Friday, November 9, 2018

इस मुश्किल समय में आशा का आश्ववास देती कविताएँ


गीता दूबे


आज जहाँ भरोसा शब्द पर से ही लोगों का भरोसा उठता जा रहा है वहां संभवतः कवि या फिर रचनाकार ही एकमात्र ऐसा जीव है जो भरोसे को बचाए रखने की बात करता है। वस्तुतः कभी कभार गंभीरता से सोचने पर ऐसा लगता है कि साहित्य एक ऐसा अजायबघर है जहाँ वे सारी वस्तुएं एक- एक कर अपनी जगह बनाकर सुरक्षित होती जाती हैं जो एक एक कर सचमुच के संसार से गायब हो रही हैं। और इसीलिए कवि निरंतर लुप्तप्राय भरोसे को अपना ही नहीं पाठकों का संबल बनाकर दुनियावी उलझनों को सुलझाने की भरपूर कोशिश करता नजर आता है। अपने पांचवे कविता संग्रह "भरोसे की बात" में कवि शैलेंद्र अतीत की स्मृतियों को संजोने के साथ साथ वर्तमान के सवालों से रुबरु होते हुए भविष्य के सपने भी सजाते दिखाई देते हैं। अतीत की स्मृतियाँ कवि ही नहीं साधारण मनुष्य के लिए भी बहुधा संजीवनी का काम करती हैं जिसकी शक्ति के बल पर वह अपने वर्मान के दुखों और तकलीफों का भरदम सामना करता है। कवि भी इन स्मृतियों को खूबसूरती से अपने दिल ही नहीं अपनी कविताओं में भी संजोते हुए सुकून की सांस लेता दिखाई देता है। यह अतीत हमेशा ही खूबसूरत रहा हो यह जरुरी नहीं पर कवि अपनी स्मृतियों के झोले से अतीत के जिस टुकड़े को निकालकर उसे पाठकों के साथ साझा अरता है वह निस्संदेह अपनी खूबसूरती से सबको मोह लेता है। प्रसाद की कविता "वे कुछ दिन कितने सुंदर थे" का प्रेमिल अहसास या मादकता भले ही इनमें न हो पर रोमानीपन का भला भला सा लगनेवाला संस्पर्श जरूरत मौजूद है जो पाठकों को अंतर्मन को मृदुता से सहलाते हुए उसे वर्तमान की भयावहता से भी परिचित कराता है। "उस वक्त की कहानी" कहते हुए कवि अतीत और वर्तमान के इस फर्क को किस तरह उभारता है यह गौरतलब है-
"रोटियां बांटी थी
बांटी थी किताबें
कपड़े भी बांटे थे
* * * * * * *
मिल- बांट कर
भगाया था दुखों को
हांक ह़ाक कर
यह उस वक्त की कहानी है
जब बंटे नहीं थे घर -आंगन।" (पृ. 59)

हालांकि कहने को तो देश ने एक बंटवारा झेला पर उस बंटवारे की पीठ पर अनगिनत बंटवारों की लाशें लदी हुईं हैं जो वर्तमान को सड़ांध से भर देती हैं और दर्दीले आतंक की खौफनाक परछाइयाँ आज तक आम आदमी को दहलाती हैं। अतीत की ये यादें कवि को लगातार कोंचती और बेचैन बनाए रखती हैं और इसी कारण विकास की दुहाई देनेवाली  इक्कीसवीं सदी की उस अजीब सी घड़ी को भी अपनी कविता में दर्ज करने से नहीं चूकता जब मानवता को शर्मसार करनेवाली घटनाएं घटती हैं -
"अपने ही हाथों में थे
ईंट- पत्थर
लाठी , ड़डे, खंजर भी थे
* * * * * * *
व्‍याभिचार की शिकार बेटियां
और अभियुक्तों की कतार में खड़े पराक्रमी
अपने ही थे
* * * * * * *
पर सबको
 अपनी अपनी ड़ी थी
इक्कीसवीं सदी की।
यह एक अजीब सी घड़ी थी।" (पृ.73)

लेकिन इनके साथ ही कुछ मृदु मृदु स्मृतियाँ भी हैं जो किसी भी व्यक्ति का बहुत बड़ संबल होती हैं। वे स्मृतियां कवि की उदासी और जिंदगी के बासीपन को भी अर्थवत्ता प्रदान करती हैं क्योंकि खुशी और उदासी के योग से ही जिंदगी की लय बनी रहती है। "तुम बिन" ऐसी ही कविता है-
"कल
खुशी टहल रही थी
घर में
आज उदासी
बाकी के सारे किस्से
वही
बासी के बासी।" (पृ.36 )

कवि शैलेंद्र की यह विशेषता है कि वह बहुत लंबी कविताएं नहीं लिखते, उनकी छोटी -छोटी कविताओं में जिंदगी का मर्म लिपटा दिखाई देता है। और कविता का अर्थ बहुधा अंतिम पंक्ति में आकर मुखर ही नहीं होता खिल भी उठता है।  कई मर्तबा तो उनकी छोटी सी कविता अपने में बहुत गहरा अर्थ समेटे नजर आती है जो उसकी ताकत बन जाती है,  'जिंदगी' शीर्षक कविता का उदाहरण देना चाहूंगी- -
"इस किताब के पन्ने
पलटने नहीं पड़ते
फड़फड़ाने लगते हैं
खुद--खुद
नित नये सबक के साथ" (पृ.47)

जिंदगी के इन्हीं सफों को पलटते हुए कवि बहुत से अनुभवों के पन्नों को हमारे साथ साझा करता है। आलोच्य कविता संग्रह की यह विशेषत है कि इसका कोई मूल केंद्रीय स्वर नहीं है ,यह प्रेम, प्रकृति आदि के साथ -साथ अपने समय के सवालों के साथ टकराता है।  कवि की पक्षधरता स्पष्टतः हाशिए के लोगों के साथ है और स्वयं मध्यवर्ग का प्रतिनिधि होते हुए भी वह मध्यवर्गीय लोगों की मानसिकता पर गाहे बगाहे व्यंग्य करने से नहीं चूकता। सत्ता ओर राजनीति के खिलाड़ी हों या नवधनाढ्य वर्ग के विलासी उन सब पर वह हौले से प्रहार करके आगे बढ़ जाता है।विरोधी की इन कविताओं में जरूरत से ज्यादा आक्रमकमता नहीं है जो कविता को नारे में बदल देती है लेकिन साजिशों को समझने और उकेरने की ईमानदारी जरूर है। इसी क्रम में वह अंधाधुंध विकास के नाम पर होनेवाले विनाश को भी वह रेखांकित करना नहीं भूलता। और उसकी समझदारी इस बात से जरूर  स्पष्ट होती है जब वह आज के पाखंडी समय में लोगों को भरमाने और भटकाने वाले मुद्दों की न केवल पहचान करता है बल्कि इनके झूठे रंगों को धोने की हिम्मत भी करता है -
"हम पढ़ते हैं, सफाई से टंकित झूठ
चम-चम चमकते पन्नों पर
और देखते हैं श्याम-सफेद
रंगीन पर्दों पर दोहराए जाते
और पाते हैं उसे
 सच के रूप में स्थापित होते
* * * * * * * * *
यह एक ऐसा खेल है , जिसे खेला जा रहा है अरसे से
अब तो झूठ भी एक उपलब्धि है
बा-जरिए अभिव्यक्ति की आजादी के।" (पृ.58)

जमाने के इन झूठों और फरेबों से बौखलाया कवि कभी कभार अपनी कविता में एक स्टेमेंट देता नजर आता है और वहीं कविता का स्वर सपाटबयानी में ढलता नजर आता है। दरअसल आज के समय के कई ऐसे संवेदनशील मुद्दे हैं जिनपर कुछ कहने या बोलने के मोह से प्राय रचनकार बच नहीं पाते वह मुद्दा चाहे धर्म का हो ता राजनीति का। और इन विषयों पर लिखी कविताएं महज एक बयान बन कर रह जाती हैं , ऐसे बयान जो बार बार दोहराए जाने के कारण अपना अर्थ खो चुके हैं। बल्कि वे कुछ कविताएं ज्यादा विश्वसनीय बन पड़ी हैं जहां कवि बड़ी ईमानदारी से अपनी बेबसी को बयान करता नजर आता है। आज सच में रचनकार सत्ता या राजनीति के सामने बेबस ही है लेकिन फिर भी वह सृजनरत रहकर समाज के प्रति अपना दायित्व जरूर निभाने की कोशिश करता है। इसी कारण वह साफ साफ अपनी बात कहने की कोशिश करते हुए इस साफगोई को जरूरी भी मानता है
"जब साफ-साफ कुछ कहते हैं- च्‍छे लगते हैं।" ( पृ.48)

संग्रह की  इन बहुरंगी और विविध आयामी कविताओं का मूल छोर मनुष्य की संवेदना से जुड़ता है और संवेदना के रेशों से बुनी  गई कविताएँ जीवन के मधुतिक्त अनुभवों का बहुरंगी कोलाज बनाती हैं। वहाँ अगर स्मृतियों का माधुर्य है तो उस माधुर्य के चूक जाने या बीत जाने की पीड़ा भी है । इस सुख दुख की आंखमिचौली के बीच कवि सुख को तो सबके साथ बांटना चाहता है लेकिन दुख की गठरी अकेले ही उठाने की बात करता दिखाई देता है शायद वह इस दुनिया का यह दस्तूर जानता है कि दुख में अक्सर अपनी परछाई भी साथ छोड़ देती है-
 "सुख को बांट लो मिलकर
दुख को मगर चुपचाप अकेले ले लो ।"( पृ.25)

किसी भी रचनाकार के लिए एक बड़ी चुनौती होती है उसकी समकालीन संवेदना। कई मर्तबा  कालातीत कविताएँ लिखने के व्यामोह में अपने समय की छोटी छोटी घटनाओं को नजरअंदाज भी कर देता है। यहां तात्कलिकता में बहने की बात नही बल्कि कुछ दर्ज करने लायक टनाओं को  दर्ज करने की कोशिशों का जिक्र है। कवि अपने जीवन के बेहद छोटे अनुभव को भी अगर महत्वपूर्ण मानता है तो उसे दर्ज करना नहीं भूलता। इसी के साथ एक महत्वपूर्ण सवाल स्थानीयता का भी है। कवि देश के किस हिस्से में सृजनरत है वह हिस्सा अपनी तमाम वशेषताओं के साथ अगर उसकी रचनाओं में अंकित होता है  तो वह भी कवि की एक बड़ी विशेषता है।

रचनाकार अपनी रचनाओं में वही रचत या उकेरता है जो कुछ वह देखता, सुनता या महसूस करता है। कवि शैलेंद्र का रचनकार अपने आस- पास के परिवेश को ही अपनी रचनाओं में उकेरता है और यह अगर उसकी सीमा है तो उसकी विशेषता भी । वस्तुत:  कई मर्तबा एक बड़े यथार्थ को रचने की चाह में हम अपने आस पास के परिवेश को उपेक्षित करते हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो राष्ट्रीय अथवा वैश्विक दिखाई देने की होड़ में हम अपनी स्थानीयता को नकारने से भी नहीं कतराते गोया कि स्थानीय होना कमतर होना है लेकिन शैलेंद्र की कविताओं में यह स्थानीय होना बखूबी दिखाई देता है। वह कलकत्ते में रहते हुए अपनी कलकतिया पहचाना पर गर्व करते हुए वहाँ के इतिहास को तो उकेरते ही हैं । इसके साथ ही वह जब जहाँ होते हैं वहाँ की खासियत या खूबसूरती से प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह पाते।  
अपनी कलकतिया पहचान को "साल्टलेक" शीर्षक कविता में अभिव्यक्ति देते हुए वह वहाँ समय के साथ आये बदलाव को रेखांकित करना भी नही भूलते और उनका उद्देश्य संभवतः कलकत्ता के सांस्कृतिक ऐतिहासिक परिवेश में आए बदलावों को रेखांकित करना भी रहा हो। जो कलकत्ता किसी समय क्रांति का शहर था, जहाँ कुछ सिरफिरे नौजवान व्यवस्था को बदल देने का सपना देखने की कोशिशों में लगे हुए थे वही अब अन्य विकसित शहरों की तरह विलासिता के छोटे- छोटे द्वीपों में कैसे बदल गया, यह सचमुच सोचने की बात है। कविता की ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं -
"कोलकाता में एक जगह है साल्टलेक
जहां न तो साल्ट है न लेक
यानि कि है वह पूरी तरह फेक
* * * * * * * * * * * *
तब झील के आसपास क्रांति के सपने भी बुनते थे कुछ सिरफिरे
और अब वह मालो- माल
तिजोरियों की पुजारी, अलमस्त, दिलफेंक है।" ( पृ. 33)

इसी तरह जब कवि दिल्ली पुस्तक मेले का भ्रमण करता है तो वहाँ के परिवेश में शब्दों की बरसात में भींगते हुए भी कलकत्ता में उस समय हो रही बरसात से अनछुआ नहीं रह पाता। अपनी पहाड़ी यात्रा के अनुभवों को भी वह पूरे हुलास के साथ शब्दबद्ध करता है। लेकिन सैलानी हुलास के बीच भी उसका सजग कवि मन जागृत हो उठता है और वह बांझ सौंदर्य की सीमा को भी समझता और समझाते हुए कह उठता है-
"जहां तुम आए हो
बदलने हवा-पानी
वहां के बहुत से लोग
पहुंच चुके हैं राजधानी
तुम्हें मालूम है सैलानी
खूबसूरती बांझ भी हुआ करती है
और सौंदर्य नपुंसक भी
और यह तो तुम्हें मालूम ही है
कि जिस्म को चाहिए होता है दाना-पानी।" (पृ. 70)

संग्रह की कविताओं में प्रगतिशीलता का ऐसा मृदुल स्वर भी मुखरित होता है जहाँ रूढ़ियों के विरोध या तिरस्कार के साथ साथ परंपरा का सम्मान भी नजर आता है। वह रूढ़ियों के विरोध के द्वारा अपनी आधुनिकता या तार्किकता को स्थापित करने की कोशिश जरूर करते हैं, उदाहरण के लिए ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं -
"सारे व्रत
तीज त्योहार
निर्जल उपवास
कब तक करती रहोगी
उनकी सलामती के लिए
जो एक दिन भी नहीं करते
तुम्हारे लिए
अरे, कुछ तो छोड़ो
कुछ तो तोड़ो।" ( पृ.32)

मुश्किल यही है कि कवि जिन रुढियों को तोड़ने या छोड़ने की ख्वाहिश जताता नजर आता है वे सारी रूढ़ियां परंपराओं के नाम पर ही इस देश में फलफूल रही हैं और प्रगतिशीलता के जबर्दस्त पैरोकार भी अपनी -अपनी पत्नियों को इन स्वर्णिम परंपराओं को निभाते हुए देखकर ऊपर -ऊपर चाहे कुछ भी क्यों न कह लें मन ही मन खुश भी होते रहते हैं। वस्तुतः यह एक बड़ा अंतर्द्वंद्व है जो तार्किकता एक अभाव से जन्म लेता है। बहुधा हम प्रगतिशील दिखना चाहते हैं और अपने हाव-भाव, वेशभूषा , बोलचाल आदि से प्रगतिशीलता का छद्म भी रच लेते हैं लेकिन जब तक हमारा मानस पूरी तरह परिष्कृत या परिमार्जित नहीं होता तब तक हमारी प्रगतिशीलता प्रश्नांकित ही रहती है।  

इसके बावजूद इस संग्रह का उल्लेखनीय बिंदु है इसमें व्याप्त सकारात्मकता जिसके कारण अविश्वास के इस घटाटोप में भी कवि भरोसा नहीं खोता। वह आपने साथ- साथ दुनिया पर भी भरोसा रखता है और इस भरोसे को बनाए रखने में बहुत बड़ी -बड़ी नहीं बल्कि बेहद छोटी छोटी चीजें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नजर आती हैं और इसी कारण तमाम छोटी -बड़ी मुश्किलों, विवशताओं और बेचैनियों के बावजूद वह अपनी जिंदगी से खुश और संतुष्ट है-
"जिंदगी गुजर गई
और पूछते हो
क्या मिला
बहुत मिला
बहुत मिला
जो भी मिला
बहुत मिला
यूं ही तो नहीं कटा
दुश्वारियों का सिलसिला।" (पृ. 71)

इस अति महत्वाकांक्षी समय में यह संतोष सचमुच सराहनीय है। कुल मिलाकर कवि शैलेंद्र का आलोच्य संग्रह इंसानियत ही नहीं साहित्य के प्रति भी हमारे भरोसे को कायम करता है। मुक्त छंद में रचित ये कविताएं बेहद सहजता से पाठकों के अंतर्मन में अपनी जगह बना लेती हैं। बहुत सी कविताओं में लयात्मकता भी है जो प्रायः प्रूफ की गलतियों से बाधित होती दिखाई देती है। प्रूफ अगर थोड़ी और सावधानी से देखा गया होता तो संग्रह की खूबसूरती और भी बढ़ जाती।  

भरोसे की बात, कविता संग्रह, शैलेंद्र शांत 
बोधि प्रकाशन, जयपुर 
अक्टूबर 2017, मूल्य 120/- पेपरबैक।

गीता दूबे, पूजा अपार्टमेंट, फ्लैट ए-3, द्वितीय तल
58/1 प्रिंस गुलाम हुसैन शाह रोड
यादवपुर, कोलकाता-700032। 
फोन: 9883224359/ 8981033867


Tuesday, November 6, 2018

मुर्गी को भी इंसानी भूत बना देते हैं वे


पेशे से एक अमेरिकी विश्व विद्यालय की प्रोफेसर एंजेला सोरबी कवि,कथाकार,बाल साहित्यकार और साहित्य की समालोचक हैं।उनके अनेक संकलन प्रकाशित और पुरस्कृत हैं।बर्ड स्किन कोट , डिस्टेंस लर्निंग और द स्लीव वेव्ज़ उनके प्रमुख संकलन हैं। अमेरिका के लोकप्रिय रेडियो एनपीआर के छोटी कहानियों के प्रोग्राम 'थ्री मिनट फ़िक्शन' के राउंड 6 (2011) में यह कहानी शामिल थी और सर्वश्रेष्ठ कहानी के चयन की निर्णायक चिमामांडा अदिची ने इस कहानी की विशेष चर्चा की थी। अमानवीय परिस्थितियों में काम करने वाली श्रमिक चीनी युवतियों को केन्द्र में रख कर लिखी गयी इस कहानी के बारे में वे कहती हैं कि यह बेहद संयम के साथ लिखी गयी कहानी है जिससे भावुकता का अतिरेक हावी नहीं होने पाया। यह व्यक्तियों को केन्द्र में नहीं रखती बल्कि आत्मा तक को मटियामेट कर देने वाली कार्य संस्कृति पर आघात करती है।ऊपरी तौर पर कहानी के किरदार जिंदा दिखते हैं पर राक्षसी काम ने उन्हें मार कर चलता फिरता भूत बना दिया है...यहाँ तक कि बुनियादी इंसानियत तक उनमें नहीं बची।

प्रस्तुति एवं चयन : यादवेंद्र 


                                              लाल पत्तियों वाला पेड़ 

                                                                                - एंजेला सोरबी

लैन काम पर देर से पहुँची तो उसकी बॉस चिल्लाने लगी : 'मालूम नहीं, तुम्हें यहाँ ठीक सात बजे पहुँचना था?' लैन ने पलट कर पूछा :'भला क्यों? सात बजे ऐसा खास क्या होने वाला होता है?' 
कल तो यह हँसी मज़ाक में हुआ था पर आज वैसा नहीं था...यह वाकया खूबसूरत खाल वाले कछुए सरीखा था,ऊपर से चमक दमक पर पलटते ही सड़ा हुआ गोश्त।
जिंग से मेरी कोई खास दोस्ती नहीं है पर फैक्टरी में जहाँ खड़ी होकर मैं काम करती हूँ उसी के पास वह भी खड़ी होकर काम करती है - उसका काम खूबसूरत पॉली बैलेरिना के सिर पर बाल चिपकाना है,मैं उनमें गाँठें बाँधती हूँ।पर हम यह काम अपने हाथ से नहीं करते,रोबोट से करते हैं...ऐसा नहीं कि रोबोट खुद ब खुद सारा काम सम्पन्न कर देता है,उसे भी इंसानी सहयोग चाहिए।काम करते हुए शॉप फ्लोर पर हमें एक दूसरे से कुछ भी बात करने की मनाही है फिर भी बातें छुपी कहाँ रह पाती हैं यहाँ से वहाँ तक फैल ही जाती हैं: अभी महीना भी नहीं हुआ था उसको हुनान के किसी गाँव से यहाँ आये कि ऐन यी लॉन्ड्री वाली छत से नीचे कूद गई...नीचे जहाँ लोगबाग पक्षी और फूल बाजार जाने के लिए 17 नं की बस के लिए खड़े थे,उसकी लाश उनके बीच सड़क पर पड़ी रही।
'मुझे अंदेशा था ऐसा होगा',जिंग ने छूटते ही कहा...'वह रातभर जगी रहती थी,कभी कुछ मिनट के लिए आँख लग जाये तो अलग बात...क्या उसकी आँखों के नीचे थैलियाँ लटकी हुई दिखाई नहीं देती थीं?आधी रात को शतरंज उठा कर वह पीछे के गलियारे में आ जाती और एक भूत के साथ देर तक बैठ कर खेलती - वह जगह कोई दूर थोड़े ही है,यहीं पास की दो फैक्ट्रियों की डॉरमिटरी के बीचोंबीच जो लाल पत्तियों वाला पेड़ है वहीं पर वह बैठ कर शतरंज खेला करती थी।'
'जिंग,यह तो सीरियस बात है।', मैं अपने काम के लिए रोबोट को हिदायत देते हुए बोल पड़ी:'यानि ऐन यी सहज मौत नहीं मरी है,उसने खुदकुशी कर ली।'
'उसी भूत ने उसे ऐसा करने को कहा था',जिंग एक रौ में बोलती गयी:'जानती हो वह भूत कौन था?पिछले साल ऐसे ही कूद कर खुदकुशी करने वाली एक लड़की....उसी ने उसे अपनी तरह कूद कर मर जाने को उकसाया।'
'मुझे यकीन नहीं हो रहा कि तुम भी  इतनी अंधविश्वासी हो सकती हो जिंग।तुम तो हुनान के किसी गाँव की अनपढ़ गंवार जैसी बातें कर रही हो।'गुस्से से मेरे कान गरम हो रहे थे जबकि मैं खुद हुनान से यहाँ आयी हूँ पर ऐसी दकियानूस बातों से कोसों दूर रहती हूँ।
जिंग ने मेरे तेवर देख मुझसे नज़रें मिलायीं...उसका चेहरा पीलापन लिए हुए लम्बोतरा है,किसी पुरानी मोटी सी जड़ सरीखा।बोली:'तुम्हें मालूम हैऐन यी अपने साथ हरदम एक मुर्गी रखा करती थी?'
'मुर्गी?क्या खाने के लिये?'
'धत,खाने के लिए नहीं...पालने के लिए।उसको सीने से चिपका कर रखती थी,इससे उसको सुकून मिलता था।पिछले हफ़्ते जब डॉरमिटरी वाले गैरकानूनी चीजों को हटाने के लिए कमरों की तलाशी ले रहे थे तब मुर्गी को पकड़ कर अपने साथ ले गए।'
जिंग की बातें सुनकर मैं मन ही मन में ऐन यी की छवि निर्मित करने लगी जिसमें वह अपनी पालतू मुर्गी को सीने से चिपकाए हुए खड़ी है...हाँलाकि उसको शायद ही मैं निकट से जानती थी।कल्पना में मुझे वह रोती हुई दिखी और आँसू छुपाने के लिए मुर्गी के पंखों के बीच घुसती हुई...
'चाहे कुछ भी हो उसे नियम नहीं तोड़ना चाहिए था',मैं स्वतःस्फूर्त ढंग से बोल पड़ी...हाँलाकि बोलते हुए मेरा मन वही करने को कह रहा था जिसको न करने की बात मैं कह रही थी - मुझे भी एकदम से एक मुर्गी पालने की इच्छा हो आयी... और मन हुआ कोई भूत आधी रात मेरे पास आये और छत से नीचे छलाँग लगा देने को कहे।
'उसने अपनी मुर्गी का पुकारने का नाम भी रखा हुआ था - पेंग्यू...अपने इलाके की भाषा में वह हर रात पेंग्यू को लोरी गा कर सुनाती थी।'
'पर यह बताओ,तुम्हें इतना सब कुछ मालूम कैसे है? तुम तो उसकी डॉरमिटरी में रहती भी नहीं थी।'
मेरा यह सवाल सुन कर जिंग इतनी जोर से ठहाका लगा कर हँसी कि उसका पूरा शरीर कांप गया...और दूर खड़ी लड़कियाँ उसे घूर घूर कर देखने लगीं।वह बोली: 'मैं यह सब कैसे जानती हूँ?इसलिए जानती हूँ कि मैं भी एक भूत हूँ, जिंदा इंसान नहीं।'
'झूठमूठ गप्पें मत हाँको जिंग',मैं तपाक से बोल पड़ी।वैसे उसको एक के बाद एक किस्से सुनाने की आदत थी...कभी लाल पत्तियों वाले पेड़ का,कभी जादुई अंगूठियों का...कभी हंसों का किस्सा तो कभी बेमौसम फलों का।
'पर तुम भी वही नहीं हो क्या मेरी दोस्त?सच बताना,तुम भूत नहीं तो क्या जिंदा इंसान हो?'
मैं ने कोई जवाब नहीं दिया...वैसे मैं जिंग की नजदीकी दोस्त हूँ भी नहीं कि उसकी तरह खुद को जिंदा इंसान नहीं भूत मानने लगूँ।पर विडम्बना यह है कि हम दोनों यहाँ एक दूसरे से सट कर खड़े हैं।परिस्थितियाँ हर समय एक सी नहीं रहतीं,बदलती रहती हैं।कौन जाने इनके पीछे क्या है,कौन है?
तभी मुझे एहसास हुआ हमारे चारों ओर तमाम लड़कियाँ खड़ी धीमी आवाज़ में बातें कर रही हैं...उनके स्वर स्पष्ट नहीं थे,मशीनों का शोर उन्हें ढाँपे दे रहा था।

Wednesday, October 10, 2018

घटनाओं के समुच्चय में

हमें कोई गुमान नहीं कि हमने क्या लिखा आज तक। कोई संताप नहीं कि क्या पढ़वाने को मजबूर करती हैं आलोचना। पत्रिकाएं। यह भी हमने नहीं कहा कि सब वैसा ही लिखें जैसा हमें भाता है। पर हम लिखते हैं। लिखना हमारी मजबूरी है। न लिखें तो क्यां करें उन अला-बलाओं का जिनसे अकेले पार पाना संभव नहीं। लिखते हैं कि दूसरे भी पढ़ें । सोचें, और एक से अनेक हो उठे आवाज जालिमों के खिलाफ। हमारा लिखना तब तक एकालाप ही हो सकता है जब तक पढ़ने वाला (ले) उससे सहमत नहीं। यह किसी का वक्तव्य नहीं पर राजेश सकलानी की कहानी ‘जनरल वार्ड’ तो अपने पाठ से ऐसा ही ध्वनित करने लगती है। पारंपरिक पद्धति की कहानी आलोचना की रोशनी में ‘जनरल वार्ड’ को पढ़ा जाएगा तो कहा ही जा सकता है, यह तो कहानी नहीं, कुछ-कुछ कवितानुमा गद्य के रूप में लिखा गया एकालाप-सा है। कहानी में तो घटना होनी चाहिए, पर इसमें तो कुछ घटता ही नहीं। कथित रूप से घटना के न होने को झुठलाती इस कहानी की विशेषता है कि इसे कहानी मानने की जा रही जिदद पर ध्याकन देने वाली निगाह भी इसे हिंदी की कहानी मानने को तो संभवत: तैयार न हो, और उस दायरे में यह आरोप भी मड़ा जाने लगे कि यह तो किसी अन्य भाषा की अनुदित कहानी है, तो उस पर हैरत नहीं करनी चाहिए। क्यों कि शब्द विहीन संगीत की लयकारी के से शिल्प में लिखी गयी यह ऐसी रचना/कहानी है जो पाठक को उसके निजी अनुभवों के संसार में ले जाने मजबूर करते हुए अनेक कथाओं का समुच्चय उसके सामने रख देती है। खास तौर पर तब, जब पाठक कहानी को पूरा पढ़ लेने के बाद दुबारा उसके शीर्षक की ओर ध्यान देता है। लेकिन यहां इस कहानी को शिल्प की वजह से याद नहीं किया जा रहा। क्योंकि कहानी का वह जो शिल्प है] वह भी शिल्प जैसा दिखता कहां है। वह तो कथ्य की स्वाभाविकता में स्वयं उपस्थित हो जा रहा है। 

दिलचस्पप है कि इस कहानी को पढ़ने का सुयोग हिंदी कहानियों की स्थापित पत्रिकाओं की बजाय एक सीमित भूगोल के बीच दखलअंदाजी करती एक नामलूम सी पत्रिका ‘युगवाणी’ ने संभव बनाया है। हिंदी की विस्तृत दुनिया में भी इस बात का पता नहीं चल पाता है कि युगवाणी सरीखी पत्रिकाओं में क्या लिखा गया और क्या छपा। यह कहने में संकोच नहीं कि ऐसी अभिनव रचनाओं को लाने में ‘युगवाणी’ जैसी नामालूम सी पत्रिकाओं की भूमिका ही अग्रणी दिखाई देती रही है, क्योंंकि न तो उनके संपादक को इस बात का कोई गुमान रहता है कि वे कोई बहुत महत्वपूर्ण रचना छाप रहे हैं और न उसके लेखक ही ऐसे मुगालते के शिकार होते हैं। 

‘युगवाणी’ का अक्टूबर 2018 का अंक इस कहानी के साथ-साथ उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के इतिहास का पन्ना बनते शेखर पाठक के आलेख से भी महत्वपूर्ण और संजोये रखने वाला है। 
कहानी ‘युगवाणी’ से साभार यहां प्रस्तुत है। 

यदि पढ़ने का मन न हो तो कहानी को सुना भी जा सकता है। या पढ़ते पढ़ते सुनिये। https://www.youtube.com/watch?v=h2jQs-MAHHU&feature=youtu.be
वि.गौ.

जनरल वार्ड 

राजेश सकलानी

जब तक मैं हूँ मेरे सामान में वजन है। उसमें अलगअलग दिशाओं की ओर बिखरते ख़याल हैंअनगिनत संकेत हैं। लगभग कूट भाषा है। यह रहस्यमयी दुनिया नहीं है। बस दुनिया की करोड़ बातों में अनेक गुम्फित बातें हैं। ये हल्के धागों की तरह है। किसी को वे बेहद उलझी हुई और निरर्थक डोरें लग सकती हैं। मुझे तो ये बिल्कुल साफ़पवित्र और पारदर्शी लगती हैं। कुछ पदवाक्य और कहीं अधूरे वाक्य कागजों पर फैले हुए हैं। ये ही मेरा कुल सामान है। 

मेरे बाद यह कुल सामान एक छोटे से गट्ठर में बाँध दिया जायेगा। एकदम फेंका भी नहीं जायेगा। शायद किसी टांड पर फेंक दिया जाय या घर के गैर जरूरी सामानों के साथ अलमारी के किसी खाने में ठूस दिया जाय। जब भी किसी के हाथ जायेगा दिमाग ये उलझन पैदा करेगा। बारबार दुविधा होगी। इसे कहाँ फेंका जाय या जला दिया जाय। देखने की कोशिश में वक़्त खराब होगा।

इन्हें बाद में देखा ही नहीं जाय। यही मैं चाहूँगा क्योंकि इनका पाठ एक तरफ़ीय हो जायेगा। इनका जबावदेह हाजिर नहीं हो पायेगा। मैं यह दावा नहीं कर सकता कि ये खुद में एक जबाब है। ये अप्रकाशित हैं क्योंकि ये मुकम्मल नहीं हो पाये होंगे। यदि गलती से मुकम्मिल भी हो तो उन्हें मेरा आखिरी स्पर्श नहीं मिलेगा। शायद मैं कुछ तब्दील हो गया होऊँ। किसी भी सूरत में ये दुनिया के सन्दर्भ में अन्तिम पाठ नहीं होंगे। जितने अपमान मेरे ऊपर लादे गये वे सब झूठे थे यह बात अन्तिम है और कभी खत्म न होने वाले हमले अर्थहीन हैं। यह पक्का है। यह शहादत का कोई नमूना नहीं है। यह एक आम बात है। जो हमलों के शिकार होते हैं वे नजर भी नहीं आते। यह एक सच्चाई है जिसे बदलने की इच्छा रखने वाला मैं कोई अकेला और अनूठा सिपाही नहीं हूँ। कोई अख़बार मार खाये लोगों की पड़ताल नहीं करता। वे कहाँ चले जाते हैं और कैसे गुम हो जाते हैंइसका कोई ब्यौरा नहीं मिलता। वे बहुमत में है लेकिन उनकी तस्वीर और बयान साझा नहीं किये जाते। 

यह तय है कि ये लोग खूब जिन्दा रहते हैं। ये अनजाने में भी जिन्दा रहते हैं और जिन्दा रहने का मूल्य अदा करते हैं। यह बुनियादी अर्थवता की लौ बचाये रखने का पवित्र उघम है। ये लोग गेंहूँ’ की डाल में सुर्ख अन्न के दाने की तरह चमकदार होकर ही दम लेते हैं।

मैं अस्पताल के जनरल वार्ड के ठीक बीच में कहीं पड़ा हूँ। मैं कुछ देखता नहीं हूँ। मुझे शब्द और वाक्य साफ नहीं सुनाई देते हैं। बस कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ मष्तिष्क के आकाश में बजती हैं। शायद इनमें मेज खिसकाने की या चादर झाड़ने की आवाजें भी हैं। शायद नर्स ने वाइल के ऊपरी हिस्से का काँच खट से तोड़ दिया है। दवा इंजेक्शन में भरी जाने वाली है। कुछ व्यग्र और चिन्ताकुल खुसपुसाहटें हैं। मैं नहीं हूँ या शायद पूरा नहीं हूँ। मैं थोड़ा सा जिन्दा हूँ। मेरे हाथपाँवगर्दनछातीपेट जैसे कहीं दूर होंगे।

मैं होऊँ या नहीं होऊँ यह जैसे मेरे बस में छोड़ दिया गया है। यह तीखा सा दर्द पता नहीं कहाँ पर है। पहली बार में अपने जिस्म के भीतर को जान पा रहा हूँ। यही मैं हूँ जहाँ विस्फोटक दर्द उठ रहा है।

मुझे याद नहीं आ रहा है कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान। जोर लगा कर भी याद नहीं कर पा रहा हूँ कि वे कौन लोग थे जो भीड़ बना कर मुझ पर टूट पड़े थे। वे लाठियाँ थी जिन्हें सिर्फ हमला करना था। मैं सिर्फ एक जानवर था। मुझे अपने जिस्म पर कम प्यार नहीं है। मैं सारे लोगों के जिस्मों को भी प्यार करता हूँ। बचपन में मैंने लोगों को सुन्दर और असुन्दर लोगों में बाँट लिया था। मैं आकर्षक चेहरों की तलाश किया करता था। बाकी लोगों को अपने दिमाग से हटा लेता था। जल्दी ही मैंने अपनी गलती को जान लिया। हर चेहरा अपने में बेमिसाल है और उसकी अपनी एक अलग कहानी है। उसकी देह का एक राज्य है। उसके पास असंख्य भावनाएँ पल प्रतिपल गति करती हैंजो लोग इस गतिशीलता में थक जाते हैं वे शराब पी लेते हैं या नींद में जाने की कोशिश करते हैं।

मेरे हाथपाँवगर्दनसिरपेट क्या आखिरी तौर पर नष्ट कर दिये गये हैं। मेरी तमाम हड्डियाँ क्या चकना चूर हो गई हैंइस समय मैं सिर्फ तीखा दर्द हूँ और अजीब सी झनझनाहट में हूँ। हर अंग की जगह एक सच्ची अनुभूति ने ले ली है। कोई भी जना अपने भीतर के बारे में कुछ नहीं जानता है। इस वक्त मैं जानता हूँ।

मैंने अपने भीतर की पूरी यात्रा कर ली है। कभी मैं एक ओर बहता हूँकभी दूसरी ओर पानी की तरह चल पड़ता हूँ। मैं कुछ हवा और कुछ पानी की तरह मिलाजुला हूँ। बाहर लोग यही कहते होंगे कि ये मर गया है या मरने वाला है। वे घोषणा किये जाने की बेचैनी से प्रतीक्षा करते होंगे। मैं बताना चाहता हूँ कि मैं परेशान नहीं हूँ। यह पक्का है कि दुनिया में किसी को भी दूसरे के शरीर को गलत इरादे से छूने की इज़ाजत नहीं है। हर आदमी एक देवता की तरह पवित्र है और हर औरत का अपना राज्य है। आप उसमें दख़ल दे कर पाप नहीं कर सकते। वह राज्य हिन्दू या मुसलमान कतई नहीं है जैसे कि पहाड़समुद्रनदियाँखेतजंगलपशु आदि सभी स्वतंत्र होते हैं। वह समूह में भी स्वतंत्र किस्म की स्वायत्तता पाते हैं।

जिन्होंने मेरे साथ बुरा सुलूक कियामेरी भावनाओं को चीथड़ों की तरह बिखरा दियाउनको तो मैं भीतर ही भीतर बहुत चाहता था। उनको मैं आज भी रोकना चाहता हूँ। हमारे पास सबसे कीमती चीज समय है। ये घंटेदिनसप्ताहमहीने और साल बहुत बड़ी पूंजी हैं। इन्हें हमेशा किसी वस्तु को बनाने में ही खर्च करो। हम बढ़ई की तरह सुन्दर कुर्सियाँ और मेजें बना सकते हैं। हम कुम्हार की तरह लुभावने घटे और सुराहियाँ बना सकते हैं। इतने तरह के फल और अन्न के दाने उपजा सकते हैं। कुछ भी बनाने की प्रक्रिया में प्राण की लौ प्रज्ज्वलित रहती है।

अपने महान दर्द के जरिये शरीर के भीतरी अंगों की यात्रा के दौरान मुझे कुछ शान्त और सुकून भरी छोटीछोटी जगहों का पता चलता है। यह शायद रिसते खून से भीगी आँतों के पासशायद यकृत या हृदय के आसपास हो सकती हैं। लोग कितने मूर्ख बनाये जा रहे हैं। उनके दिमागों को कुछ शैतानों ने प्रदूषित कर दिया है। कुछ जहरीले रसायन बातोंबातों में भीतर डाल दिये गये हैं। वे अब भली और बुरी चीजों में ठीक में फ़र्क नहीं कर पा रहे हैं। हत्याओं के समर्थन में नारे लगाते हैं और मासूम लोगों की मौत पर खुशियों का इजहार करते हैं। कहते हैं ये हमारी किताबों में लिखा है। या तो वे किताबें वाहियात हैं या उनके वाहियात मायने बनाने की साजिश की जा रही है।

मेरा सोचना खत्म नहीं हुआ है। यह चकित करने वाली बात है। मैं सिर्फ एक थोड़ी सी बची हुई स्मृति हूँ। यह सारगर्भित स्मृति एक सूत्र की तरह जीबित रह गई है। यह हमेशा कहीं न कहीं गति करती रहेगी। 

मैं एक बूढ़ी के गीत की लयात्मकता में अपनी लहर के साथ आसानी में घुलमिल जाता हूँ। शायद वह बूढ़ी न हो। वह गीत अपने में एक पहाड़ हैएक जंगलएक गीत। वह गीत और गायिका और आसपास  की सारी चीजें एक साथ प्रकाशमान हो जाती हैं। एक ओर भीड़ का खौफनाक शोर है जो लाठी डंडों को लेकर मुझ पर टूट पड़े थे। वे बेतहाशा मुझ पर वार करते हैं। मैं बचने की भरसक कोशिश करता हूँ। तब तक दनादन मुझ पर चोटें जारी रहती हैं। अंत में मैं अपने हाथ पावों को बचाने की कोशिश छोड़ देता हूँ। हर पल एक कड़े और घातक प्रहार की प्रतीक्षा करता हूँ। एक तीखा दर्द उठेगा और सभी दर्दों का अंत हो जायेगा। मुझे बड़ा आश्चर्य है कि मैं भयभीत नहीं हूँ।

मेरे एक दोस्त कई दशकों से पहाड़ों में गाँवगाँव घूम रहे हैं। वे लोकगीतों का संग्रहण करते हैं। थोड़ीथोड़ी आबादियाँ और बहुत सारी प्रकृति उनकी जिन्दगी है। गुजर गये अनाम लोगों की पीड़ाओं और उल्लास को जंगलों से और नदियों से ढूंढ लाते हैं। बहुत सारे बीते अनुभव यहाँवहाँ दबे हुए हैं। वे ढूंढ लाने में कभी कामयाब हो जाते हैं। यह ढूंढना अपने आप में एक विराट अनुभव है। एक अनजान औरत का गायन उन्होंने अपने मोबाइल फोन में रिकॉर्ड कर लिया। वह औरत अब खो चुकी है। गायन का वह पल भी आसमान से गायब हो गया है। वह गीत अपनी करूण ध्वनि के साथ मेरे दोस्त की स्मृति में है और उसकी अनुकृति उस मोबाइल की स्मृति में है। गायिका की आवाज हमारी आदि कालीन माँ की आवाज है। उसमें पीड़ा और लगाव कंपकपाता है। ट्टहे रामाहे परभूचैत का महीना जिकुड़ी में लगता है। कुछ ऐसा बयान उनमें है। यह कितना सुघड़ और पूर्ण संगीत है। जंगल और दिल के सूनेपन को एक मीठी पीड़ा में रचता हुआ।

कुछ पलों के लिए मैं कहीं परम अति सुन्दर जगह में विचरने लग गया था। मेरी सच्चाई तो यह जनरल वार्ड है। यहाँ बेवजह हिंसा के मारे हुए लोग इकट्ठा हैं। यौन हिंसा की मारी बच्चियाँ और बच्चे हैं। तमाम औरतें हैं और आदमी है। उन्हें पता नहीं है कि उनके कोमल जिस्मों को क्यों इतनी पीड़ा दी गई है। उनके सभी अंगों को तोड़फोड़ दिया गया है। ये सभी बेहद नाराज़ हैं और किसी से बात नहीं करना चाहते क्योंकि इन्हें किसी पर भरोसा करने की इच्छा नहीं है। ये देश और जाति की सीमाओं को बिल्कुल नहीं मानते हैं। इन्होंने पृथ्वी से बहुत दूर जा कर ठीक से जान लिया है। इनके जनरल वार्ड के कोई पास भी नहीं फटक सकता। यह बेवजह मारे पीटे हुए लोगों का वार्ड है। पता नहीं क्यों खानेपीनेपहिननेपूजा करने या नहीं करने के कारण लोगों को मारा जा रहा है। हमारे शरीर को कैसे भी कोई छू सकता हैयहाँ देवता सरीखी दैदीप्यमान छोटी बच्चियाँ रोती रहती हैं।