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Sunday, February 14, 2010

चाहिए एक और संत वेलेन्टाइन



बाजार में मंदी की मार ने जहां कई क्षेत्रों के प्रतिभावानों को अपने रोजगार से हाथ धोने को मजबूर किया वहीं पत्रकारिता से जुड़े लोग जानते हैं कि उनके कई संगी साथियों के जीवन में इस मंदी ने ऐसी हलचल मचाई है कि लाला की नौकरी के मायने क्या होते हैं, वे इसे भली प्रकार समझने लगे हैं। प्रीति भी उसी मंदी के दौर की मार को झेलने के बाद अपने रोजगार से हाथ धोने के बाद आज एक सामान्य घरेलू महिला का जीवन बिताने को मजबूर हुई है। प्रीति को उसकी रिपोर्टिंग से जानने वाले पाठक जानते हैं कि बहुत ही जिम्मेदारी से प्रीति किसी भी रिपोर्ट को तैयार करती रही है। प्रीति जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा , हरिभूमि आदि अख़बारों में विभिन्न सामाजिक आर्थिक और स्त्री अधिकार के मुद्दों पर संपादकीय आलेख लिखती रहीं हैं। कृषि और महिला मुद्दों पर विभिन्न शोध परियोजनाओं पर काम किया है।
हम प्रीति के आभारी है कि वेलेंटाइन डे के समर्थन और विरोध के हल्ले के बीच  उन्होंने इस ब्लाग के पाठकों को एक सार्थक और बेबाक टिप्पणी से रूबरू होने का  अवसर दिया है:


प्रीति सिंह
 सदियों पहले जब संत वेलेन्टाइन ने रोम के राजा क्लॉडियस द्वितीय की आज्ञा को चुनौती देते हुए अपने चर्च में गुपचुप किसी जोडे की शादी करवाई होगी तो उन्हें सपने में भी गुमान न होगा कि सत्ता की जबरदस्ती के खिलापफ संघर्ष की उनकी इस अभिव्यक्ति को भुनाकर एक दिन बाजार के सौदागर करोड़ों रुपयों के वारे न्यारे करेंगे। आज किसी को इस बात से लेना-देना नहीं है कि उस सामंती युग में संत वेलेन्टाइन का यह कदम कितना दुस्साहसिक था जब राजा की आज्ञा ही कानून थी। और उसे तोड़ने की सजा मौत भी हो सकती थी। मौत से भी खेलकर संत वेलेन्टाइन ने शादियां करवाना जारी रखा और जैसी कि उम्मीद थी सामंती युग की क्रूरता के शिकार हुए।
    भारत में दो तरह के लोग इस दिन का विरोध् करते हैं। एक तो, शिव सेना जैसे कुछ राजनीतिक दल, खाप व जाति पंचायतें तथा सामंती मूल्यों को प्रश्रय देने वाले कई और तरह के संगठन व संस्थाएं। दूसरे, बाजारवाद का विरोध् करने वाले। प्यार जैसी स्वाभाविक मानवीय भावनाओं को बाजारू बना दिए जाने का विरोध् तो होना ही चाहिए। प्यार की सच्ची भावना को किसी सुंदर ग्रीटिंग कार्ड, गिफ्रट या एसएमएस की जरूरत नहीं होती। हर दिन प्यार का दिन है लेकिन प्यार का कोई एक दिन मनाने में दित भी क्या है? यदि शिक्षक दिवस और शहीदी दिवस मनाए जा सकते हैं तो वेलेन्टाइन डे क्यों नहीं? क्या शिक्षक दिवस के अलावा बाकी दिन हम शिक्षकों की इज्जत नहीं करते। आज 21वीं सदी में पहुंचकर भी भारतीय समाज सामंती युग में करवटें बदल रहा है। हमारे देश में व्यक्ति की स्वतंत्राता कागज के चंद पन्नों पर जरूर उकेर दी गयी है लेकिन समाज के बड़े हिस्से ने व्यक्तिगत स्वतंत्राता के इस अधिकार को स्वीकार नहीं किया है। समाज में खाप पंचायतों, परिवार के मुखिया और बड़े जमींदारों का दबदबा बना हुआ है। यहां आज भी प्यार करना जनवादी अधिकार नहीं बल्कि अपराध् है। प्यार करना सामाजिक मान्यताओं और पारिवारिक मूल्यों के विरूद्ध् बगावत है। उत्तर भारत के बड़े हिस्से में अपने जीवन साथी का चुनाव लोकतांत्रिक अधिकार नहीं बल्कि सदियों पहले स्थापित अमानवीय सामंती मूल्यों को चुनौती माना जाता है जिसकी सजा मौत भी हो सकती है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समय-समय पर ऐसी घटनाएं अखबारों में छपती हैं जिसमें अपनी मर्जी से शादी करने वाले युवक-युवती को मारा-पीटा जाता है या उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया जाता है। परिवार की इज्जत के नाम पर शादी तुड़वाने की कोशिश तो लगभग हर मामले में की जाती है। इन ताकतों से लड़ने के लिए आज हमारे देश को एक ऐसे संत वेलेन्टाइन की जरूरत है जो अपनी पसंद से शादी करने जैसे लोकतांत्रिक और मानवीय अधिकारों की रक्षा करने में मदद कर सके। कोई ऐसा संत जो उन दुर्गंधयुक्त सड़ी-गली मान्यताओं के खिलापफ संघर्ष कर सके जो परिवार की इज्जत के नाम पर लाखों-करोड़ों लड़कियों के सपनों और इच्छाओं का गला घोंट देती हैं। ऐसा संत जो प्यार करने वालों को अपराधियों की नजर से नहीं बल्कि सम्मान की नजर से देखने का दृष्टिकोण पैदा करवा सके।
     वेलेन्टाइन डे के नाम पर चांदी कूटने वाले बाजार के सौदागरों को इस बात की परवाह नहीं कि समाज आगे जा रहा है या पीछे। उन्हें सिर्फ अपने मुनाफे की फ़िक्र होती है जिसे बढ़ाने के लिए वे सती को महिमा-मंडित कर सकते हैं और संत वेलेन्टाइन के नाम का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। बाजार करवा चौथ को "हस्बैंड डे" बना देता है और प्रेम जैसी निजी भावना को भी उत्पाद बनाकर बेच सकता है। यहां तक कि वे पूंजीवाद के धुर विरोधी क्रांतिकारी चे ग्वेरा के नाम व छवि को भी भुना सकते हैं।
     वेलेन्टाइन डे पिछले 10-15 सालों में बड़े शहरों के इलीट वर्ग के दायरे से निकलकर छोटे शहरों और कस्बों के स्कूल-कॉलेजों में सेंधमारी कर चुका है। लेकिन यह संत वेलेन्टाइन की तरह समाज की बुराइयों से नहीं लड़ रहा बल्कि मानवीय भावनाओं को बेचकर अपनी तिजोरियां भर रहा है। यह युवा दिलों को अपनी भावनाओं का इजहार करने के लिए बाजार का सहारा लेने के लिए आकर्षित कर रहा है। स्वाभाविक है कि इस दिन के पहले या बाद में उस लड़के-लड़की को समाज किस तरह प्रताड़ित कर रहा है, यह देखना बाजार का काम नहीं। न ही यह देखना इसका मकसद है कि प्रेम जैसी भावनात्मक क्रिया कब और कैसे इसी बाजार की शक्तियों के द्वारा यौन उच्छृंखलता की ओर धकेली जा रही है। आज युवाओं में ऐसी विकृत प्रेम भावना पैदा हो रही है जहां शरीर मुख्य है, भावनाएं गौणऋ यौन आकर्षण मुख्य है मानसिक संतोष गौण है। इस विकृत प्रेम की प्रतिक्रिया में ही ऐसे सामंती समूहों को समर्थन मिल रहा है जो इसका विरोध् करने के नाम पर दूसरी घोर विकृति पैदा कर रहे हैं। वे वेलेन्टाइन डे का विरोध् करने के नाम पर ऐसे दकियानूसी सामंती मूल्यों को स्थापित करना चाहते हैं जहां प्रेम करना अपराध् है।
    क्या इन दोनों अतिवादियों के बीच कोई ऐसी जगह नहीं, जहां बाजार के नियंत्राण के बिना सच्ची मानवीय भावनाओं के साथ प्रेम को अभिव्यक्त करने की आजादी हो। जहां पे्रम करना अपराध् न हो बल्कि मनुष्य का निजी मामला और उसका निजी अधिकार हो जिसका उल्लंघन करने की इजाजत किसी खाप पंचायत, किसी धर्म, किसी मठाधीश या समाज के किसी ठेकेदार के पास न हो।