Friday, August 8, 2008

हमें गहरी उम्मीद से देखो

विज्ञान के अध्येता यादवेन्द्र जी का मुख्य काम भू-स्खलन और भूकम्प संबंधी विषय पर है। लेकिन सामाजिक बुनावट के उलझावों पर भी उतनी ही शिद्दत से सोचते हैं और उसे भी परिभाषित करने के लिए बेचैन रहते हैं। विज्ञान विषयों पर पठन-पठन के साथ-साथ सामाजिक बदलाव के साहित्य में उनकी गहरी रुचि है।
इस ब्लाग के माध्यम से हमारा अपने उन सभी साथियों से अनुरोध है जो शुद्ध रुप से साहित्य के छात्र न होते हुए साहित्य कर्म में जुटे है कि वे अपने मूल विषय को केन्द्र में रखकर समकालीन समाज की व्याख्या करते हुए ऐसी रचनाओं के साथ भी प्रस्तुत हों जो कहानी कविता से इतर अन्य विधाओं में भी उन मूल विषयों पर आधारित हो। यानी वे तमाम विषय जिनका मानवीय मूल्यों से, ऊपरी तौर पर, यूं तो कोई सरोकार दिखायी नहीं देता लेकिन जिनके प्रभाव ही समकालीन दुनिया पर बहुत गहरा असर डालते हैं, उन विषयों में कार्यरत रहते हुए हम कितना मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हैं या उसके अपनाने में किस तरह की दितें आती हैं। हिन्दी में ऐसा लेखन बहुत ही सीमित रुप में है। यदि ब्लाग जगत में सक्रिय रचनाकार, जो भिन्न विषयों में दखल रखते हैं, इस जिम्मेदारी को समझते हुए सक्रिय हो तो इससे हिन्दी ब्लाग की एक अलग छाप भी पड़ेगी और विविधता भी बनी रहेगी जो हिन्दी पाठ्कों को आकर्षित भी करेगी।

यादवेन्द्र जी ने हमारी इस तरह की बातचीत पर यकीन दिलाया है कि वे अपने मूल विषय को ध्यान में रखकर जल्द ही कुछ ऐसा लिखेगें। इससे पहले हमारे आग्रह पर
कथाकार नवीन नैथानी, जो भौतिक शास्त्र के अध्येता हैं, ने एक छोटा सा आलेख लिखा था। यादवेन्द्र एक समर्थ रचनाकार है। उनसे ऐसे लेखन की उम्मीद करना जायज भी है। अभी प्रस्तुत है उनके द्वारा अनुदित कविताएं।


1926 में नार्वेजियन मूल के माता पिता से जन्में रॉबर्ट ब्लाई आधुनिक अमेरिकी कविता के शिखर पुरुषों में शुमार किए जाते हैं। दो वर्ष नेवी में काम किया, फिर अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। 40 से ज्यादा काव्य संकलन प्रकाशित, विभिन्न भाषाओं के अनेक प्रसिद्ध कवियों के अंग्रेजी में अनुवाद किए - पेब्लो नेरूदा, रिल्के से लेकर फ़ारसी के कवियों के। हाफिज और रुसी तक और कबीर, मीराबाई से लेकर बंगाल के अनेक आधुनिक कवियों के अनुवाद। अंग्रजी में गजलें लिखते हैं।

1966 में वियतनाम युद्ध का विरोध करने वाले
संगठन अमेरिकन राइटर्स अगेंस्ट वियतनाम वॉर के संस्थापक। 1969 में नेशनल बुक अवार्ड से नवाजे जाने पर सम्पूर्ण पुरस्कार राशि वियतनाम युद्ध के अभियान को दान दे दी। इस अवसर पर उन्होंने कहा : "हम अमेरिकियों के पास सब कुछ है। हम अनुभूतियों भरा जीवन जीने की कामना तो करते हैं पर किसी प्रकार का कष्ट उठाकर नहीं । हम भूरापूरा जीवन।।। निरंतर विजयी होते रहना चाहते हैं। हम अपेरिकियों ने हमेशा ही कष्टों से दूर-दूर बने रहने की काशिशें की हैं।।। और इसी कारण वर्तमान से हमारा नात नजदीक का नहीं बन पाता।" अपने हाल के इंटरव्यू में राबर्ट ब्लाई ने बेबाकी से कहा कि वियतनाम युद्ध के दौरान जो बात सही थी - आज इतने वर्ष बीत जाने के बाद इराक युद्ध के दौरान भी उतनी ही सही है।

इसी फरवरी में उन्हें अमेरिका के मिनिसोटा स्टेट का पोएट नियुक्त किया गया हे। यहां प्रस्तुत है राबर्ट ब्लाई की दो कविताएं जिनमें से पहली (सवाल और जवाब) इराक युद्ध के दोरान लिखी गई युद्ध विरोधी कविताओं में अग्रणी मानी जाती है। - यादवेन्द्र।




रॉबर्ट ब्लाई


सवाल और जवाब


बताओ तो कि आजकल हम
आसपास होती घटनाओं पर चीखते क्यों नहीं
आवाज क्यों नहीं उठाते
तुमने देखा कि
इराक के बारे में योजनाएं बनाई जा रही हैं
और बर्फ की चादर पिघलने लगी है



अपने आपसे पूछता हूं: जाओ, जोर से चीखो!
यह क्या बात हुई कि जवान शरीर हो
और इसकी कोई आवाज न हो ?
बुलंद आवाज से चीखो!
देखो जवाब कौन देता है
सवाल करो और जवाब हासिल करो।

खासतौर पर हमें अपनी आवाज में दम लगाना पड़ेगा
जिससे ये फरिश्तों तक पहुंच सकें -
इन दिनों वे ऊंचा सुनने लगे हैं।
हमारे युद्धों के दौरान
खामोशी से भर दिये गए पात्रों में
गोता लगाकर गुम हो गए हैं वे।

क्या इतने सारे युद्धों के लिए अपने आपको तैयार कर चुके हैं हम
कि अब खामोशी की आदत-सी हो गई है ?
यदि हम अब भी अपनी आवाज बुलंद नहीं करेंगे
तो काई न कोई (हमारा अपना ही) हमारा घर लूट ले जाएगा।

ऐसा हो गया कि
नेरूदा, अख्मातोवा, फ्रेडरिक डगलस जैसे
महान उदघोषकों की आवाज सुनकर भी
अब हम गौरैयों जैसे झाड़ियों में दुबक कर
अपनी अपनी जान की खैर मना रहे हैं ?

कुछ विद्धानों ने हमारा जीवन महज सात दिनों का बताया है।
एक हफ्ते में हम कहां तक पहुंचते हैं ?
क्या आज भी गुरुवार ही है ?
फुर्ती दिखाओ, अपनी आवाज बुलंद करो।
रविवार देखते-देखते आ जाएगा।


ठिगनी लाशों की गिनती


आओ एक बार फिर से लाशों की गिनती करें।
यदि हम इन लाशों को छोटा कर पाते-
खोपड़ी के आकार जैसा
तो इन्हें इक्टठा करके
श्वेत धवल एक चिकना चबूतरा निर्मित कर लेते
चांदनी रातों में।
यदि हम इन लाशों को छोटा और छोटा कर पाते -
तो साल भर में किए गए शिकार को
बड़ी आसानी से सजाकर रख देते
अपने सामने पड़ी छोटी-सी मेज पर।
यदि हम इन लाशों को छोटा कर पाते -
तो नग की तरह गढ़वा लेते एक अदद शिकार
यादगार के वास्ते सदा सदा के लिए
अपनी अंगूठी में ।




अंग्रेजी से अनुवाद - यादवेन्द्र

हमें गहरी उम्मीद से देखो - कवि राजेश सकलानी की कविता की पंक्ति

Wednesday, August 6, 2008

एक रचना का कविता होना

एक साथी ब्लागर ने अपने ब्लाग पर प्रकाशित कविता के बारे में मुझसे अपनी बेबाक राय रखने को कहा. पता नहीं जो कुछ मैंने उन्हें पत्र में लिखा बेबाक था या नहीं. हा समकालीन कविता के बारे में मेरी जो समझदारी है, मैंने उसे ईमानदारी से रखने की कोशिश जरूर की. उस राय को आप सबके साथ शेयर करने को इसलिए रख रहा हूं कि इस पर आम पाठकों की भी राय मिल सके और मेरी ये राय कोई अन्तिम राय न हो बल्कि आप लोगों की राय से हम समकालीन कविताओं को समझने के लिए अपने को सम्रद्ध कर सकें.

आपने टिप्पणी देने के लिए कहा था. बंधु कविता में जो प्रसंग आया है वह निश्चित ही मार्मिक है जैसा की सभी पाठकों ने, जिन्होंने भी अपनी टिप्पणियां छोडी, कहा ही है. पर यहां इससे इतर मैं अपनी बात कहना चाह्ता हू कि किसी भी घटना का बयान रिपोर्ट और रचना में जो फ़र्क पैदा करता है, उसका अभाव खटकता है. फ़िर कविताओं के लिए तो एक खास बात, जो मेरी समझ्दारी कहती है कि वह काव्य तत्व जो भाषा को बहुआयामी बनाते हुए एक स्पेस क्रियेट करे, होने पर ही कविता पाठक के भीतर बहुत दूर तक और बहुत देर तक गूंजती रह सकती है. भाषा का ऎसा रूप ही कविता और गद्य रचना के फ़र्क को निर्धारित कर सकता है वरना तो कुछ पंक्तियों को मात्र तोड-तोड कर लिख देने को ही कविता मानने की गलती होती रहेगी. समकालीन कविताओं को समझने के लिए यह एक युक्ति हो सकती है हालांकि इसके इतर भी कई अन्य बातें है जो एक रचना को कविता बना रही होती हैं.



(इस ब्लाग को अप-डेट करने वालों में दिनेश जोशी हमारे ऐसे साथी हैं जो कहानी, कविता के साथ-साथ व्यंग्य भी लिखते हैं और यदा कदा पुस्तकों पर समीक्षात्मक टिप्पणियां भी। यहां प्रस्तुत है उनकी एक ताजा कविता।)

दिनेद्रा चन्द्र जो्शी

अंधेरी कोठरी


खरीदा महंगा अर्पाटमैन्ट बहू बेटे ने
महानगर में,
प्रमुदित थे दोनों बहुत
मां को बुलाया दूसरे बेटे के पास से
गृह प्रवेश किया,हवन पाठ करवाया।
दिखाते हुए मां को अपना घर
बहू ने कहा, मांजी सब आपके
आशीर्वाद से संभव हुआ है यह सब
इनको पढ़ा लिखा कर इस लायक बनाया आपने
वरना हमारी कहां हैसियत होती इतना मंहगा घर लेने की
मां ने गहन निर्लिप्तता से किया फ्लैट का अवलोकन
आंखों में चमक नहीं / उदासी झलकी
याद आये पति संभवत: / याद आया कस्बे का
अपना दो कमरे, रशोई,एक अंधेरी कोठरी व स्टोर वाला मकान
जहां पाले पोसे बढ़े किये चार बच्चे रिश्तेदार मेहमान
बहू ने पूछा उत्साह से ,कैसा लगा मांजी मकान !
'अच्छा है, बहुत अच्छा है बहू !
इतनी बड़ी खुली रशोई,बैठक,कमरे ,गुसलखाने कमरों के बराबर
सब कुछ तो अच्छा है ,पर इसमें तो है ही नहीं कोई अंधेरी कोठरी
जब झिड़केगा तुम्हें मर्द, कल को बेटा
दुखी होगा जब मन,जी करेगा अकेले में रोने का
तब कहां जाओगी, कहां पोछोगी आंसू और कहां से
बाहर निकलोगी गम भुला कर, जुट जाओगी कैसे फिर हंसते हुए
रोजमर्रा के काम में ।'

Tuesday, August 5, 2008

कुत्ते का काटना

पहल-89 । गीत चतुर्वेदी मेरे पसंदीदा लेखकों में से हैं। इधर तेजी से उभरे ऊर्जावान युवा रचनाकारों के बीच गीत की रचनाओं तक पहुंचना मेरी प्राथमिकता में रहता है। मुझे उनकी भाषा में समकालीन दुनिया के तनाव और उन तनाव भरी स्थितियों के कारकों के खिलाफ एक गुस्सा हमेशा प्रभावित करता है। गीत को मैं सिर्फ उनकी रचनाओं से जानता हूं, कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं। होता तो कह सकता कि कभी-कभी कुछ असहमतियों के साथ भी रहता हूं मित्र। सतत रचनारत गीत दुनियाभर की साहित्यिक हलचलों के साथ भी जुड़े रहते हैं और हिन्दी पाठक जगत को उससे अवगत कराने के लिए भी उत्सुक रहते हैं, ऐसा उन्हें पढ़ने के कारण कह पा रहा हूं। अभी पहल का नया अंक प्रकाशित हुआ है। पहल-89 । हाल ही में कनाडा के छोटे से शहर रॉटरडम में सम्पन्न हुए कविता समारोह की एक अच्छी रिपोर्ट गीत ने तैयार की है जो पहल के इस अंक में प्रकाशित हुई है। साथ ही गीत द्वारा अनुदित अरबी मूल की कवि ईमान मर्सल की डाायरी का अनुवाद भी पहल के इसी अंक में है। युवा कवि ईमान मर्सल वर्ष 2003 में रॉटरडम कविता समारोह में आमंत्रित थी। उसी समारोह के उनकी डायरी में दर्ज अनुभवों का अनुवाद पहल ने प्रकाशित किया है। यहां प्रस्तुत है उसका एक छोटा सा हिस्सा।


ईमान मर्सल

जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी, तब एक बार गली में कुत्ते ने मुझे काट लिया। इक्कीस दिनों तक लगातार हर सुबह मैं अल-मंसूरा अस्पताल के नर्स कार्यालय के सामने लगने वाली कतार में खड़ी रहती थी, ताकि एंटी-रैबीज इंजेक्शन ले सकूं। इंतजार करते हुए मैं अक्सर सबको एक-दूसरे से यह पूछते सुनते थी - किसने काटा ? कुत्ते, बिल्ली या घोडे ने ? यह मुझे बहुत बाद में पता लगा कि इनमें से किसी ने भी काटा हो, इंजेक्शन तो एक ही लगेगा। लेकिन यह पूछताछ इसलिए होती थी ताकि इंतजार करते हुए लोग एक-दूसरे से बात कर सकें। हर किसी की कहानी में एक अलग किस्म की नाटकीयता और अलगाव होता था। जबकि कतार से खड़े पुराने मरीज बताते थे कि जिस समय पेट में सुई लग रही हो, उस समय कैसे दर्द को संभालना चाहिए।

यहां आमंत्रित इन सारे कवियों को सुनते हुए मुझे वह दृश्य बरबस याद आता रहा। ये सारे कवि एक-दूसरे को अपना परिचय देते हुए बताते रहे थे कि उन्होंने इतने साल जेल में काटे हैं या इस-तरह की यातनाओं से गुजर चुके हैं। ऐसा नहीं कि जेल या यातना के अनुभवों को न सुना जाए या हमदर्दी न जताई जाए, बल्कि एक कवि या लेखक के तौर पर ये बातें एक किस्म की भूमिका के रूप में होती हैं, कि यह उनक लेखन के अलावा एक सकारात्मक गुण है। पच्च्चिमी संस्थाएं जब लेखकों को उनके जेल या यातना के अनुभवों के आधार पर चुनती हैं, तो उनका उद्देश्य यह बताना होता है कि फलां देश में अभिव्यक्ति स्वातंत्रय न होने की वजह से लेखक कितना असहाय है। हो सकता है कि यह उस भूमिका के प्रति एक किस्म का नकार हो, जो कि पश्चिम कुछ खास क्षेत्रों जैसे मिडिल-ईस्ट, में स्वतंत्रता को न उभरने देने में निभाता है।

अनुवाद - गीत चतुर्वेदी

Monday, August 4, 2008

अलबर्ट आइंस्टाइन का सिगमंड फ्रॉयड को लिखा एक महत्वपूर्ण पत्र

एक दौर में दिनमान, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, कादम्बनी आदि पत्र-पत्रिकाओं में अपने विज्ञान विषयक आलेखों के कारण जाने जाने वाले यादवेन्द्र एक प्रतिबद्ध रचनाकार हैं। पिछले एक लम्बे समय से उनकी खोमोशी जिन स्थितियों पर मनन करती रही है, उसकी आवाज को हम उनके हाल ही में इधर नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुए नेल्सन मंडेला के पत्रों का अनुवाद एवं जनसत्ता, समयांतर, कथादेश और अहा जिन्दगी में अनेकों प्रकाशित साहित्यिक अनुवादों के रुप में देख सकते हैं। आज वैश्विक पूंजी का जो रुप सामने आया है उसने दुनिया के बाजारों पर कब्जा करने की जिस हिंसक कार्रवाई को जन्म दिया उसके खिलाफ जारी वे छोटे प्रतिरोध के बिन्दु जो इधर उधर बिखरे पड़े हैं, यादवेन्द्र पूरी शिद्दत से उन्हें एक जगह इकक्टठा करते जा रहे हैं। विज्ञान के अध्येता यादवेन्द्र इस बात को बखूबी जान रहे हैं कि विज्ञान को भी बंधक बनाकर अपने तरह से इस्तेमाल करने वाला यह तंत्र न सिर्फ सामूहिकता से भरी मानवीयता के खिलाफ है बल्कि वह एक ऐसा सांस्कृतिक वातावरण भी रच रहा है जिसमें उसकी आमानवीय कार्रवाइयां जायज ठहराई जा सके।

यादवेन्द्र जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार करते हुए अलबर्ट आइंस्टाइन का सिगमंड फ्रॉयड को लिखा एक महत्वपूर्ण पत्र हमें अनुवाद कर मुहैया कराया है। उनके इस अनुवाद को यहां प्रकाशित करते हुए हम उनका स्वागत भी कर रहे हैं और आभार भी। आगे भी ऐसी सामाग्री, जो समय समय पर हमें उनसे प्राप्त होती रहेगी, जैसा कि उन्होंने वायदा किया है, हम प्रकाशित करते रहेगें।


आधुनिक काल के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में से एक अलबर्ट आइंस्टाइन सजग नागरिक व चिंतक भी थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद और द्वितीय विश्वयुद्ध के शुरु होने से पहले "लीग ऑव नेशंस" (संयुक्त राष्ट्रसंघ का पूर्ववर्ती) द्वारा गठित विश्व भर के बुद्धिजीवियों के एक दल के नेता के तोर पर उन्होंने युद्ध के कारणों ओर मानव मन की गुत्थियों को समझने की कोशिशें कीं - उसी क्रम में विज्ञान के इस शिखर पुरुष ने मनाविज्ञान के तत्कालीन शिखर पुरुष सिगमंड फ्रॉयड को पत्र लिखकर उनकी विशेष राय जाननी चाही। दुर्भाग्य से आइंस्टाइन और फ्रॉयड का यह पत्र-व्यवहार हिटलर के सत्तासीन होने के कारण उनके जर्मनी छोड़कर चले जाने के बाद नाजी शासन द्वारा जब्त/नष्ट कर दिया गया।


अनेक दशकों बाद यह दस्तावेज जब मिला तो इसको धरोहर के तौर पर प्रतिष्ठा प्रदान की गई। यहां आज के दौर में बेहद प्रासंगिक आइंस्टाइन के इस पत्र का अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पत्र ऑटो/नाथन एवं हींज नार्डेन द्वारा संपादित पुस्तक "आइंस्टाइन ऑन पीस" (शाकेन बुक्स, न्यूयार्क/1960 से उद्धृत है। ) - यादवेन्द्र

09997642661



प्रिय श्री फ्रॉयड

सत्य की तह तक जाने की आपकी ललक का मैं बड़ा प्रशंसक रहा हूं और यही ललक आपकी सोच को दिशा प्रदान करती है। आपने अदभुत बोधगम्यता के साथ हमें समझाया है कि मानव मन अनिवार्यत: जैसे प्रेम और जीवन की लालसा से संचालित होता है, वैसे ही आक्रामक और विध्वंसक प्रवृत्ति भी इसी का अविच्छिन अंग है। साथ ही साथ आपके युक्तिपूर्ण तर्क युद्ध की विभीषिका से मानव की आंतरिक और बाहरी मुक्ति के प्रति आपकी गहरी निष्ठा भी साबित करते हैं। जीसस से लेकर गोथे और कांट तक नैतिक और धार्मिक नेताओं की ऐसी अटूट परम्परा रही है जो अपने काल और स्थान की सीमा का अतिक्रमण कर ऐसी ही गहरी आस्था की धारा प्रवाहित करते रहे हैं। यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि पूरी दुनिया ने ऐसे सभी व्यक्तियों को अपना नेता स्वीकार किया जबकि मानव इतिहास की धारा बदल देने की उनकी कामना असरहीन ही रही। हमारे चारों ओर ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहां राष्ट्रों का भाग्य निर्धारित करने वाले सभी कामकाजी औजार पूरी तरह से गैर जिम्मेदार राजनैतिक नेताओं के हाथें में अनिवार्य तौर पर निहित हैं।


राजनैतिक नेता और सरकारें बल प्रयोग से या आम चुनाव के जरिए शक्ति प्राप्त करते हैं पर राष्ट्र के नैतिक या बौद्धिक स्वरूप में इस शक्ति को श्रेष्ठता का प्रतीक नहीं माना जा सकता। हमारे समय में बुद्धिजीवी वर्ग विश्व के इतिहास पर किसी तरह को प्रत्यक्ष प्रभाव डालने की स्थिति में नहीं है - ये इतने अलग-अलग हिस्सों में बंटे हुए हैं कि आज की समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए भी इनमें आपसी सहयोग मुमकिन नहीं। आप मेरी इस बात से सहमत होगें कि दुनिया के अलग भागों में काम और उपलब्धियों के तौर पर अपनी योग्यता और विश्वसनीयता प्रमाणित कर चुके लोगों का एक खुला मंच बनाकर परिवर्तन की मुहिम शुरु की जानी चाहिए। इस अंतराष्ट्रीय समूह के बीच विचारों का आदान-प्रदान निरंतर चलता रहेगा जो राजनैतिक समस्याओं पर निर्णायक प्रभाव डाल सकता है। बशर्ते सभी सदस्यों के हस्ताक्षरयुक्त वक्तव्य अखबारों में प्रकाशित किये जाऐं। मुमकिन है ऐसे मंच में वे तमाम कमियां हो जो अब तक प्रबुद्ध समाजों के अध:पतन का कारण बनती रही हैं और मानव प्रकृति की अपूर्णता (imperfection) के मद्देनजर पतन की गति की और बढ़ जाए। पर क्या इन खतरों का हवाला देकर हम ऐसे मंच के गठन की कोशिश छोड़ दें और हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं ? मुझे तो यह अपना अनिवार्य दायित्व लगता है।


वास्तव में ऊंचे कद के बुद्धिजीवियों का ऐसा मंच एक बार अस्तित्व में आ जाए तो अगले कदम के रूप में धार्मिक समूहों को साथ में जोड़ने की जोरदार कोशिशें शुरु की जा सकती हैं जिससे सब मिलजुल कर युद्ध के विरुद्ध संघर्ष छेड़ सकें। ऐसे मंच के गठन से उन अनेक व्यक्तियों को नैतिक बल मिलेगा जिनके इरादे तो नेक हैं पर उन्हें नैराश्यपूर्ण समर्पण का फालिज मार गया है - इतना ही नहीं इससे लीग ऑव नेशंस को घोषित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी महत्वपूर्ण नैतिक समर्थन मिल सकेगा।


इस मौके पर मैं अपना निजी हार्दिक सम्मान प्रेषित कर रहा हूं और आपके लेखन को पढ़ने में व्यतीत किए गए आनन्दपूर्ण समय के लिए आपको धन्यवाद दे रहा हूं। यह बात मुझे बहुत चकित करती है कि आपके सिद्धांतों से असहमति रखने वाले लोग भी अक्सर अचेतन तौर पर अपने विचारों और भाषाओं में आप ही की शब्दावली का प्रयोग करते पाए जाते हैं।



आपका

अलबर्ट आइंस्टाइन


अनुवाद - यादवेन्द्र

Sunday, August 3, 2008

संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी - अगस्त 2008

गोष्ठी में उपस्थित रचनाकार एवं साहित्य प्रेमी



संवेदना की मासिक गोष्ठी, जो हर माह के पहले रविवार को होती है, आज काफी अच्छी उपस्थिति रही। उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार विदध्यासागर नौटियाल, सुभाष पंत, अल्पना मिश्र, जितेन्द्र शर्मा, दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती, नवीन नैथानी, कवि राजेश सकलानी, प्रेम साहिल, रामभरत "सिरमोरी" आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, सुनीता, शिक्षाविद्ध रचना नौटियाल मौजूद थे।


यह एक सामान्य गोष्ठी थी। संवेदना की सामान्य गोष्ठियों की विशेषता है कि ऐसी गोष्ठी में शहर भर के रचनाकार अपनी उन रचनाओं का पाठ करते है जो उन्होंने अभी लिखी भर हों और जिन पर प्रकाशन से पहले वे मित्रों की राय चाहते हों। रचनाओं पर विस्तृत चर्चा का एक अच्छा-खासा माहौल अपनी पूरी जीवन्तता के साथ होता है।


दिनांक 3।8।2008 को हिन्दी भवन, देहरादून पुस्तकालय में सम्पन्न हुई इस गोष्ठी में प्रेम साहिल ने अपनी कविता का पाठ किया। कथाकर मदन शर्मा ने एक संस्मरण सुनाया। मदन शर्मा इस बीच अपने जीवन के लम्बे दौर में साथ रहे अंतरग संगी साथियों को याद करते हुए एक श्रृंखला के तौर पर संस्मरण लिख रहे हैं। जांसकर यात्रा के कुछ अनुभवों को लिपीबद्ध रूप में मैंने भी रखा।

मदन शर्मा अपनी रचना का पाठ करते हुए