Monday, March 19, 2012

स्या-स्या

कहानी   
डा शोभाराम शर्मा                 



यह कहानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद की व्यांस, चौदांस और दारमां पट्टी में रहने वाली भोटांतिक 'रं़ड" जनजाति की वैवाहिक प्रथा पर आधारित है। इस जनजाति में विवाह अधिकांशत: अपहरण द्वारा सम्पन्न होते थे। विवाह के लिए जिस लड़की का अपहरण किया जाता था उसके साथ उसकी सहेलियाँ भी पकड़ ली जाती थी। विवाह हो जाने की स्थिति में सहेलियाँ मुक्त कर दी जाती थी। इस सहेलियों को ही स्या-स्या कहा जाता था।         - लेखक

सूरज ढल चुका था। पूर्वोत्तर की बर्फीली चोटियों पर संध्या की सलज मुस्कान स्वर्ण विखेर रही थी। तिथलाधार की मनोरम उपत्यका से एक छोटा सा काफिला गुजर रहा था, उन दो पहाड़ियों के बीच जहाँ न जाने कब से मानव की श्रान्त ठोकरों ने चट्टानी भूमि को तोड़कर एक गहरी पतली रेखा का मार्ग बना डाला था। काफिले के लोग काली की घाटी में धारचुला की ओर अपने जाड़ों के आवास की ओर जा रहे थे। घरेलू सामान से लदे झप्पुओं, गाय-बैलों और भेड़-बकरियों के गलों में बंधी घण्टियों का टनन-टन्, टनन-टन् अजीब समाँ बांध रहा था। भेड़-बकरियाँ यदा-कदा में-में करती हुई रास्ते से भटकती तो साथ में चलते रक्षक कुत्ते भौंकते हुए उन्हें पुन: रास्ते पर ले आते। कफिले को आज सौसा गाँव के नीचे ज्यूंती गाड के किनारे डेरा जमाना था और काफिले का बड़ा हिस्सा वहाँ पहुंच भी चुका था।
तिथलाधार की दूसरी ओर से एक नवयौवना अपनी पीठ पर अपने नन्हें शिशु को लादे ऊपर चढ़ी। थकान के मारे माथे का पसीना पौंछते हुए वह मुलायम घास पर बैठ गई। एकान्त और कुछ-कुछ अंधेरे से त्रस्त उसने चारों ओर देखा। एक ओर रागा (देवदार के समान एक सुन्दर वृक्ष) नीले चीड़ों और बाँज-बुराँस के पेड़ों तथा देव रिंगाल की झाड़ियों से ढकी श्रेणी संध्या के स्याह परदे में काले दैंत्य का आकार ग्रहण कर रही थी और दूसरी ओर पीले बुग्याल से ढकी पहले सी्धी खड़ी, फिर कुछ-कुछ ढालू और सिर पर त्रिशूल के आकार के बौने पेड़ों को सजाए पर्वत श्रेणी उतर की ओर हिम की रजत-धवल टोपी पहने नीचे ज्यूंती गाड की छोटी सी उपत्यका की ओर झांक रही थी। पूरब की ओर नीचे  और बहुत नीचे काली नदी की गहरी घाटी के पार नेपाल के जंगलों के ऊपर खड़े श्वेत शिखरों के बीच पूर्णिमा का चांद अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ बढ़ने लगा था। चांदनी के प्रकाश में ऊंचाई पर पितरों  की स्मृति में रखे बड़े-बड़े पाषाण नजर आए। लगता था कि वे जैसे अपने वंशजों के काफिलों को आशीर्वाद देने हेतु सामूहिक रूप से वहाँ पर जमा हों। नवयौवना ने भय और श्रद्धा के वशीभूत रागा के पेड़ों पर बंधे घण्टे-घण्टियों को हिलाया, जिनका गम्भीर स्वर हेमन्त की तीखी बर्फीली बयार का स्पर्श पाकर चारों ओर फैल गया और मानव के भोले विश्वासों के रंग-बिरंगे चीर भी बुरी तरह फड़फड़ाने लगे।
नवयौवना ने पहले घबराहट में इधर-उधर देखा और फिर किसी तरह आश्वस्त होकर पुकारा- 'दीदी, ओ! डमसा दीदी!" उसकी वह पतली आवाज हवा में फैलकर विलीन हो गई। उसने कई बार पुकारा लेकिन उत्तर नहीं पाया। काफी देर बाद डमसा दीदी ने एक अन्य कमसिन बाला के साथ प्रवेश किया और सुस्ताने के लिए पूर्वागत यौवना के पास बैइ गई।
'दीदी, तुमने सुना नहीं, मेरा तो गला ही बैठ गया था।" पहली ने उलाहने के स्वर में कहा, 'यहाँ तो दम ही निकलने को था। मन भर से कम क्या होगा।" डमसा ने पसीना पोंछते हुए कहा।
'वाह! बच्चे का बोझ तो और भी भारी होता है, पर तुम क्या जानो?" पहली ने शिशु को गोद में लेते हुए कहा। इस पर कमसिन अबोध बाला ठहाका मारकर हंस पड़ी। उसकी निर्दोष हंसी उस बर्फीली हवा की सांय-सांय में गूँज उठी।
डमसा की छाती में जैसे तीर चुभ गया। तुम क्या जानो? हवा का हर झोका उसके कानों में कह उठा। तुम क्या जानो? हंसी की हर गूँज में वही ध्वनि झंकृत हो उठी। और उस नन्हें से जीव की इकहरी आवाज में वही-तुम क्या जानो? तुम क्या जानो? डमसा का जैसे मर्म दहल उठा। काले कम्बल की गांठों से घिरा, काले बादलों के बीच पूर्णिमा का चांद सा चेहरा मुझांकर रह गया। वह रोनी-रोनी हो गई। उच्छवास लेकर उठ खड़ी हुई और बोझ सम्भालकर शीघ्रता से नीचे की ओर चल पड़ी।
वे दोनों अवाक। डमसा दीदी का यह व्यवहार उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। चकित मृगी सी वे भी उठी और उसी ओर चल पड़ी। डमसा चल रही थी, किन्तु उसके कानों में हवा का हर झोंका वहीं स्वर घोल रहा था- तुम क्या जानो? उसका मानस तिक्त हो उठा। उसकी हर लहर में वहीं तिक्त भावना छा गई थी- तुम क्या जानो?
बैसाखी उससे दो वर्ष छोटी थी। पिछले साल ही उसके हाथ पीले हुए थे और आज उसकी गोद में नन्हा सा शिशु खेल रहा था। अपना-अपना भाग्य है। डमसा के दिल में कभी ईर्ष्या नहीं जगी। वह बैसाखी को कितना चाहती थी, किन्तु आज उसके एक छोटे से वाक्य ने डाह का बवण्डर खड़ा कर दिया। वह जितना ही मन को समझाती मन उतना ही संतप्त होता गया। जीवन की कठोर वास्तविकता अपनी समस्त व्यंग्य की पैनी धार से जैसे उसके मर्म को कचोट रही थी- तुम क्या जोना? हाँ, क्या जाने? समाज  की वेदी पर माँ के अपराध का दण्ड उसी को तो भोगना था। वह मन-मन भर के पाँवों से चल रही थी और अचानक ठोकर लगने से गिर पड़ी। चार कदम पीछे घनारी ने दखा और उसने दौड़कर बोझ संभाला। इतने में बैसाखी भी पहुँच गई।
'दीदी, चोट तो नहीं लगी?" बैसाखी ने पूछा।
'अरे! तुम तो रो रही हो!" घनारी ने डमसा की पतली-पैनी आँखों में आँसू की बूँदें देख कर कहा।
'दीदी, बुरा मान गई क्या?" बैसाखी ने फिर से पूछा।
डमसा बोले तो क्या? वह कैसे कहे कि चोट पाँव पर नहीं उसके दिल पर लगी है। उठी और बोझ को पीठ पर ठीक से जमाते हुए बोली- 'नहीं-नहीं, बहिन, बुरा किस बात का लगेगा? पाँव के अंगूठे पर चोट लग गई है न।"
किन्तु आँसुओं ने कपोलों को चूमते हुए सब कुछ कह दिय। तीनों पिफर चल पड़ी। किसी को कुछ कहने का साहस न हुआ। घनारी भी अपनी चुहुल भूल गई। वे सोसा गाँव की धार पर पहुँच चुकी थी। दूसरी ओर अभी चांदनी का प्रकाश नहीं था। कुछ पेड़ों और झाड़ियों के कारण अंधेरा और भी घना था। नीचे ज्यूंती गाड के किनारे तम्बू-तन चुके थे। कभी-कभी प्रकाश की  क्षीण रेखा चमक उठती थी। उन्हें वहीं पहुँचना था।
बैसाखी सबसे आगे थी। बीच में घनारी और पीछे डमसा अपने मन को समझाने की चेष्टा करती हुई चल रही थी। इतने में नीचे से आवाज आई- 'बैसाखी हो!" यह बैसाखी के पिता, डमसा के चाचा की आवाज थी। बैसाखी उत्तर देने को था कि इतने में डमसा की चीख उसके कानों में पड़ी। मुड़कर देखा तो वह स्तब्ध रह गई । झाड़ी से निकलकर तीन-चार आदमियों ने डमसा को घेर लिया था। बैसाखी के लिए तो यह नई बात नहीं थी उसके साथ भी पिछले साल यही तो हुआ था। शादी की परम्परा यही चली आई है तो किसी का क्या दोष? घनारी का भय से बुरा हाल था। वह चीखने को थी कि दो युवकों ने उसे भी घेर लिया। अंधेरे में बीड़ी सुलगाते हुए वे किसी प्रेत की छाया से लग रहे थे।
'मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, हमें छोड़ दो।" डमसा ने अनुनय की।
'वाह! छोड़ दो, छोड़ने के लिए ही क्या हम यहाँ बैठे थे?" उनमें से एक ने कहा 'अजी, ऐसे नहीं चलती तो उठाकर ले चलो।" दूसरे ने प्रस्ताव रखा।
और एक बलिष्ठ युवक आगे बढ़ा। डमसा घबरा गई। घबराहट में उसके मुख से निकल पड़ा- 'मैं अपने-आप चलूँगी। हाथ न लगाओ।" और उपस्थिति पुरुष ठहाका मारकर हँस पड़े। मछली पफँस गई थी। वे चल पड़े। घनारी और बैसाखी ने भी डमसा का रुख देखकर अधिक विरोध नहीं किया। फिर ऐसे विरोध का मूल्य भी क्या था? वह तो परम्परा थी। उन्हें डमसा दीदी के विवाह में स्या-स्या तो बनना ही था।
मार्ग अंधेरे में था। वे चल रहे थे। घनारी और बैसाखी में मीठी चुटकियां चल रही थी। डमसा अपने ही में खोई, यह सब क्या हो रहा है? उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था। क्या सचमुच उसके भाग्य ने रास्ता सुझा दिया है? क्या विधाता ने अपनी आँखें खोल दी हैं? कई प्रश्न उसके अन्तर को झकझोर रहे थे। और वह उसी झोंक में युवकों से घिरी आगे बढ़ रही थी। गाँव आ गया। एक बड़े से घर के आगन में कई लोग आ जा रहे थे। मंगल-वाद्य बजने लगे। रास्ते में एक सफेद कोरा कपड़ा बिछाया जाने लगा। अन्तिम सिरे पर चकती (स्थानीय सुरा) की भरी बोतल रख दी गई। वह कोरा कपड़ा, वह चकती की बोतल दुल्हन के पक्ष वालों के लिए चुनौती थी। आते हो तो आओ, चकती को स्वीकार करो और मित्राता के धागे में बंध जाओ। अन्यथा यह लक्ष्मण-रेखा है। तुम उस सीमा से आगे नहीं बढ़ सकते।
तीनों को एक कोठरी में ढकेल दिया गया। बैसाखी का नन्हा शिशु रोने लगा और वह उसे चुप कराने में लग गई। डमसा और घनारी सहमी सी कोने में दुबक गई। डमसा का हृदय डूब-उतराने लगा। तुम क्या जानो? शिशु का रुदन अभी भी वह व्यंग्य उसके कानों में प्रतिध्वनित हो रहा था। शायद अब वह जान सके। एक आशा की किरण कहीं से उसके हृदय में चमक उठी। वर्षों से वह इसी कामना के पीछे दौड़ी थी, किन्तु स्या-स्या बनने के अतिरिक्त उसके भाग्य में दुल्हन बनना तो लिखा ही न था। उसे लगा कि जैसे आज उसकी मनोकामना पूर्ण होने को थी। उसके संचित, किन्तु अधूरे अरमान फिर उसके मानस में अपनी समस्त चपलताओं का खेल खेलने लगे। वह अब किसी की बन सकेगी, अपने समस्त संचित प्यार का प्रतिदान लेगी ओर पिफर उनका प्यार एक नन्हा सा शिशु बनकर उसकी गोद में खेलने लगेगा। कल्पना का वह शिशु उसकी गोद में खेलने भी लगा, रोने भी लगा। उसने देखा- आनन्द तिरोहित हो गया- वह उसका नहीं, बैसाखी का था जो हाथ-पाँव चलाकर जोर-जोर से रो रहा था।
इतने में कुछ उ(त युवक-युवतियां कमरे में आए। लालटेन भी थी एक के हाथ में। एक अधेड़ सी नारी ने भी प्रवेश किया। उसने डमसा के पास जाकर उसके चेहरे को अपनी ओर किया और उछल पड़ी। सभी सकपका गए। आश्चर्य भरी आँखें जैसे डमसा को निगलने लगीं।
'अरे! ये तो किसी और को उठा लाए हैं। यह तो डमसा है, जो दूसरे घ्ार में पैदा हुई। अभी तो इसकी माँ का हिसाब तक नहीं हुआ।" वह अधेड़ नारी एक सांस में कह उठी और बाहर चल पड़ी। सनसनी  सी पफैल गई। डमसा को काटो तो खून नहीं। वह लाज में गड़ी जा रही थी। लोगों में कानापूफसी चलने लगी। कई आए, गए। उन्होंने डमसा को देखा तक नहीं। तर्क-वितर्क चलने लगे। अन्त मंे बड़े बूढों ने पफैसला दिया कि यह नहीं हो सकता है और डमसा की रही-सही आशा भी जाती रही। वह सुबकने लगी। आँसुओं से उसके कपोल भीग गए। किन्तु उन आँसुओं का मूल्य ही क्या था? फिर निर्णय हुआ- क्यों न घनारी को दुल्हन बना दिया जाए? कोई छोटी भी नहीं। दूल्हा देखने भी आया। डमसा ने उधर देखा भी नहीं। उसका मन मर गया था। बेचारी दुल्हन बनते-बनते स्या-स्या बन गई। देखते-देखते घनारी दूसरे कमरे में पहुँचा दी गई और डमसा उपस्थित युवकों की कृपा-दृष्टि का लक्ष्य। उसका सौन्दर्य-दीप पतिंगो को आकृष्ट करने के लिए यथेष्ट था। सभी चकती में मस्त। कुछ गा रहे थे, कुछ ही-ही, हू-हू कर रहे थे। फिर समां बध गया। आनन्द का दिन था। शादी जो थी। ऐसे ही दिन तो होते हैं जब उद्दाम (उद्दाम) इच्छाएँ अपनी सीमा तोड़ बाहर फूटना चाहती हैं। गाँव की कुछ और अल्हड़ युवतियाँ आ गई। गीत चलने लगे। नृत्य चलने लगा। चकती के दौर पर दौर चलने लगे। सारा कमरा विचित्रा मदाहोशी में रम गया। युवक थक गए। युवतियाँ थक गई। लेकिन वे डमसा को न मना सके। वह न हिली न डुली। सोचती रही और सोचती रही- पिछले साल वह बैसाखी की शादी में रात-रात भर नाचती रही। युवक थक गए। कोई जोड़ का नहीं मिला। हर साल वह ऐसी शादियों में स्या-स्या बनती रही, पीती रही, अपने हाथों पिलाती रही और मस्त होकर नाचती रही। शायद यही उसका भाग्य है। दूसरों की खुशी में खुशी माने, नाचे, गाए और वासना की आँखों से अपने सौन्दर्य की कीमत आंकने वालों को अपनी कृपा-दृष्टि से निहाल करे। युवक उसे घूर रहे थे। जबरन उठाना चाहते थे। उनके लिए वह खिलवाड़ थी। वह खिलवाड़ थी समाज की। कोई उसे अपनी नहीं बना सकता। किसी में इतना साहस नहीं। समाज के बन्धनों से कौन टकराए? ठकराने की जरूरत ही क्या है, जबकि वे उसके यौवन से खिलवाड़ कर सकते हैं, उसके जीवन से खेल सकते हैं तो पिफर बैठे-बिठाए कौन हत्या मोल ले? वह सचमुच हत्या है- समाज की हत्या। फिर हत्या को कौन स्वीकार करें? उसकी माँ के रुपए अदा नहीं हुए तो भला कौन उसे अंगीकार करें?
इतने में बैसाखी ने आकर बताया- 'दीदी, घनारी ने चकती और चावल ले लिए हैं।" डमसा का ध्यान भग्न हो गया। घनारी ने अपनी स्वीकृति दे दी थी। वह दुल्हन बन गई थी। अभागी डमसा के बदले घनारी ही सही। उसी का जीवन संवरे। उसे तो स्या-स्या बनकर ही जवानी की अनमोल घड़िया काट देनी हैं। वह किसी से डाह क्यों करे? और वह उठ खड़ी हो गई। एक लालायित युवक की उसने बांह पकड़ ली और उसके हाथ से दो लिन्च (चांदा का प्याला विशेष) चकती के वह एक सांस में पी गई। उसकी पतली-पैनी आंखों और उभरे रक्तिम गालों पर मादकता थिरकने लगी। वह नाचने लगी। गीत निर्झरणी की तरह उसके कण्ठ से झरने लगा। नृत्य में अद्भुत प्रवाह आ गया। सबके सब थिरकने लगे। सब की आवाज से अलग स्वर्गीय गिरा सी उसकी स्वर लहरी जैसे हवा में थिरकने लगी-
'न्यौल्या, न्यौल्या, लाल मेरो सांवरी, दिन को दिन जोवन जान लाग्यों।"
(प्रियतम! तुम नहीं आए, नहीं आए, दिन-वॐ-दिन मेरा यौवन ढलने लगा है।)
कौन जाने, उसका वह सांवरी इस जीवन में कभी आएगा भी या नहीं?
 

Friday, March 16, 2012

महबूब जमाना और जमाने में वे

 अल्पना मिश्र हिंदी कहानी के सूची समाज में अनिवार्य रूप से शामिल नहीं हैं लेकिन वे उसकी सबसे मजबूत परम्परा का एक विद्रोही और दमकता हुआ नाम हैं। उन्हें उखड़े और बाजारप्रिय लोगों द्वारा सूचीबद्ध नहीं किया जा सका। कहानी का यह धीमा सितारा मिटने वाला, धुंधला होने वाला नहीं है, निश्चय ही यह स्थायी दूरियों तक जायेगा।
अल्पना मिश्र की कहानियों में अधूरे, तकलीफदेह, बेचैन, खंडित और संघर्ष करते मानव जीवन के बहुसंख्यक चित्र हैं। वे अपनी कहानियों के लिए बहुत दूर नहीं जातीं, निकटवर्ती दुनिया में रहती हैं। आज, पाठक और कथाकार के बीच की दूरी कुछ अधिक ही बढ़ती जा रही है, अल्पना मिश्र की कहानियों में यह दूरी नहीं मिलेगी। आज बहुतेरे नए कहानीकार प्रतिभाशाली तो हैं पर उनका कहानी तत्व दुर्बल है, वे अपने निकटस्थ खलबलाती, उजड़ती दुनिया को छोड़ कर नए और आकर्षक भूमंडल में जा रहे हैं। इस नजरिए से देखे तो अल्पना मिश्र उड़ती नहीं हैं, वे प्रचलित के साथ नहीं हैं, वे ढूंढती हुई, खोजती हुई, धीमे धीमे अंगुली पकड़ कर लोगों यानी अपने पाठकों के साथ चलती हैं।
'गैरहाजिरी में हाजिर", 'गुमशुदा",'रहगुजर की पोटली", 'महबूब जमाना और जमाने में वे",'सड़क मुस्तकिल", 'उनकी व्यस्तता", 'मेरे हमदम मेरे दोस्त",'पुष्पक विमान" और 'ऐ अहिल्या" कुल नौ कहानियॉ इस संग्रह में हैं। इन सभी में किसी न किसी प्रकार के हादसे हैं। भूस्ख्लन, पलायन, छद्म आधुनिकता,जुल्म, दहेज हत्याएं, स्त्री शोषण से जुड़ी घटनाएं अल्पना मिश्र की कहानियों के केन्द्र में हैं। इन सभी कहानियों में लेखिका की तरफदारी और आग्रह तीखे और स्प्ष्ट हैं। वे अत्याधुनिक अदाओं और स्थापत्य के लिए विकल नहीं हैं। उनकी कहानियॉ अलंकारिक नहीं हैं, वे उत्पीड़न के खिलाफ मानवीय आन्दोलन का पक्ष रखती हैं और इस तरह सामाजिक कायरता से हमें मुक्त कराने का रचनात्मक प्रयास करती हैं। मुझे इस तरह की कहानियॉ प्रिय हैं।
- ज्ञानरंजन

Wednesday, March 14, 2012

देहरादून की साहित्यिक हलचल

''सौरी"" की ''चढ़ाई"" चढ़ते हुए एक समय बस्ती से देहरादून पहुंची अल्पना मिश्र अब दिल्ली निवासी हैं। देहरादून की साहित्यिक बिरादरी में उन्हें हमेशा अपने बीच ही महसूस किया जाता है। हाल ही में संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेले के दौरान देहरादून के दो रचनाकारों की पुस्तकें सामने आयी हैं। युवा रचनाकार अल्पना मिश्र की कहानियों की किताब कब्र भी कैद औ" जंजीरें भी एवं वरिष्ठ रचनाकार गुरुदीप खुराना की किताब  एक सपने की भूमिका । अपने इन साथी रचनाकारों की पुस्तकों के लोकापार्ण के वक्त पुस्तक मेले में मेरी उपस्थिति एक संयोग रही, जिसे अपनी उपलब्धि के खाते में डालते हुए पुस्तकों के लोकार्पण की तस्वीरें आप सब के साथ सांझा कर रहा हूं।  दोनों रचनाकरों को बधाई। 





Sunday, February 26, 2012

सहमति और असहमति जताती दृढ़तायें

कविता, सहमति और असहमति जताती दृढ़्तायें हैं, कहने वाली रेखा चमोली की कविताओं में प्रेम की ताजगी से भरपूर उत्साह पर्वतों से निकलती किसी ताजा नदी की तरह बरबस ध्यान खींचता है. पहाड की जिन्दगी के बिम्बों से भरपूर इन कविताओं की सादगी में जीवन की सहज गतिविधियां जिस तरह दर्ज हुई हैं उन्हें देखकर आश्चर्य होता है. ये कवितायें एक स्त्री के नजर से दुनिया की बहुत मामूली किन्तु मह्त्वपूर्ण चीजों को दर्ज करते हुए स्त्री के होने की विडम्बना को भी उजागर करती हैं. 
प्रस्तुति एवं चयन : नवीन नैथानी


रेखा चमोली

कविता

कविता नहीं है सिर्फ कुछ शब्द या पंक्तियॉ
कविता
सहमति और असहमति जताती दृढताऍ हैं
रुंधे हुए गले में रुकी हुई पीडाऍ हैं
सच्चाई को हारता देख
बेबस लोगों का बिलाप हैं
तो बार-बार गिरने पर
फिर-फिर उठने का संकल्प भी हैं
कविता अपने बचाव में हथियार उठाने का विचार हैं
साहस की सीढियॉ हैं
कविता उमंग हैं उत्साह हैं
खुद में एक बच्चे को बचाए रखने का प्रयास हैं।

पुकार


एक अनाम नदी
बादलों के पास, सागर का संदेशा पाकर
दौडती चली आयी
पर्वतों, घाटियों ,जंगलों ,बस्तियों को
लॉघती ,फलॉगती
कोई अवरोध उसे रोक नहीं पाया
सागर के पास आने से

पास आकर देखा
सागर उत्साह से हिलोरे मार रहा था
पर यह उत्साह सारी नदियों के लिए
एक समान था
नदी सागर में मिलकर अपना मीठापन खो चुकी थी
सागर नदी को खुद में समाकर बेहद प्रसन्न था
उसकी बॉहें फैली हुयी थीं
बाकि सारी नदियों के इन्तजार में
बादल उसके संदेशे लिए आ जा रहे थे।



शुभ संकेत

गर्भ में
ज्यों ही पनपता है
स्त्री शिशु
एक अदृश्य शिकायत पेटी भी
बॅध जाती है उसके साथ
उसकी उम्र के साथ ही
बढता जाता है जिसका आकार
और इसमें सिवाय उसके
सारी दुनिया दर्ज करा सकती है
अपनी शिकायतें
उसके इस दुनिया से जाने के बाद भी
इन शिकायतों को नष्ट नहीं किया जाता
बल्कि किसी इतिहास की पुस्तक की तरह
जब तब अन्य महिलाओं के बीच
पढा जाता है
जिससे वे सबक लें
और उनकी शिकायत पेटी में
दर्ज हों
कम से कम शिकायतें
पर ये शिकायतें हैं कि
बढती ही जा रही हैं लगातार।


इन्तजार

ओ प्यारे सूरज
कहॉ छुप गए हो तुम
किसी लम्बी छुटटी पर गए हो क्या ?
माना कि
हरियाली
बारिश
भीगना
उपजना
लहलहाना
बेहद पसंद है मुझे
पर तुम्हारे बिना ये सब मनभावन कहॉ ?
तुम्हारे बिना
रपटीले हो गए हैं रास्ते
जिन पर से गुजरते हुए
भारी बोझ और गीले तन के साथ
गिरती पडती हैं घसियारिनें
ग्वालों को छानी से गॉव आने तक
जान पर खेलना पडता है
स्कूली बच्चे
गाड-गदने पार करते हुए
गिर-पड जाते हैं
खेतों से खर-पतवार हटा-हटा कर थक गयी हैं बहू-बेटियॉ
छोटे बच्चों के गदेले-पजामें
सुखाने का जतन करते-करते परेशान हैं मॉए
और पहाड
उसे तो मानो दरकने का
एक और बहाना मिल गया है
नदी का गुस्सा अपने चरम पर है
ऐसे में
ओ प्यारे सूरज !
आओ 
और भर दो सारी घाटियॉ, खेत-खलियान
घर-ऑगन उजली स्वच्छ धूप से।                                  

Sunday, February 19, 2012

स्थानिकता की तस्वीर भू-भाग की विविधता में संभव होती है



                     
सीमित ज्यामीतिय आरेखन की निर्मिति से खड़ी होती बहुमंजिला इमारतें और भव्यता एवं ध्यान आकर्षण के लिए उन पर पुते प्रभावकारी रंगों के संयोजन, बेतरतीब ढंग से यातायात व्यवस्था को बिगाड़ती स्थितियों को जारी रखते हुए, उचित संचालन के नाम पर, निर्मित पथों के चौड़ीकरण के अभियानों का फूहड़पन, एक ओर आम मेहनतकश आवाम के सर्वथा सुलभ फुटपाथिया बाजार को उजाड़ने की गतिविधियां और दूसरी ओर रोजगार के नाम पर चंद सेवा क्षेत्रों के अवसरों वाली गतिविधियों का नाम देश, राज्य या राजधानी नहीं होना चाहिए था। लेकिन विकास की सांख्यिकी के पैमाने को सीमित कर देने वाली समझदारी ने देश भर के भीतर व्यवस्था के नाम पर ऐसी अव्यवस्था को जन्म दिया है कि विकसित और अविकसित क्षेत्रों का अन्तर कम होने की बजाय लगातार बढ़ता गया है। गरीबी, भुखमरी और हत्या, आत्महत्याओं की बहुत आम हुई खबरों ने सामाजिक असंवेदनशीलता को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।   
दस वर्ष पूरे कर चुके उत्तराखण्ड राज्य की अस्थाई राजधानी देहरादून के संदर्भ से ही बात की जाये तो बदलते स्वरूप को इससे बाहर नहीं देखा जा सकता। बल्कि विकास के नाम पर उत्तराखण्ड राज्य के ही दूसरे शहरों के साथ साथ, प्राकृतिक खूबसूरती से भरे, पर्वतीय भूभागों के भीतर जारी अराजक गतिविधियों में भी राज्य नाम की इकाई संदेह पैदा कर देने वाली साबित हुई है। वैसे भी कला शून्य लेकिन दक्ष कुशल होते जाते इस दौर में स्वभाविक विविधिता को ध्वस्त करते हुए संस्कृतिक समरूपता की जिद्दी धुन की गूंज वैश्विक स्तर पर पूंजीगत विस्तार का स्वर हुआ है। अलहदा भाषा, अलहदा विचार, अलहदा खान-पान के खिलाफ वैश्विक पूंजी का मुनाफे की संस्कृति से भरे आदर्शों वाला अभियान हर स्तर पर चालू है। बर्बर हमलों तक के रूप में भी। उसके प्रभाव की व्यापकता को बहुत पिछड़ी सामाजिक आर्थिक स्थितियों में भी देखा जा सकता है। बल्कि कुशल व्यवाहरिकता के अभाव में ऐसी स्थितियों में तो उसकी स्वभाविक फूहड़ता ज्यादा स्पष्ट दिखने लगती है। बहुधा उसकी गिरफ्त ऐसी गिरह डालने वाली होती है कि जन आकांक्षओं के सवाल पर शुरू हुई गतिविधियां भी सवालों के घेरे में आने को मजबूर हो जाती हैं। जन आंदोलनों के अंदर घुसपैठ करने और फिर उसे अपनी तरह से हांकते हुए जन आंदोलनों पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देने में इस मुनाफा संस्कृति ने हारते हारते हुए भी जीत के लाभ तक पहुंच जाने की कला में कुशलता हांसिल की हुई है। उत्तराखण्ड में ही नहीं बल्कि उसी के साथ-साथ गठित हुए झारखण्ड और छतीसगढ़ में भी राज्य निर्माण के बाद विस्तार लेती गयी व्यवस्था ने एक समय में राज्य की मांग के लिए मर मिटने वाली जनता तक को इसीलिए निराश किया है। ऐसे में दूसरे प्रांतों के भीतर जारी राज्य आंदोलनों के संघर्ष की गाथायें कैसे भिन्न हो ?, यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण है। बिना इस तरह के सवाल उठाये छोटे छोटे राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया का एकतरफा समर्थन जनता के दुख दर्दो से निजात की कथा का कोई चरण पूरा करता हुआ नहीं माना जा सकता।
यह सच है कि सांस्कृतिक पहचान एवं विकास के वास्तविक मॉडल की अनुपस्थितियों ने विभिन्न प्रांतों के भीतर संघर्षरत जनता को राज्य के सवाल पर एकजुट होने को मजबूर किया हुआ है। और व्यवस्था के मौजूदा ढांचे में एक छोटी प्रशासनिक इकाई वाला राज्य, बेशक चोर जेब जैसा ही,  जनता को सड़को पर उतरने को मजबूर करता हुआ है। बहुत व्यवस्थित एवं जन आकांक्षओं को सर्वोपरी मानते हुए नीतियों का निर्धारण करती किसी मुमल व्यवस्था की तात्कालिक अनुपस्थिति में यह सवाल उठाते हुए कि क्या सचमुच जनता के सपनों को साकार करने में राज्य कामयाब रहे है ?, छोटे राज्यों की मांग को ठुकराया नहीं जा सकता या उनका विरोध करना कतई तर्कपूर्ण नहीं। लेकिन इसके साथ साथ उन खतरों को जो जनता के सपनों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ते, नजरअंदाज करना ठीक नहीं। तीन नव निर्मित राज्यों उत्तराखण्ड, झारखण्ड और छतीसगढ़ के आंदोलनों का इतिहास गवाह है कि बेहतर राजनैतिक विकल्प की अनुपस्थिति में चालू राजनीति के बेरोजगार नेताओं ने जो अफरा तफरी मचायी उसके प्रतिफल राज्य निर्माण के बाद स्थापित होती गयी उनकी सत्ता के रूप में सामने हैं। स्थापित राजनीति का बेहद फूहड़पन वाला विकास-मॉडल सिर्फ मुनाफे की संस्कृति की स्थापना करने में ही सहायक हुआ है। अपने व्यक्तिगत हितों के लिए आंदोलनों में सक्रिय रहते भूमाफिया और दलालों के बोलबाले ने स्थानिकता को निरीह और लाचार बनने के लिए मजबूर किया है। शासकीय गतिविधियों में हस्तक्षेप की ताकत रखने वाले अपने आकाओं के इशारों पर आंदोलन में घुसपैठ करके वे आज सत्ता पर कब्जा जमाये हैं। मासूम जनता के सपनों को आकार देने के नाम पर षड़यंत कर वे आंदोलनों का हिस्सा हुए और अराजक तरह का माहौल रचने में कामयबी हासिल कर सके हैं। देख सकते हैं कि सबसे पहले उनकी निगाहें अपनी पूंजी को जल्द से जल्द और बिना किसी अतिरिक्त निवेश या मेहनत के, अधिक से अधिक बटोरने की रही और इसके लिए भौगोलिक विशिष्टताओं से भरे भू भागों पर कब्जे करने की उनकी कोशिश बहुत दबी छुपी न रहने पर भी स्थानीय भू मालिकों के समझ न आने वाली ही हुई हैं। रूपयों के बदले जमीन के मोल भाव में स्थानीय जन इस कदर ठगे गये हैं कि न सिर्फ स्वंय लाचार हुए बल्कि माहौल में अराजकता और लम्पटई की कितनी ही स्थितियों को जमने और फलीभूत होने का अवसर बना है। खेती योग्य भूमि को प्रोपर्टी के दलालों की निगाहों ने जिस तरह से तहस नहस किया वह शायद ही तीनों में से किसी भी एक राज्य में छुपा हुआ न हो। 
भाषायी आधार पर गठित आंध्र प्रदेश में भी आज अलग राज्य की मांग का सवाल सामने है। आदिलाबाद, निजामाबाद, करीमनगर, वारंगल, खममम, नलगोडा, हैदराबाद, मेढक, रंगारेड्डी, महबूबनगर को मिलाकर तेलांगाना राज्य का सपना विकास की दौड़ में पिछड़ गयी जनता के सपनों में है। जनता के इस सपने के आकार लेते ही 1956 के बाद का इतिहास भी उलट जाने वाला है। तेलंगाना राज्य इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि 1956 से पहले तक मद्रास पे्रसीडेंसी का हिस्सा रहे आंध्र प्रदेश के दूसरे भू-भाग रायलसीमा और तटिय आंध्रा की तुलना में पिछड़े रहे इस क्षेत्र के विकास की चिन्तायें राज्य आंदोलन का मूल हैं। भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के साथ हैदराबाद को मिलाकर आंध्र प्रदेश के इतिहास का एक नया अध्याय 1956 में शुरू हुआ था। 1956 से पहले तक हैदराबाद के निजाम के द्वारा शासित भू-भाग भारत में विलय की स्थिति के साथ हैदराबाद राज्य के रूप्ा मे रहा। 1953 में ही निजाम के हुकूमती क्षेत्र को हैदराबाद राज्य के गठन के समय ही भाषायी आधार पर बांट दिया गया था। मराठी भाषी क्षेत्र को बम्बई राज्य और कन्नड़ भाषी क्षेत्र को मैसूर राज्य में विलय कर शेष बचे तेलुगू क्षेत्र को हैदराबाद राज्य का दर्जा दे दिया गया था। हैदराबदी राज्य का वह तेलुगू भाषी क्षेत्र ही मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग कर निर्मित हुए आंध्रा राज्य में विलय कर विशाल भाषायी राज्य आंध्र प्रदेश अस्तीत्व में आया। इस तरह से समांती हुकूमत में संस्कारित एवं पिछड़ी अर्थव्यवस्था के जन समाज और औपनिवेशिक हुकूमत के भीतर आधुनिकता की हवाओं में संस्कारित जन मानस के यौगिक को एक धरातल पर लाने के लिए जिस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए थी, पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर उसके होने की कोई संभावना होने का प्रश्न नहीं हो सकता था। तात्कालिक लाभ के लिए बेचैन रहने वाली अर्थ व्यवसथा में असंतुलन को पाटने की बजाय उसके बढ़ाते जाने के बीज थे और उनका फलीभूत होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। फलस्वरूप निजामी हुकूमत का तेलंगाना क्षेत्र न तो जन सुविधाओं के स्तर पर और न ही रोजी रोजगार के स्तर पर तटिय आंध्र और रायलसीमा के क्षेत्रों के करीब आ सका। असंतोष के कारण ऐसी ही स्थितियों का सार रहे और 1969 में तेलंगाना राज्य की मांग का सवाल उठ खड़ा हुआ। यूं चालीस के दशक में ही भू सुधारों के तेलांगना आंदोलन का एक चरण अविभाजित कम्यूनिस्ट पार्टी के एजेंडे के साथ शुरू हुआ था। निजाम की हुकूमत के खिलाफ कामरेड वासुपुन्यया के नेतृत्व में यह एक ऐतिहासिक शुरूआत थी जिसका सपना भूमिहीनों को भूमि आबंटित करने का था।
मेढक संभावति तेलंगाना राज्य का एक जिला है, बिल्कुल वही स्थितियां जो उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान 1994 के आस पास देहरादून में दिखायी देने लगी थी, आज मेढक में साफ हैं। मेढक के बहुत छोटे और विकास की दौड़ में अभी गिनती में कहीं भी दिखायी न देते इलाके शंकरपल्ली के हवाले से कहूं तो आस पास के उजाड़ पड़े इलाके में बीच बीच में गड़े सीमेंट के अनंत खम्भे बताते हैं कि जमीनों पर पूरी तरह से कब्जा कर दलाल भूमाफियाओं का वर्ग राज्य निर्माण की प्रक्रिया के एक चरण को पूरा कर चुका है। बड़े मॉल, आम जन के लिए प्रतिबंधित पार्क, मल्टीपलेक्स, खेती को निकृष्ट कर्म और दलाली को स्थापित करने वाली मानसिकता का तर्क बहुत स्पष्ट है कि बंजर जमीनों का वे सदुपयोग करना चाहते हैं और राज्य के आय का स्रोत होना चाहते हैं। साथ ही सौन्दर्य के नये मानक भी वे इसी तरह गढ़ने को उतावले हैं। लेकिन राज्य जिसकी जरूरत रहा, उस जनमानस के लिए इस तरह का विकास कैसे लाभकारी हो सकता है, यह प्रश्न उन्हें बेहुदा लग सकता है।     
यूं यह सवाल महत्वपूर्ण हो सकता है कि किसी जगह की सुन्दरता का मानक क्या हो सकता है ? वहां रह रहे लोगों के आचार-विचार का अनुपात स्थान विशेष की सुन्दरता में क्या कोई कारक है, या उसका कोई लेना देना नहीं। मानव निर्मितयों के रूप में पार्क, सड़क, भवन, खुदरा(खुरदरा) कहलाने के बावजूद मुलायम और चुंधियाते बाजार के साथ स्थानिकता के संयोजन के कौन से तत्वों को सुंदरता के पैमाने के साथ देखा जाना चाहिए ? किसी महानगरीय सुविधाओं सी समतुल्य स्थितियों में स्थानिकता को बचाने की बात करना क्या पिछड़ा कहलाते हुए असुंदर के पक्ष में हो जाने जैसा है ? आभावों के घटाटोप के बीच सुन्दर कहने के लिए भूभाग विशेष के किसी महानगर से संबंधों में विचरण करते बहुमंजिलेपन के बदलाव ही क्या सुंदरता के सांख्यिकी पैमाने हो सकते हैं ? अस्मिता का मामला भूगोल विशेष से स्थानीय जनता के जुड़ाव का मसला है और स्थान विशेष की खूबसूरती से भी है। स्थानिकता अपनी तस्वीर भू-भाग की विविधता में देख रही होती है और जरूरत के साथ-साथ ही वक्त-वक्त पर आवश्यक हस्तक्षेप कर उसे अपने तरह से तराश रही होती है। मुनाफे के अफरा-तफरी बदलाव में वह ठगी सी रह जाती है। स्पष्ट है कि ऊंचे- ऊंचे पहाड़, हरे हरे बुग्याल, बर्फानी हवाओं का खिलंदड़पन और बहुत शान्त माहौल के बीच नदीयों, पक्षीयों के गीतों से भरे सुरीले स्वर उत्तराखण्ड की अस्मिता के केन्द्र बिन्दू रहे। लेकिन जमीनों पर तेजी से कब्जा करने के बाद जिस तरह के बदलाव एकाएक हुए हैं वे राज्य के लिए संघर्षरत रही जनता को ठगने वाले रहे। मेढक के शंकरपल्ली इलाके की सुंदरता को गहरी ठेस पहुंचाने की कोशिशों को इसीलिए चिहि्नत किये जाने की जरूरत है वरना तय है कि भविष्य में छोटा राज्य बना लेने के बाद भी व्यवस्था के झुकाव को स्थानिकता के पक्ष में खड़ा नहीं पाया जा सकता।

 -विजय गौड़