Friday, July 25, 2008

ऊंट, जिसकी मेरू बादल के घट पर घर्ष खाये

(पेशे से चिकित्सक डॉ एन.एस.बिष्ट का अपने बारे में कहना है कि (बंगाली) खाना पकाना, (अंग्रेजी) इलाज करना और (हिन्दी) कविता लिखना ये तीनों चीजें मुझे उत्साहित रखती हैं, क्योंकि इन तीनों कामों में ही रस, पथ्य, मसाले और रसायन जैसी, बहुत सारी मिलीजुली बातें हैं। डॉ बिष्ट युवा है और कविताऐं लिखते हैं। हाल ही में उनकी कविताओं की एक पुस्तक "एकदम नंगी और काली" तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। उनकी कविताओं की विशेषता के तौर पर जो चीज अपना ध्यान खींचती है वह है उनकी भाषा, जिसमें हिन्दी के साथ-साथ दूसरी अन्य भाषाओं, खास तौर पर बंगला, के शब्दों का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है। भाषा का यह अनूठापन उनकी कविताओं को समकालीन हिन्दी कविताओं में एक अलग पहचान दे रहा है।)

डॉ एन.एस.बिष्ट 09358102147

वास्तव

वास्तव का मतलब -
एक निर्विघ्न छाया के रास्ते पर फिसले जाना
लेकिन मुझको ऊंट की सवारी चाहिए
ऊंट, जिसकी मेरू बादल के घट पर घर्ष खाये
ऊंट, जिसको इतने दिनों से सहेजा है
हर चीज का हरा सत्व सार कर
हरे का मतलब, लेकिन घास-पात नहीं
हरे का मतलब है छाया के रास्ते लगा
एक और रास्ता
जिस रास्ते में आंखों पर लगे किताब की तरह, आकाश
पन्ना पलटते ही सब कुछ जैसे पढ़ा जाय
हर चीज में ही आंखों लगने जैसी, जैसे कोई चीज हो

वास्तव
सिर्फ फिसलायेगा, चोट नहीं आयेगी कहीं
कंकड़ नहीं, कंटक नहीं कोई,
केवल छाया
छाया बिछाया नरम रास्ता
गिर पड़े तो आवाज नहीं, रक्तझरण नहीं, दाग नहीं -
आंखों लगने जैसा कोई दाग
तब भी मैं छोड़-कर चलता हूं, जल भरी छाती लिये
मछली की तरह तरना तैरता
यह तीर्ण जल
लेकिन कोई आंसू नहीं, कोई मानव स्राव नहीं
खिड़की के कांच पड़ा वृष्टि-जल है
जल जो पंख खोल मधुमक्खी सा उड़ता आता है
छपाक आंखों पर लगता है।


पहाड़ भारती

जहां भी जाता हूं मेरे चेहरे से चिपका रहता है, पहाड़ का चित्र
मेरी भंगिमा में हिमालयों का सौम्य, दाव की दुरंत द्युति
मेरे तितिक्षा में आकश खोभते
दयारों का शांकव
मेरी आंखों में स्तब्ध घुगतों की दृष्टि
मेरे चाल-चलन में गंगा-यमुनाओं की हरकत
बढ़ गया तो बाढ़, बंध गया तो बांध
मेरी सावधानी में ऊर्ध्वाधर बावन सेकेण्ड
जन गण मन के
अधिनायक के

जहां भी जाता हूं पुलिंदा कर चलता हूं भारत का मानचित्र
कि मर्यादाओं का न उलंघन हो
साथ लिये चलता हूं आस्तीन में सरयू की रेत
कि रेगिस्तान मिला तो एक टीला और कर दूंगा
कि समन्दर मिला तो किनारा बनाकर चल दूंगा

जहां भी जाता हूं ओढ़कर चलता हूं संविधान की गूढ़ नामावली
कि समुद्रतल से हिमालय के शिखर तक
हमारे उत्कर्ष की ऊंचाई बराबर है
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक
हमारी राष्ट्रीयता की रास एक है
कि जाति, धर्म, नाम सब भारत के वर्षों में विरत
वलय बनाते हैं
जहां भी जाता हूं बस इतना चाहता हूं कि पहचान लिया जांऊ
कोई बेईमानी न करे मेरा नाम, पता न पूछे
कोई मक्कारी न करे मुझसे जाति, धर्म न पूछे।

Tuesday, July 22, 2008

सहमति और असहमति के बीच सामान की तलाश




सामान की तलाश असद जैदी की कविताओं का ऐसा संग्रह है जिसने समकालीन हिन्दी रचनाजगत में एक हलचल मचाई हुई है। इस हलचल के कारण क्या है, उसमें उलझने की बजाय, यह देखना समीचीन होगा कि क्या कोई सार्थक बहस जन्म ले रही है या नहीं। सामान की तलाश की कविताओं, उस पर प्रकाशित समीक्षाओं और उन समीक्षाओं पर की जा रही समीक्षात्मक टिप्पणियों ने न सिर्फ कवि मानस को उदघाटित किया है बल्कि आलोचकों (समर्थक एवं असमहमति रखने वाले - इसमें एक हद तक दोनों को शामिल माना जा सकता है। यहां तक कि इस टिप्पणी के लेखक को भी।) की कुंठाऐं, आग्रह और सामाजिक-राजनैतिक सवाल पर उनकी समझदारियों को सामने लाना शुरु किया है। व्यक्तियों को देखकर पक्ष और विपक्ष में खडे होने के चालूपन ने न सिर्फ संग्रह को ही विवाद के घेरे में ला खड़ा किया बल्कि पाठकों की इस स्वतंत्रता पर भी प्रहार किया है कि वे अपने-अपने तरह से कविताओं के पाठ कर सकें। एक ओर आंकड़ों की सांख्यिकी के आधार पर तर्क रखे जा रहे हैं कि असद न जो लिखा इससे पहले ऐसे ऐसे महानों ने ऐसा लिखा ही है। वहीं दूसरी ओर प्रतिपक्ष में भी कुछ टिप्पणियां ऐसी हैं जिनकी आव्रति में सुना जा सकता है कि असद ने जो लिखा वह एक मुसलमान का हिन्दुओं के विरुद्ध विष-वमन है। हालांकि विरोध की ऐसी टिप्पणियां असद के समर्थन में बहस को गलत तरह से खोलने की उपज में ही ज्यादा हुई हैं।
इस पूरे मामले पर असद के संग्रह की कविता के मार्फत ही कहूं तो -

एक कविता जो पहले से ही खराब थी
होती जा रही है अब और खराब

कोई इन्सानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती है
एक स्थायी दुर्घटना है।

इतिहास के पन्नों पर निश्चित ही यह विवाद एक स्थायी दुर्घटना बन जाने वाला है। मुझे लगता है संग्रह में शामिल कुछ कविताऐं कवि ने घोर निराशा में घिर कर ही रची हैं। उनकी कविताओं पर मौजूदा विवाद उन्हें उस निराशा से उबारने की बजाय उसी में धकेलने वाला है। एक ऐसी बहस चल पडी है जो एक रचनाकार को खुद से टकराने भी नहीं देती। बल्कि उसे अपनी द्विविधाओं में और उलझाती चली जाती है। जरुरत है तो रचनाओं के पाठ रचना के भीतर से ही करते हुए उभर रहे सवालों पर तर्कपूर्ण तरह से बात करने की। असद साम्प्रदायिक है, ऐसा कहने वालों से अपना विरोध है। अपना उनसे भी मतभेद है जो असद की कविताओं पर आयी आलोचनाओं को हिन्दू मानसिकता से लिखी गयी मानते हैं।
एक कवि की कविताओं पर यदि कोई आलोचक अपना पक्ष रखता है तो जरुरी नहीं कि हर एक की उससे सहमति हो। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि कोई अपनी राय भी न रख सके। पर ऐसा कहकर कि ये तो हिन्दू मानसिकता से लिखी गयी है, एक खराब बात है। निंदनीय भी।
इससे अच्छा क्या होगा कि एक कवि की रचनाऐं पढ़ी जा रही है और लोग उस पर खुलकर अपनी राय भी रख रहे हैं।
असद की कविताओं पर आलोचनात्मक दृष्टि रखने वाले हिन्दू मानसिकता से असद पर अटैक कर रहे हैं, इस विवेचना की तो जम के मुखालफत होनी ही चाहिए। असद के प्रति समर्थन में की जा रही यह टिप्पणी तो निश्चित ही खतरनाक मंसूबों से भरी है। मेरी निगाह में अभी तक उस संग्रह पर जो भी समीक्षअ आयी है वह ऐसे नाम नहीं है जिनको इस घेरे में लिया जा सके।
जिन कारणों से मैं असद को साम्प्रदायिक मानने को तैयार नहीं हो सकता उन्हीं आधारों पर उन आलोचकों के बारे में भी ऐसी कोई राय नहीं बनायी जा सकती। लेकिन मेरा उद्देश्य इनमें से किसी भी एक का समर्थन या दूसरे का विरोध करने का नहीं है, यह लिखी गयी टिप्पणी से भी स्पष्ट हो ही जायेगा। उसके लिए मुझे अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं।
मेरा मानना है कि सामान की तलाश संग्रह में प्रकाशित कविताऐं समकालीन राजनैतिक माहौल पर सीधी-सीधी टिप्पणी है। शहर दर शहर और मुहल्ले दर मुहल्ले छप रहे हिन्दी अखबारों के अनगिनत संस्करणों की खबरों ने, जिसके सामाजिक मानस को क्षेत्रवाद, जातिवाद, धार्मिक-अंध-राष्ट्रवाद से भरा है। हिंसा के माहौल को जन्म देने वाली कार्रवाइयों से भरे आलेखों का एक संगठित ताना-बाना इनकी लोकप्रियता के रुप में आज छुपा नहीं है। असद की कविता इस सच को ही बयान करती है -

हैबत के ऐसे दौर से गुजर है कि
रोज़ अखबार मैं उल्टी तरफ से शुरु करता हूं
जैसे यह हिन्दी का नहीं उर्दू का अखबार हो
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पलटता हूं एक और सफ़ा/ प्रादेशिक समाचारों से भाप लेता हूं /राष्ट्रीय समाचार

गर्ज़ ये कि शाम हो जाती है बाज़ औकात/ अखबार का पहला पन्ना देखे बिना।

समकालीन दौर पर असद की ये बेबाक टिप्पणियां ही उनकी कविताओं के कथ्य के रुप में है। लेकिन एक दिक्कत भी इन कविताओं के साथ है कि जो प्रतीक इनमें चुने गये हैं वे अर्थ का अनर्थ कर दे रहे हैं। इन प्रतीकों के उत्स भी मुख्यधारा की समकालीन राजनीति में ही मौजूद हैं। "जैसे यह हिन्दी का नहीं उर्दू का अखबार हो" भाषा को प्रतीक बना कर लिखी गयी यह पंक्ति उसी राजनीति की उपज है, जो सामाजिक सौहार्द के माहौल को दूषित करने के लिए भाषा को भी धर्म के साथ जोड़कर देखती है। स्पष्ट है कि दक्षिणपंथी राजनीति ने भाषा का यह बंटवारा भी धर्म के आधार पर किया हुआ है। लेकिन असद का ऐसी राजनीति से विरोध होते हुए भी उनके यहां जिन कारणों से ऐसी ही अवधारणा को बल मिलता है, उसकी जड़ में वही राजनीति है जो साम्प्रदायिकता की मुखालफत करते हुए वह भी दक्षिणपंथियों के द्वारा तथ्यों को तोड़ मरोड़कर कर रखी जा रही बातचीत को ही अपना एजेन्डा बनाकर संख्यात्मक बल के आधार पर दक्षिणपंथ को सत्ता से बाहर रखने की कवायद कर रही है। इसके निहितार्थ उस चालाकी को भी छुपाये हैं जिसमें सम्राज्यवादी मंसूबों की मुखालफत पुरजोर तरह से न कर पाने का तर्क छुपा है। असद की दूसरी कविताओं में इस स्वर को ज्यादा मुखरता से सुना जा सकता है -

खत्म हुए सावधानी और आशंका के छह साल
अब नहीं कहना पड़ेगा उन्हें : आखिर
हम भी तो ब्राहमण हैं! और सेक्यूलर हैं तो क्या/हिन्दू नहीं रहे ?

या एक अन्य कविता -

बी जे पी के उम्मीदवार बंगलौर शहर से भी जीते हैं और
नौबतपुर खुर्द से भी
मुझे लगता है कि प्रतिक्रियावाद की इस बाढ़ का राज
कुछ इस ज़मीन में है, कुछ बुजुर्गों के कारनामों में, कुछ गन्ने में भरे रस में है कुछ बादलों के गरजने में, और कुछ
आपके इस तरह मुंह मोड़ लेने में।

साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ी जा रही इस तरह की लड़ाई से संभवत: असद के भीतर भी एक द्वंद है और उस पर संदेह भी। लेकिन दूसरा कोई स्पष्ट रास्ता जब दिखायी नहीं देता तो थोड़ा हिचकते हुए वे फिर उसी चुनावी दंगल को ही अपना रास्ता मान लेते हैं -

ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहां भी हो अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूलकर भी न लगा देना/उस फूल पर निशान।

यह असलियत है कि रचनाकार बिरादरी के एक बड़े खेमे को यह राजनीति इसलिए भी सूट करती है क्योंकि अपनी जड़ताओं के साथ प्रगतिशील बने रहने में यहां कोई दित नहीं। आप उसमें होते हुए बाहर रह सकते हैं और न होते हुए भी उसमें मान लिए जा सकते हैं। क्योंकि ऐसा करने के लिए कुछ खास मश्कत नहीं, थोड़ा ठीक-ठाक लिखना जान लेने पर गुटबाजी के शानदार खेल, जो ऐसी स्थितियों के चलते जारी है, के आप भी खिलाड़ी बन जाइये बस। फिर गात के भीतर जनेऊ छुपाये हुए भी अपने को सेक्यूलर कहलाने का एक सुरक्षित स्पेस यहां हर वक्त मौजूद है। अपने अन्तर्विरोधों से टकराने की भी यहां कोई जरुरत नहीं। जब ऐसे किसी सवाल पर आलोचना ही नहीं तो आत्म-आलोचना का तो सवाल ही कहां ! बल्कि कोई आलोचना करे तो आलोचना करने वाले पर ही पिल पड़ो कि अमुक तो है ही साम्प्रदायिक। एक गम्भीर बहस हो और समाज ऐसे किसी घृणित विचार के उस बुनियादी कारणों को जानने की ओर अग्रसर होते हुए जो धर्म की अवैज्ञानिक धारणा पर ही चोट कर सके, तो उसको पीछे धकेलने के लिए भी ऐसा करना इन्हें अनिवार्य सा लगने लगता है।
लेकिन इस तरह की समझदारी के बावजूद भी रचनाकारों की इस बिरादरी को साम्प्रदायिक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अपनी सीमाओं के चलते मनुष्यता को बचाने की कोशिश भी आखिर यही वर्ग कर रहा है। और इसी से उम्मीद भी बनती है। इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता।
असद की तीन कविताओं पर विवाद ज्यादा गहराया है। 1857- सामान की तालाश, हिन्दू सांसद और पूरब दिशा। इन तीनों कविताओं के जो मेरे पाठ बन रहे हैं उनके आधार पर भी असद को साम्प्रदायिक मुसलमान मानने वालों से मेरा मतभेद बना रहेगा। बस अपने वे पाठ जो इस संग्रह कि कविताओं से सहमतियों ओर असहमतियों के साथ हैं, रख पाऊं, सिर्फ इतनी ही कोशिश है। मेरा पाठ ही अंतिम हो, ऐसी भी कोई ज़िद नहीं।

1857 की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयां है।

निश्चित ही आज दुनिया का ढांचा बदल रहा है। गरीब और साधनहीन मुल्कों को गुलाम बनाने की साजिश, साधन सम्पन्न मुल्क, मानवीय मुखोटों को ओढ़कर, ज्यादा कुशलता से रच रहे हैं। इतिहास के परिप्रेक्ष्य में 1857 ऐसी ही भौंडे चेहरे वाली औपनिवेशिक सत्ता की मुखालफत का आंदोलन रहा। जनता के छोटे-छोटे विद्राहों ने जिस 1857 के महा विपल्व को जन्म दिया, इतिहासकारों की एक बड़ी जमात ने उस विद्रोह के रुप में तमाम राजे-रजवाड़ों के सेनापतियों और राजाओं की पहलकदमी को ही ज्यादा महत्व दिया और उन्हीं के नेतृत्व को स्थापित किया। यहां बहस यह नहीं है कि उस विद्रोह के वास्तविक नेता कौन थे। कविता में असद भी बहस को इस तरह नहीं खोलते हैं। लेकिन 1857 की उस लड़ाई को औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ मानते हुए आज के दौर में उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए उसे याद करते हैं -

पर यह उन 150 करोड़ रुपयों का शोर नहीं
जो भारत सरकार ने "आजादी की पहली लड़ाई" के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंजूर किये हैं
उस प्रधानमंत्री के कलम से जो आजादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफी मांगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी/कुरबान करने को तैयार है।

मौजूदा व्यवस्था के रहनुमाओं का दोहरा चरित्र, जो एक तरफ तो औपनिवेशिक सत्ता के इशारों पर तमाम नीतियों को लागू करता है या सीधे-सीधे उसके आगे नतमस्तक दिखायी देता है। वहीं दूसरी ओर उसके विरोध में लड़ी गयी लड़ाई का झूठा जश्न मनाते हुए दिखायी देता है। इस झूठ के जद्गन के लिए 1857 के बाद से लगातार जारी स्वतंत्रता आंदोलन के प्रतीकों ईश्वरचंदों, हरिश्चंद्रों की वन्दना होती है। उनकी तस्वीरों पर फूल मालायें चढ़ायी जाती हैं। भगत सिंहों, चन्द्रशेखरों और अश्फ़ाकों (हालांकि कविता में ये नाम नहीं आये हैं पर कविता की परास तो इन नामों तक भी पहुंचती ही है। ) को देवताओं की तरह पूजे जाने का कर्मकाण्ड जारी रहता है। यहां सवाल है कि क्या झूठ के इस जश्न की कार्रवाई के कारण क्या इन स्थापित जननायकों को खलनायक मान लिया जाये। यदि असद इस अवधारणा के साथ भी हैं तो भी कोई दित नहीं, बशर्ते वे ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अपने पक्ष को मजबूत तरह से रखते। अपने आग्रहों के चलते या किन्हीं तथ्यों के आधार पर भी यदि वे ऐसा मानते हों तो उस तथ्य को रखे बगैर कविता में मात्र एक दो पंक्ति को जजमेंटल तरह से रख कर इतिहास की अवधारणा को नहीं बदला जा सकता, इस पर असद को भी गम्भीरता से सोचना चाहिए। बल्कि हर सचेत रचनाकार को इतिहास के साथ छेड़-छाड़ करने से पहले अपने स्तर पर कुछ काम तो करना ही चाहिए और फिर उससे अपने पाठकों को भी अवगत कराना चाहिए। पर ऐसा लगता है कि असद ऐसा करने से चूक गये हैं और मौजूदा व्यवस्था के दोहरे चरित्र पर चोट करने की तात्कालिक प्रतिक्रिया में वे 1857 से शुरु हुई तमाम भारतीय एकता की सामूहिक कार्रवाई को परवर्ती दौर में बांटती चली गयी राजनीति के लिए, उस दौर के आंदोलनरत स्थापित प्रतीकों पर ही प्रहार करने लगते हैं। समय काल के हिसाब वे उन आंदोलनकारी लोगों की समझ और उनकी प्रगतिशीलता पर आलोचनात्मक दृष्टि रखते तो संभवत: ऐसी चूक, जो विवाद का कारण बनी, उस पर वे अपने विश्लेषण को रखने से पूर्व रखते ही। असद के बारे में मेरा यह विश्लेषण उनकी अन्य रचनाओं के पाठ से बन रहा है। गैर जरुरी तरह से असद के मानस की आलोचना किये बगैर मुझे इस दौर के एक महत्वपूर्ण कवि को उसकी कुछ चूकों की वजह से कटघरे में खड़ा करना तर्क पूर्ण नहीं लगता। मैं असद की चूकों को भी समकालीन सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर अधूरे विश्लेषण से भरी राजनीति को ही जिम्मेदार मान रहा हूं। वह राजनीति जिसने जनता की पक्षधरता का झूठा प्रपंच रचा हुआ है और उसकी पहलकदमी पर भी रोक लगायी हुई है। असद ही नहीं पूरा समाज जिसके कारण घोर निराशा में जीने को मजबूर हुआ है। असद की निराशा को तो हम उनकी रचनाओं में पकड़ पाते हैं। उसी निराशा के जद में असद विकल्पहीनता में आत्महत्या करते किसानों को अतार्किक तरह से 1857 के धड़कते हुए आंदोलन की तरह की कार्रवाई मान रहे हैं। जबकि किसानों की आत्महत्या की दिल दहला देने वाली कथाऐं उसी दो मुंही राजनीति का परिणाम है।
चूंकि संग्रह की ज्यादातर कविताऐं समकालीन राजनीति के समाजविरोधी रुप पर चोट करती है तो तय है कि बिना किसी राजनीतिक समझदारी के ऐसा संभव नहीं। यानी असद की कविताओं से भारतीय राजनीति का जो पक्ष दिखायी दे रहा है वह वैसे तो निश्चित ही प्रगतिशील है पर संसदीय राजनीति के बीच संख्याबल के खेल में मशगूल उसकी सीमायें भी हैं। असद भी उस प्रभाव से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाये हैं। फिर ऐसे में जब एक ही जगह पर कदमताल करते हुए अटेंशन होना पड़ता है तो ऐसा स्वाभाविक ही है कि कदम कुछ लड़खड़ा जायें।
"हिन्दू सांसद" एक ऐसी ही लड़खड़ाहट है जो सिर्फ इस शब्द के कारण ही विवाद के घेरे में है। जबकि आज हर आम भारतीय के, मौजूदा सांसदों से रिलेशन, असद की कविता से अलग तस्वीर नहीं बनाते -

मेरा वोट लिए बगैर भी/ आप मेरे सांसद हैं
आपको वोट दिये बगैर भी/मैं आपकी रिआया हूं

अचानक आमने सामने पड़ जाने पर/ हम करते हैं एक दूसरे को
विनयपूर्वक नमस्कार।

सबसे खराब कविता है "पूरब दिशा"। जो पूरे संग्रह ही नहीं बल्कि इस दौर की सबसे खराब राजनीति के पक्ष में चली जाती है। वही राजनीति जो कौमों के आधार पर भाषा का विभेद मानती है। फिर चाहे वह किसी भी धर्म के व्यक्ति के मुंह से छूटा वाक्य हो। तय है भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा न तो ऐसा मानता है और न ऐसे मानने वालों का पैरोकार हो सकता है। दरअसल इसीलिए वह कविता नहीं बल्कि एक "कौम को जगाने" का ऐलान सा बन जाती है और भोली-भाली जनता को बरगलाने और भड़काने के लिए की जा रही कार्रवाई करते कुत्सित दिमागों की जुबा में चढ़ जाने के लिए "खूबसूरत" अभिव्यक्ति है।

संग्रह में बहुत से ऐसी कविताऐं हैं जिन पर बात करते हुए ज्यादा सुकून मिलता, पर चल रहे विवाद ने उन कविताओं को जैसे दरकिनार सा कर दिया है। बहिर्गमन, नायकी कान्हड़ा, शेरों की गिनती, दुर्गा टाकीज, तबादला,कुंजडों का गीत, निबंध प्रतियोगिता, मौखिक इतिहास आदि। ऐसी कविताओं पर भी अवश्य बात होनी चाहिए जो एक कवि के खूबसूरत पक्ष का बयान करती हैं। ऐसी अन्य और भी कविताऐं हैं जो अपने सीधे-सीधे अर्थों या व्यंग्योक्तियों के कारण मुझे प्रिय हैं। इसीलिए तथ्यात्मक आंकड़ो के आधार पर मैं असद के इस संग्रह को एक ऐसी किताब मान रहा हूं जो वर्तमान स्थितियों से टकराने को उद्वेलित कर रही है। अपनी पसंद की कविताओं में से एक कविता को रखना चाहता हूं। बहुत ही छोटी और सुन्दर कविता है
घर की कुर्सी

दादी पिछले माह चल बसीं यह उनकी कुर्सी है
रज़ाई गददा और दरी तो फ़कीर ले गया
निवाड़ का पलंग जो था हमारे एक गरीब रिश्तेदार को चला गया

एक बात कहूं, इस कुर्सी पर बैठे हुए मुझे आप बहुत भले दिखायी देते हैं।


-विजय गौड

Saturday, July 19, 2008

इस कुंआरी झील में झांको

(केलांग को मैं अजेय के नाम से जानने लगा हूं। रोहतांग दर्रे के पार केलांग लाहुल-स्पीति का हेड क्वार्टर है। अजेय लाहुली हैं। शुबनम गांव के। केलांग में रहते हैं। "पहल" में प्रकाशित उनकी कविताओं के मार्फत मैं उन्हें जान रहा था। जांसकर की यात्रा के दौरान केलांग हमारे पड़ाव पर था। कथाकार हरनोट जी से फोन पर केलांग के कवि का ठिकाना जानना चाहा। फोन नम्बर मिल गया। उसी दौरान अजेय को करीब से जानने का एक छोटा सा मौका मिला। गहन संवेदनाओं से भरा अजेय का कवि मन अपने समाज, संस्कृति और भाषा के सवाल पर हमारी जिज्ञासाओं को शान्त करता रहा। अजेय ने बताया, लाहौल में कई भाषा परिवारों की बोलियां बोली जाती हैं। एक घाटी की बोली दूसरी घाटी वाले नहीं जानते-समझते। इसलिए सामान्य सम्पर्क की भाषा हिन्दी ही है। भाषा विज्ञान में अपना दखल न मानते हुए भी अजेय यह भी मानते हैं कि हमारी बोली तिब्बती बोली की तरह बर्मी परिवार की बोली नहीं है, हालांकि ग्रियसेन ने उसे भी बर्मी परिवार में रखा है। साहित्य के संबंध में हुई बातचीत के दौरान अजेय की जुबान मे। शिरीष, शेखर पाठक, ज्ञान जी ज्ञान रंजन से लेकर कृत्य सम्पादिका रति सक्सेना जी का जिक्र करते रहे। एक ऐसी जगह पर, जो साल के लगभग 6 महीने शेष दुनिया से कटा रहता है, रहने वाले अजेय दुनिया से जुड़ने की अदम्य इच्छा के साथ हैं। उनसे मिलना अपने आप में कम रोमंचकारी अनुभव नहीं। उनकी कविताओं में एक खास तरह की स्थानिकता पहाड़ के भूगोल के रुप में दिखायी देती है। जिससे समकालीन हिन्दी कविता में छा रही एकरसता तो टूटती ही है। कविताओं के साथ मैंने अजेय जी एक फ़ोटो भी मांगा था उनका पर नेट के ठीक काम न करने की वजह से संलग्नक उनके लिये भेजना संभव न रहा. कविताऎं भेजते हुए अपनी कविताओं के बारे में उन्होंने जो कहा उसे पाठकों तक पहुंचा रहे हैं - u can publish my poems without photo and all. poems should reflect my inner image....thats more important , i suppose, than my external appearence.....isnt it ?---------- ajey)

अजेय 09418063644

चन्द्रताल पर फुल मून पार्टी

इस कुंआरी झील में झांको
अजय
किनारे किनारे कंकरों के साथ खनकती
तारों की रेज़गारी सुनो

लहरों पर तैरता आ रहा
किश्तों में चांद
छलकता थपोरियां बजाता
तलुओं और टखनों पर

पानी में घुल रही
सैंकडों अनाम खनिजों की तासीर
सैंकडों छिपी हुई वनस्पतियां
महक रही हवा में
महसूस करो
वह शीतल विरल वनैली छुअन------------

कहो
कह ही डालो
वह सब से कठिन कनकनी बात
पच्चीस हज़ार वॉट की धुन पर
दरकते पहाड़
चटकते पठार

रो लो
नाच लो
जी लो
आज तुम मालामाल हो
पहुंच जाएंगी यहां
कल को
वही सब बेहूदी पाबंदियां !

(जिमी हैंड्रिक्स और स्नोवा बार्नो के लिए)
चन्द्रताल,24-6-2006

भोजवन में पतझड़

मौसम में घुल गया है शीत
बैशरम ऎयार
छीन रहा वादियों की हरी चुनरी

लजाती ढलानें
हो रही संतरी
फिर पीली
और भूरी

मटमैला धूसर आकाश
नदी पारदर्शी
संकरी !

कॉंप कर सिहर उठी सहसा
कुछ आखिरी बदरंग पत्तियां
शाख से छूट उड़ी सकुचाती
खिड़की की कांच पर
चिपक गई एकाध !

दरवाजे की झिर्रियों से
सेंध मारता
बह आखिरी अक्तूबर का
बदमज़ा अहसास
ज़बरन लिपट गया मुझसे !

लेटी रहेगी अगले मौसम तक
एक लम्बी
सर्द
सफेद
मुर्दा
लिहाफ के नीचे
एक कुनकुनी उम्मीद
कि कोंपले फूटेंगी
और लौटेगी
भोजवन में ज़िन्दगी ।
नैनगार 18-10-2005

Friday, July 18, 2008

बंद डिबिया है जांसकर

विजय गौड

जांसकर जा रहे हैं। जांसकर पहले भी जा चुके हैं - 1997 में और 2000 में। उस वक्त भी जांसकर एक बंद डिबिया की तरह ही लगा था। जिसमें प्रवेश करने के यूं तो कई रास्ते हो सकते हैं पर हर रास्ता किसी न किसी दर्रे से होकर ही गुजरता है। 1997 में दारचा से सिंगोला पास को पार करते हुए ही जांसकर में प्रवेश किया था। जांसकर घाटी के लोग मनाली जाने के लिए इसी रास्ते का प्रयोग करते हैं। वर्ष 2000 में लेह रोड़ पर ही आगे बढ़ते हुए बारालाचा को पार कर यूनून नदी के बांयें किनारे से होते हुए खम्बराब दरिया पर पहुंचे थे और खम्बराब को पार कर दक्षिण पश्चिम दिशा को चलते हुए फिरचेन ला की ओर बढ़ गये थे। फिरचेन ला को पार कर जांसकर घाटी के भीतर तांग्जे गांव में उतरे। फिरचेन ला के बेस से यदि दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बढ़ जाते तो सेरीचेन ला को पार कर जांसकर के कारगियाक गांव में पहुंच जाते। यह सारे रास्ते मनाली, हिमाचल की ओर से रोहतांग दर्रे को पार कर जांसकर में पहुंचते हैं। लेह-कारगिल मोटर रोड़ पर स्थित बौद्ध मठ लामायेरू से भी पैदल जांसकर के भीतर घुसा जा सकता है। इस रास्ते पर अनेकों दर्रे हैं। जांसकर को एक छोर से दूसरे छोर तक नापने वाले ढेरों सैलानी हैं। जो दारचा से लामायेरु या लामायेरु से दारचा तक जांसकर घाटी की यात्रा करते हुए हर साल गुजरते हैं। लेकिन इनमें विदेशी सैलानियों की संख्या ही बहुतायत में होती है। दारचा की ओर से जांसकर नाले और बर्सी नाले का मिलन स्थल जांसकर सुमदो हिमाचल की आखरी सीमा है। बर्सी नाले को पुल से पार करते ही जम्मू कश्मीर का इलाका शुरु हो जाता है। जांसकर इसी जम्मू कश्मीर के लद्दाख मण्डल का अंदरुनी इलाका है। यदि लद्दाख को एक बड़ा बंद डिब्बा माने तो जांसकर उस ड़िब्बे के भीतर चुपके से रख दी गयी डिब्बिया। पदुम जांसकर की तहसील है। पदुम से हर दिशा में रास्ते फूटते हैं। चाहे पश्चिम दिशा में बढ़ते हुए दर्रो की श्रृंखला को पार कर लामयेरु निकल जाओ और चाहे पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए सिंगोला दर्रे को पार कर दारचा। पदुम से दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए फिर वैसे ही दर्रे को पार कर कश्मीर के किश्तवार में पहुंच जाओ और उत्तर पूर्व की ओर बढ़ते हुए दर्रो को पार कर लेह रोड़ पर सर्चू निकल जाओ। ये सभी पैदल रास्ते हो सकते हैं। पदुम जांसकर का हेड क्वार्टर है। जहां से बाहर निकलने के लिए दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर जो मोटर रोड़ है वह भी पेंजिला दर्रे को पार कर कारगिल पहुंचाती है। जांसकर नाम की इस बंद डिबिया के भीतर पूरा धड़कता हुआ जीवन है। नदियों का शोर है। हलचल है। उल्लास है। जीवन के सुख और दुख का जो संसार है उस पर लद्दाख के रुखे पहाड़ो की हवा का असर है। चेहरे मोहरों पर पड़ी सलवटों में उसी रुखी हवा की सरसराहट और बर्फीले विस्तार की चमक बिखेरती नाक और गाल के हिस्से पर कुछ उभर गयी सी पहाड़ियां हैं। आंखें गहरे गर्त बनाकर बहती नदियों के बहुत ऊंचाई से दिखायी देते छोटे छोटे स्याह अंधेरें हैं। इस दुनिया के भीतर झांकने के लिए बर्फीली ऊंचाइयों पर स्थित दर्रों को पांव के जोर से ही खोलना होता है। स्मृतियों, सपनों और रूखे पहाड़ों से टकराकर आने वाली हवाओं ने जांसकर की दुनिया के चित्र पर बौद्ध मठों, अष्टमंगल चिन्हों के साथ-साथ ऊं मणि पदमे हूं की गहरी छाप छोड़ी हुई है। नदियों के किनारे-किनारे उतरती ढालों पर लम्बाई में स्थित गांवों के दोनों छोरों पर छोड़तन और मोने के रुप में की गयी निर्मितियां पहाड़ों के सूनेपन में जीवन के राग रंग की पहचान करा देती है। मंगल कामनाओं के ये चिन्ह धूसर रंग के पहाड़ों के बीच उल्लास की चमक बिखेरते हैं।
जांसकर जाना चाहता हूं। उसकी आबो हवा को पहचानना चाहता हूं। यूं ही गुजरते हुए कितना तो जान पाऊंगा? रात्री भर विश्राम भी नाकाफी ही है। साल के बारह महीनों को मात्र बारह-पन्द्रह दिनों में महसूस नहीं किया जा सकता। जो कुछ भी कहूंगा, सुना सुनाया होगा, बस। निश्चित ही इस खास समय विशेष का ही सच हो सकता है। वो भी उतना ही, जितना देख सकने की सामर्थय है। घटता हुआ भी पूरी तरह से न देख पाना तो मेरी ही नहीं, ज्यादातर की सीमा होता है। अपने ही में जकड़े कहां तो देख पाते हैं कि जमाने की तकलीफें किस किस तरह से रूप धर कर दुनिया को जकड़ती जा रही है। पढ़ लिख कर ही जीवन को पूरी तरह से समझा नहीं जा सकता। पुरानी कहावत है, बिना अपने मरे स्वर्ग नहीं। स्वर्ग और नरक नाम की कोई जगह इस ब्रहमाण्ड में हैं, इस पर यकीन नहीं। जो कुछ जीवन है, सिर्फ वही अन्तिम सत्य है - यही मानता हूं। जांसकर के जीवन की हलचल तो सिर्फ आंखों देखी होनी है। मैदानी इलाकों में इस वक्त भीषण गर्मी पड़ रही है। बारिश भी है तेज। जांसकर में तो हाथों को चाकू की धार से काट देने वाला ठंडा पानी है। चोटियों से पिघलता हिम है। तो फिर सर्दियों की जम-जम बर्फ में जीवन का संगीत कैसे गूंजता होगा, क्या उसे जान पाऊंगा ?

Wednesday, July 16, 2008

ये दुर्ग नहीं लद्दाख के पहाड हैं








यात्रा से लौट आया हूं। जांसकर को फिर से देखा। दारचा से पदुम तक की पैदल यात्रा के बाद मन था कि कारगिल से कश्मीर होते हुए वापिस देहरादून लौट जायें। लेकिन कम्बख्त जमाने की सूचनायें बता रही थी कि कश्मीर के रास्ते जम्मू होकर निकलना आसान न होगा। यातायात बंद है। जूलूस और चक्काजाम है। लिहाजा कारगिल से लेह और लेह से मनाली होते हुए ही वापिस लौटे। अमरनाथ साइनबोर्ड को जमीन देने पर कश्मीर से लेह लद्दाख तक के लोग, जो हमें मिले, एक ही राय रखते थे। धारा 370 के उलंघन पर वे एक मत थे।




बाकि बातें विस्तार से लिखूंगा, थोड़ा समय चाहिए। अभी तो कुछ तस्वीरें, जो इस दौरान हमारी यात्रा की गवाह हैं, प्रस्तुत हैं। लेह से नुब्रा घाटी तक की यात्रा भी की, जहां लद्दाख का रेतीलापन पसरा पड़ा रहता है, तस्वीरों में दिख ही जायेगा। ये कुछ तस्वीरें हैं :