Saturday, September 29, 2018

म्हारी छोरियाँ क्या छोरों से कम हैं

मैं आगे, जमाना है पीछे

डॉ रश्मि रावत


खेलों के महाकुम्भ में विश्व भर की आँखें मेगा प्रतियोगिताओं में लगी रहती हैं। उस वक्त लैंगिक समानता के संदेश प्रभावी ढंग से सम्प्रेषित होते हैं। सितारे खिलाड़ी जो करते, जो बोलते हैं उनका लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसलिए वे निजी कम्पनियों के ही नहीं सामाजिक प्रगति के भी ब्रांड अम्बेसडर हो सकते हैं। इस दृष्टि से हाल ही में सम्पन्न हुए एशियाड 2018 में भारतीय खिलाडि़यों का कुल प्रदर्शन चाहे पदकों के लिहाज से पूर्व की स्थिति में खास इजाफा करता हुआ न भी दिखा हो तो भी सामाजिक वातावरण में स्‍त्री चेतना के बदलावों की एक झलक जरूर दिखायी दी है। स्वप्ना बर्मन, हिमा दास, द्युतिचंद, हर्षिता तोमर, विनेष फोगट, राही सरनोवत, पी.वी. संधु, सानिया नेहवाल समेत कई अन्य स्त्री खिलाड़ियों ने ट्रेक पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करते हुए इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया है कि यह बीत चुके जमाने की बात हो चुकी है जब खेल के मैदान सिर्फ पुरुषों के लिए होते थे।
भारतीय महिला खिलाडि़यों के ऐसे प्रदर्शन को इस दृष्टि से भी देखा जाना जरूरी है कि वै‍श्विक स्‍तर पर स्त्रिायों के प्रति जो सामाजिक बदलाव आ रहे हैं, वे उसके साथ अपनी संगति बैठाने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। सन् 1991 के बाद से केवल वही नए खेल ओलम्पिक में शामिल किए जा सकते हैं जिनमें स्त्री खिलाड़ियों की भागीदारी हो। यह एक तथ्‍य है कि सन् 1900 में पेरिस ओलम्पिक में महिलाओं ने पहली बार हिस्सा लिया था। लेकिन उस वक्‍त कुछ सीमित खेलों में ही उनकी भागेदारी हो पाती थी। लेकिन सन् 2012 वह पहला वर्ष था जब ओलम्पिक में सभी खेलों में स्त्रियों ने भागीदरी की। 2012 के लंदन ओलम्पिक के बाद से कहा जा सकता है कि सफलता से सरपट दौड़ने के लिए मैदान स्त्रियों के लिए उसी तरह खुल चुके हैं जिस तरह पुरुषों के लिए।
इस तरह से देखें तो खेलों में स्त्रियों की हिस्‍सेदारी का यह बनता हुआ नया इतिहास है। गत कुछ वर्षों में महिलाएँ अपनी मजबूत उपस्थिति विभिन्न खेलों में निरंतर दर्ज करती जा रही हैं। उम्‍मीद की जा सकती है कि खेल-जगत में स्त्रियों की उपलब्धि का हर एक कदम समाज में सदियों से व्याप्त लैंगिक विषमता को दमदार धक्का लगाने में सक्षम हो सकेगा। एशियाड 2018 में भारतीय महिला खिलाड़ियों के प्रदर्शन अभूतपूर्व रूप से उल्‍लेखनीय हैं। नए से नए  रिकॉर्ड बनाते हुए वे आगे बढ़ती हुई दिखी हैं। इस सफलता को सिर्फ पदकों से ही नहीं नापा जा सकता। पदक प्राप्‍त न भी कर पायी खिलाडि़यों के प्रदर्शन इस बात की गवाही देते हुए हैं कि प्रतिभा संपन्‍न, जूझारू, शारीरिक रूप से सक्षम, भारतीय स्‍त्री आज अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ आगे बढ़ना चाहती हैं। विश्व स्तर की सुविधाएँ, प्रशिक्षण, उपकरण इत्यादि मिले तो निश्चित ही वे वैश्विक स्‍तर की ऊंचाइयों को छू पाने में कामयाब होंगी।

हाल के प्रदर्शनों का एक दिलचस्‍प पहलू इस रूप में भी दिखायी दे रहा है कि महिलाओं की उत्कृष्ट उपलब्धियाँ अधिकतर वैयक्तिक स्पर्धाओं में देखने को मिली। एथलेटिक्स, शूटिंग, तीरंदाजी, पहलवानी, बैडमिंटन, मुक्केबाजी जैसी स्पर्धाओं में उनकी उपस्थिति ने आश्‍चर्यजनक रूप से चकित किया है। हिमा दास, स्वप्ना बर्मन जैसे कई नाम हैं जो छोटी-छोटी जगहों से निकल कर मेहनत और संकल्प-शक्ति के बल पर अपना आकाश गढ़ते हुए नजर आयी हैं। एशियाड 2018 से पूर्व में दीपा कर्माकार को याद करें जिसने अपने लाजबाब प्रदर्शन से ओलम्पिक में जिम्नास्टिक्स प्रतिस्‍पर्धा में अपने लिए जगह बनायी थी। साक्षी मलिक, दीपा कर्मकार, पी.वी. सिंधु. अदिति अशोक के उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण ही 2016 के रियो ओलम्पिक को ‘इयर ऑफ इंडियन वुमेन इन स्पोर्ट्स कहा गया था। सानिया नेहवाल, पी.वी.सिंधु, सानिया मिर्जा, अंजली भागवत, फोगट बहनें, ज्वाला गुट्टा, कर्णम मल्लेश्वरी, मैरी कॉम, अश्विनी, मिताली राज, हरमीन प्रीत, रानी रामपाल.........बहुत लम्बी सूची है महिला खिलाड़ियों की जिन्होंने विभिन्न खेलों में विश्व स्तर पर अपनी सफलता के झंडे गाड़े हैं।
एकल प्रदर्शनों के इतर टीम खेलों में स्त्रियां आगे बढ़ती हुई नजर आने लगी हैं। भारतीय महिला हॉकी टीम एशियाड में 20 साल बाद फाइनल तक पहुँची और बेहतर खेली। महिला क्रिकेट भी वैश्विक स्‍तर पर अपनी जगह बनाते हुए दिखने लगी है।
एकल प्रारूप वाले खेलों और टीम प्रारूप खेलों के आंकलन इस बात के भी गवाह हैं कि जितने संसाधन, प्रोत्साहन और लोकप्रियता महिला खिलाडि़यों को मिलनी चाहिए, उसका शतांश भी क्‍या इन्हें मिलता हैजिन खेलों के लिए मजबूत टीम और संशाधनों की दरकार है, वहाँ तो खिलाड़ियों की पूरी कोशिश भी उन्हें ऊँचे मुकाम तक नहीं पहुँचा सकती जब तक संस्थानों का सुनियोजित सहयोग न मिले। दूसरा वह सामाजिक पहलू जो सामूहिक स्‍पर्धा में अवरोध बना हुआ है, उसको दरकिनार नहीं किया जा सकता। सामूहिक स्पर्धाओं में लड़की होने के नाते बहुत से नुक्सान स्‍कूल स्‍तर ही उठाने पड़ते हैं। बॉलीबॉल, फुटबाल, क्रिकेट आदि खेलों में स्कूल और कॉलेजों में टीम ही नहीं बन पाती। खेलने की शौकीन सक्षम खिलाड़ियों को मन मसोस कर लड़कों के खेल का मूक दर्शक बन जाना पड़ता है। उनके लिए अनुकूल माहौल बनाना, उनके मार्ग की बाधाओं को दूर करना सारे समाज की जिम्मेदारी है। स्कूली स्तर पर लड़के-लड़कियों के खेल एक साथ होने से लैंगिक समरसता का माहौल भी उभार ले सकता है। लड़कियों के लड़कों के साथ खेलने का अवसर मिलेगा तो टीम न बनने के कारण उन्हें खेल छोड़ना नहीं पड़ेगा ओर दूसरे उन्हें मजबूत टीम के साथ खेलने और अभ्यास करने का मौका मिलेगा। इससे उनका भरपूर विकास होगा। मनोवैज्ञानिक ढंग से भी उनके भीतर खुद को स्वस्थ व्यक्तित्व के रूप में विकसित करने का दायित्व उपजेगा। उनका खाना-पीना-खुद की भरपूर देखभाल करना सम्भव हो पाएगा। वर्ना अक्सर लड़कियाँ अपने शरीर और जरूरतों के प्रति सहज नहीं रह पातीं और फिर आइरन या किसी अन्य पोषक तत्व की कमी से जूझती हैं। खेलने वालियों की संख्या अभी कम है इसलिए उन्हें स्थानीय स्तर पर अभ्यास करने के लिए बराबर या बेहतर प्रतिद्वंद्वी नहीं मिल पातीं हैं। महावीर फोगट जैसी संकल्प शक्ति की जरूरत है जो हर प्रतिकूलता से टकरा कर भी बेटियों को पहलवान बनाने का सपना पूरा करता है। फोगट परिवार अपनी बेटियों की उपस्थिति से ही चर्चा का केन्‍द्र बनता हुआ है जिसने हरियाणा जैसे राज्य की लैंगिक सोच के ठहरे पानी में हलचल मचा दी और घर-घर में ये विचार उपजा कि “म्हारी छोरियाँ क्या छोरों से कम हैं। अगर महावीर ठान नहीं लेते तो उनकी बेटियाँ तो वैसी ही जिंदगी जी रही थीं जैसी समाज ने लड़कियों के लिए तय की होती है। वैसा ही खाना-पीना-पहनना। लड़कों के साथ लड़कियों को पहलवानी वह न करवाते तो कैसे उनका विकास होता। उन्हें खूब पौष्टिक खिलाना, जरूरत भर नींद, आराम... सुंदरता के मिथक से मुक्त व्यक्तित्व के रूप में विकसित करना। यही हर स्तर पर किए जाने की जरूरत है। शरीर जब स्वस्थ रहता है तो ऊर्जा अपने निकास के लिए स्वस्थ मार्ग खोजती है। आज के उपभोक्तावादी दौर में लड़कियों पर फिर से कोमल, नाजुक, कमसिन, चिकनी बने रहने का इतना अधिक दवाब है कि मध्य-उच्च वर्गीय लड़कियाँ भर पेट खाती नहीं हैं और निम्न वर्ग की लड़कियों को पौष्टिक खाना उपलब्ध नहीं हो पाता। राष्ट्रीय-अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर भी 16 वर्ष तक के लड़कों-लड़कियों की स्पर्धा एक साथ होना अच्छा रहेगा। समाज में लैंगिक समानता स्थापित होने पर वह समय आएगा जब स्त्री-पुरुष के प्रदर्शन में अंतराल नहीं रह जाएगा। फिलहाल वह समय दूर है। लेकिन किशोरावस्था तक के प्रदर्शन में इतना अंतर नहीं दिखता कि वे एक साथ न खेल पाँए।
 टेनिस जैसे कुछ खेलों को छोड़ दिया जाए तो स्त्री-पुरुष के वेतन, पुरस्कार राशि, स्पांसरशिप, और मीडिया कवरेज में बहुत अधिक भेदभाव है। इस भेदभाव का काफी नकारात्मक प्रभाव महिलाओं के प्रदर्शन और उन्हें मिलने वाली सुविधाओं तथा प्रशिक्षण में पड़ता है। अमेरिका में जहाँ खिलाड़ियों की 40संख्या महिलाओं की है वहाँ मीडिया में खेलों में इनकी कवरेज की प्रतिशतता 6-8है और सर्वोच्च 4 समाचार पत्रों में केवल 3.5% ही है। भारत में, जहाँ खेलने वाली स्त्रियों का प्रतिशत पुरुषों के अनुपात में बहुत कम है। वहाँ मीडिया और वेतन के अंतराल का अनुमान किया जा सकता है। यदि आर्थिक तौर पर और मीडिया के स्तर पर स्त्रियों को समान महत्व दिया जाए तो समाज में उनके खेल के प्रति सकारात्मक माहौल बनने में बहुत मदद मिलेगी। सामाजिक, परम्परागत रूढ़ियाँ टूटेंगी जिनके कारण लोग लड़कियों को बाहर भेजने में हिचकिचाते हैं। चोटिल होने वाले, तथाकथित सौंदर्य पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली गतिविधियों से लड़कियों को रोका जाता है। सुरक्षा को लेकर हमारा समाज पहले ही अतिरिक्त सजग है। निर्णायक मंडल, कोच की लड़कियों के यौन शोषण की कुत्सा की खबरें आती हैं तो यह लड़कियों की भागीदारी को बहुत हतोत्साहित करता है। 
     खिलाड़ियों की जीविकार्जन की क्षमता और लोकप्रियता समाज में स्टीरियो टाइप को तोड़ेगी और कई अनावश्यक टैबू भी टूटेंगे तो महिलाएँ खुद को अधिक फिट रख पाएँगी। अपने शरीर और उसकी जरूरतों के प्रति सहज रहेंगी तो उनके प्रदर्शन में नई उठान आएगी। एक भीषण समस्या जो स्त्री होने के कारण झेलनी पड़ती है खिलाड़ियों को। अधिकांश स्त्रियों का मानना है कि मासिक स्राव उनके प्रदर्शन को प्रभावित करता है। कई शीर्ष खिलाड़ियों ने महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में इसे अपनी हार का कारण माना है। इस तरह के टैबू दूर होने के बाद से समस्याओं और समाधान पर खुल कर बात होती है तो समस्या कम होती जाती है। 26 साल की किरन गाँधी ने लंदन में मासिक स्राव के दौरान बिना नैपकिन प्रयोग किए मैराथन दौड़ सम्पन्न की। वे इस दौरान खुद को संकुचित महसूस करने के चलन को तोड़ते हुए अपने शरीर के प्रति सहज होने का संदेश देना चाहती थी। उन्होंने माना कि महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में फोकस अपने प्रदशर्न पर रहे, जिसके लिए जीवन भर तैयारी की है न कि लिहाज करने पर।

    2014 के कॉमन वेल्थ गेम्स में द्युतिचंद को जिन दो प्रतियोगिताओं से बाहर कर दिया था। 4 साल बाद एशियाड में उन्ही दोनों स्पर्धाओं में उन्होंने पदक जीते। आजीवन स्त्री की तरह जिंदगी जीने, सारे क्रिया कलाप सम्पन्न करने के बाद टेस्टोटेरोन हार्मोन का स्तर देख कर अंतर्राष्ट्रीय मानक यह तय करते हैं कि वह महिला वर्ग में भाग ले सकती है या नहीं। इसी को द्युतिचंद ने चुनौती दी थी और अंततः उनके पक्ष में फैसला आया। फिर उन्होंने स्पर्धाओं में भाग भी लिया सफलता भी पाई पर कितना कुछ खोया भी। नए नियमों के अनुसार भी महिलाओं के भीतर हार्मोन का स्तर तय करेगा कि वे किस वर्ग में स्पर्धा में हिस्सा ले सकती हैं और उन्हें दवाइयों की सहायता से अपने हार्मोन के स्तर को मानकों के अनुकूलन में लाना पड़ेगा। द्युतिचंद समेत कई खिलाड़ियों की सख्त आपत्ति है कि हम अपनी स्वाभाविक, प्राकृतिक संरचना को क्यों कृत्रिम साँचे में जबरन ढालें। इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण भी नहीं है कि प्राकृतिक रूप से पाए जाने पर यह हार्मोन प्रदर्शन को प्रभावित करता है या नहीं। करता भी है तो जैसे किसी को अपने कद या किसी भी शारीरिक वैशिष्ट्य का फायदा या नुक्सान होता है उसी तरह यह भी एक विशिष्ट लक्षण की तरह लिया जाना चाहिए और व्यक्ति की गरिमा और निजता की रक्षा करनी चाहिए। यह उसके मानवाधिकारों का भी एक तरह से उल्लंघन है। स्त्रियों के खेल के प्रति समाज में जागरुकता आएगी और अधिकाधिक स्त्रियों खेलों में भागीदारी बढ़ाती जाएंगी, बढ़ाती जाएँगी तो मीडिया भी स्थान बढ़ाने के लिए मजबूर होगा। वर्ना सोशल मीडिया भी है और हमारे जैसी हजारों-लाखों स्त्रियाँ भी। सचेतनता स्त्री विषयक इन समस्याओं पर हस्तक्षेप करके एक आम सहमति बनाएगी तो खेल के इन नए नियमों में स्त्री के गरिमामय समावेशन की पूरी सम्भाव्यता होगी


Wednesday, August 29, 2018

तंग गलियों से भी दिखता है आकाश


इसलिए नहीं कि ‘तंग गलियों से भी दिखता है आकाश’ यादवेन्द्र जी की पहली किताब है, बल्कि इसलिए कि मेरे देखे हिंदी में यह पहली किताब है जिसमें दुनिया के विभन्न हिस्सों के रचनाकारों की रचनाओं के अनुवाद एक ही जगह पढ़ने को मिल रहे हैं, यह बात भी ध्या्न खींचती है कि यह किताब भारत से इतर दुनिया के स्त्री रचनाकारों के गद्य का नमूना पेश करती है। जहां तक मेरी जानकारी है, किताब में शामिल ज्यादातर अनुदित रचनाएं यादेवन्द्र जी की उस सहज प्रवृत्ति का चयन हैं जिसके जरिये वे अपने भीतर के कलारूप को अपने मित्रों के साथ शेयर करना चाहते रहे हैं। पुस्तक की भूमिका भी इस बात की गवाह है जब वे लिखते हैं, ‘’कोई पन्द्रह साल पहले की बात होगी, ‘द हिन्दू ‘ में प्रकाशित एक युवा भारतीय लेखक की कहानी ‘चॉकलेट’ मुझे बहुत पसन्द आयी भी और मैं उसे अम्मा को सुनाना चाहता था... पहले सोचा सामने बैठ कर हिन्दी अनुवाद करते-करते बोलकर सुना दूंगा पर लगा इससे कथा का तारतम्य टूट जाएगा सो बैठ कर कॉपी पर अनुवाद लिख डाला।‘’ यानी दुनिया के साहित्य से रिश्ता बनाते हुए जब उन्हेंअपने मन के करीब की कोई रचना नजर आयी उसे अपने मित्रों तक ही नहीं, बल्कि बहुत से दूसरे लोगों तक भी पहुंचाने के लिए वे उसे हिन्दी में अनुवाद करने को मजबूर होते रहे। कल्पित रूप में किसी किताब की योजना के साथ तो उनका चयन किया ही नहीं गया। यही वजह है कि अपने चयन में ये रचनाएं इस मानक से भी मुक्त कि भारतीय साहित्य से उनकी संगति एकाकार हो रही है या नहीं। यदि जुदा हैं तो उसके जुदा होने के कारण क्या हैं, विषय की  विविधता से भरी इन  रचनाओं के चयन की आलोचना में यह आरोप नहीं है ।  बल्कि उस बिन्दु की की ओर इशारा करना है कि इस पुस्तक की कुछ रचनाओं का मिजाज हिन्दी की कहानियों से ही नहीं अपितु अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों (यह कथन सीमित जानकारी के आधार पर) से भी भिन्न है और पाठक के अनुभव क्षेत्र को व्यापक बनाता है। 

संग्रह की दो कहानियां का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा। पहली, आयरलैंड की रचनाकार मीव ब्रेन की कहानी ‘जिस दिन हमारी पहचान हमें वापिस मिल गयी’। विचार/राजनीति और कला को दो भिन्न रूप और एक दूसरे से जुदा मानने वाले यदि इस कहानी को पढ़ेंगे तो निश्चित है कि किंचित हिचकिचाहट भी यह कहने में महसूस नहीं करेंगे कि बिना विचार के कला का कोई औचित्य नहीं। बहुत महीन बुनावट की यह उल्लेखनीय रचना है। 
दूसरी, ईराक की रचनाकार बुथैना अल नासिरी की कहानी ‘कैदी की घर वापसी’। आजकल ‘राष्ट्र वाद’ का डंका पीटने वाली मानसिकता को आईना दिखाती यह कहानी उस यथार्थ से रूबरू होने का अवसर देती है कि सत्ता किस तरह से लठैती के झूठे तमगे से नवाजती है और जीवन से हाथ धोने को मजबूर एक सैनिक के प्रियजनों को किस तरह की ‘शहादती’ प्रतिष्‍ठा से भर देती है। शहीद घोषित हो चुका कोई सैनिक यदि कई सालों के बाद, जैसे-तैसे बचते-बचाते हुए, सकुशल घर लौटता है तो आत्मीयता को मिले उपहारों में घोल कर पी चुके सगे-संबंधी किस तरह से पेश आ सकते हैं। यह किसी एक देश की सत्‍ता का चरित्र और किसी एक भूगोल का यथार्थ नहीं, बल्कि उसकी व्‍यापाकता सार्वभौमिक है। 

वे कहानियां जिनके मिजाज एक निश्चित भूगोल और समाज के यथार्थ के साथ एकाकार होने के कारण हिन्दी से भिन्न भी हैं, रचनाकारों के परिचय के तौर पर दर्ज बहुत सी बातें, पाठक को उसे अपने संदर्भों के साथ मिलान करते हुए पढने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।


इस ब्लाग के पाठक यह फख्र महसूस कर सकते हैं कि संग्रह की कुछ रचनाओं को वे बहुत पहले ही यहां भी पढ़ चुके होंगे। अभी उसी कड़ी को संभालते हुए यादवेन्द्र जी के चयन की दो बानगियां यहां अतिरिक्तं रूप से सांझा की जा रही हैं। संभवत: भविष्य की किसी पुस्तक में ये फिर से दिखायी दें।

अर्जेंटीना की कहानी

अनूठी आदर्श जोड़ी 

                     

   -- एंद्रेस नेओमान  (अर्जेंटीना)








 ( एक)

मेरा नाम मार्कोस है। मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है।  
पर ऐसा नहीं है कि मुझे क्रिस्टोबल कह  पुकार जाए इसकी मंशा है - वह मेरा दोस्त है ,जिसको मैं अपना  बेस्ट फ्रेंड कहता हूँ ... और कोई नहीं है मेरा बेस्ट फ्रेंड ,बस वही है। 
गैब्रिएला मेरी पत्नी है - वह मुझसे बेहद प्यार करती है ... पर सोती क्रिस्टोबल के साथ है। 
क्रिस्टोबल  इंटेलिजेंट है ,खुद पर भरपूर भरोसा है उसे और साथ साथ चुस्त तथा फुर्तीला डांसर है।उसको घुड़सवारी भी आती है ... और तो और वह लैटिन ग्रामर में उस्ताद है। रच रच कर लजीज़  खाना बनाता है जिसे औरतें बड़े चाव से खाती हैं। मैं कहूँगा कि गैब्रिएला उसकी फ़ेवरिट डिश है। 
जो सारे मामले को नहीं जानता वह सोच सकता है कि गैब्रिएला मुझसे धोखा  कर रही है पर सच्चाई इस से ज्यादा परे और कुछ  नहीं हो सकती   
मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है पर वहाँ सामने खड़े होकर टुकुर टुकुर ताकने के लिए नहीं। मैं भरपूर कोशिश करता हूँ कि और कुछ बनूँ पर मार्कोस न बनूँ। डांसिंग की क्लास जाता हूँ और किसी विद्यार्थी की तरह किताबों को छान मारता हूँ। मुझे भली तरह से एहसास है कि मेरी पत्नी मेरा बहुत सम्मान करती है .. इतना कि  वह बेचारी सोती मेरे नहीं  उस आदमी के साथ है बिलकुल जिसके जैसा मैं बनने  का यत्न करता रहता हूँ।क्रिस्टोबल के बलिष्ट सीने में दुबक कर मेरी गैब्रिएला हमेशा अधीर होकर आशाभरी नज़रों से मेरी ओर देखती है... दोनों बाँहें फैला कर। 
उसके अंदर का धीरज देख कर मैं रोमांच और उत्तेजना से भर उठता हूँ .... बस हरदम यही मनाता रहता हूँ कि उसकी उम्मीदों पर खरा उतर पाऊँ जिस से एकदिन हम दोनों का भी संयोग बैठे। वह इस अटल प्रेम को साकार रूप देने के लिए कितनी   लगन  से लगातार प्रयास कर रही है - क्रिस्टोबल की नजर से छुप छुप कर पीठ पीछे  उसके शरीर, स्वभाव और पसंद के बारे में गहराई से पता करती रहती है जिस से वह तब पहले की तरह ही मेरे साथ भी खुश और सहज बनी रहे जब मैं बिलकुल क्रिस्टोबल की तरह बन जाने में कामयाब हो जाऊँ - तब हमें उसकी दरकार नहीं रहेगी हम उसे अकेला उसके हाल पर छोड़ देंगे।    

(दो) 

यह याद रखने वाली बात है कि फूहड़पन कभी कभी जरूरत से ज्यादा समानता से  भी उपजती है। एलिसा और इलियास को देख कर यह बात कही जा सकती है - वे इसके बिलकुल उपयुक्त उदाहरण हैं। इनमें से एक अपनी बाँयी बाँह हवा में ऊपर लहराता है और दूजा दाँयी बाँह तब जाकर वे एक दूसरे को आलिंगन  में ले पाते हैं फिर भी जब वे एक दूसरे की बातें करते हैं तो लगता है जैसे उनके मन तन में कामोत्तेजना दहाड़ें मार रही हो। उन दोनों की आदतें बिलकुल एक समान थीं और अलग अलग घटनाओं पर भी राजनैतिक मतभेदों की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं दिखायी देती - झगड़ने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। संगीत दोनों एक ही सुनते और दोनों ठहाके लगा कर हँसते भी तो एक ही लतीफ़े पर।  जब वे किसी रेस्तराँ में खाने जाते तो बगैर दूसरे से  कुछ पूछे इनमें से एक ऑर्डर दे देता। कभी ऐसा नहीं होता कि उनमें से किसी एक को जिस समय नींद आ रही हो उस समय दूसरा नींद नहीं अलग मूड में हो और यह उनकी सेक्स लाइफ़ के लिए  बड़ा मुफ़ीद था हाँलाकि व्यावहारिक तौर पर इसके अपने नुकसान  भी थे - जैसे सुबह सुबह उठ कर पहले बाथरूम कौन जाये ....  या रात में फ्रिज में रखे  दूध का ग्लास पहले कौन पीने के लिए उठा ले ...  या कि पिछले हफ़्ते मिलजुल कर योजना बना कर खरीदा गया नॉवेल पहले कौन पढ़ कर ख़तम कर ले - इसको लेकर उन दोनों के बीच अदृश्य प्रतिद्वंद्विता रहती। सिद्धांत रूप में कहें तो एलिसा बगैर किसी अतिरिक्त  कोशिश के सेक्स में अपने ऑर्गैज़्म (चरम बिंदु) पर उसी पल पहुँचती जिस समय इलियास वहाँ कदम रखता पर व्यावहारिक जीवन में उन दोनों के शरीरों का एक समय में एक गाँठ में बँध जाना एकदम सहज  और अनायास था। उनके बीच इस तरह की समानता को देख कर एलिसा की माँ अक्सर कहती कि देखो लगता है दोनों जैसे एक ही संतरे की बीच से आधा आधा काट दी गयी दो फाँकें हों। जब भी वे यह कहतीं दोनों के गालों पर लाली छा  जाती और दोनों झुक कर एक दूजे को चूमने लगते। 
उस ख़ास उथल पुथल वाली रात एलिसा बिस्तर से उठ कर बीच सड़क पर जोर जोर से चिल्लाने को आतुर थी: मैं दुनिया में सबसे ज्यादा नफ़रत यदि किसी से करती हूँ तो वह और कोई नहीं तुम हो  ... हाँ ,तुम ... सिर्फ़ तुम। और इलियास था कि गुस्से में बोल वह भी रहा था पर उसकी आवाज़ एलिसा की चीख के सामने मामूली  और कमजोर थी सो अनसुनी रह जा रही थी। इसके बाद वे दोनों सोने की कोशिश करते रहे पर डरावने सपनों ने उन्हें चैन से सोने न दिया ... सुबह उठ कर  बगैर एक शब्द बोले पूरी ख़ामोशी के साथ उन्होंने नाश्ता किया और यह बातचीत करनी भी जरूरी न समझी कि इस घटना के बाद अब आगे क्या और कैसे करना है। शाम को जब एलिसा काम से घर लौटी और बैग में अपने सामान समेटने सहेजने लगी तो उसे पहले से आधा खाली वार्ड रोब को देख कर कोई अचम्भा नहीं हुआ। 
जैसा ऐसे मामलों में दो प्रेमियों के बीच आम तौर पर हुआ करता है , एलिसा और इलियास ने कई बार बीती बातों को भुला कर सुलह कर  लेने की कोशिशें कीं .... पर हुआ कि जब भी एक ने दूसरे से  फ़ोन पर बातचीत करने की कोशिश की उधर का फ़ोन हमेशा बिज़ी आया।इतना ही नहीं उन दोनों ने कई मौकों पर आपस में मिल बैठ कर आमने सामने बात करने की योजना बनाई पर यह सोच सोच कर कि दूसरे ने इस बात को खाम खा इतना तूल दे दिया और मिलने में इतनी देर क्यों लगाई , तय समय और स्थान पर मिलने भी नहीं गए - कोई एक नहींदोनों में से कोई भी नहीं गया।  
   
(स्पैनिश से निक केस्टर व लोरेंजो गार्सिया द्वारा किये अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित तथा ओपन लेटर द्वारा 2015 में प्रकाशित "द थिंग्स वी डोंट डू" संकलन से साभार) 

Sunday, July 22, 2018

जब रात है ऐसी मतवाली फिर सुबह का आलम क्या होगा


डा. रश्मि रावत


यह दुनिया जिसमें जो कुछ भी हलचल भरा है, वह पुरुषों की उपस्थिति से ही गुंजायमान दिखायी देता है। यहां तक कि दोस्तियों के किस्‍से भी। स्त्रियों की निरंतर, अबाधित, बेशर्त दोस्तियों के नमूने तो नजर ही नहीं आते, जहाँ वे एक-दूसरे के साथ जो चाहे सो कर सकें और कोई न उंगली उठाए और न बीच में आए बिना ऊँच-नीच सोचे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागिता कर सकें। सहेलियाँ ही नहीं, एक ही घर में पलने वाली बहनें भी शादी के बाद अलग-अलग किनारों पर जा लगती हैं और नई व्यवस्था से ही खुद को परिभाषित करती हैं। खुद अपनी ही पहली पहचान से एक किस्म का बेगानापन उनकी वर्तमान जिन्‍दगी का भारतीय परिवेश है। इसलिए विवाहित बहनें भी खुद को एक धरातल पर नहीं पातीं हैं। अपनेपन का, परस्परता का वह प्यारा सा साथ जो पिता के घर में मिलता रहा, प्रायः एक औपचारिक रिश्तेदारी में बदल जाता है। हाल ही में रिलीज हुई शंशाक घोष निर्देशित वीरे दि वैडिंग बॉलीवुड मुख्यधारा की सम्भवतः ऐसी ही पहली फिल्म है जो इन स्थितियों से अलग, बल्कि विपरीत वातावरण रचती है।  

फिल्‍म की चार सखियों के बीच बड़ी गहरी बॉंडिंग है। आपस में उन्मुक्त भाव से दुनिया से बेपरवाह हो कर ये सहेलियाँ मौज-मस्ती और मनमर्जियाँ करती हैं। फिल्म के नाम से ही जाहिर है कि इन मनमर्जियों में स्त्री-मन की अद्वितीयता और गहरी परतें नहीं मिलेंगी। बचपन से एक-दूसरे की मनमीत ये सखियाँ छाती ठोक कर अपने को वीरे जो कहती हैं। जीवन-भर साथ चलने वाले ऐसे गहरे याराने पुरुषों के बीच तो आम हैं और घर-परिवार-समाज में इस कदर स्वीकृत कि दोस्तों के बीच कोई नहीं आता। पुरूषों की दुनिया के ये दोस्ताने तो ऐसे सम्बंध तक स्‍वीकृत रहते हैं कि कई बार परिवार के दायरे तक पहुंच जाते हैं। सवाल है कि अटूट यारानों का बिन दरो-दीवार का ऐसा जीवंत परिवार क्या स्त्रियाँ नहीं बना सकतीं?


फिल्‍म में महानगर की चार आधुनिक स्त्रियाँ ऐसा खुला परिवार रचने की यात्रा पर जब निकलीं तो खुद को वीरे मान लेती हैं। वे नाम-मात्र की वीरे नहीं हैं, हर सुख-दुख में, रस्मों-रिवाजों के मॉडर्न रूपों को निभाने में एक-दूसरे के साथ खड़ी हैं। फिल्‍म में गाना बजता है-कन्यादान करेगा वीरा/मत बुलवाना डैडी। वीरा पूछ्यां क्या शादी का मीनिंग/ मैं क्या बेटा जेल हो गई।

दिक्‍कत यही है कि फिल्‍म इस तरह का सवाल खड़ा नहीं करती है कि कन्या क्या वस्तु है जिसे दान में दिया जा सकता है ? कन्यादान भी दोस्तों से ही करवा लेना चाहती हैं वे। कन्यादान की परम्परा की तह में जा कर सोचने के लिए फिल्म कोई राह नहीं बनाती है। अतः जिन प्रश्नों को इसमें उठाया गया है, वे स्त्रीत्व के विकास में क्या और कैसे जोड़ते हैं, इस पर चर्चा जरूरी हो जाती है।

स्त्रियों की आजादी में सबसे बड़ी बाधा सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जड़ें जमाए उसके संस्कार ही बनते हैं और ये बाधक समाज फिल्म में लगभग गायब सा है। चारों कथा पात्र ऐसे किसी भी सवाल कम से कम टकराती तो नहीं ही हैं।

मीरा सूद (शिखा तलसानिया) अमरीकन पुरुष से प्रेम विवाह करके एक बच्चे की माँ भी बन चुकी है। यह विदेशी पुरुष सत्तात्मक रोग से मुक्त है उसके भरोसे बच्चा छोड़ कर न केवल दोस्तों के साथ मौज की जा सकती है, वह एक संवेदनशील, समर्पित पति भी है। फिल्‍म में दिखाये गए इस संबंध को इस तरह भी व्‍याख्‍यायित किया जा सकता है कि शायद ऐसा भारतीय पति पाना मुश्किल रहा होगा तो मीरा के दिल के तार देश की सीमा को पार करके विदेशी धरती से जुड़े दिखाए गए हैं। जैसे-तैसे अल्हड़, स्वच्छंद याराना के बीच आ सकने वाली किसी भी अड़चन को काँट-छाँट दिया गया है कि सिर्फ इन चार महानगरीय बालाओं के आपसी खिलंदड़पने पर नजर रहे। इस तरह उन्मुक्त, बिना विचारे जिंदगी का लुत्फ लेते रहने से तो गलतियाँ होना लाजमी है। गलतियाँ होती हैं तो हों। यह तो टेक ही है फिल्म की। गाने में भी इस आशय की बात है।

कालिंदी पुरी (करीना कपूर), जिसकी वैडिंग के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है, उसकी माँ की भी यही सीख है कि बड़ों के लिए बाद में जो गलत साबित हो गया, उसे अपने लिए गलत मान कर जीना मत छोड़ देना। जो भी तुम्हें मन करे, सही लगे जरूर करना। तुम अपनी गलतियों से सीखना। स्त्री को भी प्रयोग करने का अधिकार है। गलती के डर से जिंदगी का अनुभव कोष खाली रखने के फिल्म सख्त खिलाफ है। यह फलसफा इसकी ताकत है। अपने आवेगों के प्रति ईमानदार रह क ही व्यक्ति समृद्ध होता है और समय के साथ परिपक्व होता है। गिरने के डर से सुरक्षा की खोल में दुबके रहने से जिंदगी की घुड़सवारी कैसे होगी। पर जीवन में सक्रिय हस्तक्षेप का संदेश उतनी खूबसूरती से संप्रेषित नहीं हो पाता। क्योंकि स्त्री देह पौरुष साँचे में ढल कर आई है। एक-दूसरे को  ब्रो(BRO)’ कहने वाले महानगरीय दोस्त जो-जो करते हैं, इन चारों आधुनिक स्त्रियों को सब कुछ वही-वही करना है। घटाघट पीना है, सिगरेट के धुँए उड़ाते जाना है, इरोटिक बातें, गाली-गलौज करनी हैं। किसी भी बात पर ठहर कर सोचे बिना उसे हँसी-मजाक, छेड़-छाड़ में उड़ा देना है। बारहवीं क्लास का अंतिम दिन शैंपेन पीते हुए ब्वाय फ्रैंड, सैक्स की बात करते हुए जिसतरह बिताते हैं। दस वर्ष की छलाँग के बाद जब कालिंदी की शादी के लिए दोबारा मिलते हैं, तब भी बातों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं दिखता। आवेगों और गलतियों से सीखने के लिए तो गलतियाँ और आवेग खुद के होने चाहिए। फिल्म के मिजाज को देखते हुए सामाजिक भूमिका को नजरअंदाज कर भी दिया जाए तो भी देह की संरचना बदलने से भी बहुत कुछ बदल जाता है। दिल चाहता है और जिंदगी न मिलेगी दोबारा फिल्मों में भी अलमस्त दोस्ती की मौज-मस्तियाँ हैं। उन्हीं मौजों में वे परिपक्व होते जाते हैं। कॉलेज के समय के अल्हड़ नवयुवक आगे चल कर जिम्मेदार, समझदार व्यक्ति में तब्दील होते हैं। जिंदगी न मिलेगी दोबारामें एक-दूसरे को उनके मन में बसे डर और बंधनों से मुक्त करने में तीनों दोस्त मददगार साबित होते हैं।वीरे दि वैडिंग में उम्र के साथ व्यक्तित्व में ऐसा उठान तो नहीं दिखता पर दुनिया में हर हाल में अपने साथ खड़े, बेशर्त स्वीकार करने वाले चंद लोगों के साथ होने का आत्मविश्वास लगातार जीवंतता को बनाए रखने और अपनी-अपनी कैद से मुक्त होने की राह जरूर बनाता है।

सगाई की पार्टी में चारों अपनी-अपनी उलझनों में इस कदर घिरी हुई हैं कि सब अपने-अपने द्वीप में कैद सी हो जाती हैं। दुनिया के सरोकारों से तो पहले ही कटे हुए से थे चारों। निजी समस्या के बढ़ने पर एक-दूसरे से भी कट जाती हैं। सच्चे दोस्त नजर नहीं आ रहे थे और फॉर्म हाउस में तड़क-भड़क, शोर-शराबे में होने वाली बेहद खर्चीली झूठे दिखावे वाली सगाई में अकेली पड़ कर दुल्हन को एहसास होता है कि उसे दिखावे के लिए शादी नहीं करनी और वह भाग जाती है और फिर एक-दूसरे की गलतियों के हवाले दे-दे कर थोड़ी देर चीखना-चिल्लाना, रूठना होता है। इस अवरोध को तोड़ता है करोड़पति बाप की बेटी साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर) का फोन और चारों निकल पड़ती है फुकेत में गलैमर से भरपूर मौज-मस्ती करने। फिल्म की कहानी के झोल कोई क्या देखे। स्त्रियों के लिए तो मात्र इतनी सी बात काफी रोमांच से भरी है कि एक सबके लिए दिल खोल कर खर्च करे और बाकि बेझिझक स्वीकार करके अकुंठ भाव से छोड़ दें खुद को जिंदगी के बहाव में। वहाँ झकास जगहों पर घूमते-फिरते-तैरते-खाते-पीते, हँसते-गपियाते अपनी वह बातें इतने सहज भाव से एक-दूसरे से बोल देती हैं, जिसने उन्हें भीतर ही भीतर अपनी गिरफ्त में लिया हुआ था। कोई किसी के लिए कभी जजमेंटल नहीं होता। हास-परिहास करते हैं, खुलेपन चुहल और छेड़-छाड़ करते हैं। किसी को कभी किसी भी दूसरे की बात इतनी गम्भीर, इतनी बोझिल नहीं लगती जिसके साथ जिया न जा सके। एक साथ बोलने-बतियाने भर से गाँठें खुल-खुल जाती हैं। एक दूसरे से दूर होने पर जिसे बोझ की तरह छाती पर ढो रहे थे। एक धरातल पर खड़ी चार जिंदगियाँ एक ताल पर एक साथ धड़क कर मानो अपनी धमक भर से उसे रूई की तरह धुन के उड़ा देती हैं। स्त्री की डोर स्त्री से जुड़ते जाने में ही स्त्रीत्व की शक्ति निहित है। यह बहनापा जिस दिन मजबूत हो गया स्त्री को कमतर व्यक्ति बनाने वाली पारम्परिक समाज की चूलें पूरी तरह हिल जाएँगी। हर स्त्री अपने-अपने द्वीप में कैद है, उनके बीच निर्बंध, निर्द्वंद्व आपसदारी के सम्बंध पुरुषों की तुलना में बहुत कम विकसित होते हैं इसलिए समाज में तमाम सामान्यीकरण, कायदे-कानून पुरुषों की अनुकूलता में विकसित होते हैं। पुरुषों की गलतियों पर उंगली नहीं उठाई जाती, उन्हें हर वक्त समाज की निगाहों की बंदिशें, बरजती उंगलियाँ नहीं बरदाश्त करनी पड़तीं। गलतियाँ करते हैं, उससे सबक ले कर अनुभव का दायरा विस्तृत कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन समाज की निगाहों में गलत एक कदम स्त्री के पूरे जीवन को प्रभावित करता है। फिल्म की ये चार स्त्रियाँ एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा न करतीं तो नामालूम सी बात की जीवन भर सजा भोगतीं और यह वास्तविक जीवन में होता भी है क्योंकि स्त्री को कॉमन प्लेटफॉर्म नहीं मिल पाता। हालांकि सशक्त कहानी न होने के कारण बातें असंगत लग सकती हैं कि ये कैसे सम्भव है किसाक्षी जैसी अमीर, मॉडर्न, पढ़ी-लिखी बोल्ड लड़की अपनी यौनिकता की पूर्ति करने के लिए इतना अपराध बोध पालेगी कि सबके ताने झेलती रहे और किसी से कुछ भी न कह पाए, उसकी शादी टूट जाए और उसका नकचढ़ा पति उसे इस एक्शन के लिए ब्लैकमेल करता रहे कि यदि उसे 5 करोड़ न दिए तो वह सबको बता देगा। ऐसे ही आत्मविश्वास से भरी मीरा बच्चे होने के बाद आए मोटापे और शारीरिक बदलावों के कारण दाम्पत्य रस खो दे। दिल्ली जैसे महानगर में वकील सुंदर, स्मार्ट अवनि शर्मा ( सोनम कपूर) अपने लिए उपयुक्त जीवन साथी न खोज पाने और माँ की शादी की रट और उम्र निकली जा रही के बारम्बार उद्घोष से घबरा जाए और कालिंदी तो प्रेम और विवाह के द्वंद्व से हैरान-परेशान है। वह अपने प्रेमी ऋषभ मल्होत्रा से अलग भी नहीं रह सकती और शादी में बँधना भी नहीं चाहती।  पारम्परिक समाज में स्त्री के शोषण की आधार भूमि ही बनता है परिवार तो डर लाजमी भी है। बहनापे की यह डोर कुंजी बनती है जिंदगी में जड़े तालों को खोलने के।


अनगढ़ स्क्रिप्ट और अपरिष्कृत ट्रीटमेंट के बावजूद फिल्‍म से यह संदेश तो साफ मिलता है कि स्त्री के साथ स्त्री का साथ होने मात्र से जिंदगी में बेवजह आने वाली चुनौतियाँ अशक्त हो कर झड़ जाती हैं। समय के साथ स्त्री जब अपने खुद के वजूद के साथ अपने ही साँचे में सशक्त ढंग से बहनापे के रिश्ते बनाएंगी, न कि वीरे के, तब उसमें जिंदगी की वो उठान होगी, आनंद की ऐसी लहरें होंगी कि जिंदगी सार्थक हो उठेगी और वह समाज की एक महत्वपूर्ण कड़ी बनेगी। तब वह अपनी देह के रोम-रोम से जिएगी। इस फिल्म के किरदारों के आनंद के स्रोत तो मुख्य रूप से दो अंगों तक सिमट कर रह गए हैं। जबकि स्त्री के अंग-अंग में सक्रियता की, सार्थकता की अनेकानेक गूँजें छिपी हैं। सदियों के बाद तो स्त्री को ( फिलहाल छोटे से तबके को ही सही) अपने खुद के शरीर पर मालकियत मिली है। उसके पास अवकाश है। मास-मज्जा की सुंदरतम सजीव कृति को वह अपने ढंग से बरत सकती है। क्या न कर ले इससे। रोम-रोम से नृत्य, खेलना-कूदना, दौड़ना-भागना, पहाड़ों की चोटियाँ लाँघना, पानी की थाह पाना, झिलमिलाते तारों का राज खोजना, अपनी ही साँसों का संगीत सुनना, गति-स्थिति, वेग-ठहराव......हर चीज का एहसास करना। अपनी सचेतन जाग से सोई हुई सम्भाव्यता को जगा भर लेना है, जो सचमुच के ‘वीरे नहीं समझ पाएँगे, क्योंकि उनके पास यह शरीर और ये मौके हमेशा से उपलब्ध थे। उन्हें स्त्रियों की तरह अनथक कोशिशों से इन्हें अर्जित नहीं करना पड़ता।


Thursday, July 12, 2018

जेल के अन्दर एक जेल होती है जिसे तन्हाई कहते हैं


सिर्फ आँसुओं की बोली बोलने वाली, चकड़ैतों की साजिश की शिकार तमिलनाडु की मूल निवासी किरदेई कबाड़ बिनने के काम से अपना जीवन यापन करती थी। चौंकिए नहीं कि सरकारी कागजों में किरदेई के नाम से जानी गई इस स्‍त्री का वास्‍तविक नाम कुछ और रहा। भिन्‍न भाषी प्रदेश में तमिड़ जुबान बोलने वाली किरदेई कैसे बेजुबान सी हो गई यह उसकी दास्‍तान का दूसरा पीडि़त पक्ष है। इस महिला की कहानी रोंगटे खड़ी करने वाली है।

दिल दिमाग को झकझोरने वाली यह कहानी महिला समाख्‍या की बेहद सक्रिय साथी कुसुम रावत की जिंदगी का भी सुंदर पाठ और कड़वा सबक है। कुसम रावत का मानना है कि किरदेई की पीड़ा ने उन्‍हें मजबूत बनाया है। कानूनी षडयंत्रों को समझने का मौका दिया है। कुसम रावत कहती हैं, ‘’साथ ही कानूनी मकड़ जाल को तोड़ने की थकने-थकाने वाली कोशिश ने मेरा ‘सत्य’ पर भरोसा मजबूत किया। किरदेई की आँसुओं की धार ने मेरी अंतर्यात्रा को नया ठौर दिया। किरदेई ने ही मुझे परमात्मा का बोध कराने वाली ‘नई सड़क’ का पता बताया। किरदेई ने समझाया- कुसुम सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय में क्या अंतर है? और कैसे धैर्य धारण कर निर्भय मन से की गई विवेकी सामूहिक कोशिशों से सत्यमेव जयते जमीन पर उतरता है? नहीं तो मेरी क्या ताकत थी- नारकोटिक्स एक्ट में फंसी मुजरिम को छुड़ाने की- जो अपना गुनाह कबूल चुकी हो।‘’ कुसुम रावत की जुबानी ही पढ़ते हैं किरदेई कथा।

एक थी बेगुनाह किरदेई


कुसम रावत

मैं किरदेई को भूल गई थी। अचानक 17 साल बाद अपने100 साल के बूढ़े गुरुजी के शब्द मेरे जुहन में आकार लेते हैं, जेल के अन्दर एक जेल होती है जिसे तन्हाई कहते हैं...’एक दिन युगवाणी के सम्पादक संजय कोठियाल से बात करते हुए नई टिहरी जेल में कैद किरदेई मेरे खामोश अन्तर्मन में एक यक्ष प्रश्न के साथ फिर से आ खड़ी हुई,जेल से छूटने पर कोर्ट कंपाउंड में सूनी आँखों से आसमान को ताकती अपने इन आखिरी आखरों के साथ- मैं काम की तलाश में तमिलनाडू से दिल्ली आई थी। पर वक्त ने मुझे टिहरी जेल पहुंचा दिया। मैं जेल में इसलिए रोती थी कि मैं बेगुनाह हूँ। आज मैं खुशी में रो रही हूँ। मुझे यकीन नहीं कि हो रहा है कि मैं जेल की तन्हाईयों से आजाद हो खुले आसमान के नीचे सांस ले रही हूँ। क्या मैं वास्तव में छूट गई हूँ? कहीं फिर से कोई मुझे कहीं और ना फंसा दे?मैं अब दिल्ली ना जा सीधे अपनी माँ के पास जाऊंगी। लोग परदेश में औरतों के साथ किसी न किसी तरह ऐसे ठगी करते हैं कि औरत निर्दोष होते हुए भी ऐसे फंस जाती है कि उसे खुद को बेगुनाह साबित करना मुश्किल हो जाता है?यह ईश्वर की कृपा और कुछ औरतों का सहयोग था कि मैं निर्दोष करार दी गई...। यह महज संयोग है या कुछ और?पर कुछ तो जरूर है किरदेई कथा में।
सन् 2001 की बात है। मैं महिला समाख्या टिहरी में थी। राधा रतूड़ी कुछ दिन पहले ही कलक्टर बन टिहरी आई थीं। एक दिन वे सपाट शब्दों में बोलीं- कुसुम भारत सरकार ने 2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष घोषित कर साल भर जिला प्रशासन से ठोस जमीनी काम की अपेक्षा की है। हम तुम्हें नोडल आफिसर बना रहे हैं। तुम हमारी ओर से कमान थामो। हमें तुम पर पूरा भरोसा है। तुम्हारा अनुभव काम आयेगा।
मैं चुप रही। मेरी दिक्कत थी- मेरी निदेशक बड़े उलाहने देतीं- तुम हमेशा फालतू कामों में उलझी रहती हो। हम एक दिन तुम्हारी गर्दन उड़ा देंगे।
निदेशक मेरी अच्छी मित्र थीं। कलेक्‍टर जो जिम्‍मेदारी मुझे दे रही थीं, वह एक दिन की बात नहीं थी। मामला पूरे साल का था। कलक्टर अड़ी रहीं। कलक्टर का व्यकितत्व और स्वभाव कुछ ऐसा था कि मैं सोचने लगी क्या करूं? खैर मैंने दो दिन का वक्त मांगा। काम काफी मुश्किल था। हजारों साथिनों की बेहद अच्छी, प्रतिबद्ध, ईमानदार टीम मेरे साथ थी। एक आवाज पर मरने-मिटने वाली ऐसी जुझारू टीम किस्मत से बनती है। सबने आश्‍वस्‍त किया, दीदी फिकर नाट! निदेशक को आप मना ही लोगे। ये काम हमारे टिहरी जिले की औरतों के लिए उपयोगी होगा। फिर एक महिला कलक्टर के शब्दों की गरिमा का सवाल भी है। मैंने कलक्टर को हाँ कर दी। साल भर की ठोस कार्ययोजना बनाकर मैं और मेरी सहकर्मी गुरमीत कौर कलक्टर को मिले। कुछ ऐसा खाका तैयार किया कि वह हमारे रूटीन काम के साथ फिट हो। हमारा कार्यक्षेत्र सिर्फ 4 ब्लाक थे। बाकी जगह जिला प्रशासन थामेगा। वहाँ हम रणनीतिकार,रिसोर्स पर्सन और दस्तावेजीकरण की भूमिका में होंगे। हाँ मैं समन्वय पूरे जिले में करूंगी।
समाज के हर वर्ग के साथ महिला मुद्दों पर बात करना तय हुआ। हमें साल भर में सब तक पहुँचना था। कुछ महिला मुद्दों का चयन कर हमने रातों-रात रोचक प्रचार-प्रसार सामग्री बनाई। कलक्टर हमारे साथ दिन-रात मेहनत करतीं। मेरे कार्यालय आकर हमारा हौसला बढ़ातीं। 1 मार्च2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष की शुरूआत पूरे जिले में एक साथ हुई। मुझे याद है सैंट्रल स्कूल नई टिहरी का प्रांगण- जब शुरूआती कार्यक्रम के बाद स्कूल प्रांगण से कलक्ट्रेट तक पहली रैली निकली। शायद देश में यह अपनी तरह का यादगार मौका होगा- जिसमें जिले की कलक्टर खुद , राधा रतूड़ी, ने बैनर पकड़ महिला सशक्तिकरण रैली की अगुवाई की। जिले भर के सरकारी अधिकारी, स्वयं सेवी संस्थाएँ और समाज के हर वर्ग के हजारों लोग कार्यक्रम का हिस्सा रहे।
इसी क्रम में 7 मार्च को जेल कैदियों के साथ महिला मुद्दों पर कैदियों की सोच... पर एक गोष्ठी थी। मुझे लखनऊ जाना था पर एक दिन पहले स्कूली कार्यक्रम में पाँव में मोच आ गई। मेरा पाँव बहुत सूज गया। सो लखनऊ ना जा मैं नई टिहरी जेल पहुँची। एस.डी.एम. विष्णुपाल धानिक साथ थे। अचानक मेरी नजर कैदियों की भीड़ में किनारे बैठी महिला कैदी पर पड़ी। वह एक किनारे खड़ी थी। हर बात से बेपरवाह वह औरत बरबस ही मेरे आर्कषण का केंद्र हो गई। कुछ ऐसा था उसकी आंखों में, वह मेरे दिल में उतर गई। मैं एकटक उसे देखती रही। उसकी सूरत मुझे आज भी याद है- एकदम झक सफेद बाल, घुटनों तक चढ़ी छींटदार हल्की हरी धोती, पुरानी पतली चिंथड़ेनुमा काली शाल लपेटी, डरी-सहमी, गठीले बदन की 65-70 साल की एकदम स्याह काली शक्ल की दक्षिण भारतीय औरत। उसका झुर्रीदार चेहरा अपमान के दंश से क्लांत था। चेहरे पर गुस्सा साफ छलक रहा था। चिंदी सी छोटी आँखें हमें घूर कर चीरने की कोशिश में थीं। आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। धानिक जी मजिस्ट्रेटी अंदाज में बोले- मैडम ये तमिलनाडू की स्मगलर है। नारकोटिक्स एक्ट में 5-6महीनों से बंद है। इसे सजा होने ही वाली है। मैंने पास जाकर किरदेई को गौर से देखा। उसकी आँखें व चेहरा बता रहा था- वह बहुत कुछ बोलना चाह रही है पर उसके होंठ सिले हैं। वह चेहरा मैं कभी नहीं भूल सकती। वह हिंदी-अंग्रेजी कुछ नहीं जानती थी। कानूनी कागजों में उसे गूंगी बहरी बनाकर जुर्म कबूल करवाया जा चुका था। धानिक जी ने बताया- प्रशासन और वन विभाग के लोगों की बहादुरी से एक भांग के स्मगलगर गैंग को पकड़ा गया है। यह औरत किरदेई गैंग लीडर है, सो इसकी जमानत नहीं हुई। बाकी 4 जमानत पर छूट गये हैं। धानिक जी बड़े खुश थे- गोया कितनी बड़ी बात बोल रहे हों। कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा- मुझे नहीं लगता यह स्मगलर है । कहीं जरूर कुछ बड़ी गड़बड़ है  आप इसकी शक्ल देखो, क्या ये स्मगलर लगती है? इस वक्‍त मेरे पास किरदेई का कोई साफ फोटो नहीं पर किसी पत्रिका में छपी बड़ी मुश्किल से मिली एक तस्वीर है। आप उसके चेहरे को देखकर खुद तय करें क्या किरदेई स्मगलर हो सकती है
गोष्ठी के बाद किरदेई जेल में बने छुटके से शिव मंदिर के पास खड़ी हो गई। उसके साथ बंदी रक्षक प्रेमा देवी थी। मैं कभी नहीं भूलती हूँ कि किरदेई कैसे एक टांग पर खड़ी आसमान की ओर शून्य में ताक रही थी। उसके हाथ जुड़े थे, उस अदृश्य ताकत के लिए- जिसे लोग भगवान कहते हैं। किरदेई की आँखें बंद थीं। आँखों से बह रही आँसुओं की धार रुक नहीं रही थी। वह ऊँ नमः शिवाय.... बुदबुदा रही थी। मैं अंदर से हिल गई। मैंने प्रेमा को पूछा- जो अनजान मुल्क में जेल की ऊँची दीवारों के बीच आँसुओं के अलावा बेजुबान किरदेई की एकमात्र साथी थी। दयालु प्रेमा ने ही अजनबी माहौल में हौसला और अपनापन देकर चारदीवारी में कैद किरदेई को बार-बार टूटने से बचाया- सिर्फ दिल की संवेदनाओं और आँखों की मौन भाषा से।
किरदेई ने मुझे घृणा और अविश्वास से घूरा- जैसे मैं भी कोई नया षडयंत्र करने आई हूँ। वह झटके से परे हट फिर से महादेव की साधना में लीन हो गई। उसकी उपेक्षा भरी नजर ने मेरे विश्वास को और मजबूत किया कि गोया कुछ तो जरूर गलत है। जेलर श्री दिवेदी और प्रेमा ने मिली जानकारी से मुझे मालूम हुआ कि किरदेई यहाँ महीनों से कैद है। वो ना कुछ बोल पाती है, ना हम कुछ समझ पाते हैं। वो कई-कई दिनों तक खाना नहीं खाती। कभी चप्पल नहीं पहनेगी। कभी सर्द ठंड में गरम कपड़े नहीं पहनेगी। जेल में सब किरदेई से सहानुभूति रख रहे थे। लेकिन उनके पास किरदेई के बाबत कोई ज्‍यादा जानकारी नहीं थी। कह रहे थे, हमारी दिक्कत है कि हम इससे बोल नहीं सकते। इसे समझा नहीं पाते कि हमें तुमसे सहानुभूति है। वो दिन रात इसी शिव मंदिर पर एक टांग पर खड़े हो रोती रहती है। बस एक ही शब्द हमने समझा- ऊँ नमः शिवाय। यह यूं ही बस ऊँ नमः शिवाय बुदबुदाते सूनी आँखों से आसमान में ताकती रहती है।
प्रेमा मेरे नाम और काम से परिचित थीं, उसी दौरान प्रेमा ने कहा- क्या आप वही कुसुम रावत हो जिसने महिला कैदी बलमदेई और कमला को छुड़ाया था? मैंने कहा हाँ। प्रेमा शिवालय पर गहरी श्रध्दा में माथा टेक संतुष्टि से बोली। हे प्रभु अब तो किरदेई जरूर छूट जाऐगी। प्रभु आपने ही कान्वेंट की नन लोगों की प्रार्थना पर कुसुम को जेल भेजा। मैं कुछ नहीं समझी। उसके बाद जो कुछ प्रेमा ने कहा वो बड़ा हैरान करने वाला सत्य है- नई टिहरी कान्वेंट की सिस्टर्स हर रविवार को कैदियों के साथ प्रार्थना करने जेल आती हैं। वो प्रार्थना के बाद बुदबुदाती हैं- हे यीशू कुसुम रावत को जेल भेज दो। हमें पहले कुछ समझ नहीं आया। बाद में पता चला कि सिस्टर लोग आपको जानते हैं। वे लोग ये भी जानते हैं कि आपने बलमा और कमला की मदद की। सो हर रविवार दिल पर क्रॉस बना इस बेचारी को ढांढस देते हैं कि- तू जरूर छूटेगी। यह सिलसिला कई महीनों से चल रहा है। मैं और धानिक जी हैरान रह गये। तो क्या सच में किसी दैविक प्रेरणा से कलक्टर राधा रतूड़ी ने मुझे यह काम सौंपा? और मैं लखनऊ के बजाए आज जेल में हूँ? खैर प्रेमा की बात को परमप्रभु का आदेश समझ मैंने तय किया- किरदेई की मदद करनी है पर कैसे? क्योंकि इसे सजा होने ही वाली थी- वो भी एन.डी.पी.एस.एक्ट में। कलक्टर बाहर थीं, नहीं तो उस दिन जरूर पंगा होता।
मैं सीधे कान्वेंट स्कूल गई। सिस्टर बोलीं- कुसुम किरदेई के आँसुओं और प्रार्थना में गजब की ताकत है। एक दिन हम अचानक जेल गए थे। किरदेई को देखकर हम रो पड़े। उसी दौरान तय किया कि हम हर इतवार को जेल में प्रार्थना करेंगे। यीशू ने ही तुम्हारे दिल में यह प्रेरणा भेजी है। हृदय पर क्रास बना सिस्टर बोलीं- अब ये जरूर छूट जाऐगी। गोया जैसे मुझे कोई वरदान मिला हो औरतों को जेल से छुड़ाने का। मैं दुखी मन से घर गई। किरदेई की पीड़ा महसूस कर मैं कई रात सो ना सकी। सब मुझ पर बहुत हँसते। कोई मुझे पागल ठहराता। मैंने सरकारी वकील से बात की। वह तो आग बबूला हो गये। अरे आप इसे कैसे छुड़ा सकते हो? यह तो स्मगलर है। बाकी मुजरिमों के वकील ने भी बड़ा हतोत्साहित किया। मैंने मामले की हकीकत जाननी चाही। अब मैं किसी तमिलभाषी की तलाश में थी, जो मुझे बता सके कि बात क्या है? अगले दो दिन में हजारों फोन करने के बाद सैंट्रल स्कूल नई टिहरी में तैनात प्रवक्ता हरेन्द्र सिंह ने बताया कि वहीं तैनात टीचर सुनीता वी.कुमार कभी मद्रास में रही हैं। वो तमिल जानती हैं। ईश्वर ने पहली सफलता दी इस राहत भरी खबर के साथ।
होली का दिन था। मैं कभी किसी की बाईक में नहीं बैठी,पर उस दिन ये भी किया। हरेन्द्र ने दो बाईकमैन तैयार किये जो होली खेलने के बजाय मुझे और सुनीता को जेल ले गये। किरदेई का सुनीता से मिलना वरदान साबित हुआ। तमिलभाषी सुनीता को पाकर बेजुबान किरदेई को मानो जुबान मिल गई। पहले तो वह बहुत चिढ़ी पर बाद में उसकी शक भरी निगाहों में मेरे लिए थोड़ा सा भरोसा भी पैदा हुआ, मैं उसकी आंखों में उस भरोसे को पढ़ सकती थी। वह घंटों रोती रही।
सुनीता बड़े धैर्य से किरदेई का हाथ पकड़कर चुपचाप उसे सुनती रही। वह उसे चुप कराती, पानी पिलाती। उसका हाथ सहला ढांढस बंधाती कि फिक्र ना करो। कुसुम को देख डरो मत। ये मेरी दोस्त है। ये तुम्हारी मदद करना चाहती है। तुम सब सच-सच बताओ। किरदेई की महीनों की घुटन उन चार घंटों में सुनीता से बात कर खत्म हुई। सुनीता ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया। किरदेई का सच जानकर मैं ही नहीं पूरा जेल स्टाफ हैरान था। पर लाख टके का सवाल अब भी था कि किरदेई को निर्दोष साबित करें तो कैसे? सुनीता के मुताबिक किरदेई की जुबानी कुछ यूं थी-  
‘’मेरा नाम करपाई है। मैं तमिलनाडू के डंडीकल जिले के चिन्नालपेटी गाँव की हूँ। मेरी उम्र लगभग 65 साल है। मुझे नहीं मालूम किसने मुझे कोर्ट के कागजों में कब और क्यों कैदी किरदेई बना दिया? मेरा एक भरा पूरा परिवार है। घर में मेरी माँ और छोटी बहन है। मेरी शादी 15 साल की उम्र में तय हुई। पर पिता की अचानक मौत ने मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी डाल दी। मैंने शादी ना करने का फैसला लिया। मैं माँ और बहन की जिम्मेदारी उठाने लगी। मैं कभी स्कूल नहीं गई। हमारी जिंदगी ठीक ठाक चल रही थी। अचानक मेरी किस्मत ने पलटा खाया। हुआ यूं कि- एक दिन खाना खाते वक्त मेरा छोटी बहन से किसी बात पर झगड़ा हो गया। माँ ने भी बहन का साथ दिया। मैं गलत नहीं थी। मुझे उस झगड़े से ज्यादा माँ-बहन के व्यवहार ने आहत किया। मैंने खाना छोड़ा और तय किया कि अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी। मैं काम की तलाश में परदेश जाऊंगी। यहाँ पर काम का दाम कम मिलता है। जो रोज की चिख-चिख का कारण है। माँ-बहन के व्यवहार ने मुझे अंदर से तोड़ दिया था। मैं सोचती रही- इनके कारण मैंने अपनी शादी तोड़ी, आजीवन अकेली रही। जो कमाया इनकी जिम्मेदारी उठाई और आज ये ऐसा व्यवहार कर रहे हैं? आखिर मेरा भी तो आत्म सम्मान है। पर मुझे नहीं मालूम था औरतों का आत्म सम्मान तो हमेशा गिरवी रहता है- कभी पिता, भाई,पति की चैखट पर तो कभी समाज के दरिन्दों के पास?’बड़ी उधेड़बुन के बीच मैंने इस उम्र में घर की चौखट छोड़ दिल्ली जाना तय किया। मैंने पड़ोस के गाँव के सेल्वम से बात की। उसका परिवार हमारा पुराना परिचित था। सेल्वम परिवार के साथ दिल्ली रहता था। सेल्वम ने मुझे भरोसा दिया। आँसुओं की धार के बीच किरदेई बोली- बस मैं ऐसे काम की तलाश में 6 साल पहले दिल्ली आ गई। पर दिल्ली आ मेरे सपनों को ग्रहण लग गया। परदेश में अकेली औरत कितनी लाचार होती है? ये मैंने तब समझा जब मैं तमिलनाडू से नई टिहरी जेल की सलाखों के पीछे पहुँची। पर क्यों?
‘’मैं सेल्वम के परिवार के साथ दिल्ली में पपनकला बस्ती में रहती थी। कुछ घरों में झाडू पोछा करने के बाद बचने वाले समय में मैं कबाड़ा बीनती। कबाडे़ से रोज 50-60रूपये कमा लेती। झाडू-पोछा की आमदनी अलग थी। मैं सारा पैसा सेल्वम के पास जमा करती। मेरा रोज का खर्च10-15 रूपये से ज्यादा ना था। मैंने सोचा घर जाते वक्त सारा पैसा एक साथ लूंगी। माँ और बहन इतना पैसा देख खुश हो जायेंगे। मुझे दिल्ली में 6 साल हो गये। सेल्वम जुआरी था। उसे नशे की लत थी। वह घर में मारपीट करता। मैं परिवार की जरूरतों पर पैसा खर्च करती। बच्चों की देखरेख करती। मेरा 15-20 हजार से ज्यादा पैसा सेल्वम के पास जमा था। मैं जब पैसे मांगती, वह टालता। हमारी कई बार लड़ाई होती। बाद में मैंने पैसे देने बंद कर दिये। मैं सेल्वम के सिवा किसी को नहीं जानती थी। सो चुप रहना मेरी मजबूरी थी। एक दिन वह बोला मेरे साथ टिहरी चलो। वहाँ डाम बन रहा है। वहाँ बहुत कबाड़ा मिलता है। खूब पैसा कमायेंगे। वहीं तुम्हारा पैसा भी लौटा दूंगा।
‘’सेल्वम हम चार पाँच लोगों को टिहरी लाया- किसी चिरबटिया नाम की जगह पर। चिरबटिया से घनसाली तक मेरा सेल्वम से पैसों को लेकर खूब झगड़ा हुआ। मैं उसकी हरकतों से समझ गई थी कि यह किसी और वजह से यहाँ आया है। सेल्वम चिरबटिया के स्थानीय लोगों के साथ मिल कर भांग की पत्तियों की स्मगलिंग करता था।‘’  
सेल्‍वम किरदेई को वाहक की तरह प्रयोग करना चाहता था। 11 नवंबर 2000 को किरदेई के दुर्भाग्य की कहानी शुरू हुई। घनसाली में वन विभाग और राजस्व कर्मियों ने जंगलात की चैक पोस्ट पर बस संख्या- यू.पी. 08-2377की तलाशी ली, बस की छत से बिस्तरबंद, बोरियाँ, बैग,वी.आई.पी. की अटैचियाँ बरामद कीं। सामान के साथ किरदेई और 4 लोग भांगपत्ती रखने के जुर्म में एन.डी.पी.एस. एक्ट में गिरफ्तार कर नई टिहरी जेल पहुँचा दिये गये। आश्चर्यजनक तौर पर सेल्वम गिरफ्तार लोगों में नहीं था। ना ही यह सामान किरदेई से बरामद किया गया था।
हैरानी की बात थी कि किरदेई के साथ गिरफ्तार 4 लोगों की जमानत हुई। जेन से छूटकर वे अपने देश चले गये। रह गई अकेली बूढ़ी किरदेई- अनजान देश में अजनबी लोगों के साथ जेल की चारदीवारी के बीच।
‘’मैं भाषा से लाचार थी। मैंने इशारों और आँसुओं से बोलने की कोशिश की कि यह मेरा सामान नहीं है। मुझे फंसाया जा रहा है। पर किसी ने मेरी ना सुनी। सिर्फ मेरे आँसू मेरे साथी थे। मेरा भगवान- जेल की ऊँची दीवारें और बंदी रक्षक प्रेमा देवी। मुझे नहीं मालूम था कि मेरा जुर्म क्या है?क्यों नहीं कोई मेरी बात सुनता है? मैंने आज तक किसी का दिल नहीं दुखाया। कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया। कभी चोरी नहीं की, कभी झूठ नहीं बोला। मैंने जिंदगी भर जड़ी बूटियां देकर हजारों बच्चों और औरतों की जान बचाई। मैंने कभी इस काम का पैसा नहीं लिया। तुम ही बोलो सुनीता क्या मैं कभी ऐसा काम कर सकती हूँ? ‘’
बोलते-बोलते वह जोर-जोर से चीखने लगी। मैं और दयालु सुनीता कई बार जेल आए। कभी-कभी वह मुझ पर बुरी तरह बिगड़ पड़ती कि आखिर मैं क्यों उसे तंग कर रही हूँ?पूरी जानकारी लेकर मैंने अपनी रणनीति बनाई। मुझे पागल कह हंसने-डराने वालों की कमी ना थी। हरेन्द्र और सुनीता हर वक्‍त मेरी मदद के लिए तैयार मिलते। यह बड़ा सहारा था।
सरकारी वकील और सेल्वम एण्ड कम्पनी के पैरोकार बेहद नाराज थे। वे किसी तरह से किरदेई को मुजरिम करार कर असली मुजरिमों को बचाने के जोड़ तोड़ में लगे थे। मैंने हिम्मत नहीं हारी। मेरे साथ महिला समाख्या टीम चट्टान की तरह खड़ी थी। किरदेई का चेहरा मुझे रात को सोने नहीं देता। भगवान बड़ा दयालु है। उसी दिन शाम मुझे अचानक किसी मित्र ने फोन पर कहा कि मैं किरदेई केस में तुम्‍हारी मदद कर सकता हूँ। अगली दो छुट्टियों में मैं तुझे उसकी फाईल ला दूंगा। तू पढ़ और देख क्या हो सकता है? इसे फंसाया गया है। किरदेई से कोर्ट में भी लोग सहानुभूति रखते थे। पर कोई कानूनी दावपेंचों और षडयंत्रों के बीच उलझना नहीं चाहता था। मेरा यह मित्र सालों से मुझसे बहुत नाराज था कि मैंने बलमदेई को जेल से क्यों छुड़वाया? मेरे को तो यकीन ना हुआ। मैंने सोचा आज भाई जी ने जरूर कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली होगी? तब तक टिहरी में खबर आग की तरह फैल गई थी कि कुसुम किरदेई का केस लड़ रही है। मेरा सर ईश्वर के चमत्कार के आगे शिद्दत से झुक गया, जब भाई जी ने अपनी नौकरी की परवाह ना कर मेरे हाथ में चुपचाप फाईल रख दी। मैंने रात भर फाईल पढ़ी। कुछ बेहद जरूरी बातें समझ आईं कि- हाँ यह केस पलटा जा सकता है। इसमें बहुत कमियाँ हैं।
फाइल से नोट्स बनाकर अपनी एडवोकेट दोस्त मृदुला जैन से मिली। दीदी ने बलमदेई सहित मेरे कई और केस फ्री में लड़े थे। वह हमेशा हमारी मदद करतीं। पहले तो दीदी ने हमेशा की तरह डांटा। पहले तो नारकोटिक्स एक्ट का डर दिखाया। पर मैं टस से मस ना हुई। कारण- किरदेई ना तो इस मुल्क की थी, ना उसे कोई यहाँ जानता- पहचानता ही था। किसी को उसकी परवाह नहीं थी। उसके घर वालों तक को पता नहीं था कि वह जेल में है। और तो और उसका तो नाम भी जेल दस्तावेजों में गलत लिखा था। मैंने मृदुला दी को धमकी दी- दीदी मुझे केस तो लड़ना ही है। आप चाहे मदद करो या नहीं। पर उसकी नौबत नहीं आई। दीदी को छोड़ हम कहाँ जाते? वो बड़ी दयालु हैं। रात को उनका फोन आ गया कि कुसुम मैं केस लड़ूंगी। तू वकालतनामा साईन करा ले। यह दूसरी जीत थी।
अब नई महाभारत थी- किरदेई से कागज पर अगूंठा लगवाना। उसे यह भरोसा देना कि हम सच में उसके दोस्त हैं। इन हालातों में किरदेई को कानूनी मदद से ज्यादा जरूरत थी- मानवीय संवेदनाओं, भावनात्मक सहारे,अपनेपन, एक अजनबी माहौल में भरोसे की, जो हम उसे अलग-अलग तरीके से देने की कोशिश कर रहे थे। मैं,सुनीता और गुरमीत बार-बार जेल जाते। हमारी कोशिशों में साझीदार थी- बंदी रक्षक प्रेमा देवी। प्रेमा ने किरदेई को मौन भाषा में समझाया कि कुसुम तेरी मदद करना चाहती है। तू अंगूठा लगा दे। वह बुरी तरह चिढ़ती, बैरक में चली जाती।
वह रात मैं कभी नहीं भूलती। बाहर बहुत ठंड थी। हड्डियाँ काँप रही थीं। मेरा ड्राईवर प्रमोद पंत बड़ा नेक लड़का था। हर वक्त काम को हाजिर। शहर में रोशनी गायब थी। खूब आंधी तूफान उस दिन चला था। उसी दौरान जब कलक्टर राधा रतूड़ी लखनऊ से लौटीं थीं। वह लगभग आठ बजे पहुँची। मैंने भी पूरी बेशर्मी से रात में ही उनसे मिलने की ठानी। सोचा, थोड़ा-बहुत डांटेगी, या ज्यादा से ज्यादा मना कर देंगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कलक्टर सर्दी से कांप रही थीं। मैंने कई मोमबत्तियों की रोशनी में उनको कोर्ट की फाईल दिखा कहा- राधा दी यह अन्याय है। मैंने फ्री पैरवी हेतु वकील भी तैयार कर ली है। अपनी अल्प बुदधि से मैंने कलक्टर को समझाया कि केस में क्या-क्या कमियाँ हैं। केस का दिलचस्प पहलू था कि बरामदगी तो बस से भांग की पत्तियों की हुई पर फोरेंसिक रिपोर्ट में बरामद सामग्री को गांजा बताया गया था। ऐसा क्यों? इनके अलावा 10-12 ऐसे चैंकाने वाले तकनीकि बिन्दु थे, जिन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि किरदेई बेगुनाह है।
कुछ सवाल मैंने क्‍लेक्‍टर के सामने रखे-
खचाखच भरी बस में भांग की बरामदगी हुई पर बस सीज क्यों नहीं हुई?खचाखच भरी बस में बरामदगी के बावजूद क्यों नहीं किसी यात्री को सरकारी गवाह बनाया गया?अपराधियों को 24 घंटे के भीतर कोर्ट में क्यों नहीं पेश किया गया? 

आपत्तिजनक सामग्री के बारे में प्रभारी नायब तहसीलदार ने उपजिलाधिकारी घनसाली को क्यों नहीं सूचित किया?और तीन दिन तक क्यों बरामद सामान अपनी कस्टडी में रखा ?क्यों केस में अपराधियों व सामान की बरामदगी राजस्व के बजाए वन विभाग के कर्मचारियों ने की?
मैंने कलक्टर से कहा- बस एक बार आप किरदेई की शक्ल देख लें। फिर आप तय करना कि क्या ऐसी दीन-हीन औरत से वी.आई.पी. सूटकेसों की बरामदगी सम्भव है? यदि आप मेरी बात से सहमत नहीं हो पाएंगी तो मैं चुप हो जाऊंगी। एक सुलझे-संजीदे कलक्टर की तरह वे बोलीं- कुसुम परेशान ना हो। लगता है तुम कई रात से सोई नहीं हो। चलो गरमा गरम काफी पिओ, खाना खाओ। कल हम दोनों जेल चलेंगे।
अगले दिन हम जेल गये। किरदेई की शक्ल देखकर दयालु कलक्टर चुप हो बैरक में ही बैठ गईं। जेलर से उसकी हिस्ट्री जानी, फाईल पढ़ी। बंदीरक्षक प्रेमा से उसके आचरण के बारे में पूछा। डरी सहमी किरदेई को गौर से देखा। फिर मेरी ओर देखा। सिर्फ आँखों की भाषा में मेरे हर कथन की पुष्टि की। हम चुपचाप एक दूसरे को देखते रहे। काले चश्मे के पीछे से लुढ़कते कलक्टर राधा रतूड़ी के आँसू मैंने देखे। वह उतनी ही चतुराई से उनको छिपाने की कोशिश में थी। जेल से लौटने से पहले दयालु कलक्टर किरदेई की मोतियाबिंद से पीड़ित आँखों और पाईरिया से सड़ते दांतों के इलाज का आदेश दे चुकी थीं। हम दोनों चुपचाप लौटे। रास्ते में नम आँखों से खामोशी से बोली- कुसुम तुम कुछ करो इसको बाहर निकालने को। यह बहुत ही गलत हुआ है। हम तुम्हारे साथ हैं। तुमको मुझसे जो मदद चाहिए मैं तैयार हूँ। यह बड़ा भरोसा था कलक्टर का मुझ पर। राधा रतूड़ी किरदेई से मिलीं यह बात आग की तरह फैली। अब किरदेई का केस नया मोड़ ले चुका था।  
अगले दिन मैं, मृदुला जैन और सुनीता जेल गए। किरदेई को सुनीता ने बताया कि राधा रतूड़ी कौन हैं? और समझाया कि वे तुमसे सहानुभूति रखती हैं। उस वक्‍त पहली बार किरदेई की पथराई आँखों में हमने उम्मीद की किरण देखी। उसने चुपचाप वकालतनामा साईन किया। मेरी ओर बड़े प्रेम से देखती रही। मानो कहने की कोशिश में हो- हाँ मेरा ईश्वर और मानवता पर भरोसा पूरी तरह टूटा नहीं है। हम बार-बार जेल जाते। दिल की भाषा में बात करते। अब भी उसकी आँखों में आँसू होते पर ये आँसू खुशी के होते। धीरे-धीरे किरदेई सामान्य होती गई। मुझे देख मुस्कराहट के साथ सलामी देना सीख गई थी। कभी मेरा हाथ पकड़ जोर से भरोसे के आँसू रोती। वह खुश रहने लगी थी। अब वो नियमित खाना खाती। जेल में बंदी रक्षक प्रेमा देवी और कांस्टेबिल सविता ठाकुरी, मीना देवी,ऊषा चैहान, कमला शर्मा ने हमारी बड़ी मदद की। हमारी तेज तर्रार वकील साहिबा ने केस की तेजी से पैरवी हेतु हर कोशिश की। केस की कमजोर कड़ियों को पकड़ अब वो हारी बाजी को पलटने की पूरी तैयारी में लगी थीं।
हमारी कोशिशों को पलीता लगाने वालों की भी कमी नहीं थी। हम जितनी कोशिश उसे बरी करवाने की करते, दूसरा पक्ष उतनी ही ताकत से उसे अपराधी घोषित कराने में लगा था। सरकारी वकील और कई नामी गिरामी लोग बड़े डरे हुए थे क्योंकि- दो महीने में ही मृदुला जैन की दमदार पैरवी ने केस का रुख बदल दिया था। कोर्ट में सबकी सहानुभूति इस लाचार औरत से थी। एक दिन मैंने सुना कि देहरादून से कोई एक्सपर्ट आ रहा है जो कोर्ट में इस बात की पुष्टि करेगा कि यह गूंगी बहरी है। इस केस का एक कमजोर पक्ष था कि किरदेई को गूंगा-बहरा बताकर इशारों में ही उसका अपराध स्वीकार करना बताया गया था। खैर हमने जो नहीं करना था वह भी किया। वह एक्सपर्ट अपनी ही रिपोर्ट की पुष्टि हेतु कभी कोर्ट में नहीं आया। क्योंकि उसे पता चल चुका था कि वह गूंगी-बहरी नहीं है। पर इसके बावजूद जेल के अंदर भी षडयंत्रकारी सक्रिय थे। उनसे ज्यादा सक्रिय था किरदेई का भगवान शिव पर- अटल और अखण्ड विश्वास। मुझे जेल से हर खबर पता चल जाती कि कौन सा नया शिगूफा होने वाला है। हम उसका तोड़ खोजते। यह लुकाछिपी का खेल चलता रहा।
अचानक एक दिन मेरी वकील का फोन आया कि कुसुम जल्दी कोर्ट आओ। किसी ने तुम्हारे नाम से एक पर्चा जेल में किरदेई को दिया है कि- यह कुसुम ने भेजा है। इसे कोर्ट में जज साहब को देना है। यह तुम्हारे छूटने का कागज है। तुम इस पर अंगूठा लगा दो। उस वक्त केस निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया था। किरदेई वह कागज किसी को देने को तैयार ना थी। जेल से ही किसी नेक बंदे ने यह खबर मेरी वकील तक पहुँचाई। आप हैरान होंगे जानकर कि उस पर लिखा था- मैं मुजरिम हूँ। मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूँ। भोली किरदेई इस विश्वास में कि कुसुम ने दिया है, उसे लेकर कोर्ट गई। बड़ी मुश्किल से उस दिन जज साहब के सामने ही वकील ने वह कागज खींचा। सो यह बला टली। यह बात किरदेई ने सुनीता की मदद से खुद कलक्टर और मुझे बताई। सच जानकर किरदेई फिर से बड़ी आहत और गुस्से में थी। उसने चार दिन खाना नहीं खाया। दयालु कलक्टर राधा रतूड़ी को जब यह पता चला तो वह खुद जेल गई। समझा-बुझाकर अपने हाथों से उन्होंने किरदेई को चाय पिलाई।
उतार चढ़ावों के बीच 23 नवम्बर 2001 को किरदेई के भाग्य का फैसला हुआ। किरदेई को निर्दोष करार दिया गया। विद्वान न्यायाधीश माननीय श्री आर.पी.वर्मा जी ने अपने फैसले में कहा कि जाँच अधिकारियों ने एन.डी.पी.एस.एक्ट की धारा 42  50 का अनुपालन नहीं किया है। मुझे मृदुला दीदी ने फोन कर के बुलाया, पर पता नहीं क्‍यों उसके छूटने की खुशी मैंने अकेले ही सैलीब्रेट करना तय किया। मैं वैसे तो नई टिहरी में ही थी। मेरी वकील बता रही थी कि छूटने के बावजूद भी घंटों किरदेई कोर्ट से बाहर नहीं गई। वह मेरा इंतजार करती रही- अपनी टूटी फूटी हिंदी में कुचुम-कुचुम बोल। पर मुझ पर बहुत जिम्मेदारियां थीं। बहुत दिनों से हमारा कार्यालय का जरूरी काम छूटा था। सो आफिस के लोगों को भेजा। मेरी कलक्टर टिहरी डुबाने वाली थीं। सो मुझे अपने घर की लिपाई-पुताई और अपनी गुरू के माई बाड़ा के निर्माण काम के साथ चम्बा अस्पताल में भर्ती बीमार माँ को देखना था। किरदेई केस में मेरा कीमा बन गया था। मैंने बहुत नाराजगी झेली पर मैं संतुष्ट थी। मैंने गुरमीत से कहा छोड़ो किरदेई से मिलने से ज्यादा जरूरी है, उसे घर तक भेजने का इंतजाम कराना। सो पुलिस अधीक्षक अमित सिन्हा व जेलर से मिलकर उसे सरकारी अभिरक्षा में गाँव भिजवाने के प्रबंध में काफी वक्त निकल गया। वह छूट गई थी। यही हमारे लिए काफी था। हाँ मैं किरदेई को गाँव पहुँचाने वाली पुलिस टीम के सम्पर्क में रही।
बाद में किरदेई कथा-व्यथा को अखबारों और भारत सरकार के समाज कल्याण विभाग की पत्रिका संदेश ने महिला सशक्तिकरण वर्ष की लीड स्टोरी के तौर पर छापा। कलक्टर राधा रतूड़ी और महिला समाख्या के लिए यह बड़ा सबक और सौगात थी। यह जीत महिला ब्रिगेड के समन्वित प्रयासों का प्रतिफल था। हमने किरदेई की कथा-व्यथा का विश्लेषण अपने न्यूज लैटर ‘’रंतरैबार’’ में किया। किरदेई पर एक शानदार फ्रलैश कार्ड सीरिज मेरी सहकर्मी अमीता रावत ने तैयार की, जिसको महिला हिंसा पर संवाद हेतु गाँव-गाँव में प्रयोग किया गया।
किरदेई ने ठीक ही कहा था कि- औरतों के साथ लोग परदेश में ठगी करते हैं। कलक्टर राधा रतूड़ी का तबादला हो गया था। कलक्टर राधा रतूड़ी ने हमको ट्रीट देने का वादा किया था। पर मुझे आज तक वक्त ही नहीं मिला ट्रीट लेने का। सो वो आज भी हमारी कर्जदार हैं...। मैं सोचती हूँ ऐसा अन्याय फिर कभी किसी के साथ ना हो। गुमनाम किरदेई का छूटना मेरे जीवन का सबसे संतुष्टि वाला पल है। जहाँ हममें में से कोई भी एक दूसरे को नहीं जानता था। किसी को किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी। किसी को किसी से दुबारा नहीं मिलना था। सब कुछ नियति के तयशुदा कालचक्र की तरह खामोशी से चल रहा था। यही तो जीवन के सबसे सुंदर पल हैं ना! जहाँ हर कोई निस्वार्थ भाव से अपने हिस्से की आहुति महादेव के इस- किरदेई यज्ञ में खामोशी से डाल उतनी ही तेजी से खामोश हो गया था। बस यूं ही किरदेई मेरे मन में कवीन्द्र रवीन्द्र की गीतांजली के सार- निर्भय मन, सर ऊंचा और श्रीकृष्ण के उपदेश-जब-जब धर्म की हानि होगी मैं आऊंगा बार-बार आऊंगा.... के व्यवहारिक बोध पर टिका कर अपने देश चली गई। मैं कभी नहीं भूलती हूँ किरदेई केस जीतने पर राधा दी की प्रतिक्रिया- कुसुम हमारा जी करता है हम यूं ही तुम्हारी लाजवाब टीम का मेम्बर बन एक साथ औरतों और कमजोर लोगों के लिए जमीनी काम करें। पर वो दिन फिर कभी नहीं आया।
सो कई कारणों से मैं किरदेई की अहसानमंद हूँ। उसको शुक्रिया बोलने को मेरे पास ना कोई शब्द हैं और ना कोई भाव ही...। परदेशी किरदेई मेरे मन के कोने में कहीं चुपचाप एक बुझी चिंगारी की तरह जीवन का कोई नया सबक सिखाने को बारूद की तरह बैठी है, महिला सशत्तिकरण पर अनुत्तरित इन सवालों के साथ- कि आखिर कब तक असली दोषी के बजाय निर्दोष लोग कानूनी प्रक्रियों का शिकार होंगे? किरदेई को तो दैवीय अनुकम्पा ने बेगुनाह साबित किया पर यहाँ सवाल किरदेई का नहीं, बल्कि एक साफ सुथरी चौकस व्यवस्था के ईमानदार क्रियान्वयन का है? जहाँ कोई और बेगुनाह किरदेई किसी जुल्म का शिकार ना हो? और किरदेई जैसों की जेल प्रताड़ना का हिसाब कौन देगा?
इस अनोखे किरदेई यज्ञ में आहुति डालने वाले हर हाथ की मैं तहेदिल से शुक्रगुजार और कर्जदार हूँ।