Friday, December 24, 2010

बौद्ध मंत्रों की पीडिएफ फाइल



कभी आप किसी के साथ होते हैं, समय आपके साथ नहीं होता। यूं समय कभी भी साथ नहीं होता तब भी आप किसी के साथ होना चाहते हैं।
उस रोज भी बहुत से लोग साथ थे- मैदान में बैठे, गुनगुनी धूप का आनन्द लेते हुए। ढलते सूरज के साथ बौद्ध-स्तूप की लम्बी होती छाया धूप के एक बड़े हिस्से को लपक चुकी थी। कुछ देर धूप सेंक लेने के बाद पीठ पर चीटिंयों का अहसास जिन्हें होने लगता, बौद्ध-स्तूप की छाया में सिमट आते। कई युवा जोड़े छाया की ठंडक का हाथ पकड़ते हुए स्तूप की जड़ तक सरक आ गए थे। स्तूप के भीतर नंगे पैर चलने के कारण शरीर के भीतर तक घुस चुकी ठंड को बाहर फेंकने के लिए पारिवारिक किस्म के समूहों ने मैदान के उन हिस्सों पर, जहां धूप अपने पूरे ताप के साथ गिर रही थी, दरी बिछाकर खाने के छोटे-बड़े न जाने कितने ही डिब्बे खोले हुए थे।
इतना कुछ एक साथ था कि हवा को हवा की तरह अलग से पहचानना भी मुश्किल था। स्कूली बच्चों के कितने ही समूह अध्यापिकाओं के दिशा निर्देश पर लाइनबद्ध होकर भी अपने को धूल का हिस्सा होने से बचा न पा रहे थे। तभी न जाने कहां से, स्तूप की कौन सी दीवार से उठती आवाज उस बौद्ध-विहार में विहार करने के नियम कायदे निर्देशित करने  लगी-
लड़का-लड़क़ी मैदान में एक साथ न बैठें!
बिना लय ताल के उच्चारित होते कितने ही दोहरावों की एकरसता चुभने वाली थी। दोहराने वाली आवाज को भी उसका बेसुरापन अखरा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। पर मात्राओं को घटाते बढ़ाते हुए निर्देश का मजमून थेड़ा बदल चुका था-
लड़का-लड़की को मैदान में एक साथ बैठना मना है।
कितने ही युवा जोड़े स्थायी के बाद बेस्वर होकर उठती आंतरा को सुनने से पहले खड़े हो चुके थे और यूंही टहलने लगे थे। यूंही टहलते हुए एक दूसरे से सट कर टकराजाने वाली स्थितियां भी उन्हें सचेत करने लगी थी कि नियम की कोई नयी धारा न सुनायी दे जाए। लेकिन गोद में सिर रखकर लेटा वह लड़का जो अपने पेट और घुटने मोड़ कर उठाए पैरों के समकोण पर लेपटाप पर पर बौद्ध मंत्रों की पीडिएफ फाइल खोले था, वैसे ही लेटे-लेटे अपनी साथिन को मंत्रों के अर्थ बता रहा था। काफी देर से सुने जा रहे बौद्ध मंत्रों से विषयांतर करते हुए साथिन एक किस्सा बयां करने लगी थी कि एक बार-यह किसी और जगह की बात है, दो घुटे सिर वाले युवा बौद्ध-भिक्षु मुझे लाइन मार रहे थे। लड़के के पास समय भरपूर था-साथिन के साथ का हर छोटे से छोटा क्षण भी स्मृतियों में कैद कर लेना चाहता था। पेट और घुटनों के साथ उठे पैर के समकोण पर खुली बौद्ध मंत्रों की पीडिएफ फाइल को उसने एक क्लिक से हटा दिया और तिरछी निगाहों से साथिन को ताकने लगा। समय तो साथिन के पास भी भरपूर था पर लड़का उसकी आंखों में एक तरह की हड़बड़ाहट को देख रहा था। लड़के को लगा कि शायद साथिन साथ नहीं | वह स्वंय उठ कर बैठ गया और चहलकदमी करते दूसरे युवा जोड़ो को देखने लगा।             

Saturday, December 18, 2010

किसान, टेक्नोलोजी और बाजार की अद्भुत फ़ंतासी:"तरबूज के बीज" (अरूण कुमार ’असफल’ )

युवा कहानी पर केन्द्रित "परिकथा" का विशेषांक थोडा देर से नजर से गुजरा .युवा कहानी का रचना संसार बाजार , प्रेम ,कार्पोरेट जगत और कुछ नितान्त निजी अनुभवों की दुनिया से साक्षात्कार कराता है.सुधी समीक्षकों और वरिष्ठ कथाकारों की नजर में युवा कहानी बहुत आश्वस्त नहीं कर रही है.परिकथा के इसी अंक में इस आशय की टिप्पणियां भी देखने मे आयी हैं.ऐसे में "पांच का सिक्का" फ़ेम कहानीकार अरूण कुमार ’असफल’ की कहानी "तरबूज के बीज" को पढ़ना एक सुखद अनुभव रहा.किसान आत्महत्या की पृष्ठ्भूमि में रची गयी यह कहानी यथार्थ और फेंटेसी का एक खूबसूरत समन्वय है। . लगभग बोध-कथा की ऊंचाई तक पहुंचती इस रचना में एक ऐसे किसान की कहानी कही गयी है जो आत्महत्या की जगह खोजते- खोजते परेशान है, जिसके लिये "दिन इतने खराब चल रहे हैं कि वह अगर जीना चाहे तो जीने में मुसीबत और अगर मरने में सुख की आस हो तो इस नेक काम में भी अडचन." आत्महत्या की नाकाम कोशिशों के दरम्यान उसे आदमी के रेशे और तरबूज के रेशे से तैयार किया गया बीज बेचने वालों से आकस्मिक सी लगने वाली भेंट होती है और वह जीने की कोशिशों के बीच मृत्यु की अस्तित्ववादी नियति की ओर धकेल दिया जाता है. हालांकि यह कोई अस्तित्ववादी कहानी नहीं है. यह ठोस यथार्थ को बांचने वाला एक कलात्मक बयान है. इस कहानी के ब्यौरे एक तरफ प्रेमचन्द की भूलती जाती परम्परा की याद दिलाते हैं तो दूसरी तरफ जैव प्रौद्योगिकी और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों की दुन्दुभी से भरे नितान्त आधुनिक समय में किसान की स्थिति पर ध्यान भी आकर्षित कराते हैं.
इस कहानी के साथ एक बात और साबित हो गयी है की अब अरूण कुमार "असफल" ने अपनी कहानी का मुहावरा खोज लिया है और उनके शिल्प का एक विशिष्ट अन्दाज है- वे कई उठानों वाली कहानी के लेखक हैं. जब लगता है कि कहानी अपने क्लाइमेक्स में बस पहुंचा ही चाहती है वे उसे एक और दिलकश रास्ते की तरफ निकाल ले जाते हैं. यह निश्चित रूप से एक मुश्किल शिल्प है.लेखकीय प्रतिबद्धता और लोक-जीवन की गहरी समझ के बल पर अरूण ने यह हुनर हासिल किया है. इस ब्लाग के माध्यम से उन्हें बधाई!

Tuesday, December 7, 2010

सूर्ख-गुलाब से गटर तक-उर्फ़ किस्सा-ए-दर्द भोगपुरी(अवधेश और हरजीत ६)

टंटा-शब्द के उस नामकरण के पीछे कई दिमाग लगे थे. सुनील कैन्थोला की असंदिग्ध मौलिक प्रतिभा का सहयोग तो था ही, टंटों की सामूहिक चेतना ने इसे और ऊंचाई दी. होने यह लगा कि शहर के तमाम साहित्यिक , सांस्कृतिक कार्य-क्रमों में बाकायदा टंटा-समिति के नाम निमन्त्रण पत्र आने लगे.व्यक्तिगत-स्तर पर हर टिप-टापिया अपने को टंटा समझता था किंतु टंटा-पन को लेकर सार्वजनिक खिंचाई में चूकता भी नहीं था.शायद सर्वजनिक धिक्कार की भर्त्सना करना भी टंटों के पुनीत कर्तव्यों में से एक रहा है.अवधेश की एक कविता है- माचिस जिसकी शुरुआती पंक्तियां यूं हैं
माचिस एक आग का घर है
जिसमें बावन सिपाही रह्ते हैं
जिनके सिरों पर बारूद भरा है
इस कविता की पैरोडी बनायी गयी जो दुर्भाग्य से अब मुझे याद नहीं है. यह पैरोडी उस जगह चस्पा कर दी गयी जिसे अमूमन दुकानदार लम्बे इन्तजार और कई तकादों की अप्रिय प्रक्रिया के बाद थक कर उन देनदारों का नाम सार्वजनिक करने के लिये चुनते हैं जिनकी देनदारी की रकम बर्दाश्त ली सीमा ले बाहर जाती नजर आने लगती है.टिप-टाप में ऐसे देनदार बहुत थे-लगता था जैसे उस सांस्कृतिक हलचलों से भरपूर समय में उधार न चुका कर प्रदीप गुप्ता पर बडा अहसान कर रहे हैं.कुछ के पास पैसे ही नहीं होते थे!
बहरहाल अवधेश ने पैरोडी पढी-उसकी प्रशंसा की और पैरोडीकारों की त्रुटियों को बाकायदाअपने हाथ से दुरूस्त कर चिपका दिया!अब टंटा गतिविधि में यह क्रिया भी शामिल हो गयी-पैरोडी.कुछ टंटे तो यह तक मानने लगे कि यह जीवन अगर सृष्टिकर्ता की रचना है तो इस जीवन को जीने वाला उसका पैरोडीकार!उन्ही दिनों टंटों के बीच दर्द भोगपुरी का आगमन हुआ.ये साहब शायरी सीखना चाहते थे और शायराना तबियत के मालिक थे - यह बात दीगर है कि शायराना तबियत के बारे में उनके विचार हमेशा बदलते रहते थे. तो दर्द भोगपुरी ने हरजीत से इस्लाह लेने का इरादा किया और कुछ पंक्तियां सुनाकर जानना चाहा कि इनमें शायरी है भी या नही.और अगर शायरी नहीं है तो इनमें पैदा कर दे! हरजीत ने सुना बहुत देर तक सोचा .आहिस्ता -आहिस्ता अपना चश्मा दुरूस्त किया और बोला,"दर्द साहब!यूं ही कहते जाईये . सही समय पर खुद समझ जायेंगे कि शायरी है या नहीं.और रही बात दुरूस्त करने की तो जब उसका भी वक्त आयेगा तो खुद ब खुद शे’र हो जायेगा."
दर्द साहब ने कुछ लोगों से सुना था कि कि हरजीत कभी उर्दू की नशिश्तों मे जाया करता था और राजेश पुरी तूफ़ान का शागिर्द रहा.प्रसंगवश तूफ़ान साहब से एक मुलाकात मुझे भी याद है-अतुल शर्मा के साथ.गांधी पार्क की बगल में एक नये खुले टी हाउस में ( वह ज्यादा नहीं चल सका).वहां उन्होंने एक पते की बात बतायी थी-अच्छा शे’र वह होता है जो गद्य और पद्य में एक सा रहे यानि उसका अन्वय न करना पडे- उदाहरण के रूप में उन्होंने मीर के बहुत से शे’र उद्धृत किये थे.एक मुझे याद आ रहा है
नाजुकी उन लबों की क्या कहिये
पंखुडी कोई गुलाब की सी है
खैर एक रोज दर्द साह्ब के साथ अजब वाकया पेश आया. वे टिप-टाप मे बैठे थे कि दो महिलायें एक सूर्ख गुलाब लिये दर्द साहब को पूछती चली आयीं.थोडा सकुचाते ,कुछ हिचकिचाते हुए उन्होंने वह गुलाब कुबूल किया - मेज के किनारे रखा और प्रदीप गुप्ता को उधार की चाय का आर्डर दिया.दर्द साहब सूर्ख गुलाब का सबब समझ नहीं पा रहे थे .तभी वहां हरजीत का आगमन हुआ.उसने मंजर देखा , प्रदीप गुप्ता से कुछ बात की और फिर उस सार्वजनिक पोस्टर -स्थल से अवधेश की पैरोडी हटाकर एक नया शे’र चस्पां कर दिया
शराबो- जाम के इस दर्जः वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर-नसीब हुए
इसे पढ़्कर दर्द भोगपुरी ने ,जाहिर है, राहत की सांस ली

Friday, November 26, 2010

अवधेश का गीत:(अवधेश और हरजीत -५)

अवधेश और हरजीत पर लिखते हुए इतनी चीजें याद आ रही हैं कि थोडा रूकना पडेगा. फिलहाल आप अवधेश के गीत की कुछ पंक्तियां पढें जो मेरी स्मृतियों में बसी हैं.अवधेश बहुत अच्छा गीतकार और गायक भी था यह बात वे लोग जानते हैं जो उसे सुन चुके है .एक बार देहरादून में राजेन्द्र यादव, गिरिराज किशोर और प्रियंवद का नितान्त अनौपचारिक आगमन हुआ . वहां अवधेश ने कुछ गीत सुनाये थे और ओमप्रकाश वाल्मीकि ने राजेन्द्र जी से किसी पत्राचार पर बहस की थी.यह तब की बात है जब ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी "बैल की खाल"को हंस में छपने के लिये अभी वक्त था. वह अनौपचारिक बैठक एक तरह से दलित - विमर्श में महत्वपूर्ण घटना सबित हुई.तो अवधेश के गीत हंस में छपे.वे शायद चार गीत थे.फिलहाल आप इस गीत की वे पंक्तियां पढिये जो मेरी स्मृति में बची हैं
है अंधेरा यहां और अंधेरा वहां
फिर
भी ढूंढूंगा मैं रौशनी के निशां

है
धुंए में शहर या शहर में धुंआ
आप
कहते जिसे कहकशां-कहकशां

तू
बयानों से अपने बचा भी तो क्या
साफ
दिखते तेरी उंगलियों के निशां

Friday, November 19, 2010

टंटा प्रसंग उर्फ टिप-टाप(अवधेश और हरजीत -४)

देहरादून का कोई भी साहित्यिक - सांस्कृतिक उल्लेख डिलाइट और टिप-टाप के जिक्र से बचकर संभव नहीं.डिलाइट का इतिहास बहुत पुराना है और आज भी वह अपनी उसी त्वरा के साथ गतिशील है- एक साथ कई पीढियों के बीच जीवन्त बहसों , अफवाहों , सूचनाओं और निखालिस गप्पबाजी का ठेठ अनौपचारिक ठिया!आज की बढ़ती समृद्धि और और घटती संवेदनशीलता के इस बेहद तेज समय में शहर के बीचो-बीच अपनी सादगी भरी धज में डटा डिलाइट प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र रचता दिखायी पडता है.डिलाइट के इतिहास और प्रतिष्ठा पर इस ब्लाग में पहले भी लिखा जा चुका है-खास तौर पर सुरेश उनियाल और विजय गौड़ द्वारा.यहां मैं टिप-टाप का जिक्र कर रहा हूं जो अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के पूरे दशक भर अपने उफान पर रहा और अब बस नाम भर बचा हुआ है-चकराता रोड की भीड़ भरी भागम - भाग के बीचो-बीच एक साइन बोर्ड!इस शहर में भीड़ का ये आलम है
घर से गेंद भी निकले तो गली के पार न हो
हरजीत ने शायद कुछ ऐसा टिप-टाप मे बैठकर ही कहा था.उन दिनों टिप-टाप पूर्णतः साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बन चुका था.टिप-टाप का इतिहास कुछ यूं रहा कि डिलाइट के किंचित अगंभीर से दिखलायी पडते माहौल से हटने के लिये एक वैकल्पिक स्थल के रूप में पहले यहां पत्रकारों ने अड्डा जमाया -फिर रंगकर्मी काबिज हुए और अन्ततः साहित्यिकों की विशिष्ट मुफलिसी को टिप-टाप मालिक प्रदीप गुप्ता के दिल की रईसी और काव्य-प्रेम इस कदर रास आये कि टिप-टाप, २० चकराता रोड शहर के साहित्यिकों का पता ही बन गया.जब कथाकार योगेंद्र आहुजा नौकरी के सिलसिले में स्थानान्तरित होकर देहरादून आये तो उन्हें दिल्ली में बताया गया कि देहरादून में किसी साहित्यकार का पता पूछने की जरूरत नहीं -सीधे टिप-टाप चले जाइये! तो टिप-टाप में ही मेरी योगेन्द्र आहूजा से पहली मुलाकात हुई-वह शायद शाम का वक्त था-लगभग साढे सात बज चुके थे. वे अपनी पत्नी के साथ आये थे-टिप- टाप के माहौल में किसी का सपरिवार आगमन आश्चर्य ही हुआ करता था.
"अच्छा! सिनेमा-सिनेमा वाले योगेन्द्र आहूजा!"लगभग यही प्रतिक्रिया थी. बाद में योगेन्द्र ने गलत ,अंधेरे में हंसी और मर्सिया जैसी कहानियां दीं.
खैर, यह एक अलग और विस्तृत कथा है, फिलहाल बात टंटा शब्द पर की जाये जो एक तरह से टिप-टापियों का सामूहिक नामकरण हो गया.इस शब्द के साथ थोडा सा विरोध, हलका सा प्रतिरोध और दुनिया के प्रति किंचित उपहास को मिलाकर एक खिलन्दडाना बिम्ब कालान्तर में जुड गया जिससे संबद्ध हर शख्स को टंटा कहा जाने लगा. बहुवचन टंटे और सामुहिकता के लिये टंटा समिति का संबोधन चल निकला.यहां बेहद गंभीर मुद्दों को गैर जिम्मेदारी की हद तक पहुंचने की दुस्साहसिक चेष्टाओं के सामुहिक आयोजन में कई गैर-टंटों ने निहायत अगंभीर (non-serious) वार्तालाप की शक्ल में बदलते देखने के बाद टंटा समिति को वक्त-बर्बादी का जरिया माना और घोषणा की कि यह दो चार दिनों का शगूफा है.मज्रे की बात यह कि टंटों ने इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं-गम्भीरता का उपहास वैसे भी टंटेपन का मूल भाव है!लेकिन टंटा समिति चल निकली और खूब चली.
इस टंटा शब्द की भी एक कहानी है.एक शाम शहर में घूमते हुए कवि वीरेन डंगवाल टिप टाप में आ पहुंचे .शायद राजेश सकलानी के साथ.चूंकि अवधेश और हरजीत के लिये शाम होने के बाद सूरज ढलने का इन्तजार वक्त-बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं था, सो वे चाहते थे कि वीरेनजी जरा जल्द ही टिप-टाप से निकल कर कहीं और चलें जहां हरजीत अपना ताजा शे’र पढ़ सके
ये शामे-मैकशी भी शामों में शाम है इक
नासेह, शेख ,वाहिद, जाहिद हैं हमप्याला
लेकिन वीरेनजी को शायद ६.३० की ट्रेन पकडनी थी.तो शाम कुछ फीकी से हुई जा रही थी-तो हरजीत ने कहा
"चलो ! टंटा खत्म!"फिर अगला ही जुमला कस दिया,"स्वागत एवं टंटा समिति का काम खत्म"
अगले दिन इस बात का इतनी बार मजाक बनाया गया कि टंटा शब्द सबकी जुबान में चढ गया.कालान्तर में इसमे साथ कुछ अर्थ जोडने की कोशिशें हुईं . एक प्रसिद्ध नामकरण यूं रहा
Total Awareness of Neo Toxic Adventures
इस पर अगली पोस्ट में