाया गया है।यद्यपि नाटक की मूल आत्मा वही है जो मैकबेथ की है। अच्छाई और बुराई का संघर्ष, अंतरात्मा का द्वंद और मानवीय संबंधों का ताना-बाना, वफादारी और बेवफाई का अंतर्द्वंद और अंत मे पोएटिक जस्टिस याने बुरे का अंत। सभी कुछ मैकबेथ की स्प्रिट के अनुकूल ही है। मकबूल का किरदार इरफान खान ने बड़े subdude तरीके से निभाया है। वह कहीं भी लाउड नहीं लगते, जबकि वे एक अंडरवर्ल्ड डॉन, अब्बा जी (पंकज कपूर) के सबसे वफादार लेफ्टिनेंट है। तब्बू ने अब्बा जी की बेगम का रोल किया है ।तब्बू अब्बा जी से उम्र में बहुत छोटी है ।उनकी जवानी अब्बा जी के बुढ़ापे की हदों को पार करने के लिए बेताब हैं ।मकबूल मियां बेगम की नजरों में हीरो है। मकबूल भी दिल ही दिल में बेगम जान की ओर आकर्षित है। फिर शुरू होता है राजा के ख़िलाफ़ रानी का षड्यंत्र जो मैकबेथ से लिया गया है। फिल्म में राजा अब्बा मियां है रानी बेगम तब्बू हैं और मकबूल (इरफान खान )एक मुहरे हैं और बेगम के दिल अजीज भी । एक तरफ मकबूल की वफादारी है दूसरी तरफ उनकी महत्वाकांक्षा और बेगम के लिए मोहब्बत, जिसका इज़हार करना भी शुरू में उनके लिए बहुत मुश्किल है। इस इमोशनल ट्रॉमा और इसके फलस्वरूप किरदार के 'बिहेवियर पैटर्न ' को इरफान खान ने जिस तरह बखूबी से निभाया है देखते ही बनता है । उनके जिगर में जैसे हमेशा एक आग जलती रहती है जो उनकी आत्मा को खोखला करती रहती है।इस पूरे सिनेरियो को इतने understated और restrained तरीके से उन्होंने अभिनय के माध्यम से अंजाम दिया है कि वह किसी प्रशंसा से परे है। इसमें असली घटनाओं के बजाय nuances पर जोर दिया गया है। इसलिए मक़बूल का किरदार और मुश्किल बन जाता है ।उन्हें सब कुछ घटनाओं के नही बल्कि नुआन्सेस के माध्यम से ही संप्रेषित करना है ।असली घटनाएं तो दर्शकों को एक भ्रष्ट ज्योतिष पुलिस वाले (ओम पुरी )के माध्यम से पता लग ही है। इरफान खान का अभिनय एक तरफ एक पैशनेट लवर और दूसरी तरफ एक अंडरवर्ल्ड डॉन का है । इन दोनों ही किरदारों में चलती रहती है conscience की लड़ाई और मकबूल का विघटित होता हुआ स्व:। अंत में जब दुनिया को छोड़ने का वक्त आता है, तब न तो बेगम है ,न राजा है , न असला है ना बारूद। इस अंत समय मे जो निःस्पृह उदासीनता उनके चेहरे पर बिना कोई डायलॉग बोले दिखाई देती है वह अतुलनीय है। ये केवल नियति के आगे आत्मसमपर्ण नही है बल्कि दुनियाबी तिलस्म और जीवन रूपी भीषण त्रासदी से आजाद होने का एहसासे सुकून भी है।

उनके अभिनय प्रतिभा से इन फिल्मो को क्लासिकल की ऊंचाइयों में तब्दील करने की क्षमता स्पष्ट दिखती है। सिनेमा के भाषा की समझ उनके अभिनय में अंतर्निहित है ।अभिनय करते समय उनका संयम उनका सधा हुआ अंदाज ,संवादों की अदायगी में अनुशासन उनकी अभिनय के मूल भाव है। संवाद बोलने की उन्हें कोई जल्दबाजी नहीं होती संवाद पहले उनकी बॉडी लैंग्वेज और फिर उनकी आंखों के माध्यम से आते हैं । संवाद बोलने के लिए उनका ध्वनि और प्रवाह कमाल का है । बात लाउड होकर कहनी है तो कितनी ऊंची पिच में बोलना है अगर धीमे बोलना है तो व्हिस्पर की सीमा क्या होनी चाहिये। अगर मुस्कान से काम चल जाए तो ठहाका मार कर हंसने की क्या जरूरत । ये सब वे खुद तय करते हैं। वह कभी पूरी तरह निर्देशक पर निर्भर नजर नहीं आते बल्कि अपनी तैयारी खुद करते हुए प्रतीत होते हैं।
इरफान खान वास्तव में अपने समय से आगे थे लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें अपने समय से भी पहले जाना पड़ा। निश्चित रूप से उनका सर्वोत्तम अभी आना बाकी था।      

Friday, May 22, 2020

तितलियों का प्रारब्ध

हिदी साहित्य की दुनिया में समीक्षातमक टिप्पणी को भी आलोचना मान लेना बहुप्रचलित व्यवहार है। इसकी वजह से आलोचना जो भी व्यवस्थित स्वरूप दिखता है, वह बहुत सीमित है। दूसरी ओर यह भी हुआ है कि समीक्षा के नाम पर वे विज्ञापनी जानकारियां जिन्हें पुस्तक व्यवसाय का अंग होना चाहिए, रचनात्मक लेखन के दायरे में गिना जाती है।
समीक्षा के क्षेत्र में इधर लगातार दिखाई दे रहे चन्द्रनाथ मिश्रा की उपस्थिति और उनकी लिखी समीक्षाएं आलोचनात्मक टिप्पणियों की बानगी बन रही है।
लेखिका श्रीमती नयनतारा सहगल के रचनात्मक साहित्य पर चन्द्रनाथ मिश्रा की लिखी समीक्षात्मक टिप्पणिया यहां चन्द्रनाथ मिश्रा से गुजारिश करते हुए इसी आशय के साथ प्रस्तुत हैं कि जिस शिद्दत के साथ वे फेसबुक पर लिख रहे हैं, उसी ऊर्जा के साथ साहित्य की दुनिया में पत्र पत्रिकाओं के जरिये भी अपनी दखल के लिए मन बनाएं। यह ब्लॉग उनकी ताजा टिप्पणी को यहां प्रस्तुत करते हुए अपने को समृद्ध कर रहा है।

वि गौ





अपने जीवन के 92 वे वर्ष में नयन तारा सेहगल उतनी ही सटीक, प्रभावशाली एवं राजनीतिक तौर पर मुखर हैं जितना वे अपने लेखन के प्रारम्भिक दिनों में जब उन्होंने Rich like us,(1985), Plans for departure (1985), Mistaken identity (1988) और Lesser Breeds(2003) आदि पुस्तकें लिखी थीं। वे PUCL (people's union  for civil liberties) की  Vice President की हैसियत से वैचारिक स्वतन्त्रता एवं प्रजातांत्रिक अधिकारो पर हो रहे प्रहारों के विरोध में सतत लिखति और बोलती रहीं। उन्हें साहित्य अकादमी, सिंक्लेयर प्राइस तथा कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज से नवाजा गया है।
फेट ऑफ बटरफ्लाईज़ पाँच छह लोगों की जिंदगी कि कहानी है जो ऐसे वक्त से गुज़र रहे हैं जो हमारा और हमारे देश का  ही वर्तमान है।ऐसा दौर जिसमे साम्प्रदयिक दंगो, लिँग औऱ  जाती के आधार पर भेद भाव  तथा राजनीति में घोर दक्षिण पन्थ  का बोलबाला है।इन लोंगो की नियति विभिन्न देश काल मे रहते हुए भी कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़ी है। फेट ऑफ बटरफ्लाई इन चरित्रों के जीवन पर  पड़ने वाले तत्कालीन राजनैतिक सामाजिक प्रभावो की कहानी है जिसने परिस्थितिजन्य कारणों से उनके जीवन को असीम दुख और विषाद से भर दिया। ये कहानी है सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी कैटरीना की  जिसका क्रूर  सामूहिक बलात्कार हुआ । जिस गांव में वह मदद के लिए गयी थी वहां के लोगों को उनके घरोँ में जिंदा जला दिया गया। ये कहानी है समलैंगिक युगल प्रह्लाद और फ्रैंकोइस की जिन्हे बुरी तरह पीटा गया और जिनका बुटिक होटल   दंगाइयों द्वारा मलवे के ढेर में बदल दिया गया। प्रह्लाद जो एक अच्छा नर्तक था अब कभी नही नाच सकेगा। लेकिन इस सब त्रासदियों के  बावजूद  ये महज़ नाउम्मीदी की दास्ताँन न होकर कही न कही जिंदगी में ख़ुसी औऱ जीने की छोटी से छोटी वजह  ढूंढ लेने की कामयाब कोशिस की भी कहानी है।
चूंकि उपन्यास मूल रूप से संकछिप्त है इसलिए संभवतः कथानक में  बहुत सी परतें मुमकिन नहीं थी। लेकिन विशेष परिस्थितियों की संरचना, समय का  चित्रण,  चरित्र विशेष की अंतर्दृष्टि, या भविष्य की  हृदयहीनता का पूर्वानुमान बखूबी घटनाओं व पत्रों के  माध्यम से दर्षित है।
प्रभाकर जो राजनीति शास्त्र का प्रोफेसर है एक दिन चौराहे पर एक नग्न शव देखता है, जिसके सिर पर केवल एक शिरस्त्राण है।
इसके कुछ दिनों बाद वह कैटरीना पर हुए सामूहिक बलात्कार की कहानी ,उसि के मुह से ,एक सादे और संवेग हीन बयान के रूप में सुनता है।  कैटरीना पर बीते हुए कल का प्रभाव इतना गहन है कि प्रभाकर के हाथ का हल्का सा स्पर्ष भी कैटरीना को आतंक से भर देता है।  वह एक नर्सरी स्कूल में जाता है जहां उसे बताया जाता कि किस प्रकार  कुछ अन्य स्कूलों में तितलियों को मार कर उन्हें बोर्ड में पिन से लगाकर रखा जाता है । प्रभाकर ऐसी बहुत सी  घटनाओ को देखता, सुनता और उनसे  प्रभावित होता है। वह अपने प्रिय रेस्टोरेंट बोंज़ूर को दंगाइयों द्वारा तवाह होते हुए देखता है, जहां उसकी प्रिय डिश गूलर कबाब पेश की जाती थी, जो रफीक़ मियां बनाया करते थे।
इन सब दृश्यों और घटनाओं से ऊपर मीराजकर जो एक राजीतिक नीति निर्देशक हैं। वह देश को उन सब तत्वों और प्रभाबो से मुक्त करना चाहतें हैं जो उनके अनुसार देश की तथाकथित सभ्यता औऱ संस्कृती से मेल नही खाते।जाहिर है  इस सभ्यता और संस्कृति की  परिभाषा और ब्यख्या  मीराजकर और उनके पार्टी  के लोग अपनी तरह से करते हैं। हिटलर के extermination की अवधारणा संभवतः इसी सोच का तार्किक विस्तार था।
प्रभाकर अपनी पुस्तक के कारण इन दक्षिणपंथी चिन्तको का ध्यान आकर्षित करता है। इस पुस्तक के माध्यम से वह राष्ट्र के लिए एक नई शुरूआत की परिकल्पना रखता है। उदाहरण के लिए वह गांधी की विशाल  छाया से देश को बाहर निकालने की कल्पना करता है। यद्दपि प्रभाकर किसी विचारधारा या सिद्धान्त से  प्रतिबद्ध नही होना चाहता यथापि परिस्थितिबस उसे एक ऐसे समारोह में जाना पड़ता है जहा राजनीतिक लोगों का जमावड़ा है जो सत्ता के केन्द्रीयकरण के घोर समर्थक हैं। एक भव्य हॉल में महँगी शराब और उत्कृष्ठ देसी विदेशी व्यंजनों का स्वाद चखते हुए  प्रभाकर जो कि एक मजदूर का बेटा तथा पादरियों द्वारा पाला हुआ था , औऱ एक गहन त्रासदी भरा बचपन बहुत पीछे छोड़कर आया था, स्वयम को ऐसे पुरोधाओं में बीच पाता है जो यूरोपियन महाद्वीप में दक्षिणपंथ के उत्थान का ऊत्सव मनाने को एकत्र हुए है। यहाँ प्रभाकर की तुलना वज्ञानिक फ्रेंकएस्टिन से की जाती है ,जिसने ऐसे राक्षस को पैदा किया जिसने विस्व में तवाही मचा दी।
प्रभाकर अपनी पुस्तक में इस थियोरी को प्रतिपादित करता है की अंतिम प्रभाव उनका नही होता जो अच्छाई, सदभाव व करूणा की बात करते हैं बल्कि  'matter of factness of cruelty'  (क्रूरता के वास्तविक प्रभाव)का होता है।
सर्जेई एक हथियार का व्यापारी है। उसका व्यापार भारत मे है। जो उसे पिता से विरासत में मिला है। हथियार के व्यापार को लेकर उसकी दुविधा का चित्रण
उल्लेखनीय है।

ये सारे क़िरदार एक बदलते हुए भारत के परिवेस में अपने अपने तरीके से अवतरित होते हैं।
उनकी जिंदगी कंही 'काऊ कमिशन'जो कि गो-माँस खाने वालों के उन्मूलन के लिए प्रयासरत है, से भी प्रभावित है। तथाकथित बुद्धिजीवी जो इतिहास का पुनर्लेखन व विश्लेषण  अपने एजेंडा और स्वार्थ के लिए कर रहे है, अपने अपने तरीके से सामने आते है।
पुस्तक की संकछिप्तता के कारण कई प्रसंगों के कल्पना की व्यापकता नियंत्रित लगती है। भाषा पर नयनतारा सहगल का अद्भुत नियंत्रण एवं इतिहास का विषद ज्ञान पुस्तक में  हर जगह परिलक्षित है। देस विदेश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सन्दर्भ लेखिका के विस्तृत ज्ञान और उनके लेखन के विस्तार का होराइजन दर्शाते है। उपन्यास  की भावप्रवणता  दुरदमनिय  है जहां जीवन की तमाम त्रासदियों और विसंगतियों के बावजूद अच्छे भविष्य का सपना कहीं ना कहीं झलकता रहता है।  मानवता कितनी भी अधोगामी हो जाए, चांदनी रात में नृत्य की अभिलाषा पूरी तरह कभी दमित नहीं होती।




    
             

Sunday, July 22, 2018

जब रात है ऐसी मतवाली फिर सुबह का आलम क्या होगा


डा. रश्मि रावत


यह दुनिया जिसमें जो कुछ भी हलचल भरा है, वह पुरुषों की उपस्थिति से ही गुंजायमान दिखायी देता है। यहां तक कि दोस्तियों के किस्‍से भी। स्त्रियों की निरंतर, अबाधित, बेशर्त दोस्तियों के नमूने तो नजर ही नहीं आते, जहाँ वे एक-दूसरे के साथ जो चाहे सो कर सकें और कोई न उंगली उठाए और न बीच में आए बिना ऊँच-नीच सोचे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागिता कर सकें। सहेलियाँ ही नहीं, एक ही घर में पलने वाली बहनें भी शादी के बाद अलग-अलग किनारों पर जा लगती हैं और नई व्यवस्था से ही खुद को परिभाषित करती हैं। खुद अपनी ही पहली पहचान से एक किस्म का बेगानापन उनकी वर्तमान जिन्‍दगी का भारतीय परिवेश है। इसलिए विवाहित बहनें भी खुद को एक धरातल पर नहीं पातीं हैं। अपनेपन का, परस्परता का वह प्यारा सा साथ जो पिता के घर में मिलता रहा, प्रायः एक औपचारिक रिश्तेदारी में बदल जाता है। हाल ही में रिलीज हुई शंशाक घोष निर्देशित वीरे दि वैडिंग बॉलीवुड मुख्यधारा की सम्भवतः ऐसी ही पहली फिल्म है जो इन स्थितियों से अलग, बल्कि विपरीत वातावरण रचती है।  

फिल्‍म की चार सखियों के बीच बड़ी गहरी बॉंडिंग है। आपस में उन्मुक्त भाव से दुनिया से बेपरवाह हो कर ये सहेलियाँ मौज-मस्ती और मनमर्जियाँ करती हैं। फिल्म के नाम से ही जाहिर है कि इन मनमर्जियों में स्त्री-मन की अद्वितीयता और गहरी परतें नहीं मिलेंगी। बचपन से एक-दूसरे की मनमीत ये सखियाँ छाती ठोक कर अपने को वीरे जो कहती हैं। जीवन-भर साथ चलने वाले ऐसे गहरे याराने पुरुषों के बीच तो आम हैं और घर-परिवार-समाज में इस कदर स्वीकृत कि दोस्तों के बीच कोई नहीं आता। पुरूषों की दुनिया के ये दोस्ताने तो ऐसे सम्बंध तक स्‍वीकृत रहते हैं कि कई बार परिवार के दायरे तक पहुंच जाते हैं। सवाल है कि अटूट यारानों का बिन दरो-दीवार का ऐसा जीवंत परिवार क्या स्त्रियाँ नहीं बना सकतीं?


फिल्‍म में महानगर की चार आधुनिक स्त्रियाँ ऐसा खुला परिवार रचने की यात्रा पर जब निकलीं तो खुद को वीरे मान लेती हैं। वे नाम-मात्र की वीरे नहीं हैं, हर सुख-दुख में, रस्मों-रिवाजों के मॉडर्न रूपों को निभाने में एक-दूसरे के साथ खड़ी हैं। फिल्‍म में गाना बजता है-कन्यादान करेगा वीरा/मत बुलवाना डैडी। वीरा पूछ्यां क्या शादी का मीनिंग/ मैं क्या बेटा जेल हो गई।

दिक्‍कत यही है कि फिल्‍म इस तरह का सवाल खड़ा नहीं करती है कि कन्या क्या वस्तु है जिसे दान में दिया जा सकता है ? कन्यादान भी दोस्तों से ही करवा लेना चाहती हैं वे। कन्यादान की परम्परा की तह में जा कर सोचने के लिए फिल्म कोई राह नहीं बनाती है। अतः जिन प्रश्नों को इसमें उठाया गया है, वे स्त्रीत्व के विकास में क्या और कैसे जोड़ते हैं, इस पर चर्चा जरूरी हो जाती है।

स्त्रियों की आजादी में सबसे बड़ी बाधा सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जड़ें जमाए उसके संस्कार ही बनते हैं और ये बाधक समाज फिल्म में लगभग गायब सा है। चारों कथा पात्र ऐसे किसी भी सवाल कम से कम टकराती तो नहीं ही हैं।

मीरा सूद (शिखा तलसानिया) अमरीकन पुरुष से प्रेम विवाह करके एक बच्चे की माँ भी बन चुकी है। यह विदेशी पुरुष सत्तात्मक रोग से मुक्त है उसके भरोसे बच्चा छोड़ कर न केवल दोस्तों के साथ मौज की जा सकती है, वह एक संवेदनशील, समर्पित पति भी है। फिल्‍म में दिखाये गए इस संबंध को इस तरह भी व्‍याख्‍यायित किया जा सकता है कि शायद ऐसा भारतीय पति पाना मुश्किल रहा होगा तो मीरा के दिल के तार देश की सीमा को पार करके विदेशी धरती से जुड़े दिखाए गए हैं। जैसे-तैसे अल्हड़, स्वच्छंद याराना के बीच आ सकने वाली किसी भी अड़चन को काँट-छाँट दिया गया है कि सिर्फ इन चार महानगरीय बालाओं के आपसी खिलंदड़पने पर नजर रहे। इस तरह उन्मुक्त, बिना विचारे जिंदगी का लुत्फ लेते रहने से तो गलतियाँ होना लाजमी है। गलतियाँ होती हैं तो हों। यह तो टेक ही है फिल्म की। गाने में भी इस आशय की बात है।

कालिंदी पुरी (करीना कपूर), जिसकी वैडिंग के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है, उसकी माँ की भी यही सीख है कि बड़ों के लिए बाद में जो गलत साबित हो गया, उसे अपने लिए गलत मान कर जीना मत छोड़ देना। जो भी तुम्हें मन करे, सही लगे जरूर करना। तुम अपनी गलतियों से सीखना। स्त्री को भी प्रयोग करने का अधिकार है। गलती के डर से जिंदगी का अनुभव कोष खाली रखने के फिल्म सख्त खिलाफ है। यह फलसफा इसकी ताकत है। अपने आवेगों के प्रति ईमानदार रह क ही व्यक्ति समृद्ध होता है और समय के साथ परिपक्व होता है। गिरने के डर से सुरक्षा की खोल में दुबके रहने से जिंदगी की घुड़सवारी कैसे होगी। पर जीवन में सक्रिय हस्तक्षेप का संदेश उतनी खूबसूरती से संप्रेषित नहीं हो पाता। क्योंकि स्त्री देह पौरुष साँचे में ढल कर आई है। एक-दूसरे को  ब्रो(BRO)’ कहने वाले महानगरीय दोस्त जो-जो करते हैं, इन चारों आधुनिक स्त्रियों को सब कुछ वही-वही करना है। घटाघट पीना है, सिगरेट के धुँए उड़ाते जाना है, इरोटिक बातें, गाली-गलौज करनी हैं। किसी भी बात पर ठहर कर सोचे बिना उसे हँसी-मजाक, छेड़-छाड़ में उड़ा देना है। बारहवीं क्लास का अंतिम दिन शैंपेन पीते हुए ब्वाय फ्रैंड, सैक्स की बात करते हुए जिसतरह बिताते हैं। दस वर्ष की छलाँग के बाद जब कालिंदी की शादी के लिए दोबारा मिलते हैं, तब भी बातों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं दिखता। आवेगों और गलतियों से सीखने के लिए तो गलतियाँ और आवेग खुद के होने चाहिए। फिल्म के मिजाज को देखते हुए सामाजिक भूमिका को नजरअंदाज कर भी दिया जाए तो भी देह की संरचना बदलने से भी बहुत कुछ बदल जाता है। दिल चाहता है और जिंदगी न मिलेगी दोबारा फिल्मों में भी अलमस्त दोस्ती की मौज-मस्तियाँ हैं। उन्हीं मौजों में वे परिपक्व होते जाते हैं। कॉलेज के समय के अल्हड़ नवयुवक आगे चल कर जिम्मेदार, समझदार व्यक्ति में तब्दील होते हैं। जिंदगी न मिलेगी दोबारामें एक-दूसरे को उनके मन में बसे डर और बंधनों से मुक्त करने में तीनों दोस्त मददगार साबित होते हैं।वीरे दि वैडिंग में उम्र के साथ व्यक्तित्व में ऐसा उठान तो नहीं दिखता पर दुनिया में हर हाल में अपने साथ खड़े, बेशर्त स्वीकार करने वाले चंद लोगों के साथ होने का आत्मविश्वास लगातार जीवंतता को बनाए रखने और अपनी-अपनी कैद से मुक्त होने की राह जरूर बनाता है।

सगाई की पार्टी में चारों अपनी-अपनी उलझनों में इस कदर घिरी हुई हैं कि सब अपने-अपने द्वीप में कैद सी हो जाती हैं। दुनिया के सरोकारों से तो पहले ही कटे हुए से थे चारों। निजी समस्या के बढ़ने पर एक-दूसरे से भी कट जाती हैं। सच्चे दोस्त नजर नहीं आ रहे थे और फॉर्म हाउस में तड़क-भड़क, शोर-शराबे में होने वाली बेहद खर्चीली झूठे दिखावे वाली सगाई में अकेली पड़ कर दुल्हन को एहसास होता है कि उसे दिखावे के लिए शादी नहीं करनी और वह भाग जाती है और फिर एक-दूसरे की गलतियों के हवाले दे-दे कर थोड़ी देर चीखना-चिल्लाना, रूठना होता है। इस अवरोध को तोड़ता है करोड़पति बाप की बेटी साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर) का फोन और चारों निकल पड़ती है फुकेत में गलैमर से भरपूर मौज-मस्ती करने। फिल्म की कहानी के झोल कोई क्या देखे। स्त्रियों के लिए तो मात्र इतनी सी बात काफी रोमांच से भरी है कि एक सबके लिए दिल खोल कर खर्च करे और बाकि बेझिझक स्वीकार करके अकुंठ भाव से छोड़ दें खुद को जिंदगी के बहाव में। वहाँ झकास जगहों पर घूमते-फिरते-तैरते-खाते-पीते, हँसते-गपियाते अपनी वह बातें इतने सहज भाव से एक-दूसरे से बोल देती हैं, जिसने उन्हें भीतर ही भीतर अपनी गिरफ्त में लिया हुआ था। कोई किसी के लिए कभी जजमेंटल नहीं होता। हास-परिहास करते हैं, खुलेपन चुहल और छेड़-छाड़ करते हैं। किसी को कभी किसी भी दूसरे की बात इतनी गम्भीर, इतनी बोझिल नहीं लगती जिसके साथ जिया न जा सके। एक साथ बोलने-बतियाने भर से गाँठें खुल-खुल जाती हैं। एक दूसरे से दूर होने पर जिसे बोझ की तरह छाती पर ढो रहे थे। एक धरातल पर खड़ी चार जिंदगियाँ एक ताल पर एक साथ धड़क कर मानो अपनी धमक भर से उसे रूई की तरह धुन के उड़ा देती हैं। स्त्री की डोर स्त्री से जुड़ते जाने में ही स्त्रीत्व की शक्ति निहित है। यह बहनापा जिस दिन मजबूत हो गया स्त्री को कमतर व्यक्ति बनाने वाली पारम्परिक समाज की चूलें पूरी तरह हिल जाएँगी। हर स्त्री अपने-अपने द्वीप में कैद है, उनके बीच निर्बंध, निर्द्वंद्व आपसदारी के सम्बंध पुरुषों की तुलना में बहुत कम विकसित होते हैं इसलिए समाज में तमाम सामान्यीकरण, कायदे-कानून पुरुषों की अनुकूलता में विकसित होते हैं। पुरुषों की गलतियों पर उंगली नहीं उठाई जाती, उन्हें हर वक्त समाज की निगाहों की बंदिशें, बरजती उंगलियाँ नहीं बरदाश्त करनी पड़तीं। गलतियाँ करते हैं, उससे सबक ले कर अनुभव का दायरा विस्तृत कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन समाज की निगाहों में गलत एक कदम स्त्री के पूरे जीवन को प्रभावित करता है। फिल्म की ये चार स्त्रियाँ एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा न करतीं तो नामालूम सी बात की जीवन भर सजा भोगतीं और यह वास्तविक जीवन में होता भी है क्योंकि स्त्री को कॉमन प्लेटफॉर्म नहीं मिल पाता। हालांकि सशक्त कहानी न होने के कारण बातें असंगत लग सकती हैं कि ये कैसे सम्भव है किसाक्षी जैसी अमीर, मॉडर्न, पढ़ी-लिखी बोल्ड लड़की अपनी यौनिकता की पूर्ति करने के लिए इतना अपराध बोध पालेगी कि सबके ताने झेलती रहे और किसी से कुछ भी न कह पाए, उसकी शादी टूट जाए और उसका नकचढ़ा पति उसे इस एक्शन के लिए ब्लैकमेल करता रहे कि यदि उसे 5 करोड़ न दिए तो वह सबको बता देगा। ऐसे ही आत्मविश्वास से भरी मीरा बच्चे होने के बाद आए मोटापे और शारीरिक बदलावों के कारण दाम्पत्य रस खो दे। दिल्ली जैसे महानगर में वकील सुंदर, स्मार्ट अवनि शर्मा ( सोनम कपूर) अपने लिए उपयुक्त जीवन साथी न खोज पाने और माँ की शादी की रट और उम्र निकली जा रही के बारम्बार उद्घोष से घबरा जाए और कालिंदी तो प्रेम और विवाह के द्वंद्व से हैरान-परेशान है। वह अपने प्रेमी ऋषभ मल्होत्रा से अलग भी नहीं रह सकती और शादी में बँधना भी नहीं चाहती।  पारम्परिक समाज में स्त्री के शोषण की आधार भूमि ही बनता है परिवार तो डर लाजमी भी है। बहनापे की यह डोर कुंजी बनती है जिंदगी में जड़े तालों को खोलने के।


अनगढ़ स्क्रिप्ट और अपरिष्कृत ट्रीटमेंट के बावजूद फिल्‍म से यह संदेश तो साफ मिलता है कि स्त्री के साथ स्त्री का साथ होने मात्र से जिंदगी में बेवजह आने वाली चुनौतियाँ अशक्त हो कर झड़ जाती हैं। समय के साथ स्त्री जब अपने खुद के वजूद के साथ अपने ही साँचे में सशक्त ढंग से बहनापे के रिश्ते बनाएंगी, न कि वीरे के, तब उसमें जिंदगी की वो उठान होगी, आनंद की ऐसी लहरें होंगी कि जिंदगी सार्थक हो उठेगी और वह समाज की एक महत्वपूर्ण कड़ी बनेगी। तब वह अपनी देह के रोम-रोम से जिएगी। इस फिल्म के किरदारों के आनंद के स्रोत तो मुख्य रूप से दो अंगों तक सिमट कर रह गए हैं। जबकि स्त्री के अंग-अंग में सक्रियता की, सार्थकता की अनेकानेक गूँजें छिपी हैं। सदियों के बाद तो स्त्री को ( फिलहाल छोटे से तबके को ही सही) अपने खुद के शरीर पर मालकियत मिली है। उसके पास अवकाश है। मास-मज्जा की सुंदरतम सजीव कृति को वह अपने ढंग से बरत सकती है। क्या न कर ले इससे। रोम-रोम से नृत्य, खेलना-कूदना, दौड़ना-भागना, पहाड़ों की चोटियाँ लाँघना, पानी की थाह पाना, झिलमिलाते तारों का राज खोजना, अपनी ही साँसों का संगीत सुनना, गति-स्थिति, वेग-ठहराव......हर चीज का एहसास करना। अपनी सचेतन जाग से सोई हुई सम्भाव्यता को जगा भर लेना है, जो सचमुच के ‘वीरे नहीं समझ पाएँगे, क्योंकि उनके पास यह शरीर और ये मौके हमेशा से उपलब्ध थे। उन्हें स्त्रियों की तरह अनथक कोशिशों से इन्हें अर्जित नहीं करना पड़ता।


Thursday, October 18, 2012

मनुष्यता का दैहिक यथार्थ



किसी भी रचना की विविध व्याख्यायें संभव है। रचना के मंतव्य के आधार पर, शिल्प या विषय वस्तु के आधार पर। रचना के काल और पृष्ठभूमि के आधार पर। प्रशंसक की अपनी मन:स्थिति भी व्याख्या का आधार होती है। इतिहास को भी तथ्य आधारित रचना ही माना जा सकता है। क्योंकि तथ्यों का चुनाव और उनका प्रस्तुतिकरण इतिहासकार की दृष्टि का हिस्सा हुए बगैर स्थान नहीं पा सकते। सवाल है विविध के बीच सबसे उपयुक्त व्याख्या किसे स्वीकारा जाये।

स्पष्टत:, सामाजिक नजरिये से खुशनुमा माहौल, बराबरी की भावना और उच्च आदर्शों की स्थापना जैसे प्रगतिशील मूल्यों के उद्देश्य को महत्व मिलना चाहिए एवं सामाजिक विघटन और पतन की कार्रवाइयों का समर्थन करती रचना या रचना की व्याख्या को त्याज्य समझा जाना चाहिए। लेकिन देखते हैं कि सामंती मूल्य चेतना के लिए वह त्याज्य ही सर्वोपरी एवं सर्वोत्कृष्ट बना रहता है। बल्कि, बरक्स प्रगतिशील मूल्यों पर प्रहार करना ही उसका प्राथमिक लक्ष्य होता है। मनुष्य को उसकी सम्पूर्ण प्रकृति में स्वीकारने से भी उसे परहेज होता है। स्त्रियों के मामले में सामंती दौर का तीखापन दासता का नुकीला इतिहास है। स्त्री की दैहिकता को स्वीकारने में ज्यादा पहरेदारी वाली जीवनशैली उसका चरित्र है। प्रकृति के रहस्यों की अज्ञानता से उपजे ईश्वर की कल्पनाओं को विदेह के रूप में देखने की उसकी प्रकृति ने जिद्दीपन की हद तक मनुष्यता को भी विदेह माना है। देह के सौन्दर्य की कल्पना पाप का पर्याय बनी है। देख सकते हैं कि सामंती दौर का प्रतिरोधी साहित्य प्रेम की स्पष्ट आवाजों में नख-शिख वर्णन से भरा है। सामंती पहरेदारी के खिलाफ संयोग श्रृंगार के वर्णन खुली बगावतों जैसे हैं। साहित्य का भक्तिकाल प्रेम की उपस्थिति में ही विद्रोह की चेतना के स्वर को बिखरने वाला कहलाया है। कला साहित्य ने मनुष्यता के पक्ष के साथ अपनी सार्थकता को सिद्ध किया है और मनुष्यता के विदेहपन के प्रतिरोध में ही निराकार ईश्वर को साकार रूप में रखते हुए दैहिक सौन्दर्य को अपना विषय बनाया है। दैहिक सौन्दर्य से परिपूर्ण मनुष्यता के कलारूप्ा ऐतिहासिक गुफाओं के भीतर अंकित हुए हैं। सार्वजनिक कलारूपों में उनकी अनुपस्थिति इतिहास के अनुसंधान का विषय होना चाहिए था। लेकिन सामंती चेतना का ऐजेण्डा आदर्शों और नैतिकताओं की पुनर्स्थापना में ज्यादा आक्रामक होता गया है। एम एफ हुसैन के चित्रों में आम मनुष्य की दैहिकता का रूप धारण करती ईश्वरियता हो चाहे राजा रवि वर्मा के चित्रों में आकर लेता मिथकीय यथार्थ हो, हमेशा उसके निशाने में रहा है।  
  
नवजागरण काल के चित्रकार राजा रवि वर्मा की रचनाओं की यह व्याख्या ही हिन्दी फिल्म ''रंगरसिया" का विषय है। केतन मेहता के कैमरे की आंख से उसे देखना एक सुखद अनुभव है। मराठी उपन्यासकार रंजित देसाई के उपन्यास पर आधारित राजा रवि वर्मा के जीवन की झलकियों से भरी केतन मेहता की फिल्म ''रंगरसिया" यूं तो एक व्यवसायिक फिल्म ही है। लेकिन गैर बराबरी की अमानवीय भावना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ठेठ स्थानिक किस्म की आधुनिकता जैसी पंच लाइनों से भरे दृश्यों की उपस्थिति उसे व्यवसायिक फिल्मों के बाजारूपन वाली धारा से थोड़ा दूर कर देती है। फिल्म इस बात पर भी ध्यान आकृष्ट करती है कि भारतीय आजादी के आंदोलन का आरम्भिक चरण यूरोपिय आधुनिकता के प्रभाव में ठेठ स्थानिक होना चाहता रहा है। समाजिक सुधारों की पहलकदमी और 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि में इसे तार्किक रूप से समझना मुश्किल भी नहीं। फिल्म का एक और महत्वपूर्ण पाठ है कि मनुष्यता के दैहिक यथार्थ को चित्रों में उकेर कर ही राजा रवि वर्मा ने, हर वक्त मन्दिरों के भीतर ही विराजमान रहने वाले दैवी देवताओं को आम जन के लिए सुलभ बनाया है। प्रिंट दर प्रिंट के रूप में घरों की दीवारों तक टंगते कलैण्डरों ने मन्दिरों के भीतर प्रवेश से वंचित कर दिये जा रहे जन मानस को मानवीय आकृतियों वाले ईश्वर से साक्षात्कार करने में मद्द की है। केतन मेहता की फिल्म ''रंगरसिया" का यह बीज उद्देश्य ही उसे आम व्यावसायिक फिल्मों से विलगाता है।
 
इतिहास साक्षी है कि यूरोपिय आधुनिकता से प्रभावित भारतीय बौद्धिक समाज के एक बड़े हिस्से ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को हर स्तर पर पिछड़ा साबित करने को उतारू बिट्रिश श्रेष्ठताबोध से भरी शासकीय औपनिवेशिकता का विरोध अपने तरह से किया है। जिसके तेवर बेशक बहुत क्रान्तिकारी न रहे हों लेकिन भारतीय जनमानस के आत्मबल को संभालने में उसकी कोशिशें ईमानदार रही है। पक्ष में तर्कपूर्ण ऐतिहासिक सांख्यिकी की अनुपस्थिति के चलते हुए भी मिथकों भरी कथाओं के सहारे भारतीय आदर्श को परिभाषित करना उसका उद्देश्य हुआ है। बिट्रिश शासन के प्रतिरोध की यह धारा औपनिवेशिक दौर के कला साहित्य में सत्त प्रवाहमान दिखती है। हिंदी भाषा के विकास के साथ-साथ भारतेन्दू के नाटकों से लेकर पूरे छायावादी दौर तक उसकी धीमी लय को देखा-सुना जा सकता है। मिथकों से होते हुए प्राचीन भारतीय इतिहास के गौरव की स्थापना का सर्जन उसका उद्देश्य रहा है। चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, अजातशत्रु जैसे पात्रों को केन्द्र में रख कर रचे गये जयशंकर प्रसाद के नाटकों के विषय छायावादी दौर तक पहुंची उस प्रवृत्ति को ज्यादा साफ करते हैं। ऐतिहासिक माहौल को रचने की यह स्थितियां खुद को पिछड़ा, दकियानूस और तंत्र-मंत्र में ही जीने-रमने जैसा मानने वाली बिट्रिश श्रेष्ठता के प्रतिरोध का अनूठा ढंग था। यह चौंकने की बात नहीं कि ब्रिटिश जीवन शैली को अपनाने वाले भारतीय बौद्धिक वर्ग के भीतर से ही ठेठ देशज भारतीयता की स्थापना का जन्म हुआ। राजा राम मोहन राय से लेकर गांधी के समय तक जारी सामाजिक सुधारों की हिमायत करने वाले ज्यादातर महानुभावों के भीतर यह साम्यता दिखायी देती है।

आधुनिक मूल्य बोध को समाज के विकास के लिए जरूरी मानने वाली मानसिकता से बंधे भारतीय बौद्धिक जमात के ये सभी लोग अपनी पृष्ठभूमि के कारण औपनिवेशिक शासनतंत्र के छद्म को ज्यादा करीब से देख पाने में सक्षम थे और इसीलिए प्रतिरोध को बेचैन भी। औपनिवेशिक शासन तंत्र के साथ उनके रिश्तों की व्याख्या इसीलिए थोड़ा जटिल भी है। निजी जीवन में यूरोपिय स्टाइल की जीवन शैली को अपनाते हुए भी प्राचीन भारतीय साहित्य के भीतर मौजूद नैतिकता और आदर्शों के प्रति आकर्षण भरी उनकी कार्रवाइयां आम जनमानस के साथ उनके संबंधों के अन्तर्विरोधों का ऐसा बिन्दू रहा जिसकी आड़ चालाक ब्रिट्रिश शासकों को राहत पहुंचाने वाली रही। उपज रहे अन्तर्विरोधों को विस्तार देने में न्याय का दण्ड थामें वे खुद को ज्यादा उदार दिखा सकते थे। कानून के राज का यह नया आधुनिक रूप आज तक भी ज्यादा कुशलता से संचालित होता हुआ है। यूरोपिय से दिखते भारतीय बौद्धिक जमात की ठेठ भारतीय आदर्शों की स्थापनाओं की चाह पर प्रहार के लिए पिछड़ी मानसिकताओं से भरे सामंतों और पोंगा पंडितों को प्रश्रय देना औपनिवेशिक शासन की प्राथमिकता थी। प्रतिरोध की कोई स्पष्ट दिशा तय हो सके, ऐसी बहसों में संेधमारी के लिए जरूरी था कि न्यायिक विधान का ऐसा ढोंग रचा जाये जो थकाऊ, उबाऊ और बिट्रिश शासन व्यवस्था के ज्यादा अनुकूल हो। कला साहित्य के माध्यम से प्रतिरोध की गतिविधियों को सीधे तौर पर रोकने की बजाय अपने साथ कदम ताल करते सामंतों और पोंगा पंडितों की मद्द से उन पर प्रहार करना ज्यादा आसान एवं औपनिवेशिक शासन को सुरक्षा प्रदान करने में ज्यादा कारगर था। ठीक उसी तरह, जैसे समकालीन दौर झूठे राष्ट्रवाद के सहारे अंध राष्ट्रीयता की मुहिम को चलाये रहता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं अपितु एक हद तक दिखायी देती लोकतांत्रिक स्थितियों का ही गला घोट देना चाहता है। अनुदार धार्मिक वातावरण की पुनर्स्थापना का वह औपनिवेशिक ध्येय आज छुपा न रह गया है। एम एफ हुसैन जैसे चित्रकार की रचनाओं पर किये जाते और करवाये जाते प्रहारों की लम्बी श्रृखंला इसके साक्ष्य हैं। 

राजा रवि वर्मा के चित्रों के बहाने, फिल्म ''रंगरसिया" भारतीय इतिहास की ऐसी ही व्याख्या को प्रस्तुत कर रही है और भारतीय चित्रकला के ठेठ आरम्भिक चरण से लेकर आधुनिक दौर की विसंगतियों तक हस्तक्षेप करना चाहती है। हिंसा पर उतारू भीड़ के कोलाहल से भरे शुरुआती दृश्य के साथ ही दर्शक का सीधा साक्षात्कार अपने समय से होता है। अभिव्यक्ति का गला घोट देने को उतारू हिंसक जिद का तांडव रंगरसिया जैसे कोमल पद को छिन्न भिन्न करता हुआ है। विलोम की विसंगति से भरे समकालीन यथार्थ की उपस्थिति में जो कुछ दिखायी देता है, उसकी रोशनी में दर्शक स्वत: ही राजा रवि वर्मा पर फिल्माये जा रहे दृश्य में भी एम एफ हुसैन को देखने लगता है। एक बहस उसके भीतर जन्म लेने लगती है और इसीलिए राजा रवि वर्मा के दौर के भारतीय माहौल की दृश्यात्मक सांस्कृतिक अनुपस्थिति के बावजूद समकालीन सी दिखती सांस्कृतिक स्थितियां भी किसी तरह अवरोध नहीं बनती। इतिहास कथा पर केन्द्रित फिल्म का समकालीन जीवन्त स्थितियों सा फिल्मांकन वर्तमान में घटता हुआ सा लगने लगता है। लेकिन फिल्म का यथार्थ राजा रवि वर्मा के चित्रों पर उठायी गयी आपत्ति में दर्ज ऐतिहासिक मुकदमा ही है। रवि वर्मा के जीवन की घटनायें और कलाकार राजा रवि वर्मा होने तक की जो यात्रा दृश्यों में है, वह संभवत: रणजीत देसाई के उपन्यास का कथासार है। आधुनिक भारतीय चित्रकला के शुरुआती चरण का वह महत्वपूर्ण पहलू भी, जिसमें मिथकीय कथाओं के शास्त्रीय चित्रकला का विषय होने की स्थितियां है, स्पष्ट दिख रही है। औपनिवेशिक स्थितियों के विरूद्ध केरल से लेकर आधुनिक महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल तक विचरण करती राष्ट्रीय भावना के शुरुआती उफान में कला साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही है जिसने एक सामान्य व्यक्ति, रवि वर्मा को चित्रकार राजा रवि वर्मा होने की स्थितियां पैदा की। देश के भीतर चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव में ठेठ देशज कथाओं को चित्रों में ढालने की वे ऐसी कोशिशें थी जिसमें शकुन्तला, द्रोपदी और अहिल्या सरीखे स्त्री चरित्रों के मार्फत हमेशा से प्रताड़ित स्त्रियों के प्रति संवेदनशील बनने की जरूरत पर ध्यान आकृष्ट किया जा सका है। यह वही समय है जब सामाजिक सुधार की तमाम कोशिशें भी देखी जा सकती हैं। सती प्रथा का विरोध हो रहा है। स्त्री शिक्षा का सवाल समाने है। जाति भेद भाव के विरुद्ध आम सहमति जैसी स्थिति बेशक न बन पायी थी लेकिन उस के प्रति असम्मान का भाव पैदा होने लगा था।

केतन मेहता ने ''मंगल पाण्डे" और "रंगरसिया" के बहाने 1857 के पुनर्जागरण को रखने की जो कोशिशें की है, हिंदी फिल्मों की वर्तमान धारा में उसे एक सकारात्मक हस्तक्षेप कहा जा सकता है। व्यवसायिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए बेशक बहुत बुनियादी बातें न हुई हों लेकिन वर्तमान दौर की विसंगतियों और बदलाव की पहल जैसे विषयों पर एक बहस तो जन्म ले ही रही है।  यद्यपि यह भी उतना ही सच है कि पूंजीगत लाभ के दृष्टिकोण से रंगरसिया को दैहिक भव्यता में अंजाम दिया गया है। और इसीलिए वैचारिक सहमति के बावजूद रंगरसिया को फिल्मांकन की बाजारू प्रवृत्ति के बोझ से झुकी कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। फिल्म की मुख्य अदाकारा नंदना सेन के मुंह से साक्षात इन शब्दों को सुनने के बाद भी कि नग्नता यदि दृश्य की आवश्यकता है तो उससे परहेज नहीं किया जा सकता लेकिन नग्नता यदि बाजारूपन का पर्याय है तो जरूर उससे बचा जाना चाहिए। नंदना के कहे के मुताबिक ही देखें तो दैहिक क्रीड़ा के अनंत दृश्यों से भरी रंगरसिया एक विलोम की विसंगति से भरी नजर आती है। क्रीड़ा की वल्गरिटी बेशक नहीं लेकिन उसके भव्य आस्वादन से भरे दृश्यों में दैहिक उपस्थिति का कोलाहल लगातार मौजूद रहता है। यहां यह सवाल भी है कि क्या इस तरह के दृश्यों को मात्र पूंजीगत लाभ की दृष्टि से रचा गया मान लिया जाये और उन पर गम्भीरता से सोचने की बजाय लोकप्रिय सिनेमा की पूंजीगत लाभ की आकांक्षओं से भरी प्रवृत्ति का शिकार मान लिया जाये ? राज रवि वर्मा और मंगल पाण्डे को याद करते हुए पुनर्जागरण काल को याद करने वाले निर्देशक केतन मेहता की फिल्म रंगरसिया को इस तरह के सरलीकृत विश्लेषण के साथ छोड़ना शायद ठीक नहीं। बल्कि निर्देशक के मानस में बैठी उस प्रवृत्ति को पकड़ने की कोशिश होनी चाहिए जिसका शिकार आज के हिंदी युवा कहानीकारों की कहानियां भी हो रही हैं। लहराते पेटीकोट वाले दृश्यों को कलात्मक कौशल के साथ अनूठे से अनूठे तरह से रचने वाली हिंदी कहानियों के संदर्भ में कतिपय मेरा कथन स्पष्ट है कि उसे वैश्विक पूंजी द्वारा स्थापित किये जा रहे मूल्यबोध के गिरफ्त में होते जाने के रूप में समझा जा सकता है। रंगरसिया भी निर्देशक केतन मेहता के उसी प्रभाव में हो जाने के कारण विलोम की विसंगति दिख रही है।

  





Wednesday, December 21, 2011

प्रतिनायक का चेहरा क्यों लगता है नायक सा


नायक का चेहरा ज्यादा स्पष्ट करने की कोशिशों में प्रतिनायकों के चेहरे इधर कुछ ज्यादा अस्पष्ट हुए हैं या उनको स्पष्ट चिहि्नत करने के लिए जो रोशनी चाहिए थी वह धुंधलाती गयी है। भ्रष्टाचार की राष्ट्रव्यापी मुहिम के दौरान की स्थितियां इस बात की प्रत्यक्ष गवाह रही हैं। भूमाफिया, दलाल, भ्रष्टता के सिरमौर-कितने ही राजनीजिज्ञ और शासक-प्रशासक, लिंग, जाति और क्षेत्रीय भेदों को स्थापित करने में जुटे ताकतवर एवं समाजविरोधी लोगों की एक जुटता में प्रतिनायकों की कितनी ही छवियां धुंधलायी हैं। मीडिया, कारपोरेट जगत और एन।जी।ओ की भ्रष्टता तो भ्रष्टतंत्र की स्थापना के लिए अपने ही नक्शे की जिद के साथ नायकत्व के रूप्ा में मौजूद रही है। स्पॉन्टेनिटी के किसी ऐसे आंदोलन के दौरान जिसमें जनता का एक बड़ा हिस्सा आंदोलनरत हो जाता है, अन्यत्र भी ऐसी स्थितियों को बार-बार देखा जा सकता है। स्थितयों की ऐसी जटिलता जिसमें सही और गलत को स्पष्ट तरह से चिहि्नत न कर पाना संभव हो रहा हो उसको समझने के लिए रचनात्मक दुनिया का सहारा लिया जाये तो बहुत कुछ ऐसा है जो साफ साफ दिखने लगता है। 
दैवीय शक्तियों से सुसज्जित हिन्दी फिल्मों के नायकों की बहुत शुरू से लगातार बनी रही उपस्थिति में पुनरावृत्ति की कितनी ही मिसालें हैं जिन्हें फिल्म दर फिल्म गिनाने की शायद जरूरत न पड़े। सवाल है कि क्या इसे कहानी का फिल्मांकन मात्र माना जाये या कथा के मूल में ही इसकी उपस्थिति के चिह्न मौजूद हैं, ऐसा ढूंढा जाये ? हिन्दी कथा साहित्य की दुनिया से गुजरते हुए समकालीन कहानियों के हवाले से बात की जाये तो प्रतिनायकों या खलनायकों को ही नायकत्व देने की प्रवृत्ति कुछ आम हुई है। यानी मूल कथा के एक सूक्ष्म से बिन्दु को ही कैमरा अपनी तकनीकी विशेषताओं से विस्तार देते हुये है। सनसनीखेज खबरों के उत्स भी कथा साहित्य की दुनिया से ही जन्म लेते हुये हैं। फिल्मों में या डिजिटल खबरों की दुनिया में नायक के पीछे लगातार दौड़ता एक कैमरा है जो खांसने, छींकने और हाजत फरागत के दृश्यों में ही नायक की तस्वीर को बार बार पकड़ ही नहीं रहा है अपितु चेहरे पर उठते भावों को रेशा दर रेशा कई गुना करते हुए संवेदनशीलता का ऐसा पाठ रच रहा है जिसमें लगातार असंवेदनशील हो जाने की कथा जन्म लेती हुई है। 
फिल्मों और हिन्दी की कुछ कहानियों के हवाले से ऊपर उठे प्रश्नों के जवाब खोजना चाहें तो इधर आयी ''थैंक्स मां" इरफ़ान कमाल की पहली फिल्म है। यूं मात्र 7 मिनट के शुरूआती दृश्य में ही फिल्म मुंम्बइया समाज के उस अंदरुनी हिस्से का बयान होकर आती है जिसमें झोपड़ पट्टी के बच्चों का जीवन दिखायी दे जाता है। जीवन के संघ्ार्ष से निर्मित आपसी छीना झपटी और मारकाट से भरा उनका संसार बेहद निराला है। अपनी मां, यानी अपने अतीत को तलाशता म्यूनैसपैलिटी (एक पात्र) का एक नवजात शिशु को लेकर इधर उधर भटकना त्रासद कथा है। लेकिन समग्र प्रभाव में फिल्म उस तरह से असरदार नहीं हो पाती कि दर्शक की चिन्ताओं का हिस्सा हो जाये। यहां जफर पनाही की इरानी फिल्म 'द मिरर" का याद आ जाना कतई अस्वाभाविक नहीं।
''यह मेरा बस स्टाप नहीं।""
गलत जगह पर पहुंची हुई 'द मिरर" की नायिका मीना कठिन परिस्थिति के बीच भी आत्म विश्वास के सजग बिन्दु से भरी है। लेकिन थैंक्स मां की कथा में कथ्य की भिन्नता भारतीय समाज की भिन्नता के साथ है। गुम हो गये अपने बच्चे की स्मृतियों में विक्षिप्त हो गई मां की कातरता बेहद विचलित करने वाली है,
''यह मेरा बच्चा नहीं है। मेरा बच्चा चार महीने का है।""
बच्चे को तलाशती थैंक्स मां की स्त्री और अपने घर को तलाशती 'द मिरर" की मीना की मानसिक बुनावट में ही कोई भिन्नता है या इसके इतर भी कोई कारण है ? जबकि स्थितियों की त्रासदी दोनों जगह कमोबेश एक है। इस अंतर का कारण क्या दो भिन्न समाजों की वजह है या दृश्य को संयोजित करती कैमरे के पीछे की आंख ?  
 'द मिरर" की कथा नायिका-बच्ची को अपना घर मिल जाता है पर थैंक्स मां के कृष को उसकी मां नहीं मिल पाती और न ही कृष को उठाये उठाये घूमने वाले म्यूनैसपैलिटी को उसकी मां मिल पाती है। कृष की मां को ढूंढने में यदि म्यूनैसपैलिटी कामयाब हो जाता तो उसे अपनी मां के भी मिल जाने जैसी खुशी होती। यह काव्यात्मकता थैंक्स मां को एक महत्वपूर्ण फिल्म बना देती है। लेकिन फिल्म का यह अंत नहीं। वह तो गैर सरकारी संस्थाओं का एजेण्डा है- भ्रूण हत्या जैसा ही कुछ। 
यूं "थैंक्स मां" को देखने का आनन्द बच्चों के आपसी रिश्तों के दृश्य में है। मसलन फिल्म का एक पात्र जिसका नाम सोडा है उस वक्त बेहद चालाकी भरा नजर आता है जब सबसे पैसे मांगता है और उन्हें दस गुना कर देने का लालच देता है। उन बच्चों के समूह में एक बच्ची भी है जो अपने साथियों के बीच बिना इस मानसिकता के कि दूसरों से लैंगिक रूप में भिन्न है, बहुत स्वाभाविक बनी रहती है। बच्चों की इस उपस्थिति को आकार देने में निर्देशक की भूमिका इसलिए गौण मानी जा सकती है कि जैसे ही कैमरे में रची गई कहानी के दृश्य और बहुत सजग किस्म के कलाकार नजर आते हैं तो मानवीय संबंधों की वह ऊष्मा जो तलछट का जीवन जीते बच्चों को कैमरे में कैद कर लेने पर दिखायी दी थी, गायब हो जाती है। जरूरत से ज्यादा लाऊड होते रघुवीर यादव एक स्वाभाविक कलाकार की स्थिति में भी नजर नहीं आते। जबकि गैर परम्परागत कलाकार बच्चे ज्यादा स्वाभाविक अभिनय करते हुए हैं। कलाकारों के अभिनय पर बहुत बात करने की जरूरत उस विचार बिन्दु को रखने के लिए ही है जिसमें समकालीन रचनाजगत के हवाले को तथ्यात्मक तरह से रखा जा सकता है। तथ्य बताते हैं कि न सिर्फ लेखन में बल्कि कला के अन्य क्षेत्रों में भी सक्रिय तमाम रचनाजगत ने प्रगतिशीलता के जो मानक गढ़े हुए हैं यूं तो उनके इर्द-गिर्द ही रचनात्मक दोलन की गति दिखायी देती है। पर गढ़ी गई प्रगतिशीलता के दायरे में दोलन की तरंग दैर्ध्य बढ़ जाने का वैसा अहसास संभव नहीं हो पाता जैसा प्रतिबद्धता के साथ संभव हो सकता है। प्रतिबद्धता के मायने जफर पनाही के मार्फत कहें तो "द मिरर" की नायिका मीना जिस गली को ढूंढ रही उसका नाम "विक्टरी एवेन्यू" अनायास नहीं। मीना उस चौक की पहचान बताने में बेशक असमर्थ है जहां से एक रास्ता विक्टरी एवेन्यू को जाता है लेकिन अनभिज्ञ नहीं। उस जगह पर पहुंचकर वह गाड़ी रुकवाती है, किराया चुकाती है और ड्राइवर को खुदा हाफिज कहते हुए दौड़ पड़ती है भीड़ भरे रास्ते को पार करती हुई। जफर पनाही का कैमरा बहुत लांग शॉट लेता हुआ होता है। पूरे तीन सौ साठ डिग्री में घूमता हुआ। कोई भी स्थिति उस लांग शॉट के भीतर किरदार नजर आती है और किरदार की उपस्थिति बेहद स्वाभाविक या, किरदार का किरदार होना नहीं बल्कि यथार्थ के बीच किसी का भी होना हो जाता है। दर्शक के लिए सहूलियत बनता हुआ कि वह खुद को भी उस स्थिति में देख सके। एक ऐसे ही अन्य दृश्य में मीना बस में है। पार्श्व में उभरती आवाजें हैं। कैमरा जब मीना को फोकस किये है आवाजें तब भी हैं और बेहद स्पष्ट। उन आवाजों का लब्बो लुआब है कि मीना मां के सहारे के असहसास के साथ है। आत्मीय सहारे की तलाश करती बूढ़ी स्त्री है और उम्र के कारण अकेले हो जाने का भय उसके भीतर व्याप्त है। दूसरी स्त्रियों की बातचीत में पति से संबंधों के विवरण हैं। समाज के भीतरी ढांचे को व्यक्त करने के लिए जफर पनाही किसी अलहदा चित्र का सहारा लेने के बजाय मूल कथा के विस्तार में ही बहुत चुपके से दाखिल होते हैं बावजूद इसके कि कैमरा अब भी ज्यादातर विक्टरी एवेन्यू को तलाश करती मीना पर ही फोकस रहता है।
इधर सचेत तरह से बनायी गयी इरानी फिल्मों की उल्लेखनीय विशेषता है कि मानवीय तकलीफों का ताना बाना उनमें बहुत साफ तरह से उभरा है। जीवन को दुर्लभ बनाते तंत्र को दर्शक उनमें बहुत अच्छे से पहचान सकता है। तकलीफों में जीते लोगों के भीतर हमेशा मौजूद रहने वाली आत्मियतायें उसे हिम्मत बंधाती हैं। रास्ता भटक गयी बच्ची को सही सलामत घर पहुंचा सकना उनकी सामूहिक चिन्ता का कारण है। खुद की परेशानियों के बावजूद मुसीबत जदा किरदार की परेशानियां उनकी प्राथमिताओं का हिस्सा हो जाती हैं। परेशानियों से घिरे होने के बावजूद खीझ, झल्लाहट या गुस्से के भाव उनके चेहरों पर कभी अपना अक्श नहीं बिखेरते। जफर की ही एक अन्य फिल्म "व्हाइट बेलून" में भी इसे देखा जा सकता है। मजीदी की "चिल्ड्रनस ऑफ हेवन", "पेराडाइज", हाना मखमलबाफ की "बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" या अन्य बहुत सी फिल्में हैं जो इरानी अफगानी सिनेमा का एक बहुत आत्मीय और बेबाक संसार रच रही हैं। इनके बरक्स इधर हिन्दी सिनेमा की 'थैंक्स मां, "सल्मडॉग मिलेनियर", "थ्री इडियेट", नंदिता दास की "फिराक" या लोक प्रिय धारा की "ए वेडनस डे", "गुलाल" और दूसरी बहुत सी फिल्मों में देखते हैं कि यथार्थ की उपस्थिति आक्रामकता के पुन:सर्जन में बहुत प्रत्यक्ष होना चाहती है। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण में इन फिल्मों से जो कि ध्वनित हुआ है उसमें झूठे और अमानवीय तंत्र के प्रतिरोध की चेतना की बजाय पाठक हताशा और निराशा में घिर जाने को विवश है। हत्या, मारकाट और साजिशों का प्रत्यक्षीकरण इतना एकांगी है कि जीना ही मुश्किल लगने लगता है। समाजिक विद्रुपताओं के दुश्चक्र की बारम्बारता भयानक से भयानक दृश्य रचती है। एक क्षण को उनके प्रभाव इतने गहरे होते हैं कि वे दर्शक के भीतर बहुत स्थाई और संवेदना को ही पूरी तरह से कुंद कर देते हैं। जो कुछ परदे पर घट रहा होता है उसका घटना एक स्वाभाविक सी घटना हो जाता है। परिस्थितियां बेहद विकट होती हैं लेकिन विकटता के सर्जकों की कोई तस्वीर नहीं बन रही होती है और न ही उनसे बच निकलने की कोई आत्मीय गतिविधि नजर आती है। बेहद क्रूर तरह से बच्चों के अंग भंग के दृश्य और तमाम अमानवीय कार्यों को करवाने को मजबूर कर देने वाली निर्ममताओं के कितने ही दृश्य हैं जिन्हें ऊपर दर्ज फिल्मों में और इधर की अन्य फिल्मों में देखा जा सकता है। यहां अमानवीयता के दृश्य का एक चित्र हाना मखमलबाफ की फिल्म 'बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" से याद किया जा सकता है। हाना की यह फिल्म तालीबानी आक्रमकता के बाद जीवन जीते अफगानी बच्चों के खेल के रूप में हैं। तालीबानी तालीबानी खेलते बच्चों के बीच बामियान की मूर्तियों को तोड़ने से लेकर स्त्रियों को दासत्व की स्थितियों तक पहुंचाती कथा के बीच 'मुक्तिदाता" अमेरिकी बम वर्षकों के दृश्य हैं। तालीबानी बने बच्चे अमेरिकी बम बारियों से बचते हुए अपने आक्रामक खेल को जारी रखना चाहते हैं। अमेरिकी सिपाहियों को अंधे कुओं में डूबो कर मार देने की साजिश रचते हैं। एक गढढा खोद कर बहुत गहरे तक उसमें पानी भर भूरभूरी मिटटी को ऊपर से डाल उसे दल दल बना देते हैं। कैद की हुई स्त्रियों का छुड़ाने आते अमेरिकी सिपाही को वे उस दल दल में धंस जाने को मजबूर कर देते हैं। दलदल से सना बच्चा, यह दृश्य बिल्कुल उस दृश्य की तरह जैसा स्लमडॉग मिलेनियर में संडास के गढढे में गिर गया बच्चा है और जिसे देखना बेहद उबाकई से  भर जाना है, बहुत ही मानवीय ओर बुद्ध नजर आने लगता है। दृश्य एक दम स्पष्ट हो जाता है कि मुक्ति के नाम पर विध्वंश का खेल रचती अमेरिकी चालाकियों से हाना न तो खुद इत्तफाक रख रही हैं और न अपने दर्शकों के बीच किसी भी तरह की गलतफहमी को पनपने देती है। यह सवाल हो सकता है कि मुक्ति का रास्ता तो बुद्ध की करूणा में भी पूरा पूरा नहीं दिखता लेकिन इससे यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि जो भी संभावित सकारात्मकता है उसको तो चुना ही जाना चाहिए। और उस रास्ते पर ही फिल्म बेहद प्रभावशाली ढंग से उस तालीबानी आक्रमकता का विरोध दर्ज करती है जो स्त्रियों को गुलामी की स्थिति तक पहुंचा देना चाहती है। हिंसा के खेल को बुद्ध की सहजता से पार पाने की युक्ति बेशक अतार्किक और अव्यवहारिक हो पर युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ जिस खूबसूरती से दृश्य रचती है उसमें खेल चरमोत्कर्स तार्किक परिणति तक पहुँचता है। खास तौर पर ऐसे में जब चारों ओर एक घनीभूत तटस्थता छायी है। चौराहे का सिपाही नियम के कायदे में बंधा बंधकों को छुड़ाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहा है। बल्कि असमर्थता जाहिर करते वक्त भी उसके चेहरे पर जब कोई प्ाश्चाताप या ग्लानी जैसा भाव भी मौजूद नहीं हैं। बस एक काम-काजी किस्म का व्यवहार ही उसको संचालित किये है। मेहनतकश आवाम भी जब युद्धोन्मांद में फँसी लड़की की कातर पुकार पर तव्वजो देने की बजाय बहुत ही तटस्थता से बच्चों को दूसरी जगह जाकर खेलने को कह रहा हो। दूसरी जगह- यानी जहाँ जारी खेल बेशक खूनी आतंक की हदों को पार कर जाए पर उनके काम में प्रत्यक्ष रुकावट डालने वाला न हो। मध्य एशिया में जारी हमले के दौरान अमेरीकी प्रतिरोध की दुनिया का कदम इससे भिन्न नहीं रहा है। और उसके चलते ही कब्जे की लगातार आगे बढ़ती कार्रवाई जारी है, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं।
हिन्दी फिल्मों का यह जो ताना बाना दिखायी देता है उसे विश्वपूंजी द्वारा स्थापित की जा रही 'नैतिकता और आदर्श" के साथ देखा जा सकता है। मुनाफे की संस्कृति को जन्म देती और संसाधनों पर लगातार कब्जा करने की मंशा से भरी विश्वपूंजी की कार्रवाइयां अपने छल छद्म को छुपाये रखने के जो रास्ते अख्तयार करती है, वे बहुत साफ दिख रहे हैं। सिविल सोसाइटीनुमा अवधारणा में उसका चेहरा लोक की छवियों के जरिये न सिर्फ अपने कलावादी रूझानों को स्थापित करना चाहता है बल्कि तथाकथित उजले जीवन के बाजार के लिए लोक की विविधता को विज्ञापनी दुनिया का हिस्सा बनाता चल रहा है। दूर पहाड़ी पर एक कांछा (स्थानीय पहाड़ी बच्चा) से वह मारूती का सर्विस सेन्टर पूछता है। आदिवासी जनजीवन का पहनावा उसके उत्पाद को कन्ट्रास्ट देता है। बेहद संकरी गलियों के दृश्य बेजरूरत चीजों के प्रति आवाम की ललक पैदा करने का जरिया हैं। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण को प्रस्तुत करते दृश्यों में एक आक्रामक हिंसकता की ही झलक उसका मूल स्वर है। बहुत कोमल और आत्मीय किस्म के माहौल के प्रति उसके सरोकार मुनाफाखौर विज्ञापनी चालाकी वाले है। एक धोखा है। जिसमें विविधता से भरे स्थानिक दृश्यों की उपयोगिता उसके लिए मात्र अपने उत्पाद को उपभोक्ता के हाथों तक पहुंचाने के अवसर के रूप में है।
बहुत सचेत होकर देखें तो इधर आयी समकालीन हिन्दी कहानियों का संसार भी बहुत अलहदा नहीं बना है। समाजिक प्रतिबद्धता के प्रति आवश्यकता से अधिक क्लेम करता रचनाकार रचनात्मक विवरणों में विश्वसनीयता की हदों के पार भी छलांग जाता है। उदय प्रकाश की कहानी "मोहनदास" में बहुत साफ तरह से इसको परखा जा सकता है। विद्रुपताओं में ही बदलाव के चिह्न रचने की प्रवृत्ति बहुत आम हुई है। सामाजिक प्रवृत्ति के तौर पर गैर जरूरी नितांत व्यक्तिगत किस्म के अनुभवों से भरे विवरणों की भरमार में शिल्प के अनूठेपन का संसार प्रचारात्मक अलोचना में बहुत स्वीकार्य हुआ है। कथ्य की विभिन्नता के नाम पर इन्दरनेटिय सूचनाओं (योगेन्द्र आहुजा की कहानी खाना, पांच मिनट )या कारपोरेटिय जगत के बहाने उचछृखल संबंधों (गीत चतुर्वेदी की कहानी पिंक स्लिप डेडी) को लहराते पेटीकोटों वाली भाषा (कहानियों की एक लम्बी श्रृंखला है) में देखा जा सकता है। कलावादी कहलाये जाने के आरोपों से बचाव के रास्ते सामाजिक राजनैतिक प्रतिबद्धता के प्रदर्शन में इस कदर बढ़े है कि कविता तीन तीन कालमों में लिखी जाने का चलन रचनात्मक श्रेष्ठता के दावे करता हुआ प्रस्तुत होता है। बहुत सी रचनाओं में भाषा के स्तर पर नक्सलवाद, माओवाद, आदिवासी जैसे कितने ही शब्द बेवजह ठूंसने का चलन बना है। कवि देवी प्रसाद मिश्र की कविताऐं जिनका फलक पहल से लेकर इधर जलसा के पहले अंक तक दिखता है, ऐसी प्रवृत्ति का प्रतयक्ष गवाह है। कलात्मक युक्तियों का लगातार अन्वेषण जारी है। एक ही समय में शतकीय आंकड़ों (51 कहानियां ) का नायब अंदाज देवी प्रसाद मिश्र के यहां जलसा के नये अंक में भी देखा जा सकता है। लेकिन वैचारिक धरातल पर अस्पष्टता के बावजूद क्रान्तिकारी दिखने की चाह में वे कला और कला, कला और कला के अन्वेषक होते चले जाते हैं। ''छठी मंजिल" इस बात को तथ्यात्मक रूप से ज्यादा स्पष्ट करती है। वे जिस छठी मंजिल की चकाचौंध में आत्ममुग्ध होते हुए दिख रहे हैं, वहां खिलता हुआ सा बाजार है, चुंधियाती रोशनियां है। और बहुत कुछ ऐसा ही। हर एक के जीवन को उसी बाजार के बीच खुशहाल देखने का झूठ फैलाना उसी विश्वपूंजी का खेल है जिसका प्रतिरोध शायद कहानीकार भी करना चाहता होगा, लेकिन वहां पहुंचना और उसके बीच हो जाना रचनाकार को ललचा रहा है। मनोज रूपड़ा की कहानी रद्दोबदल, अरूण कुमार असफल की कहानी "कुकुर का भुस्स" अन्य ऐसी ही कहानियां जिनमें बहुत कुछ अलग कह जाने का कलावादी रूझान और आवश्यकता से अधिक आत्मसजग विशिष्टताबोध बोध वाली प्रवृत्ति उजागर होती है।
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रूप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गणवत्ता को जांचना भी संभव नहीं  रह गया है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, इसे छुपाने के लिए भी मैटेरियल पर कोटिंग की नयी से नयी तकनीक के इस्तेमाल से ऐसा संभव हो रहा है। स्क्रेप मैटेरियल से तैयार उत्पाद में दर्ज पैबंदों को भी चमचमाती पैकिंग में आकर्षक बनाकर पेश किया जा रहा है। योगेन्द्र आहुजा की पांच मिनट एक ऐसी कहानी है जिसकी रचना के लिए उस स्पेशिफाईड मैटेरियल को ढूंढा गया है जिससे सिलिकॉन चिप बनाया जाता है। एक ऐसा मैटेरियल जो अपने से निर्मित उत्पाद के जोड़ कहीं दिखने भी नहीं देता। फिर भी यदि कहीं दिखने लगते भी हैं, तो खुलते चाकू की खटाक होती आवाज के कारण सहम जाने वाला समय दुनिया की घड़ियों की सुईंयों को स्थिर करके उन्हें छुपा  देता है। घड़ी की टिक-टिक से बेदर्द और दहद्गत फैलाने वाले समय की यथास्थिति का एहसास पाठक हर क्षण करता रहता है। मक्खी मूछों वाली आक्रामक फौजी कार्यवाही का विरोध करते हुए वैश्विक एकता की मिसाल और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक सीकिंया बूढ़े का जिक्र करते हुए इतिहास की अनुगूंजों के साथ गुलामी के खिलाफ संघ्ार्ष को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने की अभिष्ट कामना कहानी के मूल में दिखायी देती है। गोपाल इस कहानी का ऐसा पात्र है जो मजदूर, चौकीदार, रिक्शे चलाने वाले, सब्जीफरोश, कबाड़िये और इसी तरह का छोटा-मोटा काम करते हुए जीवन के संघर्ष में जुटे तबके का प्रतिनिधित्व करता है।  
इस दृष्टिकोण से यदि कहानी को देखें तो न सिर्फ हाशिये पर रह रहे लोगों के प्रति लेखकीय पक्षधरता स्पष्ट होती है बल्कि पुरजोर तरह से इस बात को स्थापित करने की कोशिश साफ दिखती है कि कि आधुनिक तकनीक की विकासमान दुनिया को सम्भव बनाने में ऐसे ही लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक सामन्य, लेकिन हुनरमंद घड़ीसाज के लम्पट और उच्चके बेटे का होनहार बेटा जब अंतरिक्ष की घड़ियों को दुरस्त कर लेने की दक्षता हांसिल कर पा रहा है तो इससे एक हद तक जनतांत्रिक होती जा रही दुनिया का पक्ष भी प्रस्तुत होता है। लेकिन उस ठोस वस्तुगत यथार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती जिसमें ज्ञान-विज्ञान पर कब्जा करती बाजारू दुनिया का होना दिखायी देता है। जरूरी है कि वस्तुगत यथार्थ की सही समझदारी के साथ रचना का सत्य उस  चिन्तन पर केन्द्रित हो जिससे सचमुच की राष्ट्रीय चेतना और अन्तरराष्ट्रीय बिरादराना के तत्वों को पकड़ने में पाठक सहूलियत महसूस कर सके। व्यक्तिगत रुप से उपलब्धियों को हांसिल करने वाले किसी एक महान  व्यक्ति की सक्रियता के इंतजार में बदलावों के संघर्ष को स्थगित नहीं किया जा सकता है, योगेन्द्र शायद इससे अनभिज्ञ न हो और न ही कोई भी संघर्ष ऐसे एक व्यक्ति की उपस्थिति मात्र से अन्तिम निर्णय तक पहुंच सकता है, यह समझ बनना भी जरूरी ही है। 
पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद अमेरिका को रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करते हुए उसके ही ईशारों पर जारी है। जिसके चलते पूरा परिदृद्गय इस कदर धुंधला हुआ है कि विरोध और समर्थन की,, उनकी अवसरवादी कार्यवाहियां, किसी भी जन पक्षधर मुद्दे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी पूंजीवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने ही एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशस्ति में सदी के सबसे बड़े विस्थापन को जन्म दिया जा रहा है। तीसरी दुनिया के आला दिमाग  यूंही नहीं विश्व पूंजी की चाकरी करने को उतावले हैं! ऐसी ही नीतियों के पैरोकार शासक जिस तरह से सीधे तौर पर डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं उसके चलते ही आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर उसकी स्वीकार्यता को भी बल मिल रहा है। गरीब और पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निश्चित ही चालक कोशिश है कि रोजी रोटी के जुगाड़ में सात समुन्द्र पार की यात्रा पर निकले ऐसे नागरिक जब माल असबाब जमाकर वापिस लौटेगें तो देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगें। यहां इस सवाल से आंख मूंद ली गयी है कि कितना तो बचा होगा उनके भीतर देद्गा और कितनी देद्गा सेवा। योगेन्द्र आहुजा की कहानी पांच मिनट भी ऐसे ही ब्रेन ड्रेन की कहानी है और इम कहानी में भी इसी मुगालते की स्थापना है।  अपनी कहानी के अंत में योगेन्द्र भी ऐसे ही युवका से उम्मीदों का ख्याल पालते हैं।
यूं युवा रचनात्मक गतिविधियों के समुचित मूल्यांकन के लिए हिन्दी कला साहित्य और फिल्म की दुनिया के यहां दर्ज तथ्य मेरी सीमा ही है। वरना बहुत सी दूसरी रचनाऐं हैं जिनके पाठ मुझे प्रभावित करते रहे हैं। या ज्यादा साफ करते हुए कहूं तो जिनसे बहुत असहमति नहीं उपजी है। महेशा दातानी की फिल्म "मार्निंग रागा", बेला नेगी की फिल्म "दांये या बांये" अमोल गुप्ते की "स्टनली का डब्बा" और हिन्दी कहानियों में कैलाश बनबासी की "बाजार में रामधन", अरूण कुमार असफल की "पांच का सिक्का", योगेन्द्र आहुजा की "मर्सिया", नवीन कुमार नैथानी की "पारस" आदि बहुत सी रचनाऐं हैं जिनको देखना-पढ़ना एक अनुभव से गुजरना हुआ है।
गम्भीर दुर्घटनाओं के परिणाम कई बार किसी व्यक्ति विशेष को जीवन पर्यन्त अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं और मानसिक अवसाद का गहरा कारण बन जाते हैं। बहुत नितांत तौर पर एक अकेले व्यक्ति की समस्या को सामाजिक दायरे के प्रश्न में देखने से ही रचना की प्रासंगिकता बनती है। महेश दातानी की फिल्म मार्निंग रागा ऐसे ही विषय के इर्द गिर्द एक ताना बाना रखती है और एक गम्भीर दुर्घटना में अपने प्रियों को खो देने के कारण अवसाद की गहरी छाया में डूबे पात्रों की मुक्ति का मार्ग संगीत की स्वर लहरियों में तलाश करती है। चूंकि बदलाव के किसी बहुत बड़े दावे की अनुगूंज फिल्म के पाठ में ही मौजूद नहीं इसलिए उन अर्थों को ढूंढने का कोई तुक नहीं जिनके आधार अन्य रचनाओं पर बात हो रही है। इस लिहाज से देखें तो बहुत ही साफ सुथरे कथ्य के साथ संवेदना के उन बिन्दु को जाग्रत करने में अहम रोल अदा करती है जिससे मानवीय तकलीफों के ज्यादा करीब पहुंचा जा सकता है। न ही किसी तरह की अलौकिकता ओर न ही इधर के दौर में बहुत उछृखंल प्रेम का प्रदर्शन बल्कि मानवीय अनुभूतियों की रागात्मकता का बहुत ही स्वाभाविक आख्यान पूरी फिल्म में जीवन्तता के साथ है। मार्निंग राग की बात करते हुए कथाकार योगेन्द्र आहुजा की कहानी मर्सिया का याद आ जाना स्वभाविक है। योगेन्द्र की कहानी का कथ्य यूं मार्निंग राग से जुदा है और उसके आशय भी, पर यह स्पष्ट है कि शास्त्रीय संगीत की रवायत के बरक्स पीपे, परात और तसलों के संगीत वाला बिम्ब ज्यादा प्रभावी और महत्वपूर्ण बिन्दु है जबकि महेश दातानी के यहां शास्त्रीय संगी का यह फ्यूजन बहुत सीमित होकर आता है। दांये या बांए बेला नेगी की पहली फिल्म है। हिन्दी फिल्म होते हुए भी उसमें एक खास किस्म की आंचलिकता बिखरी हुई है। उसे आंचलिक फिल्म कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। महेश दातानी की फिल्म भी यूं भारीतय अंग्रेजी और कन्नड़ भाषा के साथ एक आंचलिकता को ही पकड़ रही है। बल्कि कहा जा सकता है कि दोनों ही फिल्मों में आंचलिकता का यह बिन्दु ठीक उसी तरह का है जैसे हिन्दी या किसी भी दूसरे साहित्य की रचनायें, जिनमें पात्रों की भाषा भौगोलिक पृष्ठभूमि की प्रमाणिकता वाली होती है। लेकिन बेला की फिल्म की विशेषता सिर्फ भाषायी ही नहीं अपितु विशिष्ट भूगोल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से जूझते रचनाकार की प्रतिबद्धता का भी प्रश्न बनती है। यूं बेला नेगी की फिल्म बहुत खिलंदड़ भाषा में उत्तराखण्ड के भूगोल को पकड़ती है लेकिन उत्तराखण्ड के बौद्धिक जगत की उस सीमा को भी चिहि्नत कर दे रही जिसमें एन जी ओ किस्म की मानसिकता का विस्तार होता है और बेला भी उससे बच न पायी है। समय के हिसाब से सबसे निकट की रचना इसी वर्ष मई माह में आयी अमोल गुप्ते की पहली ही फिल्म स्टनली का डिब्बा है जो आत्मीयता और सामाजिक वंचनाओं के उन बिन्दुओं को आधार बना रही है जिनकी अनुपस्थिति में एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण की पूरी प्रक्रिया कैसे बाधित हो जाती है, इसको समझा जा सकता है। कथा पात्र बच्चे, स्टनली का प्रतिरूप स्कूल मास्टर वर्मा बार-बार बहुत खाऊ दिखता है। न सिर्फ साथी मास्टरों के खाने के डिब्बे उसे ललचाते हैं बल्कि बहुत छोटे छोटे स्कूली बच्चों के टिफिन पर भी उसकी ललचायी निगाहें हैं। उसके व्यक्तित्व के इस कमजोर पक्ष का खुलासा करने से बच जाने में निर्देशक ने बेहद सूझ बूझ का परिचय दिया है जिससे कहानी एक काव्यात्मक अंत की ओर आगे बढ़ जाती है। और आत्मीयता और व्यक्तित्व के विकास के अवसरों की अनुपस्थिति में जीवन जीते स्टनली के जीवन के बहुत अंधेरे कोनो में ले जाते हुए मास्टर वर्मा के बचपन से साक्षात्कार करा देती है।      

नोट: यह आलेख परिकथा के नये अंक में प्रकाशित है

Sunday, June 12, 2011

सपने में भी जागने का आग्रह


रोहित जोशी 

 सपने में खुद से संवाद होता है। जापानी फिल्मकार 'अकीरा कुरूशावा' की लघु
फिल्मों की एक सीरीज ‘ड्रीम्स्‘ भी यूं ही संवाद करती है। यह संवाद एक ओर
निर्देशक का खुद से है तो वहीं दूसरी ओर यह संवाद उसके समय का भी स्वयं
से है, जिसके केन्द्र में मानवता के विमर्श की चुनौतियां हैं। सही अर्थों
में यह फिल्म श्रृंखला यहीं पर सबसे अधिक सफल है। 10-20 मिनट की कुल
छोटी-छोटी 8 फिल्मों में निर्देशक ने एक सपने का सा अहसास लगातार बनाकर
रखा है। लेकिन इन सपनों में ‘जागने’ का आग्रह भी निरन्तर मिलता है।
‘क्रोज़’ के अतिरिक्त अन्य फिल्मों में जापानी पृष्ठभूमि पर ही फिल्मांकन
है। दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका से अब तक न उबर पाऐ जापानी समाज की
युद्ध के प्रति घृणा फिल्मों में बार बार उभर कर आती है। ‘माउण्ट फ्यूजी
इन रेड’,‘द टनल’ और ‘द वीपिंग डिमोन’ रासायनिक हथियारों के दुष्परिणाम को
चित्रित करते हुए सहज मानवीय संवेदनाओं को स्पन्दित कर युद्ध के खिलाफ
खड़ी होती हैं। ‘द ब्लिजार्ड’ फिल्म प्रकृति पर मानव की निरन्तर विजय की
कहानी को आगे बढ़ाती है। बर्फीले तूफान में फंसे कुछ पर्वतारोहियों के दल
का मृत्यु पर जिजिविषा के दम पर विजय पा लेना फिल्म की मूल कहानी है।
फिल्म में छिटपुट संवाद है।
‘सन साइन थ्रू द रेन’ जापान की किसी लोक कथा पर आधारित फिल्म है। यह
फिल्म मेरे लिए इसलिए भी रोचक है कि यह लोक कथा जापान से कई दूर मेरे
अंचल ‘कुमाऊॅ’ में भी इसी रूप में प्रचलित है। फिल्म की कहानी का आधार
लोक मान्यता के अनुसार यह है कि रिमझिम बरसात और धूप जब एक साथ निकलते
हैं तो लोमड़ियों की शादी होती है। यहां ऐसे ही एक मौसम में एक बच्चे को
लेकर कहानी चलती है जिसकी मां ने उसे डराया हुआ है कि जंगल में अभी
लोमड़ियों की शादी हो रही होगी इसे देखना ख़तरनाक है। लोमड़ियां इससे
नाराज होती हैं। बच्चे का बच्चा होना उसे जंगल की ओर धकेल देता है। कहानी
का खूबसूरत फिल्मांकन है और जंगल के दृश्य में जिन रंगों को फिल्मकार ने
पकड़ा है वह अद्भुत् हैं।
‘विलेज आफ वाटर मिल्स्’ विकास के वर्तमान ढ़ाचे पर सवाल उठाती फिल्म है।
जहां आवश्यकता उत्पादन के आधार पर तय की जा रही है। यह एक खूबसूरत गांव
है। जहां हरे भरे जंगल के बीच बहती शांत छोेटी नदी के बीच कुछ पनचक्कियां
लगी हुई हैं। पर्याप्त दूरी पर घर हैं। एक गांव से बाहर का युवक गांव को
देखकर लगभग चकित सा गांव में घूम रहा है। वह गांव में घूमता हुआ एक घर
में एक वृद्ध से मिलता है और गांव के बारे में पूछता है। वृद्ध और युवक
के बीच में हुआ यह संवाद, वर्तमान समय तक हो चुके हमारे विकास की समीक्षा
कर देता है और विकास के वर्तमान ढ़ांचे से दर्शक के मन में असंतुष्टि
पैदा करता है।
सीरीज की अगली फिल्म ‘क्रोज़’ है। यह अकीरो कुरूशावा की वह फिल्म है जो
उन्हें उनके निर्देशन और फिल्म कला की समझ के लिए सलामी देती प्रतीत होती
है। यह फिल्म महान चित्रकार विन्सेन्ट वान गॉग के जीवन पर आधारित है।
सिर्फ दस मिनट और पन्द्रह सेकन्ड की इस फिल्म में वॉन गॉग सामने आ उतरते
हैं। कहानी वान गॉग की आर्ट गैलेरी से शुरू होती है जहां एक नया चित्रकार
उनके चित्र देख रहा है। वह चित्रों में जा उतरता है। फिर चित्रकार को उसी
के चित्रों में खोजते-खोजते गेहूं के उन खेतों में जा पहुंचता है जो
वानगॉग ने खूब चित्रित किए हैं। वहां वह वान गॉग से मिलता है। एक छोटा
संवाद है जो वान गॉग की आत्म कथा से प्रेरित है। आखिरी दृश्य में ढेर
सारे कौवों का गेहूं के खेत में से उड़ने का वही दृश्य चित्रित किया गया
है जो वान गॉग की आखिरी पेंटिंग है। यह फिल्म संभवतः इसलिए महान बन पाई
है कि कुरूशावा खुद भी एक चित्रकार रहे हैं। वे टोकियो फाइन आर्ट कालेज
के विद्यार्थी रहे हैं और वान गॉग से बहुत प्रभावित भी।
‘ड्रीम्स्‘ सीरीज की यह फिल्में विश्व सिनेमा के एक पूरे अध्याय की तरह
हैं। जिसे सिनेमा के विद्यार्थियों को जरूर पढ़ना चाहिए।