Sunday, April 27, 2008

अखबार में छपे मैटर की लाइफ एक दिन या हफ्ता भर और ब्लाग पर छ्पे की --- ?

सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" पर मदन शर्मा का संस्मरण

उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" ने अपनी आयु के अंतिम द्स वर्ष, राजपुर (देहरादून) में व्यतीत किये। उन दिनों उनसे मेरा निकट का सम्बन्ध रहा।
मफ्तून साहब ने दिल्ली में 54 वर्ष साप्ताहिक 'रियासत" का शानदार सफलतापूर्वक सम्पादन किया। वे एक उच्च कोटि के लेखक थे। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ 'नाकाबिल-ए-फरामोश" और 'जज़बात-ए-मशरिक," भारतीय साहित्य में मील का पत्थर हैं। हज़रत जोश मलीहाबादी और महात्मागांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, खुशवंत सिंह और अन्य हज़ारों साहित्य प्रेमी उनके प्रशंसक, रियासतों के राजा-महाराजा, उनके नाम से ही जलते थे। उर्दू लेखक कृश्नचन्दर की प्रथम रचना को उन्होंने तब 'रियासत" में प्रकाशित किया था जब कृशनचन्दर कक्षा नौ के विद्यार्थी थे।
देहरादून में, राजपुर बस-स्टाप से बायें हाथ, चौड़ी पक्की सड़क मसूरी के लिए है। बिल्कुल सामने एक पतली-सी चढ़ाई, कदीम राजपुर के लिए खस्ताहाल मकानों से होते हुए, शंहशाही आश्रम की ओर ले जाती है। इन दोनों मार्गों के बीच, एक बाज़ूवाली गली है जो घूमकर पुराने राजपुर के उसी मार्ग से जा मिलती है। इसी गली में कभी, उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह मफ्तून ने अपनी आयु के अंतिम दस वर्ष व्यतीत किये थे। यहाँ वे दो बड़े कमरों, लम्बें बरामदों और खुले आंगन वाले पुराने से मकान में अकेले रहते थे। आयु 80 के ऊपर थी। सीधा खड़ा होने में पूर्णत: असमर्थ। काफी झुककर या घिसट-घिसट कर किचिन या टॉयलेट तक जाते और अपना काम निबटाते। पड़ोस में रहने वाली स्वरूप जी, घर की साफ-सफाई कर जाती, या चाय-वाय की व्यवस्था कर देती। दिल्ली में, धड़ल्ले से छपने और देश-भर में तहलका मचा देने वाला साप्ताहिक 'रियासत" कभी का बंन्द हो चुका था। लेकिन राजपुर वाले इस मकान के दफ्तर में, लम्बी चौड़ी मेंज़ों पर मोटी-मोटी फ़ाइलें, रियासत के सिलसिलावर अंक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, कृश्नचन्दर, सआदत हसनमंटो और अन्य सैकड़ों प्रशंसकों द्धारा लिखे पत्र, अलग-अलग फ़ाइलों में मौजूद हैं। एक जगह खुशवंत सिंह का नाम भी दिखाई पड़ रहा है।
उस मकान में वह अकेले रहते थे। मगर हर रोज मिलने वालों का तांता लगा रहता। यार-दोस्त, प्रशंसक, पत्रकार, मश्वरा लेने वाले। वे एक माने हुए मेहमान नवाज़ थे। मेहमान को हमेशा भगवान का दर्जा दिया करते।
ज्ञानी जैल सिंह उन दिनों पंजाब के मुख्यमंत्री थे। मफ्तून साहब से मिलने आये थे। बात-चीत हुई। ज्ञानी जी ने कहा-" आप यहाँ उजाड़ में पड़े क्या कर रहे हैं, चंडीगढ़ आजाइये''
""चंडीगढ़ में क्या करूंगा?'' मफ्तून साहब ने पूछा। ज्ञानी जी ने सहज भाव से कहा, "बातें किया करेंगे।'' मफ्तूत साहब छूटते ही बोले, "तुमने मुझे सोर्स ऑफ एन्अरटेनमेंट समझ रखा है?''
दोनों खिलखिला पड़े। उन्हें दो जगह से पेंशन मिल रही थी। पंजाब सरकार से और केंद्र सरकार से भी। इसके अतिरिक्त कितने ही उनके पुराने प्रशंसक थे, जों अब भी उन्हें चेक भेजते रहते थे और उसमें से बहुत को वे जानते तक नहीं थे। वे कहा करते---" इस जमाने में भी आप अगर काबिल हैं और आपका क्रेक्टर है तो लोग आपके पीछे, रूपए की थैलियां लिए घूमेंगे ---''
मैंने अब तक उनके बारे में महज़ सुना था। मिलने का कभी मौका न मिला था। एक दिन इन्द्र कुमार कक्कड, ""1970'' साप्ताहिक के लिये उनका साक्षात्कार लेने गये, तो अपने मोटर साईकिल पर मुझे भी साथ ले गये।
वे लम्बे चौड़े शरीर के खुशमिज़ाज, मगर लाचार से व्यक्ति नज़र आये। बिस्तर पर तकियों के सहारे अध-लेटे हुए वे बातचीत कर रहे थे। बाद में भी वे अकसर ऐसी अवस्था में ही नज़र पड़े।
उन्होंने बारी-बारी, हम दोनों से परिचय प्राप्त किया। मेरे बारे में मालूम कर, कि मैं उपन्यास वगैरा लिखता हूँ, उन्होंने हंसते हुए, लेखकों और कवियों के बारे में दो-तीन लतीफे सुना दिये। मुझे फीका सा पड़ता देख, वे अखबार वालों की ओर पलट पड़े-"यह अखबार वाले, क्रिमनल-क्लास के आदमी होते हैं। और इनमें सबसे बड़ा ऐसा क्रिमनल मैं खुद रहा हूँ'' ऐसा कह वे कहकहा लगा कर हंसने लगे।
अचानक उन्होंने मुझ से पूछा, "आपकी पैदायश कहां की है?'' मैंने जगह का नाम बताया, तो वे चौंक कर बोले, "रियासत मलेरकोटला के। मैं वहां कई बार जा चुका हूँ। मैं जिन दिनों महाराजा की मुलाज़मत में था, कई जरूरी कामों के सिलसिले में, मुझे वहां के नवाब अहमद अली खां से मुलाकात का मौका मिला था। मलेरकोटला अच्छी ज्रगह है। वहां के लोग बेहद मेहनती, ईमानदार मगर कावर्ड क्लास के होते हैं। जिस जगह की मेरी पैदायश है वह जगह अब पाकिस्तान में है। वहां के लोग भी बहुत मेहनती होते हैं। पैसा खूब कमाना जानते हैं। वे अच्छे मेहमानवाज होते हैं। मगर उनमें एक खूबी यह भी है, कि वो दुश्मन को कभी मुआफ़ नहीं करते। बल्कि उसका खून पी जाते हैं।''
फिर वे लेखन की ओर मुडे "---कम लिखो, मगर ऐसा लिखो, जो दूसरों से कुछ अलग और अनूठा हो। उस लिखे की उम्र लम्बी होनी चाहिये। अखबार में छपे मैटर की लाइफ एक दिन या हफ्ता भर होती हैं। किसी रसाले में छपा, ज्यादा से ज्यादा एक महीने का मगर जो महात्मा तुलसी दास ने लिखा, उसे कई साल हो गये ---''
पंडित खुशदिल ने अपने उर्दू अखबार 'देश सेवक" के माध्यम से मफ्तून साहब की शान में, कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया। मफ्तून साहब को नागवार गुज़रा, क्योंकि उनकी खुशदिल से उनकी पुरानी जान पहचान थी। वे कितनी बार सपरिवार दिल्ली में उनके मेहमान बनकर रहे थे और कितनी बार मफ्तून साहब ने पंडित खुशदिल की माली इमदाद भी की थी। खुशदिल को अपनी गलती का, बाद में एहसास भी हो गया और उसने मफ्तून साहब से मुआफ़ी मांगने की भी कोशिश की थी, मगर मफ्तून साहब की डिक्शनरी में तो मुआफ़ी शब्द मौजूद ही नहीं था। वे मुझे बुला कर कहने लगे, ""मदन जी, आप एक काम कीजिये, देहरादून का जो टॉपमोस्ट एडवोकेट हो, उससे मेरी मुलाकात का टाइम फिक्स कराइये। मैं खुशदिल पर मुकदमा ठोकूंगा और नाली में घुसेड़ दूंगा।''
मैं सरकारी मुलाज़िम होने की वजह से इन दिनों अखबारी शत्रुओं के पचड़ें मे पड़ना नहीं चाहता था, इसलिये चुप ही रहा।
कुछ दिन बाद, मफ्तून साहब का पत्र मिला ---"-आप छुट्टी के दिन इधर तशरीफ़ लायें। जरूरी मश्वरा करना है ---। दीवान सिंह''
मैं जाकर मिला। इधर-उधर की बातचीत और चाय के बाद उन्होंने पूछा, "आप उर्दू से हिंदी में तर्जुमा कर सकते हैं?'' मैंने कहा, "थोड़ा बहुत कर ही लेता हूँ।''
"थोड़ा-बहुत नहीं, मुझे अच्छा तर्जुमा चाहिये। आप फिलहाल एक आर्टिकल ले जाइये। इसे हिन्दी में कर के मुझे दिखाइये, ताकि मेरी तसल्ली हो जाये।''
मैं उनका लेख उठा लाया और अगले रविवार, अनुवाद सहित राजपुर जा पहुँचा।
""आप इसे पढ़ कर सुनाइये।''
मैंने पढ़कर सुना दिया। सुनकर वे चुपचाप बैठे रहे और मैं चाय पीकर वापस लौट आया।
तीन दिन बाद उनका पत्र मिला, जिसमें लिखा था- "मेरे ख्याल के मुताबिक आप एक फर्स्ट क्लास ट्रांस्लेटर हैं। आप अगले रविवार को तशरीफ़ लाकर मेरी किताब का पूरा मैटर तर्जुमे के लिये ले जा सकते हैं।''
मैं उनकी किताब का मसौदा लेने राजपुर पहुंचा, तो बोले, "आप एक बात साफ़-साफ़ बताइये, इस किताब के पूरा तर्जुमा करने के लिये कितना मुआवज़ा लेंगे?''
मैंने चकित होकर कहा, "यह आप क्या कह रहे हैं। मेरे लिये तो यह फ़ख्र की बात है, कि मैं आपकी किताब का हिंदी में अनुवाद कर रहा हूँ। वे मुस्करा कर बोले, "यह आप ऊपर-ऊपर से तो नहीं कह रहे?'' मैने उन्हें यकीन दिलाया, कि जो कह रहा हूँ, दिल से ही कह रहा हूँ। मैंने पूरी किताब का अनुवाद किया। इन्द्र कुमार कक्कड़ ने उसे तरतीब दी और डॉ. आर के वर्मा ने पुस्तक प्रकाशित कर दी।
यह पुस्तक, जिस का नाम 'खुशदिल का असली जीवन" था मफ्तून साहब ने लोगों में मुफ्त तकसीम की और उसके माध्यम से देश सेवक के सम्पादक पंडित खुशदिल को सचमुच नाली में घुसेड़ दिया।
उर्दू के मशहूर शायर जनाब जोश मलीहाबादी ने अपनी ज़ब्रदस्त किस्म की किताब 'यादों की बारात" के एक अध्याय में लिखा है --- पूरे हिंदुस्तान में शानदार किस्म की गाली देने वाले तीन व्यक्ति अपना जवाब नहीं रखते। उनमें पहले नम्बर पर फ़िराक गोरखपुरी का नाम आता है। दूसरे नम्बर पर सरदार दीवान सिंह मफ्तून और तीसरे नम्बर पर खुद जोश मलीहाबादी। इनमें पहले और तीसरे नम्बर के महानुभावों से मिलने का मुझे मौका न मिल सका। मगर मफ्तून साहब से, वर्षों तक मिलने और बातचीत करने के नायाब मौके मिले। सिख होने के बावजूद वे हमेशा उर्दू में ही बातचीत किया करते थे। मगर उस बातचीत के दौरान, वे जिन गालियों का अलंकार स्वरूप प्रयोग किया करते, वे ठेठ पंजाबी में होती। उन गालियों का प्रयोग वे बातचीत में इतना उम्दा तरीके से करते, कि सुनने वाला वाह कह उठता।
मफ्तून साहब की भाषा में एक अन्य विशेषता भी थी। वे जिस तरह बोलते थे, उसी तरह लिखते थे। यह दीगर बात है, कि उस लेखन में वे गालियां शामिल न होती थी। उनके द्धारा बोले या लिखे जाने वाले वाक्य, सरल उर्दू में लेकिन लम्बे होते थे। मगर उनमें व्याकरण की अशुद्धि कभी नहीं मिल सकती थी। उनकी सुप्रसिद्ध किताब नाकाबिल-ए-फ़रामोश का हिंदी संस्करण, 'त्रिवेणी" नाम से छपा। इस किताब के छपने से खूब नाम और पैसा मिला। पुस्तक में जो छपा है, वह मफ्तून साहब के संघर्षमय जीवन का 'सच" है, जो पाठकों के लिये एक मशाल का काम करता है।
नाकाबिल-ए-फ़रामोश के उर्दू संस्करण की सभी प्रतियां खप चुकी थी। किंतु 'त्रिवेणी" की काफी प्रतियां अभी मफ्तून साहब के पास मौजूद थी। उन्होंने अखबार में विज्ञापन दे दिया, कि जो व्यक्ति किताब का डाकव्यय उन्हें मनीआर्डर से भेज देगा, उसे त्रिवेणी की प्रति मुफ्त भेज दी जायेगी। उनका नौकर हर रोज़ किताबों के पैकेट बनाता और पोस्ट आफिस जा कर रजिस्ट्री करा देता। मैंने हैरान होकर कहा, "यह आप क्या कर रहे हैं। इतनी मंहगी किताब लोगों को मुफ्त भेजे चले जा रहे हैं।''
वे हँस कर बोले,
"अब मैं ज्यादा दिन नहीं चलूंगा। मेरे बाद लोग इन किताबों को फाड़-फाड़ कर, समोसे रख कर खाया करेंगे। इससे अच्छा है, जो इसे पढ़ना चाहे, वे पढ़ लें।''
एक दिन दैनिक 'दूनदपर्ण" के सम्पादक एस. वासु उनसे मिलने आये तो कहने लगे, "अपनी इस किताब की एक जिल्द इस नाचीज को भी इनायत फ़रमाई होती।''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, "दरअसल यह किताब मैंने उन अच्छे लोगों के लिये लिखी है, जो इसे पढ़कर और अच्छा बना सकें। इसीलिये मैंने यह किताब आप को नहीं दी।''
वासु ने चकित होकर पूछा, ""मेरे अंदर आपने क्या कमी पाई?''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, ""कुछ रोज़ पहले, आप रात के बारह बजे मेरे यहां शराब की बोतल हासिल करने की गरज़ से तशरीफ़ लाये थे न? आप यह किताब लेकर क्या करेंगे?''
हिंदी कहानी पत्रिका 'सारिका" में एक कॉलम 'गुस्ताखियाँ"" शीर्षक से छप रहा था, जिसक माध्यम से,, हिंद पॉकेट बुक्स के निदेशक प्रकाश पंडित, अपने छोटे-छोटे व्यंग्य लिख कर जानीमानी हस्तियों पर छींटाकशी किया करते थे। एक बार वह गलती से वे मफ्तून साहब की मेहमान वाज़ी को केन्द्र बना कर बेअदबी कर बैठे। किसी ने सारिका का वह अंक मफ्तून साहब को जा दिखाया। प्रकाश पंडित को मफ्तून साहब अपना अज़ीज मानते थे। सुन कर वह इतना ही बोले, "यह बेचारा अगर काबिल होता, तो किसी की दुकान पर बैठ कर किताबें बेचता नज़र आता।''
मफ्तून साहब उच्च कोटि के सम्पादक और लेखक होने के बावजूद बहुत ही विनम्र थे। वे पहली मुलाकात में जाहिर कर देते थे, कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं है। वे अकसर मज़ाक के मूड में कहते।।। "मैं महज़ इतना पढ़ा हूं, जितना भारत का शिक्षामंत्री मौलाना आज़ाद, यानि पांचवी पास।''
एक दिन उनके पास पंजाबी युनिवर्सिटी के प्रोफेसर मोहन सिंह आये हुए थे। मुझसे उनका परिचय कराते हुए बोले, "इन्हें पिछले दिनों कोई बड़ी उपाधि मिली है। समझ में नहीं आता, जब इनसे बड़ा बेवकूफ मैं यहां मौजूद था, तो यह उपाधि मुझे क्यों नहीं दी गई।''
मफ्तून साहब के व्यक्तित्व में बला का आकर्षण था। उनके द्धारा कही गई साधारण बातचीत में भी गहरा अर्थ निहित रहता। मैं और इन्द्र कुमार कक्कड़, अकसर रविवार के दिन उनके दर्शन करने जाया करते। उन्हें हर वक्त सैकड़ों लतीफे या किस्से याद रहते, जिनके माध्यम से, स्वयं उनके सम्पर्क आये लोगों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता था। यह सब बयान करने की उनकी शैली इतनी उम्दा थी, कि सुनने वाला घंटों बैठा सुनता रहे और मन न भरे।
एक बार उनके पास एक आदमी, किसी का सिफारिश पत्र लेकर पहुंचा, जिसमें लिखा था, कि इस ज़रूरत मंद आदमी के लिये किसी कामकाज़ का बंदोबस्त कर दिया जाये। मफ्तून साहब ने उस आदमी के लिये रहने और खाने की व्यावस्था कर दी और कहा, "शहर में घंटाघर से थोड़ी दूर मोती बाज़ार है। वहां पर देश सेवक अखबार का दफ्तर है। आपको यह पता करना है कि वहाँ हर रोज़ लगभग कितनी डाक आती है।''
वह आदमी एक सप्ताह के बाद रिर्पोट लेकर पहुंचा और बोला, "क्या खाक डाक वहाँ पर आती है। हफ्ते भर में सिर्फ एक पोस्ट कार्ड आया, जिसमें लिखा था, कि ---
मफ्तून साहब ने टोका, "श्रीमान जी, मैंने आपको सिर्फ यह मालूम करने के लिये भेजा था, कि वहां पर हर रोज़ कितनी डाक आती है, या किसी का खत पढ़ने के लिये। दूसरों के खत पढ़ने वाले लोग यकीन के काबिल नहीं होते। इसलिऐ मुझे अफसोस है, कि मैं आपके लिए किसी काम का बंदोबस्त नहीं कर सकता।''
मेरे पड़ोसी मोहन सिंह प्रेम, मफ्तून साहब के प्रशंसक थे और उनसे मुलाकात के बहुत इच्छुक थे। मैंने उन्हें राजपुर जाकर मफ्तून साहब से मिल आने के लिये कह दिया। कुछ दिन बाद मैं मफ्तून साहब से मिला, तो वे कहने लगे, "आपने मेरे पास किस बेवकूफ को भेज दिया। वह आदमी जितनी देर मेरे पास बैठा रहा, आत्मा-परमात्मा की बातें ही करता रहा। मैंने बेजार होकर कह दिया, सरदार साहब, दिल्ली में आत्माराम एंड संस को तो मैं जानता हूँ, जो किताबें छापते हैं। मगर आपके आत्मा परमात्मा या धर्मात्मा जैसे लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं।''
एक दिन कोई अखबार वाला उनके पास आकर हालात का रोना रोने लगा ---"क्या बताऊँ, अखबार तो चल ही नहीं रहा। आप ही कुछ रास्ता बतायें।'' मफ्तून साहब ने कहा, "अखबार चलाने के तीन मकसद होते हैं। मुल्क और कौम की खिदमत करना और रूपया कमाना। आपका क्या मकसद हैं?''
वह आदमी बोला, ""जी मैं तो चार पैसे कमा लेना चाहता हूँ, ताकि दाल रोटी चलती रहे'', मफ्तून साहब बिगड़ कर बोले, "आप अखबार चलाने के बजाय, तीन चार कमसिन और खूबसूरत लड़कियों का बंदोबस्त करके उनसे धंधा कराइये। कुछ ही दिन में आपके पास पैसा ही पैसा होगा। आप अखबार चलाने के लायक नहीं।''
एक दिन मैंने कहा, "देश में भ्रष्टाचार तो बढ़ता ही चला जा रहा है। आखिर होगा क्या?'' वे सोचने लगे। फिर बोले, "बहुत जल्द वह जमाना आने वाला है कि यही लोग, जो लीडरों के गले में फूलों के हार पहनाते नहीं थकते, इन्हीं लीडरों के लिये बंदूकें लिये, उनका पीछा करते नज़र आयेंगे।''
बातों का सिलसिला चल रहा था। इन्द्र कुमार ने कहा, "सुना है कृश्न चन्दर को आपने ही छापा था सबसे पहले।'' कृश्नचन्दर के बारे में बताने लगे---"वह तब नौंवी क्लास में पढ़ता था। उसने अपने किसी टीचर का नक्शा खींचते हुए तन्ज या व्यंग्य लिखा और मेरे पास भेज दिया। मुझे पसंद आया और रियासत में छाप दिया। उसको पढ़कर कृश्नचन्दर के टीचर और पिता ने भी, उसकी पिटाई कर डाली थी। काफ़ी दिन बाद उसकी एक कहानी मेरे पास आई। मैंने कहानी पढ़ी और तार दिया---'रीच बाई एयर"।
--- वह अगले ही दिन आ पहुँचा। मैंने कहा, "पहले फ्रेश होकर कुछ खा पी ले, फिर बात करेंगे।''
"यह कहानी तुमने लिखी?''
"जी''।
"इसे यहाँ तक पढ़ो।''
कृश्नचन्दर ने कहा, "यह तो वाकई मैं गलत लिख गया।''
"तो ऐसा करो, इसे अपने हाथ से ही ठीक कर दो। मफ्तून साहब के एकांउटेट ने उन्हें हवाई जहाज़ के आने जाने का किराया और डी. ए. वगैरा देकर विदा किया।''
इन्द्र कुमार ने कहा, "सआदत हसन मंटो के बारे में कुछ बताइये?'' बोले- "मंटो मेरा अच्छा दोस्त था। वह जिन दिनों दिल्ली में होता था शाम के वक्त मेरे दफ्तर में आता और देर तक बैठा रहता। मैं काम में लगा रहता और बीच बीच में उससे बात भी कर लेता। वह उठने लगता तो मैं पूछता,-'पियेगा?" वह जाते जाते रूक जाता और कहता, 'पीलूंगा।" मैं फिर काम में लग जाता। वह फिर उठने लगता, तो मैं फिर पूछ लेता, पियेगा? दो तीन बार ऐसा होने पर वह झुझला कर कहता, पिलायेगा भी कि ऐसे ही बनाता रहेगा?--- एक बार वह लगातार मेरी तरफ़ देखता जा रहा था। मैंने मुस्कुरा कर पूछा, "मंटो, क्या देख रहे हो।'' वह बोला--- "सरदार तुमने अपने माथे पर जो यह बेंडेज बाँध रखी है इससे तुम्हारी पर्सनैलिटी में चार चांद लग जाते हैं।'' मंटो में एक खास बात थी, कि वह एक नम्बर का गप्पी था। वह अपनी कहानी में जान पहचान वालों या किसी फ़िल्मी हस्ती का असली नाम डाल देता और बाकी पूरी कहानी उसके अपने दिमाग की पैदावार होती थी। उसमें ज़रा भी सच्चाई नहीं होती थी। मगर वह लिखता उम्दा था।''
मफ्तून साहब इन्द्र कुमार को सलाह दिया करते--- "मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी गलती थी, शादी करना। वरना मैं बहुत तरक्की करता। कक्कड़, आप हरगिज़ शादी नहीं करना। आप में काबिलियत है, बहुत तरक्की कर सकते हैं ---''
वे चौरासी के आसपास पहुँच चुके थे। शरीर काफ़ी कमज़ोर हो चला था। लेकिन अब भी किसी का सहारा लेना स्वीकार न था। उसी तरह घिसट-घिसट कर टॉयलेट या किचिन तक जाते। मैंने एक दिन साहस बटोर कर कह ही डाला, "ऐसी हालत में आप का परिवार साथ होता, तो बेहतर होता।''
वे मेरी और देखते रहे, फिर बोले, "मेरी बीवी बददिमाग है। उससे हमारी बातचीत बंद है। तीन लड़के हैं। बड़ा लड़का कारोबारी है। खूब पैसे कमाता है। मगर बहुत अकड़बाज है। मैं भी उसका बाप हूं। दूसरा थोड़ा ठीक-ठाक हैं। किसी तरह अपना और बाल बच्चों का गुज़ारा कर लेता है। तीसरा दिमाग से कमज़ोर हैं। मैं कभी कभी उसका माली इमदाद कर दिया करता हँू। मगर उनमें से किसी को भी यहां आने की इज़ाजत नहीं --- दे आर नॉट एलाउडटू एंटर दिस हाऊस।''
वे फिर कहने लगे, "मैंने अपनी जिंदगी में लाखों कमाये। अपने ऊपर खर्च किया। दोस्तों की मदद की। मगर सबसे ज्यादा मेरा रूपया, अखबार पर चलने वाले मुकदमों पर खर्च आ गया, जिस की वजह से दिल्ली में मुझे 'रियासत" का दफ्तर बन्द कर देना पड़ा। हाँ, शादी न करता तो बात कुछ और होती।''
उन्हें महसूस होने लगा था, अब लम्बे सफ़र की तैयारी है। राजपुर बस-स्टैंड के पास शांति की दुकान थी। मफ्तून साहब ने उसे अपने अंतिम संस्कार के लिये कुछ रकम सौंप रखी थी। वे रात को भी दरवाज़ा खुला रख कर सोते। जाने कब बुलावा आ जाये और बेचारे शांति को दरवाज़ा तुड़वाना पड़े। एक बार मैंने कहा, "अगर चोरी हो जाये तो?''
वे हँस कर बोले, "यहां के चोर थर्ड क्लास किस्म के हैं। वे दाल चावल या नमक मिर्च ही चुरा सकते हैं। हाँ, कोई पंजाबी चोर आ गया, तो वह भारी चीज़ उठाने की सोचेगा।''
उनकी बीमारी के बारे में जानकर पंडित खुशदिल भी पता लेने पहुँचे। हालचाल पूछा और अपने किये पर पश्चाताप करते हुए, मुआफ़ी की गुज़ारिश की। मुआफ़ी शब्द मफ्तून साहब की डिक्शनरी में नहीं था। मगर अंतिम समय मानकर उन्होंने केवल एक शब्द कहा, "अच्छा,''
बाद में मफ्तून साहब ने मुझे बताया, "खुशदिल आया था और मुआफ़ी मांग रहा था। मैंने अच्छा कह दिया। मैं एक बात सोच रहा हूँ, कि खुशदिल या तो महापुरूष है, या उल्लू का पट्ठा।''
कुछ अर्सा पहले उन्होंने अपनी नई किताब का मसौदा और प्रकाशन का व्यय, दिल्ली में अपने मित्र और शायर गोपाल मितल के पास भेजा था। पता नहीं चल सका, वह पुस्तक छपी या नहीं।
बहुत बीमार हो जाने पर महंत इंद्रेश चरण जी ने उन्हें कारोनेशन अस्पताल में दाखिल करा दिया। वहां वे प्राइवेट वार्ड में थे। उन दिनों 'फ्रटियरमेल" के सम्पादक दता साहब ने उनकी बहुत सेवा की और मुआमला नाज़ुक जानकर उन्होंने मफ्तून साहब के बेटे को सूचित कर दिया।
लड़के दिल्ली से आये और उन्हें बेहोशी की हालत में, कार में डाल कर ले गये।
दिल्ली में होश आने पर उन्होंने पूछा, "मैं कहां हूँ?''
"आप अपने परिवार में हैं।''
तभी उन्होंने शरीर त्याग दिया।
मदन शर्मा फ़ोन :-0135-2788210

Thursday, April 24, 2008

चाट पकोड़ी का स्वाद भी लोक आचरण की तस्वीर को सघन करता है

("रेलगाड़ी" सभी वय के लोगों को आकर्षित करती है लेकिन क्या चीज़ है जो इसको विशिष्ट छवि देती है ? यह एक बच्चे की आँखों से अनुभव किया जा सकता है। इंजन की वजह से इसका खिसकना संभव होता है। इस शब्द की वजह से रेल कितनी सरल और सुलभ लगने लगती है। रंगों का जिक्र और हिलने की क्रिया पूरी प्लेटफार्म की हलचल को प्रकाशित करती है। और हाँ, चाट पकोड़ी का स्वाद भी लोक आचरण की तस्वीर को सघन करता है. - राजेश सकलानी )

सौरभ गुप्ता, देहरादून

रेलगाड़ी

छुक्क छुक्क करती रेलगाड़ी आई
अपने पीछे कई डब्बे लाई
पटरी पर यह चलती हरदम
पर इंजन बिना कहीं न खिसके

काला था इंजन, सफेद थे डब्बे
डब्बों में थे रंग-बिरंगे लोग हिलते-डुलते
छुक्क छुक्क जब यह चलती
दूर तक सुनायी देती आवाज इसकी
प्लेटफार्म में धीरे हो जाए
स्टेशन में चाट पकौड़ी खाए
फिर धीरे-धीरे रफ्तार बढाए।

Tuesday, April 22, 2008

क्या मैं किसी बेरोजगार सुन्दर व्यक्ति से बात कर सकता हूं

(क्या मैं किसी बेरोजगार सुन्दर व्यक्ति से बात कर सकता हूं ?
जी हाँ, नया ज्ञानोदय के अप्रैल 2008 के अंक में प्रकाशित सुन्दर चन्द ठाकुर की कविताओं को पढ़ने के बाद अपने को रोक न पाने, पर जब कवि महोदय को फोन लगाया, तो यही कहा था मैंने।
थोड़ा अटपटाने के बाद एक सहज और संतुलित आवाज में ज़वाब मिला, जी बेरोजगार सुन्दर व्यक्ति ही बोल रहा है। फिर तो बातों का सिलसिला था कि बढ़ ही गया। कविता के लिखे जाने की स्थितियों पर बहुत ही सहजता से सुन्दर चन्द ठाकुर ने अपने अनुभवों को बांटा। निश्चित ही नितांत व्यक्तिगत अनुभव कैसे समष्टिगत हो जाता है, इसे हम सुन्दर चन्द ठाकुर की इस कविता में देख सकते हैं। एक ही शीर्षक से प्रकाशित ये दस कवितायें थीं, जिनमें से कुछ को ही यहाँ पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। कविता को पढ़ते हुए जो प्रभाव मुझ पर पड़ा था, वह वैसा ही आप तक पहुंचे, इसके लिए कविताओं के क्रम परिवर्तन की छूट लेते हुए उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है।)

सुन्दर चन्द ठाकुर, मो0 0991102826

एक बेरोज़गार की कविताऍं

एक
चांद हमारी ओर बढ़ता रहे
अंधेरा भर ले आगोश

तुम्हारी आँखों में तारों की टिमटिमाहट के सिवाय
सारी दुनिया फ़रेब है

नींद में बने रहे पेड़ों में दुबके पक्षी
मैं किसी की ज़िन्दगी में खलल नहीं बनना चाहता
यह पहाड़ों की रात है
रात जो मुझसे कोई सवाल नहीं करती
इसे बेखुदी की रात बनने दो
सुबह
एक और नाकाम दिन लेकर आएगी।


दो
कोई दोस्त नहीं मेरा
वे बचपन की तरह अतीत में रह गये
मेरे पिता मेरे दोस्त हो सकते हैं
मगर बुरे दिन नहीं होने देते ऐसा

पुश्तैनी घर की नींव हिलने लगी है दीवारों पर दरारें उभर आयी है
रात में उनसे पुरखों का रुदन बहता है
माँ मुझे सीने से लगाती है उसकी हडि्डयों से भी झरता है रुदन

पिता रोते हैं माँ रोती है फोन पर बहनें रोती हैं
कैसा हतभाग्य पुत्र हूँ, असफल भाई
मैं पत्नी की देह में खोजता हूँ शरण
उसके ठंडे स्तन और बेबस होंठ
कायनात जब एक विस्मृति में बदलने को होती है
मुझे सुनायी पड़ती है उसकी सिसकियाँ

पिता मुझे बचाना चाहते हैं माँ मुझे बचाना चाहती है
बहनें मुझे बचाना चाहती हैं धूप हवा और पानी मुझे बचाना चाहते हैं
एक दोस्त की तरह चाँद बचाना चाहता है मुझे
कि हम यूँ ही रातों को घूमते रहें
कितने लोग बचाना चाहते हैं मुझे
यही मेरी ताकत है यही डर है मेरा।


तीन
मैं क्यों चाहूँगा इस तरह मरना
राष्ट्रपति की रैली में सरेआम ज़हर पीकर
राष्ट्रपति मेरे पिता नहीं
राष्ट्रपति मेरी माँ नहीं

वे मुझे बचाने नहीं आयेगें।


चार
मेरे काले घुँघराले बाल सफ़ेद पड़ने लगे हैं
कम हँसता हूँ बहुत कम बोलता हूँ
मुझे उच्च रक्तचाप की शिकायत रहने लगी है
अकेले में घबरा उठता हूँ बेतरह
मेरे पास फट चुके जूते हैं
फटी देह और आत्मा
सूरज बुझ चुका है
गहराता अँधेरा है आँखों में
गहरा और गहरा और गहरा
और गहरा

मैं आसमान में सितारे की तरह चमकना चाहता हूँ।


पाँच
इस तरह आधी रात
कभी न बैठा था खुले आँगन में
पहाड़ों के साये दिखाई दे रहे हैं नदी का शोर सुनायी पड़ रहा है
मेरी आँखों में आत्मा तक नींद नहीं
देखता हूँ एक टूटा हुआ तारा
कहते हैं उसका दिखना मुरादें पुरी करता है
क्या माँगू इस तारे से
नौकरी!
दुनिया में इससे दुर्लभ कुछ नहीं

मैं पिता के लिए आरोग्य माँगता हूँ
माँ के लिए सीने में थोड़ी ठंडक
बहनों के लिए माँगता हूँ सुखी गृहस्थी
दुनिया में कोई दूसरा हो मेरे जैसा
ओ टूटे तारे
उसे बख्श देना तू
नौकरी!

Sunday, April 20, 2008

जूते बेचने के लिए

सुभाष पंत
मो० 09897254818
( सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। निम्न-मध्यवर्गीय समाज का कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुंचा जा सकता है।
यहां प्रस्तुत कहानी, शीघ्र ही प्रकाशन के लिये तैयार उनके नये संग्रह से ली गयी है. अभी तक सुभाष जी के छ: कथा संग्रह, एक नाटक और दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. "पहाड चोर"(उपन्यास) अभी तक प्रकाशित उनकी सबसे अन्तिम रचना हैं जो साहत्यिक जगत में लगातार हलचल मचाये हुए है. )


पुत्र की आत्मा चैतन्य किस्म के उजाले से झकाझक थी, जिसने उसके चेहरे की जिल्द का रंग बदल दिया था। भूरी काई दीवाल से ताजा सफेदी की गई दीवाल में। वह गहरे आत्मविश्वास से लबालब था, जो पैनी कटार की तरह हवा में लपलपा रहा था, जिसके सामने हम जमीन पर चारों खाने चित्त गिरे हुए थे। उसकी बगल में एक ओर राष्ट्रीय बैंक में अफसरनुमा कुछ चीज उसका पिता पशुपतिनाथ आसीन था। वो प्रसन्न था और वैसे ही प्रसन्न था जैसे किसी पिता को अपने बेटे की विलक्षण उपलब्धि पर होना चाहिए। खुशी से उसकी आंखें भरी हुई थीं और गला भरभरा रहा था। लेकिन उसकी अफसरनुमा चीज हड़काई कुतिया की तरह दुम दबाए बैठी थी। वह भौंकना भूल गई थी। पर जैसे ही उसे अपने महान संघर्षों और उपलब्धियों की हुड़क उठती, वैसे ही हड़काई कुतिया की पूंछ सौंटी हो जाती और हवा में लहराने लगती।
उसके संघर्ष सचमुच महान थे और उपलब्धियां चमत्कारी। वह घोर पहाड़ के ऐसे हिस्से में पैदा हुआ था, जहां कोई स्कूल नहीं था, लेकिन वहां एक दरिद्र-सा मंदिर जरुर था। उसके पिता उस मंदिर के पुजारी थे। वे बहुत गरीब थे। और सज्जन भी। पशुपतिनाथ उनकी पांचवीं संतान था। पिता कुण्डलियां बनाने और पढ़ने के माहिर थे। अपने बच्चों की कुंडलिया उन्होंने खुद ही बनाई थी और उनके गलत होने का कोई सवाल ही नहीं था। बच्चों की कुंडलियां पढ़कर उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि मेरी पांचवीं संतान पशुपति धर्मपरायण होगा और मेरे बाद इस मंदिर के पुजारी के आसन पर सुशोभित होगा। हालांकि तब पशुपति कुछ सोचने की उम्र से छोटा था, लेकिन पिता की इस भविष्यवाणी से उसकी नींद गायब हो गई। वह क्रांतिकारी किस्म का लड़का था और मंदिर में घंटी बजाना उसे कतई स्वीकार नहीं था। वह मौका देखकर घर से भागकर मौसा के पास शहर आ गया। शहर में आकर उसने बेहद संघर्षं किए और घोर पहाड़ का यह लड़का निरन्तर प्रगति करते हुए बैंक में अफसरनुमा कोई चीज बन गया। वह होशियार और चौकन्ना था। उसने जमीन की खरीद-फरोख्त और दलाल बाजार से काफी पैसा पीटा। अब उसके पास शहर की संभ्रान्त कालोनी में कोठी है। माली है, बागवानी है, ए।सी। है, कम्प्यूटर है, बाइक है, कार है और न जाने क्या क्या है। यह भयानक प्रगति छलांग थी जो घोर पहाड़ के गरीब पुजारी की पांचवीं सन्तान ने मंदिर की छत से एलीट दुनिया में लगाई थी। अपनी इस महान संघर्ष गाथा को, जिसका उत्तरार्ध सफलताओं से भरा हुआ था, सुनाने के लिए वह हमेशा बेचैन रहता।
पुत्र की बगल में दूसरी तरफ अलका बैठी थी। उसकी गर्वीली मां। औसत कद की गुटमुटी, गोरी और चुनौती भरे अहंकार से उपहास-सा उड़ाती आंखों वाली। उसने ढीला-सा जूड़ा किया हुआ था, जो उसकी गोरी गर्दन पर ढुलका हुआ था और उसके बोलने के साथ दिलकश अंदाज में नृत्य करता था। वह बनारसी साड़ी पहने हुए थी, जो शालीन किस्म से सौम्य और आक्रामक ढंग से कीमती थी। लेकिन अट्ठाइस साल पहले जब वह पशुपतिनाथ की दुल्हन बनकर आई थी, जो उन दिनो हमारे पड़ोस में एक कमरे के मकान में विनम्र-सा किराएदार था, तब वह ऐसी नहीं थी। उन दिनो वह किसी स्कूल मास्टर की दर्जा आठ पास लड़की हुआ करती थी। सांवली, छड़छड़ी। कसी हुई लेकिन लम्बी चुटिया। आंखों में विस्मय भरी उत्सुकता और सहमा हुआ-सा भय और काजल के डोरे। लेकिन जैसे जैसे उसका पति छलांग मारता गया वैसे वैसे यह सांवली लड़की भी बदलती चली गई। और पशुपति के अफसरनुमा चीज बनने के बाद तो उसे हमारा मौहल्ला, जो उस समय तक उसका मौहल्ला भी था, बहुत वाहियात और घटिया लगने लगा।
''यह रहने लायक जगह नहीं है। पता नहीं लोग ऐसी जगह कैसे रह लेते हैं बहनजी --- मेरा तो यहां दम घुटता है। लोग एक दूसरे की टांग खींचने के अलावा कुछ जानते ही नहीं। और बच्चे? हे भगवान ऐसे आवारा और शरारतती बच्चे तो मैंने कहीं देखे ही नहीं। यहां रह गई तो मेरे बेटे का भविष्य बरबाद हो जाएगा।'' वह बेटे को बांहों के सुरक्षा-घेरे में लेकर कहती। और उसकी पुतलियां किसी अज्ञात भय से थरथराने लगतीं।
उसका डर भावनात्मक नहीं, जायज किस्म का था। मुहल्ले के लड़के वाकई भयानक रूप से आवारा, विलक्षण ढंग के खिलन्दड़ और सचेत किस्म से शिक्षा-विमुख थे। पशुपतिनाथ का सुकुमार उनके खांचे में कहीं फिट नहीं बैठता था। वे उससे इसलिए भी खार खाते थे कि उन दिनों वह 'स्टैपिंग स्टोन" का पढ़ाकू छात्र था। जाहिर है कि यह मुहल्ले के उस शिक्षा-संस्कार पर घातक हमला था, जिसे बनाने में कई पीढ़ियों ने कुर्बानियां दीं थी और जिसकी रक्षा करना यह पीढ़ी अपना अहोभाग्य मानती थी। इसलिए जब भी लौंडे-लफाड़ों को मौका मिलता, खेल के मैदान में या उससे बाहर कहीं भी, तो वे उसकी कुट्टी काटे बिना न रहते। वह हर दिन पिटकर लौटता और मां के लिए संकट उत्पन्न हो जाता। वह गहराई से महसूस करती कि ऎसी स्थिति में उसके बेटे का मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा। और वो हो भी रहा था। वह लड़कियों की तरह व्यवहार करने लगा था। लड़के का लड़की में बदलना एक गम्भीर समस्या थी और इसका एकमात्र हल मुहल्ला बदलने में निहित था। आखिर उन्होंने हमारा मुहल्ला छोड़ दिया। एक संभ्रात कालोनी में कोठी बनाली। इस छकड़ा मुहल्ले से नाता तोड़कर वे प्रबुद्ध किस्म के नागरिक बन गए। उनका लड़की में बदलता लड़का फिर से लड़के में बदलने लगा। उसकी अवरुद्ध प्रतिभा निखरने लगी और वह अपने स्कूल का एक शानदार छात्र बन गया। पशुपतिनाथ मुझे भी मुहल्ला छोड़ने के लिए उकसाते। उनका खयाल था कि मैं एक प्रतिभाशाली आदमी हूं और यह मुहल्ला मेरी प्रतिभा को डस रहा है। लेकिन मैं उनके बहकावे में नहीं आया। दरअसल एक तो मुझमें इसे बदलने की ताकत नहीं थी। दूसरे, अगर मेरे भीतर सचमुच कोई प्रतिभा थी, तो यह मुझे इस मुहल्ले ने ही दी थी। इसके अलावा मुझें इससे प्यार था, क्योंकि यहां बच्चे सचमुच बच्चे थे, जवान; जवान और बूढ़े; सचमुच के बूढ़े। देशज और खांटी। अद्भुत और विस्मयकारी। मुहल्ला कविता बेशक नहीं था, लेकिन इसका हरेक एक दिलचस्प और धड़कती कहानी जरूर था।।।इसलिए मैं मुहल्ला नहीं छोड़ पाया। चूंकि उन्हें सफल और महान बनना था इसलिए वे इस जीवन्त मुहल्ले को छोड़कर नगर की शालीन उदासी से लिपटी सम्भ्रान्त कालोनी में चले गए, जो एक दूसरी भाषा बोलती थी और जहां दूसरी तरह के लोग रहते थे, जो न लड़ना जानते थे और न प्यार करना--- बहरहाल कालोनी में आते ही वे प्रबुद्ध नागरिक बन गए। उनका लड़की में बदलता लड़का फिर से लड़के में बदलने लगा। उसकी अवरुद्ध प्रतिभा निखरने लगी और वह अपने स्कूल का शानदार छात्र बन गया। पशुपतिनाथ को अपने औहदे की वजह से जरूर कुछ दित हुई। वह बैंक का अफसर जैसा कुछ होने के बावजूद कालोनी की दृष्टि में तुच्छ और हिकारत से देखे जाने वाली चीज था। लेकिन इस उपेक्षा से उसकी रचनात्मक प्रतिभा पल्लवित हो गई और वह अपने गार्डन में घुसकर बेहतरीन फूल और पौष्टिक तरकारियां उगाने लगा। अलका को जरूर यह नई जगह रास आ गई। उसने किट्टी पार्टियों में शामिल हो कर फैशन और घर संवारने के आधुनिक तरीके, भले लोगों में उठने-बैठने का सलीका और कुछ अंग्रेजी के शब्द सीख लिये। बहरहाल मुहल्ले से नाता तोड़ने के बावजूद उन्होने हमारे परिवार से सम्बंध बनाए रखा। वे जब भी मिलते तो बहुत देर तक बतियाते रहते। उनकी बातचीत का एकमात्र विषय बेटा होता। सचमुच उनका बेटा विनम्र, शिष्ट और प्रतिभाशाली था और पढ़ाई में निरन्तर उपलब्धियां हासिल कर रहा था। उसका कद बहुत बड़ा हो गया था और उसके माता-पिता बजते हुए भोपुओं में तब्दील हो गए थे।
वे आज कुछ ज्यादा ही बेचैन लग रहे थे।
''इधर की याद कैसे आ गई पशुपति जी।।।"" मैंने कहा।
वे सहसा उत्साहित हो गए। ''हमने सोचा यह खबर सबसे पहले आप को ही दी जानी चाहिए।"" अलका ने मिठाई का डिब्बा हमारी ओर बढ़ते हुए कहा, ''आपके बेटे की नौकरी लग गई है।""
''यह तो बहुत अच्छी खबर है। आज के जमाने में नौकरी मिलना तो जंग जीतने के बराबर है।" मैंने कहा।
यह उनकी विनम्रता थी कि वे अपने उस लड़के को हमारा लड़का कह रहे थे, जिसने इस हा-हाकार के युग में नौकरी प्राप्त कर ली थी। मैं उनकी सदाशयता पर मुग्ध था।
''बहुत बहुत बधाई।" मेरी पत्नी ने भी उत्साह जाहिर किया।
''यह सब आपकी दुआ है। नौकरी भी बहुत अच्छी मिली। मल्टी नेशनल में।" अलका ने चहकते हुए कहा।
''वाकई आपके बेटे ने तो कमाल कर दिया।"
''यह दुनिया वैसी नहीं है, जैसी आम लोगों की धारणा है। मैं कहता हूं कि यह अकूत संभावनाओं से भरी है। यहां कुछ भी पाया जा सकता है। बशर्ते आदमी मेहनत करे और उसमें हौंसला हो। अब मुझे ही देखो।।।"
वे अपने महान संघर्षों की प्रेरणादायक कहानी सुनाने के लिए बेताब हो गए, लेकिन उनके बेटे ने, जो अब एमएनसी का मुलाजिम था, उन्हें बीच में ही रोक दिया। ''पापा आप भी।।।"
हालांकि यह बेटे की पंगेबाजी को शालीनता से पचा लेने का अवसर था। यह मौके की नजाकत थी और वक्त की जरूरत भी। लेकिन पशुपति ऐसा नहीं कर पाये। घर की ताजा हरी सब्जियों के नियमित सेवन से लहू में बढ़ी लौह मात्रा, दलाल बाजार से अनाप-शनाप पीटे पैसे की उछाल और चिरयौवन के लिए प्रतिदिन खाए जाने वाले कमांडो कैपसूल से उपजे पौरुष ने उनकी पूंछ सौंटी कर दी और वे तिक्त स्वर में बोले, ''तो क्या तुम्हारी निगाह में मेरे संघर्षों के कोई मानी नही हैंं?"
लड़का मुस्कराया। यह बहुत हौली-सी मुस्कुराहट थी, लेकिन उसके भीतर से ठंडी उपेक्षा का अरूप तीर निकला और शब्दहीन पिता के कलेजे में धंस गया, जिससे वे आहत हो गए और शायद पलटवार करने को सन्नद्ध भी।
मुझे लगा जैसे सहसा सब कुछ अघोषित युद्ध-स्थल में बदल गया है, जिसके एक ओर विनम्र सम्मान के साथ बेटा खड़ा है और दूसरी ओर विशद ममता के साथ पिता है, लेकिन उनके हाथों में नंगे खंजर हैं। युग युगान्तर से आमने-सामने खड़ी दो युयुत्स पीढ़ियां। मैं दुविधा में था और सममझ नहीं पा रहा था कि मेरी मंशा युद्धरत पीढ़ियों में किसे आहत देखने की थी। हमारी पीढ़ी एक थी पर पशुपति मुझ से और उनका बेटा मेरे बेटे से आश्चर्यजनक रूप से सफल था।
वातावरण बेचैन किस्म की चुप्पी से भरा हुआ था। अलका ने बेटे के चेहरे पर उपहास उड़ाती मुस्कुराहट और पति का तमतमाया चेहरा देखा तो वह उनके बीच एक पुल की तरह फैल गई।
''तुम्हारे पिता की सफलताएं बहुत बड़ी हैं। खासकर तब जब इन्होंने ऐसी जगह से शुरु किया जहां कोई उम्मीद नहीं थी। इनके सिर पर किसी का हाथ नहीं था। इन्होंने सब कुछ अपनी मेहनत के बल पर पाया है। ट्युशन करके और अखबार बेचकर इन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। फिर बैंक में नौकर हो गए। वहां भी तरी की और अफसर बने। यह इन्हीं का बूता था कि शहर की सब से शानदार कालोनी में इन्होंने कोठी बनाई। शुरु में हमारी वहां कोई पूछ ही नहीं थी। आईएएस, आईपीएस जैसे बड़े अफसरों, बिजनेसमैंनों, कांट्रेक्टरो, कालाधंधा करने वालों की निगाह में बैंक के एक छोटे से अफसर, क्या कहते हैं उसे 'कैश मूवमैंट आफिसर" की बिसात ही क्या होती है। लेकिन आज ये ही हैं जिनके बिना कालोनी में पत्ता तक नहीं खड़क सकता। कोई भी काम हो चाहे मंदिर बनवाने का या भगवती जागरण का या सड़कों की मरम्मत का या फिर और भी कोई दीगर काम सबसे आगे ये ही रहते हैं। जीवन में एक एक इंच जगह इन्होंने लड़कर हासिल की है। इनके संघर्ष महान हैं और प्रेरणादायक हैं।" उसने कहा और उसका चेहरा आभिजात्य गरिमा से तमतमाने लगा।
''मम्मा, पापा के संघर्षों के प्रति मेरे मन में सम्मान है, लेकिन ये प्रेरणादायक नहीं हैं। सच कहूं तो ये अब इतिहास की चीज हो गए हैं। प्रीमिटिव एण्ड आउट ऑव डेट।" इनकी सक्सेस स्टोरी के आज कतई मायने नहीं हैं।" बेटे कहा।
इस बीच पत्नी ने चाय भी सर्व कर दी। बोन चायना की प्यालियों में। इस परिवार से हमारा आत्मीय सम्बंध था और बेतकल्लुफी से हम इन्हें चाय मगों में पिलाते थे, जिनमें देशजपन था और जिन्हें हमने फुटपाथ से खरीदा था। लेकिन यह बात लड़के के एमएनसी में जाने से पहले की थी। इस समय वह सम्मानित आतंक से भरी हुई थी और फुटपाथ से खरीदे मगों में चाय पिलाना उसे नागवार लगा था। बेटे ने पिता के संघर्षों को परले सिरे से नकार दिया था। और यह सब उसने उत्तेजना में नहीं, बहुत ठंडे स्वर में किया था। नि:संदेह यह एक खतरनाक किस्म की बात थी।
पशुपति चुपचाप चाय सिप करने लगे। लेकिन वे आहत थे। अलका भी, जो स्कूल मास्टर की दर्जा आठ पास लड़की से पति के अफसर होने के साथ प्रबुद्ध किस्म की महिला में रूपान्तरित हो चुकी थी, पशोपेश में थी। दरअसल, पत्नी और मां की सामान्य मजबूरी की वजह से दो हिस्सों में बंटकर वह निस्तेज हो गई थी। अब सामान्य शिष्टाचार के कारण मेरा ही दायित्व हो गया था कि मैं सुलह का कोई रास्ता तजबीज करूं।
''क्या तुम सचमुच ऐसा समझते हो कि पिता की संघर्ष-गाथा महत्वहीन हो गई है।"
''जी हां अंकल। यह आज का रोल मॉडल नहीं है। अगर हम इतिहास को थामकर बैठेंगे तो पीछे छूट जाएंगे। अब यह देश पूरी तरह अमीर और गरीब में बंट चुका है। गरीबों के साथ आज कोई भी नहीं है। न व्यवस्था, न धर्म, न न्याय, न बाजार यहां तक कि मीडिया भी नहीं, जो हर जगह पहुंचने का दावा करता है। वह भी उनके बारे में तभी बोलता है, जब वे कोई जुर्म करते हैं, क्योंकि आज बाजार में जुर्म बिकता है। गरीब कितना ही संघर्ष करे वह गरीब ही रहेगा। पापा की तरह संघर्ष करके और उन्हीं की तरह कामर्स में थर्ड क्लास एमए करने के बाद मैं किसी बजाज की दुकान में थान फाड़ रहा होता। इतना ही नहीं फर्स्ट क्लास होने पर भी मेरा भाग्य इस से अलग नहीं होता। संघर्ष के मायने बदल गए हैं और ये तभी कोई परिणाम दे सकते हैं जब आपकी जेब में पैसा हो।"
''लेकिन तुम तो पूरी तरह सफल हो। एमएनसी की नौकरी से बेहतर क्या हो सकता है।"
''हां, क्योंकि पापा की हैसियत मेरे लिए अच्छी शिक्षा खरीदने की थी और उन्होंने ऐसा किया भी --- मुझे शहर के सब से बढ़िया स्कूल में पढ़ाया। टाट-पट्टी के हिन्दी स्कूल में पढ़ाते तो मैं आज घास छील रहा होता। या यह भी संभव है कि मुझ में घास छीलने की काबलियत भी न होती।"
आहत पिता के सीने में हुलास की एक लहर दौड़ गई। बेटा भले ही उनके महान संघर्षों की प्रेरणादायक कहानी के प्रति निर्मम है, जो दो पीढ़ियों के सोच का अन्तर है, लेकिन वह उसका कैरियर बनाने के लिए किए उनके प्रयासों के लिए पूरा सम्मान प्रर्दशित कर रहा है। उन्होंने उसके लिए रात-दिन एक कर दिया था। उसे अंग्रेजी माध्यम के सबसे बड़े स्कूल में पढ़ाते हुए वे आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट गए थे। लेकिन राहत की बात थी कि बेटा उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर रहा था। पढ़ने के अलावा तो उसकी कोई और दुनिया ही नहीं थी। उसके दोस्त भी ऐसे ही थे। वे सिर्फ कैरियर की बात करते। दुनिया जहांन से उनका कोई वास्ता ही नहीं था। उनके खयाल से देश में सब ठीक और कुछ ज्यादा ही ठीक चल रहा था। ये बड़े बापों के लायक बेटे थे। देश का उदारवाद उनके और उनके जैसों के लिए ही संभावनाओं के दरवाजे खोल रहा था।
अलका अब तक पिता-पुत्र के बीच का वह स्पेस तलाद्गा कर चुकी थी जहां से दोनों को संभाला जा सकता था। उसने गर्वीली चमक, जो पति-पुत्र की सफलताओं ने उसके भीतर पैदा की थी, के साथ कहा, ''एकदम ठीक बात है। इन्होंने बेटे को अच्छे स्कूल में ही नहीं पढ़ाया, बल्कि ये उसके साथ पूरी तरह घुल गए थे। इनकी दुनिया भी सिर्फ बेटे में ही सिमटकर रह गई थी। बैंक से लौटते ही ये उसे पढ़ाने बैठ जाते। और पढ़ाने के लिए खुद रात रात भर पढ़ते। मैं कई बार झल्ला जाती कि इम्तहान आपने देना है कि बेटे ने। ये एक जिम्मेदार पिता की तरह जवाब देते, 'क्या बताऊँ? अब बच्चों को पढ़ना भी तो क्या क्या पड़ता है। हमने तो ऐसा कुछ नहीं पढ़ा था। वक्त ही बदल गया है। अगली पीढ़ी को सफल बनाने के लिए पिछली पीढ़ी को भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ती है।" बाप-बेटे दोनों रात-दिन मेहनत करते और यह अस्सी प्रतिशत नम्बर लाता। ये उसका रिजल्ट देखते और इन्हें निराशा का दौरा पड़ जाता। अस्सी प्रतिशत का बच्चा बाजार में अपनी कोई जगह नहीं बना सकता। फिर बेटे के लिए ट्युशन लगाए गए। भाई साहब इंटर में तो तीन ट्युशन थे हजार हजार के। स्कूल की भारी फीस और स्कूटर-पैट्रोल का खर्च अलग। इसने मेहनत कितनी की इसे तो बयान ही नहीं किया जा सकता। तब कहीं जाकर इसके छियास्सी प्रतिद्गात नम्बर आए।"
''छियास्सी प्रतिशत नम्बर तो सचमुच बहुत होते हैं।" मैंने कहा, ''ही"ज रियली जीनियस।"
''नहीं अंकलजी ये नम्बर बहुत नहीं थे। लेकिन इतने कम भी नहीं थे कि मैं निराश हो कर घुटने टेक देता।" बेटे ने चाय का प्याला, जिसमें से थोड़ी-सी चाय सिप की गई थी, मेज पर रखते हुए कहा, ''मेरे सामने अगला लक्ष्य आईआईटी था। मैंने अपनी सारी ताकत झोंक दी। पूरे साल मेहनत की और कितनी की यह मैं ही जानता हूं। बैस्ट कोचिंग इंसटीट्यूट से कोचिंग ली। लेकिन मैं आईआईटी तो दूर किसी अच्छी जगह मैरिट में नहीं आ सका। यह बहुत निराशा का दौर था और मैं पूरी तरह टूट गया था। मुझ में इतनी हिम्मत नहीं रह गई थी कि फिर से कम्पीटीशन की तैयारी कर सकूं।"
''मेरा तो भाई साहब दिमाग बिल्कुल खराब हो गया था।" अलका ने कहा, ''आंखों की नींद छिन गई थी। इसके दोस्त जो पढ़ने में इससे मदद लेते थे वे तो अच्छी जगह आ गए थे। ये रह गया था। किसी की नजर लग गई थी इसकी पढ़ाई पे। मैं कहां कहां नहीं भटकी। मंदिरों में शीश नवाया, गुरद्धारों में मत्था टेका, मजारों में शिजदा की, पीर-फकीरों के सामने झोली फैलाई। इन प्रार्थनाओं का असर हुआ भाई साहब और ये कमान संभालने के लिए कमर कसकर खड़े हो गए।"
अलका पशुपति को सहसा हाशिए से खिसकाकर परिदृश्य के केन्द्र में ले आई। ऐसा होते ही पशुपति की आवाज में गम्भीर किस्म का ओज भर गया। ''मैंने इससे कहा तू हिम्मत क्यों हारता है। कम्पीटीशन में न आ पाना दु:ख की बात तो अवश्य है लेकिन तेरे सारे रास्ते बंद नहीं हुए। डोनेशन का रास्ता तो खुला है। कहीं न कहीं तो सीट मिल ही जाएगी। और चार लाख डोनेशन देकर मैंने इसके लिए सीट खरीद ली।"
''चार लाख तो बड़ा अमाउंट होता है पशुपतिजी।।।।खासकर नौकरीपेशा के लिए।"
''भाई साहब छै साल पहले तो यह और भी बड़ा अमाउंट था। सर्विसवाले के पास कहां इतनी ताकत होती है। ये तो साहब आपके आशीर्वाद से शेयर मार्र्केट से रुपया बना रखा था। क्या थ्रिल है शेयर मार्केट भी --- कोई मेहनत नहीं बस दिमाग और स्पैकुलेशन का खेल। मैं तो कहता हूं भाईजान आप भी शेयर मार्केट में लाख-दो लाख डाल दी जिए। मेरे कहने से शेयर खरीदिए। देखिए सालभर में क्या कमाल होता है।"
ये पशुपति की जर्रानवाजी थी कि वे इसे मेरा आशीर्वाद मान रहे हैं, हालांकि मैंने अकसर सट्टा-बाजारी के लिए उन्हें हतोत्साहित किया था। मैं कृतज्ञता से मुस्कराया कि वे मुझे भी दलाल बाजार में किस्मत आजमाने का निमत्रण दे रहे हैं और मेरी सहायता करने को भी तैयार हैं। उनके चंगुल से बचने के लिए मैं उनके पुत्र की ओर मुखातिब हुआ, ''तुम्हारी सफलता के पीछे तुम्हारे पिता खड़े हैं और उन्होंने इस कहावत को गलत सिद्ध कर दिया है कि हर सफल व्यक्ति के पीछे किसी औरत का हाथ होता है।" लड़का हंसने लगा। ''हां अंकलजी पुरानी सारी बातें अब व्यर्थ होती जा रही हैं। पर पहले आप मेरी बात तो सुन लीजिए।"
''जाहिर है कि मैं सुनना चाहता हूं। शायद मैं उस पर कभी कोई कहानी ही लिख दूं।"
कहानी लिखने के मेरे प्रलोभन को उसने कोई तरजीह नहीं दी। शायद उसके जीवन में कहानी वगैरह का कोई महत्व नहीं रह गया था।
''हां अंकलजी जब मैं डोनेशन से मिली सीट ज्वाइन करने जा रहा था तो मेरा सिर शर्म से झुका हुआ था। मेरे एमएनसी में जाने के सपने पूरी तरह टूट चुके थे। सीट भी सिविल में मिली थी। मेरे नाम के साथ इंजीनियर जरूर जुड़ जाने वाला था। लेकिन भविष्य किसी कंस्ट्रकशन कम्पनी में छै हजार की नौकरी वाले टटपूंजिया नौकर से अधिक कुछ नहीं था। ऐसे इंजीनियरों को तो पुराना और अनुभवी मिस्त्री ही हड़का देता है। लेकिन तभी मेरे मन ने कहा कि असली आदमी तो वह है जो वहां से भी रास्ता निकाल सके, जहां उसके निकलने की संभावना अत्यंत क्षीण हो। बस अंकलजी मैंने उसी समय निर्णय लिया कि मैं अपनी हार को विजय में बदलकर दिखाऊँगा।"
''हां, मनुष्य के भीतर एक मन होता है, जो टूटकर भी कभी नहीं टूटता।" मैंने समर्थन में सिर हिलाया। ''इसके बाद अंकलजी मैंने पढ़ाई में रात-दिन एक कर दिए। मैरिट में आया मैं। यह आश्चर्य की बात थी कि डोनेद्गान का लड़का मैरिट में आए। लेकिन इंजीनियरिंग कॉलेज की क्रेडिटेबिलिटी ऐसी नहीं थी कि उसकी मैरिट का छात्र एमएनसी में लिया जा सके। रास्ता सिर्फ मैनेजमैंट का कोर्स करके निकल सकता था। फिर मैंने कैट क्लीयर किया। लेकिन दुर्भाग्य ने यहां भी मेरा साथ नहीं छोड़ा और मैं पहले दस बी0 स्कूल में नहीं आ सका। अब सिर्फ एक ही रास्ता रह गया था कि मैं किसी एमएनसी के साथ कोई प्र्रोजेक्ट करूं और अपनी प्रतिभा का परिचय दे सकूं। मैं हर रोज तीस किलोमीटर का सफर करके एमएनसी के ऑफिस में जाता। अपने और स्कूल के नाम की चिट भेजककर सीइओ से मिलने की प्रार्थना करता। और हर दिन मेरी प्रार्थना ठुकरा दी जाती। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और पच्चीस दिन की दौड़ के बाद आखिर सीइओ ने मुझे मिलने का वक्त दे दिया। और अब मैं सीइओ के सामने था। आत्मविश्वास से भरा, शार्प, मुस्कराता और मैगेटिक पर्सनेलिटी का मुश्किल से तीस साल का आदमी, जो सारे एशिया में कम्पनी के प्र्रॉडक्ट्स की सेल्स के लिए जिम्मेवार था। वह घूमने वाली कुर्सी पर बैठा था और उसकी शानदार टेबल पर कुछ फोन और बस एक लैपटॉप था। 'फरमाइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं।" कुर्सी की और बैठने का संकेत करते हुए उसने मुस्कराते हुए पूछा। मैंने अपना बायोडाटा उसकी ओर बढाते हुए कहा, 'सर मैं आपके साथ एक प्रोजेक्ट करना चाहता हूं।"
इसी बीच कॉफी आ गई। उसने कॉफी पीते हुए मेरे बायेडाटा पर सरसरी निगाह डाली और फिर मेरी आंखों में आंखे डालते हुए कहा, ''मिस्टर बाजपेई आपके पास सेल्स के बारे में कोई ओरिजीनल आइडिया हो, जिस पर आप प्रोजेक्ट करना चाहते हैं, तो बताएं। लेकिन खयाल रहे कि आपके पास सिर्फ दो मिनट हैं।"
मैंने अपना आइडिया बताया, जो शायद सीइओ को पसन्द आ गया, हालांकि उसके चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था।
''ओके यू कैन प्रोसीड। मीट माई सेक्रेटी मिसेज रामया। शी विल फेसेलिटेट यू फॉर कैरिंगआउट द प्रॉजेक्ट।" उसने कहा, ''अंकलजी यही मेरे जीवन का टर्निंग पाइंट सिद्ध हुआ।"
''वाकई यह दिलचस्प है।" मैंने कहा, ''तुम्हारी हिम्मत सचमुच तारीफ के काबिल है।"
''जी हां अंकलजी यह आज का रोल मॉडल है। मैंने प्रोजक्ट को अपनी सारी ताकत और क्षमता झोंककर पूरा किया। सीइओ को यह प्रोजेक्ट बहुत पसन्द आया। यहां तक तो सब ठीक था। अब सवाल था प्रेजेंटेशन का। एमएनसी के कानफ्रेंस हॉल में गैलेक्सी ऑव इंटेलेक्चुअल्स के सामने प्र्रजेंटेशन देने में अच्छे-अच्छे की हालत पतली हो जाती है। यह मेरी अग्निपरीक्षा थी। प्रेजेंटेशन सचमुच बहुत अच्छा रहा। मेरा आत्मविश्वास अपने चरम पर था। क्वेश्चन सैशन में मैंने बहुत कॉन्फीडेंस से सवालों के जवाब दिए। और ये सवाल किसी ऐरे-गैरे के नहीं गैलेक्सी ऑव इंटेलेक्चुअल्स के सवाल थे। तालियों की गड़गड़ाहट में जब मुझे पुरस्कार में कम्पनी के प्रॉडक्ट दिए गए तब मुझे यकीन हुआ कि सेल्स सम्बंध मेरी मौलिक अवधारणाओं को मान्यता मिल गई है। दरअसल अंकलजी ये प्रेजेंटशन ही मेरा इंटरव्यू था। इस बात का पता मुझे उस समय हुआ जब मैंनेजमैंट का फाइनल करते ही एमएनसी का अप्वाइटमैंट लैटर मेरे हाथ में आया। जानते हैं अंकलजी यह फोर्टी फारचून कम्पनीज में से एक है, जो हमारे देश के मार्केट में दस हजार का तो जूता ही उतार रही है।"
दस हजार के जूते की बात से मैं लड़खड़ा गया। ''इस गरीब मुल्क में जहां हर साल कपड़ों के अभाव में ठंड से सैकड़ों लोग मर जाते हैं।।।दस हजार का जूता ---" मैंने शंका जाहिर की।
''क्या बात करते हैं अंकलजी, इस देश में पूरे युरोप से भी बड़ा मध्यम वर्ग है। उसकी लालसायें अनन्त हैं और उसके बीच मार्केट की विशद संभावनाएं हैं। वह दस जगह बचत करेगा, या दस जगह बेईमानी से रूपया कमाएगा और एएमएनसी का दस क्या बीस हजार का जूता भी खरीदेगा। जानते हैं न अंकलजी यहां आदमी की औकात वस्तुएं तय करती हैं। भले ही हम अपने को आध्यात्मिक कहते हों, लेकिन स्कूटर, कार, फ्रिज वगैरह की खरीद पे पूजा-पाठ करके प्रसाद हम ही बांटते हैं।" उसने कहा और विजयी भाव से मेरी ओर देखा।
मैं सहसा उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे सका।
वह सफलता के गरूर में था और इस गरूर के साथ ही उसने कहा, ''कम्पनी मुझे अगले महीने ट्रेनिंग के लिए यूएसए भेज रही है। वापस आकर मैं नार्थ इंडिया में कम्पनी की सेल्स देखूंगा।"
मैंने उसकी और देखा तो वह मुझे बहुत भव्य और महान दिखाई दिया, जिसके सामने हम अकिंचन और बौने थे।
मेरे पास सचमुच कोई विकल्प नहीं रह गया था, सिवा इसके कि मैं उसे उसकी विलक्षण सफलता के लिए बधाई दूं।
मैंने ऐसा किया भी। और उसका हाथ थामकर गर्मजोशी से हिलाने लगा।

Friday, April 18, 2008

डॉ0 विजय दीक्षित की कविता


(डॉ0 विजय दीक्षित गोरखपुर में रहते हैं। लखनउ से निकलने वाली मासिक पत्रिका ''चाणक्य विचार"" में लगातार लिखते हैं। बहुत सहज, सामान्य और मिलनसार व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व की सहजता को हम उनकी रचनाओं में भी देख सकते हैं। यहॉं प्रस्तुत है उनकी कविता, जो ई-डाक द्वारा हमें प्राप्त हुई थी।)

तपन

बहा जा रहा था नदी में घड़ा

तभी एक कच्चे घड़े ने ईर्ष्यालु भाव से पूछा

क्यों इतना इठला रहे हो ?

तैरेते हुए घड़े ने कहा,

मैंने सही थी आग की तपन

चाक से उतरने के बाद

तप कर लाल हुआ था,

मुझे बेचकर भूख मिटाई कुम्हार ने

ठंडा पानी पीकर प्यास बुझाई पथिक ने

मुझमें ही रखा था मक्खन यशोद्धा ने कृष्ण के लिए

अनाज को रखकर बचाया कीड़े-मकौड़ों से गृहस्थ ने

अनाज से भरकर सुहागिन के घर मै ही तो गया था।

अन्तिम यात्रा में भी मैने ही तो निभाया साथ

पर तुम तो डर गये थे तपन से,

कहते हुए घड़ा चला गया बहती धार के साथ

अनंत यात्रा पर

और कच्चा घड़ा डूब गया नदी में

नीचे और नीचे।

डॉ विजय दीक्षित

मो0 । 9415283021