Wednesday, September 16, 2009

अच्छी कविता का पैमाना क्या है


राम प्रसाद ’अनुज’
चीड़ का पेड़
तुम चीड़ का पेड़ हो
प्यार और ममता की ऊंचाई में
जो पैदा होता है/ पलता है, बढ़ता है
और जवान होने से पहले ही
तने से रिसते
लीसे की तरह
किश्तों की मौत मरता है।
--------
तुम चीड़ का पेड़ हो
नयी कोंपल उगने से पहले
जो गिराता रहता है
सूखी पत्तियां
और जमीन पर छोड़ जाता है
ढेर-सा पुराल
जंगल जले
या खाद बने खेतों की
सवाल पुराल के इस्तेमाल का है।

अशोक कुमार पाण्डेय said...
भाई अनाम रह गये कविओं के प्रति पूर्ण श्रद्धा के बावज़ूद मै इस कविता के आधार पर कुछ बेहतर कह पाने की स्थिति में नहीं हूं। सवाल अच्छी और सार्थक कविता का है चाहे कवि अनाम हो या जाना माना।
अजेय said...
हाशिए..... बड़े ही प्रासंगिक मुद्दे हैं. लेकिन किस की शामत आई है कि इन मुद्दों पर एक सिंसेयर बहस करे.मेरा तो यह मानना है विजय भाई, कि पुरस्कार उसे मिलना चाहिए, जिस मे जुनून हो महनत करने का माद्दा हो, लेकिन अभी तक अलक्षित हो .या उसे जो इतना गरीब हो कि लिखना अफोर्ड न कर सकता हो. कि बन्दा मोटिवेट हो कर रचना कर्म के प्रति गम्भीर हो सके. चर्चित और सुविधा सम्पन्न आदमी को पुरस्कार देना बेमानी है. उसे सम्मानित करना भी बेमानी है.ऐसे लोग स्वयम ही ऐसी आकांक्षाएं न पालें तो कितने ही अनाम रह गए लोग अपनी पूरी ऊर्जा के साथ रचनाशील हो पाएंगे ! पर यहां तो चूहा दौड़ है. प्रतिष्ठितों और स्थापितों को शर्म आनी चाहिए इस होड़ मे शामिल होते हुए.जब कि आप इन्ही लोगों को सब से अधिक इस मारामारी और उठापटक में लिप्त पाएंगे. तीन कॉलमो मे लिखी गयी कविता के मामले में आप से हल्का सा मत्भेद रखता हूं. निस्सन्देह मैं मानता हूं कि प्रयोगधर्मिता के नाम पर हर् कुछ को स्थापित करने की ज़िद नाजायज़ है, लेकिन हिन्दी कविता की मोनोटनी को तोड़्ने के लिए हर प्रयोग का हमे खुले दिल से स्वागत करना चाहिए. हर प्रयोग पर बिना पूर्वाग्रहों के बह्स होनी चाहिए. यह बड़ा हस्यास्पद है कि हम किसी कवि पर बात करने से भी गुरेज़ करते हैं कहीं वह "चर्चित" न हो जाए! खैर, अनुज जी के "चीड़" के पेड़ ने मुझे अपनी "ब्यूंस" की टहनियों की याद दिला दी. मार्मिक कविता.
डॉ .अनुराग said...
कहते है कविता विधा जो समझने के लिए एक अलग अनुभूति लेनी पड़ती है .....अशोक जी ने ठीक कहा है... सवाल अच्छी और सार्थक कविता का है चाहे कवि अनाम हो या जाना माना।....
कवि राम प्रसाद अनुज की कविता को पोस्ट करते हुए मैं जिन कारणों से उसकी व्याख्या नहीं करना चाहता था, उसके पीछे स्पष्ट मत था कि यह मुगालता मुझे नहीं था कि चीड़ का पेड़ कोई अतविशिष्ट कविता है। हां एक अच्छी कविता है, यह जानता था। अच्छी इन अर्थों में भी कि अपनी पहली खूबी में तो वह हिंदी कविता के भूगोल को विस्तार देती है। दूसरी, उस स्थानिकता से चीड़ के पेड़ का जो बिम्ब रखती है उसमें पहाड़ी जीवन के उस अनुभव को समेट लेती है जिसमें लीसे की तरह निचोड़ ली जाती वह जवानी दिखाई देती है जो पलायन की कथा का नायक बनने को मजबूर है। 
कविता को पोस्ट करते हुए सिर्फ एक बात ध्यान में थी कि अपनी उस बात को पुष्ट कर सकूं कि साहित्य की गिरोहगर्द स्थितियों ने कैसे विविधता को खत्म किया है, जो जीवन को सम्पूर्णता में जानने के लिए जरूरी है। भाषा के विकास की दृष्टि से भी और स्थानिकता की दृष्टि से भी हिन्दी कविताओं के अध्ययन की कोई ठोस पहल शायद इसीलिए नहीं हो पाती क्योंकि हिंदी की ज्यादातर कविताएं अपने विन्यास और जीवन अनुभवों में कमोबेश एक जैसी ही दिखाई देती है। इसके बीच अच्छी ओर बुरी कविता मात्र कहन के अंदाजों से ही अलग की जा सकती है। अभिव्यक्ति की कुशलता जो शिल्पगत प्रयोगों के चलते दिखाई दे रही है, वह ठेठ, कला कला के लिए जैसे सिद्धांतों की ही पक्षधर हो जाती है। तीन-तीन कॉलमों में, हाशिए के इधर और उधर, लिखी जाती कविताओं को भी इसीलिए उसी ढांचे पर मानने की मेरी समझ अजेय से भी मतभेद रखती है।       
 अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।

Monday, September 14, 2009

हाशिए पर लिखे को पाओ तो छोड़ देना

विशिष्टताबोध से घिरी हिन्दी की कविता पुरस्कारों के मकड़जाल की शिकार रही है। यदि पिछले कुछ समय को छोड़ दे, जब से यह बीमारी दूसरी अन्य विधाओं तक भी सक्रंमित हुई, तो देखेंगे कि जो भी पुरस्कार घोषित थे उनमें कविता को ही प्रमुखता मिली। यहां आग्रह यह नहीं कि अन्य विधाओं के लिए भी पुरस्कारों की घोषणा होनी चाहिए थी। बल्कि उन कारणों की पड़ताल करना है कि आखिर वे कौन से कारण थे जिनके कारण पुरस्कृत होते कवियों की कविताएं भी कोई पाठक वर्ग न तैयार कर पाई। बल्कि कहें कि जो पाठक था भी उससे दूर होती रही। क्या इसे इस रूप में नहीं समझा जा सकता कि कला की दूसरी विधाएं, जैसे पेटिंग और संगीत आम जन से दूर हुआ वैसे ही कविता भी दूर होती गई। कविता की यह दूरी एक खास वर्ग के बीच यदि उसे अटने नहीं दे रही थी तो उसके पीछे सीधा सा कारण था कि बहुत साफ शब्दों में वह उस वर्ग की बात तो नहीं ही कहती थी। जबकि पेटिंग और संगीत अपनी रंगत में ज्यादा अमूर्त रहे और आज भी उनके ड्राईंगरूमों की शोभा बने हुए हैं। बल्कि कहीं ज्यादा। यह तो कविता की सकरात्मकता ही हुई कि वह उस रूप में अमूर्तता से बची रही। पर इस अमूर्तता को बचाने की कोई सचेत कोशिश हुई, ऐसा कहना इसलिए संभव नहीं हो पा रहा है कि पुरस्करों के मोह से वह उबर न पाई थी। यदि उबर गई होती तो हमारे दौर के प्रतिष्ठित आलोचक विष्णु खरे जी को उनकी दुबारा पड़ताल करने की जरूरत न पड़ती, शायद। वह भी तब जबकि वे कविताएं खुद उनके भी हस्ताक्षरों से पुरस्कृत होती रही। गिरोहगर्द स्थितियों  में रहस्यों से घिरी कविताओं की व्याख्या बिम्ब-विधान और शिल्प-सौष्ठव के ऐसे काव्य प्रतिमानों को ओढ़े रही जिसमें सहज सरल भाषा को हेय मानते हुए न सिर्फ उसको पाठक वर्ग से दूर किया बल्कि कविता के स्वाभाविक विकास की गति को भी असंभव कर दिया। पिछले ही दिनों तीन-तीन कॉलमों में लिखी कविता की ऐसी ही कोशिश इसका ताजा उदाहरण है, जिसे हाशिये की कविता के रूप में स्थापित करने की एक असफल कोशिश आज भी जारी है। 
   

यहां अनाम से रह गए एक कवि की कविता प्रस्तुत है, जो गिरोहगर्द होती गई साहित्य की दुनिया में पत्र-पत्रिकाओं में भी स्थान न पाती रही। उन पर नोटिस लिया जाना तो दूर की बात होती। 1988 में कुछ मित्रों के साथ मिलकर स्थानीय स्तर पर एक कविता फोल्डर फिल्हाल निकालने की कोशिश की थी। यह कविता फिल्हाल-4, जो सितम्बर 89 में प्रकाशित हुआ था,  के पृष्ठों से साभार है।   


राम प्रसाद ’अनुज’

चीड़ का पेड़

तुम चीड़ का पेड़ हो
प्यार और ममता की ऊंचाई में
जो पैदा होता है/ पलता है, बढ़ता है
और जवान होने से पहले ही
तने से रिसते
लीसे की तरह
किश्तों की मौत मरता है।

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तुम चीड़ का पेड़ हो
नयी कोंपल उगने से पहले
जो गिराता रहता है
सूखी पत्तियां
और जमीन पर छोड़ जाता है
ढेर-सा पुराल
जंगल जले
या खाद बने खेतों की
सवाल पुराल के इस्तेमाल का है।



अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।

Sunday, September 13, 2009

यह मेरे आग्रह हैं

मैं व्यक्तिगत   तौर पर विष्णु खरे जी से उतना ही अपरिचित हूं जितना किसी भारत भूषण अग्रवाल सम्मान से सम्मानित कवि से। लेकिन इतने से ही मैं जो कुछ कहूं उसे बिना किसी आग्रहों के लिखा नहीं माना जा सकता है। हां मैं आग्रहों से ग्रसित होकर लिख रहा हूं। उस आग्रह से जिसमें मैं जनतंत्र के लिए सबसे ज्यादा हल्लामचाऊ कौम- साहित्यकारों को ज्यादा गैरजनंतांत्रिक मानने को मजबूर हुआ हूं। आलोचकों से लेकर सम्पादकों तक ही नहीं, संगठनों के भीतर भी गिरोहगर्द होता जाता समय मेरा आग्रह है। मेरे आग्रह हैं कि जब भी किसी रचनाकार का कहीं जिक्र हो रहा है तो वहां जो कुछ भी कहा और लिखा जा रहा है वह पूरी तौर पर न भी हो तो भी कहीं कुछ व्यक्तिगत जैसा तो है ही। इस रूप में भी व्यक्तिगत कि उर्द्धत करने वाला अमुक का जिक्र इसलिए भी कर रहा है कि वह उसी को जानता है। जाने और अन्जाने तरह से कहीं न कहीं उसके कुछ व्यक्तिगत संबंध भी हो सकते हैं। पुरस्कार प्राप्त किसी भी रचनाकार को, या उनकी रचनाओं को कम आंकते हुए नहीं, बस पुरस्कृत होते हुए, इसी रूप में देखना मेरे आग्रह होते गए हैं। आलोचना में दर्ज नामों को भी इसी रूप में देखने को मजबूर होता हूं।  बल्कि कहूं कि आलोचना तो आज शार्ट लिस्टिंग करने की एक युक्ति हो गई है। पाठकों को वही पढ़ने को मजबूर करना, जो किन्हीं गिरोहगर्द स्थितियों के चलते हो रहा है। समकालीन कहानियों पर लिखी जा रही आलोचनात्मक टिप्पणियां तो आज कोई भी उठा कर देख सकता है। जिनमें किसी भी रचनाकार का जिक्र इतनी बेशर्मी की हद तक होने लगा है कि यह उनकी दूसरी कहानी है, यह तीसरी, यह चौथी और बस अगली पांचवी, छठी कहानी आते ही उनकी पूरी किताब, जो अधूरी पड़ी है, पूरी होने वाली है। बाजारू प्रवृत्तियों से ओत-प्रोत वह चलताऊ भाषा जिसमें क्रिकेट की कमेंटरी जैसी उत्तेजना है।
इस पूरे विषय पर कभी विस्तार से लिखने का मन है पर अभी इतना ही कि विष्णु जी की यह टिप्पणी भी मुझे फिर से वही-वही और उन्हीं-उन्हीं को पढ़वाने को मजबूर कर रही है जिसको समय बे समय शार्टलिस्ट किया गया। क्या विष्णु जी मुझे किसी राजेश सकलानी, किसी हरजीत सिंह या ऐसे ही किसी अन्य रचनाकार को पढ़वाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं ( ? ), जिनके नाम भी मैं इसलिए नहीं जान सकता कि वे मेरे शहर में रहते नहीं हैं  और न ही जिन पर कोई टिप्पणी मैंने कभी कहीं पढ़ी और न ही जिनकी रचनाओं से बहुत ज्यादा परिचित होने की स्थितियां इस गिरोहगर्द दौर ने दी। जबकि ये आग्रह, उस तय मानदण्ड में हैं, जिसमें किसी भी रचना को कसौटी पर कसा जा सकता है।

Friday, September 11, 2009

येमेन की युवा कवयित्री की कविताएं

होडा एल्बन का जन्म सन् 1971 में येमिन में हुआ था। होडा ने अपनी मास्टरस डिग्री पॉलिटिकल साइंस में सान्ना यूनिर्वसिटी से सन् 1993 में प्राप्त की। वो अपनी कविताओं के पाठ कई कवि सम्मेलनों में कर चुकी हैं। अभी तक होडा के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पहला संग्रह डामस्कस 1989 में तथा 1998 में तीसरा संग्रह प्रकाशित हुआ। उनकी कई कविताओं को सीमा अतल्ला द्वारा ब्लेसोक और बेनिपाल मैगजीन के लिये अनुवादित किया जा चुका है।

कबाड़

उसके चले जाने के बाद

कुछ भी शेष नहीं बचा उसका

मेरे सिवा...



स्वीकारोक्ती

कई बार रात के बीचो बीच

फूट-फूट पड़ती है मेरी रुलाई...

फिर अपने आंसुओं को मना कर

भेजती हूँ वापस

उन्हीं से आज जगमग है ये दुनिया

और बुझ पायी है मेरी धधक भी...



विभाजन

हम दोनों के बीचो बीच

पसरी हुई है रात

रूप रंग बदलती हुई निरंतर

एक तारा टूटा उसकी चुनर से

स्मृतियों के

ओर जा कर टंग गया सुदूर आकाश में

एकाकी...



बिछोह

तुम हो कि वहां बना रहे हो एक घर

और मैं हूं यहां ढहाती हुई

स्मृतियां एक एक कर

तुम्हारा घर तो खुला रहेगा सारी दुनिया के लिये

पर मेरी स्मृतियां

कुछ भी तो नहीं तुम्हारी निगाहों की पहुंच के सिवा...



समुद्री सफर


क्यों होता है ऐसा

कि जब ऊंघने लगती है हवा

तो बे-वतनी

अचानक फड़फड़ाने लगती हैं

मेरे तंग कपड़ों के अंदर ही अंदर...



क्षतीपूर्ति

जब भी सर्द सड़कें पसरने लगती हैं मेरे सामने

और चुकने लगती है मेरी रज़ाई की तपिश

मैं निकालती हूं उसे अपनी स्मृतियों की तिजोरी से

और लौ जला देती हूं उसमें

कोमलता की तीली से...

अनुवाद : यादवेन्द्र 



इस ब्लाग पत्रिका के सहयोगी लेखकों की तकनीक से एक हद तक परहेज की प्रवृत्ति के चलते पत्रिका को नियमित रूप से अपडेट करने में अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा था। अपनी व्यस्ताताओं से चुराए जा रहे समय में मेरे लिए भी इसे नियमित रूप से अपडेट करना संभव नहीं हो रहा है। विनीता यशस्वी ने न सिर्फ इस पोस्ट को टाइप कर प्रकाशित करने में मद्द की बल्कि इसके साथ ही उन्होंने नियमित रूप से पत्रिका में लेखकीय भागीदारी निभाने का विश्वास भी जताया है। मैं अपने सभी सहयोगी साथियों की ओर से विनीता जी का आभार और स्वागत करते हुए उम्मीद करता हूं कि पत्रिका को नियमित और सामाग्री को समृद्ध करने में वे अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाती रहेंगी।

वि। गौ।

Monday, September 7, 2009

निष्कर्षों तक पहुंचने से पहले के प्रयोग


रचना का संकट उस जटिल यथार्थ को संम्प्रेषित करने से शुरू होता है जिसकी व्याख्या को किसी घटना के मार्फत सरलीकृत करना उसकी पहली शर्त होता है। वह यथार्थ जिसे हम, यानी बहुत ही सामान्य लोग, ठीक से समझ न पा रहे हों। संवेदना की मासिक गोष्ठी में कथाकार नवीन नैथानी
की कहानियों पर आयोजित चर्चा के दौरान वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की यह टिप्पणी न सिर्फ नवीन की कहानियों को समझने के लिए एक जरूरी बिन्दु है बल्कि समग्र रचनात्मक साहित्य को समझने में भी मद्दगार है। कहानी की व्याख्या में उन्होंने स्पष्ट कहा कि जो मुझे जीवन देती है, सघर्ष करने की ताकत देती है, उसे ही मैं कहानी मानता हूं।
नवीन की कहानी पारस को निर्विवाद रूप से सभी चर्चाकारों ने एक ऐसी कहानी के रूप में चिहि्नत किया जिसमें जीवन का संघर्ष कथानायक खोजराम के चरित्र से नये आयाम पाता है। सौरी नवीन कुमार नैथानी की कल्पनाओं का एक ऐसा लोक है जो जीवन की आपाधापी के इस ताबड़तोड़ समय में भी सौरी के बांशिदों को अपने सौरीपन को जिन्दा रखने की कोशिश के साथ है। ललचाऊपन की ओर बढ़ती दुनिया की ओर जाने वाला कोई भी रास्ता सौरी से होकर नहीं गुजरता है।


प्रयोगों से प्राप्त परिणाम के आधार पर जान लिए गए को ही हम विज्ञान मानते हैं, यह विज्ञान की बहुत स्थूल व्याख्या है, कवि राजेश सकलानी का यह वाक्य नवीन की कहानियों में उस वैज्ञानिकता की तलाश करती टिप्पणी का जवाब था जो कार्यकारण संबंधों की स्पष्ट पहचान में ही यथार्थ की पुन:रचना को किसी भी रचना की सार्थकता के लिए एक जरूरी शर्त मानता है। सकलानी ने नवीन की कहानियों की वैज्ञानिकता को स्पष्ट रूप से उन अर्थों में पकड़ने की कोशिश की जिसमें वे उन्हें निष्कर्षों तक पहुंचने से पहले किए गए प्रयोगों के रूप में देखते हैं।


रूड़की में रहने वाले और देहरादून के साथियों मित्र यादवेन्द्र जी ने अपनी उपस्थिति से चर्चा को एक जीवन्त मोड़ देते हुए संग्रह की तीन कहानियों के मार्फत अपनी बात रखी- पारस, आंधी और तस्वीर दिनेशचंद्र जोशी और यादवेन्द्र ने नवीन के कल्पना लोक सौरी को हिन्दी का मालगुड़ी मानते हुए अपनी टिप्पणियों में उसकी सार्थकता को रेखांकित किया। पारस को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए भी यादचेन्द्र जी ने कहानी के अंत से अपनी दोस्ताना असहमति को भी दर्ज किया। दिनेश चंद्र जोशी, कृष्णा खुराना, मनमोहन चढडा, गीता गैरोला और कथाकार जितेन ठाकुर ने अपने लिखित पर्चों पढ़े और कहानियों पर विस्तार से अपनी बातें रखीं। पुनीत कोहली एवं गुरूदीप खुराना ने अपनी-अपनी तरह से नवीन की कहानियों पर बात रखते हुए कहा कि नवीन की कहानियों को किसी एक खांचें में कस कर नहीं देखा जाना चाहिए।
डॉ जितेन्द्र भारती ने नवीन की कहानियों के संदर्भ से बदलाव के संघर्षों में निरन्तर गतिमान रहने वाली एक अन्तर्निहित धारा के बहाव को परिभाषित करते हुए कहा कि नवीन की कहानियां अपने मूल अर्थों में एक चेतना की संवाहक हैं। सहमति और असहमति के मिले-जुले स्वर के बीच पुस्तक पर हुई चर्चा गोष्ठी में कथाकार विद्यासागर नौटियाल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मदन शर्मा, समर भण्डारी, चंद्र बहादुर रसाइली, प्रेम साहिल, इंद्रजीत, मनोज कुमार और प्रमोद सहाय आदि संवेदना के कई मित्र शामिल थे। सौरी की कहानियां नवीन कुमार नैथानी की कहानियों का हाल ही में प्रकाशित पहला कथा संग्रह है।

पिछले दिनों इस दुनिया से विदा हो गए आर्टिस्ट एच एन मिश्रा को गोष्ठी में शिद्दत से याद किया गया और विनम्र श्रद्धाजंली दी गई। मिश्रा एक ऐसे आर्टिस्ट थे जिनकी पेटिंग्स में गणेश के ढेरों रूप आकार पाते हैं। मिथ गणेश के विभिन्न रूपों का सृजन उनका प्रिय विषय था। पेंटर चन्द्रबहादुर ने मिश्रा जी के रचना संसार पर विस्तार से अपनी बात रखी।