Sunday, October 5, 2008

संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी-अक्टूबर २००८

और तभी जब वह उनके घेरे में सिर झुकाए चल रहा था एक लोकल आई और प्लेटफार्म पर भीड़ का रेला फैलगया। वह पस्त होने के बावजूद चौकन्ना था और वे अपने शिकार को दबोच लेने की लापरवाही की मस्ती में थे।उसने मौके का फायदा उठाया और उन्हें चकमा देकर भीड़ में गायब हो गया। वह छुपते-छुपाते पिछले गेट पर पहुंचा और पुलिस की शरण के लिए सड़को और लेनों में दौड़ने लगा। अगर यह दौड़ सुल्तानपुर के उसके फूहड़ गांवकी होती तो उसके साथ हमदर्दी में पूरा नहीं तो कमस्कम आधा गांव उसके साथ दौड़ रहा होता। मगर वह मुंबई की सड़कों पर दौड़ रहा था जहां सारी दौड़े वांछित और जन समर्थित हैं, चाहे वे हत्या करने के लिए हों अथवा हत्या से बचने के लिए---

शहर ने दौड़ में कोई दखल नहीं दिखाया। गलती शहर से नहीं, उससे हुई। वही उलटी दिशा में दौड़यह हैरानी की बात थी कि सड़कों की पैंतीस साल की पहचान पलक झपकते ही गायब हो गई थी। वह दौड़ रहा था। जैसे अन्जानी जगह दौड़ रहा हो। उसने विकटोरिया टर्मीनस को भी नहीं पहाचाना जिसकी दुनियाभर में एक मुकम्मिल पहचानहै। उसकी निगाह सिर्फ पुलिस चौकी ढूंढ रही थी।
आखिर उसने बेतहाशा दौड़ते हुए पुलिस चौकी ढूंढ ही ली।
"हजारों कबूतरों और समुद्र की उछाल खाती लहरों में। लहरों ने तुम्हें भिगोया। कबूतर तुम्हारे कंधों और आहलाद में फैली हथेलियों पर बैठे। शहर ने तुम्हारे आगमन का ऐसे उत्सव रचा था। तुमने भी इस शहर की शुभकामनाओं के लिए कबूतर उड़ाए थे--- और फिर पच्चीस साल बाद जब यह हमारी आत्मा में बस गया--- तो---" आगे के लफ्ज ठोस धातु के टुकड़ो में बदलकर महावीर के गले में फंस गए।

यह वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की उस कहानी का हिस्सा है जो अभी अपने मुक्कमल स्वरुप को पाने की कार्रवाईयों से गुजर रही है। कथाकार सुभाष पंत की लिखी जा रही ताजा कहानी के अभी तक तैयार उस ड्राफ्ट का एक अंश जिसे संवेदना की मासिक गोष्ठी में आज शाम 5 अक्टूबर को पढ़ा गया। अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ लिखी गई यह एक ऐसी कहानी है जिसमें घटनाओं का ताना बाना हाल के घटनाक्रमों को समेटता हुआ सा है। कहानी को गोष्ठी में उपस्थित अन्य रचनाकार साथियों एवं पाठकों द्वारा पसंद किया गया। विस्तृत विवेचना में कुछ सुझाव भी आये जिन्हें कथाकार सुभाष पंत अपने विवेक से यदि जरुरी समझेगें तो कहानी में शामिल करेगें। कथाकार सुभाष पंत की इस ताजा कहानी का शीर्षक है - अन्नाभाई का सलाम। इससे पूर्व डॉ विद्या सिंह ने भी एक कहानी पढ़ी।
दो अन्य कहानियां समय आभाव के कारण पढ़े जाने से वंचित रह गई। जिसमें डॉ जितेन्द्र भारती और कथाकार मदन शर्मा की कहानियां है। नवम्बर माह की गोष्ठी में उनके पाठ संभव होगें।

उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती,, प्रेम साहिल, एस.पी. सेमवाल सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, कीर्ति सुन्दरियाल, पूजा सुनीता आदि मौजूद थे।

13 comments:

Udan Tashtari said...

आभार इस रिपोर्ट का.काथांश बहुत अच्छा लगा.

अविनाश वाचस्पति said...

सुभाष पंत जी की कहानी का अंश बहुत पसंद आया और उम्‍मीद है कि पुलिस चौकी में पहुंचने के बाद भी कुछ ऐसा होगा जो आम सोच से अलग अप्रत्‍याशित होगा परंतु सच से संपृक्‍त।
ऐसी गोष्ठियों का आयोजन निस्‍संदेह सफलता बनता है, बधाई।

vidya singh said...

कहानी का यह अंश कहानी के बारे में और जानने की जिज्ञासा उत्पन्न करता है। शिल्प कथ्य दोनों ही दृष्टियों से यह पर्याप्त महत्त्वपूर्ण टुकड़ा है जिसमें कथाकार सुभाष पन्त के लेखन की बानगी पूर्ण रूप से दर्शनीय है। संवेदना की गोष्ठी से जुड़ी दूसरी खबरें भी महत्त्वपूर्ण हैं।

L.Goswami said...

kahani rochak lag rahi hai..yhan chhapne ka dhnyawad.

Anonymous said...

Kahani bari rochak lag rahi hai, ansh parwane ke liye shukriya

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah
कथागोष्ठी की रिपोर्टस् कम देखने को मिलती हैं
आप यह अच्छा काम कर रहे हैं
साधुवाद

प्रदीप मानोरिया said...

very nice reporting and usefull informations
thanx for your visit to my blog . please be regular as to read my new poem mumbai unke baap kee

makrand said...

good reporting and useful information too
keep it up
regards

डॉ .अनुराग said...

परिचय करवाने के लिए शुक्रिया....आप सभी लोग देहरादून में काफ़ी एक्टिव है.

Ashok Pande said...

बढ़िया! बहुत दिन हो गए पोस्ट नहीं आई. क्या बात है विजय भाई?

विजयराज चौहान "गजब" said...

वेबजाल पर आज आपका चिठ्ठा देखा, देखकर खुशी हुई |

आप देहरादून से है और चिठ्ठा लिखते है देखकर ऐसा लगा मनो नया साथी मिल गया !

संपर्क बनाए रखे |


विजयराज चौहान (गजब)

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Ek ziddi dhun said...

bade shahron mein goshthiyan hoti hain, bheed bhi hoti hai par koi kisi kee sunta nahi. vahan mahaul hai to badhai

आलोक श्रीवास्तव said...

kya andhere me bhi geet gaye jayenge
ha
andhere ke bare me bhi geet gaye jayenge