Tuesday, August 26, 2008

महमूद दरवेश की कविताएं

फिलिस्तीन के कवि महमूद दरवेश, 9 अगस्त को जिनका निधन हुआ, को याद करते हुए यादवेन्द्र जी द्वारा उनकी कविताएं के अनुवाद प्रस्तुत हैं।


महमूद दरवेश


बहुत बोलता हूं मैं


बहुत बोलता हूं मैं
स्त्रियों और वृक्षों के बीच के सुक्ष्म भेदों के बारे में
धरती के सम्मोहन के बारे में
और ऐसे देश के बारे में
नहीं है जिसकी अपनी मोहर पासपोर्ट पर लगने को


पूछता हूं : भद्र जनों और देवियों,
क्या यह सच है- जैसे आप कह रहे है-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ?
यदि सचमुच ऐसा है
तो कहां है मेरा घर-
मेहरबानी करे मुझे मेरा ठिकाना तो बता दे आप !


सम्मेलन में शामिल सब लोग
अनवरत करतल ध्वनि करते रहे अगले तीन मिनट तक-
आजादी और पहचान के बहुमूल्य तीन मिनट!


फिर सम्मेलन मुहर लगाता है लौट कर अपने घर जाने के हमारे अधिकार पर
जैसे चूजों और घोड़ों का अधिकार है
शिला से निर्मित स्वपन में लौट जाने का।


मैं वहां उपस्थित सभी लोगों से मिलाते हुए हाथ
एक एक करके
झुक कर सलाम करते हुए सबको-
फिर शुरु कर देता हूं अपनी यात्रा
जहां देना है नया व्याख्यान
कि क्या होता है अंतर बरसात और मृग मरीचिका के बीच
वहां भी पूछता हूं : भद्र जनों और देवियों,
क्या यह सच है- जैसा आप कह रहे हैं-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ?



शब्द


जब मेरे शब्द बने गेहूं
मैं बन गया धरती।
जब मेरे शब्द बने क्रोध
मैं बन गया बवंडर।
जब मेरे श्ब्द बने चट्टान
मैं बन गया नदी।

जब मेरे श्ब्द बन गये शहद
मक्खियों ने ले लिए कब्जे मे मेरे होंठ



मरना


दोस्तों आप उस तरह तो न मरिए
जैसे मरते रहे हैं अब तक
मेरी बिनती है- अभी न मरें
एक साल तो रुक जाऐं मेरे लिए
एक साल
केवल एक साल और-
फिर हम साथ साथ सड़क पर चलते हुए
अपनी तमाम बातें करेगें एक दूसरे से
समय और इश्तहारों की पहुंच से परे-
कबरें तलाशने और शोकगीत रचने के अलावा
हमारे सामने अभी पढ़े हैं
अन्य बहुतेरे काम।



अनुवाद:- यादवेन्द्र

Saturday, August 23, 2008

दोस्ती फूलों की बरसात नहीं है भाई



दीवान सिंह मफ्तून और कवि कुलहड़ के साथ अपने अंतरंग संबंधों से भरे, वरिष्ठ कहानीकार और व्यंग्यकार, मदन शर्मा के लिखे संस्मरणों को यहां हम पहले भी दे चुके हैं । मदन शर्मा अपने अंतरंग मित्रों के साथ बिताए समय को सिल सिलेवार दर्ज करते हुए हमें एक दौर के देहरादून से परिचित कराते जा रहे हैं। हम आभारी है उनकी इस सदाश्यता के कि हमारे अनुरोध पर बिना किसी हिचकिचाट के वे हमारी इस चिटठा-पत्रिका के पाठकों के लिए लगातार लिख रहे हैं। अपने पाठकों को सूचित करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि ब्लाग वाणी के आंकड़ों के मुताबिक मदन शर्मा इस चिटठा-पत्रिका के अभी तक सबसे ज्यादा पढ़े गए लेखक हैं।
मदन शर्मा 0135-2788210


एक अज़ीम शायर कंवल ज़ियायी



कुछ अर्सा पहले, हिंदी साहित्य के वरिष्ठ आलोचक डा0 नामवर सिंह ने, जब उर्दू शायरी पर अपने खय़ालात का इज़्हार करते हुए, अचानक ही यह फ़रमान जारी कर डाला, कि बशीर बद्र इस सदी के सब से बड़े शायर हैं, तो मेरा चौंक जाना स्वाभाविक था। मेरी नज़र में, बशीर बद्र, एक असाधारण शायर है। मैं स्वयं उनकी उम्दा शायरी का प्रशंसक रहा हूं। मगर दर हकीक़त, इस या पिछली सदी के दौरान, उर्दू में एक से बढ़कर एक, चोटी के शायर हुए हैं, जिन्होंने अपनी बेमिसाल शयरी की बदौलत, उर्दू अदब को अपनी बेहतरीन खिदमत पेश की हैं। अब मैं यहां पर, यदि अपने करीबी रिश्तों के मद्देनज़र यह कह डालूं, कि जनाब 'कंवल" ज़ियायी ऐशिया के सबसे बड़े शायर हैं, तो यह उर्दू अदब के साथ, नाइन्साफ़ी होगी। चुनांचे मैं अपने इस लेख में, महज़ इतना कहना चाहूंगा, कि जनाब हरदयाल दता 'कंवल" ज़ियायी, इस दौर के एक अज़ीम शायर हैं।
एक मुशायरे में, बशीर बद्र के ही, अनेक जुगनुओं से सुशोभित अशआर के जवाब में, जब कवंल साहब ने निम्नलिखित शेर पढ़ा तो पंडाल में देर तक तालियों का शोर बरपा रहा :-
तुम जुगनुओं की लाश लिये घूमते रहोलोगों ने बढ़ के हाथ पर सूरज उठा लिया
'कंवल" ज़ियायी साहब का संबंध, पंजाब के ज़मींदार घराने से है। सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता राजेन्द्र कुमार इनके बचपन के दोस्त थे। यह दोस्ती ताउम्र कायम रहने वाली पी दोस्ती थी। दोनों एक ही गांव 'करूंड़दतां' में, जो ज़िला सियालकोट (पाकिस्तान) में है। वहीं जन्मे, पले पढ़े, खेले और शरारतें कीं। मुल्क की तकसीम के बाद, वे एक साथ दिल्ली पहुंचे और जिंदगी के लिये संघर्ष शुरू किया। यहां से, एक फ़िल्मों में किस्मत आज़माई के लिये बम्बई रवाना हो गया। दूसरे ने भारतीय-सेना में कलर्की को अपना लिया और शायरी शुरू कर दी। मगर ये अलग हुए रास्ते, सिर्फ रोज़ी कमाने के माध्यम थे। उनकी दोस्ती की राह एक थी, जिस पर चलते हुए, वे न तो कभी फिसले और न थके। 'कंवल" साहब का ज़मींदाराना कददावर शरीर, रोआबदार चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें और आंखों में तैरती सुर्खी देख, कितने ही लोग धोखा खा चुके हैं। एक किस्सा वह खुद ही बयान किया करते हैं--- किसी मुशायरे में हिस्सा लेने, वे अन्य शायरों के साथ जब हॉल में दाखिल हुए, तो इनके सियाहफ़ाम चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें देख, किसी ने सरगोशी की--- ये साहब गज़ल पढ़ने आयें हैं या डाका डालने! 'कंवल" साहब ने स्टेज पर खड़े होकर जब यह शेर पढ़ा, तो श्रोताओं के दिल पर, सचमुच ही डाका पड़ गया :-
शक्ल मेरी देखना चाहें तो हाज़िर हैं मगरमेरे दिल को मेरे द्रोरों में उतर कर देखिये
जिस तरह 'कंवल" साहब के कलम में बला की ताकत है, भाषा में सादगी और रवानगी है, शब्दों का उम्दा चयन है, उसी तरह उनकी ज़बान में भी चाश्नी है। उनके पास बैठे कितनी देर तक बातचीत करते जायें, कभी उठने को मन न होगा। शायरी में बेहद संजीदा और बातचीत में उतने ही मस्त और फक्कड़। 'कंवल" साहब की आंखों मे जो सुर्खी तैरती नज़र आती है, वह शराब की नहीं, शायरी का 'खुमार" है। मौजूदा बदनज़ामी और बेहूदगियों के खिलाफ़ एक आग है, जो हरदम उनके दिल में भी धधकती रहती हैं। वे शराब नहीं पीते। कभी पी भी नहीं। हाथ में थामें जाम से, कोका कोला के घूंट भर-भर कर, वे कितनों को धोखा दे चुके हैं। शराब कभी न चख कर भी, वे शराब पर अनगिनत शेर कह चुके हैं :-
रात जो मयकदे में कट जायेकाबिल-ए-रश्क रात होती हैबाज़ औकात मय काहर कतराइक मुकम्मल हयात होती है
'कंवल" साहब एक खुद्दार शायर हैं। वे दूसरों पर एहसान करना जानते हैं, एहसान लेना नहीं जानते। कभी अपनी रचना किसी के पास छपने के लिये नहीं भेजेंगे। कोई यार दोस्त या ज़रूरतमंद, रचना मांग ले, तो अपनी नवीनतम गज़ल या नज़्म भी, उठा कर बड़ी विनम्रता और खलूस से पेश कर देंगे। उन के अब तक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 'प्यासे जाम' उनके कलाम का पहला संग्रह था, जिस का हिन्दी रूपांतर तैयार करने का शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ था। इन्द्र कुमार कड़ ने इस पुस्तक का संपादन किया था। दूसरा संग्रह 'लफ़ज़ों की दीवार" उर्दू लिपि में छपा, जिसका विमोचन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी ने किया। इन दोनों संग्रहों में शामिल गज़लों, नज़्मों या कतआत का एक भी मिस्रा ऐसा नहीं, जिसे किसी भी जानिब से कमज़ोर कहा जा सके। फिल्म अभिनेता पदम श्री राजेन्द्र कुमार के साथ, 'कंवल" साहब की दोस्ती, मुस्तकिल और पुख्ता थी। दोनों ही, यह रिश्ता निभाने में माहिर निकले। 'कंवल" साहब चाहते, तो एक मामूली से इशारे पर ही, राजेन्द्र कुमार इनकी गज़लों यां नज़्मों का इस्तेमाल, स्तरीय संगीतकारों के माध्यम से फ़िल्मों में करा सकते थे, जिस से 'कंवल" साहब रूपयों से मालामाल हो जाते। मगर कंवल साहब ऐसा इशारा करने वाले नहीं थे और राजेन्द्र कुमार अपनी ओर से कुछ करने में इसीलिये संकोच करते रहे कि ऐसा करने से कहीं दोस्त की 'खुददारी" को ठेस न पहुंच जाये :-खुदी मेरी नहीं कायल किसी एहसानमंदी कीमेरे खून-ए-जिगर से मेरा अफ़साना लिखा जाये 'कंवल साहब" से, पहली बार मेरी मुलाकात, एक अदबी नशिस्त के दौरान हुई। इस गोष्ठी में मेरे संस्थान के साथी और शायर स्व0 कृपाल सिंह 'राही" को अपनी नई लिखी गज़ल, समीक्षा के लिये पेश करनी थी। 'राही" साहब ने गज़ल का एक-एक शेर पढ़ना शुरू किया। प्रतिक्रिया देने के इरादे से 'कंवल" साहब ने हर शोर गौर से सुना और जब प्रतिक्रिया स्वरूप कहना शुरू किया, तो 'राही" साहब को तो ऊपर से नीचे तक तो पसीना आया ही, स्वयं मेरी भी हालत, लगभग 'राही" साहब जैसी हो गई, क्योंकि मैं भी अपना अफसाना 'बचपन का दोस्त" यहां पढ़ने के इरादे से, कोट की जेब में रख कर ले आया था। 'राही" साहब की हालत देख, मेरा हाथ, कोट की जेब तक पहुंचने के लिये हिल भी नहीं पाया और खुदा गवाह है, कि मैं आज तक, अपनी कोई रचना, उनके सामने पेश करने को हौंसला नहीं कर पाया। यह दीगर बात है कि 'कंवल" साहब से मुझे हमेशा अपनों जैसा प्यार और विश्वास मिला है। फिर हमारी मुलाकातों का सिलसिला ही शुरू हो गया। साहित्य सम्पादक इन्द्र कुमार कड़ के साथ मुझे कितनी ही बार 'कंवल" साहब के निवास पर जाकर, उन से बातचीत करने का मौका मिलता रहा। वहां हमें, उन से बहुत कुछ सीखने को मिला, जिस का संबंध, शायरी के अलावा, इन्सान और जिंदगीं की किताब से था। 'कंवल" साहब के ज्ञान का दायरा बहुत विस्तृत है और उन्होंने जिंदगीं को बडे करीब से देखा है।
जिंदगीं मेहरबान थी कल तकआज मैं जिंदगीं का मारा हूंआसमां के हसीन दामन काइक टूटा हुआ सितारा हूं
कंवल साहब के शागिर्दों की तादाद लंबी है। कहा जाता है, कि वे अपने आप में एक 'इस्टीटयूशन' हैं। 'बज़्म-ए-जिगर' नाम की साहित्य-संस्था के माध्यम से, उन्होंने एक लम्बे अर्से तक देहरादून के माहौल को उर्दूमय बनाये रखा। अपनी शायरी की आरंभिक अवस्था में उन्होंने प्रसिद्ध शायर जनाब पंडित लब्भूराम 'जोश' मलसियानी साहब से इस्लाह ली। इनकी शायरी, हज़रत 'दाग' की रवायती शायरी के काफ़ी नज़दीक तसलीम की जाती है। 'कंवल' साहब की शायरी के बारे में, मैं स्वयं अपनी तरफ़ से कुछ कहने के लिये, मौज़ूं अलफ़ाज़ तलाश करना, मेरे लिये बहुत कठिन काम है। ऐसे अलफ़ाज़, जो 'कंवल' साहब की शायरी के स्तर को छू सकें। वैसे भी इस बारे में जो कुछ कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी 'सहर', 'साहिर' होशियारपुरी, रामकृष्ण 'मुज़्तिर", पदमश्री राजेन्द्र कुमार, साहित्य समीक्षक इन्द्रकुमार कक्कड़, 'विकल' ज़ेबाई, अवधेश कुमार, राशिद जमाल 'फ़ारूकी' और दीगर साहिबान, लिख चुके हैं, उसके बाद लिखने को कुछ भी बाकी नहीं रह जाता। अलबता अपनी जानिब से मैं 'लफ्जों की दीवार' कविता-संग्रह से चंद अशार दर्ज करना चाहूंगा, ताकि पढ़ कर आप खुद अंदाज़ा लगा सकें, कि जनाब 'कंवल' ज़ियायी का, उर्दू और हिंदी के मौजूदा दौर में, शायरी का क्या मकाम है।
लफ्ज़ों की दीवार के आगे अक्स उभर आया है किसकाखंजर लेकर कौन खड़ा है लफ्ज़ों की दीवार के पीछे
मैं छुप कर घर में आना चाहता हूंलगी है किस गली में घात लिखना
जिंदगीं आज है इक ऐसे अपाहिज की तरहला के जंगल में जिसे छोड़ दिया बच्चों नेआज के दौर की तहज़ीब का पत्थर लेकरएक दीवाने का सिर फोड़ दिया बच्चों ने
हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहींहमारे खून में गंगा भी है चिनाव भी है
हम न हिंदु हैं न मुसलिम है फ्क़त इन्सां हैंहम फ़कीरों की कोई ज़ात नहीं है भाईदोस्ती उड़ती हुई गर्द है वीरानों कीदोस्ती फूलों की बरसात नहीं है भाई
मैं भी इन्सां हूं तू भी इन्सां हैक्यों मुझे देखता है खुदा की तरह
इक इन्कलाब आके मेरे पास रूक गयामुझ से ही मेरे घर का पता पूछता हुआतू मुझ को क्या पढ़ेगी ऐ निगाह-ए-वक्तवो खत हूं जिसका हर लफ्ज़ है मिटा हुआ
सोच रहा हूं कदम बढ़ाऊं किस जानिबआगे आग का दरिया है पीछे सूली है
कांधों पर रख के अपने फ़रायज़ के बोझ कोअपने ही घर में हम रहे मेहमान की तरह
वोह शख्स मेरे सामने मुजरिम की तरह हैमैं उस के रूबरू हूं गुनाहगार की तरह
मुफ़लिस तो हूं ज़रूर बिकाऊ नहीं हूं मैंक्यों मुझको देखता है खरीदार की तरह
साफ़ था जब ज़ीस्त का शीशा तो आंखें खुश्क थींज़ीस्त के शीशे में बाल आया तो रोना आ गया
हमारी मुफ़लिसी की आबरू इसी में हैन तुझ से मैं ही कुछ मांगू न मुझ से तू मांगे
जिन जंगलों में छोड़ गई हम को ज़िदगींउन जंगलों से लौट कर कोई न घर गया
पेट के शोलों का जब आयेगा होंटों पर सवालएक रोटी से करेंगे मेरा सौदा आप भीधज्जियां जिस की उड़ा दी हैं बदलते वक्त नेदरम्यां इक दिन गिरा देंगे वोह पर्दा आप भी
सुना है आप के हाथों में इक करिश्मा हैजो हो सके तो सकूने-ए-अवाम लौटा दो
बातचीत के दम पर आओ वक्त काट लेंदोस्ती पे गुफ्तगू दोस्ती से बेहतर है
जब से खाई है कसम तुमने वफ़ादारी कीइक नये रूप का इनसान निकल आया हैजिस को दरवेश समझ बैठे थे बाज़ार के लोगवोह इसी शहर का धनवान निकल आया है
अपनी ही जगह अच्छी अपना ही मकाम अच्छाअम्बर से उतर आओ धरती पे चलो यारो
हम किसी तौर-ए-तअल्लुक के नहीं कायलजो सज़ा हम को सुनानी है सुना दी जाये
शक सा होने लगा है देख कर माहौल कोघर को शायद लूट लेना चाहते हैं घर के लोग
अब न दीवाना कोई है न कोई उठती नज़रघर का दरवाज़ा अंधेरे में खुला रहने दोमौत अपनी का तमाशा भी तो खुद देख सकेहर नई लाश की आंखों को खुला रहने दो
चंद साँसों के लिये बिकती नहीं है खुद्दारीज़िंदगीं हाथ पे रखी है उठा कर ले जा
'कंवल" ज़ियायी साहब ने, एक कलर्क का आम जीवन भी हँसते-खेलते और बड़ी शान के साथ व्यतीत किया है। उसी अल्प आय में, उन्होंने बच्चों को पाला, पढ़ाया-लिखाया और शादियां कीं। उर्दू साहित्य में आज वे जिस मकाम पर हैं, वहां तक पहुंचाने में, निश्चित ही आदरणीया श्रीमती वेदरानी दत्ता साहिबा का बड़ा हाथ रहा है, जिन्होंने 'कंवल" साहब की शायरी को, कभी 'सौत" नहीं माना और ज़िंदगीं के हर एक नरम या सख्त दौर में, एक आदर्श भारतीय नारी की तरह पति का साथ दिया और सेवा की है। उन्हीं से सुनी एक दिलचस्प घटना का ज़िक्र कर रहा हूं। एक बार किसी महफ़िल में, चंद दोस्तों ने शरारतन, 'कंवल" साहब के कपड़ों पर शराब छिड़क दी। वे दरअसल देखना चाहते थे, कि 'कंवल" साहब जब घर तशरीफ़ ले जायेंगे, तो भाभी जी उनका किस तरीके से इस्तकबाल करती हैं। वे घर पहुंचे और 'कंवल" साहब के कपड़ों से निकलती गंध नाक तक पहुंची, तो उन्होंने हंसते हुए महज़ इतना ही दरियाफ्त किया, 'यह शरारत किसने की है?'

Thursday, August 21, 2008

सवाल दर सवाल हैं हमें जवाब चाहिए+

शैलेय की कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए, ऐसा कह कर सिफारिश करता हुआ होना नहीं चाहता - यह उनकी कविताओं का अपमान ही होगा। मैं बहुत छोटी-सी कविता पढ़ता हूं कभी, कहीं -
हताश लोगों से /बस/एक सवाल
हिमालय ऊंचा /या/बछेन्द्रीपाल ?

और अटक जाता हूं। कवि का नाम पढ़ने की भी फुर्सत नहीं देती कविता और खटाक के साथ जिस दरवाजे को खोलती है, चारों ओर से सवालों से घिरा पाता हूं। जवाब तलाशता हूं तो फिर उलझ जाता हूं। कुछ और पढ़ने का मन नहीं होता उस दिन। कविता का प्रभाव इतना गहरा कि कई दिनों तक गूंजती रहती है वे पंक्तियां। हाल ही में प्रकाशित शैलेय की कविताओं की किताब "या" हाथ लग जाती है तो पाता हूं कि पहले ही पन्ने में वही कविता मौजूद है। पढ़ता हूं और चौंकता हूं। इतने समय तक जो कविता मुझे कवि का नाम जानने का भी अवकश न देती रही, वह शैलेय की है तो सचमुच गद-गद हो उठता हूं। पर अबकी बार उस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश खुद से नहीं करता। बस संग्रह की दूसरी कविताओं में ढूंढता हूं। उस जवाब को ढूंढते हुए ढेरों दूसरे सवालों से घेरने को तैयार बैठी शैलेय की अन्य कविताऐं मुझे फिर जकड लेती हैं। लेकिन उन सवालों से भरी कविताओं को फिर कभी। अभी तो जवाब देती कविताओं को ही यहां देने का मन है।


शैलेय 09760971225


या

हताश लोगों से
बस
एक सवाल

हिमालय ऊंचा
या
बछेन्द्रीपाल ?



पगडंडियां

भले ही
नहीं लांघ पाये हों वे
कोई पहाड़

मगर
ऊंचाइयों का इतिहास
जब भी लिखा जाएगा
शिखर पर लहराएंगी
हमेशा ही
पगडंडियां।



इतिहास

ढाई साल की मेरी बिटिया
मेरे लिखे हुए पर
कलम चला रही है
और गर्व से इठलाती
मुझे दिखा रही है

मैं अपने लिखे का बिगाड़ मानूं
या कि
नये समय का लेखा जोखा

बिटिया के लिखे को
मिटाने का मन नहीं है
और दोबारा लिखने को
अब न कागज है
न समय।



बातचीत

मोड़ के इस पार
सिर्फ इधर का दृश्य ही दिखाई दे रहा है
उस पार
सिर्फ उसी दिशा की चीजें

ठीक मोड़ पर खड़े होने पर
दृश्य
दोनों तरफ के दिखाई दे रहे हैं
किन्तु सभी कुछ धुंधला

दृश्यों के हिसाब से
जीवन बहुत छोटा
दोनों तरफ की यात्राएं कर पाना कठिन

काश !
किसी मोड़ पर
दोनों तरफ के यात्री
मिल-बैठकर कुछ बातचीत करते।


+सवाल दर सवाल हैं हमें जवाब चाहिए - एक जनगीत की पंक्ति है। अभी रचनाकार का नाम याद नहीं। संभवत: गोरख पाण्डे। कोई साथी बताए तो ठीक कर लूंगा। लेकिन गोरख पाण्डे के अलावा रचनाकार कोई दूसरा हो तो अन्य दो एक पंक्तियां और पुष्टि के लिए भी देगें तो आभारी रहूंगा। क्योंकि मेरे जेहन में गोरख पाण्डे की तस्वीर उभर रही है तो उसे दूर करने के लिए पुष्ट तो होना ही चाहूंगा।

Monday, August 18, 2008

कौन है जो तोड़ता है लय

वह कोई अकेला दिन नहीं था। हर दिनों की तरह ही एक वैसा दिन - जब सड़क के किनारे, कच्चे पर दौड़ते हुए उसका पांव लचक खा जाता था। पांवों से फूटता संगीत जो एक रिदम से उठते कदमों पर टिका होता, कुछ क्षण को थम जाता। लेकिन उस दिन संगीतमय गति में उठता उसका पांव ऐसा लचक खाया कि उसको बयां करना संभव ही नहीं। करना भी चाहूं तो ओलम्पिक में जाने वाली टीम से वंचित कर दी गई वेटलिफ्टर, मोनिका की तस्वीर उभरने लगती है। उसके रुदन के बिना बयां करना संभव भी नहीं।
जब वह दौड़ता हुआ होता तो पांव लगातार आगे पीछे होते हुए एक चक्के को घूमाती मशीन की गति से दिखाई देते। कभी दो-पहिया वाहनों की खुली मोटर देखी है - मोटर की क्रेंक भी देखी होगी। उसी क्रेंक की शाफ्ट की गति जो पिस्टन को आगे पीछे धकेलने के लिए लगातार एक लयबद्ध तरह से घूमती है। उसके घूमने में जो लय होती है और संगीत, ठीक वैसा ही संगीत उठता है - एक लम्बी रेस का धावक जब अपनी लय में दौड़ रहा होता है। क्रेंक तो दो पहिये क्या चार पहिये वाले वाहनों में भी होती ही हो शायद और यदि होती होगी तो निश्चित है उसकी शाफ्ट भी एक लय में ही घूमेगी। बिना लय के तो गति संभव ही नहीं। इंजन फोर-स्ट्रोक हो चाहे आम, डबल-स्ट्रोक।
वह भी अपने क्रेंक की शाफ्टनुमा पांवों के जोर पर दौड़ते हुए अपने शरीर को लगातार आगे बढ़ा रहा होता था - उस तय दूरी को छूने के लिए जो उसने खुद निर्धारित की होती अपने लिए - अभ्यास के वक्त। या, प्रतियोगिताओं में आयोजकों ने। लम्बी रेस का धावक था वह। लम्बी रेस के अपने ही जैसे उस धावक से प्रभावित जिसको शहर भर उसके नाम से जानता था।
सुबह चार बजे ही उठ जाता। अंधेरे-अंधेरे में। आवश्यक कार्यों को निपटा हाथों पांवों को खींच-तान कर, कंधे, गर्दन और कलाई एवं एड़ी को गोल-गोल घुमा, एक हद तक शरीर को लचकदार बनाते हुए पी सड़क के किनारे-किनारे कच्चे में उतरकर दौड़ना शुरु हो जाता। उसका छोटा भाई, जिसको नींद में डूबे रहने में बड़ा मजा आ रहा होता, उसकी यानी बड़े भाई की सनक के आगे उसे झुकना ही होता। और भाई के साथ उसे भी निकलना होता - साइकिल पर उसके साथ-साथ। वहां तक चलना होता जो धावक की तय की हुई दूरी होती। शुरु-शुरु में वही एक शागिर्द हुआ करता था जिसे उसके उन कपड़ों को, जिन्हें उतार कर वह दौड़ रहा होता या दौड़ने के कारण उत्पन्न होते ताप के साथ जिसे उतारते जाना होता, साइकिल के कैरियर में दबाकर चलना होता। अपने "खप्ति" भाई की खप्त में शरीक होने को छोटे भाई की मजबूरी मानना ठीक नही, भीतरी इच्छा भी रहती ही थी उसमें भी। कई-कई बार, जब भाई को बहुत दूर तक नहीं जाना होता और वह बता देता कि चल आज सिर्फ एक्सरसाईज करके ही आते हैं, तो उस दिन साईकिल नहीं थामनी होती। उस दिन उसे कपड़े नहीं पकड़ने होते। वह भी साथ-साथ दौड़ता हुआ ही जाता था। दौड़ना इतना आसान भी नहीं जितना वह मान लेता था - साईकिल पर चढ़े-चढ़े। उसे तो एक लम्बी दूरी तक साईकिल चला देना ही थका और ऊबा देने वाला लगता। यह ज्ञान उसे ऐसे ही क्षणों में होता। वह साईकिल पर जब खूब तेज निकलता और दौड़ता हुआ भाई पीछे रह जाता तो उसके पीछे रहने पर उसे खीझना नहीं चाहिए, ऐसे ही क्षणों में उसके भीतर भाई के प्रति कुछ कोमल-सी भावनाएं उठतीं। उस मैदान तक दौड़ते हुए, जहां एक्सरसाईज की जानी होती, उसकी सांस फूलने लगती। कई बार जब कोख में दर्द उठता तो भाई की सलाह पर नीचे झुककर दौड़ते हुए वह देखता कि पेट दर्द गायब हो चुका है। तो भी उसे दौड़कर मैदान में पहुंचना साईकिल पर चलते हुए लम्बी दूरी को तय करने से सहज और अच्छा भी लगता। कई बार तो मन ही मन तय करता कि भाई की तरह एक धावक बन जाए। पर फिर साईकिल के कैरियर पर कपड़ों को लादकर कौन जाऐगा ? उसे तो बस ऋषिकेश के नजदीक उस नटराज सिनेमा के चौराहे तक पहुंचना होता जहां तक सड़क के किनारे-किनारे कच्चे पर दौड़-दौड़ कर पहुंचा हुआ उसका भाई ढालवाला को उतरने वाली सड़क पर बनी पुलिया पर बैठकर सांस लेता था। लगभग 35-40 किलोमीटर की दूरी दौड़ कर तय करते हुए पसीने से तर धावक का बदन पारदर्शी हो जाता। पुलिया पर विश्राम करते हुए पहाड़ी हवाओं के झोंको से पसीना सूख जाने के बाद वह तपा हुआ दिखाई देता। जब तप-तपाया शरीर अपनी पारदर्शिता को भीतर छुपा लेता वह कपड़े पहनता और साईकिल पर डबलिंग करते हुए दोनों भाई वापिस घर लौट आते।
बाद-बाद में जैसे-जैसे छोटी-छोटी प्रतियोगिताओं में जीत हांसिल करते हुए बड़े भाई का नाम होता गया और नये-नये शागिर्द बनते गए, बड़े भाई के आदर्शों से भटक कर छोटा भाई अपने उस रास्ते पर निकलने लगा जो जोश-खरोश से भरा था। पर जिसमें हर वक्त खतरनाक किस्म के छूरे बाज कब्जा किए होते। वह बेखौफ उनसे भिड़ जाता था उत्तेजना और रोमांच से भरा - युवा मानस।
उस रोज जब लम्बी रेस का वह कुशल धावक, घर से सैकड़ों मील दूर दक्षिण में शायद कोयम्बटूर या कोई अन्य शहर में आयोजित प्रतियोगिता को जीत चुका था या जीतने-जीतने को रहा होगा, उसी समय या उसके आस-पास का समय रहा होगा, किसी दिन उसके छोटे भाई से सीधे-सीधे न निपट पाए एक खतरनाक छुरे बाज का चाकू छोटे भाई की पसलियों के पार उतर गया और बीच चौराहे में वह जाबांज तड़फते हुए हमेशा के लिए सो गया। एक ही दिन एक ही अखबार के अलग अलग पृष्ठों में दोनों भाईयों की खबर दुर्योग ही कही जा सकती है।
देहरादून हरिद्वार रोड़ पर वह उसी किनारे, कच्चे में उतरकर, जहां उखड़ रही सड़क की रोड़ियां भी पड़ी होती, दौड़ता हुआ नटराज सिनेमा चौराहे तक पहुंचता था जिस किनारे गढ़ निवास, मोहकमपुर में वो बिन्द्रा डेरी है जिसे आज की भाषा में फार्म हाऊस कहा जा रहा है। जी हां उस वक्त (उस वक्त क्या आज भी यदि अखबारों को छोड़ दे तो आम बोलचाल में स्थानीय निवासी) उसे बिन्द्रा डेरी के ही नाम से जानते हैं। यह अलग बात है कि भविष्य में वो डेरी भी न रहे और उसकी जगह कोई पांच सितारा खड़ा हो। अभिनव के पिता ने अपने बेटे को उसकी स्वर्ण सफलता के उपलक्ष्य में उपहार में उसे इसी रुप में भेंट करना चाहा है - अखबारों की खबरों के मुताबिक उस फार्म हाऊस पर पांच सितारा का निर्माण होगा। स्वर्ण विजेता बेटे को दिये गये उपहार में एक पिता की वो अमूल्य भेंट होगी - यह अखबारों के मार्फत है जो अभिनव बिन्द्रा के पिता का कहना है ।
वह जिस दौर में उस सड़क पर दौड़ता था बिन्द्रा डेरी उसके लिए एक रहस्य भरी जगह थी। जिसके बाहर हर वक्त चौकीदार पहरा दे रहा होता। रहस्य से पर्दा डेरी का चौकीदार उठाता जो स्थानीय लोगों की उत्सुकता के जवाब भी होते। चौकीदार की भाषा का तर्जुमा करते हुए लगाने वाले शर्त लगाते - बताओ कितनी गाएं हैं बिन्द्रा डेरी में ? और जवाब पर संतुष्ट न होने पर फिर गेट पर खड़े चौकीदार से जाकर पूछते। या फिर कितनी दूध देती है ? और कितनी इस वक्त दूध नहीं देतीं ? या, बताओ कौन से देश से खरीदकर लायी गई हैं गाएं ? इस तरह की आपसी शर्तो में गेट पर खड़े चौकीदार की भूमिका निर्णायक होती। मालूम नहीं चौकीदार भी निर्णय देने में कितना सक्षम होता पर उसकी बात पर यकीन न करने का कोई दूसरा कारण होता ही नहीं। डेनमार्क जैसे देश का नाम उस डेरी की बदौलत ही सुनकर स्थानीय लोग अपने सामान्य ज्ञान में वृद्धि करते। और पिता बच्चों से सवाल पूछते, दुनिया में सबसे ज्यादा दुग्ध उत्पादक देश कौन सा है ? बच्चे भी बिन्द्रा डेरी के वैभव और वहां की गायों के आकर्षण में सुने हुए नाम को बताते - डेनमार्क।
डेनमार्क वास्तव में किस चीज का नाम है, यदि इस तरह के बेवकूफाना सवाल कोई उनसे पूछता तो शायद मौन रहने के अलावा उनके पास कोई जवाब न होता। उनके लिए तो डेनमार्क एक शब्द था जो बिन्द्रा डेरी की जर्सी गायों के लिए कहा जा सकता था। उनकी बातचीत किंवदतियों को गढ़ रही होती - मालूम है मशीन से दूध निकाला जाता है बिन्द्रा डेरी की उन गायों का जो डेनमार्क से लायी गई हैं। ऐसी ही कोई सूचना देने वाला सबका केन्द्र होता और खुद को केन्द्र में पा वह महसूस करता मानो कोई ऐसा बहुत बड़ा रहस्य उसके हाथ लगा है जिसने उसे एक महत्वपूर्ण आदमी बना दिया। उसके द्वारा दी जा रही जानकारी पर कोई सवाल जवाब करने की हिम्मत किसी की न होती। वे तो बस फटी आंखों से ऐसे देखते मानो मशीन उनके सामने-सामने गाय को जकड़ चुकी हो और बिना हिले-डुले गाय का दूध बाल्टी में उतरता जा रहा हो। बिन्द्रा डेरी के साथ ही उतरती वो ढलान जहां से सड़क के दूसरी ओर चाय बगान को निहारा जा सकता था, उस उतरती हुई ढलान पर तो पैदल चलते हुए ही गति बढ़ जाती फिर जब दौड़ रहे हों तो पांव को लचक खाने से बचाने के लिए सचेत रहना ही होता। दुल्हन्दी नदी के पुल तक, हालांकि मात्र 100-150 मीटर का फासला होगा। दौड़ते हुए जब पुल तक पहुंचते तब कहीं समतल कहें या फिर हल्की-सी उठती हुई चढ़ाई, पांव अपनी सामान्य गति में होते।
धावक के साथ-साथ दौड़ रहे उसके शागिर्द तो, जो वैसे तो धावक ही बनना चाहते, दौड़ते हुए रुक ही जाते और पैदल चलते हुए ही पुल तक पहुंचते। कोख में दर्द उठता हो या चाय बगान का आकर्षण या फिर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांक लेने का मोह, पर वहां पर पैदल चलना उन्हें अच्छा लगता। बिन्द्रा डेरी की डेनमार्की जर्सी गायों का आकर्षण, उनके कत्थई-लाल चमकते बदन की झलक पाने को तो हर कोई उत्सुक ही रहता। तब तक धावक उन्हें मीटरों दूर छोड़ चुका होता। रोज-रोज की दौड़ ने बिन्द्रा डेरी का आकर्षण उसके भीतर नहीं रख छोडा फिर उसका लक्ष्य तो एक धावक बनना हो चुका था। लेकिन उसके पीछे पीछे शागिर्दों की दौड़ भी जारी ही रहती। हालांकि यह तो झूठा बहाना है कि ढाल पर रुक जाने की वजह से वे लम्बी रेस के उस कुशल धावक से पीछे छूट गए। जबकि असलियत थी की उसकी गति के साथ गति मिलाकर दौड़ने की ताकत किसी में न होती। वह तो लगातार आगे ही आगे निकलते हुए एक लम्बा फासला बनाता रहता। जिस वक्त किसी प्रतियोगिता में ट्रैक पर दौड़ रहा होता तो देखने वाले देखते कि वह अपने साथ दौड़ने वालों को लगभग-लगभग एक चक्कर के फासले से पीछे छोड़ चुका है जबकि अभी रेस का एक तिहाई भाग ही पूरा हुआ है। बिन्द्रा डेरी की भव्यता उस डेरी के भीतर, कभी कभार झलक के रुप में दिखाई दे जाती जो उन डेनमार्की जर्सी गायों के लाल-कत्थई रंगों में छुपी होती। गेट पर चौकीदार न होता तो, जो कि अक्सर ही होता था, डेरी के भीतर घुस उनके कत्थई रंगों को हर कोई छूना चाहता। भविष्य के उस सितारे, वर्ष 2008 के ओलम्पिक स्वर्ण विजेता की शैशव अवस्था के चित्र भी उनकी स्मृतियों में दर्ज हो ही जाते। पर जिस तरह यह मालूम नहीं किया जा सकता था कि बिन्द्रा डेरी मे कितनी गाएं हैं ? कितनी दूध देती हैं ? और कितना देती हैं ? दूध मशीनों से निकाला जाता है या फिर उनको दूहने वाले भी कारिदें है ? ज्यादातर किस रंग की है ? और उनमें जर्सी कितनी और देशी कितनी ? या, देशी हैं भी या नहीं ? ठीक उसी तरह सड़क के बाहर से गुजर जाने वाला कैसे जान लेता कि भविष्य का सितारा इसी चार दीवारी के भीतर अभी अपनी शैशव अवस्था में है और अपनी मां की गोद से उछलकर कहीं निशाना साधने को लालायित। उसके बचपन के उन चित्रों को भी तो, जिन्हें स्थानीय अखबारों ने बड़े अच्छे से प्रस्तुत किया कि कैसे किसी कारिंदे के सिर पर रखी बोतल में वह निशाना साधता था, बाहर सड़क से गुजरते हुए या रुक कर भी नहीं देखा जा सकता था।
उसी बिन्द्रा डेरी से उतरती गई ढाल पर उस मनहूस दिन उसका पांव लचका। वह लचकना कोई आम दिनों की तरह लचकना नहीं था। अन्तर्राज्यीय प्रतियोगिताओं में जीतने के बाद उस समय वह राष्ट्रीय टीम के चयन कैम्प की तैयारी में व्यस्त था। क्या मजाल किसी शागिर्द की जो उस समय उसके साथ दौड़ने का अभ्यास भी करे। वह तो सरपट निकल जाएगा मीलों मील। उसे तो अपने ट्रैक समय को कम से कम करना था। अपने रिकार्ड को हर सैकण्ड के दसवे हिस्से तक कम करने में उसे मालूम था कि गति में जरा भी विचलन नहीं होना चाहिए। सड़क किनारे के ऊबड़-खाबड़ कच्चेपन की क्या मजाल जो उसकी गति में बाधा पहुंचा सके। लगातार एक लय में दौड़ते उसके पांवों की पिण्डलियों के चित्र खींचे जा सकते तो बताया जा सकता कि उनमें कैसी कैसी तो लहर उठती थी जब पांव उठा हुआ होता और दूसरे ही क्षण जब जमीन में लौटकर फिर उठ रहा होता था।
उस दिन पैर मुड़ा तो मुड़ा का मुड़ा ही रह गया। एक दबी-दबी सी चीख उसके मुंह से निकली और वह पांव पकड़ कर बिन्द्रा डेरी की चार दीवारी के बाहर उगी घास पर बैठा रहा। वह चीख ऐसी नहीं थी कि साईकिल में साथ-साथ चल रहा शागिर्द भी सुन पाता। वह तो अपनी साईकिल पर तराना गाता हुआ, चाय बगान को निहारता हुआ और कभी पैण्डलों के सहारे उचक कर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांकता हुआ, अपनी ही धुन में चलता रहा। काफी आगे निकल जाने के बाद, लक्ष्मण सिद्ध के मोड़ तक, जब उसने पीछे घूम कर देखा तो धावक दिखाई न दिया। कुछ देर रुक कर उसने धावक का इंतजार करना चाहा। हालांकि वह जान रहा था कि रुकने का मतलब अपने को धोखा देना है। क्योंकि ऐसा संभव ही नहीं कि दूर-दूर तक भी वह दिखायी न दे। अपने ऊपर अविश्वास करने का यद्यपि कोई कारण नहीं था पर एक क्षण को तो ख्याल उसके भीतर आया ही होगा कि कहीं आगे ही तो नहीं निकल गया। यदि साईकिल को मरियल चाल से चला रहा होता या क्षण भर को भी वह बीच में कहीं रुका होता तो निश्चित ही था कि पीछे लौटने की बजाय आगे ही बढ़ा होतां पर उसे अपने पर यकीन था और अपनी आंखों पर भी। रेलवे क्रासिंग को पार करते हुए ही उसने अपनी साईकिल तेजी से दौड़ा दी थी। क्यों कि गाड़ी के गुजरने का सिगनल हो चुका था और रेलवे का चौकीदार ऊपर उठे हुए उन डण्डों को नीचे गिराने जा रहा था जिसके बाद इधर वालों को इधर और उधर वालों को उधर ही रुक जाना था। उसके पांव पैण्डल थे जो तेज चल सकते थे।
लम्बी रेस के धावक के लिए अपनी गति को कभी ज्यादा और कभी कम नहीं करना होता, उसे तो बस एक लय से दौड़ना होता। गति बढ़ेगी भी ऐसे जैसे संगीत के सुर उठते हैं। यूं तो गति नीचे गिराने का मतलब है पिछड़ जाना तो भी यदि कभी उसमें परिवर्तन करना भी पड़ जाए तो वैसे ही - एक लय में।
वैसे दौड़ का मतलब ही अपने आप में प्रतियोगिता है ओर प्रतियोगिता में गति का कम होते जाना मतलब बाहर होते जाना है। उसमें तो गति को बढ़ना ही है बस। लिहाजा धावक भी फाटक के गिरने से पहले ही पार हो जाना चाहता था। उसकी गति जो बढ़ी तो नीचे उतरने का सवाल ही नहीं था। तय था कि जिस गति को वह पकड़ चुका है यदि रेस पूरी कर पाया तो अभी तक के अपने रिकार्डो को ध्वस्त कर देगा ओर यहीं से उसके भीतर यह आत्मविश्वास भी पैदा होना था कि उसकी क्षमता इस गति पर भी दौड़ सकने की है। फिर तो क्या मजाल की वह नीचे गति में दौड़े। अपनी गति को परखते हुए हर धावक अपनी क्षमताओं को विकसित करने की ओर ऐसे ही अग्रसर होता है। धावक ही क्यों एक निशानेबाज भी। जैसे अभिनव बिन्द्रा हुआ होगा और एक वेट लिफटर भी, जैसे मोनिका ने किया होगा। चूंकि उस दिन की गति और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही थी लिहाजा संभल कर दौड़ने की भी और ज्यादा जरुरत थी।
शागिर्द, जो अपनी साईकिल में चढ़ा-चढ़ा ही आगे निकल गया था वापिस लौटने लगा। बिन्द्रा डेरी की चारदीवारी के बाहर ही घास पर बैठा वह अपने पांव को पकड़े था। डेरी का चौकीदार अपनी पहरेदारी में मुस्तैद। वह अकेला था। पांव को मलासता हुआ। पांव के जोर पर खड़ा न हो पाने के कारण असहाय सा बैठा वह धावक शागिर्द को लौटते देख अपने भीतर नई ऊर्जा को महसूस करते हुए उठने उठने को हुआ तभी एक जोर की चीख के साथ उसे वही बैठ जाना पड़ा। टखना फूल गया था। एक गोला सा बना हुआ था। पांव जमीन पर रखते ही लचक मार जा रहा था। जैसे तो कैसे शर्गिद ने उसे सहारा देकर साईकिल में आगे डण्डे पर बैठाया और घर तक पहुंचा। लम्बे इलाज के बाद भी पांव ठीक होने-होने का न हुआ। कैम्प की तारीख निकलती जा रही थी। न जाने कितने दिन बिस्तर पर लेटे रहना था। जब उसे डाक्टर के पास ले जाया जाता तो वह डाक्टर से मिन्नते करता कि कैसे भी उसे बस चालू हालत में पहुंचा दो डॉक्टर सहाब। मिले हुए मौके को वह गंवाना नहीं चाहता था। डॉक्टर भी क्या करता। सिर्फ दिलासा देने के।
अरे जीवन में बहुत मौके आएगें दोस्त। अभी तुम आराम करो।
उसका वश चलता तो वह डॉक्टर की सलाहों को ताक पर रख कैम्प के लिए निकल जाता पर कम्बख्त पांव शरीर का बोझ उठाने के काबिल ही न हुआ और कैम्प में जाने का समय निकल गया। उस दिन वह सचमुच जार-जार रोया। ऐसा, जैसा लोगों ने इसी ओलम्पिक में शामिल न हो पाई पूर्वोत्तर की भरात्तोलक को रोते हुए देखा होगा, पहले टैस्ट के दौरान जिसे डोव टैस्ट में पाजिटिव पाए जाने के कारण टीम में शामिल होने से वंचित होना पड़। । उसकी चीखती आवाजें सुनने वाला उस वक्त कोई न था। वह जान रही थी कि एक साजिश रची जा रही है उसके विरुद्ध। उसका सरे आम ऐसा कहना कि मुझे गोली मार देना यदि मैं ड्रगिस्ट पायी गई तो, यूंही नहीं था। तकनीकी तरह से अयोग्य घोषित करके उसे टीम से बाहर किया जा रहा है - वह अपने दूसरे ओर तीसरे टेस्ट की प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। पर फिर भी ऐसा करना उसकी मजबूरी थी और जब बाकी के टेस्टों में वह सचमुच नैगेटिव पायी गई तब तक आला कमानों की टीम, जो उसको टीम में शामिल करने न करने का फैसला जेब में लिए घूम रहे थे, ओलम्पिक मशाल को जलाने पहुंच चुके थे।
बस वैसे ही रोया था वह भी उस दिन। उसके जीवन का वह पहला रोना था। उसकी मायूसी में उसके रोने को साथ वाले महसूस कर सकते थे। उसके पास तो कहने को भी काई ऐसा आधार न था कि उसके विरुद्ध कोई साजिश हुई। वह तो बस सड़क में बहुत पतले तल्ले वाले जूते में दौड़ते हुए लचक गया था। कहने को पांव ठीक हो गया पर वो ही जानता था कि अब दौड़ पाना उसके लिए संभव न रहा और धीरे-धीरे वह अपने शागिर्दों से भी प्रतियोगिताओं में पिछड़ने लगा।

Saturday, August 16, 2008

हर जाड़े में शिखर लेटेंगे बर्फ की चादरें ओढ़कर

समकालीन कविता के मह्त्वपूर्ण कवि अनूप सेठी मुंबई में रहते हैं। लेकिन उनके भीतर डोलता पहाड उन्हें हर वक्त बेचैन किए रहता है। जगत में मेला उनकी कविताओं का संग्रह इस बात का गवाह है। यहां प्रस्तुत कविताऎं कवि से प्राप्त हुई है। इन कविताओं के साथ कवि अनूप सेठी का स्वागत और आभार।
अनूप सेठी 098206 96684

अशांत भी नहीं है कस्बा

एक

आएगी सीढ़ियों से धूप
बंद द्वार देख के लौट जाएगी
खिड़की में हवा हिलेगी
सिहरेगा नहीं रोम कोई
पर्दों को छेड़कर उड़ जाएगी
पहाड़ी मोड़ों को चढ़कर रुकेंगी बसें
टकटकी लगा के देखेगी नहीं कोई आंख

हर जाड़े में शिखर लेटेंगे
बर्फ की चादरें ओढ़कर
पेड़ गाढ़े हरे पत्तों को लपेटकर
बैठे रहेंगे घास पर गुमसुम
चट्टानों पर पानी तानकर
ढोल मंजीरे बजाती
गुजर जाएगी बरसाती नदी

ढलान पर टिमटिमाता
पहाड़ी कस्बा सोएगा रोज रात
सैलानी दो चार दिन रुकेंगे
अलसाए बाजार में टहलती रहेगी जिंदगी

सफेद फाहों में चाहे धसक जाए चांद
चांदनी टीवी एंटीनों पर बिसूरती रहेगी
मकानों के बीच नए मकानों को जगह देकर
सिहरती हुई सिमट जाएगी हवा चुपचाप
किसी को खबर भी नहीं होगी
बंद देख के द्वार
लौट जाती है धूप सीढ़ियों से

दो

जिले के दफ्तर नौकरियां बजाते रहेंगे
कागजों पर आंकड़ों में खुशहाल होगा जिला
आसपास के गांवों से आकर
कुछ लोग कचहरियों में बैठे रहेंगे दिनों दिन
कुछ बजाजों से कपड़ा खरीदेंगे
लौटते हुए गोभी का फूल ले जाएंगे

कुछ सुबह सुबह आ पंहुचेंगे
धीरे धीरे नए बन रहे मकानों में काम शुरू हो जाएगा
अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर
आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी

कुछ देर पीछे हाथ बांध के टहलेगा
सेवानिवृत्त नौकरशाह की तरह
फिर घरों में बंद हो जाएगा कस्बा
किसी को पता भी नहीं चलेगा
मिमियाएंगी इच्छाएं कुछ देर
बंद संदूकों से निकल के
रजाइयों की पुरानी गंध के अंधेरे में दब जाएंगी

बंजारिन धूप अकेली
स्कूल के आहातों खेतों और गोशालाओं में झांकेगी
मकानों की घुटन से चीड़ के जले जंगलों से भागी
लावारिस लुटी हुई हवा
सड़क किनारे खड़ी रहेगी
न कोई पूछेगा न बतलाएगा
धरती के गोले पर कहां है कस्बा

बस्ता उठाके कुछ साल
लड़के स्कूल में धूल उड़ाते रहेंगे
इन्हीं सालों में तय हो जाएंगी
अगले चालीस पचास सालों की तकदीरें

कुछ को सरकार बागवानी सिखाएगी
कुछ खस्सी हो जाएंगे सरकारी सेवा में
कुछ फौज से बूढ़े होकर लौटेंगे
कुछ टुच्चे बनिए बनेंगे

कुछ कई कुछ बनते कुछ नहीं रहेंगे
कुछ बसों में बैठकर मोड़ों से ओझल हो जाएंगे
न भूलेंगे न लौट पाएंगे
धूल उड़ाते हुए तकरीबन हर कोई सीखेगा
दाल भात खाके डकार लेना
सोना और मगन रहना
कोई न पहचानेगा न पाएगा
पर्वतों का सीना बरसाती नदी का उद्दाम वेग
सूरज का ताप हवा की तकलीफ
द्वारों पर ताले जड़े रहेंगे
दिल दिमाग ठस्स पड़े रहेंगे

अपनी ही खुमारी में अपना ही प्यार
कस्बे को चाट जाएगा
खबरों में भी नहीं आएगा कस्बा
और बेखबर घूमता रहेगा दुनिया का गोला  (1988)

भूमंडलीकरण

अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह
अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा
झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है
धरती की काया
घूम रही है गोल गोल बहुत तेज

कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं
आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते
सिर के बालों में अंगुलियां फिरा रहे हैं हौले हौले

कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं
खेतों में कोई नहीं है
दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है

इंसान पशु पक्षी
हवा पानी हरियाली को
सूखने डाल दिया गया है
खाल खींच कर

मैदान पहाड़ गङ्ढे
तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं

फिर भी सुकून से चल रहा है
दुनिया का कारोबार

एक बच्चा बार बार
धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है
उसे पेशाब लगा है
निकल नहीं रहा

एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है
कांटे चुभ रहे हैं
पृथ्वी की फिरकी बार बार फैंकती है उसे
खारे सागर के किनारे

अंतरिक्ष के टहलुए
अंगुलियां चटकाते हैं
अच्छी है दृश्य की शुरुआत l(1993)