Saturday, September 23, 2017

कितना लंबा इंतज़ार

कथादेश के सितम्बर अंक में छपे हमारे मित्र और इस ब्लाग के सहलेखक  यादविन्द्र जी की डायरी के कुछ अंश पुनः प्रकाशित हैं पढ़ें और अपनी बेबाक राय दें। 
वि गौ




आज सुबह सुबह सैर के वक्त एक दिलचस्प लेकिन ठहर कर सोचने के लिये प्रेरित करने वाली घटना हुई -- एक मामूली कपड़े पहने आदमी ने(बाद में बातचीत से मालूम हुआ प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड का काम करता है) अनायास मुझे रोका और सड़क पर पड़े हुए दस रुपये के नोट को दिखा कर पूछा :"सर, ये नोट कहीं आपकी जेब से तो नहीं गिर गया ?"ताज्जुब भी हुआ कि दूर से वः मुझे आता हुआ देख रहा था और वहाँ पहुँचने पर पूछ रहा है कि नीचे सड़क पर पड़ा नोट मेरा तो नहीं है..... गिरने की गुंजाइश तो तब होती जब मैं वहाँ से होते हुए आगे बढ़ गया होता। मैंने इन्कार किया तो उसने उसी  कंसर्न के  साथ पीछे आते व्यक्ति को रोक कर यही सवाल पूछा ।फिर एक और ....और ....और। मुझे इस खेल में मज़ा आने लगा था सो वहीं ठहर गया।इनकार करने वाले लोगों की गिनती जब बढ़ती गयी तब मैं उस से इस मसले की बाबत पूछने लगा ...  उसने बताया कि अभी थोड़ी देर पहले वह रात की सिक्युरिटी गार्ड की ड्यूटी पूरी करके वापस घर लौट रहा था तो अचानक उसकी निगाह सड़क पर पड़े इस दस रु के नोट पर पड़ गयी  ....और तब से वह उस आदमी को ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा है जिसकी जेब से अनजाने में यह नोट फिसल कर सड़क पर आ गिरा ..... ठिकाने पर पहुँच कर ,या आगे कहीं रुक कर उसको  नोट की ज़रूरत पड़ी होगी तो बेचारा परेशान हो रहा होगा - कहीं किसी मुसीबत में न हो। मालूम हो जाये किसका है यह नोट तो मैं उसके घर जाकर पहुँचा दूँ। 
उसकी बात में कहीं कोई दिखावा या नाटक नहीं था ,यह उसके चेहरे पर छाये हाव भाव से साफ़ झलक रहा था।मैं भी खड़ा होकर लौट आने वाले  का इंतज़ार करने लगा ,मुझे देखकर रोज रोज की पहचान वाले दो तीन और लोग ठहर गए।    
 "मैंने सोचा इतने सारे लोग इस सड़क से गुज़र रहे हैं और ऐसा हो नहीं सकता कि किसी की नज़र उस नोट पर न पड़ी हो .... मैं पहला इंसान तो नहीं हूँ जो सड़क पर पड़े इस नोट को देख रहा है। हो सकता है जिसका नोट  गिरा हो वह उसको ढूँढ़ता हुआ पलट कर इसी रास्ते आ रहा हो। मैंने पहले सोचा था वहाँ से गुज़रते हुए दस आदमियों से नोट के बारे में पूछ कर देखूँगा ,इतने समय में ज़रूर नोट का मालिक मिल जायेगा..... दस की गिनती पूरी होने पर सोचा और दस लोगों से पूछ लूँ --  मेरा क्या है ,घर ही तो जाना है मैं घंटे भर बाद भी घर पहुँच  जाऊँगा तो कुछ नुक्सान नहीं होना ,पर एक दो मिनट से कोई गरीब अपना खोया हुआ पैसा फिर से हासिल करने से चूक जाये तो बहुत बुरा होगा।सर ,आप सत्रहवें आदमी हो जिनसे मैंने पूछ कर अपनी आत्मा की भरपूर तसल्ली कर ली .....फिर भी मेरा मन मानता नहीं।  "
मैं थोड़ी दूर से खड़ा खड़ा देखता रहा कि बीस की गिनती पार कर के वह व्यक्ति हताश होकर अपनी साइकिल के साथ साथ दूर तक पैदल चलने लगा पर हर दो कदम पर पीछे मुड़ मुड़ कर उम्मीद भरी नज़रों से ताकता रहा --- शायद उसको लापरवाही में दस का नोट जेब से गिरा चुके अभागे के लौट कर आ जाने का इन्तज़ार अब भी था।
"ठरकी है साला ....खुद उसकी जेब से गिर गया होगा नोट और अब सिम्पैथी के लिये नाटक कर  
रहा है ..... लगता है दस का नोट नहीं कोहिनूर हीरे की अँगूठी गिर गयी हो। "कहते हुए एक साहब वहाँ से इस अंदाज में आगे बढ़े कि किसी ने उनका हाथ पकड़ कर तमाशा देखने को रोक लिया हो और तमाशा हुआ ही नहीं - टाँय टॉय फिस्स !
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अपने प्रोफेशनल काम से मुझे सड़क यात्रा बहुत करनी होती है ,ख़ास तौर पर पहाड़ पर…… मैदानी क्षेत्रों में भी। आम तौर पर नौजवान ड्राइवर तेज गति से  गाड़ियाँ चलाते हैं और जबतक आप उनको रुकने के लिये मनायें तबतक दो सौ चार सौ मीटर आगे बढ़ चुके होते हैं - फिर पीछे मुड़कर लौटना बहुत भारी पड़ता है … और कई बार तो जबतक आप पीछे लौटें तबतक परिदृश्य पूरा बदल चुका होता है। 
अभी कल सुबह सुबह की बात है ,हम लखनऊ से अयोध्या जा रहे थे -फूलगोभी के लम्बे चौड़े खेत लगभग वर्गाकार बिलकुल एक आकार के दिखाई दे रहे थे और भोर की ओस के ऊपर सुनहरी धूप  पड़ने पर मोहक रंग बिखेरते पौधे बार बार बरबस अपनी ओर ध्यान खींच  रहे थे .....  मैं उनकी कुछ तस्वीरें लेने की सोच रहा था। ज्यादातर खेत सड़क से थोड़ी दूर अंदर थे और मैं धीरज रख कर किसी बिलकुल सड़क किनारे खेत का इंतज़ार कर रहा था ..... पर इंतज़ार करते करते जब धीरज खो बैठा तब देखा ,गोभी के खेतों का स्थान केले के बागानों ने ले लिया है। पूछने पर ड्राइवर पारस ने बताया अब आपको गोभी के खेत नहीं मिलेंगे ,वह इलाका बीत चुका है। 

एक जगह खेत से भाप का चमकता हुआ बगूला जैसे उठ रहा था उसने मुझे मनाली से लेह जाने वाले लगभग रेगिस्तानी रास्ते के गंधक तालाबों की याद आई जिनसे उठती हुई ऐसी ही भाप दूर से दिखाई देती है - सुबह सुबह की सुनहरी धूप उसको और चमका देती है । दरअसल जुते हुए खेत में सिंचाई के लिए डाले जाते पानी से उठती भाप दूर से दिखाई दे रही थी पर जब खाली सड़क पर सौ किलोमीटर की रफ़्तार से भागते हुए हम आगे निकल गए तो मन को मना लिया कि आगे फिर देख लेंगे - आगे हम इंतज़ार करते ही रहे ,पर साध कहाँ पूरी हुई। 

जीवन ऐसी ही स्मृतियों की अनवरत श्रृंखला है - लपक कर जिसको पकड़ लिया वह तो जैसे तैसे हाथ आ जाता है .... और जो छूट गया सो छूट गया।     

मेरी कवि मित्र ने उन्हीं दिनों किसी शायर की एक शानदार नज़्म मुझे भेजी थी जो कल वाली घटना पर बिलकुल सटीक बैठती है :

ज़रूरी बात कहनी हो 
कोई वादा निभाना हो 
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं …… 
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मेरी अम्मा अस्सी के आसपास पहुँच रही हैं पर शरीर की सीमाओं को स्वीकार करते हुए मन से  अब भी एकदम युवा हैं - चाहे कहीं घूमने का मौका हो या फ़िल्म देखने का। बहते हुए पानी को देख कर  पिछली बार यहाँ आने तक वे भी वैसे ही मचला करती थीं जैसे उनके बेटे की बेटी का बेटा पलाश। पिछले हफ़्ते जब हमने हरिद्वार घूमने का नाम लिया तो तैयार तो वे फ़ौरन हो गयीं पर वहाँ पहुँचने के बाद नहाने को कहने पर ना नुकुर करने लगीं - यह अम्मा के स्वभाव से बिलकुल उलट था।पहले हरिद्वार ऋषिकेश जाने पर कोई और गंगा में उतरे या न उतरे अम्मा और उनका यह बेटा ज़रूर उतरता था। जब बहुत ज़िद कर के मेरी बहन उनको सीढ़ियाँ उतार कर नीचे पानी तक ले आयी तो उन्होंने हिचकिचाने का कारण बताया -- अप्रैल मई के महीनों में पटना में महसूस होने वाले भूकम्प के झटकों और सब कुछ तहस नहस कर डालने वाले दुनिया के सबसे बड़े भूकम्प आने की अफ़वाहों के बीच कई बार घुटनों की तकलीफ़ के बावज़ूद उन्हें बदहवासी में जैसे घर की सीढ़ियों से कूदते फाँदते हुए रात बिरात उतरना पड़ा उस से उनको किसी भी हिलती चीज़ से हिलती हुई धरती का एहसास होने लगता है। पानी की तेज़ धार के साथ उस दिन अम्मा की बड़ी संक्षिप्त मुलाकात हुई …मैं सोचता रहा वास्तविक भूकम्प के केन्द्र से सैकड़ों मील दूर (भूकम्प का केन्द्र नेपाल की सुदूर पहाड़ियों में बताया जा रहा था ) रह रही बेहद दृढ़ निश्चयी और साहसी अम्मा के मन में जब इतनी दहशत बैठ गयी तो महाविनाश के केन्द्र में रहने वाले अभिशप्तों के मन की दशा कितनी डाँवाडोल होगी।
मन की अंदरूनी परतों में दुबक कर बैठे डर मौका मिलते ही कैसे सिर उठाते फुफकारते हैं ....    =============
मामूली चीजें भी आपको कभी कभी एकदम हतप्रभ कर देती हैं … बात पुरानी है , बीसियों साल पहले रेल से पटना से रुड़की आते हुए लक्सर स्टेशन पड़ने पर अम्मा ने बाल सुलभ सरलता से मुझे बताया था कि बचपन में अपने नाना के साथ वे महीने भर के लिए पहली बार रेल पर चढ़ कर गृह शहर आरा (बिहार) से हरिद्वार आयी थीं --- रास्ते में पहले तो बक्सर( आरा से महज पचास किलोमीटर) पड़ा और नौ सौ किलोमीटर और चलने के बाद लक्सर स्टेशन दिखाई दिया। स्कूल में मास्टरजी ने उन्हीं दिनों दुनिया गोल है वाला पाठ पढ़ाया था और कहा था कि इसका प्रमाण यह है कि किसी स्थान से यदि यात्रा शुरू की जाए तो चलते चलते मुसाफ़िर उसी स्थान पर दुबारा पहुँच जाएगा --- बच्ची अम्मा नींद से उठी उठी थीं और लक्सर बक्सर के एक ही होने की उलझन में आसानी से उलझ गयी थीं.... जहाँ से चली थीं इतनी लम्बी यात्रा के बाद फिर वहीँ पहुँच गयीं ( ब के बदले गलती से ल भी तो लिखा जा सकता है )…… उनको पक्का प्रमाण मिल गया ,सचमुच दुनिया गोल है।  
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कल रात निकोलस इवांस के अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास "द हॉर्स व्हिस्परर" पर आधारित इसी नाम की फ़िल्म फ़िर से देखी -- शायद पाँचवी बार।उसका राउल मेलो की भावपूर्ण आवाज़ में गाया "ड्रीम रिवर" गीत हर बार की तरह मन में इस बार भी कहीं ठहर गया …… एक चलताऊ अनुवाद ,जिसने साँस लेने की गुंजाइश बनायीं और मन हल्का किया : 


सपनों की नदी में डूबते उतराते
ऊपर छाये हुए चाँद सितारे 
आस लगाये हूँ उनसे मदद की 
कि दिलवा दें प्रेम तुम्हारा 
पूरा पूरा अ टूट ....

कालिमा की अंतिम कोठरी में सोया हूँ 
तुम्हें बाँहों में समेटे होने के ख़्वाब देखता ....
काश, यह सपना सच हो जाता 
और ऊपर से नीचे तक तर जाता मेरा मन। 

नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात  
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता  

सपनों की नदी में डूबते उतराते
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …  
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।  

नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात  
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता .......   
सपनों की नदी में डूबते उतराते
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …  
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।    
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।  
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कोई पंद्रह दिन पहले की बात होगी - एक मित्र के साथ सुबह सात बजे चाय पीने का वायदा था ,वे रिटायर होकर शहर छोड़ रहे थे। मैं अपने हिसाब से उठा और घूमने के लिए दरवाजे से बाहर निकल ही रहा था कि बहन का फ़ोन आ गया। फ़ोन पर बात करते करते मैं घर के आहाते से बाहर निकल आया और घूमता टहलता मित्र के घर पहुँच गया। बातचीत के दौरान मेरे दूधवाले का फोन आया तब मुझे मालूम हुआ कि मुझसे दरवाज़ा बगैर ताले के खुला ही छूट गया है। जल्दी जल्दी मैं रास्ते भर अपने बुढ़ापे और याददाश्त के क्षरण के बारे में सोचता सोचता घर लौटा - अपने भुलक्कड़पन को सोचते सोचते कुछ साल पहले आरएसएस के पूर्व प्रमुख सुदर्शन जी के बारे में पढ़ी एक खबर याद आ गयी जब वे ऐसे ही सुबह की सैर को निकले और अपना पता ठिकाना भूल पीने का पानी ढूँढ़ते हुए किसी अजनबी घर जा बैठे। वे बड़े आदमी थे,बात पुलिस तक पहुँची और उन्हें सुरक्षित  घर पहुंचा दिया गया। मुझे बार बार यह लगता रहा कि मेरे साथ ऐसा हो जाए तो क्या होगा - अपने शहर में तो लोग पहचान लेंगे पर किसी दूसरे शहर में ???????
बरसो पहले पढ़ी और सहेज कर रखी बिली कॉलिन्स की चर्चित कविता "विस्मरण" कुछ ऐसे ही पलों का बड़ा मार्मिक विवरण देती है :

"सबसे पहले लेखक का नाम गुम होता है
और लगता है जैसे डूबते डूबते उसने समझाया  हो 
किताब के नाम को .... विषय को ... और दारुण अंत को भी 
कि चलते चले आओ पदचिह्न ढूँढ़ते मेरे पीछे पीछे 
और पल भर भी नहीं लगता पूरे उपन्यास को विस्मृत होते 
जैसे पढ़ना तो बहुत दूर, सुना भी न हो उसका नाम कभी इस जीवन में 
 
जो जो भी आप याद करने का यत्न करते हैं 
दिमाग पर भरपूर जोर डाल के 
सब का सब बच कर दूर छिटक जाता है आपकी ज़बान से
या कि आपकी तिल्ली (spleen) के किसी अंधेरे कोने में 
रुक रुक कर जुगनू सरीखा टिमटिमाता रहता है......

कोई अचरज नहीं कि आधी रात अचानक आपकी नींद उचट जाये 
और आप किताबों में ढूँढने लगें किसी ख़ास लड़ाई की तारीख़ 
कोई अचरज नहीं कि आपको अनमना देख  
खिड़की से बाहर दिख रहा चन्द्रमा 
आँख बचा कर भाग जाये उस प्रेम कविता से भी बाहर
जो आजीवन आपके मन में बोलती बतियाती रही...."

मुझे इस हिंसक समय में प्रेम कविताओं के विस्मृत हो जाने का बड़ा डर सताने लगा है उस दिन से .....
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 कल शाम दिल्ली से लौटते हुए एफ़ एम रेडियो पर एक ग़ज़ल इतनी दिलकश जनाना आवाज़ में कानों में पड़ी कि लगा थोड़ी देर के लिए जीवन उलट पलट हो गया - सड़क के शोर शराबे के कारण शब्द शब्द सुनना और समझना उस तसल्ली से नहीं हो पाया जिस से मैं चाह्ता था। पहले तो मुझे लगा कि ड्राइवर राधेश्याम ने अपने पेनड्राइव कलेक्शन से यह ग़ज़ल सुनायी ,सो उसको दुबारा बजाने को कहा। पर जब मालूम हुआ कि रेडियो पर आ रही थी तो इंटरनेट पर ढूँढ़ने लगा और गूगल सर्च के पहले पन्ने पर 1994 की फ़िल्म "विजयपथ" का इन्दीवर का लिखा और अलका याग्निक का गाया गीत हाथ लगा। मेरी स्मृति ने इन्दीवर वाला गीत स्वीकार करने से मना कर दिया और वह आवाज़ भी अलका जी की नहीं थी। आज सुबह जब मुझे अंदलीब शादानी की यह मूल ग़ज़ल हाथ लगी तब इन्दीवर जी की खिचड़ी सामने आ गयी। पर अब भी यह पता नहीं लग पाया कि कल मैंने किसकी दिलकश आवाज सुनी थी : आस ने दिल का हाल न छोड़ा  वैसे हम घबराये तो .... घबराने का ऐसा भी अनूठा अंदाज़ हो सकता है ,मुझे इल्म भी न था। बहरहाल यह ग़ज़ल :


देर लगी आने में तुमको  शुक्र है फिर भी आये तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा  वैसे हम घबराये तो…

शफ़क़ धनुक महताब घटायें  तारे नग़मे बिजली फूल 
इस दामन में क्या क्या कुछ है  दामन हाथ में आये तो ....

चाहत के बदले में हम बेच दें अपनी मर्ज़ी तक 
कोई मिले तो दिल का गाहक  कोई हमें अपनाये तो … 

क्यूँ ये मेहर अंगेज़ तबस्सुम मद्द ए नज़र जब कुछ भी नहीं 
हाय!! कोई अनजान अगर  इस धोखे में आ जाये तो…

सुनी सुनाई बात नहीं ये  अपने ऊपर बीती है 
फूल निकलते हैं शोलों से  चाहत आग लगाये तो …

झूठ है सब तारीख़ हमेशा  अपने को दोहराती है 
अच्छा मेरा ख़्वाब ए जवानी  थोड़ा सा दोहराये तो…

नादानी और मज़बूरी में यारों कुछ तो फ़र्क करो 
एक बे आस इंसान करे क्या  टूट के दिल आये तो .... 

                                                       ---- अंदलीब शादानी 
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लम्बे अरसे बाद हमारे पच्चीस तीस साल पुराने मित्र ( जब हम मिले थे तो ये मस्तमौला कुँवारे थे ,उनकी शादी में शामिल होने वालों में मैं भी था और अब उनकी बड़ी बिटिया  पंतनगर विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी करने को है) नवीन कुमार नैथानी कल शाम घर आये ..... ढेर सारी गप्पें हमने मारीं और उनके सात आठ महीनों से स्वास्थ्य को लेकर परेशान रहने की विस्तार से चर्चा सुनी ....  फिर हरिद्वार जाकर कवि कथाकार सीमा शफ़क के घर खूब स्वादिष्ट भोजन किया। वैसे तो नवीन बेतक़ल्लुफ़ी में विश्वास करने वाले इंसान हैं पर घर से दूर रहने पर जब बगैर रोकटोक तबियत से खाना खाने के बाद उन्होंने "तृप्त हो गया" कहा तो सत्कार करने वाली सीमा के चेहरे पर भी तृप्ति और संतुष्टि का भाव झलक पड़ा। आज सुबह की सैर करते नवीन ने शुरूआती दिनों को याद करते हुए मज़ेदार बात बताई  कि बचपन में उनकी रूचि साइंस में बिलकुल नहीं थी पर स्व मनोहर श्याम जोशी के सम्पादन में "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" में डॉ वागीश शुक्ल की क्वांटम फ़िजिक्स पर छपी लेखमाला पढ़ कर वे विज्ञान की ओर आकर्षित हुए - वे डाकपत्थर के सरकारी स्नातकोत्तर कॉलेज में फ़िजिक्स पढ़ाते हैं। इसी क्रम में उन्होंने विश्व प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक इसाक असिमोव की उसी पत्रिका में छपी एक कहानी "टेक ए मैच" का ज़िक्र बड़े मज़ेदार अंदाज़ में किया। इस कहानी में एक अंतरिक्षयान के बादलों के विशाल समूह के बीच फँस जाता है जिसके कारण अपेक्षित मात्र में ईंधन नहीं बन पा रहा है - धरती से लाखों किलोमीटर दूर वापस लौटना संभव नहीं है और आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त ईंधन भी है नहीं।  यान में सफ़र कर रहे लोगों की जान पर बन आई है और यान के ईंधन की जिम्मेदारी जिस विशेषज्ञ फ़्यूज़निस्ट पर है उसको कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है और वह अपनी नाकामी के चलते अपनी मूँछ भी नीची नहीं होने देना चाहता। यान में बैठे एक साइंस टीचर को इस गड़बड़ी का आभास हो जाता है और विज्ञान पढ़ाने के अभ्यास से विकल्प भी सूझ जाता है - कि माचिस की तीली को जलाने जैसी पुरातनपंथी क्रिया से जो ताप उत्पन्न होता है उसकी मदद लें तो थोड़ी मात्र में जिस ईंधन की दरकार है वह प्राप्त हो सकती है।असमंजस में पड़ा हुआ  फ़्यूज़निस्ट टीचर की बताई तरकीब अपनाता है और यान संकट से निकलने में कामयाब हो जाता है...पर यान के कैप्टन और   फ़्यूज़निस्ट की साख बनी रहे इसलिए आशा की किरण दिखाने वाले साइंस टीचर को घर में नज़रबंद कर दिया जाता है। नवीन को  फ़्यूज़निस्ट के बारे में लेखक का यह कथन हू ब हू याद था :"ए स्पेशलिस्ट ऑलवेज़ लिव इन स्पेशलिटीज़"....... अपनी बीमारी के शुरूआती दौर में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के एक दायरे में बंध कर रह जाने और अन्य संभावनाओं को न तलाशने की बात बताते हुए नवीन भाई को असिमोव याद आये और जिस सरसता के साथ उन्होंने सुबह मुझे यह बात बताई वह कोई कहानीकार ही बता सकता है। उनकी कहानियों का जो सकारात्मक जादुई संसार है उसकी जड़ें नवीन की पूरी शख्सियत में फैली हुई हैं ..... उनकी द्रौपदी के चीर सरीखी बातों को  सुनना एक ट्रीट है। 
अभी इस एक बात के साथ बस ... बाकी बातें फिर कभी और ..... नवीन भाई जल्द से जल्द खाने पीने के परहेज से बाहर आयें और जोरदार ठहाके लगाते हुए मिलें ,शुभ कामनायें। 
नोट : जब मैंने आज दो तीन बार उन्हें बिना चीनी की चाय पिलाई तो उन्होंने राज की यह बात भी बताई कि पहले एक मामला ऐसा था जब पत्नी के सामने झूठ बोलना पड़ता था ....अब तो वह भी छूट गया।           
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घर की भौतिक शक्ल सूरत को लेकर भले ही कितना  कुछ लिखा कहा जाए पर चार दीवारों और छत वाले एक अदद घर के अंदर व्याप्त भावनात्मक निष्ठा व ऊष्मा की अनुपस्थिति को समझे बगैर घर के मायने को समझ पाना मुमकिन नहीं होगा। अपनी किशोरावस्था में पढ़ी उषा प्रियंवदा की कहानी "वापसी" मुझे कई दिनों तक इसलिये हैरान परेशान किये रही कि गजाधर बाबू के किरदार का नौकरी से रिटायर होकर घर लौटना  और चंद दिनों में ही इस तरह उसको छोड़ कर चल देना उस अनुभवहीन अवस्था में गले नहीं उत्तर रहा था .... पर जैसे जैसे दीन दुनिया देखता गया वैसे वैसे उनके बर्ताव की असलियत मेरे मन में खुलती गयी- अपने ढर्रे पर चल रहे घर में चारपाई की तरह उनकी दैहिक उपस्थिति के असंगत लगने का मर्म समझ में आने लगा।कहानी का सिर्फ़ एक वाक्य " घर में गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था।" घर और मकान के बारीक अंतर को समझाने के लिए पर्याप्त है - कोई चालीस साल पहले पढ़ी कहानी का यह वाक्य मुझे अब भी अक्षरशः याद है। 
बासु चटर्जी ने राजेन्द्र यादव के उपन्यास "सारा आकाश" पर इसी नाम की फ़िल्म बना कर उसकी कई परतें और खोलीं - फ़िल्म निर्माण के दौरान उपयुक्त घर खोजने की पूरी कहानी राजेंद्र यादव ने बयान की है और लिखा भी है कि "घर बोलता है "...... पुरातन संस्कारों से जकड़े खोखले आदर्शवाद का पनपना अंधेरे भुतहे घरों के अंदर खूब होता है और इस परिवेश में क्या मज़ाल कि आधुनिक समय की ताज़ा हवा प्रवेश कर जाये। इस फिल्म में समर का कॉलेज से घर लौटते हुए साइकिल चलाना बेहद संवेदनशील ढंग से दिखाया गया है - शुरूआती उत्साह घर के पास आते आते कितना थका थका और सुस्त हो जाता है यह बेमन से ढोये जाने वाले रिश्तों की बर्फ़ीली  ईंट गारे मिट्टी के निर्माण को घर कहने की परिपाटी पर गंभीर सवाल उठाता है। 
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प्रसिद्ध ग्रीक कवि यिआन्निस रित्सोस ने लिखा :

मुझे मालूम है हम में एक एक को
कदम बढ़ाना पड़ता है प्रेम की राह पर अकेले ही 
वैसे ही आस्था के रास्ते 
और मृत्यु को जाते रास्ते पर भी 
मैं अच्छी तरह जानता हूँ 
कोशिश तो बहुतेरी की पर कर नहीं पाया कुछ  .
अब मैं एकाकी नहीं 
तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ 
चलोगी प्रिय? 

Thursday, April 13, 2017

अम्‍बेडकर को याद करते हुए

14 अप्रैल अम्‍बेडकर को याद करने का दिन है। जाति विषमता के विरूद्ध अम्‍बेडकर ने जो लड़ाई लड़ी है, उसे याद करने और आगे बढ़ाने का दिन है। इस मौके पर मार्टिन लूथर किंग की याद किसी भी तरह के विभेद के विरूद्ध जारी मुहिम को ही वैश्विक स्‍तर पर देखने की ही कोशिश है। भारतीय समाज में जाति की संरचना ने भी एक बड़े कामगार वर्ग को गुलामी की दास्‍ता में न सिर्फ जकड़ा बल्कि गुलामी का जीवन जीने वालों को उसे स्‍वीकारते रहने की मन:स्थिति में भी पहुंचाये रखा। 

मेरा एक सपना है 

                             मार्टिन लूथर किंग, जूनियर 

इस घटना के सौ साल बीत चुके पर आज भी नीग्रो  गुलामी से मुक्त नहीं हुआ....वह आज भी अलगाव और भेद भाव की बेड़ियों में जकड़ा हुआ जीवन जीने को अभिशप्त है.सौ साल बीत जाने के बाद भी नीग्रो आज भौतिक सुख सुविधाओं और समृद्धि के विशाल महासागर के बीच में तैरते हुए निर्धनता के एक टापू पर गुजार बसर कर रहा है...अमेरिकी समाज के कोनों अंतरों में नीग्रो आज भी पड़े पड़े कराह रहे हैं और कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि उनको अपने ही देश में निर्वासन की स्थितियों में जीना पड़ रहा है. हम आज यहाँ इसी लिए एकत्रित हुए हैं कि इस शर्मनाक सच्चाई पर  अच्छी तरह से  रौशनी डाल सकें.

इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि हम अपने देश की राजधानी में इसलिए एकत्र हुए हैं कि एक चेक कैश करा सकें. जब हमारे देश के निर्माताओं ने संविधान और आजादी की घोषणा का मजमून स्वर्णाक्षरों में  लिखा था तो वे दरअसल एक  रुक्का देश के हर नागरिक के हाथ में उत्तराधिकार के तौर पर थमा गए थे.इसमें लिखा था कि हर एक अदद शख्स -- चाहे वो गोरा हो या काला -- इस देश में जीवन, आजादी और ख़ुशी के लिए बराबर का हकदार होगा.

यह हम सबके सामने प्रत्यक्ष है कि पुरखों द्वारा दिया गया यह रुक्का आज इस देश के अश्वेत लोगो के लिए मान्य नहीं है...इसकी अवहेलना और बे इज्जती की गयी है. इस संकल्प की अनदेखी कर के नीग्रो  लोगों के चेक यह लिख कर वापिस लौटाए जा रहे हैं कि इसको मान्य करने के लिए कोश में पर्याप्त धन नहीं है.

पर हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि न्याय के बैंक की तिजोरी खाली होकर दिवालिया घोषित हो गयी है.हम ये कैसे मान लें कि अपार वस्रों वाले  इस देश में धन की  कमी पड़ गयी है?

इसको देखते हुए हमलोग आज यहाँ इकठ्ठा हुए हैं कि अपना अपना चेक भुना सकें-- ऐसा चेक जो हमें आजादी और न्याय की माँग करने का हक़ दिलवा  सके. हम इस पावन भूमि पर आज इसलिए आये हैं कि अमेरिका को अपनी समस्या की गंभीरता और तात्कालिक जरुरत का भान करा सकें.अब सुस्ताने या नींद की गोलियां खा के निढाल पड़े रहने का समय नहीं है.

अब समय आ गया है कि लोकतंत्र को वास्तविकता का जामा  पहनाया जाये...अब समय आ गया है कि अलगाव की अँधेरी और सुनसान गलियों से निकल कर हम रंग भेद के विरुद्ध सामाजिक न्याय के प्रशस्त मार्ग की ओर कूच करें... यह समय है चमड़ी के रंग को देख कर अन्याय किये जाने की नीतियों से इस देश को मुक्त कराने का जिस से हमसब भाईचारे के ठोस और मजबूत धरातल पर एकसाथ खड़े हो सकें....यही वो अवसर है जब ईश्वर के सभी संतानों को न्याय दिलाने के सपने को साकार किया जाये.

हमारा देश यदि इस मौके की फौरी जरुरत की अनदेखी करता है तो यह उसके लिए प्राणघातक भूल होगी. नीग्रो समुदाय की न्यायपूर्ण मांगों की  झुलसा देने वाली गर्मी की ऋतु  तब तक यहाँ से टलेगी नहीं जबतक आजादी और बराबरी की सुहानी  शरद  अपने जलवे नहीं बिखेरती.

उन्नीस सौ तिरेसठ किसी युग का अंत नहीं है...बल्कि यह तो शुरुआत है.

जिन लोगों को यह मुगालता था कि नीग्रो समुदाय के असंतोष की हवा सिर्फ ढक्कन उठा देने से बाहर निकल जाएगी और सबकुछ शांत और सहज हो जायेगा,उन्हें अब बड़ा गहरा  धक्का लगेगा...यदि बगैर आमूल चूल परिवर्तन  किये देश अपनी रफ़्तार से चलने की जिद करेगा.अमेरिका में तबतक न तो शांति होगी और न ही स्थिरता जबतक नीग्रो समुदाय को सम्मानजनक नागरिकता का हक़ नहीं दिया जाता.न्याय की  रौशनी से परिपूर्ण प्रकाशमान दिन जबतक क्षितिज पर उदित होता हुआ दिखाई नहीं देगा तबतक बगावत की आँधी इस देश की नींव  को जोर जोर से झगझोरती  रहेगी

पर इस मौके पर मुझे अपने लोगों से भी यह कहना है कि न्याय के राजमहल के द्वार पर दस्तक देते हुए यह कभी न भूलें कि अपने  अधिकारपूर्ण और औचित्यपूर्ण स्थान पर पहुँचने के क्रम में वे कोई गलत या अनुचित कदम उठाकर पाप के भागीदार न बनें. आजादी की अपनी भूख और ललक  के जोश में हमें यह निरंतर ध्यान रखना होगा कि कहीं हम कटुता और घृणा के प्याले को उठा कर अपने होंठों से लगाने लगें... हमें अपना संघर्ष शालीनता और अनुशासन के उच्च आदर्शों के दायरे में रहकर ही जारी रखना पड़ेगा.हमें सजग रहना होगा कि हमारा  सृजनात्मक विरोध कहीं हिंसा में न तब्दील हो जाये...बार बार हमें रुक कर देखते रहना  होगा कि यदि कहीं से भौतिक हिंसा राह रोकने के लिए सामने आती भी है तो उसका मुकाबला हमें अपने आत्मिक बल से करना होगा. आज नीग्रो समुदाय जिस अनूठे उग्रवाद के प्रभाव में है उसको समझना होगा कि सभी गोरे लोग अविश्वास के काबिल नहीं है...आज यहाँ भी अनेक गोरे लोग अपनी 
आज यहाँ भी कई गोरे भाई यहाँ दिखाई दे रहे हैं...जाहिर है उनको एहसास है कि उनकी नियति हमारी नियति से अन्योन्यास्रित ढंग से जुड़ी हुई है.वे यह अच्छी तरह समझने लगे हैं कि हमारी आजादी के बगैर उनकी आजादी कोई मायने नहीं रखती.

यह एक सच्चाई है कि हम अकेले आगे नहीं बढ़ सकते.इतना ही नहीं हमें यह संकल्प भी लेना होगा कि जब हमने आगे कदम बढ़ा दिए हैं तो अब  पीछे नहीं मुड़ेंगे..हम पीछे मुड़ ही नहीं सकते.
ऐसे लोग भी हैं जो नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं से पूछते है: आखिर तुम संतुष्ट कब होओगे?
जबतक एक भी नीग्रो पुलिस की अकथनीय न्रिशंसता का शिकार होता रहेगा, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक लम्बी यात्राओं से हमारा थकाहारा शरीर राजमार्गों के मोटलों  और शहरों के होटलों  में  टिकने का अधिकार नहीं प्राप्त कर लेता,हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक एक नीग्रो की उड़ान एक छोटे घेट्टो से निकल कर बड़े घेट्टो पर समाप्त होती रहेगी, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.जबतक हमारे बच्चे अपनी पहचान से वंचित किये जाते रहेंगे और "सिर्फ गोरों के लिए "लिखे बोर्डों की मार्फ़त उनकी प्रतिष्ठा पर आक्रमण किया जाता रहेगा, हम भला कैसे संतुष्ट हो सकते हैं.

जबतक मिसीसिपी में नीग्रो को वोट देने का हक़ नहीं मिलता और न्यूयोर्क में रहनेवाला नीग्रो यह सवाल पूछता रहे कि देश के चुनाव में  ऐसा क्या है कि वो वोट डाले...तबतक हम संतुष्ट नहीं हो सकते....नहीं नहीं,हम संतुष्ट बिलकुल नहीं हो सकते...तबतक संतुष्ट नहीं हो सकते जबतक इन्साफ पानी की तरह बहता हुआ हमारी ओर न आये...न्यायोचित नीतियाँ जबतक एक प्रभावशाली नदी की मानिंद यहाँ से प्रवाहित न होने लगे.

मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आपमें से कई लोग ऐसे हैं जो लम्बी परीक्षा और उथल पुथल को पार करके यहाँ आये हैं ...कुछ ऐसे भी हैं जो सीधे जेलों की तंग कोठरियों से निकल कर आये हैं... अनेक ऐसे लोग भी हैं जो पुलिस बर्बरता और प्रताड़ना की गर्म आँधी से लड़ते हुए अपने अपने इलाकों से यहाँ तक आने का साहस जुटा पाए हैं.

सृजनात्मकता से भरपूर यातना क्या होती है ये कोई आपसे सीखे...आप इस विश्वास से ओत प्रोत होकर काम करते रहें कि यातना अंततः मुक्ति दायिनी ही होती है

आप वापस यहाँ से मिसीसिपी जाएँ..अलबामा जाएँ.. साऊथ कैरोलिना जाएँ...जोर्जिया जाएँ...लूसियाना जाएँ...उत्तरी भाग के किसी भी स्लम या घेट्टो में जाएँ...पार यह विश्वास लेकर वापिस लौटें कि वर्तमान हालात बदल सकते हैं और जल्दी ही बदलेंगे.

हमलोगों को हताशा की घाटी में लुंज पुंज होकर ठहर नहीं जाना है...आज की  इस घड़ी में  मैं आपसे कहता हूँ मित्रों कि आज और बीते हुए कल की मुश्किलें झेलने के बाद भी मेरे मन के अंदर एक स्वप्न की लौ जल रही है...और यह स्वप्न की जड़ें  वास्तविक अमेरिकी स्वप्न  के साथ जुड़ी हुई हैं.

मेरे स्वप्न है कि वह दिन अब दूर नहीं जब यह देश जागृत होगा और अपनी जातीय पहचान के वास्तविक मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरेगा की " हम इस सत्य को सबके सामने फलीभूत होते हुए देखना चाहते हैं कि इस देश के सभी मनुष्य बराबर पैदा हुए हैं."

मेरा स्वप्न है कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब जोर्जिया के गुलामों के बच्चे और उनके मालिकों के बच्चे एकसाथ भाईबंदी के टेबुल पर बैठेंगे.

मेरा स्वप्न है कि वह दिन दूर नहीं जब अन्याय और दमन की ज्वाला में झुलस रहे मिसीसिपी राज्य तक में आजादी और इंसाफ का दरिया बहेगा.

मेरा स्वप्न है कि मेरे चारो बच्चे एक दिन ऐसे देश की हवा में साँस लेंगे जहाँ उनकी पहचान उनकी  चमड़ी के रंग से नहीं बल्कि उनके चरित्रों की ताकत से की जाएगी

आज के दिन मेरा एक स्वप्न है...

मेरा स्वप्न है कि रंगभेदी दुर्भावनाओं से संचालित अलाबामा जैसे राज्य में भी-- जहाँ का गवर्नर अड़ंगेबाजी और पूर्व घोषणाओं से मुकर जाने के लिए बदनाम है -- एकदिन नन्हे अश्वेत लड़के और लड़कियां गोरे बच्चे बच्चियों के साथ भाई बहन की तरह हाथ मिला कर संग संग चल सकेंगे

यह सब हमारी आशाएं हैं...अपने दक्षिणी इलाकों में मैं इन्ही विश्वासों  के साथ वापिस लौटूंगा.. इसी विश्वास के बल पर हम हताशा के ऊँचे पर्वत को ध्वस्त कर उम्मीद के एक छोटे पिंड में तब्दील कर सकते हैं...इसी विश्वास के बल बूते हम अपने देश में व्याप्त अ समानता का उन्मूलन कर के भाईचारे की खूबसूरत संगीतपूर्ण स्वरलहरी  निकाल सकते हैं... इस विश्वास को संजो कर हम कंधे से कन्धा मिला कर  काम कर पाएंगे..प्रार्थना कर पाएंगे...संघर्ष कर पाएंगे...जेल जा पाएंगे...आजादी के आह्वान के लिए सिर ऊँचा कर खड़े हो पाएंगे...इन सबके बीच सबसे बड़ा भरोसे का संबल यह रहेगा कि हमारी मुक्ति  के दिन आखिरकार आ गए.

यही वो दिन होगा..जिस दिन खुदा के सब बन्दे इस गीत के  नए अर्थों को उजागर करते हुए साथ मिलकर गायेंगे.." मेरा देश...प्यारी आजादी की भूमि... इसके लिए मैं गाता हूँ...यही   धरती है जहाँ मेरे पिता ने प्राण त्यागे ... तीर्थ यात्रियों की शान का देश...इसके तमाम पर्वत शिखरों से आती है...आजादी की समवेत  ध्वनि...

और यदि अमेरिका को महान देश बनना है तो मेरी ऊपर कही बातों को सच होना पड़ेगा...सो न्यू हैम्पशायर  के गगन चुम्बी शिखरों से आनी चाहिए आजादी की पुकार...न्यू योर्क के पर्वत शिखरों से आना  चाहिए आजादी का उद्घोष..पेन्सिलवानिया से आनी   चाहिए आजादी की गर्जना..

आजादी का उद्घोष होने दो...जब ऐसा होने लगेगा और हम इसको सर्वत्र फैलने देंगे..हर गाँव से और हर बस्ती से... तो वह दिन सामने खड़ा दिखने लगेगा जब खुदा के बनाये सभी बन्दे...चाहे वे गोरे हों या काले...यहूदी हों या कोई और...प्रोटेस्टेंट हों या कैथोलिक.. हाथ से हाथ जोड़े एकसाथ पुराने नीग्रो गीत को गाने के लिए मिलकर स्वर देंगे.." अंततः हम आजाद हो ही गए...आजाद हो ही गए...'

सर्व शक्तिमान ईश्वर का शुक्रिया अदा करो कि अंततः हम आजाद हो ही गए...  

 प्रस्तुति-  यादवेन्द्र 


                             

Tuesday, April 4, 2017

पतरोल


(यह कहानी यू के की है। ओह उत्‍तराखण्‍ड की, जो कभी उत्‍तर प्रदेश का एक हिस्‍सा था। उत्‍तराखण्‍ड के एक छोटे से शहर के बहुत मरियल नाम वाले मोहल्ले की। )    

गुड्डी दीदी, जगदीश जीजू से प्रेम करती थी। जब तक हमें यह बात मालूम नहीं थी, जीजू हमारे लिए जगदीश सर ही थे। जगदीश सर, गुड्डी दीदी के घर किराये में रहते थे और ट्यूशन पढ़ाते थे। गुड्डी दीदी भी जगदीश सर से ट्यूशन पढ़ती थी। यह बात किसी को भी पता नहीं थी कि गुड्डी दीदी, जगदीश सर से प्रेम करती है। स्‍वयं गुड्डी दीदी को भी शायद ही पता रहा हो। वे इतना भर जानती थीं कि चश्‍मूदीन होने के बावजूद जगदीश सर बड़े सुन्‍दर है, बहुत अच्‍छे से पढ़ाते हैं। लम्‍बाई भी अच्‍छी है और जब हँसते हैं तो होंठों के ऊपर उगी हुई उनकी मूँछें भी हँसती है। ये सब बातें गुड्डी दीदी हमको उस वक्‍त बताती थीं, जब जगदीश सर आसा पास भी नहीं होते। मूँछों के हँसने वाली बात पर हम खूब खुश होते थे और जोर-जोर से हँसते थे। कई बार हमें सामूहिक रूप से हँसते हुए देख जगदीश सर आ भी जाते तो बस इतना ही कहते, ‘’अरे भाई हमें तो बताआो क्‍या बात है, हँसने का हक तक तो हमें भी है।‘’ उनको देखते ही बंद हो चुकी हमारी हंसी का फव्‍वारा एक बार फिर से फूट पड़ता था। लेकिन हम जगदीश सर को अपने उस आनंद का हिस्‍सा नहीं बनाते थे, जिसका रहस्‍य उठ जाने पर न मालूम वह उसी प्रकार बना रहता या नहीं।

जगदीश सर किराये का कमरा लेकर अकेले ही रहते थे। वे किसी सरकारी विभाग में मुलाज़िम थे और खाली वक्‍त में अपने कमरे में पढ़ते रहते थे। यदा-कदा मौसी, यानी गुड्डी दीदी की मां, जब अपने लिए भी चाय बनाती तो जगदीश सर के लिए भी भिजवा देती थी। कभी खाना खाने के लिए भी बुलवा लेती। गुड्डी दीदी ही दौड़-दौड़कर जाती- चाय पहुंचा देती या खाने के बुला लाती। प्रेम क्‍या होता है, हम में से कोई नहीं जानता था। हो सकता है जगदीश सर जानते रहे हों, बहुत सी बातों के जानकार होने के कारण ही वे हम सबके सर थे।  


जगदीश सर को शुक्रगुजार होना चाहिए मोहल्ले  क के दबंगों का कि उन्‍हें इस बात की भनक उस वक्‍त नहीं लग पायी कि गुड्डी दीदी और उनके बीच प्रेम पनप रहा है। इस बात की खबर उन्‍हें तब लगी, इतने बाद में कि तब जगदीश सर को मोहल्ले का ही निवासी मान लिया गया था। वरना, वह किस्‍सा तो आज तक मशहूर है- सुशीला दीदी, दीवान जी की बेटी जो मोहल्ले  क की पहली लड़की हुई जिसका किसी सरकारी नौकरी में चयन हुआ, घर लौटते हुए एक लड़के के साथ उसकी साइकिल में बैठकर आती थी। मोहल्ले की सरहद पर वह लड़का सुशीला दीदी को साइकिल से उतार देता था और वहां सुशीला दीदी पैदल-पैदल, बार-बार ढलक जाते अपने दुपट्टे को संभालते हुए घर तक पहुँचती थी। लड़का अपनी साइकिल पर पैडल मारकर कोई मधुर गीत गाते हुए निकल जाता था। मोहल्ले के दबंगों को यह बात चुभनें लगी थी कि कोई अनजान लड़का उनके मोहल्ले  क की लड़की को रोज साइकिल पर बैठाकर छोड़ने आता है। एक दिन उन्‍होंने मंत्रणा की और सुशीला दीदी के चले जाने के बाद भी उतर गयी साइकिल की चैन को चढ़ाने में व्‍यस्‍त उस लड़के पर हमला बोल दिया। जमकर उसकी कुटाई की। उसकी साइकिल तोड़ दी। लड़के की नाक से खून निकलने लगा। खून से लथपथ हो चुके चेहरे को देख दबंगों ने उस अकेले लड़के को धक्‍का दिया और वहां से रफू-चक्‍कर हो गये।                   

Friday, March 24, 2017

गरीब का नंगापन उसकी आर्थिक दरिद्रता है तो अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता

पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अध्‍ययन-अध्यापन के क्षेत्र से जुड़ी गीता दूबे मूलत: कवि हैं। कोलकाता के साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी बेबाक आलोचनाओं के साथ सक्रिय रहने वाली गीता दूबे, प्रगतिशील लेखक संघ (हिन्दी इकाई) कोलकाता की सचिव भी हैं। अपनी बातों को साफ तरह से रखने का बौद्धिक साहस गीता दूबे के लेखन की ही नहीं, व्‍यवहार की भी एक विशेषता है। रचनाओं को प्रकाशन के लिए भेजने का संकोच गीता दूबे के भीतर मौजूद आलसपन को भी दिखाता है। कई बार के आग्रह के बाद गीता दूबे ने अपने मन से ‘आपहुदरी’ पर लिखी समीक्षात्माक टिप्पणी भेजकर इस ब्लाग को अनुग्रहित किया है। इस आशय के साथ कि आगे भी उनके सहयोग से यह ब्लाग आगे भी समृद्ध होता रहेगा, उनकी लिखी समीक्षा प्रस्तुत है। हमें उम्मीद है कि गीता दूबे की बेबाक समीक्षा पर पाठकों की बेबाक राय भी इस ब्लाग को समृद्ध करेंगी। 

वि.गौ.

'आपहुदरी' (रमणिका गुप्ता की आत्मकथा) के हवाले से


गीता दूबे 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी चाहिए लेकिन फिलहाल कुछ बातें मैं 'आपहुदरी' के बहाने स्त्री आत्मकथाओं पर करना चाहती हूं। 

इस समय आत्मकथाएं खूब लिखी जा रही हैं और उनके प्रकाशन के साथ साथ विवाद भी चलते रहते है। शायद ही कोई आत्मकथा ऐसी होगी जिसके प्रकाशन के बाद बहस का तूफान न उठा हो या आरोपों प्रत्यारोपों के दौर न चले हों। सवाल यह है कि आत्मकथाएं क्यों लिखी जानी चाहिए ? आत्मकथाओं का उद्देश्य किसी रचनाकार के सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत अनुभवों से रूबरू करवाना ही है या तत्कालीन इतिहास की अनुगूंज भी उसमें सुनाई देनी चाहिए। इस संदर्भ में गांधी और नेहरू द्वारा लिखित आत्मकथाओं का जिक्र जरूरी है जिनमें सिर्फ उनके निजी अनुभव ही नहीं हैं बल्कि उनके समय का इतिहास भी झांकता है। कुछ वर्षों पूर्व प्रकाशित कुलदीप नैय्यर की आत्मकथा भी कई मायने में इतिहास की तरह पढ़ी और संजोई जा सकती है। स्त्री आत्मकथाओं के संदर्भ में बात करें तो पहले पहल जब स्त्रियों ने अपनी कहानी अपनी जुबानी सुनाने का फैसला किया तो लोगों को यह सहज उत्सुकता हुई कि ये औरतें भला कहना क्या चाहती हैं ? और कहेंगी भी तो आखिर क्या वही घर गृहस्थी के घरेलू किस्से और कहानियां। रही बात उनके सामाजिक अवदान या भूमिका की तो वह तो साहित्य में कहा और लिखा ही जा रहा है।पुरूष रचनाकार बड़े अनुग्रहपूर्ण ढंग से भारतीय स्त्रियों के त्याग और बलिदान को महिमामंडित करते हुए यदा कदा उनके दुख दर्द, शोषण और संघर्ष को भी वाणी दे ही रहे थे। लेकिन इसके बावजूद स्त्रियों ने तय किया कि अपने देखे और भोगे यथार्थ को वह खुद पूरी प्रामाणिकता से पाठकों के सामने रखेंगी। हालांकि प्रेमचंद द्वारा संपादित हंस के आत्मकथा विशेषांक में यशोदा देवी और शिवरानी देवी के आत्मकथ्य प्रकाशित हो चुके थे लेकिन पुस्तकाकार रूप में प्रतिभा अग्रवाल की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा 'दस्तक जिन्दगी की' (1990) और मोड़ जिन्दगी का(1996) से स्त्री आत्मकथा लेखन की शुरुआत हुई । इसी क्रम में क्रमश: 'जो कहा नहीं गया'(1996) कुसुम अंसल, 'लगता नहीं है दिल मेरा'(1997) कृष्णा अग्निहोत्री, 'बूंद बावड़ी' (1999) पद्या सचदेव, 'कस्तूरी कुण्डल बसै'(2002)मैत्रेयी पुष्पा आदि ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। चंद्रकिरण सौनरेक्सा की 'पिंजरे की मैना' (2005) छपकर आई तो पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया क्योंकि पराधीनता की जंजीरों में जकड़ी नारी की मुक्ति कामना के साथ ही उसकी पीड़ा और संघर्ष को लेखिका ने बड़ी शिद्दत से उकेरा था। जानकी देवी बजाज की 'मेरी जीवन यात्रा'(2006) में मारवाड़ी परिवार की स्त्रियों का जीवन ही नहीं वर्णित हुआ बल्कि स्वाधीनता आंदोलन के कई कोलाज भी बड़ी ईमानदारी से अंकित हुए हैं। मन्नू भंडारी की 'एक कहानी यह भी'(2007) , प्रभा खेतान की 'अन्यार से अनन्या'(2007) मैत्रेयी पुष्पा की 'गुड़िया भीतर गुड़िया'(2008), कृष्णा अग्निहोत्री 'और और औरत' (2010) इस सिलसिले की अगली कड़ियां थीं। इसे उर्मिला पंवार के 'आयदान' (2003) कौशल्या बैसंत्री के 'दोहरा अभिशाप' (2009) और सुशीला टांकभौरे के 'शिकंजे का दर्द' (2011) ने एक नया आयाम दिया। 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी
अब बात करना चाहूंगी 2016 में सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित रमणिका गुप्ता की आत्मकथा 'आपहुदरी' की । चूंकि यह शब्द पंजाबी भाषा का है संभवत इसी लिए नीचे एक पंक्ति में इसका आशय भी भी साफ कर दिया गया है , एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा'। यहां यह बताना जरूरी है कि इसके पहले रमणिका अपनी एक और आत्मकथा 'हादसे'(2005) लिख चुकी हैं जिसमें मजदूर नेता के रूप में उनके एक्टिविस्ट और उसके साथ राजनीतिक जीवन की झलक मिलती है और उसे पढ़कर पाठक उनके जुझारू व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । उनके जीवन संघर्ष से उपजा यथार्थ , उनकी स्त्रीवादी विचार धारा और बेबाक व्यक्तित्व पाठकों के मन पर निस्संदेह गहरी छाप छोड़ता है। उनके निष्कर्षों से सहमत भी होता है कि, " पुरूष नारी को उसी हालत में बर्दाश्त करता है जब उसे यकीन हो जाए कि वह पूरी तरह उसी पर आश्रित है और खुद कोई निर्णय नहीं ले सकती या वह स्वयं उस औरत से डरने लगे तो उसे सहता है।" चूंकि इस आत्मकथा में उनके व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को अभिव्यक्ति नहीं मिली थी शायद इसी वजह से उन्होंने 'आपहुदरी' रचना की। किताब के फ्लैप पर लिखी घोषणा बरबस ध्यान खींचती है, "विविधता भरे अनुभवों की धनी रमणिका गुप्ता की आत्मकथा की यह दूसरी कड़ी 'आपहुदरी' एक बेहद पठनीय आत्मकथा है।उनकी आत्मकथा की पहली कड़ी हादसे से कई अर्थों में अलग है। सच कहें, तो यही है उनकी असल आत्मकथा....।" जाहिर है कि इस घोषणा से आकर्षित या प्रेरित होकर पाठक बड़े चाव से इस रचना से मुखातिब होता है कि उसे कुछ नया जानने या समझने को मिलेगा। निस्संदेह मिलता है । रमणिका या रमना या रम्मो के परिवार का संक्षिप्त इतिहास , देश- विभाजन के एक आध चित्र और मजदूर आंदोलन के साथ साथ भारतीय राजनीति की कुछ झलकियां भी। पर सबसे अधिक पन्ने इस जिद्दी लड़की ( ?) ने अपनी प्रेमकथा के वर्णन में खर्च किए हैं। बचपन में हुए यौन शोषण और परिवार वालों द्वारा की गयी अपनी उपेक्षा के कारण वह आजीवन प्रेम की तलाश में भटकती रही और यौनेच्छाओं की पूर्ति के साथ साथ अपने विलास पूर्ण जीवन के खर्चों को पूरा करने के लिए वह लगातार एक के बाद एक साथी बदलती रहीं। रमणिका की तारीफ इस बात के लिए तो होनी ही जानी चाहिए कि वह अपने इन भटकावों , विचलनों को ईमानदारी से स्वीकारती हैं और बिना किसी अफसोस के लिखती हैं, "पीछे मुड़कर देखती हूं तो महसूस होता है, मैंने जिंदगी को भरपूर जिया। तुमुल कोलाहल के बीच भी मैंने अपने मन को कभी बनवास नहीं दिया।मेरी प्रेम यात्राएं कभी रुकी नहीं।.... कुछ ग्रंथियां और कुछ हादसे मेरे अंतर्मन में ऐसे पैठ गये थे कि मैं उनसे उबर नहीं पा रही थी। उनसे पीछा छुड़ाने के लिए मैं रास्ते तलाशने लगी और रास्ते की खोज में मैंने तय कर डाली कई यात्राएं।.....कितनी यात्राएं गिनाऊं।" इसके आगे वह लिखती हैं, "कई सच्चे और वक्ती मित्र आए और गये पर मेरी यात्रा जारी रही। दर असल तब तक मैं यह समझ न पाई थी कि यह जद्दोजहद मेरी अस्मिता की ललक का अंग है।.... बहुत बाद में मुझे स्त्री की अलग पहचान का विमर्श समझ में आया।" मेरी दिक्कत यहीं से शुरू होती है जब रमणिका अपनी यौनाकांक्षा को स्त्री मुक्ति के साथ जोड़कर देह विमर्श को ही स्त्री विमर्श के रूप में स्थापित करना चाहती हैं। स्त्री मुक्ति के साथ साथ देह पर उसके अधिकार की बात तो उठती रहती है पर जहां देह ही मुख्य हो जाती है और बाकी चीजें गौण तो माफ कीजिएगा इस मुक्ति से स्त्री हो पुरूष दोनों अर्थात् पूरे देश और समाज की भी कोई बहुत ज्यादा तरक्की होनेवाली नहीं। और डर इस बात कार्यक्रम भी है कि इस देह विमर्श की आंधी में स्त्री विमर्श के जरूरी मुद्दे कहीं उड़ न जाएं। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मेरी समझ में आती है कि आत्मकथा लेखन सच में जोखिम और साहसभरा काम है क्योंकि खुद को लोगों के बीच उघाड़ने और उधेड़ने के लिए साहस की जरूरत तो पड़ती ही है पर जब इसमें सनसनी वाला तत्व भी जुड़ जाता है तो यह जोखिम मजे या प्रचार के लिए उठाए जोखिम में जरूर बदल जाता है । और साहित्य या समाज के लिए यह स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती है। एक गरीब का नंगापन जहां उसकी आर्थिक दरिद्रता को दर्शाता है तो वहीं अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता या फैशन को। रमणिका ने जिस तरह से रस लेते हुए अपने प्रेम प्रसंगों या देह गाथा को उकेरा है उसे प्रेम कथा के रूप में तो पढ़ा जा सकता है पर उसे स्त्री मुक्ति का आख्यान मानने में मुझे आपत्ति है। कुछ पाठकों को इस तरह की कथा में रस भले ही मिले पर सिर्फ और सिर्फ यही पढ़ना हो तो इस विषय पर प्रचुर साहित्य सहज ही उपलब्ध है। आश्चर्य होता है कि देह की भूख क्या इतनी प्रबल है कि ट्रेन में सफर के दौरान एक अजनबी के साथ भी बड़ी सहजता से निसंकोच उसे तृप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही एक ही समय में एकाधिक साथियों के साथ अपने संबंधों को भी लेखिका ने गर्व के साथ स्वीकारा है। लगता है लेखिका सिर्फ देह का उत्सव मनाते हुए , उसे गरिमा मंडित करते हुए हर हाल में सही ठहराना चाहती हैं। हालांकि अपनी कमजोरियों को रमणिका सहज भाव से स्वीकारती हैं, " सत्य तो यह है कि मुझे खुद ही खुद से मुक्त होना है । मैं अपनी ही कमजोरी काम शिकार होकर फिसल जाती रही हूं ।जिन कमजोरियों के खिलाफ मैं झंडा बुलंद करती रही, उन्हीं कार्यक्रम शिकार मैं खुद होती रही। पुरुष मेरी ग्रंथि है।औरत को खुद अपने को ही मुक्त करना है पुरुष ग्रंथि से।" पता नहीं लेखिका इस ग्रंथि से मुक्त हो पायीं या नहीं पर अपनी प्रेम कथाओं के साथ साथ उन्होंने अपने पारिवारिक सदस्यों की कथाओं का भी खुलकर वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि संसार की एकमात्र सच्चाई देह ही है और दैहिक तृप्ति ही वास्तविक तृप्ति है। 

ईमानदारी से कहना चाहती हूं कि रमणिका की यह आत्मकथा पढ़ते हुए मुझे तसलीमा याद आती रहीं जिन्होंने 'द्विखंडित' (2004) में अपने पुरुष मित्रों के साथ अपने संबंधों को खुल कर स्वीकारा था और यौन प्रसंगों का सतही और उत्तेजक वर्णन भी किया था। और शायद उसपर लगे बैन और विवादों के कारण लोगों ने उसे खूब पढ़ा भी था पर पसंद शायद ही किया था। और एक किताब का नाम लेना चाहूंगी वैशाली हलदणकर की 'बारबाला' (2009)। उसमें भी ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं। प्रश्न यह भी है कि ऐसी आत्मकथाएं क्या सिर्फ इसीलिए पढ़ी जानी चाहिए कि इनमें यथार्थ के नाम पर मुक्त यौन चित्र हैं भले ही इनसे स्त्री मुक्ति की रूपरेखा बने या न बने । या फिर इससे किसी को प्रेरणा मिले न मिले। एक जिद्दी लड़की क्या सिर्फ पैसों , शोहरत, ऐशो आराम या सत्ता के गलियारे में पैठ बनाने के लिए अपने शरीर को इस्तेमाल करने में ही अपनी जिद और स्वाभिमान की इंतहा मानती है ? उसका स्वाभिमान क्या छोटे छोटे सुखों पर न्योछावर किया जा सकता है,? क्या पेट की भूख और शरीर की भूख में कोई अंतर नहीं है ? और इस भूख की आग में रिश्ते नाते भी जला दिए जाएं ? आखिर हमें कहीं तो रुकना पड़ेगा, या इस भूख या छद्म मुक्ति की तलाश में हम यूं ही भटकते रहेंगे ? इस तरह के कई सवाल इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मन में उपजते हैं। सच में अगर स्त्री का संघर्ष और उसकी उपलब्धियों से रूबरू होना ही है तो क्यों न हम एक विकलांग पर जुझारू महिला नसीमा हुरजूक की आत्मकथा 'कुर्सी पहियों वाली' (2010) जैसी किताब पढ़े जो पूरे समाज को उद्वेलित ही नहीं प्रेरित भी करती हैं। और अगर देह गाथा ही पढ़नी है तो उसके लिए एक दूसरी तरह काम साहित्य सहज ही उपलब्ध है।