Wednesday, October 10, 2018

घटनाओं के समुच्चय में

हमें कोई गुमान नहीं कि हमने क्या लिखा आज तक। कोई संताप नहीं कि क्या पढ़वाने को मजबूर करती हैं आलोचना। पत्रिकाएं। यह भी हमने नहीं कहा कि सब वैसा ही लिखें जैसा हमें भाता है। पर हम लिखते हैं। लिखना हमारी मजबूरी है। न लिखें तो क्यां करें उन अला-बलाओं का जिनसे अकेले पार पाना संभव नहीं। लिखते हैं कि दूसरे भी पढ़ें । सोचें, और एक से अनेक हो उठे आवाज जालिमों के खिलाफ। हमारा लिखना तब तक एकालाप ही हो सकता है जब तक पढ़ने वाला (ले) उससे सहमत नहीं। यह किसी का वक्तव्य नहीं पर राजेश सकलानी की कहानी ‘जनरल वार्ड’ तो अपने पाठ से ऐसा ही ध्वनित करने लगती है। पारंपरिक पद्धति की कहानी आलोचना की रोशनी में ‘जनरल वार्ड’ को पढ़ा जाएगा तो कहा ही जा सकता है, यह तो कहानी नहीं, कुछ-कुछ कवितानुमा गद्य के रूप में लिखा गया एकालाप-सा है। कहानी में तो घटना होनी चाहिए, पर इसमें तो कुछ घटता ही नहीं। कथित रूप से घटना के न होने को झुठलाती इस कहानी की विशेषता है कि इसे कहानी मानने की जा रही जिदद पर ध्याकन देने वाली निगाह भी इसे हिंदी की कहानी मानने को तो संभवत: तैयार न हो, और उस दायरे में यह आरोप भी मड़ा जाने लगे कि यह तो किसी अन्य भाषा की अनुदित कहानी है, तो उस पर हैरत नहीं करनी चाहिए। क्यों कि शब्द विहीन संगीत की लयकारी के से शिल्प में लिखी गयी यह ऐसी रचना/कहानी है जो पाठक को उसके निजी अनुभवों के संसार में ले जाने मजबूर करते हुए अनेक कथाओं का समुच्चय उसके सामने रख देती है। खास तौर पर तब, जब पाठक कहानी को पूरा पढ़ लेने के बाद दुबारा उसके शीर्षक की ओर ध्यान देता है। लेकिन यहां इस कहानी को शिल्प की वजह से याद नहीं किया जा रहा। क्योंकि कहानी का वह जो शिल्प है] वह भी शिल्प जैसा दिखता कहां है। वह तो कथ्य की स्वाभाविकता में स्वयं उपस्थित हो जा रहा है। 

दिलचस्पप है कि इस कहानी को पढ़ने का सुयोग हिंदी कहानियों की स्थापित पत्रिकाओं की बजाय एक सीमित भूगोल के बीच दखलअंदाजी करती एक नामलूम सी पत्रिका ‘युगवाणी’ ने संभव बनाया है। हिंदी की विस्तृत दुनिया में भी इस बात का पता नहीं चल पाता है कि युगवाणी सरीखी पत्रिकाओं में क्या लिखा गया और क्या छपा। यह कहने में संकोच नहीं कि ऐसी अभिनव रचनाओं को लाने में ‘युगवाणी’ जैसी नामालूम सी पत्रिकाओं की भूमिका ही अग्रणी दिखाई देती रही है, क्योंंकि न तो उनके संपादक को इस बात का कोई गुमान रहता है कि वे कोई बहुत महत्वपूर्ण रचना छाप रहे हैं और न उसके लेखक ही ऐसे मुगालते के शिकार होते हैं। 

‘युगवाणी’ का अक्टूबर 2018 का अंक इस कहानी के साथ-साथ उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के इतिहास का पन्ना बनते शेखर पाठक के आलेख से भी महत्वपूर्ण और संजोये रखने वाला है। 
कहानी ‘युगवाणी’ से साभार यहां प्रस्तुत है। 

यदि पढ़ने का मन न हो तो कहानी को सुना भी जा सकता है। या पढ़ते पढ़ते सुनिये। https://www.youtube.com/watch?v=h2jQs-MAHHU&feature=youtu.be
वि.गौ.

जनरल वार्ड 

राजेश सकलानी

जब तक मैं हूँ मेरे सामान में वजन है। उसमें अलगअलग दिशाओं की ओर बिखरते ख़याल हैंअनगिनत संकेत हैं। लगभग कूट भाषा है। यह रहस्यमयी दुनिया नहीं है। बस दुनिया की करोड़ बातों में अनेक गुम्फित बातें हैं। ये हल्के धागों की तरह है। किसी को वे बेहद उलझी हुई और निरर्थक डोरें लग सकती हैं। मुझे तो ये बिल्कुल साफ़पवित्र और पारदर्शी लगती हैं। कुछ पदवाक्य और कहीं अधूरे वाक्य कागजों पर फैले हुए हैं। ये ही मेरा कुल सामान है। 

मेरे बाद यह कुल सामान एक छोटे से गट्ठर में बाँध दिया जायेगा। एकदम फेंका भी नहीं जायेगा। शायद किसी टांड पर फेंक दिया जाय या घर के गैर जरूरी सामानों के साथ अलमारी के किसी खाने में ठूस दिया जाय। जब भी किसी के हाथ जायेगा दिमाग ये उलझन पैदा करेगा। बारबार दुविधा होगी। इसे कहाँ फेंका जाय या जला दिया जाय। देखने की कोशिश में वक़्त खराब होगा।

इन्हें बाद में देखा ही नहीं जाय। यही मैं चाहूँगा क्योंकि इनका पाठ एक तरफ़ीय हो जायेगा। इनका जबावदेह हाजिर नहीं हो पायेगा। मैं यह दावा नहीं कर सकता कि ये खुद में एक जबाब है। ये अप्रकाशित हैं क्योंकि ये मुकम्मल नहीं हो पाये होंगे। यदि गलती से मुकम्मिल भी हो तो उन्हें मेरा आखिरी स्पर्श नहीं मिलेगा। शायद मैं कुछ तब्दील हो गया होऊँ। किसी भी सूरत में ये दुनिया के सन्दर्भ में अन्तिम पाठ नहीं होंगे। जितने अपमान मेरे ऊपर लादे गये वे सब झूठे थे यह बात अन्तिम है और कभी खत्म न होने वाले हमले अर्थहीन हैं। यह पक्का है। यह शहादत का कोई नमूना नहीं है। यह एक आम बात है। जो हमलों के शिकार होते हैं वे नजर भी नहीं आते। यह एक सच्चाई है जिसे बदलने की इच्छा रखने वाला मैं कोई अकेला और अनूठा सिपाही नहीं हूँ। कोई अख़बार मार खाये लोगों की पड़ताल नहीं करता। वे कहाँ चले जाते हैं और कैसे गुम हो जाते हैंइसका कोई ब्यौरा नहीं मिलता। वे बहुमत में है लेकिन उनकी तस्वीर और बयान साझा नहीं किये जाते। 

यह तय है कि ये लोग खूब जिन्दा रहते हैं। ये अनजाने में भी जिन्दा रहते हैं और जिन्दा रहने का मूल्य अदा करते हैं। यह बुनियादी अर्थवता की लौ बचाये रखने का पवित्र उघम है। ये लोग गेंहूँ’ की डाल में सुर्ख अन्न के दाने की तरह चमकदार होकर ही दम लेते हैं।

मैं अस्पताल के जनरल वार्ड के ठीक बीच में कहीं पड़ा हूँ। मैं कुछ देखता नहीं हूँ। मुझे शब्द और वाक्य साफ नहीं सुनाई देते हैं। बस कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ मष्तिष्क के आकाश में बजती हैं। शायद इनमें मेज खिसकाने की या चादर झाड़ने की आवाजें भी हैं। शायद नर्स ने वाइल के ऊपरी हिस्से का काँच खट से तोड़ दिया है। दवा इंजेक्शन में भरी जाने वाली है। कुछ व्यग्र और चिन्ताकुल खुसपुसाहटें हैं। मैं नहीं हूँ या शायद पूरा नहीं हूँ। मैं थोड़ा सा जिन्दा हूँ। मेरे हाथपाँवगर्दनछातीपेट जैसे कहीं दूर होंगे।

मैं होऊँ या नहीं होऊँ यह जैसे मेरे बस में छोड़ दिया गया है। यह तीखा सा दर्द पता नहीं कहाँ पर है। पहली बार में अपने जिस्म के भीतर को जान पा रहा हूँ। यही मैं हूँ जहाँ विस्फोटक दर्द उठ रहा है।

मुझे याद नहीं आ रहा है कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान। जोर लगा कर भी याद नहीं कर पा रहा हूँ कि वे कौन लोग थे जो भीड़ बना कर मुझ पर टूट पड़े थे। वे लाठियाँ थी जिन्हें सिर्फ हमला करना था। मैं सिर्फ एक जानवर था। मुझे अपने जिस्म पर कम प्यार नहीं है। मैं सारे लोगों के जिस्मों को भी प्यार करता हूँ। बचपन में मैंने लोगों को सुन्दर और असुन्दर लोगों में बाँट लिया था। मैं आकर्षक चेहरों की तलाश किया करता था। बाकी लोगों को अपने दिमाग से हटा लेता था। जल्दी ही मैंने अपनी गलती को जान लिया। हर चेहरा अपने में बेमिसाल है और उसकी अपनी एक अलग कहानी है। उसकी देह का एक राज्य है। उसके पास असंख्य भावनाएँ पल प्रतिपल गति करती हैंजो लोग इस गतिशीलता में थक जाते हैं वे शराब पी लेते हैं या नींद में जाने की कोशिश करते हैं।

मेरे हाथपाँवगर्दनसिरपेट क्या आखिरी तौर पर नष्ट कर दिये गये हैं। मेरी तमाम हड्डियाँ क्या चकना चूर हो गई हैंइस समय मैं सिर्फ तीखा दर्द हूँ और अजीब सी झनझनाहट में हूँ। हर अंग की जगह एक सच्ची अनुभूति ने ले ली है। कोई भी जना अपने भीतर के बारे में कुछ नहीं जानता है। इस वक्त मैं जानता हूँ।

मैंने अपने भीतर की पूरी यात्रा कर ली है। कभी मैं एक ओर बहता हूँकभी दूसरी ओर पानी की तरह चल पड़ता हूँ। मैं कुछ हवा और कुछ पानी की तरह मिलाजुला हूँ। बाहर लोग यही कहते होंगे कि ये मर गया है या मरने वाला है। वे घोषणा किये जाने की बेचैनी से प्रतीक्षा करते होंगे। मैं बताना चाहता हूँ कि मैं परेशान नहीं हूँ। यह पक्का है कि दुनिया में किसी को भी दूसरे के शरीर को गलत इरादे से छूने की इज़ाजत नहीं है। हर आदमी एक देवता की तरह पवित्र है और हर औरत का अपना राज्य है। आप उसमें दख़ल दे कर पाप नहीं कर सकते। वह राज्य हिन्दू या मुसलमान कतई नहीं है जैसे कि पहाड़समुद्रनदियाँखेतजंगलपशु आदि सभी स्वतंत्र होते हैं। वह समूह में भी स्वतंत्र किस्म की स्वायत्तता पाते हैं।

जिन्होंने मेरे साथ बुरा सुलूक कियामेरी भावनाओं को चीथड़ों की तरह बिखरा दियाउनको तो मैं भीतर ही भीतर बहुत चाहता था। उनको मैं आज भी रोकना चाहता हूँ। हमारे पास सबसे कीमती चीज समय है। ये घंटेदिनसप्ताहमहीने और साल बहुत बड़ी पूंजी हैं। इन्हें हमेशा किसी वस्तु को बनाने में ही खर्च करो। हम बढ़ई की तरह सुन्दर कुर्सियाँ और मेजें बना सकते हैं। हम कुम्हार की तरह लुभावने घटे और सुराहियाँ बना सकते हैं। इतने तरह के फल और अन्न के दाने उपजा सकते हैं। कुछ भी बनाने की प्रक्रिया में प्राण की लौ प्रज्ज्वलित रहती है।

अपने महान दर्द के जरिये शरीर के भीतरी अंगों की यात्रा के दौरान मुझे कुछ शान्त और सुकून भरी छोटीछोटी जगहों का पता चलता है। यह शायद रिसते खून से भीगी आँतों के पासशायद यकृत या हृदय के आसपास हो सकती हैं। लोग कितने मूर्ख बनाये जा रहे हैं। उनके दिमागों को कुछ शैतानों ने प्रदूषित कर दिया है। कुछ जहरीले रसायन बातोंबातों में भीतर डाल दिये गये हैं। वे अब भली और बुरी चीजों में ठीक में फ़र्क नहीं कर पा रहे हैं। हत्याओं के समर्थन में नारे लगाते हैं और मासूम लोगों की मौत पर खुशियों का इजहार करते हैं। कहते हैं ये हमारी किताबों में लिखा है। या तो वे किताबें वाहियात हैं या उनके वाहियात मायने बनाने की साजिश की जा रही है।

मेरा सोचना खत्म नहीं हुआ है। यह चकित करने वाली बात है। मैं सिर्फ एक थोड़ी सी बची हुई स्मृति हूँ। यह सारगर्भित स्मृति एक सूत्र की तरह जीबित रह गई है। यह हमेशा कहीं न कहीं गति करती रहेगी। 

मैं एक बूढ़ी के गीत की लयात्मकता में अपनी लहर के साथ आसानी में घुलमिल जाता हूँ। शायद वह बूढ़ी न हो। वह गीत अपने में एक पहाड़ हैएक जंगलएक गीत। वह गीत और गायिका और आसपास  की सारी चीजें एक साथ प्रकाशमान हो जाती हैं। एक ओर भीड़ का खौफनाक शोर है जो लाठी डंडों को लेकर मुझ पर टूट पड़े थे। वे बेतहाशा मुझ पर वार करते हैं। मैं बचने की भरसक कोशिश करता हूँ। तब तक दनादन मुझ पर चोटें जारी रहती हैं। अंत में मैं अपने हाथ पावों को बचाने की कोशिश छोड़ देता हूँ। हर पल एक कड़े और घातक प्रहार की प्रतीक्षा करता हूँ। एक तीखा दर्द उठेगा और सभी दर्दों का अंत हो जायेगा। मुझे बड़ा आश्चर्य है कि मैं भयभीत नहीं हूँ।

मेरे एक दोस्त कई दशकों से पहाड़ों में गाँवगाँव घूम रहे हैं। वे लोकगीतों का संग्रहण करते हैं। थोड़ीथोड़ी आबादियाँ और बहुत सारी प्रकृति उनकी जिन्दगी है। गुजर गये अनाम लोगों की पीड़ाओं और उल्लास को जंगलों से और नदियों से ढूंढ लाते हैं। बहुत सारे बीते अनुभव यहाँवहाँ दबे हुए हैं। वे ढूंढ लाने में कभी कामयाब हो जाते हैं। यह ढूंढना अपने आप में एक विराट अनुभव है। एक अनजान औरत का गायन उन्होंने अपने मोबाइल फोन में रिकॉर्ड कर लिया। वह औरत अब खो चुकी है। गायन का वह पल भी आसमान से गायब हो गया है। वह गीत अपनी करूण ध्वनि के साथ मेरे दोस्त की स्मृति में है और उसकी अनुकृति उस मोबाइल की स्मृति में है। गायिका की आवाज हमारी आदि कालीन माँ की आवाज है। उसमें पीड़ा और लगाव कंपकपाता है। ट्टहे रामाहे परभूचैत का महीना जिकुड़ी में लगता है। कुछ ऐसा बयान उनमें है। यह कितना सुघड़ और पूर्ण संगीत है। जंगल और दिल के सूनेपन को एक मीठी पीड़ा में रचता हुआ।

कुछ पलों के लिए मैं कहीं परम अति सुन्दर जगह में विचरने लग गया था। मेरी सच्चाई तो यह जनरल वार्ड है। यहाँ बेवजह हिंसा के मारे हुए लोग इकट्ठा हैं। यौन हिंसा की मारी बच्चियाँ और बच्चे हैं। तमाम औरतें हैं और आदमी है। उन्हें पता नहीं है कि उनके कोमल जिस्मों को क्यों इतनी पीड़ा दी गई है। उनके सभी अंगों को तोड़फोड़ दिया गया है। ये सभी बेहद नाराज़ हैं और किसी से बात नहीं करना चाहते क्योंकि इन्हें किसी पर भरोसा करने की इच्छा नहीं है। ये देश और जाति की सीमाओं को बिल्कुल नहीं मानते हैं। इन्होंने पृथ्वी से बहुत दूर जा कर ठीक से जान लिया है। इनके जनरल वार्ड के कोई पास भी नहीं फटक सकता। यह बेवजह मारे पीटे हुए लोगों का वार्ड है। पता नहीं क्यों खानेपीनेपहिननेपूजा करने या नहीं करने के कारण लोगों को मारा जा रहा है। हमारे शरीर को कैसे भी कोई छू सकता हैयहाँ देवता सरीखी दैदीप्यमान छोटी बच्चियाँ रोती रहती हैं। 


Saturday, September 29, 2018

म्हारी छोरियाँ क्या छोरों से कम हैं

मैं आगे, जमाना है पीछे

डॉ रश्मि रावत


खेलों के महाकुम्भ में विश्व भर की आँखें मेगा प्रतियोगिताओं में लगी रहती हैं। उस वक्त लैंगिक समानता के संदेश प्रभावी ढंग से सम्प्रेषित होते हैं। सितारे खिलाड़ी जो करते, जो बोलते हैं उनका लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसलिए वे निजी कम्पनियों के ही नहीं सामाजिक प्रगति के भी ब्रांड अम्बेसडर हो सकते हैं। इस दृष्टि से हाल ही में सम्पन्न हुए एशियाड 2018 में भारतीय खिलाडि़यों का कुल प्रदर्शन चाहे पदकों के लिहाज से पूर्व की स्थिति में खास इजाफा करता हुआ न भी दिखा हो तो भी सामाजिक वातावरण में स्‍त्री चेतना के बदलावों की एक झलक जरूर दिखायी दी है। स्वप्ना बर्मन, हिमा दास, द्युतिचंद, हर्षिता तोमर, विनेष फोगट, राही सरनोवत, पी.वी. संधु, सानिया नेहवाल समेत कई अन्य स्त्री खिलाड़ियों ने ट्रेक पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करते हुए इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया है कि यह बीत चुके जमाने की बात हो चुकी है जब खेल के मैदान सिर्फ पुरुषों के लिए होते थे।
भारतीय महिला खिलाडि़यों के ऐसे प्रदर्शन को इस दृष्टि से भी देखा जाना जरूरी है कि वै‍श्विक स्‍तर पर स्त्रिायों के प्रति जो सामाजिक बदलाव आ रहे हैं, वे उसके साथ अपनी संगति बैठाने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। सन् 1991 के बाद से केवल वही नए खेल ओलम्पिक में शामिल किए जा सकते हैं जिनमें स्त्री खिलाड़ियों की भागीदारी हो। यह एक तथ्‍य है कि सन् 1900 में पेरिस ओलम्पिक में महिलाओं ने पहली बार हिस्सा लिया था। लेकिन उस वक्‍त कुछ सीमित खेलों में ही उनकी भागेदारी हो पाती थी। लेकिन सन् 2012 वह पहला वर्ष था जब ओलम्पिक में सभी खेलों में स्त्रियों ने भागीदरी की। 2012 के लंदन ओलम्पिक के बाद से कहा जा सकता है कि सफलता से सरपट दौड़ने के लिए मैदान स्त्रियों के लिए उसी तरह खुल चुके हैं जिस तरह पुरुषों के लिए।
इस तरह से देखें तो खेलों में स्त्रियों की हिस्‍सेदारी का यह बनता हुआ नया इतिहास है। गत कुछ वर्षों में महिलाएँ अपनी मजबूत उपस्थिति विभिन्न खेलों में निरंतर दर्ज करती जा रही हैं। उम्‍मीद की जा सकती है कि खेल-जगत में स्त्रियों की उपलब्धि का हर एक कदम समाज में सदियों से व्याप्त लैंगिक विषमता को दमदार धक्का लगाने में सक्षम हो सकेगा। एशियाड 2018 में भारतीय महिला खिलाड़ियों के प्रदर्शन अभूतपूर्व रूप से उल्‍लेखनीय हैं। नए से नए  रिकॉर्ड बनाते हुए वे आगे बढ़ती हुई दिखी हैं। इस सफलता को सिर्फ पदकों से ही नहीं नापा जा सकता। पदक प्राप्‍त न भी कर पायी खिलाडि़यों के प्रदर्शन इस बात की गवाही देते हुए हैं कि प्रतिभा संपन्‍न, जूझारू, शारीरिक रूप से सक्षम, भारतीय स्‍त्री आज अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ आगे बढ़ना चाहती हैं। विश्व स्तर की सुविधाएँ, प्रशिक्षण, उपकरण इत्यादि मिले तो निश्चित ही वे वैश्विक स्‍तर की ऊंचाइयों को छू पाने में कामयाब होंगी।

हाल के प्रदर्शनों का एक दिलचस्‍प पहलू इस रूप में भी दिखायी दे रहा है कि महिलाओं की उत्कृष्ट उपलब्धियाँ अधिकतर वैयक्तिक स्पर्धाओं में देखने को मिली। एथलेटिक्स, शूटिंग, तीरंदाजी, पहलवानी, बैडमिंटन, मुक्केबाजी जैसी स्पर्धाओं में उनकी उपस्थिति ने आश्‍चर्यजनक रूप से चकित किया है। हिमा दास, स्वप्ना बर्मन जैसे कई नाम हैं जो छोटी-छोटी जगहों से निकल कर मेहनत और संकल्प-शक्ति के बल पर अपना आकाश गढ़ते हुए नजर आयी हैं। एशियाड 2018 से पूर्व में दीपा कर्माकार को याद करें जिसने अपने लाजबाब प्रदर्शन से ओलम्पिक में जिम्नास्टिक्स प्रतिस्‍पर्धा में अपने लिए जगह बनायी थी। साक्षी मलिक, दीपा कर्मकार, पी.वी. सिंधु. अदिति अशोक के उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण ही 2016 के रियो ओलम्पिक को ‘इयर ऑफ इंडियन वुमेन इन स्पोर्ट्स कहा गया था। सानिया नेहवाल, पी.वी.सिंधु, सानिया मिर्जा, अंजली भागवत, फोगट बहनें, ज्वाला गुट्टा, कर्णम मल्लेश्वरी, मैरी कॉम, अश्विनी, मिताली राज, हरमीन प्रीत, रानी रामपाल.........बहुत लम्बी सूची है महिला खिलाड़ियों की जिन्होंने विभिन्न खेलों में विश्व स्तर पर अपनी सफलता के झंडे गाड़े हैं।
एकल प्रदर्शनों के इतर टीम खेलों में स्त्रियां आगे बढ़ती हुई नजर आने लगी हैं। भारतीय महिला हॉकी टीम एशियाड में 20 साल बाद फाइनल तक पहुँची और बेहतर खेली। महिला क्रिकेट भी वैश्विक स्‍तर पर अपनी जगह बनाते हुए दिखने लगी है।
एकल प्रारूप वाले खेलों और टीम प्रारूप खेलों के आंकलन इस बात के भी गवाह हैं कि जितने संसाधन, प्रोत्साहन और लोकप्रियता महिला खिलाडि़यों को मिलनी चाहिए, उसका शतांश भी क्‍या इन्हें मिलता हैजिन खेलों के लिए मजबूत टीम और संशाधनों की दरकार है, वहाँ तो खिलाड़ियों की पूरी कोशिश भी उन्हें ऊँचे मुकाम तक नहीं पहुँचा सकती जब तक संस्थानों का सुनियोजित सहयोग न मिले। दूसरा वह सामाजिक पहलू जो सामूहिक स्‍पर्धा में अवरोध बना हुआ है, उसको दरकिनार नहीं किया जा सकता। सामूहिक स्पर्धाओं में लड़की होने के नाते बहुत से नुक्सान स्‍कूल स्‍तर ही उठाने पड़ते हैं। बॉलीबॉल, फुटबाल, क्रिकेट आदि खेलों में स्कूल और कॉलेजों में टीम ही नहीं बन पाती। खेलने की शौकीन सक्षम खिलाड़ियों को मन मसोस कर लड़कों के खेल का मूक दर्शक बन जाना पड़ता है। उनके लिए अनुकूल माहौल बनाना, उनके मार्ग की बाधाओं को दूर करना सारे समाज की जिम्मेदारी है। स्कूली स्तर पर लड़के-लड़कियों के खेल एक साथ होने से लैंगिक समरसता का माहौल भी उभार ले सकता है। लड़कियों के लड़कों के साथ खेलने का अवसर मिलेगा तो टीम न बनने के कारण उन्हें खेल छोड़ना नहीं पड़ेगा ओर दूसरे उन्हें मजबूत टीम के साथ खेलने और अभ्यास करने का मौका मिलेगा। इससे उनका भरपूर विकास होगा। मनोवैज्ञानिक ढंग से भी उनके भीतर खुद को स्वस्थ व्यक्तित्व के रूप में विकसित करने का दायित्व उपजेगा। उनका खाना-पीना-खुद की भरपूर देखभाल करना सम्भव हो पाएगा। वर्ना अक्सर लड़कियाँ अपने शरीर और जरूरतों के प्रति सहज नहीं रह पातीं और फिर आइरन या किसी अन्य पोषक तत्व की कमी से जूझती हैं। खेलने वालियों की संख्या अभी कम है इसलिए उन्हें स्थानीय स्तर पर अभ्यास करने के लिए बराबर या बेहतर प्रतिद्वंद्वी नहीं मिल पातीं हैं। महावीर फोगट जैसी संकल्प शक्ति की जरूरत है जो हर प्रतिकूलता से टकरा कर भी बेटियों को पहलवान बनाने का सपना पूरा करता है। फोगट परिवार अपनी बेटियों की उपस्थिति से ही चर्चा का केन्‍द्र बनता हुआ है जिसने हरियाणा जैसे राज्य की लैंगिक सोच के ठहरे पानी में हलचल मचा दी और घर-घर में ये विचार उपजा कि “म्हारी छोरियाँ क्या छोरों से कम हैं। अगर महावीर ठान नहीं लेते तो उनकी बेटियाँ तो वैसी ही जिंदगी जी रही थीं जैसी समाज ने लड़कियों के लिए तय की होती है। वैसा ही खाना-पीना-पहनना। लड़कों के साथ लड़कियों को पहलवानी वह न करवाते तो कैसे उनका विकास होता। उन्हें खूब पौष्टिक खिलाना, जरूरत भर नींद, आराम... सुंदरता के मिथक से मुक्त व्यक्तित्व के रूप में विकसित करना। यही हर स्तर पर किए जाने की जरूरत है। शरीर जब स्वस्थ रहता है तो ऊर्जा अपने निकास के लिए स्वस्थ मार्ग खोजती है। आज के उपभोक्तावादी दौर में लड़कियों पर फिर से कोमल, नाजुक, कमसिन, चिकनी बने रहने का इतना अधिक दवाब है कि मध्य-उच्च वर्गीय लड़कियाँ भर पेट खाती नहीं हैं और निम्न वर्ग की लड़कियों को पौष्टिक खाना उपलब्ध नहीं हो पाता। राष्ट्रीय-अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर भी 16 वर्ष तक के लड़कों-लड़कियों की स्पर्धा एक साथ होना अच्छा रहेगा। समाज में लैंगिक समानता स्थापित होने पर वह समय आएगा जब स्त्री-पुरुष के प्रदर्शन में अंतराल नहीं रह जाएगा। फिलहाल वह समय दूर है। लेकिन किशोरावस्था तक के प्रदर्शन में इतना अंतर नहीं दिखता कि वे एक साथ न खेल पाँए।
 टेनिस जैसे कुछ खेलों को छोड़ दिया जाए तो स्त्री-पुरुष के वेतन, पुरस्कार राशि, स्पांसरशिप, और मीडिया कवरेज में बहुत अधिक भेदभाव है। इस भेदभाव का काफी नकारात्मक प्रभाव महिलाओं के प्रदर्शन और उन्हें मिलने वाली सुविधाओं तथा प्रशिक्षण में पड़ता है। अमेरिका में जहाँ खिलाड़ियों की 40संख्या महिलाओं की है वहाँ मीडिया में खेलों में इनकी कवरेज की प्रतिशतता 6-8है और सर्वोच्च 4 समाचार पत्रों में केवल 3.5% ही है। भारत में, जहाँ खेलने वाली स्त्रियों का प्रतिशत पुरुषों के अनुपात में बहुत कम है। वहाँ मीडिया और वेतन के अंतराल का अनुमान किया जा सकता है। यदि आर्थिक तौर पर और मीडिया के स्तर पर स्त्रियों को समान महत्व दिया जाए तो समाज में उनके खेल के प्रति सकारात्मक माहौल बनने में बहुत मदद मिलेगी। सामाजिक, परम्परागत रूढ़ियाँ टूटेंगी जिनके कारण लोग लड़कियों को बाहर भेजने में हिचकिचाते हैं। चोटिल होने वाले, तथाकथित सौंदर्य पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली गतिविधियों से लड़कियों को रोका जाता है। सुरक्षा को लेकर हमारा समाज पहले ही अतिरिक्त सजग है। निर्णायक मंडल, कोच की लड़कियों के यौन शोषण की कुत्सा की खबरें आती हैं तो यह लड़कियों की भागीदारी को बहुत हतोत्साहित करता है। 
     खिलाड़ियों की जीविकार्जन की क्षमता और लोकप्रियता समाज में स्टीरियो टाइप को तोड़ेगी और कई अनावश्यक टैबू भी टूटेंगे तो महिलाएँ खुद को अधिक फिट रख पाएँगी। अपने शरीर और उसकी जरूरतों के प्रति सहज रहेंगी तो उनके प्रदर्शन में नई उठान आएगी। एक भीषण समस्या जो स्त्री होने के कारण झेलनी पड़ती है खिलाड़ियों को। अधिकांश स्त्रियों का मानना है कि मासिक स्राव उनके प्रदर्शन को प्रभावित करता है। कई शीर्ष खिलाड़ियों ने महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में इसे अपनी हार का कारण माना है। इस तरह के टैबू दूर होने के बाद से समस्याओं और समाधान पर खुल कर बात होती है तो समस्या कम होती जाती है। 26 साल की किरन गाँधी ने लंदन में मासिक स्राव के दौरान बिना नैपकिन प्रयोग किए मैराथन दौड़ सम्पन्न की। वे इस दौरान खुद को संकुचित महसूस करने के चलन को तोड़ते हुए अपने शरीर के प्रति सहज होने का संदेश देना चाहती थी। उन्होंने माना कि महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में फोकस अपने प्रदशर्न पर रहे, जिसके लिए जीवन भर तैयारी की है न कि लिहाज करने पर।

    2014 के कॉमन वेल्थ गेम्स में द्युतिचंद को जिन दो प्रतियोगिताओं से बाहर कर दिया था। 4 साल बाद एशियाड में उन्ही दोनों स्पर्धाओं में उन्होंने पदक जीते। आजीवन स्त्री की तरह जिंदगी जीने, सारे क्रिया कलाप सम्पन्न करने के बाद टेस्टोटेरोन हार्मोन का स्तर देख कर अंतर्राष्ट्रीय मानक यह तय करते हैं कि वह महिला वर्ग में भाग ले सकती है या नहीं। इसी को द्युतिचंद ने चुनौती दी थी और अंततः उनके पक्ष में फैसला आया। फिर उन्होंने स्पर्धाओं में भाग भी लिया सफलता भी पाई पर कितना कुछ खोया भी। नए नियमों के अनुसार भी महिलाओं के भीतर हार्मोन का स्तर तय करेगा कि वे किस वर्ग में स्पर्धा में हिस्सा ले सकती हैं और उन्हें दवाइयों की सहायता से अपने हार्मोन के स्तर को मानकों के अनुकूलन में लाना पड़ेगा। द्युतिचंद समेत कई खिलाड़ियों की सख्त आपत्ति है कि हम अपनी स्वाभाविक, प्राकृतिक संरचना को क्यों कृत्रिम साँचे में जबरन ढालें। इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण भी नहीं है कि प्राकृतिक रूप से पाए जाने पर यह हार्मोन प्रदर्शन को प्रभावित करता है या नहीं। करता भी है तो जैसे किसी को अपने कद या किसी भी शारीरिक वैशिष्ट्य का फायदा या नुक्सान होता है उसी तरह यह भी एक विशिष्ट लक्षण की तरह लिया जाना चाहिए और व्यक्ति की गरिमा और निजता की रक्षा करनी चाहिए। यह उसके मानवाधिकारों का भी एक तरह से उल्लंघन है। स्त्रियों के खेल के प्रति समाज में जागरुकता आएगी और अधिकाधिक स्त्रियों खेलों में भागीदारी बढ़ाती जाएंगी, बढ़ाती जाएँगी तो मीडिया भी स्थान बढ़ाने के लिए मजबूर होगा। वर्ना सोशल मीडिया भी है और हमारे जैसी हजारों-लाखों स्त्रियाँ भी। सचेतनता स्त्री विषयक इन समस्याओं पर हस्तक्षेप करके एक आम सहमति बनाएगी तो खेल के इन नए नियमों में स्त्री के गरिमामय समावेशन की पूरी सम्भाव्यता होगी


Wednesday, August 29, 2018

तंग गलियों से भी दिखता है आकाश


इसलिए नहीं कि ‘तंग गलियों से भी दिखता है आकाश’ यादवेन्द्र जी की पहली किताब है, बल्कि इसलिए कि मेरे देखे हिंदी में यह पहली किताब है जिसमें दुनिया के विभन्न हिस्सों के रचनाकारों की रचनाओं के अनुवाद एक ही जगह पढ़ने को मिल रहे हैं, यह बात भी ध्या्न खींचती है कि यह किताब भारत से इतर दुनिया के स्त्री रचनाकारों के गद्य का नमूना पेश करती है। जहां तक मेरी जानकारी है, किताब में शामिल ज्यादातर अनुदित रचनाएं यादेवन्द्र जी की उस सहज प्रवृत्ति का चयन हैं जिसके जरिये वे अपने भीतर के कलारूप को अपने मित्रों के साथ शेयर करना चाहते रहे हैं। पुस्तक की भूमिका भी इस बात की गवाह है जब वे लिखते हैं, ‘’कोई पन्द्रह साल पहले की बात होगी, ‘द हिन्दू ‘ में प्रकाशित एक युवा भारतीय लेखक की कहानी ‘चॉकलेट’ मुझे बहुत पसन्द आयी भी और मैं उसे अम्मा को सुनाना चाहता था... पहले सोचा सामने बैठ कर हिन्दी अनुवाद करते-करते बोलकर सुना दूंगा पर लगा इससे कथा का तारतम्य टूट जाएगा सो बैठ कर कॉपी पर अनुवाद लिख डाला।‘’ यानी दुनिया के साहित्य से रिश्ता बनाते हुए जब उन्हेंअपने मन के करीब की कोई रचना नजर आयी उसे अपने मित्रों तक ही नहीं, बल्कि बहुत से दूसरे लोगों तक भी पहुंचाने के लिए वे उसे हिन्दी में अनुवाद करने को मजबूर होते रहे। कल्पित रूप में किसी किताब की योजना के साथ तो उनका चयन किया ही नहीं गया। यही वजह है कि अपने चयन में ये रचनाएं इस मानक से भी मुक्त कि भारतीय साहित्य से उनकी संगति एकाकार हो रही है या नहीं। यदि जुदा हैं तो उसके जुदा होने के कारण क्या हैं, विषय की  विविधता से भरी इन  रचनाओं के चयन की आलोचना में यह आरोप नहीं है ।  बल्कि उस बिन्दु की की ओर इशारा करना है कि इस पुस्तक की कुछ रचनाओं का मिजाज हिन्दी की कहानियों से ही नहीं अपितु अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों (यह कथन सीमित जानकारी के आधार पर) से भी भिन्न है और पाठक के अनुभव क्षेत्र को व्यापक बनाता है। 

संग्रह की दो कहानियां का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा। पहली, आयरलैंड की रचनाकार मीव ब्रेन की कहानी ‘जिस दिन हमारी पहचान हमें वापिस मिल गयी’। विचार/राजनीति और कला को दो भिन्न रूप और एक दूसरे से जुदा मानने वाले यदि इस कहानी को पढ़ेंगे तो निश्चित है कि किंचित हिचकिचाहट भी यह कहने में महसूस नहीं करेंगे कि बिना विचार के कला का कोई औचित्य नहीं। बहुत महीन बुनावट की यह उल्लेखनीय रचना है। 
दूसरी, ईराक की रचनाकार बुथैना अल नासिरी की कहानी ‘कैदी की घर वापसी’। आजकल ‘राष्ट्र वाद’ का डंका पीटने वाली मानसिकता को आईना दिखाती यह कहानी उस यथार्थ से रूबरू होने का अवसर देती है कि सत्ता किस तरह से लठैती के झूठे तमगे से नवाजती है और जीवन से हाथ धोने को मजबूर एक सैनिक के प्रियजनों को किस तरह की ‘शहादती’ प्रतिष्‍ठा से भर देती है। शहीद घोषित हो चुका कोई सैनिक यदि कई सालों के बाद, जैसे-तैसे बचते-बचाते हुए, सकुशल घर लौटता है तो आत्मीयता को मिले उपहारों में घोल कर पी चुके सगे-संबंधी किस तरह से पेश आ सकते हैं। यह किसी एक देश की सत्‍ता का चरित्र और किसी एक भूगोल का यथार्थ नहीं, बल्कि उसकी व्‍यापाकता सार्वभौमिक है। 

वे कहानियां जिनके मिजाज एक निश्चित भूगोल और समाज के यथार्थ के साथ एकाकार होने के कारण हिन्दी से भिन्न भी हैं, रचनाकारों के परिचय के तौर पर दर्ज बहुत सी बातें, पाठक को उसे अपने संदर्भों के साथ मिलान करते हुए पढने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।


इस ब्लाग के पाठक यह फख्र महसूस कर सकते हैं कि संग्रह की कुछ रचनाओं को वे बहुत पहले ही यहां भी पढ़ चुके होंगे। अभी उसी कड़ी को संभालते हुए यादवेन्द्र जी के चयन की दो बानगियां यहां अतिरिक्तं रूप से सांझा की जा रही हैं। संभवत: भविष्य की किसी पुस्तक में ये फिर से दिखायी दें।

अर्जेंटीना की कहानी

अनूठी आदर्श जोड़ी 

                     

   -- एंद्रेस नेओमान  (अर्जेंटीना)








 ( एक)

मेरा नाम मार्कोस है। मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है।  
पर ऐसा नहीं है कि मुझे क्रिस्टोबल कह  पुकार जाए इसकी मंशा है - वह मेरा दोस्त है ,जिसको मैं अपना  बेस्ट फ्रेंड कहता हूँ ... और कोई नहीं है मेरा बेस्ट फ्रेंड ,बस वही है। 
गैब्रिएला मेरी पत्नी है - वह मुझसे बेहद प्यार करती है ... पर सोती क्रिस्टोबल के साथ है। 
क्रिस्टोबल  इंटेलिजेंट है ,खुद पर भरपूर भरोसा है उसे और साथ साथ चुस्त तथा फुर्तीला डांसर है।उसको घुड़सवारी भी आती है ... और तो और वह लैटिन ग्रामर में उस्ताद है। रच रच कर लजीज़  खाना बनाता है जिसे औरतें बड़े चाव से खाती हैं। मैं कहूँगा कि गैब्रिएला उसकी फ़ेवरिट डिश है। 
जो सारे मामले को नहीं जानता वह सोच सकता है कि गैब्रिएला मुझसे धोखा  कर रही है पर सच्चाई इस से ज्यादा परे और कुछ  नहीं हो सकती   
मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है पर वहाँ सामने खड़े होकर टुकुर टुकुर ताकने के लिए नहीं। मैं भरपूर कोशिश करता हूँ कि और कुछ बनूँ पर मार्कोस न बनूँ। डांसिंग की क्लास जाता हूँ और किसी विद्यार्थी की तरह किताबों को छान मारता हूँ। मुझे भली तरह से एहसास है कि मेरी पत्नी मेरा बहुत सम्मान करती है .. इतना कि  वह बेचारी सोती मेरे नहीं  उस आदमी के साथ है बिलकुल जिसके जैसा मैं बनने  का यत्न करता रहता हूँ।क्रिस्टोबल के बलिष्ट सीने में दुबक कर मेरी गैब्रिएला हमेशा अधीर होकर आशाभरी नज़रों से मेरी ओर देखती है... दोनों बाँहें फैला कर। 
उसके अंदर का धीरज देख कर मैं रोमांच और उत्तेजना से भर उठता हूँ .... बस हरदम यही मनाता रहता हूँ कि उसकी उम्मीदों पर खरा उतर पाऊँ जिस से एकदिन हम दोनों का भी संयोग बैठे। वह इस अटल प्रेम को साकार रूप देने के लिए कितनी   लगन  से लगातार प्रयास कर रही है - क्रिस्टोबल की नजर से छुप छुप कर पीठ पीछे  उसके शरीर, स्वभाव और पसंद के बारे में गहराई से पता करती रहती है जिस से वह तब पहले की तरह ही मेरे साथ भी खुश और सहज बनी रहे जब मैं बिलकुल क्रिस्टोबल की तरह बन जाने में कामयाब हो जाऊँ - तब हमें उसकी दरकार नहीं रहेगी हम उसे अकेला उसके हाल पर छोड़ देंगे।    

(दो) 

यह याद रखने वाली बात है कि फूहड़पन कभी कभी जरूरत से ज्यादा समानता से  भी उपजती है। एलिसा और इलियास को देख कर यह बात कही जा सकती है - वे इसके बिलकुल उपयुक्त उदाहरण हैं। इनमें से एक अपनी बाँयी बाँह हवा में ऊपर लहराता है और दूजा दाँयी बाँह तब जाकर वे एक दूसरे को आलिंगन  में ले पाते हैं फिर भी जब वे एक दूसरे की बातें करते हैं तो लगता है जैसे उनके मन तन में कामोत्तेजना दहाड़ें मार रही हो। उन दोनों की आदतें बिलकुल एक समान थीं और अलग अलग घटनाओं पर भी राजनैतिक मतभेदों की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं दिखायी देती - झगड़ने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। संगीत दोनों एक ही सुनते और दोनों ठहाके लगा कर हँसते भी तो एक ही लतीफ़े पर।  जब वे किसी रेस्तराँ में खाने जाते तो बगैर दूसरे से  कुछ पूछे इनमें से एक ऑर्डर दे देता। कभी ऐसा नहीं होता कि उनमें से किसी एक को जिस समय नींद आ रही हो उस समय दूसरा नींद नहीं अलग मूड में हो और यह उनकी सेक्स लाइफ़ के लिए  बड़ा मुफ़ीद था हाँलाकि व्यावहारिक तौर पर इसके अपने नुकसान  भी थे - जैसे सुबह सुबह उठ कर पहले बाथरूम कौन जाये ....  या रात में फ्रिज में रखे  दूध का ग्लास पहले कौन पीने के लिए उठा ले ...  या कि पिछले हफ़्ते मिलजुल कर योजना बना कर खरीदा गया नॉवेल पहले कौन पढ़ कर ख़तम कर ले - इसको लेकर उन दोनों के बीच अदृश्य प्रतिद्वंद्विता रहती। सिद्धांत रूप में कहें तो एलिसा बगैर किसी अतिरिक्त  कोशिश के सेक्स में अपने ऑर्गैज़्म (चरम बिंदु) पर उसी पल पहुँचती जिस समय इलियास वहाँ कदम रखता पर व्यावहारिक जीवन में उन दोनों के शरीरों का एक समय में एक गाँठ में बँध जाना एकदम सहज  और अनायास था। उनके बीच इस तरह की समानता को देख कर एलिसा की माँ अक्सर कहती कि देखो लगता है दोनों जैसे एक ही संतरे की बीच से आधा आधा काट दी गयी दो फाँकें हों। जब भी वे यह कहतीं दोनों के गालों पर लाली छा  जाती और दोनों झुक कर एक दूजे को चूमने लगते। 
उस ख़ास उथल पुथल वाली रात एलिसा बिस्तर से उठ कर बीच सड़क पर जोर जोर से चिल्लाने को आतुर थी: मैं दुनिया में सबसे ज्यादा नफ़रत यदि किसी से करती हूँ तो वह और कोई नहीं तुम हो  ... हाँ ,तुम ... सिर्फ़ तुम। और इलियास था कि गुस्से में बोल वह भी रहा था पर उसकी आवाज़ एलिसा की चीख के सामने मामूली  और कमजोर थी सो अनसुनी रह जा रही थी। इसके बाद वे दोनों सोने की कोशिश करते रहे पर डरावने सपनों ने उन्हें चैन से सोने न दिया ... सुबह उठ कर  बगैर एक शब्द बोले पूरी ख़ामोशी के साथ उन्होंने नाश्ता किया और यह बातचीत करनी भी जरूरी न समझी कि इस घटना के बाद अब आगे क्या और कैसे करना है। शाम को जब एलिसा काम से घर लौटी और बैग में अपने सामान समेटने सहेजने लगी तो उसे पहले से आधा खाली वार्ड रोब को देख कर कोई अचम्भा नहीं हुआ। 
जैसा ऐसे मामलों में दो प्रेमियों के बीच आम तौर पर हुआ करता है , एलिसा और इलियास ने कई बार बीती बातों को भुला कर सुलह कर  लेने की कोशिशें कीं .... पर हुआ कि जब भी एक ने दूसरे से  फ़ोन पर बातचीत करने की कोशिश की उधर का फ़ोन हमेशा बिज़ी आया।इतना ही नहीं उन दोनों ने कई मौकों पर आपस में मिल बैठ कर आमने सामने बात करने की योजना बनाई पर यह सोच सोच कर कि दूसरे ने इस बात को खाम खा इतना तूल दे दिया और मिलने में इतनी देर क्यों लगाई , तय समय और स्थान पर मिलने भी नहीं गए - कोई एक नहींदोनों में से कोई भी नहीं गया।  
   
(स्पैनिश से निक केस्टर व लोरेंजो गार्सिया द्वारा किये अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित तथा ओपन लेटर द्वारा 2015 में प्रकाशित "द थिंग्स वी डोंट डू" संकलन से साभार) 

Sunday, July 22, 2018

जब रात है ऐसी मतवाली फिर सुबह का आलम क्या होगा


डा. रश्मि रावत


यह दुनिया जिसमें जो कुछ भी हलचल भरा है, वह पुरुषों की उपस्थिति से ही गुंजायमान दिखायी देता है। यहां तक कि दोस्तियों के किस्‍से भी। स्त्रियों की निरंतर, अबाधित, बेशर्त दोस्तियों के नमूने तो नजर ही नहीं आते, जहाँ वे एक-दूसरे के साथ जो चाहे सो कर सकें और कोई न उंगली उठाए और न बीच में आए बिना ऊँच-नीच सोचे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागिता कर सकें। सहेलियाँ ही नहीं, एक ही घर में पलने वाली बहनें भी शादी के बाद अलग-अलग किनारों पर जा लगती हैं और नई व्यवस्था से ही खुद को परिभाषित करती हैं। खुद अपनी ही पहली पहचान से एक किस्म का बेगानापन उनकी वर्तमान जिन्‍दगी का भारतीय परिवेश है। इसलिए विवाहित बहनें भी खुद को एक धरातल पर नहीं पातीं हैं। अपनेपन का, परस्परता का वह प्यारा सा साथ जो पिता के घर में मिलता रहा, प्रायः एक औपचारिक रिश्तेदारी में बदल जाता है। हाल ही में रिलीज हुई शंशाक घोष निर्देशित वीरे दि वैडिंग बॉलीवुड मुख्यधारा की सम्भवतः ऐसी ही पहली फिल्म है जो इन स्थितियों से अलग, बल्कि विपरीत वातावरण रचती है।  

फिल्‍म की चार सखियों के बीच बड़ी गहरी बॉंडिंग है। आपस में उन्मुक्त भाव से दुनिया से बेपरवाह हो कर ये सहेलियाँ मौज-मस्ती और मनमर्जियाँ करती हैं। फिल्म के नाम से ही जाहिर है कि इन मनमर्जियों में स्त्री-मन की अद्वितीयता और गहरी परतें नहीं मिलेंगी। बचपन से एक-दूसरे की मनमीत ये सखियाँ छाती ठोक कर अपने को वीरे जो कहती हैं। जीवन-भर साथ चलने वाले ऐसे गहरे याराने पुरुषों के बीच तो आम हैं और घर-परिवार-समाज में इस कदर स्वीकृत कि दोस्तों के बीच कोई नहीं आता। पुरूषों की दुनिया के ये दोस्ताने तो ऐसे सम्बंध तक स्‍वीकृत रहते हैं कि कई बार परिवार के दायरे तक पहुंच जाते हैं। सवाल है कि अटूट यारानों का बिन दरो-दीवार का ऐसा जीवंत परिवार क्या स्त्रियाँ नहीं बना सकतीं?


फिल्‍म में महानगर की चार आधुनिक स्त्रियाँ ऐसा खुला परिवार रचने की यात्रा पर जब निकलीं तो खुद को वीरे मान लेती हैं। वे नाम-मात्र की वीरे नहीं हैं, हर सुख-दुख में, रस्मों-रिवाजों के मॉडर्न रूपों को निभाने में एक-दूसरे के साथ खड़ी हैं। फिल्‍म में गाना बजता है-कन्यादान करेगा वीरा/मत बुलवाना डैडी। वीरा पूछ्यां क्या शादी का मीनिंग/ मैं क्या बेटा जेल हो गई।

दिक्‍कत यही है कि फिल्‍म इस तरह का सवाल खड़ा नहीं करती है कि कन्या क्या वस्तु है जिसे दान में दिया जा सकता है ? कन्यादान भी दोस्तों से ही करवा लेना चाहती हैं वे। कन्यादान की परम्परा की तह में जा कर सोचने के लिए फिल्म कोई राह नहीं बनाती है। अतः जिन प्रश्नों को इसमें उठाया गया है, वे स्त्रीत्व के विकास में क्या और कैसे जोड़ते हैं, इस पर चर्चा जरूरी हो जाती है।

स्त्रियों की आजादी में सबसे बड़ी बाधा सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जड़ें जमाए उसके संस्कार ही बनते हैं और ये बाधक समाज फिल्म में लगभग गायब सा है। चारों कथा पात्र ऐसे किसी भी सवाल कम से कम टकराती तो नहीं ही हैं।

मीरा सूद (शिखा तलसानिया) अमरीकन पुरुष से प्रेम विवाह करके एक बच्चे की माँ भी बन चुकी है। यह विदेशी पुरुष सत्तात्मक रोग से मुक्त है उसके भरोसे बच्चा छोड़ कर न केवल दोस्तों के साथ मौज की जा सकती है, वह एक संवेदनशील, समर्पित पति भी है। फिल्‍म में दिखाये गए इस संबंध को इस तरह भी व्‍याख्‍यायित किया जा सकता है कि शायद ऐसा भारतीय पति पाना मुश्किल रहा होगा तो मीरा के दिल के तार देश की सीमा को पार करके विदेशी धरती से जुड़े दिखाए गए हैं। जैसे-तैसे अल्हड़, स्वच्छंद याराना के बीच आ सकने वाली किसी भी अड़चन को काँट-छाँट दिया गया है कि सिर्फ इन चार महानगरीय बालाओं के आपसी खिलंदड़पने पर नजर रहे। इस तरह उन्मुक्त, बिना विचारे जिंदगी का लुत्फ लेते रहने से तो गलतियाँ होना लाजमी है। गलतियाँ होती हैं तो हों। यह तो टेक ही है फिल्म की। गाने में भी इस आशय की बात है।

कालिंदी पुरी (करीना कपूर), जिसकी वैडिंग के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है, उसकी माँ की भी यही सीख है कि बड़ों के लिए बाद में जो गलत साबित हो गया, उसे अपने लिए गलत मान कर जीना मत छोड़ देना। जो भी तुम्हें मन करे, सही लगे जरूर करना। तुम अपनी गलतियों से सीखना। स्त्री को भी प्रयोग करने का अधिकार है। गलती के डर से जिंदगी का अनुभव कोष खाली रखने के फिल्म सख्त खिलाफ है। यह फलसफा इसकी ताकत है। अपने आवेगों के प्रति ईमानदार रह क ही व्यक्ति समृद्ध होता है और समय के साथ परिपक्व होता है। गिरने के डर से सुरक्षा की खोल में दुबके रहने से जिंदगी की घुड़सवारी कैसे होगी। पर जीवन में सक्रिय हस्तक्षेप का संदेश उतनी खूबसूरती से संप्रेषित नहीं हो पाता। क्योंकि स्त्री देह पौरुष साँचे में ढल कर आई है। एक-दूसरे को  ब्रो(BRO)’ कहने वाले महानगरीय दोस्त जो-जो करते हैं, इन चारों आधुनिक स्त्रियों को सब कुछ वही-वही करना है। घटाघट पीना है, सिगरेट के धुँए उड़ाते जाना है, इरोटिक बातें, गाली-गलौज करनी हैं। किसी भी बात पर ठहर कर सोचे बिना उसे हँसी-मजाक, छेड़-छाड़ में उड़ा देना है। बारहवीं क्लास का अंतिम दिन शैंपेन पीते हुए ब्वाय फ्रैंड, सैक्स की बात करते हुए जिसतरह बिताते हैं। दस वर्ष की छलाँग के बाद जब कालिंदी की शादी के लिए दोबारा मिलते हैं, तब भी बातों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं दिखता। आवेगों और गलतियों से सीखने के लिए तो गलतियाँ और आवेग खुद के होने चाहिए। फिल्म के मिजाज को देखते हुए सामाजिक भूमिका को नजरअंदाज कर भी दिया जाए तो भी देह की संरचना बदलने से भी बहुत कुछ बदल जाता है। दिल चाहता है और जिंदगी न मिलेगी दोबारा फिल्मों में भी अलमस्त दोस्ती की मौज-मस्तियाँ हैं। उन्हीं मौजों में वे परिपक्व होते जाते हैं। कॉलेज के समय के अल्हड़ नवयुवक आगे चल कर जिम्मेदार, समझदार व्यक्ति में तब्दील होते हैं। जिंदगी न मिलेगी दोबारामें एक-दूसरे को उनके मन में बसे डर और बंधनों से मुक्त करने में तीनों दोस्त मददगार साबित होते हैं।वीरे दि वैडिंग में उम्र के साथ व्यक्तित्व में ऐसा उठान तो नहीं दिखता पर दुनिया में हर हाल में अपने साथ खड़े, बेशर्त स्वीकार करने वाले चंद लोगों के साथ होने का आत्मविश्वास लगातार जीवंतता को बनाए रखने और अपनी-अपनी कैद से मुक्त होने की राह जरूर बनाता है।

सगाई की पार्टी में चारों अपनी-अपनी उलझनों में इस कदर घिरी हुई हैं कि सब अपने-अपने द्वीप में कैद सी हो जाती हैं। दुनिया के सरोकारों से तो पहले ही कटे हुए से थे चारों। निजी समस्या के बढ़ने पर एक-दूसरे से भी कट जाती हैं। सच्चे दोस्त नजर नहीं आ रहे थे और फॉर्म हाउस में तड़क-भड़क, शोर-शराबे में होने वाली बेहद खर्चीली झूठे दिखावे वाली सगाई में अकेली पड़ कर दुल्हन को एहसास होता है कि उसे दिखावे के लिए शादी नहीं करनी और वह भाग जाती है और फिर एक-दूसरे की गलतियों के हवाले दे-दे कर थोड़ी देर चीखना-चिल्लाना, रूठना होता है। इस अवरोध को तोड़ता है करोड़पति बाप की बेटी साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर) का फोन और चारों निकल पड़ती है फुकेत में गलैमर से भरपूर मौज-मस्ती करने। फिल्म की कहानी के झोल कोई क्या देखे। स्त्रियों के लिए तो मात्र इतनी सी बात काफी रोमांच से भरी है कि एक सबके लिए दिल खोल कर खर्च करे और बाकि बेझिझक स्वीकार करके अकुंठ भाव से छोड़ दें खुद को जिंदगी के बहाव में। वहाँ झकास जगहों पर घूमते-फिरते-तैरते-खाते-पीते, हँसते-गपियाते अपनी वह बातें इतने सहज भाव से एक-दूसरे से बोल देती हैं, जिसने उन्हें भीतर ही भीतर अपनी गिरफ्त में लिया हुआ था। कोई किसी के लिए कभी जजमेंटल नहीं होता। हास-परिहास करते हैं, खुलेपन चुहल और छेड़-छाड़ करते हैं। किसी को कभी किसी भी दूसरे की बात इतनी गम्भीर, इतनी बोझिल नहीं लगती जिसके साथ जिया न जा सके। एक साथ बोलने-बतियाने भर से गाँठें खुल-खुल जाती हैं। एक दूसरे से दूर होने पर जिसे बोझ की तरह छाती पर ढो रहे थे। एक धरातल पर खड़ी चार जिंदगियाँ एक ताल पर एक साथ धड़क कर मानो अपनी धमक भर से उसे रूई की तरह धुन के उड़ा देती हैं। स्त्री की डोर स्त्री से जुड़ते जाने में ही स्त्रीत्व की शक्ति निहित है। यह बहनापा जिस दिन मजबूत हो गया स्त्री को कमतर व्यक्ति बनाने वाली पारम्परिक समाज की चूलें पूरी तरह हिल जाएँगी। हर स्त्री अपने-अपने द्वीप में कैद है, उनके बीच निर्बंध, निर्द्वंद्व आपसदारी के सम्बंध पुरुषों की तुलना में बहुत कम विकसित होते हैं इसलिए समाज में तमाम सामान्यीकरण, कायदे-कानून पुरुषों की अनुकूलता में विकसित होते हैं। पुरुषों की गलतियों पर उंगली नहीं उठाई जाती, उन्हें हर वक्त समाज की निगाहों की बंदिशें, बरजती उंगलियाँ नहीं बरदाश्त करनी पड़तीं। गलतियाँ करते हैं, उससे सबक ले कर अनुभव का दायरा विस्तृत कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन समाज की निगाहों में गलत एक कदम स्त्री के पूरे जीवन को प्रभावित करता है। फिल्म की ये चार स्त्रियाँ एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा न करतीं तो नामालूम सी बात की जीवन भर सजा भोगतीं और यह वास्तविक जीवन में होता भी है क्योंकि स्त्री को कॉमन प्लेटफॉर्म नहीं मिल पाता। हालांकि सशक्त कहानी न होने के कारण बातें असंगत लग सकती हैं कि ये कैसे सम्भव है किसाक्षी जैसी अमीर, मॉडर्न, पढ़ी-लिखी बोल्ड लड़की अपनी यौनिकता की पूर्ति करने के लिए इतना अपराध बोध पालेगी कि सबके ताने झेलती रहे और किसी से कुछ भी न कह पाए, उसकी शादी टूट जाए और उसका नकचढ़ा पति उसे इस एक्शन के लिए ब्लैकमेल करता रहे कि यदि उसे 5 करोड़ न दिए तो वह सबको बता देगा। ऐसे ही आत्मविश्वास से भरी मीरा बच्चे होने के बाद आए मोटापे और शारीरिक बदलावों के कारण दाम्पत्य रस खो दे। दिल्ली जैसे महानगर में वकील सुंदर, स्मार्ट अवनि शर्मा ( सोनम कपूर) अपने लिए उपयुक्त जीवन साथी न खोज पाने और माँ की शादी की रट और उम्र निकली जा रही के बारम्बार उद्घोष से घबरा जाए और कालिंदी तो प्रेम और विवाह के द्वंद्व से हैरान-परेशान है। वह अपने प्रेमी ऋषभ मल्होत्रा से अलग भी नहीं रह सकती और शादी में बँधना भी नहीं चाहती।  पारम्परिक समाज में स्त्री के शोषण की आधार भूमि ही बनता है परिवार तो डर लाजमी भी है। बहनापे की यह डोर कुंजी बनती है जिंदगी में जड़े तालों को खोलने के।


अनगढ़ स्क्रिप्ट और अपरिष्कृत ट्रीटमेंट के बावजूद फिल्‍म से यह संदेश तो साफ मिलता है कि स्त्री के साथ स्त्री का साथ होने मात्र से जिंदगी में बेवजह आने वाली चुनौतियाँ अशक्त हो कर झड़ जाती हैं। समय के साथ स्त्री जब अपने खुद के वजूद के साथ अपने ही साँचे में सशक्त ढंग से बहनापे के रिश्ते बनाएंगी, न कि वीरे के, तब उसमें जिंदगी की वो उठान होगी, आनंद की ऐसी लहरें होंगी कि जिंदगी सार्थक हो उठेगी और वह समाज की एक महत्वपूर्ण कड़ी बनेगी। तब वह अपनी देह के रोम-रोम से जिएगी। इस फिल्म के किरदारों के आनंद के स्रोत तो मुख्य रूप से दो अंगों तक सिमट कर रह गए हैं। जबकि स्त्री के अंग-अंग में सक्रियता की, सार्थकता की अनेकानेक गूँजें छिपी हैं। सदियों के बाद तो स्त्री को ( फिलहाल छोटे से तबके को ही सही) अपने खुद के शरीर पर मालकियत मिली है। उसके पास अवकाश है। मास-मज्जा की सुंदरतम सजीव कृति को वह अपने ढंग से बरत सकती है। क्या न कर ले इससे। रोम-रोम से नृत्य, खेलना-कूदना, दौड़ना-भागना, पहाड़ों की चोटियाँ लाँघना, पानी की थाह पाना, झिलमिलाते तारों का राज खोजना, अपनी ही साँसों का संगीत सुनना, गति-स्थिति, वेग-ठहराव......हर चीज का एहसास करना। अपनी सचेतन जाग से सोई हुई सम्भाव्यता को जगा भर लेना है, जो सचमुच के ‘वीरे नहीं समझ पाएँगे, क्योंकि उनके पास यह शरीर और ये मौके हमेशा से उपलब्ध थे। उन्हें स्त्रियों की तरह अनथक कोशिशों से इन्हें अर्जित नहीं करना पड़ता।